जाहिलियत के ज़माने से महिलाओं की सुरक्षा और उनके उत्थान के लिए दुनिया भर में अनेकों कृत्य होते रहे हैं। कभी उन्हें घूंघट या बुर्के के द्वारा सुरक्षित रखा जाता है और कभी मेहर और खुला के "अधिकार" से। कभी पाप से रक्षा जौहर कर के होती थी तो कभी पति के साथ चिता में जीवित जल जाने से।
यह तो थी पुराने ज़माने की बात। आजकल महिला सुरक्षा की जिम्मेदारी धार्मिक संगठनों से उठकर पहले तो आतंकवादी संगठनों तक पहुँची जिन्होंने कश्मीर में बुर्का न पहनने वाली लड़कियों की सुरक्षा के लिए उनके चेहरे पर तेजाब डालने का कर्म शुरू किया। अब आप कहेंगे कि कश्मीर की बात क्यों, वहाँ तो कोई प्रशासन ही नहीं है। राज्य सरकार हर जिम्मेदारी सेना के कन्धों पर डाल कर हाथ झाड़ लेती है। तो चलिए कानपुर चलते हैं जहाँ पर डीबीएस कालेज के प्राचार्य डॉ अशोक श्रीवास्तव ने नारी-सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाने के लिए एक प्राचार्य-परिषद् बनाकर करीब 425 शिक्षण संस्थानों को यह फरमान जारी कर डाला कि लडकियाँ जींस नहीं पहनेंगी। डॉ श्रीवास्तव ने एक आदेश जारी कर कहा कि उन्होंने प्रदेश के सभी डिग्री कालेजों में लड़कियों के जीन्स, टाप पहनने और मोबाइल लेकर आने पर रोक लगा दी है।
वैसे श्रीवास्तव जी ने यह आदेश किस हैसियत से दिया है यह किसी को पता नहीं है। यह बात ध्यान में रखने की है कि इस संगठन को न तो शासन की मान्यता प्राप्त है और न ही कहीं इसका पंजीकरण है। संस्था की कानूनी स्थिति छोड़ भी दें मगर यह तो सोचना ही पडेगा कि क्या नारी के विरुद्ध होने वाले सब अपराधों की जड़ में यह जींस ही है?
मैं यहाँ पिट्सबर्ग में बैठा हुआ अपने अतिथि मित्र से यह बात कर ही रहा था कि उनके दोनों पुत्रों ने मेरे सोफे पर कूदना बंद करके खाने की मेज़ पर कूदना शुरू कर दिया। मित्र भारतीय हैं, उच्च-शिक्षित हैं और यह मानते हैं कि दुनिया की सारी समस्याओं का हल भारतीय संस्कृति के पालन में छिपा है। वे अपने बेटों को हर रविवार संस्कृति की शिक्षा के लिए स्थानीय आध्यात्मिक-धार्मिक-सत्संग ग्रुप में भी भेजते हैं। मुझे लगा कि अब वे अपने उद्दंड लड़कों को भी भारतीय संस्कृति के कुछ सुभाषित प्रदान करेंगे मगर वे या तो कानपुर की समस्या में समाधिस्थ हो गए थे या फ़िर बेटों के व्यवहार में उन्हें कुछ भी असामान्य नहीं नज़र आया - गरज़ यह कि वे बच्चों पर ध्यान दिए बिना अविचलित रूप से बात करते रहे। बच्चों की माँ भी कुछ व्यस्त नज़र आयीं। जब मेज़ कुछ खतरनाक रूप से हिलने लगी तो मैंने मित्र को समाधि से बाहर खींचकर उनके बेटों पर आसन्न खतरे की और उनका ध्यान आकर्षित किया। अपने सुखासन से हिले बिना ही उन्होंने एक डायलॉग मारा, "अरे लड़के तो ऐसे ही होते हैं, इन्हें कुछ नहीं होगा।"
लड़के मैंने भी बहुत देखे थे हाँ ऐसा बाप नहीं देखा था इसलिए इस संवाद से मेरी समझ में आ गया कि कानपुर वाले श्रीवास्तव जी प्राचार्य होते हुए भी समस्या की जड़ में क्यों नहीं जा सकते। होना यह चाहिए कि कुछ गैर-जिम्मेदार माँ-बाप के उद्दंड लड़कों की हरकतों की शिकार लड़कियों पर अनेकानेक प्रतिबन्ध लगाने के बजाय कुछ प्रैक्टिकल हल निकाले जाएँ। उदाहरण के लिए लड़कियों को घर-स्कूल-कॉलेज में शौर्यकलाओं की मुफ्त शिक्षा दी जा सकती है। और लड़कों को? उन्हें, कम से कम समाज-व्यवस्था का आदर करने की तमीज़ तो सिखानी ही पड़ेगी। अपराधियों को त्वरित और कड़ी सज़ा मिलने के साथ ही "लड़के तो ऐसे ही होते हैं ..." कहकर बढावा देने वाले उनके बेरीढ़ माँ-बाप को भी शिक्षित करने की दिशा में कदम उठाने चाहिए।
"लड़कियों को कराते और लड़कों को तमीज़" ऐसी शुरूआत करने के लिए इस प्राचार्य-परिषद् से बेहतर संस्था क्या हो सकती है?
यह तो थी पुराने ज़माने की बात। आजकल महिला सुरक्षा की जिम्मेदारी धार्मिक संगठनों से उठकर पहले तो आतंकवादी संगठनों तक पहुँची जिन्होंने कश्मीर में बुर्का न पहनने वाली लड़कियों की सुरक्षा के लिए उनके चेहरे पर तेजाब डालने का कर्म शुरू किया। अब आप कहेंगे कि कश्मीर की बात क्यों, वहाँ तो कोई प्रशासन ही नहीं है। राज्य सरकार हर जिम्मेदारी सेना के कन्धों पर डाल कर हाथ झाड़ लेती है। तो चलिए कानपुर चलते हैं जहाँ पर डीबीएस कालेज के प्राचार्य डॉ अशोक श्रीवास्तव ने नारी-सुरक्षा की जिम्मेदारी उठाने के लिए एक प्राचार्य-परिषद् बनाकर करीब 425 शिक्षण संस्थानों को यह फरमान जारी कर डाला कि लडकियाँ जींस नहीं पहनेंगी। डॉ श्रीवास्तव ने एक आदेश जारी कर कहा कि उन्होंने प्रदेश के सभी डिग्री कालेजों में लड़कियों के जीन्स, टाप पहनने और मोबाइल लेकर आने पर रोक लगा दी है।
वैसे श्रीवास्तव जी ने यह आदेश किस हैसियत से दिया है यह किसी को पता नहीं है। यह बात ध्यान में रखने की है कि इस संगठन को न तो शासन की मान्यता प्राप्त है और न ही कहीं इसका पंजीकरण है। संस्था की कानूनी स्थिति छोड़ भी दें मगर यह तो सोचना ही पडेगा कि क्या नारी के विरुद्ध होने वाले सब अपराधों की जड़ में यह जींस ही है?
मैं यहाँ पिट्सबर्ग में बैठा हुआ अपने अतिथि मित्र से यह बात कर ही रहा था कि उनके दोनों पुत्रों ने मेरे सोफे पर कूदना बंद करके खाने की मेज़ पर कूदना शुरू कर दिया। मित्र भारतीय हैं, उच्च-शिक्षित हैं और यह मानते हैं कि दुनिया की सारी समस्याओं का हल भारतीय संस्कृति के पालन में छिपा है। वे अपने बेटों को हर रविवार संस्कृति की शिक्षा के लिए स्थानीय आध्यात्मिक-धार्मिक-सत्संग ग्रुप में भी भेजते हैं। मुझे लगा कि अब वे अपने उद्दंड लड़कों को भी भारतीय संस्कृति के कुछ सुभाषित प्रदान करेंगे मगर वे या तो कानपुर की समस्या में समाधिस्थ हो गए थे या फ़िर बेटों के व्यवहार में उन्हें कुछ भी असामान्य नहीं नज़र आया - गरज़ यह कि वे बच्चों पर ध्यान दिए बिना अविचलित रूप से बात करते रहे। बच्चों की माँ भी कुछ व्यस्त नज़र आयीं। जब मेज़ कुछ खतरनाक रूप से हिलने लगी तो मैंने मित्र को समाधि से बाहर खींचकर उनके बेटों पर आसन्न खतरे की और उनका ध्यान आकर्षित किया। अपने सुखासन से हिले बिना ही उन्होंने एक डायलॉग मारा, "अरे लड़के तो ऐसे ही होते हैं, इन्हें कुछ नहीं होगा।"
लड़के मैंने भी बहुत देखे थे हाँ ऐसा बाप नहीं देखा था इसलिए इस संवाद से मेरी समझ में आ गया कि कानपुर वाले श्रीवास्तव जी प्राचार्य होते हुए भी समस्या की जड़ में क्यों नहीं जा सकते। होना यह चाहिए कि कुछ गैर-जिम्मेदार माँ-बाप के उद्दंड लड़कों की हरकतों की शिकार लड़कियों पर अनेकानेक प्रतिबन्ध लगाने के बजाय कुछ प्रैक्टिकल हल निकाले जाएँ। उदाहरण के लिए लड़कियों को घर-स्कूल-कॉलेज में शौर्यकलाओं की मुफ्त शिक्षा दी जा सकती है। और लड़कों को? उन्हें, कम से कम समाज-व्यवस्था का आदर करने की तमीज़ तो सिखानी ही पड़ेगी। अपराधियों को त्वरित और कड़ी सज़ा मिलने के साथ ही "लड़के तो ऐसे ही होते हैं ..." कहकर बढावा देने वाले उनके बेरीढ़ माँ-बाप को भी शिक्षित करने की दिशा में कदम उठाने चाहिए।
"लड़कियों को कराते और लड़कों को तमीज़" ऐसी शुरूआत करने के लिए इस प्राचार्य-परिषद् से बेहतर संस्था क्या हो सकती है?
बहुत सही और सुन्दर वि्चार हैं मगर पितृप्रधान समाज से क्या आप ऐसी आशा कर सकते हैं शुभ कामनायें
ReplyDeleteमैं आपकी बात से सहमत हुं ड्रेस कोड दोनो के लिये होना चाहिये। आगरा के सेण्ट जौंस कालेज मे जब हम पढते थे तो ड्रेस कोड नही थ लेकिन हमारा आखिरी साल पुरा होते ही वहां ड्रेस कोड लागु हो गया जो दोनो के लिये था।
ReplyDeleteएक बात मैं कहना चाहुंगा की अगर ड्रेस कोड ना हो तो अश्लिलता की ज़द मे आने वाले कपडे लडकियां ही पहनती हैं पता नही अपना ज़िस्म दिखाने मे उन्हे क्या मज़ा आता है?
लेकिन जब दिखते ज़िस्म को गौर से देखो तो छोटे कपडें को खिचं कर बडा करने की कोशिश करती है ऐसा क्यौं? जब शर्म आती है तो ऐसा कपडा पहनते ही क्यौं हो?
मेरे इस सवाल का जवाब आज तक नही मिला. जितने प्राईवेट बिज़नेस कालेज है उनमें से ज़्यादातर मे ड्रेस कोड है क्यौंकी इससे सब एक समान दिखते है। आपको नही लगता की जब लडकी को जीन्स पहनने की इजाज़त दी जाती तो उसकी जीन्स कमर से काफ़ी नीचे कुल्हे के काफ़ी करीब आ जाती है और काफ़ी चुस्त हो जाती है इस हालत मे लडकी ने जीन्स के अन्दर क्या पहना है, उसका शेप क्या है? उसका बान्र्ड क्या है? रंग क्या है? और वो कहां से शुरु हो कर कहां खत्म हो रही है?
टाप ऐसा होता है जिसमे से पुरी कमर दिखती है, और अकसर इतना महीन होता है अन्दर पहने हुऎ वस्त्र का रंग भी दिखता है और ये भी दिखता है की कौन से हुक मे ये लगा हुआ है।
अब आप बताये इस लिबास को आप शालीन कहेंगे
लडकियों को कराटे और लडकों को तमीज,
ReplyDeleteवाह ये तो राष्ट्रीय आन्दोलन का मुद्दा होना चाहिये। आपके लेख से शत प्रतिशत सहमत...
All what you have written is of great thought.
ReplyDeletekindly take some time to read it also
http://agrakikhabar.blogspot.com/2009/06/blog-post.html
kya khoob likha hai bhai jee aapne.
ReplyDeleteसलाह तो आपकी दुरुस्त है.
ReplyDeleteकाशिफजी की टिपण्णी पर भी कुछ कहने का मन था... खैर ! दोष तो सिर्फ जींस और टॉप का है जी... लड़को को बेकार में ही आप तमीज सीखाने की बात कर रहे हैं. कोई फायदा नहीं सरजी. बहुत मुश्किल है किसी की विचारधारा को बदलना... और क्या कहें !
अनुराग जी , आप का लेख पढा बहुत अच्छा लगा, मैरे अपने विचार मै लडका या लडकी मां बाप को दोनो मै कोई भेद भाव नही रखना चाहिये, ड्रेस तो स्कूलो, कालेज मै होनी चाहिये, हमारे यहां स्कूलो मै कोई ड्रेस नही, हमारे यहां भी कुछ खास कपडे जो लडकियो को मना है, क्योकि उस से अन्य बच्चो (लडको) का ध्यान बंटता है, ओर फ़िर स्कूल, कालेज पढने के लिये है, फ़ेशन परेड के लिये नही, लडको को ओर लडाकियो दोनो को ही समझना चाहिये कि यह उन की भालाई के लिये है, फ़िर उम्र भर जो पहनाना है पहने.वेसे लडकियां भी इन लडकॊ से कम नही....बस लडके बदनाम हो जाते है, जब कि लडकियां लडकी होने के कारण साफ़ बच जाती है, मेरा कहने का मतलब दोनो ही एक से बड कर एक है, दोनो को ही तमीज ओर कपडे पहनने की तमीज सिखानई चाहिये.
ReplyDeleteधन्यवाद
सही है.ड्रेस कोड हो तो दोनों के लिए ही हो.
ReplyDeleteसही कहा ...
ReplyDeleteसँस्कार तो घर से शुरु होते हैँ और फिर व्यक्ति पर
सिमट जाते हैँ
- लावण्या
यह घटना तो आपके प्रति सहानुभूति उपजाती है
ReplyDeleteजब तक सोच नही बदलेगी तब तक बेटे-बेटियों मे
ReplyDeleteभेद-भाव यों ही चलता रहेगा।
बहुत सही कहा आपने. पर ये हमारी सोच का दुष्परिणाम है जो सदियों से चली आरही है. शायद अब वक्त आगया है कि इसे बदला जाये.
ReplyDeleteरामराम.
सच कहा आज के माहोल में ज़रुरत है किसी भी समस्या को नए दृष्टिकोण से देखने की .................... आपकी पोस्ट सार्थक है
ReplyDeleteपूर्णतः सहमत हूँ आपसे.....
ReplyDeleteहमें तो सर्कोजी बहुत जमे!
ReplyDeletesir, aap theek likh rahe hain, lekin jab frans ke pres aisa hi kar rahe hain phir unka virodh kyon?? wo bhi to burkha dress code ko hata rahe hain.
ReplyDeletesir, aapne theek likha hai, lekin frans me burkha dress code hataya ja raha hai to uski bhi aalochana ho rahi hai.
ReplyDeletewe need to condemn the attitude of parents who believe that boys are justified in doing any thing because they are boys . this builds up a pshyco pressure in girls from an young age and then try to defy the rules as and when they get a chance because their siblings { boys } have been doing it
ReplyDeleteand secondly we need to also condemn the attitude which believes that boys/man get sexually provoked if girls/woman wear clothes of their choice . this view is one of the most ridiculous views to give man "benefit of doubt " and this also in a way tries to to say that man have a biological disorder .
well if man have a biological disorder and they get sexually charged then instead of dress code for girls it would be better to have a medical treatment for such man who suffer from this disorder
एकदम सटीक कहा है आपने अनुराग जी
ReplyDeleteइसके हमें अपनी मानसिकता में बदलाव लाना होगा.......
ReplyDeleteसोलह आने खरी बात्।मां बाप को ध्यान रखना चाहिये बच्चों का।किस्के के लिये सेल फ़ोन ज़रूरी है और किसके लिये नही ये उन्हे तय करना उन्की ज़िम्मेदारी है और कौन से वस्त्र शालिन है और क्या खरीदना चाहिये या क्या पहनने से फ़ूहड़ता झलकती है ये भी सबसे पहले उन्हे ही नज़र आनी चाहिये।सहमत हूं आपसे पूरी तरह।
ReplyDeleteबिलकुल सही बात. वैसे सुश्री जी ने इस आदेश पर रोक लगा दी है!
ReplyDeleteभइया अनुराग जी,
ReplyDeleteड्रेस कोड लड़के-लड़िकयां सब पर लागू होना चाहिए,केवल लड़िकयों पर ही नहीं। लेकिन लागू जरूर होना चाहिए। क्योकि आप शिक्षा के मंदिर में एक पवित्र उद्देश्य से जाते हैं। वहां कोई फैशन शो नहीं हो रहा होता कि आप अपने परिधान का प्रदर्शन करें। जहां तक बेटे और बेटी में फर्क की बात है,तो ऐसी सोच रखने वालों पर सिर्फ तरस ही खाया जा सकता है।
अनुराग जी आपने सायद ये भी देखा होगा की कैसे ये तथाकथित माडर्न इंग्लिश एजुकेटेड भारतीय लड़कियां मिनी स्कर्ट, लगभग ट्रांसपरेंट टॉप, बेहद टाइट जींस पहन कर मंदिर मैं भगवान् के दर्शन करने आते हैं | पता नहीं ये बालाएं भगवान् के दर्शन करने आते हैं या अपना दर्शन सबको देने आते हैं ? वैसे लड़के भी कुछ कम पीछे नहीं हैं इसमें |
ReplyDeleteवैसे लड़कियां बिना ब्रा के टॉप पहनना फैशन का एक अंग मानती है | अब बताइए क्या करें ऐसी इस्थ्ती मैं? अपन भी वैसे बन कर इनके निताम्भों और अन्य अंगों को निहारते रहें?
थोडा इसपे भी गौर फरमाएं: http://raksingh.blogspot.com/
अनुराग जी,
ReplyDeleteआपका लेख बहुत ही सार्थक और सामयिक है, दरअसल इस समस्या का निदान सिर्फ माता-पिता के पास है, फैशन ज़रूरी है क्योंकि एक उम्र तक ही इसको अपनाया जा सकता है और अपनाना भी चाहिए, (वर्ना समय निकल जाने बाद अफ़सोस होता है, और ज्यादा उम्र हो जाए तो लोग कहेंगे 'बूढी घोडी लाल लगाम'अब आदमियों के लिए क्या कहते हैं यह मुझे पता नहीं) लेकिन एक सीमा तक, और एक उम्र तक अगर बच्चों का मार्गदर्शन किया जाए तो बच्चे खुद अपनी सीमा तय कर लेते हैं, मेरे तीन बच्चे हैं, २ बेटे और एक बेटी, पढ़ते भी खूब हैं और फैशन भी करते हैं, लेकिन उन्हें अपनी हद का पता है उस हद के आगे वो खुद ही नहीं जाते, शालीनता दर्शाते हुए भी बहुत फैशनएबल नज़र आया जा सकता है जो आकर्षक भी होता है, माँ-बाप अगर बच्चो को सही तरीके फैशन करना बताएं तो इससे समस्या भी दूर होगी और संबंधों में निकटता बढेगी, मैंने हमेशा अपने बच्चों को उनके फैशन के चुनाव में उनका साथ दिया है, और अच्छी बात ये है की उनके दोस्त भी अब मुझसे पूछ लेते हैं कभी कभी, और मुझे cool mom कहते हैं
आपका सुझाव बहुत सही है.जिसके पास जो नहीं होता उसका प्रबन्ध करना आवश्यक है.बेटों को बिगाड़ने, बदतमीज बनाते माता पिता सबने देखे हैं.
ReplyDeleteघुघूतीबासूती
ये सब समस्या के उपचार हैं.किन्तु क्या बेहतर यह नहीं होगा की समस्या ही न होने दी जाय.घर से ही ऐसी शिक्षा और ऐसा माहौल मिले की इंसान शारीरिक रूप से न तो स्वयं को अलग दिखाना चाहे न ही किसी के शरीर को अलग रूप में देखे.हर शरीर में सामान प्राण हैं ,सामान स्पंदन है,फिर ह्रदय में कुछ अलग सा देखने-दिखाने का भाव ही क्यों जन्म ले.सामान्य भारतीय वेश-भूषा से पुरुष या स्त्री किसी को कभी कोई समस्या नहीं आती.हम ही लोग हैं जो फैशन व प्रगतिशील होने के नाम पर खुद व अपने बच्चों को बेढंगे आवरण से ढक कर,अनोखे रूप में दिखाते हैं,बाद में समाज के गिरते नैतिक स्तर की चिंता करते हैं.फैशन परेडों में अपने बच्चों को चलता हुआ देखकर खुश होते हैं,वहां स्त्री के शरीर पर पड़ती निगाह को कला के पारखियों की निगाह मान कर गर्व महसूस करते हैं.हम स्वयं दोगले हैं और जब तक ये दोगलापन ख़त्म नहीं होगा ,किसी भी समस्या का कोई समाधान नहीं है.
ReplyDeleteये सब समस्या के उपचार हैं.किन्तु क्या बेहतर यह नहीं होगा की समस्या ही न होने दी जाय.घर से ही ऐसी शिक्षा और ऐसा माहौल मिले की इंसान शारीरिक रूप से न तो स्वयं को अलग दिखाना चाहे न ही किसी के शरीर को अलग रूप में देखे.हर शरीर में सामान प्राण हैं ,सामान स्पंदन है,फिर ह्रदय में कुछ अलग सा देखने-दिखाने का भाव ही क्यों जन्म ले.सामान्य भारतीय वेश-भूषा से पुरुष या स्त्री किसी को कभी कोई समस्या नहीं आती.हम ही लोग हैं जो फैशन व प्रगतिशील होने के नाम पर खुद व अपने बच्चों को बेढंगे आवरण से ढक कर,अनोखे रूप में दिखाते हैं,बाद में समाज के गिरते नैतिक स्तर की चिंता करते हैं.फैशन परेडों में अपने बच्चों को चलता हुआ देखकर खुश होते हैं,वहां स्त्री के शरीर पर पड़ती निगाह को कला के पारखियों की निगाह मान कर गर्व महसूस करते हैं.हम स्वयं दोगले हैं और जब तक ये दोगलापन ख़त्म नहीं होगा ,किसी भी समस्या का कोई समाधान नहीं है.
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