हमें खबर है खबीसों के हर ठिकाने की
शरीके जुर्म न होते तो मुखबिरी करते
(~ हसन निसार?)
विगत सप्ताह कठिनाई भरे कहे जा सकते हैं। पहले एक व्यक्तिगत क्षति हुई। उसके बाद तो बुरी खबरों की जैसे बाढ़ ही आ गई। न्यूटाउन, कनेटीकट निवासी एक 20 वर्षीय असंतुलित युवा ने पहले अपनी माँ की क्रूर हत्या की और फिर उन्हीं की मारक राइफलें लेकर नन्हें बच्चों के "सैंडी हुक एलीमेंट्री" स्कूल पहुँचकर 20 बच्चों और 6 वयस्कों की निर्मम हत्या कर दी।
जब तक सँभल पाते दिल्ली बलात्कार कांड की वहशियत की परतें उघड़नी आरंभ हो गईं। परिवहन प्राधिकरण और दिल्ली पुलिस के भ्रष्टाचारी गँठजोड़ से शायद ही कोई दिल्ली वाला अपरिचित हो। प्राइवेट बसें हों या ऑटो रिक्शा, हाल बुरा ही है क्योंकि देश में अपराधी हर जगह निर्भय होकर घूमते हैं। बची-खुची कसर पूरी होती है हर कोने पर खुली "सरकारी" शराब की दुकान और हर फुटपाथ पर लगे अंडे-चिकन-सिरी-पाये के ठेलों पर जमी अड्डेबाजी से। समझना कठिन नहीं है कि संस्कारहीन परिवारों के बिगड़े नौजवानों के लिए यह माहौल कल्पवृक्ष की तरह काम करता है। क्या कोई भी कभी भी पकड़ा नहीं जाता? इस बात का जवाब काका हाथरसी के शब्दों में - रिश्वत लेते पकड़ा गया तो रिश्वत देकर छूट जा।
दर्द की जो इंतहा इस समय हुई है, इससे पहले उसका अहसास सन 2006 में निठारी कांड के समय हुआ था जब स्थानीय महिला थानेदार को उपहार में एक कार देने वाले एक अरबपति की कोठी में दिन दहाड़े मासूम बच्चों का यौन शोषण, प्रताड़न, करने के बाद हत्या और मांसभक्षण नियमित रूप से होता रहा, और मृतावशेष घर के नजदीकी नाले में फेंके जाते रहे। शीशे की तरह स्पष्ट कांड में भी आरोपियों के मुकदमे आज भी चल रहे हैं। कुछ पीड़ितों के साथ यौन संसर्ग करने वाले धनिक के खिलाफ अभी तक कोई सज़ा सुनाये जाने की खबर मुझे नहीं है बल्कि एक मुकदमे में एक पीड़िता के मजदूर पिता के विरुद्ध समय पर गवाही के लिए अदालत न पहुँच पाने के आरोप में कानूनी कार्यवाही अवश्य हुई है। देश की मौजूदा कानून व्यवस्था और उसके सुधार के लिए किए जा रहे प्रयत्नों की झलक दिखने के लिए वह एक कांड ही काफी है।
हर ज़िम्मेदारी सरकार पर डाल देने की हमारी प्रवृत्ति पर भी काफी कुछ पढ़ने को मिला। व्यक्ति एक दूसरे से मिलकर समाज, समुदाय या सरकार इसीलिए बनाते हैं कि उन्हें हर समय अपना काम छोडकर अपने सर की रक्षा करने के लिए न बैठे रहना पड़े। मैं बार-बार कहता रहा हूँ कि कानून-व्यवस्था बनाना सरकार की पहली जिम्मेदारियों में से एक है और सभी उन्नत राष्ट्रों की सरकारें यह काम बखूबी करती रही हैं, तभी वे राष्ट्र उन्नति कर सके। आईपीएस-आईएएस अधिकारियों के सबसे महंगे जाल के बावजूद, भारत में न केवल व्यवस्था का, बल्कि सरकार और प्रशासन का ही पूर्णाभाव दिखाता है। जनता की गाढ़ी कमाई पर ऐश करने वाले नेता (जन-प्रतिनिधि?) तो आने के तीन मिलते हैं लेकिन प्रशासन अलोप है। समय आ गया है जब व्यवस्था बनाने की बात हो। न्याय और प्रशासन होगा तो रिश्वतखोरी, हफ्ता वसूली, पुलिस दमन से लेकर राजनीतिज्ञों की बद-दिमागी और माओवादियों की रंगदारी जैसी समस्याएँ भी भस्मासुर बनाने से पहले ही नियंत्रित की जा सकेंगी।
रही बात सरकार से उम्मीद रखने की, तो यह बात हम सबको, खासकर उन लोगों को समझनी चाहिए जो भूत, भविष्य या वर्तमान में सरकार का भाग हैं - कि सरकार से आशा रखना जायज़ ही नहीं अपेक्षित भी है। सरकारें देश के दुर्लभ संसाधनों से चलती हैं ताकि हर व्यक्ति को हर रोज़ हर जगह की बाधाओं और उनके प्रबंधन के बंधन से मुक्ति मिल सके। सरकार के दो आधारभूत लक्षण भारत में लापता हैं -
1. सरकार दिग्दर्शन के साथ न्याय, प्रशासन, व्यवस्था भी संभालती है|
2. कम से कम लोकतन्त्र में, सरकार अपने काम में जनता को भी साथ लेकर चलती है।
सरकार में बैठे लोग - नेता और नौकरशाह, दोनों - अपने अधकचरे और स्वार्थी निर्णय जनता पर थोपना रोककर यह जानने का प्रयास करें कि जनहित कहां है। व्यवस्था में दैनंदिन प्रशासन के साथ त्वरित न्याय-व्यवस्था भी शामिल है यह याद दिलाने के लिए ही निठारी का ज़िक्र किया था लेकिन कानून के एक भारी-भरकम खंभे के ज़िक्र के बिना शायद यह बात अधूरी रह जाये इसलिए एक सुपर-वकील का ज़िक्र ज़रूरी है।
भगवान राम के जन्मस्थान पर मंदिर बनाने का दावा करने वाले दल में कानून मंत्री रहे जेठमलानी पिछले दिनों मर्यादा पुरुषोत्तम "राम" पर अपनी टिप्पणी के कारण एक बार फिर चर्चा में आए थे। वैसे इसी शख्स ने पाकिस्तान से आए हैवानी आतंकवादियों की २६ नवम्बर की कारगुजारी (मुम्बई ऑपरेशन) के दौरान ही बिना किसी जांच के पकिस्तान को आरोप-मुक्त भी कर दिया था। लेकिन मैं इस आदमी का एक दीगर बयान कभी नहीं भूल पाता जो भारत में चर्चा के लायक नहीं समझा गया था।
आप जानते हैं कि आपके मुवक्किल ने हत्या की है वो अपराधी है लेकिन आपको तो उसे बचाना ही पड़ेगा. फ़र्ज़ करो कि मुझे मालूम है कि मेरे मुवक्किल ने अपराध किया है. मैं अदालत से कहूँगा कि साहब मेरे मुवक्किल को सज़ा देने के लिए ये सबूत काफ़ी नहीं हैं. मैं ऐसा नहीं कहूँगा कि मेरा मुवक्किल कहता है कि उसने ऐसा नहीं किया इसलिए वो निर्दोष है.ये हमारे पेशे की पाबंदी है. अगर मैं ऐसा करूँगा तो बार काउंसिल मेरे ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सकता है. मुझे मालूम है कि मेरे मुवक्किल ने ऐसा किया है तो तो उसे बचाने के लिए मैं ऐसा नहीं कहूँगा कि किसी दूसरे ने अपराध किया है. आप झूठ नहीं बोल सकते बल्कि न्यायाधीश के सामने ये सिद्ध करने की कोशिश करेंगे कि सबूत पर्याप्त नहीं हैं. इस पेशे की भी अपनी सीमा है.सुपर-वकील साहब, अगर कानून में इतनी बड़ी खामी है तो उसका शोषण करने के बजाय उसे पाटने की दिशा में काम कीजिये। नियमपालक जनता के पक्ष में खड़े होइए। अब, सुपर-वकील की बात आई है तो एक सुपर-कॉप की याद भी स्वाभाविक ही है। जहां अधिकांश केंद्रीय कर्मचारी कश्मीर, पंजाब, असम और नागालैंड के दुष्कर क्षेत्रों में विपरीत परिस्थितियों में चुपचाप जान दे रहे थे, उन दिनों में भी अपने पूरे पुलिस करीयर में अधिकांश समय देश की राजधानी में बसे रहने वाली एक सुपर-कॉप अल्पकाल के लिए पूर्वोत्तर राज्य में गईं तभी "संयोग से" उनकी संतान का दाखिला दिल्ली के एक उच्च शिक्षा संस्थान में पूर्वोत्तर के कोटा में हो गया था। उसके बाद जब अगली बार उनके तबादले की बात चली तो वे अपने को पीड़ित बताकर अपनी "अखिल भारतीय ज़िम्मेदारी" के पद से तुरंत इस्तीफा देकर चली गईं और तब एक बार फिर खबर में आईं जब पता लगा कि उनकी अपनी जनसेवी संस्था उनके हवाई जहाज़ के किरायों के लिए दान में लिए जानेवाले पैसे में "मामूली" हेराफेरी करती रही है। दशकों तक दिल्ली पुलिस में रहते हुए, अपने ऊपर अनेक फिल्में बनवाने और कई पुरस्कार जीतने के बावजूद दिल्ली पुलिस का चरित्र बदलने में अक्षम रहने वाली इस अधिकारी को अचानक शायद कोई जादू का चिराग मिल गया है कि अब वे बाहर रहते हुए भी (अपनी उसी संस्था के द्वारा?) 90 दिनों में पुलिस का चरित्र बदल डालने का दावा कर रही हैं।
(~राम जेठमलानी)
उदासी और विषाद के क्षणों में अलग-अलग तरह की बातें सुनने में आईं। कुछ अदरणीय मित्रों ने तो देश के वर्तमान हालात पर व्यथित होते हुए भ्रूण हत्या को भी जायज़ ठहरा दिया। लेकिन ऐसी बातें कहना भी उसी बेबसी (या कायरता) का एक रूप है जिसका दूसरा पक्ष पीड़ित से नज़रें बचाने से लेकर उसी को डांटने, दुतकारने या गलत ठहराने की ओर जाता है। जीवन में जीत ही सब कुछ नहीं है। अच्छे लोग भी चोट खाते हैं, बुद्धिमान भी असफल होते हैं। दुनिया में अन्याय है, ... और, कई बार वह जीतता हुआ भी लगता है। वही एहसास तो बदलना है। गिलास आधा खाली है या आधा भरा हुआ, इस दुविधा से बाहर निकालना है तो गिलास को पूरा भरने का प्रयास होना चाहिए। आगे बढ़ना ही है, ऊपर उठना ही होगा, एक बेहतर समाज की ओर, एक व्यवस्थित प्रशासन की ओर जहाँ "सर्वे भवन्तु सुखिना" का उद्घोष धरातलीय यथार्थ बन सके। सभ्यता का कोई विकल्प नहीं है।
मित्र ब्लॉगर गिरिजेश राव सर्वोच्च न्यायालय में "त्वरित न्याय" अदालतों के लिए याचिका बना रहे हैं। काजल कुमार जी ने इस बाबत एक ग्राफिक बनाया है जो इस पोस्ट में भी लगा हुआ है। अन्य मित्र भी अपने अपने तरीके से कुछ न कुछ कर ही रहे हैं। आपका श्रम सफल हो, कुछ बदले, कुछ बेहतर हो।
24 दिसंबर को बॉन (जर्मनी) में दो लोगों ने एक भारतीय युवक की ज़ुबान इसलिए काट ली कि वह मुसलमान नहीं था। पिछले गुरुवार को न्यूयॉर्क में एक युवती ने 46 वर्षीय सुनंदों सेन को चलती ट्रेन के आगे इसलिए धक्का दे दिया क्योंकि वह युवती हिन्दू और मुसलमानों से नफरत करती थी। विस्थापित देशभक्ति (मिसप्लेस्ड पैट्रियटिज्म) भी अहंकार जैसी ही एक बड़ी बुराई है। अपने को छोटे-छोटे गुटों में मत बाँटिये। बड़े उद्देश्य पर नज़र रखते हुए भी भले लोगों को छोटे-मोटे कन्सेशन देने में कोई गुरेज न करें, नफरत को मन में न आने दें, हिंसा से बचें। दल, मज़हब, विचारधारा, जाति आदि की स्वामिभक्ति की जगह सत्यनिष्ठा अपनाने का प्रयास चलता रहे तो काम शायद आसान बने और हमारा सम्मिलित दर्द भी कम हो!
निर्भया, दामिनी या (शिल्पा मेहता के शब्दों में) "अभिमन्यु" को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि! उसकी पीड़ा हम मिटा न सके इसकी टीस मरते दम तक रहेगी लेकिन उस टीस को समूचे राष्ट्र ने महसूस किया है, यह भी कोई छोटी बात नहीं है। उस वीर नायिका के दुखद अवसान से इस निर्मम कांड का पटाक्षेप नहीं हुआ है। पूरा देश चिंतित है, शोकाकुल है लेकिन सुखद पक्ष यह है कि राष्ट्र चिंतन में भी लीन है। परिवर्तन अवश्य आयेगा, अपने आदर्श का अवमूल्यन मत कीजिये।
प्रथम विश्व युद्ध की हार से हतोत्साहित जर्मनों ने कम्युनिस्टों की गुंडागर्दी से परेशान होकर हिटलर जैसे दानव को अपना "फ्यूहरर" चुन लिया था। "हिन्दू" लोकतन्त्र से बचने के लिए पूर्वी बंगाल के मुसलमानों ने जिन्ना के पाकिस्तान को चुनने की गलती करके अपनी पीढ़ियाँ तबाह कर डालीं। हम भारतीय भी साँपनाथ से बचने को नागनाथ पालने की गलतियाँ बार-बार करते रहे हैं। वक़्त बुरा है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि एक बुराई मिटाने की आशा में हम दूसरी बुराइयों को न्योतते रहें। दुर्भाग्य से इस देश के जयचंदों ने अक्सर ऐसा किया। खुद भी उन्नत होइए और अपने आदर्शों में भी केवल उन्नत और विचारवान लोगों को ही जगह दीजिये। सम्पूर्ण क्रान्ति की आशा उस व्यक्ति से मत बांधिये जिसे यह भी नहीं पता कि देश का भूखा गरीब शीतलहर के दिन कैसे काटता है या बाढ़ में बांधों का पानी छोड़ने से कितने जान-माल की हानि हर साल होती है। लिखने को बहुत कुछ है, शायद बाद में लिखता भी रहूँ, फिलहाल इतना ही क्योंकि पहले ही इतना कुछ कहा जा चुका है कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए कहने को कुछ खास बचता नहीं।
अल्लाह करे मीर का जन्नत में मकाँ होयहाँ लिखी किसी भी बात का उद्देश्य आपका दिल दुखाना नहीं है। यदि भूलवश ऐसा हुआ भी हो तो मुझे अवगत अवश्य कराएँ और भूल-सुधार का अवसर दें। नव वर्ष हम सबके लिए नई आशा किरण लेकर आए ...
मरहूम ने हर बात हमारी ही बयाँ की (~इब्ने इंशा)
* संबन्धित कड़ियाँ *
बलात्कार के विरुद्ध त्वरित न्यायपीठों हेतु गिरिजेश राव की जनहित याचिका
लड़कियों को कराते और लड़कों को तमीज
खूब लड़ी मर्दानी...
नव वर्ष का संकल्प
इस सुंदर और विचारणीय पोस्ट के लिए आपका आभार। सचमुच सत्य निष्ठा सबसे बड़ी कसौटी है। आपके अन्य सभी विचारों से पूरी तौर पर सहमत हूँ लेकिन किरण बेदी को इस तरह कटघरे में खड़े करने से सहमत नहीं हूँ लाख बुराइयाँ ही सहीं लेकिन भारतीय नारी को अभिमन्यु बनाने की दिशा में आजाद भारत में पहला कदम उन जैसी महिलाओं ने ही उठाया है।
ReplyDeleteसौरभ जी, आपकी भावना के लिए मेरे मन में पूरा आदर है।
Delete2012 का कड़वा सच बयां किया है। उम्मीद ही कर सकते हैं कि 2013 आशा की नई किरणें लेकर आएगा।
ReplyDeleteशुभकामनायें।
यूँ तो आपकी यह पूरी पोस्ट ही आत्मपरकता लिए, विचारोत्तेजक है किन्तु इसका यह एक वाक्य अपने आप में सब कुछ समेट लेता है -
ReplyDelete'दल, मज़हब, विचारधारा, जाति आदि की स्वामिभक्ति की जगह सत्यनिष्ठा अपनाने का प्रयास चलता रहे तो काम शायद आसान बने और हमारा सम्मिलित दर्द भी कम हो!'
यह उदात्त भाव हम अपना लें तो कई परेशानियों से मुक्ति नजर आती है।
आशा तो यही करेंगे कि कम से कम कुछ तो अच्छा घटित हो, कुछ तो दाग कम हों.
ReplyDeleteविचारपूर्ण .संस्कारों की कमी और नैतिक पृष्ठभूमि का अभाव साग्फ़ दिख रहा है!
ReplyDeleteयह सही है कि दुर्व्यवस्था के जिम्मेदार जयचंद जैसे लोग ही अधिक है , दरअसल हमने अपने बच्चों को जन्म से ही वह घूंटी पिलानी छोड़ दी , जो भगत सिंह , शिवाजी , लक्ष्मी बाई की माताओं ने पिलाई थी !!
ReplyDeleteयह सामाजिक बीमारी है, इसे समाज को ही ठीक करना होगा।
ReplyDelete2012 का अच्छा विवेचन करता रोचक आलेख। आज जो देश में हालात है उन्हें देख 2013 से भी बहुत आशान्विन नहीं रहा जा सकता। राजनीति हिन्दुस्तान के लिये नासूर बन चुकी है। एक तवायफ को भी शायद हमारे राजनीतिगयों से बेहतर शर्म आती होगी। आज ये बेशर्म लोग अपनी बेशर्म औलादों को भी युवा पीढी के नेता के नाम पर इस देश पर थोंप रही है मगर जो कुछ अभी हमने देखा वास्मे एक भी ये तथाकथित नेता नजर नहीं आये। लोगो की घटिया सोच हमने हिमांचल के चुनाव में देख ली तो आगे क्या उम्मीद रखे ?
ReplyDelete♥(¯`'•.¸(¯`•*♥♥*•¯)¸.•'´¯)♥
♥नव वर्ष मंगबलमय हो !♥
♥(_¸.•'´(_•*♥♥*•_)`'• .¸_)♥
वर्ष बीतते बीतते नई-पुरानी कितनी घटनाओं-दुर्घटनाओं का जायजा लिया है आपने !
आदरणीय अनुराग शर्मा जी
बहुत कुछ ऐसा घटा है जिसके लिए "बीती ताहि बिसार दे ..." कहना संभव नहीं ... फिर भी आशा का दामन नहीं छोड़ना चाहिए
२०१२ को अलविदा कहने के साथ मैं अपनी ओर से नव वर्ष के स्वागत में कहता हूं-
ले आ नया हर्ष , नव वर्ष आ !
आजा तू मुरली की तान लिये ' आ !
अधरों पर मीठी मुस्कान लिये ' आ !
विगत में जो आहत हुए , क्षत हुए ,
उन्हीं कंठ हृदयों में गान लिये ' आ !
हम सबकी ,सम्पूर्ण मानव समाज की आशाएं जीवित रहनी ही चाहिए …
नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
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गम्भीर चिंतन युक्त विचारोत्तेजक पोस्ट!! भले ही लोग संस्कार के नाम पर नाक भौ सिकोड़ते हो, वर्ग विभेद से परे संस्कार निष्ठा ज्वलंत आवश्यकता है। अहिंसक जीवन मूल्यों का समाज में उदारता से स्थापन नितांत आवश्यक है।
ReplyDeleteपूर्णतः सहमत हूँ - "आगे बढ़ना ही है, ऊपर उठाना ही होगा, एक बेहतर समाज की ओर, एक व्यवस्थित प्रशासन की ओर जहां "सर्वे भवन्तु सुखिना" का उद्घोष धरातलीय यथार्थ बन सके। सभ्यता का कोई विकल्प नहीं है। "
ReplyDeleteपरिवर्तन की बाट हम सब जोह रहे हैं। हम सब अपने अपने स्तर पर कर्मशील हैं। गिरिजेश भईया के संकल्प-कर्म में हम सबका दृढ़ स्वर है। हमें हमारी विचारशीलता, उससे उपजे संकल्प और इस संकल्प से निर्मित हुए साहस का अपरिमित बल है। हर निरंकुश सत्ता को नत होना पड़ना है, वह अप्रासंगिक हो जाती है- हम उसी आशा में हैं।
आपने कड़ी दर कड़ी कहूँ या परत दर परत देश परदेश की घटनाएँ बतलाई न जाने लोग कहाँ जा रहे हैं ....
ReplyDeleteकमी हमारे अपने अंदर है , हमारी शिक्षा में संस्कारों में. सरकार से कोई भी उम्मीद बेमानी है.
ReplyDeleteहाहाहाहादिल तो तब दुखेगा मित्र जब हमें याद होगा कि हमारे पास दिल है...औऱ है भी तो वो इतना बुदजिल है कि कभी विरोध नहीं करता..करता है तो कभी-कभी जब करारा तमाजा पड़ता है। कुछ यही हाल इस समय दिल्ली का है...कई समय से दबी हुई अवाजें बिना किसी की अगुवाई में पूरी ताकत से बहरे कानों में गूंज रही है....औऱ कुछ कानों के पर्दे तो जरुर फटेंगे इस बार....उम्मीद तो कर सकते हैं..हम तो इतना ही कर सकते हैं कि कुछ सपनों को पलने दें..कुछ उंची उठती अवाजों में अपनी अवाज मिलाएं...
ReplyDeleteनव वर्ष की शुभकानाएं आफको मित्र
ज़रूर! शुभकामनाएं!
Deleteदिन तीन सौ पैसठ साल के,
ReplyDeleteयों ऐसे निकल गए,
मुट्ठी में बंद कुछ रेत-कण,
ज्यों कहीं फिसल गए।
कुछ आनंद, उमंग,उल्लास तो
कुछ आकुल,विकल गए।
दिन तीन सौ पैसठ साल के,
यों ऐसे निकल गए।।
शुभकामनाये और मंगलमय नववर्ष की दुआ !
इस उम्मीद और आशा के साथ कि
ऐसा होवे नए साल में,
मिले न काला कहीं दाल में,
जंगलराज ख़त्म हो जाए,
गद्हे न घूमें शेर खाल में।
दीप प्रज्वलित हो बुद्धि-ज्ञान का,
प्राबल्य विनाश हो अभिमान का,
बैठा न हो उलूक डाल-ड़ाल में,
ऐसा होवे नए साल में।
Wishing you all a very Happy & Prosperous New Year.
May the year ahead be filled Good Health, Happiness and Peace !!!
सहमत हूँ आपको सहपरिवार नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएँ....
ReplyDelete:-)
दुनिया भर में मची उथल पुथल को अपने एक साथ रखकर बता दिया सब जगह बुराईयाँ सिर उठा रही हैं.. जरूरत है जनता के उठ खड़े होने की...
ReplyDeleteसरकारें तो तानाशाह हो गयीं है लगातार हुए कुछ मामलों में उसका रुख देख कर तो यही लगता है... इन्हें सबक सिखाने के लिए जनजाग्रति बेहद जरूरी है...
मालिक जागेगा तब ही नौकर ढंग से काम करेगा...
vicharniya post..:)
ReplyDeleteसुना था इक्कीस दिसम्बर को धरती होगी खत्म
पर पाँच दिन पहले ही दिखाया दरिंदों ने रूप क्रूरतम
छलक गई आँखें, लगा इंतेहा है ये सितम
फिर सोचा, चलो आया नया साल
जो बिता, भूलो, रहें खुशहाल
पर आ रही थी, अंतरात्मा की आवाज
उस ज़िंदादिल युवती की कसम
उसके दर्द और आहों की कसम
हर ऐसे जिल्लत से गुजरने वाली
नारी के आबरू की कसम
जीवांदायिनी माँ की कसम, बहन की कसम
दिल मे बसने वाली प्रेयसी की कसम
उसे रखना तब तक याद
जब तक उसके आँसू का मिले न हिसाब
जब तक हर नारी न हो जाए सक्षम
जब तक की हम स्त्री-पुरुष मे कोई न हो कम
हम में न रहे अहम,
मिल कर ऐसी सुंदर बगिया बनाएँगे हम !!!!
नए वर्ष मे नए सोच के साथ शुभकामनायें.....
.
http://jindagikeerahen.blogspot.in/2012/12/blog-post_31.html#.UOLFUeRJOT8
काफी विचारणीय आलेख ....
ReplyDeleteबीते वर्ष का लेखा जोखा ...
ReplyDeleteपर आशा एक ऐसी चीज है जो बनी रहती है ... बदलाव आना ही होगा ... हर समाज देश काल में आता है ... आपको २०१३ की मगल कामनाएं ...
व्यापक दृष्टि से आकलन और विचारणीय बिन्दु सामने लाने के लिये आभार !
ReplyDeleteव्यापक दृष्टिकोण एवं विचारणीय बिन्दु सामने लाने हेतु आभार !
ReplyDeleteकाश विचारों की परिधि विस्तृत हो सबकी, इस वर्ष।
ReplyDeleteसरकारी शराब की दुकान और वहां के अड्डेबाजी की बात आपने बिलकुल सही कही.मैं बदरपुर में रहता हूँ और यहाँ बदरपुर टोल गेट के ही सामने तीन सरकारी शराब की दूकान है, और वहां जो लोग अड्डेबाजी करते हैं उनकी वजह से कोई भी महिला उधर से पैदल जाना पसंद नहीं करती, या तो रिक्शे से जाती हैं या कुछ आगे से ही बस पकड़ लेती हैं.उनपर कमेंट्स होते तो एक दो बार मैंने भी सुने हैं, और सबसे बड़ी बात की इन अड्डो पर पुलिस वाले लोग भी मौजूद रहते हैं..
ReplyDeleteशासकीय शराब दुकान अगले चौराहे पर है...
ReplyDeleteऔर
यहाँ बैठकर पीने की उत्तम व्यवस्था के बोर्ड स्कूल के रास्तों पर भी लगे देखे हैं ....:-(
बहुत सोचने के बाद हमारी प्रतिक्रिया वही है, जो आपने लिखा भी है - "पहले ही इतना कुछ कहा जा चुका है कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए कहने को कुछ खास बचता नहीं।"
ReplyDeleteबहुत सटीक और संतुलित लिखा आपने, पर इस मर्ज की दवा कहीं नही मिलती, हार्दिक शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
आज जो जनता है कल वो ही सरकार होगी , जरूरत अवाम की मानसिकता को बदलने की है |
ReplyDeleteसादर