ज़माना गुज़र गया भारत गए हुए, फिर भी उनका मन वहाँ की गलियों से बाहर आ ही नहीं पाता। जब भी जाते हैं, दिल किसी गुम हुई सी जगह को फिर-फिर ढूँढता है। कितनी ही बार अपने को शिरवळ के बस अड्डे पर अकेले बैठे हुए देखते हैं। कभी मुल्ला जी के रिक्शे पर शांति निकेतन जाता हुआ महसूस करते हैं तो कभी बाँस की झोंपड़ी में कविराज के मणिपुरी संगीत की स्वर लहरियाँ सुनते हुये। रामपुर के शरीफे का दैवी स्वाद हो या लखनऊ के आम की मिठास, बरेली में साइकिल से गिरकर घुटने छील लेना भी याद है और बदायूँ की रामलीला के संवाद भी। नन्दन से धर्मयुग और चंदामामा से न्यूज़वीक तक के सफर के बाद आज भी बालसभा की पहेलियाँ, इंद्रजाल कोमिक्स की रोमांचकारी दुनिया और दीवाना के गूढ कार्टून मनोरंजन करते से लगते हैं। स्कूल कॉलेज की यादों के साथ ही लखनऊ, दिल्ली और चेन्नई में शुरू की गई पहली तीन नौकरियों का उत्साह भी अब तक वैसा ही बना हुआ है।
पूना हो या पनवेल, कुछ यादें हल्की हैं और कुछ गहरी। लेकिन जो एक शहर अब भी उनके सपनों में लगभग रोज़ ही आता है वह है जम्मू! कितनी ही यादें जुड़ी हैं उस रहस्यमयी दुनिया से जो तब बन ही रही थी। जंगली फूलों की नशीली गंध से सराबोर पथरीली चट्टानों को काटकर बहती तवी नदी, और रणबीर नहर में तैरने जाना हो या पुराने पहाड़ी नगर के इर्दगिर्द बन रहे उपनगरीय क्षेत्रों में तलहटी में जाकर स्वादिष्ट लाल गरने चुनकर लाना। सुबह शाम स्कूल आते जाते समय आकाश को झुककर धरती छूते देखने का अनूठा अनुभव हो या जगमगाते जुगनुओं को देखकर आश्चर्यचकित होने की बारी हो, जम्मू की यादें छूटती ही नहीं।
पाठशाला जाने के लिए राजमहल परिसर से होकर निकलना पड़ता था। शाम को बस आने तक साथ के बच्चों के साथ अंकल जी की दुकान पर इंतज़ार। उसी बीच मे कई बार ऐसा भी हुआ जब रमणीक के साथ रघुनाथ मंदिर स्थित उसके घर भी जाना हुआ। वे लोग पक्के हिन्दूवादी साहित्यकार थे। शाखा के बारे मे पहली बार वहीं जाना और जनसंघ के बारे मे भी वहीं सुना। गोष्ठी से लेकर बाल भारती तक के शब्द पहली बार रमणीक के मुँह से ही पता लगे। खासकर अपना नाम बताते हुए जब वह सलीके से रमणीक गुप्त कहता था तो रमनीक गुप्ता पुकारने वाले सभी डोगरे बच्चे शर्मा जाते थे। लवलीन की बात और थी, वह उसे सदा ओए रमनीके कहकर ही बुलाती थी।
वे अक्सर सोचते थे कि उनके बचपन के साथी वे सब लोग अब न जाने कहाँ होंगे। उनकी यादें चेहरे पर मुस्कान लाती थीं। मन में सदा यही रहा कि किसी न किसी दिन जम्मू जाना ज़रूर होगा। तब ढूंढ लेंगे अपने नन्हे दोस्तों को। लवलीन का पूरा नाम, घर, ठिकाना कुछ भी नहीं मालूम, इसलिए कभी उसकी खोज नहीं की लेकिन रमणीक गुप्त से मुलाकात की उम्मीद कभी नहीं छूटी।
उस दिन तो मानो लॉटरी ही खुल गई जब रमणीक के छोटे भाई वीरभद्र का नाम इंटरनेट पर नज़र आया। पता लगा कि वह गुड़गांव की एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में मुख्य सूचना अधिकारी है। फोन नंबर की खोज शुरू हुई। वीरभद्र गुप्त ने बड़े सलीके से बात की और नाम लेने भर की देर थी कि उन्हें पहचान भी लिया। पता लगा कि रमणीक भी ज़्यादा दूर नहीं है। वह राष्ट्रीय अभिलेखागार में एक महत्वपूर्ण पद पर लगा हुआ था। वीरभद्र से नंबर मिलते ही उन्होने रमणीक को कॉल किया।
हॅलो के जवाब में एक देहाती से स्वर ने जब उनका नाम, पता, वल्दियत आदि पूछना शुरू किया तो उन्होंने उतावली से अपना संबंध बताते हुए रमणीक को बुलाने को कहा। "मैं र-म-नी-क ही हूंजी!" अगले ने हर अक्षर चबाते हुए कहा, "... लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं।"
नगर, कक्षा, शाला आदि की जानकारी देने में थोड़ा समय ज़रूर लगा, फिर रमणीक को उनकी पहचान हो आई। कुछ देर तक बात करने के बाद उधर से सवाल आया, "लेकन आज हमारी याद कैसे आ गई, इतने दिन के बाद?"
"याद तो हमेशा ही थी, लेकिन संपर्क का कोई साधन ही नहीं था।"
"फिर भी, कोई वजह तो होगी ही ..." रमणीक ने रूखेपन से कहा, "बिगैर मतलब तो कोई किसी को याद नहीं करता!"
[समाप्त]
पूना हो या पनवेल, कुछ यादें हल्की हैं और कुछ गहरी। लेकिन जो एक शहर अब भी उनके सपनों में लगभग रोज़ ही आता है वह है जम्मू! कितनी ही यादें जुड़ी हैं उस रहस्यमयी दुनिया से जो तब बन ही रही थी। जंगली फूलों की नशीली गंध से सराबोर पथरीली चट्टानों को काटकर बहती तवी नदी, और रणबीर नहर में तैरने जाना हो या पुराने पहाड़ी नगर के इर्दगिर्द बन रहे उपनगरीय क्षेत्रों में तलहटी में जाकर स्वादिष्ट लाल गरने चुनकर लाना। सुबह शाम स्कूल आते जाते समय आकाश को झुककर धरती छूते देखने का अनूठा अनुभव हो या जगमगाते जुगनुओं को देखकर आश्चर्यचकित होने की बारी हो, जम्मू की यादें छूटती ही नहीं।
भाषाई आधार पर राज्यों के निर्माण के बारे में बहुत बहसें हो चुकी हैं। लेकिन देशभर में रहने के बाद वे अब इस बात को गहराई से मानते हैं कि अलग इकाई बनाने की बात हो या अलग पहचान की, मानव-मात्र के लिए भाषा से बड़ी पहचान शायद मजहब की ही हो सकती है दूसरी कोई नहीं। भाषाएँ तोड़ती भी हैं और जोड़ती भी हैं। वे हमारी पहचान भी हैं और संवाद का साधन भी। वे जहाँ भी रहे, भाषा की समस्या रही तो लेकिन मामूली सी ही। अधिकांश जगहों पर लोगों को टूटी-फूटी ही सही, हिन्दी आती ही थी, कभी-कभी अङ्ग्रेज़ी भी। जम्मू में यह कठिनाई और भी आसान हो गई थी, लवलीन और रमणीक जैसे सहपाठी जो थे। हमेशा मुस्कराने वाली लवलीन जब किसी को उनकी भाषा या बोलने के अंदाज़ पर टिप्पणी करते देखती तो उसकी भृकुटियाँ तन जातीं और बस्स ... समझो किसी की शामत आयी। लंबा चौड़ा रमणीक उतना दबंग नहीं था। उससे दोस्ती का कारण था, हिन्दी पर उसकी पकड़। पूरी कक्षा में वही एक था जो उनकी बात न केवल पूर्णतः समझता था बल्कि लगभग उन्हीं की भाषा में संवाद भी कर सकता था।
पाठशाला जाने के लिए राजमहल परिसर से होकर निकलना पड़ता था। शाम को बस आने तक साथ के बच्चों के साथ अंकल जी की दुकान पर इंतज़ार। उसी बीच मे कई बार ऐसा भी हुआ जब रमणीक के साथ रघुनाथ मंदिर स्थित उसके घर भी जाना हुआ। वे लोग पक्के हिन्दूवादी साहित्यकार थे। शाखा के बारे मे पहली बार वहीं जाना और जनसंघ के बारे मे भी वहीं सुना। गोष्ठी से लेकर बाल भारती तक के शब्द पहली बार रमणीक के मुँह से ही पता लगे। खासकर अपना नाम बताते हुए जब वह सलीके से रमणीक गुप्त कहता था तो रमनीक गुप्ता पुकारने वाले सभी डोगरे बच्चे शर्मा जाते थे। लवलीन की बात और थी, वह उसे सदा ओए रमनीके कहकर ही बुलाती थी।
वे अक्सर सोचते थे कि उनके बचपन के साथी वे सब लोग अब न जाने कहाँ होंगे। उनकी यादें चेहरे पर मुस्कान लाती थीं। मन में सदा यही रहा कि किसी न किसी दिन जम्मू जाना ज़रूर होगा। तब ढूंढ लेंगे अपने नन्हे दोस्तों को। लवलीन का पूरा नाम, घर, ठिकाना कुछ भी नहीं मालूम, इसलिए कभी उसकी खोज नहीं की लेकिन रमणीक गुप्त से मुलाकात की उम्मीद कभी नहीं छूटी।
उस दिन तो मानो लॉटरी ही खुल गई जब रमणीक के छोटे भाई वीरभद्र का नाम इंटरनेट पर नज़र आया। पता लगा कि वह गुड़गांव की एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में मुख्य सूचना अधिकारी है। फोन नंबर की खोज शुरू हुई। वीरभद्र गुप्त ने बड़े सलीके से बात की और नाम लेने भर की देर थी कि उन्हें पहचान भी लिया। पता लगा कि रमणीक भी ज़्यादा दूर नहीं है। वह राष्ट्रीय अभिलेखागार में एक महत्वपूर्ण पद पर लगा हुआ था। वीरभद्र से नंबर मिलते ही उन्होने रमणीक को कॉल किया।
हॅलो के जवाब में एक देहाती से स्वर ने जब उनका नाम, पता, वल्दियत आदि पूछना शुरू किया तो उन्होंने उतावली से अपना संबंध बताते हुए रमणीक को बुलाने को कहा। "मैं र-म-नी-क ही हूंजी!" अगले ने हर अक्षर चबाते हुए कहा, "... लेकिन मैंने आपको पहचाना नहीं।"
नगर, कक्षा, शाला आदि की जानकारी देने में थोड़ा समय ज़रूर लगा, फिर रमणीक को उनकी पहचान हो आई। कुछ देर तक बात करने के बाद उधर से सवाल आया, "लेकन आज हमारी याद कैसे आ गई, इतने दिन के बाद?"
"याद तो हमेशा ही थी, लेकिन संपर्क का कोई साधन ही नहीं था।"
"फिर भी, कोई वजह तो होगी ही ..." रमणीक ने रूखेपन से कहा, "बिगैर मतलब तो कोई किसी को याद नहीं करता!"
[समाप्त]
रमणीक की ख़ता नहीं है . उसका ऐसा कोई अनुभव रहा होगा !!
ReplyDeleteसही कहा, बचपन से अब तक न जाने कितने तरह के अनुभवों से गुज़रा होगा मेरा मित्र! और हमें लगता है मानो समय उन्हीं पहाड़ियों मे अटका रह गया था!
Deleteसच, क्या पता जीवन ने उसके साथ क्या क्या मजाक किए हों.
Deleteबहुत नजदीक है हकीकत के. अब वाणी जी की बात का भी समर्थन किया जा सकता है और यह भी कहा जा सकता है व्यक्तित्व का अन्तर है. अगर यही व्यवहार रमणीक जी के साथ किसी ने किया होता तो..
ReplyDelete"बिगैर मतलब तो कोई किसी को याद नहीं करता।"
ReplyDeleteमात्र नौ शब्दों का यह वाक्य बताता है कि हमने क्या खो दिया है। स्फूर्ति और नई ऊर्जा देनेवाले, बेमतलब बहसों के अड्डों की गुमशुदगी की खबरें जब ऐसे मिलती हैं तो मन उदास हो जाता है।
यह पढकर उदासी ही आई मन पर।
जब काल बिछोहे लिख डाले,
ReplyDeleteसंशय थोड़ा जी लेने दो,
मिलकर ही बतलायेंगे,
धड़कन बहती, पी लेने दो।
वाह!
Delete"याद तो हमेशा ही थी, लेकिन संपर्क का कोई साधन ही नहीं था।" अक्सर ऐसा ही होता है,
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति।
किसी को याद करना बहाने से
ReplyDeleteये रात चली आई है जमाने से !
अति सुंदर!
Deleteरात=रीत
ReplyDeleteकहानी के अंत ने धम्म से मानो गिरा दिया -किन्तु अंत ने वास्तविकता के दर्शन करा दिए बिना मतलब कोई किसी को याद नहीं करता यही तो हो रहा है आज, गंदे तालाब में अच्छी मछलियाँ भी गन्दी मछलियों का साथ भुगत रही हैं । आपकी कहानी कल के चर्चा मंच में शामिल कर रही हूँ
ReplyDeleteधन्यवाद!
Deleteरमणीक की ही तरह के मर्ज की मारी बहुत सी आत्माएं है, न सिर्फ विदेश में बल्कि देश के अन्दर भी, जो अपना बचपन, जवानी और यादें कहीं छोड़ आये भिन्न-भिन्न कारणों की वजह से !
ReplyDeleteसत्या वचन!
Deleteमान्यताएँ शायद यथार्थ के कठोर धरातल पर टकराकर कुंद हो जाती है।
ReplyDeleteहमारी यादों में हरी कोपलें होती है और हम सघन हरियाली की कल्पना कर निकल पड़ते है और अक्सर पतझड़ से मुलाकात हो जाती है।
रोचक मोड़ लेती कहानी .आभार
ReplyDelete.हम हिंदी चिट्ठाकार हैं
आदाब अर्ज़ है!
Deletebadhiya kahani...abhaar
ReplyDeleteओह ,एक महिला पात्र भी हैं कहानी में और उनसे भी ऐसा ही जवाब अपेक्षित हो सकता है ! :-( :-)
ReplyDeleteBADHIYA KAHANI..ZINDAGI KE KATU SATYA KA ANUBHAV KARATI HUI..
ReplyDeleteजब दो लोग बहुत गहरे से जुड़े रहते हैं और अचानक से दूर हो जायें, फिर लम्बे समय तक मेल न मुलाकात और न बात तब लम्बे समय बाद बात करने पर या मिलने पर ऐसी ही स्थिति बनती है, क्योंकि हो सकता है वह अन्दर ही अन्दर आपको रोज सोचता होगा कि कहाँ गया मेरा दोस्त, मुझसे बात क्यों नहीं कर रहा,... स्थिति इसके उलट भी होती है कोई बहुत खुश भी हो सकता है.
ReplyDeleteखैर ये तो मनोविज्ञान है, संस्मरण बेहद रोचक तरीके से प्रस्तुत किया.
(:(:(
ReplyDeletepranam.
कुछ समझ नहीं पायी कहानी का मर्म। क्षमा चाहती हूं।
ReplyDeleteहै कहूँ तो है नहीं, नहीं कहूँ तो है
Deleteइन दोनों के बीच में जो कुछ है सो है
(संत कबीर)
यादों की महक’कहानी के अंत तक आते-आते बिखरने क्यों लगी?
ReplyDeleteसमय के थपेड़े होंगे शायद ...
Deleteइसे संयोग ही कहेंगे कि मैंने पिछले सप्ताह तीस साल पुराने लोगों को याद करना शुरू किया. सबके नंबर खोजे और उनसे बात भी की.. अच्छा यह लगा कि उन्हें सिर्फ वर्मा कहा मैंने और उन्होंने तुरत पहचान लिया और एक वृद्धा (जिन्हें मैं मम्मी कहा करता था) रोने लगीं!!
ReplyDeleteवैसे मैंने सोच रखा था कि यह रिश्तों की दुबारा शुरुआत होगी और अगर कोई "RUMनीक" मिल गया तो आख़िरी!!
आपका अनुभव जानकार अच्छा लगा। मन चंगा तो कठौती मे गंगा ...
Deleteजमाना रमणीक को रमनीक करके ही माना।
ReplyDeleteज़माना खराब है जी!
Deleteअजी पूछो मत,बोत खराब है जमाना। आपकी\उनकी कहानी\संस्मरण पढ़के हमने भी आज एक जगह फ़ोन किया, सुनने को मिला, "खबरदार,जो मेरी हरी भरी गृहस्थी में ..." :(
Deleteसंजय जी,
Delete@ आपकी\उनकी कहानी\संस्मरण पढ़के हमने भी आज एक जगह फ़ोन किया…………
ओह तो आपको ज्ञात था लवलीन का फोन नम्बर्……:)
bahut knoob
Deleteइतनी बड़ी दुनिया है -एकाध रमणीक निकल आयें तो क्या!
ReplyDeleteविगत की छाप थोड़े ही छुट जायेगी !
नश्तर सा चुभता है उर में कटे वृक्ष का मौन
ReplyDeleteनीड़ ढूँढते पागल पंछी को समझाये कौन
..आपकी कहानी पढ़ी तो वर्षों पहले लिखी ये पंक्तियाँ अनायास जेहन में कौंध गईं। मानव का भी यही हाल है। जब वह अपने पचपन के मित्रों को याद करता है...ढूँढता है..मिलता है..और मिलने के बाद जो निराशा हाथ लगती है वह इससे गुजरने वाला ही समझ सकता है। बहुत दिनो के बाद उसे यह एहसास होता है और सर झटकता है.. "छोड़ो यार! यही दुनियाँ हैं मै ही कौन वही हूँ..?"
बहुत खूब!
Deleteदुनिया बड़ी अजीब है लेकिन इसमें इतनी गुंजाइश भी है कि आपको इससे बिल्कुल उलट अनुभव मिल सकते हैं आखिर हम सोचते ही रह जाते हैं और नतीजा यही होता है कि कोई भी अनुभव हमारा अंतिम अनुभव नहीं रह जाता।
ReplyDeleteवही सच है!
Deleteअपनी मिटटी की खुशबु कहानी बनकर जी उठी तिस पर बचपन का रंग
ReplyDeleteMere zehan me utar kar bahut kuchh rekhankit karti chali gai aapki yah kahani.
ReplyDeleteकिस्मतवाले हैं आप जो जम्मू में रहने को मिला , हम तो वहाँ के किस्से सुन-सुनकर ही मोहित हैं |
ReplyDelete(असल में कॉलेज में मेरा रूममेट जम्मू और कश्मीर दोनों जगह रह चूका है , बहुत सुना है उस से इन जगहों के विषय में |)
और रही रमणीक की बात , तो लगातार होने वाली चोट पहाड़ को काट देती हैं , न जाने उस पर कितनी चोटें की गयीं होगीं |
सादर
रमणीक ने रमणीक से रमनीक तक की यात्रा में न जाने क्या क्या झेला होगा जो स्वयं को ही खो बैठा.बेचारा!
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