चित्र: अनुराग शर्मा |
सडक के बीच जहाँ तहाँ पड़े कचरे और सड़क के किनारे लगे क़ूड़े के ढेरों की महक के बीच भिनभिनाती बड़ी-बड़ी मक्खियाँ। आवारा कुत्तों की चहलकदमी के बीच किसी अलौकिक शांति के धारक, घंटों तक एक ही जगह पर गर्दभासन में चुपचाप खडे गदहे। कच्चे खरंजे के मार्ग के दोनों ओर दोयम दर्ज़े की लाल-भूरी ईंटों से बनी टेढ़ी-मेढ़ी अनगढ दीवारें, बेतरतीब मकान और उनमें ज़बर्दस्ती बनाई हुई टेढ़ी-बुकची दुकानें। दरवाज़े पर बंधी बकरियाँ और राह में गोबर करती भैंसें। बेवजह माँ और बहन की गालियाँ बकते संस्कारहीन लोग। गन्दला पसीना टपकाते, बिना नहाये आदमी-औरतों के बीच आवाज़ लगाकर सामान बेचते इक्का दुक्का रेहड़ी वाले।
लेकिन नई सराय की पहचान इन बातों से नहीं थी। उसकी विशेषता थे विभिन्न प्रकार के नामपट्ट। वास्तविकता से दूर किसी कल्पनालोक में विचरती तख्तियाँ। उदाहरण के लिये भुल्ले की आटे की चक्की पर अग्रवाल फ्लोर मिल की तख्ती, धोबी के ठेले पर “दुनिया गोल ड्राई क्लीनर्स” का बोर्ड, भूरे कम्पाउंडर की दुकान पर डॉ. विष-वास एफ.आर.ऐस.ऐच. की पट्टी और इस्त्री वाले कल्याण के खोखे पर पुता हुआ दिल्ली प्रैस का नाम। गिल्लो मौसी कहती हैं कि पच्चीस साल पहले भी नई सराय इतनी ही पुरानी लगती थी। उनके शब्दों में ऐसी पुरानी-धुरानी और टूटी-फूटी बस्ती का नाम “नई” सराय तो किसी बौराये मतकटे ने ही रखा होगा।
ऐसी प्राचीन नई सराय के विरामपुरे में मेरा पैतृक घर था। गर्मियों की छुट्टियों में अक्सर वहाँ जाना होता था बाबा-दादी से मिलने के बहाने। पुरानी “नई सराय” का नाम भले ही विरोधाभासी हो, विरामपुरा मुहल्ला अपने नाम को पूरी तरह सार्थक करता था। यहाँ पर ज़िन्दगी मानो ज़िन्दगी से थककर विश्राम करने आती थी। अधिकांश घरों के युवा बेटे-बेटी पढ़ने-लिखने या दो जून की रोटियाँ कमाने के उद्देश्य से देश भर के बड़े नगरों की ओर निकले हुए थे। कुछेक नौजवान देशरक्षा का प्रण लेकर दुर्गम वनों और अजेय पर्वतों में डटे हुए थे। अपने व्यक्तिगत जीवन से निर्लिप्त उन गौरवान्वित सैनिकों के बच्चे अपनी गृहकार्य में कुशल, पर बच्चों के पालन पोषण में अल्पशिक्षित माताओं के भरोसे ऐंचकताने कपड़े पहने विरामपुरे की धूल भरी गलियों के झुरमुट में कन्चे खेलते और घरेलू गालियाँ सीखते या उनका अभ्यास करते हुए मिल जाते थे।कुछ घरों में इंजीनियरिंग या मेडिकल की तैयारी करते बच्चे भी थे। और कुछ घरों में इनसे कुछ बड़े बच्चे रोज़गार समाचार और नागरिक सेवा परीक्षा के गैस पेपर्स में अपना भविष्य ढूँढते थे। गर्मियों की छुट्टियों में हम जैसे प्रवासी पक्षी भी लगभग हर घर में दिख जाते थे। तो भी यदि मैं कहूँ कि कुल मिलाकर विरामपुरे में केवल रजतकेशी सेवानिवृत्त ही नियमित दिखते थे तो शायद गलत न होगा।
[क्रमशः]
यह तो शब्दों की चित्रकारी हो गई! वाह!!
ReplyDelete'उसने कहा था' और 'माँ' की याद हो आई। अनुरागी मन के अनुराग पर दृष्टि बनी रहेगी।
विरामपुरे का ट्रेलर काफी आकर्षित कर रहा है इसे यहीं मत रोक दीजियेगा !
ReplyDeleteस्टेज देख कर लग रहा है कि कथानक दमदार होगा।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शुरुवात है....... दिल को भा गयी ........
ReplyDeleteपुरानी यादों की जुगा्ली वाकई में दिली सुकून तो देते हे है, भविष्य के सुखभरे दिनों के लिये पाया बन देते हैं.
ReplyDeleteनई सराय और विरामपुरे की कथा अच्छी लग रही है। कहानी के अगले अंक का इंतजार है।
ReplyDeleteएक कोशीश की है ...
ReplyDeleteनिवेदन: प्रयास करूंगी कि "अनुरागी मन" कहानी में लम्बा गतिरोध न आये फिर भी मनस्थिति और व्यस्तता के बारे में पहले से कुछ भी कहना कठिन है.........
नयी सराय और विरामपुर मोहल्ला ...रोचक वर्णन ..
ReplyDeleteदेखें कहानी कितनी अनुरागी होगी ...!
'कुल मिलाकर विरामपुरे में केवल रजतकेशी सेवानिवृत्त ही नियमित दिखते थे'
ReplyDelete- उत्तराखंड के अनेक गावों की यही स्थिति है.
शब्दों से चित्रकारी ..... सच में चित्र की तरह घूम गया परिवेश ....
ReplyDeleteशब्दों से चित्रकारी ..... सच में चित्र की तरह घूम गया परिवेश ....
ReplyDelete...
ReplyDeleteकई दिनों में आज कम्प्यूटर खोला है। आपकी कहानियॉं अपनी पहली ही कडी में जिज्ञासा भाव पैदा कर देती हैं। इस कहानी के साथ भी यही हुआ है। कम्प्यूटर खोलने में आलस्य का लाभ मुझे यह मिलेगा कि इस कहानी की सारी कडियॉं एक साथ पढने को मिलेंगी।
ReplyDeleteक्या शब्द चित्र खींचा है आपने...सबकुछ सामने साकार हो गया...
ReplyDeleteलेकिन नई सराय की पहचान इन बातों से नहीं थी। उसकी विशेषता थे विभिन्न प्रकार के नामपट्ट। वास्तविकता से दूर किसी कल्पनालोक में विचरती तख्तियाँ। उदाहरण के लिये भुल्ले की आटे की चक्की पर अग्रवाल फ्लोर मिल की तख्ती, धोबी के ठेले पर “दुनिया गोल ड्राई क्लीनर्स” का बोर्ड, भूरे कम्पाउंडर की दुकान पर डॉ. विष-वास एफ.आर.ऐस.ऐच. की पट्टी और इस्त्री वाले कल्याण के खोखे पर पुता हुआ दिल्ली प्रैस का नाम। गिल्लो मौसी कहती हैं कि पच्चीस साल पहले भी नई सराय इतनी ही पुरानी लगती थी। उनके शब्दों में ऐसी पुरानी-धुरानी और टूटी-फूटी बस्ती का नाम “नई” सराय तो किसी बौराये मतकटे ने ही रखा होगा।
ReplyDeleteI guess this is the best paragraph ...like you took us back to those school days ...massab and danda , gilli aur wicket
सजीव, सप्राण मस्तिष्क में कैद रेखा चित्र आज जीवन की तरह जीते जागते पात्र हो उठे हैं -
ReplyDeleteआपका लेखन एक साथ पढने का आनंद जारी है :)
बहुत बहुत मुबारकबादी व हार्दिक शुभेच्छाएं
स स्नेह
- लावण्या
@ कम्प्यूटर खोलने में आलस्य का लाभ मुझे यह मिलेगा कि इस कहानी की सारी कडियॉं एक साथ पढने को मिलेंगी।
ReplyDeleteविष्णु जी,
तब अन्दाज़ नहीं था पर आज जब यह कमेंट देखा तो ध्यान गया कि 16 पन्ने (21 कड़ियाँ) में 13 महीने लगा देने वाले हम आपसे बड़े आलसी निकले।