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Monday, June 1, 2020

विदेह - लघुकथा

Anurag Sharma

"मैं बहुत अकेला हो गया हूँ। तुम्हारी माँ तो मेरा मुँह देखना भी पसंद नहीं करती। तुम भी कितने अरसे बाद आये हो बेटा। अब मुझे बहुत डर लगता है। … देखो, हमारे घर के सब कमरे ग़ायब हो गये हैं, बस यह एक बैडरूम बचा है, यह भी कितना सिकुड़ गया है।"

पिता एक साँस में जाने कितना कुछ कह गए थे। उनकी बातें सुनकर राज का दिल रो उठा था। माँ कब की जा चुकी थीं। पिता भी घर में नहीं, वृद्धाश्रम में थे। भूलने की बीमारी धीरे-धीरे उनकी याद्दाश्त खा रही थी। सदा सक्षम और योग्य रहे पिता को इस हाल में देखना राज के लिये कठिन था। घर ही नहीं, बाहर के संसार में भी पिता सराहे जाते थे। वे अपने विषय के विशेषज्ञ तो रहे ही थे, दुनिया भर के लोग व्यक्तिगत सलाह के लिये भी उनके पास आते थे। राज खुद भी अपनी हर चिंता, हर भय को पिता के हवाले करके निश्चिंत हो जाता था।

भीगी आँखों से कुछ कहने के बजाय वह पिता के गले लग गया। पिता के कंधे पर अपना सिर रखे-रखे ही उसे पिता की हँसी सुनाई दी। उसने मुस्कुराकर पूछा, "क्या याद आ गया पापा?"

"याद है, जब तू छोटा सा था, एक दिन आकर मुझसे लिपट गया। बिल्कुल आज के जैसे ही भीगी आँखों के साथ। पता है तूने क्या कहा था?"

"बताइये न पापा!" दोनों आमने-सामने खड़े थे और राज एक बार फिर अपने बचपन का वह किस्सा किसी बच्चे की तरह ध्‍यान से सुन रहा था। पिता उसे यह किस्सा पहले भी सैकड़ों बार सुना चुके थे। वह छह-सात साल का रहा होगा जब एक दिन पिता से लिपटकर माफ़ी मांगते हुए कहने लगा, "सॉरी पापा, टीनएजर होने के बाद अगर ग़लती से मैं कभी आपसे बदतमीज़ी करूँ, तो उसके लिये अभी से सॉरी बोल रहा हूँ!"

राज ने किसी टीवी सीरीज़ में कुछ नकचढ़े टीनएजर्स को अपने माता-पिता का अपमान करते हुए देखा था और समझा कि किशोरावस्था में सब बच्चे प्राकृतिक रूप से ही ऐसे हो जाते हैं।

"सॉरी बेटा।" किस्सा पूरा करके पिता राज से लिपटकर माफ़ी मांगते हुए रोने लगे।

"पापा, अब आप क्यों रो रहे हैं? मैंने तो माफ़ी मांग ली थी न।"

"मैं अब भूलने लगा हूँ बेटा। थोड़ा और बुढ़ा जाऊँगा तो शायद तुझे भी भूल जाऊँगा। इसलिये माफ़ी माँगना चाहता हूँ क्योंकि तब शायद यह भी भूल जाऊँ कि माफ़ी क्या होती है। सॉरी!"

Saturday, March 28, 2020

आस्तिक - लघुकथा

गर्मागरम बहस चल रही थी। एक ने अखण्ड विश्वास से कहा, “जितना दिख रहा है, वही सब संसार है। हम इसी में से एक बार जन्म लेते हैं, और फिर मरकर इसी में मिल जाते हैं। न कोई और विश्व है, न कहीं और जीवन।”

“हाँ, रोज़ मीलों चलते हैं, दबाव में काम करते हैं, अपने-अपने दायित्व की पूर्ति करते हैं, और फिर वक़्त आने पर यह ज़िम्मेदारी नई पीढ़ी को सौंपकर विदा ले लेते हैं” एक संतोषी-मुख ने कहा।


“लेकिन, ऐसा भी तो हो सकता है कि हमारे संसार के जैसे और भी हों, शायद एक दो, … या फिर, हज़ारों-लाखों ... कौन जाने?” किसी ने संशय व्यक्त किया।


“अरे, ये सब उन मूर्ख आस्तिकों की चोंचलेबाज़ी है। जो दिख रहा है उस पर विश्वास नहीं, चले हैं दूसरे ब्रह्माण्ड बनाने।” दुखी चेहरे वाले बुज़ुर्ग झुंझलाने लगे।


एक प्रसन्नमना युवती ने एक उत्साही युवक को इंगित करते हुए कहा, “लेकिन ये तो दावे के साथ कह रहे हैं कि हमारे संसार के जैसे संसार और भी हैं।”


सबकी दृष्टि उस ओजस्वी युवक की ओर गई। किसी ने भी उसे पहले नहीं देखा था। अफ़वाहें थीं कि कुछ नए बाहरी लोग किसी तरह घुस आये हैं। लेकिन तर्क इसकी गवाही नहीं देता। आज तक इस संसार में हम सब एक दूसरे से सम्बद्ध हैं। बाहरी कुछ आता है तो वह इतना अलग होता है कि तंत्र उसे पहचानकर जल्दी ही नष्ट कर देता है। परंतु यह आगंतुक तो बिल्कुल हमारे ही जैसा है, रत्ती भर भी अंतर नहीं।


“हाँ, मेरा संसार दूसरा था। न जाने क्या हुआ कि हम में से कुछ लोग अपनों से बिछड़कर अचानक यहाँ आप लोगों के बीच आ गये। अच्छी बात यही है कि यह संसार भी हमारे जैसा ही है, वरना उलझन होती ...” ओजस्वी युवक ने आराम से कहा।


“बकवास बंद करो। तंग आ गया हूँ युवा पीढ़ी की कल्पनाशीलता देखकर। जब देखो ख्याली पुलाव पकाते रहते हैं, … एलियन, टाइम ट्रैवल, और न जाने क्या-क्या” दुखी चेहरे वाले बुज़ुर्ग क्रोधित थे।


भीड़-भड़क्का देखकर एक युवा दस्ता इस ओर बढ़ा। वे सब के सब नये थे, और इस युवक जैसे ही तेजस्वी भी। उन्होंने युवक की बात की पुष्टि करते हुए बताया कि वे सब एक साथ यहाँ पहुँचे हैं।

भीड़ ने उनका विश्वास नहीं किया। डॉक्टरों द्वारा एक भिन्न शरीर से निकालकर इस नये शरीर में पहुँचाई गयी नई रक्त कोशिकाएँ तो बेचारी खुद ही रक्तदान का रहस्य समझ नहीं सकी थीं, अन्य कोशिकाओं को कैसे समझातीं?   

Anurag Sharma

Saturday, February 8, 2020

विभाजन - एक ग़ज़ल

कथा तुमने लिखी अपनी, मगर किस्सा हमारा था
किताबों पर नहीं दिल में भी, मेरे घर तुम्हारा था।

हमारी बात सुनने का, कभी न वक्त तुम पर था
सदायें लौटकर आईं, तुम्हें जब-जब पुकारा था।

आज़ादी तुमने चाही थी, सदा तुमको मिली भी थी
मगर मुझको मिले मुक्ति, नहीं तुमको गवारा था।

हमारा घर बचा रहता, जो संग-संग तुम चले होते
जब भी तुमने तोड़ा घर, तो मैंने फिर सँवारा था।

दीवारें ढह गईं सारी, धरातल भी हुआ अस्थिर
उड़ा जब तिनकों में छप्पर, बड़ा बेढब नज़ारा था॥

Tuesday, July 9, 2019

कुछ साक्षात्कार

विडियो Video


हिंदी सम्पादन की चुनौतियाँ - टैग टीवी कैनैडा पर अनुराग शर्मा, सुमन घई और शैलजा सक्सेना
Anurag Sharma with Suman Ghai and Shailja Saxena on Tag TV Canada



मॉरिशस टीवी पर डॉ. विनय गुदारी के साथ अनुराग शर्मा का साक्षात्कार
Anurag Sharma's Interview by Dr. Vinay Goodary on Mauritius TV



आप्रवासी साहित्य सृजन सम्मान का फ़्रैंच समाचार French News about MGI Mauritius Award



अनुराग शर्मा का साक्षात्कार (अंग्रेज़ी में) In discussion with Sparsh Sharma (English)

ऑडियो Audio
एनएचके (जापान) पर अनुराग शर्मा से नीलम मलकानिया की वार्ता
Neelam Malkania speaks to Anurag Sharma on NHK Radio (Japan)

रेडियो सलाम नमस्ते (अमेरिका) पर अनुराग शर्मा का साक्षात्कार
Hindi Interview with Anurag Sharma on Radio Salam Namaste, Texas





मुद्रित, व अन्य Print and Online

Monday, January 28, 2019

बलिहारी गुरु आपने …

(अनुराग शर्मा)


लल्लू: मालिक, जे इत्ते उमरदार लोग आपके पास लिखना-पढ़ना सीखने क्यों आते हैं?

साहब: गधे हैं इसलिये आते हैं। सोचते हैं कि लिखना सीखकर कवि-शायर बन जायेंगे और मुशायरे लूट लाया करेंगे।

लल्लू: मुशायरों में तो बहुत भीड़ होती है, लूटमार करेंगे तो लोग पीट-पीट के मार न डालेंगे?

साहब: अरे लल्लू, तू भी न... बस्स! अरे वह लूट नहीं, लूट का मतलब है बढ़िया शेर सुनाकर वाहवाही लूट लेना।

लल्लू: तो उन्हें पहले से लिखना नहीं आता है क्या?

साहब: न, बिल्कुल नहीं आता। अव्वल दर्ज़े के धामड़ हैं, सब के सब।

लल्लू: लेकिन मालिक... आप तौ उनकी बात सुनकर वाह-वाह, जय हो, गज्जब, सुभानल्ला ऐसे कहते हैं जैसे उन्हें बहुत अच्छा लिखना पहले से आता हो।

साहब: तारीफ़ करता हूँ, तभी तो ये प्यादे मुझे गुरु मानते हैं। लिखना सिखा दूंगा तो मुझ से ही सीखकर मुझे ही सिखाने लगेंगे, बुद्धू।


[समाप्त]

Tuesday, October 2, 2018

लघुकथा: तर्पण


गंगा घाट के निकट उसे मेहनत से मसूर के खेत में पानी देते देखकर दिल्ली से आये पर्यटक से रहा न गया। पास जाकर कंधे पर हाथ रखकर पूछा, “कितनी फसल होती है तुम्हारे खेत में?”

“यह मेरा खेत नहीं है।”

“अच्छा! यहाँ मज़दूरी करते हो? कितने पैसे मिल जाते हैं रोज़ के?”

“जी नहीं, मैं यहाँ नहीं रहता, कर्नाटक से तीर्थयात्रा के लिये आया था। गंगाजी में पितृ तर्पण करने के बाद यूँ ही सैर करते-करते इधर निकल आया।”

“न मालिक, न नौकर! फिर क्यों हाड़ तोड़ रहे हो? इसमें तुम्हारा क्या फ़ायदा?”

“हर व्यक्ति, हर काम फ़ायदे के लिये करता तो संसार में कुछ भी न बचता ...” वह मुस्कुराया, “खेत किसका है, मालिक कौन है, इससे मुझे क्या?”

“हैं!?”

“... भूड़ में सूखती फसल देखी तो लगा कि इसे भी तर्पण की आवश्यकता है।”

Anurag Sharma

Saturday, July 1, 2017

हिंदी ब्लॉगिंग का सत्यानाश #हिन्दी_ब्लॉगिंग

सन 2008 की गर्मियों में जब मैंने यूनिकोड और लिप्यंतरण (ट्रांसलिटरेशन) की सहायता से हिंदी ब्लॉग लेखन आरम्भ किया तब से अब तक के चिठ्ठा-जगत में आमूलचूल परिवर्तन आ चुका है। यदि वह ब्लॉगिंग का उषाकाल था तो अब सूर्यास्त के बाद की रात है। अंधेरी रात का सा सन्नाटा छाया हुआ है जिसमें यदा-कदा कुछ ब्लॉगर कवियों की रचनाएँ खद्योतसम टिमटिमाती दिख जाती हैं। इन नौ-दस वर्षों में आखिर ऐसा क्या हुआ जो हिन्दी ब्लॉगिंग का पूर्ण सत्यानाश हो गया?

एक कारण तो बहुत स्पष्ट है। ब्लॉगिंग में बहुत से लोग ऐसे थे जो यहाँ लिखने के लिये नहीं, बातचीत और मेल-मिलाप के लिये आये थे। ब्लॉगिंग इस कार्य के लिये सर्वश्रेष्ठ माध्यम तो नहीं था लेकिन फिर भी बेहतर विकल्प के अभाव में काम लायक जुगाड़ तो था ही। वैसे भी एक आम भारतीय गुणवत्ता के मामले में संतोषी जीव है और जुगाड़ को सामान्य-स्वीकृति मिली हुई है। खाजा न सही भाजी सही, जो उपलब्ध था, उसीसे काम चलाते रहे। ब्लॉगर मिलन से लेकर ब्लॉगिंग सम्मेलन तक काफ़ी कुछ हुआ। लेकिन जब फ़ेसबुक जैसा कुशल मिलन-माध्यम (सोशल मीडिया) हाथ आया तो ब्लॉगर-मित्रों की मानो लॉटरी खुल गई। त्वरित-चकल्लस के लिये ब्लॉगिंग जैसे नीरस माध्यम के मुकाबले फ़ेसबुक कहीं सटीक सिद्ध हुई। मज़ेदार बात यह है कि ब्लॉगिंग के पुनर्जागरण के लिये चलाया जाने वाला '#हिन्दी_ब्लॉगिंग' अभियान भी फ़ेसबुक से शक्तिवर्धन पा रहा है।

तकनीकी अज्ञान के चलते बहुत से ब्लॉगरों ने अपने-अपने ब्लॉग को अजीबो-गरीब विजेट्स का अजायबघर बनाया जिनमें से कई विजेट्स अधकचरे थे और कई तो खतरनाक भी। कितने ही ब्लॉग्स किसी मैलवेयर या किसी अन्य तकनीकी खोट के द्वारा अपहृत हुए। उन पर क्लिक करने मात्र से पाठक किन्हीं अवाँछित साइट्स पर पहुँच जाता था। तकनीकी अज्ञान ने न केवल ऐसे ब्लॉगरों के अपने कम्प्यूटर को वायरस या मैलवेयर द्वारा प्रदूषित कराया बल्कि वे जाने-अनजाने अपने पाठकों को भी ऐसे खतरों की चपेट में लाने का साधन बने।

हिंदी के कितने ही चिट्ठों के टिप्पणी बॉक्स स्पैम या अश्लील लिंक्स से भरे हुए हैं। कुछ स्थितियों में अनामी, और कुछ अन्य स्थितियों में नाम/यूआरएल का दुरुपयोग करने वाले  टिप्पणीकार समस्या बने। टिप्पणी मॉडरेशन इन समस्याओं का सामना करने में सक्षम है। मैंने ब्लॉगिंग के पहले दिन से ही मॉडरेशन लागू किया था और कुछ समय लगाकर अपने ब्लॉग की टिप्पणी नीति भी स्पष्ट शब्दों में सामने रखी थी जिसने मुझे अवांछित लिंक्स चेपने वालों के बुरे इरादे के प्रकाशन की ब्लॉगिंग-व्यापी समस्या से बचाया। मॉडरेशन लगाने से कई लाभ हैं। इस व्यवस्था में सारी टिप्पणियाँ एकदम से प्रकाशित हो जाने के बजाय पहले ब्लॉगर तक पहुँचती हैं, जिनका निस्तारण वे अपने विवेकानुसार कर सकते हैं। जो प्रकाशन योग्य हों उन्हें प्रकाशित करें और अन्य को कूड़ेदान में फेंकें।

टिप्पणी के अलावा अनुयायियों (फ़ॉलोअर्स) की सूची को भी चिठ्ठाकारों की कड़ी दृष्टि की आवश्यकता होती है। कई ऐसे ब्लॉगर जिन्हें ग़ैरकानूनी धंधों की वजह से जेल में होना चाहिये, अपने लिंक्स वहाँ चेपते चलते हैं। यदि आपने अपने ब्लॉग पर फ़ॉलोअर्स का विजेट लगाया है तो बीच-बीच में इस सूची पर एक नज़र डालकर आप अपनी ज़िम्मेदारी निभाकर उन्हें ब्लॉक भी कर सकते हैं और रिपोर्ट भी। वैसे भी नए अनुयाइयों के जुड़ने पर उनकी जाँच करना एक अच्छी आदत है।

कितने ही ब्लॉग 'जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु:' के सिद्धांत के अनुसार बंद हुए। किसी ने जोश में आकर लिखना शुरू किया और होश में आकर बंद कर दिया। कितने ही ब्लॉग हिंदी चिट्ठाकारी के प्रवक्ताओं के 'सदस्यता अभियान' के अंतर्गत बिना इच्छाशक्ति के जबरिया खुला दिये गये थे, उन्हें तो बंद होना ही था। लेकिन कितने ही नियमित ब्लॉग अपने लेखक के देहांत के कारण भी छूटे। पिछले एक दशक में हिंदी ब्लॉगिंग ने अनेक गणमान्य ब्लॉगरों को खोया है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।

केवल तकनीक ही नहीं कई बार व्यक्ति भी हानिप्रद सिद्ध होते हैं। हिन्दी चिठ्ठाकारी का कुछ नुकसान ऐसे हानिप्रद चिट्ठाकारों ने भी किया। घर-परिवार से सताए लोग जो यहाँ केवल कुढ़न निकालने के लिये बैठे थे उन्होंने सामाजिक संस्कारों के अभाव और असभ्यता का प्रदर्शन कर माहौल को कठिन बनाया जिसके कारण कई लोगों का मन खट्टा हुआ। कुछ भोले-भाले मासूम ब्लॉगर जो शुरू में ऐसे लोगों को प्रमोट करते पाये गये थे बाद में सिर पीटते मिले लेकिन तब तक चिट्ठाकारी का बहुत अहित हो चुका था। कान के कच्चे और जोश के पक्के ब्लॉगरों ने भी कई फ़िज़ूल के झगड़ों की आग में जाने-अनजाने ईंधन डालकर कई ब्लॉग बंद कराए।

गोबरपट्टी की "मन्ने के मिलेगा?" की महान अवधारणा भी अनेक चिट्ठों की अकालमृत्यु का कारण बनी। ब्लॉगिंग को कमाई का साधन समझकर पकड़ने वालों में कुछ तो ऐसे थे जिन्होंने अन्य चिठ्ठाकारों की कीमत पर कमाई की भी लेकिन अधिकांश के पल्ले कुछ नहीं पड़ा। विकीपीडिया से ब्लॉग और ब्लॉग से विकीपीडिया तक टीपीकरण की कई यात्राएँ करने, भाँति-भाँति के विज्ञापनों से लेकर किसम-किसम की ठगी स्कीमों से निराश होने के बाद ब्लॉगिंग से मोहभंग स्वाभाविक ही था। सो यह वाला ब्लॉगर वर्ग भी सुप्तावस्था को प्राप्त हुआ। हालांकि ऐडसेंस आदि द्वारा कोई नई घोषणा आदि होने की स्थिति में यह मृतपक्षी अपने पर फ़ड़फ़ड़ाता हुआ नज़र आ जाता है।

हिंदी ब्लॉगरों के सामूहिक सामान्य-अज्ञान ने भी ब्लॉगिंग का अहित किया। मौलिकता का पूर्णाभाव, अभिव्यक्ति की स्तरहीनता, विशेषज्ञता की कमी के साथ, चोरी के चित्र, चोरी की लघुकथाएँ मिल-मिलाकर कितने दिन चलतीं। कॉपीराइट स्वामियों की शिकायतों पर चोरी की कुछ पोस्टें तो खुद हटाई गईं लेकिन कितने ही ब्लॉग कॉपीराइट स्वामियों की शिकायतों पर ब्लॉगर या वर्डप्रैस आदि द्वारा बंद कर दिये गये।

बहुत से ब्लॉगर उचित प्रोत्साहन के अभाव में भी टूटे। एक तो ये नाज़ुकमिज़ाज़ सरलता से आहत हो जाते थे, ऊपर से स्थापित मठाधीशों को अपने राजपथ से आगे की तंग गलियों में जाने की फ़ुरसत नहीं थी। कइयों के टिप्पणी बक्सों में लगे वर्ड वेरिफ़िकेशन जैसे झंझटों ने भी इनके ब्लॉग को टिप्पणियों से दूर किया। बची-खुची कसर उन तुनकमिज़ाज़ों ने पूरी कर दी जो टिप्पणी में सीधे जंग का ऐलान करते थे। कोई सामान्य ब्लॉगर ऐसी खतरनाक युद्धभूमि में कितनी देर ठहरता? सो देर-सवेर घर को रवाना हुआ। यद्यपि कई अस्थिर-चित्त ब्लॉगर ऐसे भी थे जो हर तीसरे दिन टंकी आरोहण की घोषणा सिर्फ़ इसी उद्देश्य से करते थे कि लोग आकर मनाएंगे तो कुछ टिप्पणियाँ जुटेंगी। किसे खबर थी कि उनकी चौपाल भी एक दिन वीरान होगी।

ऐसा नहीं है कि ब्लॉगिंग छूटने के सभी कारण निराशाजनक ही हों। बहुत से लोगों को ब्लॉगिंग ने अपनी पहचान बनाने में सहायता की। कितने ही साथी ब्लॉगर बनने के बाद लेखक, कवि और व्यंग्यकार बने। उनकी किताबें प्रकाशित हुईं। कुछ साथी ब्लॉगिंग के सहयोग से क्रमशः कच्चे-पक्के सम्पादक, प्रकाशक, आयोजक, पुरस्कारदाता, और व्यवसायी भी बने। कितनों ने अपनी वैबसाइटें बनाईं, पत्रिकाएँ और सामूहिक ब्लॉग शुरू किये। कुछ राजनीति से भी जुड़े।

खैर, अब ताऊ रामपुरिया के हिन्दी ब्लॉगिंग के पुनर्जागरण अभियान के अंतर्गत 1 जुलाई को "अंतरराष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉगिंग दिवस" घोषित किये जाने की बात सुनकर आशा बंधी है कि हम अपनी ग़लतियों से सबक लेंगे और स्थिति को बेहतर बनाने वालों की कतार में खड़े नज़र आयेंगे।

शुभकामनाएँ!

Tuesday, October 25, 2016

अनंत से अनंत तक - कविता

(अनुराग शर्मा)

जीवन क्या है एक तमाशा
थोड़ी आशा खूब निराशा

सब लीला है सब माया है
कुछ खोया है कुछ पाया है

न कुछ आगे न कुछ पीछे
कुछ ऊपर ही न कुछ नीचे

जो चाहे वो अब सुन कहले
उस बिन्दु से न कुछ पहले

उस बिन्दु के बाद नहीं कुछ
होगा भी तो याद नहीं कुछ

जो कुछ है वह सभी यहीं है
जितना सुधरे वही सही है.
सेतु हिंदी काव्य प्रतियोगिता में आपका स्वागत है, संशोधित अंतिम तिथि: 10 नवम्बर, 2016

Tuesday, September 13, 2016

ये दुनिया अगर - कविता

(अनुराग शर्मा)

बारूद उगाते हैं बसी थी जहाँ केसर
मैं चुप खड़ा कब्ज़े में है उनके मेरा घर

कैसे भला किससे कहूँ मैं जान न पाऊँ
दे न सकूँ आवाज़ मुझे जान का है डर

नक्सल कहीं माओ कहीं बैठे हैं जेहादी
कंधे बड़े लेकिन नहीं दीखे है कहीं सर

कोई अमल होता नहीं बेबस हुआ हाकिम
दर पे तेरे पटक के ये सर जायेंगे हम मर

बदलाव कभी आ नहीं सकता है वहाँ पे
परचम बगावत का हुआ चोरी जहाँ पर

Wednesday, September 7, 2016

शाब्दिक हिंसा - मत करो (कविता)

लोग अक्सर शाब्दिक हिंसा की बात करते हुए उसे वास्तविक हिंसा के समान ठहराते हैं. फ़ेसबुक पर एक ऐसी ही पोस्ट देखकर निम्न उद्गार सामने आये. शब्दों को ठोकपीट कर कविता का स्वरूप देने के लिये सलिल वर्मा जी का आभार. (अनुराग शर्मा)

मत करो
मत करो तुलना
कलम-तलवार में
और समता
शब्द और हथियार में
ताण्डव करते हुये हथियार हैं
शब्द पीड़ा-शमन को तैयार हैं

कुछ बुराई कर सके
अपशब्द माना
वह भी तभी जब
मैं समझ पाऊँ
गिरी भाषा तुम्हारी
और निर्बलता मेरी
आहत मुझे कर दे ज़रा
कुछ भी कहो
सामान्यतः
हर शब्द ने है
दर्द अक्सर ही हरा

लेकिन तुम्हारी
आईईडी, बम, और बरसती गोलियाँ
इनसे भला किसका हुआ
हर कोई बस है मरा
नारी-पुरुष, आबाल-वृद्ध
कोई नहीं है बच सका
जो सामने आया
वही जाँ से गया

शब्द और हथियार की तुलना
तो केवल बचपने की बात है
ध्यान से सोचें तनिक तो
ये किन्हीं हिंसक दलों की
इक गुरिल्ला घात है

इनके कहे पर मत चलो तुम
वाद या मज़हब,
किसी भी बात पर
इनका हुकुम मानो नहीं तुम
छोड़कर हिंसा को ही
संसार यह आगे बढ़ा है
नर्क तल में और हिम ऊपर चढ़ा है
बस चेष्टा इतनी करो
हिंसा से तुम बचकर रहो
जब भी कहो, जैसा कहो, बस सच कहो
और धैर्य धर सच को सहो

शब्द से उपचार भी सम्भव है जग में
प्रेम तो नि:शब्द भी करता है अक्सर
फिर भला नि:शस्त्र होना
हो नहीं सकता है क्यों
पहला कदम इंसानियत के नाम पर
कर जोड़कर
कर लो नमन, हथियार छोड़ो
अग्नि हिंसा की बुझाने के लिये तुम
आज इस पर बस ज़रा सा प्रेम छोड़ो!

Thursday, July 30, 2015

मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन - 31 जुलाई

मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ ... मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६)
मुंशी प्रेमचंद का हिन्दी कथा संकलन मानसरोवर
आज मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन है। हिन्दी और उर्दू साहित्य में रुचि रखने वाला कोई विरला ही होगा जो उनका नाम न जानता हो। हिन्दी (एवं उर्दू) साहित्य जगत में यह नाम एक शताब्दी से एक सूर्य की तरह चमक रहा है। विशेषकर, ज़मीन से जुड़े एक कथाकार के रूप में उनकी अलग ही पहचान है। उनके पात्रों और कथाओं का क्षेत्र काफी विस्तृत है फिर भी उनकी अनेक कथाएँ भारत के ग्रामीण मानस का चित्रण करती हैं। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। वे उर्दू में नवाब राय और हिन्दी में प्रेमचंद के नाम से लिखते रहे। आम आदमी की बेबसी हो या हृदयहीनों की अय्याशी, बचपन का आनंद हो या बुढ़ापे की जरावस्था, उनकी कहानियों में सभी अवस्थाएँ मिलेंगी और सभी भाव भी। अपने साहित्यिक जीवनकाल में उन्होने सैकड़ों कहानियाँ और कुछ लेख, उपन्यास व नाटक भी लिखे। उनकी कहानियों पर फिल्में भी बनी हैं और अनेक रेडियो व टीवी कार्यक्रम भी। उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसंबर १९१५ के अंक में "सौत" शीर्षक से प्रकाशित हुई थी और उनकी अंतिम प्रकाशित (१९३६) कहानी "कफन" थी।
जिस युग में उन्होंने लिखना आरंभ किया, उस समय हिंदी कथा-साहित्य जासूसी और तिलस्मी कौतूहली जगत् में ही सीमित था। उसी बाल-सुलभ कुतूहल में प्रेमचंद उसे एक सर्व-सामान्य व्यापक धरातल पर ले आए। ~ महादेवी वर्मा

प्रेमचंद की हिन्दी कथाओं की ऑडियो सीडी
मैं पिछले लगभग सात वर्षों से इन्टरनेट पर देवनागरी लिपि में उपलब्ध हिन्दी (उर्दू एवं अन्य रूप भी) की मौलिक व अनूदित कहानियों के ऑडियो बनाने से जुड़ा रहा हूँ। विभिन्न वाचकों द्वारा "सुनो कहानी" और "बोलती कहानियाँ" शृंखलाओं के अंतर्गत पढ़ी गई कहानियों में से अनेक कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद की हैं। आप उनकी कालजयी रचनाओं को घर बैठे अपने कम्प्युटर या चल उपकरणों पर सुन सकते हैं। प्रेमचंद की कुछ कहानियो से हिन्द युग्म ने एक ऑडियो सीडी भी जारी की थी। कुछ चुनिन्दा ऑडियो कथाओं के लिंक यहाँ संकलित हैं। आशा है आपको पसंद आएंगे। यदि आप उनकी (या अपनी पसंद के किसी अन्य साहित्यकार की हिन्दी में मौलिक या अनूदित) कोई कथा विशेष सुनना चाहते हों तो अवश्य बताइये ताकि उसे रेडियो प्लेबैक इंडिया के साप्ताहिक "बोलती कहानियाँ" कार्यक्रम में सुनवाया जा सके।
मुंशी प्रेमचंद की 57 कहानियों के ऑडियो का भंडार, 4 देशों से 9 वाचकों के स्वर में

(31 जुलाई 1880 - 8 अक्तूबर 1936)
सौत (शन्नो अग्रवाल) [दिसंबर १९१५]
निर्वासन (अर्चना चावजी और अनुराग शर्मा)
आत्म-संगीत (शोभा महेन्द्रू और अनुराग शर्मा)
प्रेरणा (शोभा महेन्द्रू, शिवानी सिंह एवं अनुराग शर्मा)
बूढ़ी काकी (नीलम मिश्रा)
ठाकुर का कुआँ' (डॉक्टर मृदुल कीर्ति)
स्त्री और पुरुष (माधवी चारुदत्ता)
शिकारी राजकुमार (माधवी चारुदत्ता)
मोटर की छींटें (माधवी चारुदत्ता)
अग्नि समाधि (माधवी चारुदत्ता)
मंदिर और मस्जिद (शन्नो अग्रवाल)
बड़े घर की बेटी (शन्नो अग्रवाल)
पत्नी से पति (शन्नो अग्रवाल)
पुत्र-प्रेम (शन्नो अग्रवाल)
माँ (शन्नो अग्रवाल)
गुल्ली डंडा (शन्नो अग्रवाल)
दुर्गा का मन्दिर' (शन्नो अग्रवाल)
आत्माराम (शन्नो अग्रवाल)
नेकी (शन्नो अग्रवाल)
मन्त्र (शन्नो अग्रवाल)
पूस की रात (शन्नो अग्रवाल)
स्वामिनी (शन्नो अग्रवाल)
कायर (अर्चना चावजी)
दो बैलों की कथा (अर्चना चावजी)
खून सफ़ेद (अर्चना चावजी)
अमृत (अनुराग शर्मा)
अपनी करनी (अनुराग शर्मा)
अनाथ लड़की (अनुराग शर्मा)
अंधेर (अनुराग शर्मा)
आधार (अनुराग शर्मा)
आख़िरी तोहफ़ा (अनुराग शर्मा)
इस्तीफा (अनुराग शर्मा)
ईदगाह (अनुराग शर्मा)
उद्धार (अनुराग शर्मा)
कौशल (अनुराग शर्मा)
क़ातिल (अनुराग शर्मा)
घरजमाई (अनुराग शर्मा)
ज्योति (अनुराग शर्मा)
बंद दरवाजा (अनुराग शर्मा)
बांका ज़मींदार (अनुराग शर्मा)
बालक (अनुराग शर्मा)
बोहनी (अनुराग शर्मा)
देवी (अनुराग शर्मा)
दूसरी शादी (अनुराग शर्मा)
नमक का दरोगा (अनुराग शर्मा)
नसीहतों का दफ्तर (अनुराग शर्मा)
पर्वत-यात्रा (अनुराग शर्मा)
पुत्र प्रेम (अनुराग शर्मा)
वरदान (अनुराग शर्मा)
विजय (अनुराग शर्मा)
वैराग्य (अनुराग शर्मा) 
शंखनाद (अनुराग शर्मा)
शादी की वजह (अनुराग शर्मा)
सभ्यता (अनुराग शर्मा)
समस्या (अनुराग शर्मा)
सवा सेर गेंहूँ (अनुराग शर्मा)
कफ़न (अमित तिवारी) [१९३६]

Sunday, July 19, 2015

किस्सागो का पक्ष - अनुरागी मन

अनुरागी मन से दो शब्द

अपनी कहानियों के लिए, उनके विविध विषयों, रोचक पृष्ठभूमि और यत्र-तत्र बिखरे रंगों के लिए मैं अपने पात्रों का आभारी हूँ। मेरी कहानियों की ज़मीन उन्होंने तैयार की है। वे सब मेरे मित्र हैं यद्यपि मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ।

कथा निर्माण के उदेश्य से मैं उनसे मिला अवश्य हूँ। कहानी लिखते समय मैं उन्हें टोकता भी रहता हूँ। लेकिन हमारा परिचय केवल उतना ही है जितना कहानी में वर्णित है। बल्कि वहाँ भी मैंने लेखकीय छूट का लाभ उठाया है। इस हद तक, कि कुछ पात्र शायद अपने को वहाँ पहचान न पायें। कई तो शायद खफा ही हो जाएँ क्योंकि मेरी कहानी उनका जीवन नहीं है।

मेरे पात्र भले लोग हैं। अच्छे या बुरे, वे सरल और सहज हैं, जैसे भीतर, तैसे बाहर। मेरी कहानियाँ इन पात्रों की आत्मकथाएँ नहीं हैं। उन्हें मेरी आत्मकथा समझना तो और भी ज्यादती होगी। मेरी कहानियाँ समाचारपत्र की रिपोर्ट भी नहीं हैं। मैंने अपने या पात्रों के अनुभवों में से कुछ भी यथावत नहीं परोसा है।

मेरी हर कहानी एक संभावना प्रदान करती है। एक अँधेरे कमरे में खिड़की की किसी दरार से दिखते तारों की तरह। किसी सुराख से आती प्रकाश की एक किरण जैसे, मेरी कहानियाँ आशा की कहानियाँ हैं। यदि कहीं निराशा दिखती भी है, वहाँ भी जीवन की नश्वरता के दुःख के साथ मृत्योर्मामृतम् गमय का उद्घोष है। कल अच्छा था, आज बेहतर है, कल सर्वश्रेष्ठ होगा।

हृदयस्पर्शी संस्मरण लिखने के लिए पहचाने जाने वाले अभिषेक कुमार ने अपने ब्लॉग पर अनुरागी मन की एक सुंदर समीक्षा लिखी है, मन प्रसन्न हो गया। आभार अभिषेक!

इसे भी पढ़िये:
अनुरागी मन की समीक्षा अभिषेक कुमार द्वारा
लेखक बेचारा क्या करे? भाग 1
लेखक बेचारा क्या करे? भाग 2
* अच्छे ब्लॉग लेखन के सूत्र
* बुद्धिजीवी कैसे बनते हैं? 

Saturday, March 21, 2015

सीमित जीवन - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)
इस जीवन की आपूर्ति सीमित है, कृपया सदुपयोग करें

अवचेतन की
कुछ चेतन की
थोड़ी मन की
बाकी तन की
कुछ यौवन की
कुछ जीवन की
इस नर्तन की
उस कीर्तन की
परिवर्तन की
और दमन की
सीमायें होती हैं
लेकिन
सीमा होती नहीं
पतन की...

Saturday, January 31, 2015

किनाराकशी - लघुकथा

(चित्र व लघुकथा: अनुराग शर्मा)
गाँव में दो नानियाँ रहती थीं। बच्चे जब भी गाँव जाते तो माता-पिता के दवाब के बावजूद भी एक ही नानी के घर में ही रहते थे। दूसरी को सदा इस बात की शिकायत रही। बहला-फुसलाकर या डांट-डपटकर जब बच्चे दूसरी नानी के घर भेज दिये जाते तो जितनी देर वहाँ रहते उन्हें पहली नानी का नाम ले-लेकर यही उलाहनाएं मिलतीं कि उनके पास बच्चों को वशीभूत करने वाला ऐसा कौन सा मंत्र है?  ये वाली तो पहली वाली से कितने ही मायनों में बेहतर हैं। यह वाली नानी क्या बच्चों को मारती-पीटती हैं जो बच्चे उनके पास नहीं आते? बच्चे 10-15 मिनट तक अपना सिर धुनते और फिर सिर झुकाकर पहले वाली नानी के घर वापस चले जाते।

हर साल दूसरी नानी के घर जाकर उनसे मिलने वाले बच्चों की संख्या कम होते-होते एक समय ऐसा आया जब मैं अकेला वहाँ गया। तब भी उन्होने यही शिकवा किया कि उनके सही और सच्चे होने के बावजूद भोले बच्चों ने पहली नानी के किसी छलावे के कारण उनसे किनाराकशी कर ली है। उस दिन के बाद मेरी भी कभी उनसे मुलाक़ात नहीं हुई, हाँ सहानुभूति आज भी है।

Wednesday, December 31, 2014

बुद्धिजीवी कैसे बनते हैं?

सफल बुद्धिजीवी बनने के 6 सरल सूत्र

1) नाम
बुद्धिजीवी की पहली पहचान होती है उसका नाम। अपने लिए एक अलग सा नाम चुनें। अच्छा, बुरा, छोटा, बड़ा, चाहे जैसा भी हो, होना अजीबोगरीब चाहिए। वैसे चुनने को तो आप अदरक भी चुन सकते हैं लेकिन उस स्थिति में केवल आपका सब्जीवाला ही आपकी बुद्धिजीविता को पहचान सकेगा। सो आप किसी सब्जी के बजाय रूस, चीन, कोरिया, विएतनाम, क्यूबा आदि में हुई किसी खूनी क्रान्ति मिथक के किसी पात्र को चुन सकते हैं। जितना भावहीन पात्र हो बुद्धिजीविता उतनी ही बेहतर निखरेगी। अगर आप शुद्ध देसी नाम ही चलाना चाहते हैं तो भी अपने ठेठ देसी नाम राम परसाद, या चंपत लाल की जगह प्रचंड, तांडव, प्रलय, विप्लव, समर, रक्त, बारूद, सर्वनाश, युद्ध आदि कुछ तो ऐसा कर ही लीजिये जिससे आपके भीरु स्वभाव की गंध आपकी उद्दंडता के पीछे छिप जाये।

2) उपनाम
वैसे तो खालिस बुद्धिजीवी एकल नामधारी ही होता है। लेकिन यदि आप एकदम से ऊपर के पायदान पर बैठने में असहज (या असुरक्षित) महसूस कर रहे हों तो आरम्भ में अपना मूल नाम चालू रख सकते हैं। केवल एक उपनाम की दरकार है। वह भी न हो तो अपना कुलनाम ही किसी ऐसे नाम से बदल लीजिये जो क्रांतिकारी नहीं तो कम से कम परिवर्तनकारी तो दिखे। नाम अगर अङ्ग्रेज़ी के A अक्षर से शुरू हो तो किसी भी सूची में सबसे ऊपर दिखाई देगा। इसलिए सबसे आसान काम है किसी भी आदरणीय शब्द से पहले अ या अन चिपका दिया जाय। आजकल के ट्रेंड को देखते हुए अभारतीय, अनार्य, अद्रविड़, अहिंदू, अब्राह्मण, असंस्कृत, अनादर, और अशूर के हिट होने की काफी संभावना है। यदि ऐसा करना आपको ठीक न लगे तो बुद्धिजीवी से मिलता जुलता कोई शब्द चुनें, यथा: लेखजीवी, पत्रजीवी, परजीवी, तमजीवी, स्याहजीवी, कम्प्यूटरजीवी, कीबोर्डजीवी, व्हाट्सऐपजीवी आदि। यकीन मानिए, आधे लोग तो आपकी इस "GV" चाल से ही चित्त हो जाएँगे।

3) संघे शक्ति कलयुगे
कहावत है कि अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। सो बुद्धिजीवी बनने के लिए मूर्खों की सहायता लीजिये। उनको अपने साथ मिलाकर दूसरों के फटे में टांग अड़ाने के सामूहिक प्रयोग आरम्भ कीजिये। मिलजुलकर एक संस्था रजिस्टर करवा लीजिये जिसके आजीवन अध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, सचिव, व्यवस्थापक आदि सब आप ही हों। संस्था का नाम रचने के लिए अपने नाम से पहले प्रगतिशील, प्रोग्रेसफील, या तरक्कीझील जोड़ लीजिये। मसलन "तरक्कीझील सूखेलाल विरोध मंच"। यदि अपना नाम जोड़ने से बचना चाहते हैं तो किसी गरम मुद्दे को नाम में जोड़ लीजिये, यथा आतंक सुधार दल, नारीमन पॉइंट हड़ताल संघ, अनशन-धरना प्रोत्साहक मुख्यमंत्री समिति, सर्वकाम दखलंदाज़ी संगठन, लगाई-बुझाई समिति आदि। यदि आपको छोटा सा नाम चुनना है तो रास्ते के रोड़े जैसा कोई नाम चुनिये, प्रभाव पड़ेगा, लोग डरेंगे, उदाहरण: स्पीडब्रेकर, रोक दो, प्रतिरोध, गतिरोध, सड़क का गड्ढा, बारूदी सुरंग आदि। और यदि आपको ये सारे नाम पुरातनपंथी लगते हैं तो फिर चुनिये एक आक्रामक नाम, जैसे: पोलखोल, हल्लाबोल, पर्दाफाश, अंधविरोध, पीट दो आदि।

4) कर्मण्येवाधिकारस्ते 
अब संस्था बनाई है तो कुछ काम भी करना पड़ेगा। रोजाना दो-तीन बयान दे दीजिये। ओबामा ने आज पान नहीं खाया, यह बंगाल के पान-उत्पादक किसानों का अपमान है, आदि-आदि। अखबारों में आलेख भेजिये। आलेख न छपें तो पत्र लिखिए। पत्र भी न छपें तो अपने फेसबुक प्रोफाइल पर विरोध-पत्र पोस्ट कर दीजिये और अपने मित्रों से लाइक करवाइए। पड़ोस के किसी मंदिर, गुरुद्वारे, स्कूल, सचिवालय, थाने, अस्पताल आदि पहुँचकर अपने मोबाइल से वहाँ के हर बोर्ड का फोटो खींच लीजिये और बैठकर उनमें ऐसे चिह्न ढूंढिए जिनपर विवाद ठेला जा सके। कुछ भी न मिले तो फॉटोशॉप कर के विवाद उत्पन्न कर लीजिये। मंदिर के उदाहरण में "गैर-हिन्दू का प्रवेश वर्जित है" टाइप का कुछ भी लिखा जा सकता है। बहुत चलता है। बाकी तो आप खुद ही समझदार हैं, जमाने की नब्ज़ पहचानते हैं।

5) जालसाज़ी
ये जालसाज़ी वो वाली नहीं है जो नोट छापती है, ये है नेटवर्किंग। संस्था तो आप बना ही चुके हैं। सामाजिक चेतना के नाम पर थोड़ा बहुत चन्दा भी इकट्ठा कर ही लिया होगा। अब उस चंदे के प्रयोग से नेटवर्किंग का बाम मलिए और प्रगति के काम पर चलिये। ऐसे लोगों की सूची बनाइये जो आपके काम भी आ सकते हों और थोड़े लालची किस्म के भी हों। इनमें घंटाध्वनि प्रतिष्ठान के मालिक भी हो सकते हैं, बुझाचिराग के संपादक भी, सर्वहर समिति के अध्यक्ष भी, तंदूरदर्शन टीवी चैनल के प्रोड्यूसर भी और आसपड़ोस के अभिमानी और भ्रष्ट नौकरशाह भी। एक सम्मान समारोह आयोजित करके एक लाइन में सबको सम्मान सर्टिफिकेट बाँट दीजिये। अगर आपका चन्दा अच्छा हुआ है तो समारोह के बाद पार्टी भी कीजिये, हफ्ते भर में किरपा आनी शुरू हो जाएगी।

6) आत्मनिर्भरता 
इतने सब से भी अगर आपका काम न बने तो फिर आपको आत्मनिर्भर होना पड़ेगा। अपना खुद का एक टीवी चैनल, या पत्रिका या अखबार निकालिए। सबसे आसान काम एक न्यूज़ चैनल चलाने का है। तमाम अखबार पढ़कर सामग्री बनाइये और अपने इन्टरनेट कैफे में चाय लाने वाले लड़कों को टाई लगाकर "3 मिनट में 30 और 5 मिनट में 500 खबरें" जैसे कार्यक्रमों में कैमरे के सामने बैठा दीजिये। 8 मिनट तो ये हुये। 24 घंटों का बाकी काम हर मर्ज की दवा हकीम लुक़मान टाइप के विज्ञापनों से चल जाएगा। फिर भी जो एक घंटा बच जाये उसके बीच में आप अपनी बुद्धिजीवी विशेषज्ञता के साथ आजकल के हालात पर तसकरा कीजिये। पेनल के लिए पिछले कदम में सम्मानित लोगों में से कुछ को बारी-बारी से बुलाते रहिए। बोलने में घबराइये मत। चल जाये तो ठीक और अगर कभी लेने के देने पड़ जाएँ तो बड़प्पन दिखाकर बयान वापस ले लीजिये। टीवी पर रोज़ किसी न किसी गंभीर विषय पर लंबी-लंबी फेंकने वाला तो बुद्धिजीवी होगा ही। और फिर जनहित में हर हफ्ते अपना कोई न कोई बयान वापस लेने वाला तो सुपर-बुद्धिजीवी होना चाहिए।

... तो गुरु, हो जा शुरू, जुट जा काम पर। और जब बुद्धिजीवी दुकान चल निकले तो हमें वापस अपना फीडबैक अवश्य दीजिये।
जब फेसबुक पर एक मित्र "ठूँठ बीकानेरी" ने एक सहज सा प्रश्न किया, "ये बुद्धिजीवी कैसे बनते हैं?" तो बहुत से उत्तर आए। उन्हीं जवाबों के सहारे एक अन्य मित्र सतीश चंद्र सत्यार्थी के लिखे लाजवाब लेख "फेसबुक पर इंटेलेक्चुअल कैसे दिखें" तक पहुँच गये। गजब के सुझाव हैं। आप भी एक बार अवश्य पढ़िये। एक बुद्धिजीवी के रूप में अपना सिक्का कैसे जमाएँ, यह एक शाश्वत समस्या है। जिसका सामना बहुत से इंटरनेटजन अक्सर करते हैं। सत्यार्थी जी का आलेख उनके लिए अवश्य सहायक सिद्ध होगा। इसी संबंध में अब तक मेरे अनुभव में आए कुछ अन्य सरल बिन्दु यहाँ उल्लिखित हैं। इस लेख को सतीश के लेख का सहयोगी या पूरक समझा जा सकता है।

Tuesday, September 16, 2014

शब्दों के टुकड़े - भाग 6

(~ स्वामी अनुरागानन्द सरस्वती
विभिन्न परिस्थितियों में कुछ बातें मन में आयीं और वहीं ठहर गयीं। जब ज़्यादा घुमडीं तो डायरी में लिख लीं। कई बार कोई प्रचलित वाक्य इतना खला कि उसका दूसरा पक्ष सामने रखने का मन किया। ऐसे अधिकांश वाक्य अंग्रेज़ी में थे और भाषा क्रिस्प थी। हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। अनुवाद करने में भाषा की चटख शायद वैसी नहीं रही, परंतु भाव लगभग वही हैं। कुछ वाक्य पहले चार आलेखों में लिख चुका हूँ, कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं। भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5;
  • आज की जवानी, कल एक बचपना थी।
  • शक्ति सदा ही कमजोरी है, लेकिन कई बार कमजोरी भी ताकत बन जाती है।
  • स्वप्नों को हक़ीक़त में बदलने का काम भले ही भाड़े पर कराया जाए लेकिन सपने देखना तो खुद को ही सीखना पड़ेगा।
  • जिस भावनाप्रधान देश को हल्की-फुलकी अफवाहें तक गहराई से प्रभावित करके आसानी से बहा ले जाती हों, वहाँ प्रशासनिक सुधार हो भी तो कैसे?
  • यह आवश्यक नहीं है कि बेहतर सदा अच्छा ही हो।
  • भारतीय राजनीति में सही गलत कुछ नहीं होता, बस मेरा-तेरा होता है।
  • अज्ञान कितना उत्तेजक और लोंमहर्षक होता है न!
  • आपकी विश्वसनीयता बस उतनी ही है जितनी आपकी फेसबुक मित्र सूची की।  
  • जनहितार्थ होम करते हाथ न जलते हों, ऐसा नहीं है। लेकिन कई लोग सारा गरम-गरम खाना खुद हड़प लेने की उतावली में भी हाथ जलाते हैं ... 
  • जीवन भर एक ही कक्षा में फेल होने वाले जब हर क्लास को शिक्षा देने लगें तो समझो अच्छे दिन आ चुके हैं।
  • समय से पहले लहर को देख पाते, ऐसी दूरदृष्टि तो सबमें नहीं होती। लेकिन लहर में सिर तक डूबे होने पर भी किसी शुतुरमुर्ग का यह मानना कि सिर सहरा की रेत में धंसा है, दयनीय है।
  • आपके चरित्र पर आपका अधिकार है, छवि पर नहीं ... 
  • आँख खुली हो तो नए निष्कर्ष अवश्य निकलते हैं, वरना - पहले वाले ही काम आ जाते हैं।
  • "भगवान भला करें" कहना आस्था नहीं, सदिच्छा दर्शाता है।
  • सही दिशा में एक कदम गलत दिशा के हज़ार मील से बेहतर है 
  • खुद मिलना तो दूर, जिनसे आपके विचार तक नहीं मिलते, उन्हें दोस्तों की सूची में गिनना फेसबुक पर ही संभव है।
... और अंत में एक हिंglish कथन
पाकिस्तानी सीमा पर घुसपैठ के साथ-साथ गोलियाँ भी चलती रहती हैं जबकि चीनी सैनिक घुसपैठ भले ही रोज़ करते हों गोली कभी बर्बाद नहीं करते क्योंकि चीनी की गोली is just a placebo ...
अनुरागी मन कथा संग्रह :: लेखक: अनुराग शर्मा 

Monday, June 9, 2014

सत्य पर एक नज़र - दो कथाओं के माध्यम से

1. दो सत्यनिष्ठ (संसार की सबसे छोटी बोधकथा)
चोटी पर बैठा सन्यासी चहका, "धूप है"।  तलहटी का गृहस्थ बोला, "नहीं, सर्दी है"।  ऊपर चढ़ते पर्वतारोही ने कहा, "ठंड घट रही है।"
2. निबंध - लघुकथा

बच्चा खुश था। उसने न केवल निबंध प्रतियोगिता में भाग लिया बल्कि इतना अच्छा निबंध लिखा कि उसे कोई न कोई पुरस्कार मिलने की पूरी उम्मीद थी। "एक नया दिन" प्रतियोगिता के आयोजक खुश थे। सारी दुनिया से निबंध पहुँचे थे, प्रतियोगिता को बड़ी सफलता मिली थी। आकलन के लिए निबंधों के गट्ठे के गट्ठे शिक्षकों के पास भेजे गए ताकि सर्वश्रेष्ठ निबंधों को इनाम मिल सके।

परीक्षक जी का हँस-हँस के बुरा हाल था। कई निबंध थे ही इतने मज़ेदार। उदाहरण के लिए इस एक निबंध पर गौर फरमाइए।

दिन निकल आया था। सूरज दिखने लगा। दिखता रहा। एक घंटे, दो घंटे, दस घंटे, बीस घंटे, एक दिन पाँच दिन, दो सप्ताह, चार हफ्ते, एक महीना, दो महीने, ....

शुरुआत से आगे पढ़ा ही नहीं गया, रिजेक्ट करके एक किनारे पड़ी रद्दी की पेटी में डाल दिया।  

उत्तरी स्वीडन के निवासी बालक को यह पता ही न था कि कोई विद्वान उसके सच को कोरा झूठ मानकर पूरा पढे बिना ही प्रतियोगिता से बाहर कर देगा।

हमारे संसार का विस्तार वहीं तक है जहाँ तक हमारे अज्ञान का प्रकाश पहुँच सके।          

Thursday, June 5, 2014

लेखक बेचारा क्या करे? भाग 2

नोट: कुछ समय पहले मैंने यह लेखक बेचारा क्या करे? भाग 1 में एक लेखक की ज़िम्मेदारी और उसकी मानसिक हलचल को समझने का प्रयास किया था। उस पोस्ट पर आई टिप्पणियों से जानकारी में वृद्धि हुई। पिछले दिनों इसी विषय पर कुछ और बातें ध्यान में आयी, सो चर्चा को आगे बढ़ाता हूँ।
कालजयी ग्रन्थों की सूची में निर्विवाद रूप से शामिल ग्रंथ महाभारत में मुख्य पात्रों के साथ रचनाकार वेद व्यास स्वयं भी उपस्थित हैं। कोई लोग जय संहिता को भले आत्मकथात्मक कृति कहें लेकिन आज की आत्मकथाओं में अक्सर दिखने वाले एकतरफा और सीमित बयान के विपरीत वहाँ एक समग्र और विराट वर्णन है। मेरे ख्याल से समग्रता और विराट रूप अच्छे लेखन के अनिवार्य गुण हैं। यदि लेखन संस्मरणात्मक या आत्मकथनपरक लगे, और पाठक उससे अपने आप को जुड़ा महसूस करें तो सोने में सुहागा। लघुकथा के नाम पर अनगढ़ चुट्कुले या किसी उद्देश्यहीन घटना का सतही और आंशिक विवरण सामने आये तो निराशा ही होती है।

बदायूँ में अपने अल्पकालीन निवास के दौरान एक बार मैंने पत्राचार के माध्यम से अपने प्रिय लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क से अच्छी कहानी के बारे में उनकी राय पूछी थी। अन्य बहुत से गुणों के साथ ही जिस एक सामान्य तत्व की ओर उन्होने दृढ़ता से इशारा किया था वह थी सच्चाई। उनके शब्दों में कहूँ तो, "अच्छी कहानियाँ सच्चाई पर आधारित होती हैं। कल्पना के आधार पर गढ़ी कहानियों के पेंच अक्सर ढीले ही रह जाते हैं।"
अच्छी कहानियाँ पात्रों से नहीं, लेखकों से होती हैं। सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पात्रों या लेखकों से नहीं, पाठकों से होती हैं।
महाभारत का तो काल ही और था, छापेखाने से सिनेमा तक के जमाने में पाठक का लेखक से संवाद भी एक असंभव सी बात थी, पात्र की तो मजाल ही क्या। लेकिन आज के लेखक के सामने उसके पात्र कभी भी चुनौती बनकर सामने आ सकते हैं। बेचारा भला लेखक या तो अपना मुँह छिपाए घूमता है या अपने पात्रों का चेहरा अंधेरे में रखता है।

अपनी कहानियों के लिए, उनके विविध विषयों, रोचक पृष्ठभूमि और यत्र-तत्र बिखरे रंगों के लिए मैं अपने पात्रों का आभारी हूँ। मेरी कहानियों की ज़मीन उन्होंने तैयार की है। कथा निर्माण के दौरान मैं उनसे मिला अवश्य हूँ। कहानी लिखते समय मैं उन्हें टोकता भी रहता हूँ। वे सब मेरे मित्र हैं यद्यपि मैं उन सबको व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ। हमारा परिचय बस उतना ही है जितना कहानी में वर्णित है। बल्कि वहां भी मैंने लेखकीय छूट का लाभ यथासंभव उठाकर उनका कायाकल्प ही कर दिया है। कुछ पात्र शायद अपने को वहां पहचान भी न पायें। कई तो शायद खफा ही हो जाएँ क्योंकि मेरी कहानी उनका असली जीवन नहीं है। इतना ज़रूर है कि मेरे पात्र बेहद भले लोग हैं। अच्छे दिखें या बुरे, वे सरल और सहज हैं, जैसे भीतर, तैसे बाहर।

मेरी कहानियाँ मेरे पात्रों की आत्मकथाएँ नहीं हैं। लेकिन उन्हें मेरी आत्मकथा समझना तो और भी ज्यादती होगी। मेरी कहानियाँ वास्तविक घटनाओं का यथारूप वर्णन या किसी समाचारपत्र की रिपोर्ट भी नहीं हैं। मैं तो कथाकार कहलाना भी नहीं चाहता, मैं तो बस एक किस्सागो हूँ। मेरा प्रयास है कि हर किस्सा एक संभावना प्रदान करे , एक अँधेरे कमरे में खिड़की की किसी दरार से दिखते तारों की तरह। किसी सुराख से आती प्रकाश की एक किरण जैसे, मेरी अधिकाँश कहानियाँ आशा की कहानियाँ हैं। जहाँ निराशा दिखती है, वहां भी जीवन की नश्वरता के दुःख के साथ मृत्योर्मामृतंगमय का उद्घोष भी है।
एक लेखक अपने पात्रों का मन पढ़ना जानता है। एक सफल लेखक अपने पाठकों का मन पढ़ना जानता है। एक अच्छा लेखक अपने पाठकों को अपना मन पढ़ाना जानता है। सर्वश्रेष्ठ लेखक यह सब करना चाहते हैं ...
अरे, आप भी तो लिखते हैं, आपके क्या विचार हैं लेखन के बारे मेँ?

Monday, May 19, 2014

ईमान की लूट - लघुकथा

लुटेरों के गैंग को उस बार लूट में अच्छी ख़ासी मात्रा में ईमानदारी मिल गई। लूट का माल बांटते समय झगड़ा होने लगा। कोई कहता कि मैं सबसे बड़ा हूँ इसलिए ईमानदारी में ज़्यादा हिस्सा लूँगा, कोई बोला कि सबसे चालाक होने के कारण सबसे बड़ा हिस्सा मुझे ही मिलना चाहिए।

सरदार ने कहा कि उसूलन तो आधा हिस्सा उसका है बाकी आधे में सारा गैंग जो चाहे करे। गांधीवादी ने कहा कि उसने सबसे अधिक थप्पड़ खाये हैं इसलिए उसे सबसे अधिक भाग का अधिकार  है। जिहादी बोला कि सबसे ज़्यादा सेकुलर होने के कारण उसका हक़ सबसे बड़ा है। माओवादी बोला कि उसने बम और IED फोड़कर अन्य सदस्यों से ज़्यादा खतरा उठाया है इसलिए उसका हक़ भी ज़्यादा है। मार्क्सवादी कहने लगा कि उसे 75% मिलना चाहिए क्योंकि बाकी जनता में तो सब बराबर के अधिकारी हैं, सो उन्हें 25% भी कम नहीं।

वकील बोला कि गैंग को बचाने के लिए झूठ बोलते-बोलते उसकी ईमानदारी सबसे पहले खर्च हो जाती है वहीं प्रोफेसर ने छात्रों को फुसलाकर केडर भर्ती करने के काम को सबसे कठिन बताया। अर्थगामी ने लारा दिया कि जितनी ज़्यादा ईमानदारी उसे मिलेगी, वह दल को निवेश पर उतना ही अधिक लाभांश दिलवाएगा। पत्रकार का कहना था कि प्रचार के लिए उसे ईमानदारी खसोटने में प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

सबने एक दूसरे पर बंदूकें तान दीं। गोलियां चलीं तो कुछ मर-खप गए। बचे हुए लुटेरे गंभीर रूप से घायल होकर भाग लिए। लुटे-पिटे सरदार अकेले रह गए। अब उनकी ईमानदारी भी सब खर्च हो गई है। सो ईमानदारी बैंक पर अगला ज़्यादा बड़ा हाथ मारने की सोच रहे हैं। तब तक उनके छिटके हुए गैंग पर कब्जा करने के लिए कई अन्य घायल अपनी अपनी ईमानदारी का बचा-खुचा कटोरा लिए नज़रें गढ़ाए बैठे हैं।

देखते हैं जनता किसकी ईमानदारी से लहलोट होने वाली है। जोतखी बाबा बोले कि बिना किसी भेदभाव के, पुराने ईमानदारी-लूट गैंग के जिस प्रमाणित सदस्य की किस्मत बुलंदी पर होगी, सरदार वही बनेगा।

Sunday, March 9, 2014

शब्दों के टुकड़े - भाग 5

(आलेख: अनुराग शर्मा)
विभिन्न परिस्थितियों में कुछ बातें मन में आयीं और वहीं ठहर गयीं। जब ज़्यादा घुमडीं तो डायरी में लिख लीं। कई बार कोई प्रचलित वाक्य इतना खला कि उसका दूसरा पक्ष सामने रखने का मन किया। ऐसे अधिकांश वाक्य अंग्रेज़ी में थे और भाषा क्रिस्प थी। हिन्दी अनुवाद यहाँ प्रस्तुत है। अनुवाद करने में भाषा की चटख शायद वैसी नहीं रही, परंतु भाव लगभग वही हैं। कुछ वाक्य पहले चार आलेखों में लिख चुका हूँ, कुछ यहाँ प्रस्तुत हैं।

1. जित्ता बड़ा दिल, उत्ता बड़ा बिल
2. किसी फिक्र का ज़िक्र करने वालों को अक्सर उस ज़िक्र की फिक्र करनी पड़ती है।
3. दोस्ती दो दिलों की सहमति से ही हो सकती है, असहयोग के लिए एक ही काफी है।
4. उदारता की एक किरण उदासी की कालिमा हर लेती है।
5. हर किसी का पक्षधर अक्सर किसी का भी पक्षधर नहीं होता, खासकर तब जब वह खुद भी दौड़ में शामिल हो।
6. अच्छी कहानियाँ पात्रों से नहीं, लेखकों से होती हैं। सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पात्रों या लेखकों से नहीं, पाठकों से होती हैं।
7. सूमो विरोधी का बलपूर्वक सामना करता है लेकिन जूडोका विरोधी की शक्ति से ही काम चलाता है।
8. जो कुछ नहीं करते, वे गज़ब करते हैं।
9. बहरूपिये के मुखौटे के पीछे छिपे चेहरे को न पहचानकर उसे समर्थन देने वाले एक दिन खुद अपनी नज़रों में तो गिरते ही हैं, लेकिन तब तक समाज के बड़े अहित के साझीदार बन चुके होते हैं।
10. दुनिया का आधा कबाड़ा इंसानी गलतियों से हुआ। गलतियाँ सुधारने के अधकचरे, कमअक्ल और स्वार्थी प्रयासों ने बची-खुची उम्मीद का बेड़ा गर्क किया है।
11. तानाशाहों की वैचारिकी उनके हथियारबंद गिरोहों द्वारा मनवा ली जाती है, विचारकों की तानाशाही को तो उनकी अपनी संतति भी घास नहीं डालती।

आज आपके लिये कुछ कथन जिसका अनुवाद मुझसे नहीं हो सका। कृपया अच्छे से हिन्दी अनुवाद सुझायें:
  • You are not frugal until you use coupons at a dollar store
  • Don't act, just act!
  • visibility enables trust, familiarity means comfort
मुकेश निर्मित और अभिनीत "अनुराग"


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मैं हूँ ना! - विष्णु बैरागी
* कच्ची धूप, भोला बछड़ा और सयाने कौव्वे
* सत्य के टुकड़े - कविता
* खिली-कम-ग़मगीन तबियत (भाग २) - अभिषेक ओझा
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