आभासी सम्बन्धों के आकार-प्रकार पर हमारे राज्य के पेन स्टेट विश्वविद्यालय के एक शोध ने यह तय किया है कि फेसबुक जैसी वैबसाइटों पर मित्रता अनुरोध अस्वीकार होने या नजरअंदाज किये जाने पर सन्देश प्रेषक ठुकराया हुआ सा महसूस करते हैं। इस अध्ययन से यह बात तो सामने आई ही है कि अनेक लोगों के लिए यह आभासी संसार भी वास्तविक जगत जैसा ही सच्चा है। साथ ही इससे यह भी पता लगता है कि कई लोग दूसरों को आहत करने का एक नया मार्ग भी अपना रहे हैं।
आपके तथाकथित मित्र फेसबुक या गूगल प्लस पर आपकी ‘फ्रैंड रिक्वैस्ट’ ठुकरा कर, या अपने ब्लॉग पर आपकी टिप्पणियों को सेंसर करके या फिर इससे दो कदम आगे जाकर आपके विरुद्ध पोस्ट पर पोस्ट लिखते हुए आपकी जवाबी टिप्पणियाँ प्रकाशित न करके या फिर टिप्पणी का विकल्प ही पूर्णतया बन्द करके आपको चोट पहुँचाते जा रहे हैं तो आपको खराब लगना स्वाभाविक ही है। आपकी फेसबुक वाल या गूगल प्लस पर कोई आभासी साथी आकर अपना लिंक चिपका जाता है। आप क्लिक करते हैं तो पता लगता है कि पोस्ट तो केवल आमंत्रित पाठकों के लिये थी, लिंक तो आपको चिढाने के लिये भेजे जा रहे थे। किसी हास्यकवि ने विवाह के आमंत्रण पत्र पर अक्सर लिखे जाने वाले दोहे की पैरोडी करते हुए कहा था:
लेकिन गुस्से में आग-बबूला होने से पहले ज़रा एक पल रुककर इतना अवश्य सोचिये कि क्या इन सब से सदा आहत होने की प्रक्रिया में हमारा कोई रोल नहीं है? अंग्रेज़ी की एक कहावत है कि इंसान अपनी संगत से पहचाना जाता है। यदि हमारे आसपास के अधिकतर लोग जोश को होश से आगे रखते हैं तो हमारे भी वैसा ही होने की काफ़ी सम्भावना है। शायद हम अपवाद हों, लेकिन यह जाँचने में हर्ज़ ही क्या है?
मेरे बारे में तो आप ही बेहतर बता पायेंगे लेकिन ब्लॉग जगत भ्रमण करते हुए मैंने जो कुछेक खिझाने वाली बातें देखी हैं उन्हें यहाँ लिख रहा हूँ। इनमें कई बातें ऐसी हैं जो अभासी जगत के अज्ञान के कारण पैदा हुई हैं लेकिन कई ऐसी भी हैं जिनसे हमारे भौतिक जीवन की वास्तविकता ज़ाहिर होती है।
किसी ब्लॉग पर कमेंट करने चलो तो यह मौलिक शिष्टाचार है कि हिन्दी की पोस्ट पर टिप्पणी हिन्दी में ही की जाये। लेकिन टिप्पणी लिखने के ठीक बाद आपका सामना होता है वर्ड वेरिफ़िकेशन के दैत्य से जिसके कैप्चा अंग्रेज़ी में होते हैं और कई बार आपके लिखे अक्षर अस्वीकृत होने के बाद आपको अपनी ग़लती का अहसास होता है और आप अपना कीबोर्ड हिन्दी से अंग्रेज़ी में वापस बदलते हैं। अगली पोस्ट पर फिर एक परिवर्तन ...। आप कहेंगे कि यह चौकसी के लिये है। ऐसा होता तो क्या ग़म था। दुःख तब होता है जब उसी पोस्ट पर आपको स्पैम कमेंट भी आराम से रहते हुए दिखते हैं।
कुछ ब्लॉग ऐसे हैं कि आप पढना तो चाहते हैं मगर आपके शांत पठन में बाधा डालने का इंतज़ाम ब्लॉग लेखक ने खुद ही कर दिया है एक ऐसा ऑडियो लगाकर जिसका ऑफ़ बटन या तो होता ही नहीं या ऐसी जगह पर छिपा होता है कि ढूंढते-ढूंढते थक जाने पर पन्ना पलटने से पहले आप उस ब्लॉग पर दोबारा कभी न आने का प्रण ज़रूर करते हैं। आश्चर्य नहीं कि उस ब्लॉग पर अगली पोस्ट पाठकों की तोताचश्मी पर होती है।
इन सदाबहार ऑडियो वालों के विपरीत वे ब्लॉगर हैं जिनके ब्लॉग पर आप जाते ही ऑडियो सुनने (या विडियो देखने) के लिये हैं लेकिन यदि सुनते-सुनते ही आपने कुछ लिखने का प्रयास किया तो टिप्पणी बॉक्स उसी पेज पर होने के कारण आपका ऑडियो रिफ़्रेश हो जाता है। अब सारी कसरत शुरू कीजिये एक बार फिर से ... इतना टाइम किसके पास है भिड़ु? मणि कौल की फ़िल्में देखने से बचता हूँ, हर बार यही बात दिमाग़ में आती है कि निर्देशक को अपने दर्शकों के समय का आदर तो करना ही चाहिये।
सताने वाले ब्लॉगर्स का एक और प्रकार है। ये लोग दिन में पाँच पोस्ट लिखते हैं। हर पोस्ट का ईमेल पाँच हज़ार लोगों को भेजने के अलावा हर ऑनलाइन माध्यम पर उसे पाँच-पाँच बार (पब्लिक, मित्र, विस्तृत समूह आदि) पोस्ट करते हैं। हर रोज़ 25 वाल पोस्ट हाइड करते वक़्त आप यही सोचते हैं कि यह बन्दा आपकी मित्र सूची में घुसा कैसे। फिर एक दिन चैट पर वही व्यक्ति आपको पकड़ लेता है और अपनी दारुणकथा सुनाकर द्रवित कर देता है कि किस तरह उसके सभी अहसान-फ़रामोश मित्र एक एक करके उसे अपनी सूची से बाहर कर रहे हैं। हाय राम, एक साल में 90% टिप्पणीकारों ने साथ छोड़ दिया।
मित्र के दुःख से दुखी आप उसे यह भी नहीं बता सकते कि उसकी कोई पोस्ट पढने लायक हो तो भी शायद लोग झेल लें, मगर वहाँ तो बिना किसी भूमिका के उस समाचार का लिंक होता है जो आज के सभी समाचार पत्रों में आप पहले ही पढ चुके थे। इससे मिलती जुलती श्रेणी उन भाई-बहनों की है जो हज़ार बार पहले पढे जा चुके चेन ईमेल, चुटकुले, चित्र आदि ही चिपकाते रहते हैं।
जागरूक ब्लॉगर्स का एक वर्ग वह है जो अपने ब्लॉग पर न सिर्फ़ कॉपीराइट नोटिस और कानूनी तरदीद लगाकर रखते हैं बल्कि काफ़ी मेहनत करके ऐसा इंतज़ाम भी रखते हैं कि आप उनके ब्लॉग का एक शब्द भी (आसानी से) कॉपी न कर सकें। वैसे इस प्रकार के अधिकांश ब्लॉगरों के यहाँ से कुछ कॉपी करने की ज़रूरत किसी को होती नहीं है क्योंकि इन ब्लॉगों पर अधिकांश लिंक, जानकारी और चित्र पहले ही यहाँ-वहाँ से कॉपी किये हुए होते हैं। मुश्किल बस इनके उन्हीं मित्रों को होती है जो टिप्पणी लेनदेन की सामाजिक ज़िम्मेदारी निभाने के लिये "बेहतरीन" लिखने से पहले उनकी पोस्ट की आखिरी दो लाइनें भी चेपना चाहते हैं।
एक और विशिष्ट प्रजाति है, हल्लाकारों की। ये समाज की नाक में नकेल डालकर उसे सही दिशा की अरई से हांकने के एक्स्पर्ट होते हैं। अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजने वाले हल्लाकार गुरुकुल पद्धति लाने का नारा बुलन्द करते हैं और हिन्दीभाषी कस्बे में रहते हुए भी खुद कॉंवेंट में पढे हल्लाकार तमिलनाडु में तमिल हटाकर हिन्दी लाने का लारा देते हैं। इस वर्ग को भारत के इतिहास-भूगोल का पूर्ण अज्ञान होते हुए भी भारतीय संस्कृति के सम्मान के लिये अमेरिका-यूरोप की नारियों को बुरके और घूंघट में लपेटना ज़रूरी मालूम पड़ता है। अपने को बम समझने वाले ये असंतोष के गुब्बारे फ़टने के लिये इतने आतुर रहते हैं कि कोई भी गुर्गा खाँ या मुर्गा देवी इनका जैसा चाहें वैसा प्रयोग कर सकते हैं। ऐसे अधिकांश हल्लाकार अपने आप को तुलसीदास से लेकर गांधी तक, राष्ट्रीय गान से लेकर राष्ट्र ध्वज तक और रामायण से लेकर भारतीय संविधान तक किसी का भी अपमान करने का अधिकारी मानते हैं। ये लोग अक्सर संस्कृत या अरबी के उद्धरण ग़लत याद करने और अफ़वाहों को पौराणिक महत्व देने के लिये पहचाने जाते हैं। यह विशिष्ट वर्ग आँख मूंदकर हाँ में हाँ मिलाने वालों के अतिरिक्त अन्य सभी को अपना शत्रु मानता है।
ब्लॉगर्स के अलावा फ़ेसबुक आदि पर मुझे वे छद्मनामी लोग भ्रमित करते हैं जो अपना परिचय देने की ज़हमत किये बिना आपको मित्रता अनुरोध भेजते रहते हैं, अब आप सोचते रहिये कि ब्लेज़ पैस्कल रहता कहाँ है या सृजन साम्राज्ञी आपसे कब मिली थी। ग़लती से अगर आपने रियायत दे दी तो ये विद्वज्जन किसी वीभत्स चित्र या किसी स्वतंत्रता सेनानी की झूठी वंशावली से रोज़ आपकी दीवार लीपना शुरू कर देंगे। अल्लाह बचाये ऐसे क़दरदानों से!
यह लेख किसी व्यक्ति-विशेष के बारे में नहीं है बल्कि सच कहूँ तो किसी भी व्यक्ति या ब्लॉगर की बात न करके केवल उन असुविधाओं का ज़िक्र करने का प्रयास भर है जिनसे हम सब आभासी जगत में दो चार होते हैं। वैसे भी सहनशक्ति की सीमायें, कार्य, अनुभव और मैत्री के स्तर के अनुसार कम-बढ होती हैं। इंसान गलती का पुतला है, जैसे हमें झुंझलाहट होती है वैसे ही हमारे अनेक कार्यों से अन्य लोगों को भी परेशानी होती हो यह स्वाभाविक ही है। हाँ, यदि प्रयास करके चिड़चिड़ाहट का स्तर कम से कम किया जा सके तो उसमें सबका हित है।
मेरी नन्ही ट्विटर मित्र |
ताज़े अध्ययन का लब्बो-लुआब यह है कि आभासी जगत में होने वाला अपमान भी उतना ही दर्दनाक होता है जितना वास्तविक जीवन में होने वाला अपमान।
भेज रहे हैं येह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें दिखाने को
हे मानस के राजकंस तुम आ मत जाना खाने को
लेकिन गुस्से में आग-बबूला होने से पहले ज़रा एक पल रुककर इतना अवश्य सोचिये कि क्या इन सब से सदा आहत होने की प्रक्रिया में हमारा कोई रोल नहीं है? अंग्रेज़ी की एक कहावत है कि इंसान अपनी संगत से पहचाना जाता है। यदि हमारे आसपास के अधिकतर लोग जोश को होश से आगे रखते हैं तो हमारे भी वैसा ही होने की काफ़ी सम्भावना है। शायद हम अपवाद हों, लेकिन यह जाँचने में हर्ज़ ही क्या है?
मेरे बारे में तो आप ही बेहतर बता पायेंगे लेकिन ब्लॉग जगत भ्रमण करते हुए मैंने जो कुछेक खिझाने वाली बातें देखी हैं उन्हें यहाँ लिख रहा हूँ। इनमें कई बातें ऐसी हैं जो अभासी जगत के अज्ञान के कारण पैदा हुई हैं लेकिन कई ऐसी भी हैं जिनसे हमारे भौतिक जीवन की वास्तविकता ज़ाहिर होती है।
किसी ब्लॉग पर कमेंट करने चलो तो यह मौलिक शिष्टाचार है कि हिन्दी की पोस्ट पर टिप्पणी हिन्दी में ही की जाये। लेकिन टिप्पणी लिखने के ठीक बाद आपका सामना होता है वर्ड वेरिफ़िकेशन के दैत्य से जिसके कैप्चा अंग्रेज़ी में होते हैं और कई बार आपके लिखे अक्षर अस्वीकृत होने के बाद आपको अपनी ग़लती का अहसास होता है और आप अपना कीबोर्ड हिन्दी से अंग्रेज़ी में वापस बदलते हैं। अगली पोस्ट पर फिर एक परिवर्तन ...। आप कहेंगे कि यह चौकसी के लिये है। ऐसा होता तो क्या ग़म था। दुःख तब होता है जब उसी पोस्ट पर आपको स्पैम कमेंट भी आराम से रहते हुए दिखते हैं।
कुछ ब्लॉग ऐसे हैं कि आप पढना तो चाहते हैं मगर आपके शांत पठन में बाधा डालने का इंतज़ाम ब्लॉग लेखक ने खुद ही कर दिया है एक ऐसा ऑडियो लगाकर जिसका ऑफ़ बटन या तो होता ही नहीं या ऐसी जगह पर छिपा होता है कि ढूंढते-ढूंढते थक जाने पर पन्ना पलटने से पहले आप उस ब्लॉग पर दोबारा कभी न आने का प्रण ज़रूर करते हैं। आश्चर्य नहीं कि उस ब्लॉग पर अगली पोस्ट पाठकों की तोताचश्मी पर होती है।
इन सदाबहार ऑडियो वालों के विपरीत वे ब्लॉगर हैं जिनके ब्लॉग पर आप जाते ही ऑडियो सुनने (या विडियो देखने) के लिये हैं लेकिन यदि सुनते-सुनते ही आपने कुछ लिखने का प्रयास किया तो टिप्पणी बॉक्स उसी पेज पर होने के कारण आपका ऑडियो रिफ़्रेश हो जाता है। अब सारी कसरत शुरू कीजिये एक बार फिर से ... इतना टाइम किसके पास है भिड़ु? मणि कौल की फ़िल्में देखने से बचता हूँ, हर बार यही बात दिमाग़ में आती है कि निर्देशक को अपने दर्शकों के समय का आदर तो करना ही चाहिये।
सताने वाले ब्लॉगर्स का एक और प्रकार है। ये लोग दिन में पाँच पोस्ट लिखते हैं। हर पोस्ट का ईमेल पाँच हज़ार लोगों को भेजने के अलावा हर ऑनलाइन माध्यम पर उसे पाँच-पाँच बार (पब्लिक, मित्र, विस्तृत समूह आदि) पोस्ट करते हैं। हर रोज़ 25 वाल पोस्ट हाइड करते वक़्त आप यही सोचते हैं कि यह बन्दा आपकी मित्र सूची में घुसा कैसे। फिर एक दिन चैट पर वही व्यक्ति आपको पकड़ लेता है और अपनी दारुणकथा सुनाकर द्रवित कर देता है कि किस तरह उसके सभी अहसान-फ़रामोश मित्र एक एक करके उसे अपनी सूची से बाहर कर रहे हैं। हाय राम, एक साल में 90% टिप्पणीकारों ने साथ छोड़ दिया।
मित्र के दुःख से दुखी आप उसे यह भी नहीं बता सकते कि उसकी कोई पोस्ट पढने लायक हो तो भी शायद लोग झेल लें, मगर वहाँ तो बिना किसी भूमिका के उस समाचार का लिंक होता है जो आज के सभी समाचार पत्रों में आप पहले ही पढ चुके थे। इससे मिलती जुलती श्रेणी उन भाई-बहनों की है जो हज़ार बार पहले पढे जा चुके चेन ईमेल, चुटकुले, चित्र आदि ही चिपकाते रहते हैं।
जागरूक ब्लॉगर्स का एक वर्ग वह है जो अपने ब्लॉग पर न सिर्फ़ कॉपीराइट नोटिस और कानूनी तरदीद लगाकर रखते हैं बल्कि काफ़ी मेहनत करके ऐसा इंतज़ाम भी रखते हैं कि आप उनके ब्लॉग का एक शब्द भी (आसानी से) कॉपी न कर सकें। वैसे इस प्रकार के अधिकांश ब्लॉगरों के यहाँ से कुछ कॉपी करने की ज़रूरत किसी को होती नहीं है क्योंकि इन ब्लॉगों पर अधिकांश लिंक, जानकारी और चित्र पहले ही यहाँ-वहाँ से कॉपी किये हुए होते हैं। मुश्किल बस इनके उन्हीं मित्रों को होती है जो टिप्पणी लेनदेन की सामाजिक ज़िम्मेदारी निभाने के लिये "बेहतरीन" लिखने से पहले उनकी पोस्ट की आखिरी दो लाइनें भी चेपना चाहते हैं।
एक और विशिष्ट प्रजाति है, हल्लाकारों की। ये समाज की नाक में नकेल डालकर उसे सही दिशा की अरई से हांकने के एक्स्पर्ट होते हैं। अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजने वाले हल्लाकार गुरुकुल पद्धति लाने का नारा बुलन्द करते हैं और हिन्दीभाषी कस्बे में रहते हुए भी खुद कॉंवेंट में पढे हल्लाकार तमिलनाडु में तमिल हटाकर हिन्दी लाने का लारा देते हैं। इस वर्ग को भारत के इतिहास-भूगोल का पूर्ण अज्ञान होते हुए भी भारतीय संस्कृति के सम्मान के लिये अमेरिका-यूरोप की नारियों को बुरके और घूंघट में लपेटना ज़रूरी मालूम पड़ता है। अपने को बम समझने वाले ये असंतोष के गुब्बारे फ़टने के लिये इतने आतुर रहते हैं कि कोई भी गुर्गा खाँ या मुर्गा देवी इनका जैसा चाहें वैसा प्रयोग कर सकते हैं। ऐसे अधिकांश हल्लाकार अपने आप को तुलसीदास से लेकर गांधी तक, राष्ट्रीय गान से लेकर राष्ट्र ध्वज तक और रामायण से लेकर भारतीय संविधान तक किसी का भी अपमान करने का अधिकारी मानते हैं। ये लोग अक्सर संस्कृत या अरबी के उद्धरण ग़लत याद करने और अफ़वाहों को पौराणिक महत्व देने के लिये पहचाने जाते हैं। यह विशिष्ट वर्ग आँख मूंदकर हाँ में हाँ मिलाने वालों के अतिरिक्त अन्य सभी को अपना शत्रु मानता है।
ब्लॉगर्स के अलावा फ़ेसबुक आदि पर मुझे वे छद्मनामी लोग भ्रमित करते हैं जो अपना परिचय देने की ज़हमत किये बिना आपको मित्रता अनुरोध भेजते रहते हैं, अब आप सोचते रहिये कि ब्लेज़ पैस्कल रहता कहाँ है या सृजन साम्राज्ञी आपसे कब मिली थी। ग़लती से अगर आपने रियायत दे दी तो ये विद्वज्जन किसी वीभत्स चित्र या किसी स्वतंत्रता सेनानी की झूठी वंशावली से रोज़ आपकी दीवार लीपना शुरू कर देंगे। अल्लाह बचाये ऐसे क़दरदानों से!
यह लेख किसी व्यक्ति-विशेष के बारे में नहीं है बल्कि सच कहूँ तो किसी भी व्यक्ति या ब्लॉगर की बात न करके केवल उन असुविधाओं का ज़िक्र करने का प्रयास भर है जिनसे हम सब आभासी जगत में दो चार होते हैं। वैसे भी सहनशक्ति की सीमायें, कार्य, अनुभव और मैत्री के स्तर के अनुसार कम-बढ होती हैं। इंसान गलती का पुतला है, जैसे हमें झुंझलाहट होती है वैसे ही हमारे अनेक कार्यों से अन्य लोगों को भी परेशानी होती हो यह स्वाभाविक ही है। हाँ, यदि प्रयास करके चिड़चिड़ाहट का स्तर कम से कम किया जा सके तो उसमें सबका हित है।
ग़म ही ग़म है मुई इस ब्लागिंग में
ReplyDeleteमित्र बहुत जहीनी के साथ मेरी बात छीन ली , आपके द्वारा बताई गयी प्रजातियों में वे सारे विशिष्ट गुण सन्निहित हैं जो आपने विश्लेषित किये हैं , एक सीमा तक तो सहन होता है ,पर अतिरंजित होने पर उबाऊ होने लगता है / पोस्ट ,साहित्य ,विचार ,समयानुकूल ,संश्लेषित बोधगम्यता के साथ स्वीकार्य भी होने चाहिए ,मनः श्थिति को भी दृष्टिगत रखना रचना धर्मी का कर्त्तव्य होता है ... प्रहारक व सन्देश देता आलेख सुन्दर ,...../
ReplyDeleteवाह! खरी खरी खूब कही।
ReplyDeleteकमेंट का विकल्प कभी-कभी मैं भी बंद कर देता हूँ। इसके पीछे दो कारण हैं एक तो जब कभी दूसरे ब्लॉग को प्रमोट करना हो, वहां के कुछ अंश कट पेस्ट कर लगा देता हूँ। उस ब्लॉग का लिंक दे देता हूँ चाहता हूँ कि जिन्हें कमेंट करना है वहीं करें।
दूसरे तब जब समय का अत्यधिक अभाव रहता है। कमेंट का उत्तर देने की स्थिति में नहीं रहता। कोई एकाध चित्र लगाने का मूड किया, जानता हूँ लोग पसंद करना चाहेंगे तो टिक लगाकर अपनी पसंद जाहिर कर ही देंगे।
जहाँ तक ब्लॉग सुरक्षित करने की चिंता है तो वह नहीं है। एक विजेट के चक्कर में ब्लॉग सुरक्षित हो गया। विजेट तो दोस्तों की आपत्ति पर हटा दिया मगर ब्लॉग की सुरक्षा हटाना ही नहीं आया।:)
आपकी आपत्ति जायज है सो अपनी सफाई दे दी ताकि भ्रम हो तो टूट जाय। शेष तो कभी कभार मौज ले लेता हूँ, जो मुझे जानते हैं बुरा नहीं मानते। मेरा विश्वास है कि 4,5 वर्षों के आभाषी संबंध छोटी-मोटी बातों से टूटा नहीं करते।
विषय बढ़िया है, विमर्श का स्वागत है।
देवेन्द्र जी, आपके बारे में मुझे कोई भ्रम नहीं है। ज़माना इतना आगे पहुँच चुका है कि हम-आप कल्पना भी नहीं कर सकते ...
Delete:) जय हो.
Deleteसच कह रहे हाँ आप ... आज के बच्चे जो खाते उठते बैठते फेसबुक पे रहते हैं उनकी तो दुनिया ही वही है और वो ऐसी बातों कों जरूर दिल से लगा लेते हैं ...
Deleteआपने बहुत सही लिखा है.. भांति भांति के लोग...
ReplyDeleteआपने बहुत सही लिखा है.. भांति भांति के लोग...
ReplyDeleteआपने बहुत सही लिखा है.. भांति भांति के लोग...
ReplyDeleteआपके ग़म में हम भी शामिल हो जाते हैं .
ReplyDeleteहालाँकि जितनी भी केटेगरी बताई हैं , यह समझ नहीं आ रहा वे आपके मित्र कैसे बन गए !
शीर्षक पढ़कर गंभीर बातें पढने को मिलने का शक हुआ था .
लेकिन व्यंग अच्छा है .
व्यंग्य? वह क्या होता है डॉ साहब?
Deleteशर्मा जी , हम तो इसे हास्य व्यंग लेख समझे थे . लेकिन आप तो गंभीर निकले ! :)
Deleteआभासी मित्रता को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए . लोग तो खून के रिश्तों को भी अहमियत नहीं देते . हालाँकि इसका अर्थ यह नहीं की उनका अनुसरण करें . बस समझने की बात है .
फेसबुक में यह समस्याएं बहुत परेशान करती हैं , अब तो आदत सी पड़ चुकी है ! मुझे लगता है मित्रों की संख्या लिमिटेड रहे तब शायद अधिक बेहतर रहेगा !
ReplyDeleteआभार आपका !
सच कहा है ..और बढ़िया ढंग से कहा है.
ReplyDeleteसत्य वचन महाराज :)
ReplyDeleteअरई के बारे में तीन दिन में दोबारा पढ़ लिया. पहले शायद सतोष त्रिवेदी जी के पोस्ट में इसका ज़िक्र आया था. आजकल सबही इससे एक दुसरे को कोंचते रहते हैं.
ReplyDeleteएक-दूसरे से मतभिन्नता और अनचाहा बैरभाव भी कभी हो जाता है. ईमानदारी से कहूं तो कभी ऐसा मेरे साथ भी हुआ. लेकिन यहाँ पांच साल बीतने के बाद बहुत सी बातें समझ में भी आ जातीं हैं और यह भी समझ में आ जाता है कि कुछ चीज़ें कभी नहीं बदलतीं.
ऐसे में ज़रूरी यह है कि कुछ सहिष्णुता और सदाशयता सभी दिखाएँ क्योंकि नियमित लिखनेवाले ब्लौगर एक-दूसरे को अवोइड नहीं कर सकते और ऐसा करना भी नहीं चाहिए.
बाकी, अंग्रेजी की प्रोवर्ब बहुत कुछ कह देती है. कुछ मैं भी अपनी और से दूं तो वैल्यू एडीशन भी होगा और कम शब्दों में ज्यादा भी कह पाऊँगा:
Birds of a feather flock together.
Better alone than in bad company.
Who keeps company with the wolves, will learn to howl.
सही कहा है निशांत, सहिष्णुता और सदाशयता की आवश्यकता सभी को है - माता-पुत्र आदि जैसे सम्बन्धों को छोड़ दिया जाये तो एकपक्षीय रिश्ते टिकाऊ नहीं हो सकते हैं। लेख का उद्देश्य केवल इतना ही है कि यदि हम अनजाने में ऐसा कुछ कर रहे हों और राह बदलना चाहें तो ऐसा हो जाये। अरई की जगह पहले अंकुश लिखा था फिर बैसवारी पर ताज़ा पढा शब्द ही प्रयुक्त कर लिया। तीनों ही कथन काम के हैं और पसन्द भी आये।
Deletenishant ji - very well said .. bravo !
Deleteअपना तकनिकी सलाहकार अभी यहाँ नहीं है तो , तो ये परेशानियाँ तो बनी रहेंगी ,लेकिन कोशिश की जाएगी कि जितनी समझ आई वहाँ सुधार किया जाए ...लेकिन मैं आपकी या आप मेरि लिस्ट में आए कैसे? ये सोचते-सोचते तो दिमाग ने जबाब दे दिया है!! मुश्किल है पता लगाना और लगा कर बताना :-)अगर आहत होता है कोई तो माफ़ी मांगने का क्लिक बटन भी बनाया जाना चाहिये ...:-)
ReplyDeleteजी, आप जैसे अच्छे लोगों को मित्र सूची में पाकर कोई भी गौरवांवित ही होगा। मैत्री अनुरोध भी शायद मैंने ही भेजा होगा - इतना सोचने की बात नहीं है। जहाँ तक माफ़ी की बात है - जिन्हें इसकी ज़रूरत है उन्हें तो शायद इसका ख्याल भी न आता हो और जो लोग विनम्रता से झुके जाते हैं उनसे शायद ही कभी कोई आहत हुआ हो!
Deleteअर्चना जी - मेरी लिस्ट में तो आपका होना मेरे लिए सौभाग्य का विषय है |
Delete@ अगर आहत होता है कोई तो माफ़ी मांगने का क्लिक बटन भी बनाया जाना चाहिये ...:-)
जो आहत करते हैं - वे अक्सर माफ़ी मागने वाले नहीं होते, और जो माफ़ी मांगने वाले होते हैं वे अक्सर आहत नहीं करते |
इस ब्लॉग संसार में कुछ लोग ऐसे भी देखे जो ऊपर से तो बहुत "goody - goody" बने रहते हैं, परन्तु खुद को ऊंचा और दूसरों को छोटा साबित करने के लिए, आहत करते चले जाते हैं लोगों को | ऊपर से यह भी दिखाते रहते हैं की वे तो "बेचारे" है जिन्हें सामने वाल ही पीड़ा पर पीड़ा दिए चले जा रहा है | अजब देश (ब्लॉग प्रदेश) की ग़ज़ब कहानी |
बढ़िया कैटेगराईजेशन रहा।
ReplyDeleteआमंत्रण आधारित जमात तो कुछ यूँ होती है कि जो घूम घूम कर दूसरों के यहां का जायजा लेती है और जायजे अनुसार पोस्टें लिखती है और जब उसके शीर्षक आदि पढ़कर ब्लॉग पर जाओ तो पता चले कि आमंत्रण वाला ब्लॉग है।
इसी प्रवृत्ति को मराठी में कहा जाता है कि "स्वत:चा ठेवायचा झाकून आणि दुसर्यांचा बघायचा वाकून" ( खुद का तो ढक कर रखते हैं लेकिन दूसरों का झुक कर देखते हैं )
ब्लॉगिंग के संदर्भ में मैं इस प्रवृत्ति को "शामियाना ब्लॉगिंग" कहूँगा। ऐसे घरघुमनी प्राणी यही सोचकर मगन रहते हैं कि हमने तो खूब ललचाया, हमने तो खूब छकाया। तीसरी कसम फिल्म का वो सीन याद आता है जिसमें नौटंकी का पास पाकर हीरामन दूसरों को चिहा चिहा कर दिखाता है कि मेरे पास तो पास है पास...वरना वो लाईन देखी :)
बहुत संभव है आमंत्रितगण भी शायद खुद को हीरामन समझ रहे होंगे :)
इस सारी कवायद का प्रारूप कुछ उस तरह का भी है जिसमें बच्चे अंगूठा दिखाकर लुलुआते हुए चिढ़ाते हैं .... तो कुछ वैसा ही सुख मिलता होगा आमंत्रणबाजी से। उपर से गर्व भी करते हैं कि ट्रेण्ड सेटर हैं। लेकिन ऐसे लोगों को यह नहीं मालूम कि लोग ब्लॉगिंग के शुरूवाती काल में ही प्राईवेट ब्लॉग अपने लिये बनाकर रखते थे, यार दोस्तों से कम्यूनिकेट करते थे। चार साल पहले जब मैं अपने ब्लॉग के लिये डोमेन ढ़ँढ रहा था तब कई आमंत्रित ब्लॉग दिखे थे। ऐसे ब्लॉगों का उद्देश्य यदि सब्जेक्ट वाईस हो या किसी समुदाय आधारित हो तो समझा जा सकता है कि खास समुदाय या वर्ग के लोग ही शरीक हो सकते हैं लेकिन जहां ब्लॉगिंग के मजमें में खुद तो शामिल होकर तमाशा देखा जाय और उन बातों को संदर्भित कर आमंत्रित ब्लॉग पर पोस्ट लिखी जाय तो इस प्रकार की "शामियाना ब्लॉगिंग" उन्हें ही मुबारक।
बाकि पोस्ट तो चकाचक है :)
:)
Deleteबे मारैं तो मेंढकी, हम मारैं तौ शेर!
आभासी दुनिया में वाकई बड़े किस्से हैं. इन सभी समस्याओं से कई बार मैं भी दो-चार हो चुका हूँ तो कई बार औरों को भी परेशां कर चुका हूँ...
ReplyDeleteअपने बड़े करीने से सारी बदमासियों को पकड़ा है. या कहें की कई लोगों को जागने की कोशिश की है - भैये बेवजह की हरकतों से दोस्त और पाठक जुड़ते नहीं अलबत्ता झुंझला कर दूर जरुर भाग जाते हैं... कई बार मैंने ऐसे विषयों को लिखा जिन पर जोरदार बहस होनी चाहिए थी लेकिन कुछ लोगों को छोड़ कर शेष सभी वही फोर्मल टिप्पणी - "बहुत बढ़िया आलेख, क्या खूब लिखा है, Nice" - टिपिया कर दफा हो गये. कुछ लोग तो बिना पढ़े ही टिपिया जाते हैं.
खैर, कई बार जाने-अनजाने मैंने भी ब्लॉग जगत की मर्यादाओं को तोडा होगा, यह तय बात है. लेकिन अब उस तरह की गलतियों से बचता हूँ.
सहमत हूँ। रुहेलखंड में बुज़ुर्ग कहते हैं कि इंसान ग़लतियों का पुतला है। मैं तो अपने शुभाकांक्षियों से बेबाकी की ही उम्मीद रखता हूँ। हम सब ही समय के साथ सीखते और बदलते हैं।
Deleteकुछ लोगों के ब्लॉग पर क्लिक करते ही... हमारे ब्राउजर की अकाल मृत्यु हो जाती है ! :)
ReplyDeleteयह भी तरह-तरह के विजेट इकट्ठे करने का साइड इफ़ेक्ट हो सकता है।
Deleteलो जी कर लो बात। जब आपको अपना समझते हैं तभी तो बंटा सिंह वाला जोक फ़ारवर्ड किया था, लो जी अब लोगों को हंसाने की कोशिश पर भी टैक्स लग गया :)
ReplyDeleteवैसे, हम तो बचपन से ही फ़ारवर्ड रहे हैं इससे मिलते जुलते विषय पर २००७ में ही एक पोस्ट चिपका दी थी। फ़ुरसतिया इस्टाईल में ताकी सनद रहे के माफ़िक
http://antardhwani.blogspot.com/2007/06/blog-post_29.html
बाकी इंटरनेट पर इतिहास पर कीबोर्ड और माऊस से शोध करने वालों ने हमे भी खूब आतंकित किया है। अब तो किसी की दो ट्विटर/फ़ेसबुक अपडेट पढकर अन्दाजा लग जाता है कि फ़न्ने खां किस फ़ोरम से इतिहास सीख रहे हैं (एक्दम खत का मजमून लिफ़ाफ़ा सूंघकर वाले इस्टाईल में) :)
:)
Deleteलो जी कर लो बात। जब आपको अपना समझते हैं तभी तो बंटा सिंह वाला जोक फ़ारवर्ड किया था, लो जी अब लोगों को हंसाने की कोशिश पर भी टैक्स लग गया :)
ReplyDeleteवैसे, हम तो बचपन से ही फ़ारवर्ड रहे हैं इससे मिलते जुलते विषय पर २००७ में ही एक पोस्ट चिपका दी थी। फ़ुरसतिया इस्टाईल में ताकी सनद रहे के माफ़िक
http://antardhwani.blogspot.com/2007/06/blog-post_29.html
बाकी इंटरनेट पर इतिहास पर कीबोर्ड और माऊस से शोध करने वालों ने हमे भी खूब आतंकित किया है। अब तो किसी की दो ट्विटर/फ़ेसबुक अपडेट पढकर अन्दाजा लग जाता है कि फ़न्ने खां किस फ़ोरम से इतिहास सीख रहे हैं (एक्दम खत का मजमून लिफ़ाफ़ा सूंघकर वाले इस्टाईल में) :)
लिंक देने का शुक्रिया नीरज। बहुत काम की पोस्ट। इतने काम की बातें, इतने पहले बता देने का शुक्रिया! हिन्दी ब्लॉगिंग में तब से अब तक मॉडरेशन के लाभ, हानि और मान्यता पर भी काफ़ी बहस हुई है। उसके बारे में सभी सम्भावित पक्ष और जानकारी के बारे में आपने कुछ लिखा है क्या?
Deleteदूध के जले हुए हैं हम,
ReplyDeleteअब छाँछ भी,
फूँक कर पीते हैं ।
अफ़सोस बस इतना है कि,
दूध से जल गए हैं हम ...!!!
:)
सबके अपने अपने पैमाने हैं और अपने कृत्यों के सबके पास अपने अपने जस्टिफिकेशंस भी|
ReplyDeleteसहा कहा। न हो तो जीना मुहाल हो जाय उनका। आइने के सामने सज संवर कर जाना पड़ता है।:) यही समाज है, यही आभासी दुनियाँ है।
Deleteआमंत्रित सदस्यों वालीपोस्ट को सार्वजानिक मंच पर शेयर ही क्यूँ किया जाए ....
ReplyDelete. फेसबुक खोलते ही एक ही व्यक्ति की इतनी सारी अपडेट कि आप इसके अतिरिक्त और कुछ पढ़ ही ना सको . जो लोंग कम समय के लिए इन्टरनेट का उपयोग करते हैं , उनके लिए बहुत असुविधा का सबब हो जाता है .
बाकी तो वास्तविक जगत वाली सारी भावनाएं इस आभासी जगत में भी उतनी ही सजीव है !
आपका हार्दिक आभार!
ReplyDeleteसताने वाले ब्लॉगर्स का एक और प्रकार है। ये लोग दिन में पाँच पोस्ट लिखते हैं। ....हाय हाय , अब जे तो हम भी कर डालते हैं कई बार , लेकिन वो विषय अलग अलग होते हैं और ब्लॉग भी । हां मेल बेमेल भेजने के चक्कर में नय पडे हैं आज तक , इत्ती फ़ुर्सत कहां । आखिर पढना भी तो है । रही बात आभासी संत्रास की तो पूछिए मत , फ़ेसबुकिया पर तो छिछोरन की भी अच्छी खासी फ़ौज़ हो चली है आ इत्ती संज़ीदगी से मिलेंगे कि या तो उन्हें निपटाइए या खुद निपट जाइए । अभी गिरजेश राव जी ने शेयर किया इस पोस्ट को तो थामे थामे हम पहुंच गए । पोस्ट रोचक बन पडी है , अलबत्ता फ़ेसबुक वाले दोस्त जरूरे ताक रहे होंगे आपके तरेर के :) :)
ReplyDeleteआपने लाइव ट्रैफ़िक फ़ीड वालों को क्यों छोड़ दिया? जिनके कारण ब्राउजर धीमा हो जाता है और पॉपइन पेज खुल जाता है. कभी कभी वायरसों का भी सामना करना पड़ता है.
ReplyDeleteसही याद दिलाया आपने। मित्रों और परिचितों के ब्लॉग्स से तो कब के हट चुके हैं।
Deleteहमें तो ज़रूरत है ऐसे टिप्स की ,हम नए हैं इन दांव पेंच को नहीं जानते .उपयोगी जानकारी .शुक्रिया ....
ReplyDeleteaisa laga jaise man me jo face book aaur bloogging se judne ke baad umad ghumad raha tha use aaj kisi ne apne shabd dekar hubahu aankhon ke saamne utar diya..wakai shandaar..inme se aapkee ek category me to main khud hoon..hindi kee poston par angreji lipi me comment ...darasal hindi typing aati nahi aaur google par conversion kee uplabdh subidhaon me internet se pahle se hee vyathit man aaur intezaar karne ke peeda nahi sah paata hai..aap shayad iske liye mujhe maaf karenge
ReplyDeleteकापीराईट नोटीस हमने भी लगाया है.... सीधे सीधे कहा है कि भाई कापी कर सकते हो, बस लेखक होने का दावा मत करना...
ReplyDeleteवैसे जितने भी लोगो ने कापी करने को रोकने की जुगत लगाई है, उन्हे नही मालूम कि यदि कोई कापी करना चाहता है तो उसे आप रोक नही सकते... हर तरिके का तोड़ उपलब्ध है :-)
जबरन आडीयो/विडीयो सुनाने वाले ब्लागो पर जाने का एक आसान तरिका है, मेरे पास तीन ब्राउजर है, सफारी/फ़ायरफाक्स/क्रोम... जिसमे फायरफाक्स के सारे प्ल्ग-इन हटा दिये है... उन ब्लागो का केवल टेक्सट पढ़ लेते है(बशर्ते पढने लायक हो...)
कॉपीराइट वाली बात में कई पेंच हैं, पहले दो तो वही जो आपने कहे (1.ऐसा कोई भी हल कारगर नहीं हो सकता, 2. पराया माल अपना करते समय भी कॉपीराइट का पूर्ण आदर हो) और तीसरा यह भी है कि वैब से पूर्णतया अनजान ब्लॉगर भांति-भांति के विजेट इकट्ठे करके आ बैल मुझे मार वाली स्थिति में फंसने से यथासम्भव बचें।
Deleteप्लगइन विहीन ब्राउज़र वाला सुझाव अच्छा है, ट्राइ किया जा सकता है। :)
ashish ji - thanks for the idea "प्ल्ग-इन हटा दिये है" :)
Deleteपढ़ लिया
ReplyDeleteसमझ लिया की आप परेशान हैं
और हिंदी ब्लॉग लेखन को सुधारना चाहते हैं , हम भी चाहते थे गलत थे , अपने को अलग कर लिया , गूगल की दियी हुई सुविधा से अब खुश हैं , क्युकी पाठक वो हैं जिनको मेरे लिखे में रूचि हैं , नाकि वो हैं जो केवल इस लिये मुझे पढते हैं की आगे जाकर मुझे नकारात्मक कह सके .
गूगल प्लस पर लिंक देना , ये सुविधा गूगल से हैं . वही एक दूसरी सुविधा भी हैं की जिन से आप को परेशानी हो उनको आप ब्लाक कर दे , मत जुड़े उनसे . उसका उपयोग करे क़ोई लिंक आप को गूगल प्लस पर परेशां नहीं करेगा .
ब्लॉगर कौन होता हैं इस विषय में भी कुछ पढना हो तो मुझ से संपर्क कर के लिंक ले ले . यहाँ नहीं दे रही वरना आप क़ोई नयी पोस्ट का मसला मिल सकता हैं :)
सबसे जरुरी बात जब ब्लॉग पर क़ोई किसी के विरुद्ध लिखता हैं तो उसका पूरा नेट वर्क दूसरे से पूछे बिना उस के साथ खडा हो जाता हैं और अपशब्द , गाली , व्यक्तिगत कमेन्ट सब कुछ अप्रोवे हो जाता हैं मोदेराशन होते हुए भी ?
ईमानदारी से कहे क्या आप के साथ कभी ऐसा हुआ की आप को कहीं कमेन्ट देने के बाद ऐसा लगा की नहीं ये ठीक नहीं था और अगर लगा तो क्या आप ने उस कमेन्ट को डिलीट करना उचित समझा .
अगर क़ोई कमेन्ट मोडरेट करता हैं , डिलीट करता हैं , कहीं और सहेजता हैं , ये सब उसको मिले अधिकारों के तहत हैं .
ब्लॉग की दुनिया में सम्बन्ध शब्दों से शब्दों के हो तो बेहतर होता हैं
परेशान? हम? आपके सेंस ऑफ़ ह्यूमर की दाद देनी पड़ेगी!
Deleteबहुत ही शानदार आलेख अनुराग जी ! आपने जो पांच -छह खासियते इस आभासी दुनिया की गिनाई है, इनसे उकताकर मैंने भी पहले अपने ब्लॉग पर लिखा है ! निष्कपट गंभीर लेखन का इस आभासी संसार से मोहा भंग होने का यही कुछ ख़ास कारण है !
ReplyDeleteगोदियाल जी,
Deleteहीरे की पहचान जौहरी को होती है, आपका सम्पर्क सूत्र मिले तो उपायों पर कुछ बातचीत हो
दुखद यह है कि ये सारी बातें पठन और लेखन का महत्व ही खो देती हैं .... इन सभी बातों से खुद को भी त्रस्त पाया है.... सटीक, स्पष्ट विश्लेषण
ReplyDeleteसही लिखा है आपने. कई दफा किसी ब्लॉग पर इतने सारे विजेट होते हैं कि पेज खुल ही नहीं पाता. कई बार ईमेल में इतनी चिट्ठियाँ आ जाती हैं कि कोई महत्वपूर्ण डाक रह ही जाती है. और रहा सवाल सहिष्णुता का, अगर दुनिया में एक आदमी दूसरे आदमी के लिए थोडा सा स्पेस बना सकता तो इतनी व्याधियाँ पैदा ही नहीं होतीं|
ReplyDeleteपढकर मन में दो ही बातें तत्काल उभरीं -
ReplyDelete1. नानक दुखिया सब संसार। और
2. मनुष्य को अपने कर्मफल भोगने/भुगतने ही पडते हैं।
किसी शायर ने क्या खूब कहा है की -
ReplyDeleteकितने किसम के लोग हैं दुनियां जहाँ में,
आओ जरा करीब से जाकर इन्हें पढ़ें ........
मेरा अब तक का अनुभव यही रहा है की आभासी दुनियां में गलतफहमियों की अत्यधिक गुन्जाईस है, यहाँ जो दिखता है वह होता नहीं है और जो होता है वह दिखता नहीं है,व्यक्ति चाहे फेसबुकीय हो या कोई ब्लोगर ! हर किसी की अपनी-अपनी फितरत है, भली-भांति पढ़ लेने के पश्चात् मैंने कई फेसबुक मित्रों को फ्रेंड लिस्ट से डिलीट किया है, और मुझे भी कईयों ने अपनी-अपनी फ्रेंड लिस्ट से डिलीट किया है, और तो और एक-दो ब्लोगरों ने भी मुझपर ऐसा ही इमोशनल अत्याचार किया है की आज वो मेरे समर्थक बने और दो-चार दिनों बाद ही समर्थन वापस भी ले लिया,, कुछ समय के लिए मुझे लगा की शायद मेरी ही फितरत में कोई कमी रही होगी या नजर आई होगी, लेकिन यह तो आभासी दुनियां है, कोई समर्थन करे या न करे "मैनू की फरक पैन्दा है ? बहरहाल उपरोक्त पोस्ट पढकर स्वयं को टिपियाने से नहीं रोक पाया सो टिपिया दिया क्योंकि आपके द्वारा टिपियाने का विकल्प खुला छोड़ दिया गया है......आगे आप पर निर्भर करता है की आप इस टिपण्णी को दो ब्लोगरों की आपसी ' लेन-देन ' की व्यस्था से जोड़ते हैं या फिर एक पाठक की जिज्ञासा अथवा सम्बंधित पोस्ट को मिल रही व्यापक सहमती अथवा असहमति से ..... संदेह तब भी बना रहता है.........यही तो है आभासी दुनियां............
फोर्मल टिप्पणी - (यकीनन कापी-पेस्ट का सहारा लिया गया है, बताइए इसमें बुराई क्या है ?) "बहुत बढ़िया आलेख, आभार...................हा ....हा.....हा.......
गुर्गा कच्चा आम है, प्रथम खिलाओ पाल ।
ReplyDeleteपकने पर खाने लगे, लगा "जाल" जंजाल ।
लगा "जाल" जंजाल, यातना शब्द पा गई ।
रहा था बेशक टाल, आज आवाज आ गई ।
बहुत बहुत आभार, जगाये उनको मुर्गा ।
मिलें डाल के आम, खिलायेगा वो गुर्गा ।।
बड़े धोखे हैं इस चाल में !
ReplyDeleteछिपा जाने क्या रक्खा हो ,
बंद पैकेट है हर माल में !
:-)
ReplyDeleteआपने जितने बिन्दु गिनाए हैं, मैं उन सभी से पेरशान हूं। लेकिन कर कुछ नहीं सकती इसलिए मौन हूँ। बहुत अच्छा विश्लेषण।
ReplyDeleteसटीक
ReplyDeleteसटीक विश्लेषण ....वर्ड वेरिफिकेशन और ताले सच ही बहुत सताते हैं
ReplyDeleteसच को सामने लाता बहुत ही शानदार आलेख अनुराग जी
ReplyDeleteपरेशानिया कम हो जाएँगी यदि पाठक और इन सोसल नेटवर्क पर जाने वाले ये तय कर ले की वो क्या चाहते है | संख्या बढ़ाने के चक्कर में किसी को भी मित्र बना लेंगे तो परेशानी तो होगी है सोच समझ कर मित्र बनाइये | ये बात भी सोचने की है की हम ब्लॉग क्यों बना रहे है पहला उद्देश्य क्या है, हम लिखना चाहा रहे है इसलिए या हम ज्यादा से ज्यादा पाठक और टिप्पणी चाहते है इसलिए, क्योकि इसी से ये तय होगा की आप के ब्लॉग पर क्या और कैसा होगा आप अपनी सुविधा का ध्यान रखेंगे या पाठक की सुविधा का |क्योकि घर कैसे सजेगा ये उस घर के मालिक का हक़ है मेहमान ये तय नहीं करेंगे की घर कैसा हो | यदि आप को कोई परेशानी है तो शिकायत करना आप का हक़ है और लेखक ब्लोगर का अपना हक़ की वो क्या चाहता है | शिकायत शिकायत की तरह होना चाहिए ना की उसे बुराई बना कर पेश किया जाना चाहिए |
ReplyDeleteरोज ही इन मुसीबतों से दो चार होना पड़ता है...पहला काम होता है ढेर सारे अनचाहे मेल डिलीट करो....और इस चक्कर में कभी-कभी जरूरी मेल भी डिलीट हो जाते हैं.
ReplyDeleteब्लॉगिंग का शोधपत्र है,सहेज लूँगा इसे !'बुकमार्क' कर लिया है,जब-तब पढूंगा.
ReplyDelete...मुख्य बात यह है कि ब्लॉगिंग या फेसबुक भी अब गंभीर संवेदनशीलता से युक्त हैं.यहाँ अवसाद और खुशी दोनों महसूस की जाती है.कोशिश यही हो कि हम शालीन लहजे में ही दूसरे से संवाद करें.यदि कोई मजाक या व्यंग्य पसंद करता है तभी उससे यह सब करें !
पोस्ट और फिर सारे कमेन्ट .. इस आभासी दुनिया की ही तो देन हैं ये सब भी ...
ReplyDeleteउसके अच्छे पक्ष कों जरूर देखना चाहिए ... गलत पक्ष तो होता ही है ...
इंटरनेट पर आने के साथ ही किसी रचनाकार (?) को पता लगता है कि यहां तो पाठक कूट कूटकर भरे हुए हैं। ऐसे में वे अपनी हर छोटी बड़ी रचना को हर संभव तरीके से अपने पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
ReplyDeleteएक तरफ आत्ममुग्धता तो दूसरी तरफ अनुभवहीनता इंटरनेट का ऐसा इस्तेमाल करवाती है कि लगता है दिमाग की सर्जरी खड़े चाकू से की जा रही हो। जिन लोगों के लिए यह माध्यम महज खुद को प्रकाशित करने तक सीमित है, उन्हें दूसरों की सुविधा असुविधा का ख्याल रहना मुश्किल है।
मैंने देखा है गंभीर लिखने और पढ़ने वाले लोग आमतौर पर इंटरनेट के थंब रूल्स का ध्यान रखते ही हैं... :) उन्हें लंबी पारी जो खेलनी है...
अपने अपने जाल .......
ReplyDeleteकोई फंसे तो फंसे ...
नहीं तो
अपने ही जंजाल
...ब्लॉग लिखने का अब कोई एक मतलब रहा नहीं है!...दूसरों की गलतियाँ निकालना,अपने मन की सच्ची या झूठी भड़ास निकालना,अनर्गल बतियाना,गाली-गलौज करना,किसी भी विषय पर कुछ भी लिखना...बस लिखते जाना!...कविता के नाम पर छोटे छोटे वाक्य-बे-मतलब के- प्रयोग में लाना...यही ब्लोगिंग है!..अब ऐसी ब्लोगिंग के लिए टिप्पणियाँ भी इसी अनुरूप होगी,यही सोच कर चलना चाहिए!
ReplyDelete...फिर भी ब्लोगर्स को यह एहसास दिलाने में ब्लोगिंग सक्षम है कि वह 'कुछ' तो कर ही रहा है...याने कि सक्रिय है!
..वैसे गूगल द्वारा उपलब्ध सभी सुविधाएं प्रयोग में लाना भी एक मजेदार 'गेम' है!....
अरुणा कपूर जी, आपसे सहमत हूँ। कुछ किये बिना ही कुछ करने का अहसास पाने के लिये भी ब्लॉग-ब्लॉग का खेल खेला जाता है।
Deleteविश्वविद्यालय के शोधार्थियों को भी ये सब पता होगा ?
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति!
ReplyDeleteआपने सही कहा अनुराग, ब्लागिंग को हमें गंभीर माध्यम बनाना चाहिए, हम हो सकता है ऐसा लिखें जिससे पाठक का समय नष्ट हो जाए, इस अपराध के लिए ब्लागर दोषी नहीं है क्योंकि उसने आपको स्वयं आमंत्रित नहीं किया लेकिन जब वो पढ़ने आए और आपने कोई न्यूज लगा दी अथवा अखबार में छपी अपनी खबर लगा दी तो यह तो ब्लागिंग नहीं है, इस माध्यम के प्रति हमको सचेत होना चाहिए, गंभीर होना चाहिए। सोशल मीडिया पर अच्छे और विचारपरक लेख के लिए आभार।
ReplyDeleteउम्मीद थी कि लोग खुलकर लिखेंगे। कमेंटस् से पोस्ट समृद्ध हुई।
ReplyDeleteलोग खुलकर ही लिख रहे हैं, कोई यहाँ लिखे कोई वहाँ लिखे :)
Deleteकमेंट्स से सदा ही बहुत कुछ जानने को मिलता है, इस बार भी पोस्ट में जाने-अनजाने छूटे अनेक पक्ष टिप्पणियों द्वारा सामने आये हैं। सभी विमर्शकारों का आभार!
@"इस अध्ययन से यह बात तो सामने आई ही है कि अनेक लोगों के लिए यह आभासी संसार भी वास्तविक जगत जैसा ही सच्चा है। साथ ही इससे यह भी पता लगता है कि कई लोग दूसरों को आहत करने का एक नया मार्ग भी अपना रहे हैं।"
ReplyDeleteहक़िकत में वास्तविक जगत में एक सीमा तक ही अपने से श्रेष्ट गुणवत्तावान मिल पाते है। पर यहां तो विशाल और विराट संख्या में प्रतिस्पर्धा के लिए लोग सहज ही प्राप्य है जिन्हें हताश निराश या आह्त किया जा सके।
आपने बहुत ही सामान्य व्यवहार में छुपी छद्म मंशाओ बाहर लाने का कार्य किया है। गम्भीर समस्या पर गहनता से विचार!!
बहुत बहुत आभार!!
ब्लॉगिंग का पूरा विच्छेदन कर सामने रख दिया..हर एक तथ्य..
ReplyDeleteधन्यवाद अजय!
ReplyDeleteसृजन करने वाले लोगों में एक अलग धुन होती है...इसे पहचान कर ही कोई सृजनकारी हो सकता है।
ReplyDeleteमत पूछिए की नये ब्लॉग पोस्ट की ईमेल से मैं कितना परेसान रहता हूँ...हर दिन दस पन्द्रह ईमेल तो डिलीट करने ही पड़ते हैं :(
ReplyDeleteऔर ब्लॉग में ऑडियो और विडियो चलने वाली बात से तो मैं भी कभी कभी बहुत इरिटेट हो जाता हूँ और वहाँ कमेन्ट करने का पूरा मूड ही बिगड़ जाता है..
कितने लोगों की दिल की बात आपने कह दी है इस पोस्ट में :) :)
अच्छा पोस्ट मार्टम कर डाला. .
ReplyDeletebahut sahi kaha aapne ..........
ReplyDeleteअच्छा अवलोकन किया है आपने आभासी दुनिया का.
ReplyDeleteबुराई बहुत हो सकती है,पर थोड़ी अच्छाई भी है यहाँ.
निर्मानमोहा जितसंगदोषा.....
आपके मेरे ब्लॉग पर आने से बहुत खुशी मिलती है अनुराग जी.
यदि आपको कभी कोई कष्ट हुआ हो तो क्षमा चाहता हूँ.
आदरणीय राकेश जी, कृपया मुझे शर्मिन्दा न कीजिये। आपके नये आलेख की तो सदा प्रतीक्षा रहती है।
Deleteek-antral pe is tarah ke post jaruri hai....atm-avlokan ka avsar mil jata hai....
ReplyDeletepranam.
हाथ की पांचो अंगुलियो की तरह दुनिया में भी कोई समानता नही है
ReplyDeleteबहुत कन्फ्यूजन है ब्लोगिंग में :
ReplyDelete1. वो ब्लोगर हमारी बहन / हमारा भाई है
( - सिर्फ इसलिए कभी गलत नहीं हो सकता/ सकती, जस्टिफाई करने हम बैठे हैं )
2. आप जैसे युवा ही इस देश का भविष्य हैं
( - बशर्ते आपकी सोच हमारी सोच से मेल खाती हो या हमें ऐसा लगे की भविष्य में हम आपकी अपनी बातों कन्विन्स कर सकेंगे )
3. टिप्पणी में व्यंग नहीं होना चाहिए
( - लेकिन इस नियम में हमने कुछ लोगों को छूट दे दी है क्योंकि वो व्यंग ऐसी बातों पर करते हैं जिन पर हम भी करना चाहते हैं )
हम बड़े जिज्ञासु हैं पोस्ट के जरिये सवाल पूछते हैं
( - वैसे उत्तर जानने में हमारा कोई इंटरेस्ट नहीं है )
डिस्क्लेमर - या दिल की सुनो दुनिया वालों या मुझको अभी चुप रहने दो................ :)
पाठक तक पहुचने के सभी साधन रचनाकार /ब्लोगर उठाते हैं.. .. इस से पहले पीढी के लोग कवियों से परेशान रहा करते थे जो पकड़ पकड़ कर कवितायेँ सुनाते थे... खैर.. एक बात यह भी है कि गूगल भी यही चाहता है... बिना बाजारवाद से गूगल का खर्चा कैसे निकलेगा...ब्रांड/नाम कैसे पहुचेगा अधिक लोगों तक... जितने अधिक लोगों तक ब्लॉग पहुचेगा.. गूगल भी... किन्तु जैसे जैसे लोग मैच्यूर होंगे चीज़े सामान्य होंगी. सृजनात्मकता भी महीने भर बाद शांत हो जाती है. मैं स्वयं भी शुरू में महीने भर में २० पोस्ट लिखता था अब तीन चार से अधिक नहीं हो पाती... आभासी दुनिया का बढ़िया विश्लेषण किया है...
ReplyDeleteसहनशक्ति की सीमायें, कार्य, अनुभव और मैत्री के स्तर के अनुसार कम-बढ होती हैं...
ReplyDeleteआपका विश्लेषण गजब का है। आजकल ब्लॉग भ्रमण कम हो रहा है किन्तु यह सब होता था याद आ रहा है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
Couldn't have agreed more! :)
ReplyDeleteWonderfully wonderful