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Monday, July 1, 2013

मार्जार मिथक गाथा

(अनुराग शर्मा)

बिल्लियाँ जब भी फुर्सत में बैठती हैं, इन्सानों की ही बातें करती हैं। यदि आप कभी सुन पाएँ तो जानेंगे कि उनके अधिकांश लतीफे मनुष्यों के बेढंगेपन पर ही होते हैं। कहा जाता है कि बहुत पहले बिल्लियों के चुटकुले भी बहुरंगी होते थे। फिर धीरे-धीरे आत्म-केन्द्रित इंसान प्रकृति के साथ-साथ बिल्लियों के हास्य-व्यंग्य पर भी कब्जा करता गया और अब तो कोई पढ़ी-लिखी बिल्ली इंसान की कल्पना किए बिना ढंग से हँस भी नहीं सकती है। बिल्लियों के विपरीत इन्सानों के चुट्कुले अपने और दूसरे के बीच के अंतर से उत्पन्न होते हैं। उनमें अक्सर दूसरे देश, धर्म, प्रांत या मज़हब के इन्सानों का ज़िक्र होता है। कभी-कभी उनमें गधे या कुत्ते जैसे सरल प्राणी शामिल होते हैं लेकिन अक्सर तो इंसानी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह उनके लतीफों का दायरा भी सीमित ही रह गया है। लेकिन कुछ इंसान दूसरों से अलग हैं। वे इंसानी नस्ल के आगे भी सोचते हैं। मनुष्यमात्र की बात करना उनके लिए स्वार्थ का प्रतिमान है।

ऐसे टुन्नात्मिक प्रवृत्ति वाले लोगों का संसार बिल्ली-कुत्तों के दुख-दर्द, उनके राजनीतिक अधिकार, सरकार द्वारा मछलियों की अभिव्यक्ति के दमन और घोड़े-गदहे-जिराफ़ और गेहूँ-कमल-गुलाब की समानता के अधिकार के बारे में सोचता है। वे दुबले हुए जाते हैं इसीलिए आप सड़क पर खुजलाते आवारा कुत्तों को देख पाते हैं, वरना ज़ालिम नगर पालिका वाले उन्हें कब का पकड़ ले जाते। ये महात्मा लोग जीवित हैं इसीलिए गायें पोलीथीन की थैलियाँ खा सकती हैं, वरना तो भक्तजन गायों को भी पूजनीय देवी बनाकर मंदिरों और गौशालाओं में बांधकर रख देते। इन्हीं की दया से कर्तव्यनिष्ठ कसाई भेड़-बकरियों को मनुष्य की कैद से आज़ादी दिला पाते हैं। ये लोग आमतौर पर हम-आप जैसे अल्पज्ञ और नश्वर प्राणियों को घास नहीं डालते हैं। लेकिन थोड़ी पीने के बाद वे रहमदिल हो जाते हैं। ऊपर से अगर मुफ्त की मिल जाये फिर तो ये निस्वार्थ मनुष्य और भी दरियादिल दिखने लगते हैं।

ऐसी ही एक मुफ्तखोर पार्टी में जब दारूचन्द जी ने मेरे सलाम को इगनोर नहीं किया तो मेरा साहस बढ़ गया। मैं अपने कोला के गिलास को उनकी दारू के पास रखकर एक कुर्सी खींचकर उनके निकट बैठकर उनकी और उनकी मित्र मंडली की बातें ऐसे सुनता गया जैसे फेसबुक की मित्र-सूची से निकाला गया व्यक्ति अपने पुराने गैंग की वाल को पढ़ता है।

"मुहल्ले में चोरियाँ होने लगीं तो सबने कहा कि एक कुत्ता पाल लो।" ये सुरासिंह थे।
"अच्छा! फिर?" बाकियों ने समवेत स्वर में पूछा।
"चोर तो चोर, कुत्ते भी जब मेरे गली से गुज़रते थे, तो अपनी दुम दबाकर दूसरी ओर की दीवार से चिपककर चलते थे, ऐसे गरजता था मेरा टॉम।"
"गोल्डेन रिट्रीवर था कि जर्मन शेपर्ड?"
"बुलडॉग या लेब्रडोर होगा ... "
"अजी बिलकुल नहीं, मेरा टॉम तो शेर का मौसा है, एक खतरनाक बिलौटा।"
"आँय!" कुत्तापछाड़ बिलाव की बात सुनकर मेरा मुँह खुला का खुला रह गया लेकिन बाकी मंडली को कोई खास आश्चर्य नहीं हुआ। बल्कि यह किस्सा सुनकर पियक्कड़ कुमार "पीके" को अपनी बिल्ली याद आ गई।

पीके की बिल्ली का पिंजरा
"मेरी बिल्ली तो बहुत मक्कार है। रात में अपना पिंजरा छोडकर मेरे बिस्तर में घुस जाती थी" पीके ने कहा।
"अच्छा! फिर?" बाकियों ने समवेत स्वर में पूछा।
"फिर क्या? मैंने कुछ दिन बर्दाश्त क्या किया उसकी तो हिम्मत बढ़ती ही गई। अब तो वह मुझे धकिया कर पूरे बिस्तर पर ही कब्जा करने लगी।"
"ऐसे ही होता है। लोग आते हैं आव्रजक बनकर, फिर देश के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बन जाते हैं।
"आप चुप रहिये! हर बात में राजनीति ले आते हैं ...", लोगों ने सुरासिंह को झिड़का, "फिर? आगे क्या हुआ"
"अब तो मैं सोते समय 10-12 तकिये लेकर सोता हूँ। बिल्ली के पास आते ही एंटी-एयरक्रेफ्ट मिसाइल की तरह एक-एक करके उस पर फेंकना शुरू कर देता हूँ। अकल ठिकाने आ जाती है।

सब सुना रहे थे तो भला अंगूरी प्यारी कैसे चुप रहतीं? अपनी ज़ुल्फें झटककर बोलीं, "मेरी दुलारी तो बस गायब ही हो गई थी!"
"आपसे डरकर?"
"शटअप!"
"अरे इसे छोड़िए, नादान है। आप अपना किस्सा सुनाये" दारूचन्द ने बात सम्भाली।
"कई दिन से लापता थी। पुलिस में रिपोर्ट भी लिखाई। जब कुछ नहीं हुआ तो एक प्राइवेट डिटेक्टिव रखा। उसकी कई हफ्तों की खोज के बाद पड़ोसी नगर के रेसकोर्स में मिली। पड़ोसियों के कुत्ते को भगाकर ले गई थी।
"अरेSSS गज़्ज़ब!" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"आप तो काफी पिछड़े हुए लगते हैं। आपके पास तो बिल्ली नहीं होगी विलायत खाँ जी।"
"पिछड़े होंगे आप। हमारा तो पूरा खानदान ही बिल्लीपालक है। पुरखे शेर-चीते पालते थे। आज के जमाने में उन्हें खिलाने को गरीब लोग कहाँ ढूंढें, सो बिल्ली पालकर शौक पूरा कर रहे हैं।
"तो बिल्ली को खिलाने के लिए चूहे कहाँ ढूंढते हैं?"
"इत्ता टाइम कहाँ है अपने पास। पहले दूध पिलाते थे। अब तो हम कभी चाय पिला देते हैं कभी कॉफी। घटिया नस्ल की बिल्लियाँ कोक-पेप्सी भी पी लेती हैं लेकिन आला दर्जे की बिल्लियाँ रोज़ एक-दो पैग वोदका न पियें तो उन्हें नींद ही नहीं आती है।
"अच्छा! ये बात!" बाकियों ने समवेत स्वर में कहा।
"कभी ज़्यादा तंग करें तो मैं अपनी नशे की गोली भी खिला देता हूँ सुसरियों को।"
"क्या ज़माना आ गया है, आदमी तो आदमी, बिल्लियाँ भी नशा करती हैं।" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"आप बड़े चुप-चुप हैं, आपके घर में बिल्ली नहीं है क्या?"
"जी नहीं! गुज़र गई!"
"कैसे?" सभी ने आश्चर्य से एकसाथ पूछा।
"बड़ी महत्वाकांक्षी थी"
"अच्छा! कैसे गुज़री?" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।
"खबर फैली हुई थी कि चुनाव आ रहे हैं। सो अपने बच्चों को मुँह में दाबकर ..."
"इलेक्शन में खड़ी हो रही है?"
"चुनाव प्रचार को निकली?"
"ट्रक से कुचल गई?"
अरे नहीं, पूरी बात कहने तो दीजिये।"
"जी!"
"बाल बच्चों समेत गुजरात के लिए गुज़री है। सुना है कि मोदी पीएम बनेंगे तब सीएम की सीट खाली होगी न। हमारी बिल्ली की नज़र उसी पर है।"

[समाप्त]

Wednesday, January 9, 2013

इंडिया बनाम भारत बनाम महाभारत ...

मशरिक़, भारत, इंडिया, और हिंदुस्तान
ये पूरब है पूरब वाले हर जान की कीमत जानते हैं ...
अपराध इतना शर्मनाक था कि कुछ बोलते नहीं बन रहा था। इस घटना ने लोगों को ऐसी गहरी चोट पहुँचाई कि कभी न बोलने वाले भी कराह उठे। सारा देश तो मुखरित हुआ ही देश के बाहर भी लोगों ने इस घटना का सार्वजनिक विरोध किया। फिर भी कई लोग ऐसा बोले कि सुन कर तन बदन में आग लग गई।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने दिल्ली मे "निर्भया" के विरुद्ध हुए दानवी कृत्य को "भारत बनाम इंडिया" का परिणाम बताया तो समाजवादी पार्टी के अबू आजमी भी फटाफट उनके समर्थन में आ खड़े हुए। अबू आजमी ने कहा कि महिलाओं को कुछ ज्यादा ही आजादी दे दी गई है। ऐसी आजादी शहरों में ज्यादा है। इसी वजह से यौन-अपराध की घटनाएँ बढ़ रही हैं। उन्होंने कहा कि भारतीय संस्कृति अविवाहित महिलाओं को गैर मर्दो के साथ घूमने की अनुमति नहीं देती है। अबू आजमी ने कहा कि जहाँ वेस्टर्न कल्चर का प्रभाव कम है वहाँ ऐसे मामले भी कम हैं।

ये हैं देश के राष्ट्रपति के सपूत!
इससे पहले राष्ट्रपति के पुत्र एवं कॉंग्रेस के सांसद अभिजीत मुखर्जी ने राजधानी दिल्ली के सामूहिक बलात्कार के खिलाफ होने वाले प्रदर्शनों में शामिल महिलाओं को अत्यधिक रंगी पुती बताकर विवाद खड़ा कर दिया। जनता की तीव्र प्रतिक्रिया के बाद अभिजीत ने अपनी टिप्पणी वापस ले ली। इसी प्रकार मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री कैलाश विजयवर्गीय पहले बेतुके और संवेदनहीन बयान देकर फिर उनके लिए माफी भी मांग चुके हैं। विश्व हिंदू परिषद के अंतरराष्ट्रीय सलाहकार अशोक सिंघल ने भी अपराध का ठीकरा महिलाओं के सिर फोड़ते हुए पाश्चात्य जीवन शैली को ही दुष्कर्म और यौन उत्पीड़न का जिम्मेदार ठहराकर अमेरिका की नकल पर अपनाए गए रहन-सहन को खतरे की घंटी बताया।

इंडिया कहें, हिंदुस्तान कहें या भारत, सच्चाई यह है कि ये अपराध इसलिए होते हैं कि भारत भर में प्रशासन जैसी कोई चीज़ नहीं है। हर तरफ रिश्वतखोरी, लालच, दुश्चरित्र और अव्यवस्था का बोलबाला है। जिस पश्चिमी संस्कृति को हमारे नेता गाली देते नहीं थकते वहाँ एक आम आदमी अपना पूरा जीवन भ्रष्टाचार को छूए बिना आराम से गुज़ार सकता है। उन देशों में अकेली लड़कियाँ आधी रात में भी घर से बाहर निकलने से नहीं डरतीं जबकि सीता-सावित्री (और नूरजहाँ?) के देश में लड़कियाँ दिन में भी सुरक्षित नहीं हैं। मैंने गाँव और शहर दोनों खूब देखे हैं और मेरा व्यक्तिगत अनुभव भी यही है कि ग्रामीण क्षेत्रों में तो कानून नाम का जीव उतना भी नहीं दिखता जितना शहरों में। वर्ष 1983 से 2009 के बीच बलात्कार के दोषी पाये गए दुष्कर्म-आरोपियों में तीन-चौथाई मामले ग्रामीण क्षेत्र के थे। देश भर में केवल बलात्कार के ही हजारों मामले अभी भी न्याय के इंतज़ार में लटके हुए हैं।
अहल्या द्रौपदी तारा सीता मंदोदरी तथा
पंचकन्‍या स्‍मरेन्नित्‍यं महापातकनाशनम्‌
भारत में राजनीति तो पहले ही इतनी बदनाम है कि विभिन्न राजनीतिक विचारधाराओं के नमूनों में से किसी से भी संतुलित कथन की कोई उम्मीद शायद ही किसी को रही हो। ऐसे संजीदा मौके पर भी ऐसी बातें करने वालों को न तो भारत के बारे में पता है न पश्चिम के बारे में, न नारियों के बारे में, न अपराधियों के, और न ही व्यवस्था के बारे में कोई अंदाज़ा है। तानाशाही प्रवृत्ति के राजनेताओं से महिलाओं या पुरुषों की आज़ादी की बात की तो अपेक्षा भी करना एक घटिया मज़ाक जैसा है। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, विशेषकर महिलाओं के प्रति ऐसी सोच इन लोगों की मानसिकता के पिछड़ेपन के अलावा क्या दर्शा सकती है? लेकिन जले पर सबसे ज़्यादा नमक छिड़का अपने को भारतीय संस्कृति का प्रचारक बताने वाले बाबा आसाराम ने। आसाराम ने एक हाथ से ताली न बजने की बात कहकर मृतका का अपमान तो किया ही, बलात्‍कारियों के लिए कड़े कानून का भी इस आधार पर विरोध किया कि कानून का दुरुपयोग हो सकता है। आधुनिक बाबाओं का पक्षधर तो मैं कभी नहीं था लेकिन इस निर्दय और बचकाने बयान के बाद तो उनके भक्तों की आँखें भी खुल जानी चाहिए।
घटना के लिए वे शराबी पाँच-छह लोग ही दोषी नहीं थे। ताली दोनों हाथों से बजती है। छात्रा अपने आप को बचाने के लिए किसी को भाई बना लेती, पैर पड़ती और बचने की कोशिश करती। ~आसाराम बापू
पश्चिम, मग़रिब, या वैस्ट
पश्चिमी संस्कृति में रिश्वत लेकर गलत पता लिखाकर बसों के परमिट नहीं बनते, न ही पुलिस नियमित रूप से हफ्ता वसूलकर इन हत्यारों को सड़क पर ऑटो या बस लेकर बेफिक्री से घूमने देती है। न तो वहाँ लड़कियों को घर से बाहर कदम रखते हुए सहमना पड़ता हैं और न ही उनके प्रति अपराध होने पर राजनीतिक और धार्मिक नेता अपराध रोकने के बजाय उल्टे उन्हें ही सीख देने निकल पड़ते हैं। लेकिन बात इतने पर ही नहीं रुकती। पश्चिमी देशों के कानून के अनुसार सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति दिखने पर पुलिस को सूचना न देना गंभीर अपराध है। कई राज्यों में पीड़ित की यथासंभव सहायता करना भी अपेक्षित है। इसके उलट भारत में अधिकांश दुर्घटनाग्रस्त लोग दुर्घटना से कम बल्कि दूसरे लोगों की बेशर्मी और पुलिस के निकम्मेपन के कारण ही मरते हैं। खुदा न खास्ता पुलिस घटनास्थल पर पीड़ित के जीवित रहते हुए पहुँच भी जाये तो अव्वल तो वह आपातस्थिति के लिए प्रशिक्षित और तैयार ही नहीं होती है, ऊपर से उसके पास "हमारे क्षेत्र में नहीं" का बहाना तैयार रहता है। किसी व्यक्ति को आपातकालीन सहायता देने वाले व्यक्ति को कोई कानूनी अडचन या खतरा नहीं हो यह तय करने के लिए भारत या इंडिया के कानून और कानून के रखवालों का पता नहीं लेकिन पश्चिमी देशों में "गुड समैरिटन लॉं" के नियम उनके सम्मान और सुरक्षा का पूरा ख्याल रखते हैं।

भारत की तारीफ में कसीदे पढ़ने वाले अक्सर हमारी पारिवारिक व्यवस्था और बड़ों के सम्मान का उदाहरण ज़रूर देते हैं। अपने से बड़ों के पाँव पड़ना भारतीय संस्कृति की विशेषता है। अब ये बड़े किसी भी रूप में हो सकते हैं। उत्तर प्रदेश, बंगाल या तमिलनाडु के मुख्यमंत्री हों या कॉंग्रेस की अध्यक्षा, पाँव पड़नेवालों की कतार देखी जा सकती है। बड़े-बड़े बाबा गुरुपूर्णिमा पर अपने गुरु के पाँव पड़े रहने का पुण्य त्यागकर अपने शिष्यों को अपना चरणामृत उपलब्ध कराने में जुट जाते हैं। बच्चे बचपन से यही देखकर बड़े होते हैं कि बड़े के पाँव पड़ना और छोटे का कान मरोड़ना सहज-स्वीकार्य है। ताकतवर के सामने निर्बल का झुकना सामान्य बात बन जाती है। पश्चिम में इस प्रकार की हिरार्की को चुनौती मिलना सामान्य बात है। मेरे कई अध्यापक मुझे इसलिए नापसंद करते थे क्योंकि मैं वह सवाल पूछ लेता था जिसके लिए वे पहले से तैयार नहीं होते थे। यकीन मानिए भारत में यह आसान नहीं था। लेकिन यहां पश्चिम में यह हर कक्षा में होता है और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता यहाँ सहज स्वीकार्य है, ठीक उसी रूप में जिसमें हमारे मनीषियों ने कल्पना की थी। सच पूछिए तो जो प्राचीन गौरवमय भारतीय संस्कृति हमारे यहाँ मुझे सिर्फ किताबों में मिली वह यहाँ हर ओर बिखरी हुई है। आश्चर्य नहीं कि पश्चिम में स्वतन्त्रता का अर्थ उच्छृंखलता नहीं होता। किसी की आँखें ही बंद हों तो कोई क्या करे?
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।।
दंड ही शासन करता है। दंड ही रक्षा करता है। जब सब सोते रहते हैं तो दंड ही जागता है। बुद्धिमानों ने दंड को ही धर्म कहा है। (अनुवाद आभार: अजित वडनेरकर)

पश्चिमी संस्कृति बच्चों की सुरक्षा पर कितनी गंभीर है इसकी झलक हम लोग पिछले दिनों देख ही चुके हैं जब नॉर्वे में दो भारतीय दम्पति अपने बच्चों के साथ समुचित व्यवहार न करने के आरोप में चर्चा में थे। रोज़ सुबह दफ्तर जाते हुए देखता हूँ कि चुंगी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की स्कूल बस खड़ी हो तो सड़क के दोनों ओर का ट्रैफिक तब तक पूर्णतया रुका रहता है जब तक कि सभी बच्चे सुरक्षित चढ़-उतर न जाएँ। लेकिन इसी "पश्चिमी" संस्कृति की दण्ड व्यवस्था में कई गुनाह ऐसे भी हैं जिनके साबित होने पर नाबालिग अपराधियों को बालिग मानकर भी मुकदमा चलाया जा सकता है और बहुत सी स्थितियों में ऐसा हुआ भी है। बच्चे जल्दी बड़े हो रहे हैं, शताब्दी पुराने क़ानूनों मे बदलाव की ज़रूरत है। वोट देने की उम्र बदलवाने को तो राजनेता फटाफट आगे आते हैं, बाकी क्षेत्रों मे वय-सुधार क्यों नहीं? चिंतन हो, वार्ता हो, सुधार भी हो। निर्भया के प्रति हुए अपराध के बाद तो ऐसे सुधारों कि आवश्यकता को नकारने का कोई बहाना नहीं बचता है।

मैंने शायद पहले कभी लिखा होगा कि विनम्रता क्या होती है इसे पूर्व के "पश्चिमी" देश जापान गए बिना समझना कठिन है। उसी जापान में जब मैंने अपनी एक अति विनम्र सहयोगी से यह जानना चाहा कि एक पूरा का पूरा राष्ट्र विनम्रता के सागर में किस तरह डूब सका तो उसने उसी विनम्रता के साथ बताया, "हम लोग तो एकदम जंगली थे ..."

"फिर?"

"फिर भारत से धर्म और सभ्यता यहाँ पहुँची और हम बदल गए।"

मैं यही सोच रहा था कि भारतीय सभ्यता के प्रति इतना आदर रखने वाले व्यक्ति जब दिल्ली हवाई अड्डे से बाहर आकर एक टैक्सी में बैठते होंगे तब जो सच्चाई उनके सामने आती होगी ... आगे कल्पना नहीं कर सका।
हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितंमुखं
तत्‌ त्वं पूषन् अपावृणु सत्यधर्माय द्रृष्टये
सत्य का मुख स्वर्णिम पात्र से ढँका है, कृपया सत्य को उजागर करें।

आँख मूंदकर अपनी हर कमी, हर अपराध का दोष अंग्रेजों या पश्चिम को देने वालों ... बख्श दो इस महान देश को!

* संबन्धित कड़ियाँ *
- अहिसा परमो धर्मः
- कितने सवाल हैं लाजवाब?
- 2013 में आशा की किरण?
- बलात्कार, धर्म और भय

[आभार: चित्र व सूचनाएँ विभिन्न समाचार स्रोतों से]

Tuesday, June 26, 2012

आभासी सम्बन्ध और ब्लॉगिंग

आभासी सम्बन्धों के आकार-प्रकार पर हमारे राज्य के पेन स्टेट विश्वविद्यालय के एक शोध ने यह तय किया है कि फेसबुक जैसी वैबसाइटों पर मित्रता अनुरोध अस्वीकार होने या नजरअंदाज किये जाने पर सन्देश प्रेषक ठुकराया हुआ सा महसूस करते हैं। इस अध्ययन से यह बात तो सामने आई ही है कि अनेक लोगों के लिए यह आभासी संसार भी वास्तविक जगत जैसा ही सच्चा है। साथ ही इससे यह भी पता लगता है कि कई लोग दूसरों को आहत करने का एक नया मार्ग भी अपना रहे हैं।

मेरी नन्ही ट्विटर मित्र
आपके तथाकथित मित्र फेसबुक या गूगल प्लस पर आपकी ‘फ्रैंड रिक्वैस्ट’ ठुकरा कर, या अपने ब्लॉग पर आपकी टिप्पणियों को सेंसर करके या फिर इससे दो कदम आगे जाकर आपके विरुद्ध पोस्ट पर पोस्ट लिखते हुए आपकी जवाबी टिप्पणियाँ प्रकाशित न करके या फिर टिप्पणी का विकल्प ही पूर्णतया बन्द करके आपको चोट पहुँचाते जा रहे हैं तो आपको खराब लगना स्वाभाविक ही है। आपकी फेसबुक वाल या गूगल प्लस पर कोई आभासी साथी आकर अपना लिंक चिपका जाता है। आप क्लिक करते हैं तो पता लगता है कि पोस्ट तो केवल आमंत्रित पाठकों के लिये थी, लिंक तो आपको चिढाने के लिये भेजे जा रहे थे। किसी हास्यकवि ने विवाह के आमंत्रण पत्र पर अक्सर लिखे जाने वाले दोहे की पैरोडी करते हुए कहा था:

भेज रहे हैं येह निमंत्रण, प्रियवर तुम्हें दिखाने को
हे मानस के राजकंस तुम आ मत जाना खाने को
ताज़े अध्ययन का लब्बो-लुआब यह है कि आभासी जगत में होने वाला अपमान भी उतना ही दर्दनाक होता है जितना वास्तविक जीवन में होने वाला अपमान।

लेकिन गुस्से में आग-बबूला होने से पहले ज़रा एक पल रुककर इतना अवश्य सोचिये कि क्या इन सब से सदा आहत होने की प्रक्रिया में हमारा कोई रोल नहीं है? अंग्रेज़ी की एक कहावत है कि इंसान अपनी संगत से पहचाना जाता है। यदि हमारे आसपास के अधिकतर लोग जोश को होश से आगे रखते हैं तो हमारे भी वैसा ही होने की काफ़ी सम्भावना है। शायद हम अपवाद हों, लेकिन यह जाँचने में हर्ज़ ही क्या है?

मेरे बारे में तो आप ही बेहतर बता पायेंगे लेकिन ब्लॉग जगत भ्रमण करते हुए मैंने जो कुछेक खिझाने वाली बातें देखी हैं उन्हें यहाँ लिख रहा हूँ। इनमें कई बातें ऐसी हैं जो अभासी जगत के अज्ञान के कारण पैदा हुई हैं लेकिन कई ऐसी भी हैं जिनसे हमारे भौतिक जीवन की वास्तविकता ज़ाहिर होती है।

किसी ब्लॉग पर कमेंट करने चलो तो यह मौलिक शिष्टाचार है कि हिन्दी की पोस्ट पर टिप्पणी हिन्दी में ही की जाये। लेकिन टिप्पणी लिखने के ठीक बाद आपका सामना होता है वर्ड वेरिफ़िकेशन के दैत्य से जिसके कैप्चा अंग्रेज़ी में होते हैं और कई बार आपके लिखे अक्षर अस्वीकृत होने के बाद आपको अपनी ग़लती का अहसास होता है और आप अपना कीबोर्ड हिन्दी से अंग्रेज़ी में वापस बदलते हैं। अगली पोस्ट पर फिर एक परिवर्तन ...। आप कहेंगे कि यह चौकसी के लिये है। ऐसा होता तो क्या ग़म था। दुःख तब होता है जब उसी पोस्ट पर आपको स्पैम कमेंट भी आराम से रहते हुए दिखते हैं।

कुछ ब्लॉग ऐसे हैं कि आप पढना तो चाहते हैं मगर आपके शांत पठन में बाधा डालने का इंतज़ाम ब्लॉग लेखक ने खुद ही कर दिया है एक ऐसा ऑडियो लगाकर जिसका ऑफ़ बटन या तो होता ही नहीं या ऐसी जगह पर छिपा होता है कि ढूंढते-ढूंढते थक जाने पर पन्ना पलटने से पहले आप उस ब्लॉग पर दोबारा कभी न आने का प्रण ज़रूर करते हैं। आश्चर्य नहीं कि उस ब्लॉग पर अगली पोस्ट पाठकों की तोताचश्मी पर होती है।

इन सदाबहार ऑडियो वालों के विपरीत वे ब्लॉगर हैं जिनके ब्लॉग पर आप जाते ही ऑडियो सुनने (या विडियो देखने) के लिये हैं लेकिन यदि सुनते-सुनते ही आपने कुछ लिखने का प्रयास किया तो टिप्पणी बॉक्स उसी पेज पर होने के कारण आपका ऑडियो रिफ़्रेश हो जाता है। अब सारी कसरत शुरू कीजिये एक बार फिर से ... इतना टाइम किसके पास है भिड़ु? मणि कौल की फ़िल्में देखने से बचता हूँ, हर बार यही बात दिमाग़ में आती है कि निर्देशक को अपने दर्शकों के समय का आदर तो करना ही चाहिये।

सताने वाले ब्लॉगर्स का एक और प्रकार है। ये लोग दिन में पाँच पोस्ट लिखते हैं। हर पोस्ट का ईमेल पाँच हज़ार लोगों को भेजने के अलावा हर ऑनलाइन माध्यम पर उसे पाँच-पाँच बार (पब्लिक, मित्र, विस्तृत समूह आदि) पोस्ट करते हैं। हर रोज़ 25 वाल पोस्ट हाइड करते वक़्त आप यही सोचते हैं कि यह बन्दा आपकी मित्र सूची में घुसा कैसे। फिर एक दिन चैट पर वही व्यक्ति आपको पकड़ लेता है और अपनी दारुणकथा सुनाकर द्रवित कर देता है कि किस तरह उसके सभी अहसान-फ़रामोश मित्र एक एक करके उसे अपनी सूची से बाहर कर रहे हैं। हाय राम, एक साल में 90% टिप्पणीकारों ने साथ छोड़ दिया।

मित्र के दुःख से दुखी आप उसे यह भी नहीं बता सकते कि उसकी कोई पोस्ट पढने लायक हो तो भी शायद लोग झेल लें, मगर वहाँ तो बिना किसी भूमिका के उस समाचार का लिंक होता है जो आज के सभी समाचार पत्रों में आप पहले ही पढ चुके थे। इससे मिलती जुलती श्रेणी उन भाई-बहनों की है जो हज़ार बार पहले पढे जा चुके चेन ईमेल, चुटकुले, चित्र आदि ही चिपकाते रहते हैं।

जागरूक ब्लॉगर्स का एक वर्ग वह है जो अपने ब्लॉग पर न सिर्फ़ कॉपीराइट नोटिस और कानूनी तरदीद लगाकर रखते हैं बल्कि काफ़ी मेहनत करके ऐसा इंतज़ाम भी रखते हैं कि आप उनके ब्लॉग का एक शब्द भी (आसानी से) कॉपी न कर सकें। वैसे इस प्रकार के अधिकांश ब्लॉगरों के यहाँ से कुछ कॉपी करने की ज़रूरत किसी को होती नहीं है क्योंकि इन ब्लॉगों पर अधिकांश लिंक, जानकारी और चित्र पहले ही यहाँ-वहाँ से कॉपी किये हुए होते हैं। मुश्किल बस इनके उन्हीं मित्रों को होती है जो टिप्पणी लेनदेन की सामाजिक ज़िम्मेदारी निभाने के लिये "बेहतरीन" लिखने से पहले उनकी पोस्ट की आखिरी दो लाइनें भी चेपना चाहते हैं।

एक और विशिष्ट प्रजाति है, हल्लाकारों की। ये समाज की नाक में नकेल डालकर उसे सही दिशा की अरई से हांकने के एक्स्पर्ट होते हैं। अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल में भेजने वाले हल्लाकार गुरुकुल पद्धति लाने का नारा बुलन्द करते हैं और हिन्दीभाषी कस्बे में रहते हुए भी खुद कॉंवेंट में पढे हल्लाकार तमिलनाडु में तमिल हटाकर हिन्दी लाने का लारा देते हैं। इस वर्ग को भारत के इतिहास-भूगोल का पूर्ण अज्ञान होते हुए भी भारतीय संस्कृति के सम्मान के लिये अमेरिका-यूरोप की नारियों को बुरके और घूंघट में लपेटना ज़रूरी मालूम पड़ता है। अपने को बम समझने वाले ये असंतोष के गुब्बारे फ़टने के लिये इतने आतुर रहते हैं कि कोई भी गुर्गा खाँ या मुर्गा देवी इनका जैसा चाहें वैसा प्रयोग कर सकते हैं। ऐसे अधिकांश हल्लाकार अपने आप को तुलसीदास से लेकर गांधी तक, राष्ट्रीय गान से लेकर राष्ट्र ध्वज तक और रामायण से लेकर भारतीय संविधान तक किसी का भी अपमान करने का अधिकारी मानते हैं। ये लोग अक्सर संस्कृत या अरबी के उद्धरण ग़लत याद करने और अफ़वाहों को पौराणिक महत्व देने के लिये पहचाने जाते हैं। यह विशिष्ट वर्ग आँख मूंदकर हाँ में हाँ मिलाने वालों के अतिरिक्त अन्य सभी को अपना शत्रु मानता है।

ब्लॉगर्स के अलावा फ़ेसबुक आदि पर मुझे वे छद्मनामी लोग भ्रमित करते हैं जो अपना परिचय देने की ज़हमत किये बिना आपको मित्रता अनुरोध भेजते रहते हैं, अब आप सोचते रहिये कि ब्लेज़ पैस्कल रहता कहाँ है या सृजन साम्राज्ञी आपसे कब मिली थी। ग़लती से अगर आपने रियायत दे दी तो ये विद्वज्जन किसी वीभत्स चित्र या किसी स्वतंत्रता सेनानी की झूठी वंशावली से रोज़ आपकी दीवार लीपना शुरू कर देंगे। अल्लाह बचाये ऐसे क़दरदानों से!

यह लेख किसी व्यक्ति-विशेष के बारे में नहीं है बल्कि सच कहूँ तो किसी भी व्यक्ति या ब्लॉगर की बात न करके केवल उन असुविधाओं का ज़िक्र करने का प्रयास भर है जिनसे हम सब आभासी जगत में दो चार होते हैं। वैसे भी सहनशक्ति की सीमायें, कार्य, अनुभव और मैत्री के स्तर के अनुसार कम-बढ होती हैं। इंसान गलती का पुतला है, जैसे हमें झुंझलाहट होती है वैसे ही हमारे अनेक कार्यों से अन्य लोगों को भी परेशानी होती हो यह स्वाभाविक ही है। हाँ, यदि प्रयास करके चिड़चिड़ाहट का स्तर कम से कम किया जा सके तो उसमें सबका हित है।