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Monday, July 1, 2013

मार्जार मिथक गाथा

(अनुराग शर्मा)

बिल्लियाँ जब भी फुर्सत में बैठती हैं, इन्सानों की ही बातें करती हैं। यदि आप कभी सुन पाएँ तो जानेंगे कि उनके अधिकांश लतीफे मनुष्यों के बेढंगेपन पर ही होते हैं। कहा जाता है कि बहुत पहले बिल्लियों के चुटकुले भी बहुरंगी होते थे। फिर धीरे-धीरे आत्म-केन्द्रित इंसान प्रकृति के साथ-साथ बिल्लियों के हास्य-व्यंग्य पर भी कब्जा करता गया और अब तो कोई पढ़ी-लिखी बिल्ली इंसान की कल्पना किए बिना ढंग से हँस भी नहीं सकती है। बिल्लियों के विपरीत इन्सानों के चुट्कुले अपने और दूसरे के बीच के अंतर से उत्पन्न होते हैं। उनमें अक्सर दूसरे देश, धर्म, प्रांत या मज़हब के इन्सानों का ज़िक्र होता है। कभी-कभी उनमें गधे या कुत्ते जैसे सरल प्राणी शामिल होते हैं लेकिन अक्सर तो इंसानी साहित्य की अन्य विधाओं की तरह उनके लतीफों का दायरा भी सीमित ही रह गया है। लेकिन कुछ इंसान दूसरों से अलग हैं। वे इंसानी नस्ल के आगे भी सोचते हैं। मनुष्यमात्र की बात करना उनके लिए स्वार्थ का प्रतिमान है।

ऐसे टुन्नात्मिक प्रवृत्ति वाले लोगों का संसार बिल्ली-कुत्तों के दुख-दर्द, उनके राजनीतिक अधिकार, सरकार द्वारा मछलियों की अभिव्यक्ति के दमन और घोड़े-गदहे-जिराफ़ और गेहूँ-कमल-गुलाब की समानता के अधिकार के बारे में सोचता है। वे दुबले हुए जाते हैं इसीलिए आप सड़क पर खुजलाते आवारा कुत्तों को देख पाते हैं, वरना ज़ालिम नगर पालिका वाले उन्हें कब का पकड़ ले जाते। ये महात्मा लोग जीवित हैं इसीलिए गायें पोलीथीन की थैलियाँ खा सकती हैं, वरना तो भक्तजन गायों को भी पूजनीय देवी बनाकर मंदिरों और गौशालाओं में बांधकर रख देते। इन्हीं की दया से कर्तव्यनिष्ठ कसाई भेड़-बकरियों को मनुष्य की कैद से आज़ादी दिला पाते हैं। ये लोग आमतौर पर हम-आप जैसे अल्पज्ञ और नश्वर प्राणियों को घास नहीं डालते हैं। लेकिन थोड़ी पीने के बाद वे रहमदिल हो जाते हैं। ऊपर से अगर मुफ्त की मिल जाये फिर तो ये निस्वार्थ मनुष्य और भी दरियादिल दिखने लगते हैं।

ऐसी ही एक मुफ्तखोर पार्टी में जब दारूचन्द जी ने मेरे सलाम को इगनोर नहीं किया तो मेरा साहस बढ़ गया। मैं अपने कोला के गिलास को उनकी दारू के पास रखकर एक कुर्सी खींचकर उनके निकट बैठकर उनकी और उनकी मित्र मंडली की बातें ऐसे सुनता गया जैसे फेसबुक की मित्र-सूची से निकाला गया व्यक्ति अपने पुराने गैंग की वाल को पढ़ता है।

"मुहल्ले में चोरियाँ होने लगीं तो सबने कहा कि एक कुत्ता पाल लो।" ये सुरासिंह थे।
"अच्छा! फिर?" बाकियों ने समवेत स्वर में पूछा।
"चोर तो चोर, कुत्ते भी जब मेरे गली से गुज़रते थे, तो अपनी दुम दबाकर दूसरी ओर की दीवार से चिपककर चलते थे, ऐसे गरजता था मेरा टॉम।"
"गोल्डेन रिट्रीवर था कि जर्मन शेपर्ड?"
"बुलडॉग या लेब्रडोर होगा ... "
"अजी बिलकुल नहीं, मेरा टॉम तो शेर का मौसा है, एक खतरनाक बिलौटा।"
"आँय!" कुत्तापछाड़ बिलाव की बात सुनकर मेरा मुँह खुला का खुला रह गया लेकिन बाकी मंडली को कोई खास आश्चर्य नहीं हुआ। बल्कि यह किस्सा सुनकर पियक्कड़ कुमार "पीके" को अपनी बिल्ली याद आ गई।

पीके की बिल्ली का पिंजरा
"मेरी बिल्ली तो बहुत मक्कार है। रात में अपना पिंजरा छोडकर मेरे बिस्तर में घुस जाती थी" पीके ने कहा।
"अच्छा! फिर?" बाकियों ने समवेत स्वर में पूछा।
"फिर क्या? मैंने कुछ दिन बर्दाश्त क्या किया उसकी तो हिम्मत बढ़ती ही गई। अब तो वह मुझे धकिया कर पूरे बिस्तर पर ही कब्जा करने लगी।"
"ऐसे ही होता है। लोग आते हैं आव्रजक बनकर, फिर देश के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति बन जाते हैं।
"आप चुप रहिये! हर बात में राजनीति ले आते हैं ...", लोगों ने सुरासिंह को झिड़का, "फिर? आगे क्या हुआ"
"अब तो मैं सोते समय 10-12 तकिये लेकर सोता हूँ। बिल्ली के पास आते ही एंटी-एयरक्रेफ्ट मिसाइल की तरह एक-एक करके उस पर फेंकना शुरू कर देता हूँ। अकल ठिकाने आ जाती है।

सब सुना रहे थे तो भला अंगूरी प्यारी कैसे चुप रहतीं? अपनी ज़ुल्फें झटककर बोलीं, "मेरी दुलारी तो बस गायब ही हो गई थी!"
"आपसे डरकर?"
"शटअप!"
"अरे इसे छोड़िए, नादान है। आप अपना किस्सा सुनाये" दारूचन्द ने बात सम्भाली।
"कई दिन से लापता थी। पुलिस में रिपोर्ट भी लिखाई। जब कुछ नहीं हुआ तो एक प्राइवेट डिटेक्टिव रखा। उसकी कई हफ्तों की खोज के बाद पड़ोसी नगर के रेसकोर्स में मिली। पड़ोसियों के कुत्ते को भगाकर ले गई थी।
"अरेSSS गज़्ज़ब!" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"आप तो काफी पिछड़े हुए लगते हैं। आपके पास तो बिल्ली नहीं होगी विलायत खाँ जी।"
"पिछड़े होंगे आप। हमारा तो पूरा खानदान ही बिल्लीपालक है। पुरखे शेर-चीते पालते थे। आज के जमाने में उन्हें खिलाने को गरीब लोग कहाँ ढूंढें, सो बिल्ली पालकर शौक पूरा कर रहे हैं।
"तो बिल्ली को खिलाने के लिए चूहे कहाँ ढूंढते हैं?"
"इत्ता टाइम कहाँ है अपने पास। पहले दूध पिलाते थे। अब तो हम कभी चाय पिला देते हैं कभी कॉफी। घटिया नस्ल की बिल्लियाँ कोक-पेप्सी भी पी लेती हैं लेकिन आला दर्जे की बिल्लियाँ रोज़ एक-दो पैग वोदका न पियें तो उन्हें नींद ही नहीं आती है।
"अच्छा! ये बात!" बाकियों ने समवेत स्वर में कहा।
"कभी ज़्यादा तंग करें तो मैं अपनी नशे की गोली भी खिला देता हूँ सुसरियों को।"
"क्या ज़माना आ गया है, आदमी तो आदमी, बिल्लियाँ भी नशा करती हैं।" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।

"आप बड़े चुप-चुप हैं, आपके घर में बिल्ली नहीं है क्या?"
"जी नहीं! गुज़र गई!"
"कैसे?" सभी ने आश्चर्य से एकसाथ पूछा।
"बड़ी महत्वाकांक्षी थी"
"अच्छा! कैसे गुज़री?" सभी ने आश्चर्य व्यक्त किया।
"खबर फैली हुई थी कि चुनाव आ रहे हैं। सो अपने बच्चों को मुँह में दाबकर ..."
"इलेक्शन में खड़ी हो रही है?"
"चुनाव प्रचार को निकली?"
"ट्रक से कुचल गई?"
अरे नहीं, पूरी बात कहने तो दीजिये।"
"जी!"
"बाल बच्चों समेत गुजरात के लिए गुज़री है। सुना है कि मोदी पीएम बनेंगे तब सीएम की सीट खाली होगी न। हमारी बिल्ली की नज़र उसी पर है।"

[समाप्त]

Tuesday, January 17, 2012

कितने सवाल हैं लाजवाब?

हर सवाल लाजवाब
भारत एक महान राष्ट्र है। यहाँ का हर व्यक्ति महान है। हर कोई देश-सेवा, भाषा-सेवा, जाति-सेवा, धर्म-सेवा, ये सेवा, वो सेवा आदि के बोझ से कुचला जा रहा है। लेकिन देश है कि फिर भी समस्याओं से घिरा है। दहेज और रिश्वत जैसी परम्परायें हर ओर कुंडली मारे बैठी हैं मगर हमने कसम खा ली है कि भ्रष्टाचार को मिटाकर ही मानेंगे। कोई भ्रष्टाचार मिटाने के लिये सारे टैक्स हटाने की सलाह दे रहा है और कोई सारे राजनीतिक दलों पर प्रतिबन्ध लगाकर दो दलीय परम्परा आरम्भ करने के पक्ष में है। जन्मतिथि ग़लत लिखाने वाला भी भ्रष्टाचार मिटा रहा है और कैपिटेशन फ़ी देकर शिक्षा पाने वाला भी, आरक्षण से प्रमोशन पाने वाला भी और आरक्षण के लिए थोक में रेलें रोकने वाला भी। मज़ेदार वाकया तब देखने को मिला जब बलात्कार के आरोपी को मौत की सज़ा दिलाने की वकालत करने वाले व्यक्ति का अनशन तुड़ाने आये लोगों में वे भी दिखे जिन पर देश-विदेश में कम से कम तीन बलात्कार के आरोप लगे हैं।

जिनकी सात पीढियों में एक व्यक्ति भी सेना में नहीं गया वे धर्म, देश, जनसेवा के लिये दनादन ये सेना, वो सेना बनाये जा रहे हैं मगर किसी प्रकार के सकारात्मक परिवर्तन की बात में साथ न आ पाने के लिये उनके पास ठोस कारण हैं।  एक मित्र की दीवार पर बड़ा रोचक सन्देश देखने को मिला

अन्ना जी मै देश हित के लिए आपका साथ भी दे देता. पर क्या करूँ हमारे सिलसिले भगत और सुभाष से मिलते है. हम हमारी मांगो के लिए अनशन नहीं करते ... 

न चाहते हुए भी याद दिलाना पड़ा कि आपके सिलसिले जिन हुतात्माओं से मिलते हैं उनके बारे में पढेंगे तो पता चलेगा कि वे दोनों आपके जन्म से पहले ही अनशन पर बैठ चुके हैं। भगत सिंह ने मियाँवाली जेल में 1929 में अनशन किया था और सुभाषचन्द्र बोस ने 1939-40 में नज़रबन्दी से पहले अनशन किया था। भगत सिंह ने तो साथियों के साथ 116 दिन के अनशन का रिकार्ड स्थापित किया था। "बाघा जतिन" जतिन दास की मृत्यु इसी अनशन में हुई थी। मगर किया क्या जाये? संतोषः परमो धर्मः के देश में असंतोष तो बढ ही रहा है, भोली-भाली जनता के असंतोष को भड़काकर उसका राजनीतिक लाभ लेने वाले ठग भी बढते जा रहे हैं। और हम भी एक ऑटो में पढी अनाम कवि की सामयिक शायरी की निम्न पंक्तियों को कृतार्थ करने में लगे हैं:

कितने कमजर्फ हैं गुब्बारे चंद साँसों में फूल जाते हैं 
थोड़ा ऊपर उठ जायें तो अपनी औकात भूल जाते हैं

कुछ जगह यह चिंता भी प्रकट की जा रही है कि सिगरेट जैसे आविष्कारों से भारतीय युवा पीढी पश्चिमी बुराइयों की ओर धकेली जा रही है। मासूम चिंतक जी को नहीं पता कि हुक्का भारत में आविष्कृत हुआ था। उन्हें यह जानकारी भी नहीं है कि चिलम-गांजे-भांग की भारतीय परम्परा इतनी देसी है कि साधुजनों के पास भी मिल जायेगी।

फरवरी का महीना आ रहा है। अंग्रेज़ी पतलून वाले नौजवानों के बिना जनेऊ-चोटी वाले झुंड के झुंड भारतीय संस्कृति के रक्षार्थ अबलाओं को लतिया कर वैलेंटाइंस डे की अपसंस्कृति के विरोध में कानून हाथ में लेने के लिये उस रास्ते पर निकलने वाले हैं जो तालेबान-टाइप अराजक तत्वों ने बुर्क़ा न पहनने वाली लड़कियों के मुख पर तेज़ाब फ़ेंककर दिखाया है।

किसी को विश्व बंधुत्व, सहिष्णुता और धर्म-निरपेक्षता खतरे में दिख रही है और किसी को गाय, धर्म, भाषा, और संस्कृति। हर बन्दा भयभीत है। और भयातुर आदमी जो भी करे जायज़ होता है। वह दूसरे लोगों की, या राज्य की सम्पत्ति जला सकता है, अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त किसी भी भाषा में लिखे साइनबोर्ड पर कालिख पोत सकता है, तोड़फ़ोड, हत्या आदि कुछ भी कर सकता है। समाजहित में सब जायज़ है।

इधर धुर वामपंथी विचारधारा के कुछ मित्र लम्बे समय से डफली पीटकर भगत सिंह को कम्युनिस्ट और अन्य क्रांतिकारियों को साम्प्रदायिक साबित करने में लगे हुए हैं वहीं उनके मुकाबले में स्वाभिमानवादी भी अपना शंख बजा रहे हैं। हाल में एक विडियो-महानायक को कहते सुना कि इस्कॉन (ISKCON) नामक अमेरिकी संस्था भारत में मन्दिर बनाकर हर साल भारी मुनाफ़ा विदेश ले जा रही है। ज्ञातव्य है कि इस्क़ॉन का मुख्यालय चैतन्य महाप्रभु की जन्मस्थली मायापुर, भारत में है। प्रवचनकर्ता ने भावुक होकर यह भी बताया कि उसने तात्या टोपे के वंशजों को कानपुर में चाय बेचते देखा था। न किसी ने यह पूछा न किसी ने बताया कि यदि टोपे परिवार का वर्तमान व्यवसाय बुरा है तो उनके उत्थान के लिये वे भाषणवीर क्या करने वाले हैं। इससे पहले कई मित्र दुर्गा भाभी की तथाकथित "दुर्दशा" के बारे में यही लगभग यही (और पूर्णतः असत्य) कहानी सुना चुके हैं। तात्या टोपे के वंशजों की जानकारी उनकी वेबसाइट पर उपलब्ध है।

विकास की बात चलने पर चीनी तानाशाही के साथ हिटलर महान के गुणगान भी अक्सर कान में पड़ जाते हैं। साथ ही सारी दुनिया, विशेषकर जर्मनी पर भारतीय संस्कृति के प्रभाव के बारे में अक्सर सुनने को मिलता है। परिचितों की एक बैठक में एक आगंतुक जर्मन वायुसेवा के नाम "लुफ़्तहंसा" के आधार पर यह सिद्ध कर रहे थे कि जर्मनी पर भारत का कितना प्रभाव था। बताने लगे कि जहाज़ किसी हंस की तरह आकाश में जाकर लुप्त सा हो जाता था इसलिये लुफ़्तहंसा (= लुप्त + हंस) कहलाया गया। वास्तविक हंसा की जानकारी अंग्रेज़ी में यहाँ है

बची-खुची कसर चेन-ईमेलों द्वारा निकाली जा रही है। कहीं हिटलर को शाकाहारी बताया जा रहा है और कहीं चालीस साल की उम्र में बाज़ों का पुनर्जन्म हो रहा है। एक और दोस्त हैं, जिन्हें वैज्ञानिक धमाचौकड़ी मचाने का बड़ा शौक है। बताने लगे ऐतिहासिक मस्जिद के उस जादुई कुएँ के बारे में जिस पर मांगी गयी हर मन्नत पूरी होती है। एक शरारती बच्चे ने पूछ लिया, "अगर मैं मन्नत मांगूँ कि अब तक की सारी मन्नतें झूठी साबित हो जायें तो क्या होगा?" यह सवाल भी रह गया लाजवाब!
सम्बन्धित कड़ियाँ
* विश्वसनीयता का संकट
* दूर के इतिहासकार
* मैजस्टिक मूंछें
नायक किस मिट्टी से बनते हैं?
क्रोध कमज़ोरी है, मन्यु शक्ति है
* तात्या टोपे के वंशज

Saturday, September 24, 2011

ओसामा जी से हैलोवीन तलक - सैय्यद चाभीरमानी

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सैय्यद चाभीरमानी के परिचय की आवश्यकता नहीं है। आप उनसे पहले भी मिल चुके हैं। मैं तो उनकी बातों से इतना पक चुका हूँ कि घर से बाहर निकलने से पहले चुपचाप इधर-उधर झाँक कर इत्मीनान कर लेता हूँ कि वे मेरी ताक में बाहर तो नहीं खड़े हैं। हमने तो उनके डर से सुबह की सैर पर जाना भी बन्द कर दिया। उसके बाद वे शाम की चाय पे हमारे घर आने लगे तो आखिरकार हम घर बेचकर शहर के बाहर चले गये। लेकिन जब भाग्य खराब हो तो सारी सतर्कता धरी की धरी रह जाती है। अपनी माँ के जन्मदिन पर बच्चों ने ज़िद की अपनी माँ के लिये कुछ उपहार खुद चुनकर लायेंगे तो उनकी ज़िद पर हम चल दिये नगर के सबसे बडे मॉल में। बच्चे मूर्तिकला और हस्तशिल्प खण्ड में खोजबीन करने में लग गये तभी अचानक एक भारी-भरकम मूर्ति हमारे ऊपर गिरी। हम भी चौकन्ने थे सो हमने अपना कंधा टूटने से पहले ही मूर्ति को पकड़कर रोक लिया। यह क्या, मूर्ति तो "भाईजान, भाईजान" चिल्लाने लगी। देखा तो सैय्यद सामने मौजूद थे। दाढी तो उन्होंने पाकिस्तान छोड़ते ही कटा ली थी। इस बार मूँछ भी गायब थी।

इससे पहले कि वे हमें बोर करें, इस बार हमने आक्रामक नीति अपना ली जिससे वे खुद ही बोर होकर निकल लें और हमें बख्श दें।

"मूँछ क्या हुई? क्या भाभी ने उखाड़ दी गुस्से में?"

"उसकी यह मज़ाल, काट नहीं डालूंगा उसे।"

"इत्ता आसान है क्या? पकड़े नहीं जाओगे? कानून का कोई खौफ़ है कि नहीं?"

"क्यों दुखती रग़ पर हाथ रख रहे हो? पुराना टाइम होता तो पाकिस्तान ले जाकर काट देता। अब तो वहाँ भी पहुँच गये ये जान के दुश्मन। ओसामा जी को समन्दर में दफ़ना दिया। मगर एक बात बडे मज़े की पता लगी मियाँ ..."

"क्या?"

"येई कि तुमारे हिन्दुस्तान में भी एक शेर मौज़ूद है अभी भी।"

"एक? अजी हिन्दुस्तान तो शेरो-शायरी की जन्नत हैं, असंख्य शायर हैं वहाँ।"

"अमाँ, जेई बात खराब लगती है आपकी हमें, हर बात का उल्टा मतलब निकाल्लेते हो। हम बात कर रहे हैं, शेर जैसे बहादुर आदमी की।"

"अच्छा, अच्छा! अन्ना हज़ारे की खबर पहुँच गयी तुम तक?"

"हज़ार नहीं, एक की बात कर रहे हैं हम, अरे वोई जिसको जूते मारने की कै रहे थे कुछ हिन्दुत्वा वाले, विग्दीजे सींग टाइप कोई नाम था उसका। लगता चुगद सा है मगर बात बडी हिम्मत की कर रिया था ओसामा 'जी' कह के।"

जब तक हम पूछ्ते कि सैयद किसके सींग की बात कर रहे हैं, वे खुद ही ऐसे ग़ायब हुए जैसे गधे के सिर से सींग। हमने भी भगवान का धन्यवाद दिया कि बला टली।

आगे चलते हुए जब स्टोर के हैलोवीन खण्ड पहुँचे तो सैयद से फ़िर मुलाक़ात हो गयी। इस बार वे एक यांत्रिक दानव को बड़े ग़ौर से देख रहे थे। जैसी कि अपनी आदत है मैने भी चुटकी ली, "लड़का ढूंढ रहे हैं क्या भाभीजान के लिये?"

हमेशा की तरह कहने के बाद लगा कि शायद नहीं कहना चाहिये था पर ज़बान का तीर कोई ब्लॉग-पोस्ट तो है नहीं कि छोड़ने के बाद हवा में ही दिशा बदल डालो। सैयद ने अपनी चारों आँखें हम पर गढाईं। हम कुछ असहज हुए। फिर अचानक से वे ठठाकर हँस पड़े और बोले, "अरे मैं न पड़ता इन झमेलों में। 20 खरीदने पडेंगे।"

"बीस क्यों भई?" अब चौंकने की बारी हमारी थी, "भाभी तो एक ही हैं?"

"तुम्हें पता ही नहीं, अपनी चार बीवियाँ हैं। एक यहाँ है, बड़ी तीन पाकिस्तान में ही रहती हैं।"

"तो भी चार ही हुए न?" यह नया पाकिस्तानी गणित हमें समझ नहीं आया।

"हरेक की चार अम्माँ भी तो हैं, 16 उनके लिये 16 जमा 4, कुल बीस हुए कि नहीं?"

हम कुछ समझते इससे पहले ही सैयद चाभीरमानी फिर से ग़ायब हो चुके थे।
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* सैय्यद चाभीरमानी और हिंदुत्वा एजेंडा
* सैय्यद चाभीरमानी और शाहरुख़ खान

Friday, September 16, 2011

अब कुपोस्ट से आगे क्या होगा?

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क्या कहा? आपको नई पोस्ट लिखने का आइडिया नहीं मिल रहा? हमें भी नहीं मिल रहा। आइये ब्लॉग भ्रमण पदयात्रा पर निकलते हैं एक से एक नायाब आइडिया लेने। यह पोस्ट "अपोस्ट से आगे - कुपोस्ट तक" का विस्तार ही है। किसी भी ब्लॉग, ब्लॉगर, बेनामी, अनामी, पोस्ट, प्रविष्टि, टिप्पणी, व्यवहार, लक्षण, बीमारी, कविता, कहानी, व्यंग्य आदि से समानता संयोग  मात्र है। आलोचनाओं और आपत्तियों का स्वागत है। हाँ, सोते समय मैं टिप्पणियाँ मॉडरेट नहीं कर सकूंगा। मेरे जागने तक कृपया धैर्य रखें। जो पाठक "सैंस ओफ़ ह्यूमर" को साँप की जाति का प्राणी समझते हों, वे "अपोस्ट से कुपोस्ट तक" के इस सफ़र को न पढें तो उनकी अगली "प्रतिक्रियात्मक" पोस्ट के पाठकों का बहुमूल्य समय नष्ट होने से बच जायेगा।  
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[रश्मि जी, शिल्पा जी के सुझाव और सद्भावना का आदर करते हुए इस पोस्ट पर टिप्पणी का प्रावधान बन्द कर दिया गया है। आपकी असुविधा के लिये खेद है।]

- आज फिर पत्नी ने हमें बेलन से पीटा। हमने भी कह दिया कि अगर एक बार भी और मारा तो हम ... ... ... ... प्यार से फिर पिट लेंगे पर ब्लॉगिंग नहीं छोड़ेंगे।

- हम पागल नहीं हैं। आप लोग हमें पागल न समझें। हमारी नौकरी हमारे पागलपन के कारण नहीं छूटी है।  काम-धाम तो हम अपनी मर्ज़ी से नहीं करते हैं ताकि कीबोर्ड-सेवा कर सकें। वर्ना हम तो पीएचडी हैं, डॉ फ़ुर्सत लाल, ... "आवारा" तो हमारा तखल्लुस है यूँ ही धोखा देने के लिये। कहावत भी है, भूत के लात, लगाने के और, चलाने के और।

- आज हमारी पत्नी ने पूछा, "आज भी खाना खायेंगे क्या?" हमने जवाब नहीं दिया और उनके विरोध में यह पोस्ट लिख दी। आखिर हम अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी तो नहीं छोड़ सकते न!

- आज एक पत्नी ने पति से पूछा, "सुनते हो! आज साड़ी धुला लूँ क्या? मैली हो गयी है।"

- आज एक पति ने पत्नी से पूछा, "सुनती हो! आज दाढी बना लूँ क्या? नाई की दुकान बन्द है।"

- आज एक फलवाले ने ग्राहक से पूछा, "दीदी जी? आखिरी बचा है, मुफ़्त में दे दूंगा। क्या कहती हैं जी?"

- आज एक बिना नहाये गन्धाते टिप्पणीकार ने एक ओवर-पर्फ़्यूम्ड ब्लॉगर से कहा, "कब तक अपना रोना रोते रहोगे? आखिरी टिप्पणी दे तो दी, फिर भी कहते हो, सुधरने का मौका नहीं मिला।"

- एक बोगस साइट ने हमारे ब्लॉग का मूल्य एक मिलियन डॉलर आंका है। अफ़सोस कि अमेरिकी संस्था के प्लैटफॉर्म/सर्वर पर बने इस ब्लॉगर का पैसा भी अमेरिका ही जाता है। क्या हमारे स्विस खाते में नहीं जा सकता?

- यह हमारी सांख्यिकीय पोस्ट है। हमने दो साल में अपने ब्लॉग पर 20 लोगों को 2000 गालियाँ दीं और 200 को बैन किया।

- हिन्दी ब्लॉगिंग में काफ़ी गुटबन्दी है। कुछ सीनियर डॉक्टर ब्लॉगर ऐसा कहते हैं कि हमारा क्लिनिकल डिप्रैशन और बाइपोलर डिसऑर्डर इलाज के बिना ठीक नहीं हो सकता है। हमने भी दृढ प्रतिज्ञा कर ली है कि हम अपनी बीमारियाँ ब्लॉगिंग से ही ठीक करके दिखायेंगे। एक पाठक ने अपना स्कीज़ोफ़्रीनिया भी ऐसे ही ठीक किया था। और फिर हम तो आत्माकल्प वाली मृत-संजीवनी बूटी भी पीते हैं।

- पिछले 250 आलेखों की तरह इस आलेख को भी हमारा अंतिम आलेख समझा जाये। पिछले सौ हफ़्तों की तरह इस हफ़्ते फ़िर हम टंकी पर उछलेंगे। आप मनायेंगे तो हम उतर आयेंगे। किसी ने नहीं मनाया तो हम अपनी बेनामी पहचानों का प्रयोग कर लेंगे।

 - ज़िन्दगी और मौत से लड़ते एक ब्लॉगर से जब हमने हमारे ब्लॉग पर टिप्पणी न करने के लिये कई बार शिकायत की तो उन्होंने यह बात एक पोस्ट में लगा दी। हमेशा की तरह हम यहाँ भी बुरा मान गये। हमने उन्हें कह दिया कि हमारे लिये आप जीते जी मर चुके। वैसे बुज़ुर्गों के लिये हमारे दिल में बड़ा सम्मान है। अगर कभी हम अपनी गुस्से की बीमारी के कारण उनका अपमान करते भी हैं तो दवा खाने पर सामान्य होते ही उनके सम्मान में एक पोस्ट लिखकर माफ़ी भी मांग लेते हैं। दवा का असर निकलते ही फिर से उन्हें बुरी-भली कह देते हैं।

 - हम एक लिस्ट बना रहे हैं जिसमें उन लोगों का नाम लिखेंगे जो कहते हैं कि हम जल्दी और बेबात भड़क जाते हैं। जो हमें गुस्सैल कहते हैं उन सब के खिलाफ़ हम पाँच-पाँच पोस्ट लिखेंगे। इससे हमारी पोस्ट संख्या भी बढ़ जायेगी।

 - किस-किस को बैन करें हम?! हर ब्लॉगर हमसे जलता है? जिसने हमें ब्लॉगिंग सिखाई वह भी, जो हमें अपनी शिक्षा का सदुपयोग करने को कहता है वह भी, और जिसका ईमेल खाता हमने खुलाया वह भी।

 - समाज सेवा के लिये हम अपने ऐक्स मित्र के सम्मान में "गप्पू पसीना खास हो गया" शीर्षक से एक नई पोस्ट लिखेंगे।

 - कुछेक ब्लॉगर मन्दिरों और ऐतिहासिक बिल्डिंगों के अरोचक लेख लिखते हैं। हमने उन्हें आगाह करके वहाँ जाना बन्द कर दिया है। आशा है कि वे अपना अन्दाज़ बदलेंगे।

 - पोस्ट ग्रेजुएट हकीम तो हम पहले से हैं, अब तो नीम चढ़ा करेला भी खाते हैं।

कुत्ता-पालकों की सहायतार्थ
 - एक ब्लॉगर ने "अपने कुत्ते कैसे चरायें" शीर्षक से एक पोस्ट लिखी है। हमें लगता है कि यह हमारे खिलाफ़ एक साज़िश है। इससे पहले हम "अपना ड्रैगन ट्रेन कैसे करें" फ़िल्म पर भी अपनी आपत्ति दर्ज़ करा चुके हैं।

- मेरे ब्लॉग पर हिन्दी की बात न करें, अच्छी हिन्दी पढनी है तो किसी हिन्दी पीएचडी के ब्लॉग पर तशरीफ़ ले जायें। आप भी यहाँ बैन किये जाते हैं। और आप भी ... और आप भी।

- और कोई ब्लॉगर होता तो आपकी टिप्पणी मॉडरेट करके तलने के लिये छोड़ देता लेकिन हम उसका उपयोग रॉंग-इंटरप्रिटेशन करके अपने अति-उत्साही पाठकों को आपके खिलाफ़ भड़काने के लिये करेंगे।

- आजकल हम भाषा की शालीनता पर आलेख लिख रहे हैं, इसी शृंखला में दूसरे गुटों के बदतमीज़, बेहया, बेशर्म, बेग़ैरत, नालायक, नामाकूल, नामुराद ब्लॉगर की शान में मेरा विनम्र आलेख पढिये।

 - " विरोधीपक्ष के प्राणियों को बार्कीकरण करने दीजिये। आप तो अपने आँख-कान बन्द करके हमारी भाषा की तारीफ़ कीजिये वरना ... एक और बैन।

 - क्या कहा? आप राइट थे? तो लैफ़्ट टर्न लेकर निकल लीजिये और अपनी ऊर्जा इस ब्लॉग पर बर्बाद मत कीजिये।

 - हमारे भेजे में बचपन से मियादी डाइबिटीज़ है। हमारे कड़वे लेख पर आयी टिप्पणियों में इतनी मिठास थी कि हमारे बर्दाश्त की क्षमता के बाहर थी। आज हमें इंसुलिन की अतिरिक्त डोज़ लेनी पड़ी। अगली पोस्ट पर हम कमेंट ऑप्शन बन्द करने पर विचार करेंगे।

 - बहुत कम ब्लॉगर हैं जो हमारी तरह सीरियस ब्लॉगिंग करते हैं। हम तो हर टिप्पणी पढकर सीरियस हो जाते हैं और एक जवाबी पोस्ट लिख कर कान के नीचे "झन्नाट" मारते हैं ताकि हिन्दी ब्लॉगिंग का स्तर इसी प्रकार ऊँचा उठता रहे।

 - सारा ब्लॉग जगत सैडिस्टिक हो गया है। जिन्हें हमने रोज़ अपशब्द कहे उनमें से कुछ की हिम्मत बढती जा रही है। सब लोग हमारी व्यथा और अपमान पर व्यंग्यात्मक प्रविष्टियाँ लिखते हैं। उनकी कक्षा शीघ्र ही ली जायेगी।

- हम ब्लॉगिंग का तूफ़ान हैं, कहीं आप भी खुद को आंधी तो नहीं समझ रहे?

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* कहें खेत की सुनैं खलिहान की
* हिन्दी ब्लॉगिंग में विश्वसनीयता का संकट
* अंतर्राष्ट्रीय निर्गुट अद्रोही सर्व-ब्लॉगर संस्था
* अपोस्ट से आगे - कुपोस्ट तक

Thursday, August 11, 2011

अपोस्ट से आगे - कुपोस्ट तक

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ब्लॉगिंग में आने से सबसे बडा लाभ मुझे यह हुआ कि ऐसे बहुत से अनुभवीजनों से परिचय हुआ जिनकी प्रतिभा को शायद वैसे कभी जान ही न पाता। शुरुआत के ब्लॉग-मित्रों में से बहुत से अब अनियमित हैं। लेकिन फिर भी बहुत कुछ अच्छा लिखा जा रहा है। छतीसगढ के राहुल सिंह जी को पढते हुए मुझे बहुत समय नहीं हुआ है परंतु उनके लेखन से प्रभावित हूँ। उनकी ब्लॉग प्रविष्टियाँ अक्सर गम्भीर आलेख होते हैं। लेकिन अभी उनके यहाँ प्रॉलिफ़िक लेखन पर एक रोचक "अपोस्‍ट" पढा। पढने के बाद ब्लॉग-जगत के भ्रमण पर निकला तो मेरी इस अपोस्ट/कुपोस्ट/कम्पोस्ट के लिये विद्वत-ब्लॉगरी के कुछ क्लासिक उदाहरण देखने को मिले। आपके साथ साझा कर रहा हूँ।
तारीफ़ उस खुदा की जिसने जहाँ बनाया
आभार गूगल का जिसने जहाँ दिखाया
संपादकीय नोट: मेरी इस अपोस्ट/कुपोस्ट् में मौलिकता ढूंढने की कोशिश शायद बेकार ही जाये। जनहित में सभी पात्रों के नाम और घटनाओं के स्थान बदल दिये गये हैं। अभिव्यक्ति का मूल स्वरूप बरकरार रखने का पूरा प्रयास किया है। जहाँ भाषा इतनी जर्जर थी कि उठ न सके केवल वहीं उसे ममीफ़ाई किया गया है इसलिये, कृपया वर्तनी, मात्रा आदि पर टिप्पणी न करें :)
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- आज जब लिखने बैठे तो हमेशा की तरह कोई विषय तो था नहीं, लेकिन जब दिल से लिखना हो तो किसी विषय की जरुरत नही पडती! हम जो कुछ लिख दें वही विषय बन जाता है।

- आज सुबह हमने लेखक ज़, घ, क और ग को ईमेल करके बता दिया है कि जिस विषय को हमने कभी पढा ही नहीं उस विषय के बारे में उनकी लिखी हर बात ग़लत है।

- हमें तीन दिन से ज़ुकाम था, आज हमारी नाक 73.43971 बार बही। प्लमर मित्र से एक टोटी मुफ़्त लगवाने की सोच रहे हैं।

- शादियों का सीज़न है, सो चाट-पकोडी ज़्यादा खा लिये हम। आज सुबह सवा चार कप कॉफ़ी पीने के बाद भी नित्यक्रिया नहीं हुई। चाय हम पीते नहीं, उसमें टेनीन नामक नशीला पदार्थ होता है

- आज एक डॉक्टर ने लाइन तोडकर अन्दर आ जाने के लिये हमें फ़टकार दिया। अब हम अगली तीन पोस्ट ऐलोपथी के साइड-इफ़ैक्ट्स पर लिखेंगे।

- बचपन में हमारे योगा-टीचर ने हमें डांटा था, तब से हम योग और योगाचार्यों के खिलाफ़ हो गये हैं। घुटने में दर्द है, याद्दाश्त बढाने की गोली लेने लगे हैं।

- हमारी पोस्ट "क" पढने के लिये हमारी पोस्ट "ज़" पर चटका लगायें और इस प्रकार कभी न टूटने वाला चक्र चलायें।

- पिछले महीने हम प्यारेलाल जी से मिले थे। तब से उन्होने इस मुलाकात पर 7 पोस्ट लिख डाली हैं। अब हम भी उनसे मुलाकात पर 77 पोस्ट लिखेंगे।

- सब जानना चाहते हैं कि हम इतनी सारी ब्लॉग पोस्ट कैसे लिख लेते हैं। उन्हें पता नहीं है कि हमारे पास टिप्पणियों की संख्या बढ़ाने की भी कई तरकीब है। हम उन्हें इस्तेमाल भी करते हैं। लेकिन आपको बताने से हमें क्या फायदा?

- अब हम भी ताऊ की तरह पहेली पूछा करेंगे। प्रस्तुत है आज की गुणा-भाग पहेली, भागकर भूले की प्रसिद्द पुस्तक भ्रम जादू पहेली से निराभार। एक साल में यह मेरी 5000 वीं पोस्ट है, मतलब हर रोज़ एक पोस्ट। क्या आपको पता है कि तीन सप्ताह में कितने अंडे होते हैं?

- आज हमने अम्मा से कह दिया कि हम उनकी एक नहीं सुनेंगे। वे टोकती रहीं लेकिन हम ड्राइक्लीन करे हुए नीले सूट के साथ भूरे बरसाती बूट और मजगीली कमीज़ पहनकर ही दफ़्तर गये। ग़नीमत थी कि बॉस छुट्टी पर था वर्ना हमारी भी छुट्टी हो जाती।

- मुद्दत बाद आज हमारा रोल्स रॉयस चलाने का सपना पूरा हो गया। हमने अपनी साइकिल पर ऍटलस का नाम खुरचवाकर रोल्स रॉयस लिखवा लिया है।

- पिछली पोस्ट में हमने बताया था कि मन खट्टा होने के कारण आजकल हम ब्लॉगर मिलन में नहीं जाते लेकिन ब्लॉगर सम्मान समिति का ईमेल आने पर कल हम चले तो गये परंतु वहाँ की अव्यवस्था से कुपित होकर हमने अपना भाषण नहीं पढा। उनके छोले-भटूरे भी एकदम बेस्वाद थे। अब हम अगले ब्लॉगर मिलन में बिल्कुल नहीं जायेंगे क्योंकि इस बार हमें वीआइपी सीट भी नहीं दी गयी थी और मुख्य अतिथि चुनने से पहले हमसे सलाह भी नहीं की गयी थी।

- कामवाली बाई की अम्मा मर जाने के कारण आज वह काम पर नहीं आयी, सो आज अपनी किताबों को हमने खुद ही झाड़ लिया।

- आज हमने सरकारी बैंक में लाइन में लगकर पैसा निकाला जबकि ब्रांच मैनेजर हमसे जूनियर ब्लॉगर है। दूर खडा देखता रहा मगर पास नहीं आया। हमने भी ऐसे जताया जैसे हम उसे जानते ही न हों। अब हम उसके ब्लॉग पर टिप्पणी नहीं किया करेंगे।

- वैसे धर्म-कर्म को तो हम पाखण्ड ही मानते हैं लेकिन ब्लॉग जगत में अपने गुट की मजबूती के लिये आज हम लस्सी-उपवास पर हैं। वैसे भी दिसम्बर में लस्सी की दुकान बन्द रहती है।

- पडोस में रहने वाली एक लडकी ने आज हमे अंग्रेज़ी में ईमेल किया। ग़नीमत है कि टिल्लू की अम्मा को अंग्रेज़ी नहीं आती है।

- अपने को विद्वान समझने वाला एक शख्स ने बताया कि ईमेल, ब्लॉगिंग और इंटरनैट शब्द हिन्दी के नहीं हैं। तब हमने उसकी बात नहीं मानी लेकिन अब हमें लगता है कि ईमेल, ब्लॉगिंग और इंटरनैट हिन्दी को असंगत और महत्वहीन बनाने की अमरीकी साजिश है।

- आजकल हम भी अपने नाम से एक किताब छपाने की सोच रहे हैं, सामग्री के लिये टिल्लू को अखबारों की कतरनें इकट्ठी करने के काम पर लगा दिया है। जब तक सामग्री तैयार हो, आप लोग एक टॉप-क्लास बेस्ट सेलर टाइटल सुझाइये शुद्ध हिन्दी में।

- कल अजब इत्तफ़ाक़ हो गया, आप सुनेंगे तो जल भुन के राख हो जायेंगे। हमारी मुलाकात महान ब्लॉगर माधुरी दीक्षित नेने से हुई थी, सपने में।

- आजकल हम मॉडर्न हो गये हैं। अपने ब्लॉग पर कंटेंट कम और विज्ञापन अधिक लगाते हैं।

- कल हमने सस्ता स्वास्थ्य का प्रवेशांक पढा। आज हम जल्दी सो जायेंगे और कल सुबह देर से उठेंगे।

- कल तो वाकई कमाल हो गया। इलाके के सफ़ाई कर्मचारी ने हमें सलाम करके पूछा, कैसे हैं नेता जी। बाद में 50 रुपये पेशगी ले गया।

- आजकल हम गान्धीवादी हो गये हैं। अपने विरोधियों के ब्लॉग से असहयोग और उनकी टिप्पणियों की सविनय अवज्ञा करते रहते हैं। फिर भी नहीं मानेंगे तो गान्धीगिरी करते हुए उन्हें गूलर के फूल भेंटेंगे। अगर फिर भी नहीं मानेंगे तो उन्हें जम के पीटेंगे।

- वैसे तो बाबू सकुचाया लाल की तुकबन्दी हमारी तुकबन्दी से बेकार ही होती है। फिर भी उसने पाँच सौ में हारमोनियम वाले का आयोजन करवाकर अपना सम्मान समारोह करवा लिया है। अब हमने भी तय कर लिया है कि ब्लॉगर कोटा से काग़ज़ खरीदकर अपने सम्मानपत्र खुद छपवाकर खुद ही हस्ताक्षर कर लेंगे।

- आजकल हमारी कार का दरवाज़ा चर्र-मर्र की आवाज़ करता है, पता नहीं क्यों? मिस्त्री से पूछा तो उसने बताया कि हमारी शायरी पर इरशाद-इरशाद कहता है।

- पाठकों की बहुत शिकायतें आ रही हैं कि आजकल हमारे ब्लॉग पर भूत,पलीत, जिन्नात वगैरा के किस्से नहीं होते। हम उन्हें बताना चाहते हैं कि पिछले हफ्ते से यहाँ भी विज्ञान का ज़माना शुरू हो गया है। आगे से सारे आलेख विज्ञान-विकीपीडिया से हूबहू टीपीकृत होंगे।

- हम तीसमारखाँ ब्लॉगर अवार्ड के पक्ष में नहीं हैं। तीसमारखाँ होने में क्या बडी बात है? हमने तो ब्लॉगिंग के पहले दिन ही तीस पोस्ट लिख मारी थीं।

- सम्पादक-शिरोमणि श्री चिर्कुट लाल जी की हर नई पोस्ट पर पहली टिप्पणी हमारी ही होती है। सुना है इस बार का चिरकुट-टिप्पणी पुरस्कार हमें ही मिलने वाला है। वैसे हमारे मित्र होने के नाते अगर आप भी इस बारे में उनसे सिफ़ारिश लगा दें तो यह काम आसानी से हो जायेगा।

- इस बाल दिवस / लेबर डे पर हमें बाल-श्रम विरोध समारोह में भाषण देने जाना था मगर जा नहीं सके। कम्बख्त छोटू ने हमारी लकी कमीज़ जला दी थी। उसके बाप से पैसे की भरपाई में काफ़ी टाइम बेकार हो गया और मूड भी खराब हो गया।

[आभार: राहुल सिंह जी, सुनील कुमार जी, ब्‍लागाचार्य जी, टिप्पणीमारकर जी, उस्ताद जी और विद्वान व/वा बुद्धिजीवी हिन्दी ब्लॉगरों का]

[क्रमशः]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* कहें खेत की सुनैं खलिहान की
* हिन्दी ब्लॉगिंग में विश्वसनीयता का संकट
* अंतर्राष्ट्रीय निर्गुट अद्रोही सर्व-ब्लॉगर संस्था

Tuesday, October 12, 2010

कहें खेत की सुनैं खलिहान की

भारत में एक बार किसी ने मेरे एक सहकर्मी से पूछा कि उन्हें कितनी भाषायें आती हैं तो जवाब में हिन्दी, अंग्रेज़ी और पंजाबी के साथ-साथ सीक्वैल, कोबॉल और सी का नाम भी शामिल था। हम सब जानते हैं कि भाषाओं के भी डोमेन होते हैं। भारत में रहते हुए मेरा परिचय कई भाषाओं से हुआ था। अधिकांश को सीखना सरल था। मगर ब्लॉगिंग आरम्भ करने के बाद जिस एक नई भाषा से पाला पड़ा है वह उतनी सरल नहीं है। मतलब यह कि इस भाषा के दांत खाने के और हैं दिखाने के और। सही पकड़ा आपने, यह भाषा है टिप्पणियों की भाषा जिससे हमारा-आपका साबका रोज़ ही पड़ता है। कुछ उदाहरण और उनका मतलब:

टिप्पणी: बहुत अच्छी/उम्दा/सुन्दर प्रस्तुति/अभिव्यक्ति
मतलब: अबे ये क्या लिख मारा है, टिप्पणी करूँ भी तो क्या करूँ?

टिप्पणी: आप हिन्दी की महान/ज़बरदस्त सेवा कर रहे हैं
मतलब: तीस साल इंगलैंड में रहकर भी अंगरेज़ी नहीं सीखा तो सेवा भी हिन्दी में ही करेगा।

टिप्पणी: हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है
मतलब: हमने आपके फिज़ूल लेख की तारीफ की, अब आप भी हमारे फिज़ूल लेख की तारीफ करें।

टिप्पणी: आपकी पोस्ट का ज़िक्र (हमने) आज के ब्लॉग-खर्चा में किया है
मतलब: अब तो फ़टाफ़ट वहाँ आकर एक टिप्पणी का खर्चा कर, कंजूस कहीं के!

टिप्पणी: आपकी पोस्ट (हमने) चिलमची पुरस्कार के लिये चुन ली है
मतलब: अब तो खुशी-खुशी हमारे ब्लॉग का लिंक लगायेगा। बडा होशियार समझता था अपने को।

टिप्पणी: अच्छा लिखा है - अब मेरे ब्लॉग पर एक मरे हुए फ़ूहड चुटकुले के भूत से मिलें
मतलब: सुबह से पचास टिप्पणी बक्सों में यही कट पेस्ट कर चुका हूँ - पाँच तो बेवकूफ बनेंगे ही।

टिप्पणी: सौ टिप्पणियाँ होने की बधाई
मतलब: पिच्यानवे टिप्पणियाँ तो तेरी खुद की ही हैं - बात करता है...

टिप्पणी: टिप्पणी बक्सा फिर से खोलने का धन्यवाद
मतलब: खामख्वाह भाव चढा रहा था, आ गये न होश ठिकाने दो दिन में।

टिप्पणी: वाह वाह
मतलब: आह आह

टिप्पणी: सहमत
मतलब: लिख मत

टिप्पणी: हम देश को सुधार रहे हैं, आप भी साथ में आइये
मतलब: इस सुधार-पार्टी के सर्वे-सर्वा हम ही रहेंगे, भले ही हमने गूगल से उठाकर भारत का जो नक़्शा लगाया है वह भी सिरे से गलत है।

टिप्पणी: टिप्पणियों का मॉडरेशन हटा दीजिये
मतलब: सम्पादक नहीं, पत्रकार नहीं, महिला नहीं, सम्मान समिति वाला भी नहीं फिर भी मॉडरेशन? हम टाइम खोटी क्यों करें?

टिप्पणी: बिल्कुल ठीक कहा आपने
मतलब: आपने क्या कहा यह आपको ही नहीं पता तो हमें कैसे पता चलेगा।

टिप्पणी: बधाई/धन्यवाद/आभार/शुभकामनायें/अभिनन्दन
मतलब: अपने गुट का न होता तो ऐसे बेहूदा आलेख पर नज़र भी नहीं मारता, टिप्पणी तो दूर की बात है।

टिप्पणी: यह परिवर्तन केवल हमारे XYZ-वाद से ही आ सकता है
मतलब: आपमें काफ़ी पोटेंशियल है ठगे जाने का, वहीं रुकें हम सदस्यता फॉर्म भेज रहे हैं।

टिप्पणी: सटीक विश्लेषण
मतलब: अन्धे के आगे रोये, अपने नयना खोये।

टिप्पणी: प्रणाम/नमस्कार/नतमस्तक/दंडवत
मतलब: तुम जैसे से तो दूर की नमस्ते ही अच्छी।

टिप्पणी: -abc- हमारी राज्य/राज/राष्ट्रभाषा है
मतलब: सब कहते हैं तो कुछ न कुछ तो होगी ही, रिस्क ले लेते हैं।

टिप्पणी: हमारे ब्लॉग पर पधारकर हमारा मार्गदर्शन करें
मतलब: मार्गदर्शन माय फ़ुट! आओगे तो हमसे ही कुछ सीखकर जाओगे बच्चू।

टिप्पणी: अच्छा प्रयास/प्रयोग है
मतलब: जनम भर प्रयोग करके भी हम जैसे नहीं हो पाओगे।

टिप्पणी: nice/ice/spice/dice
मतलब: यह तो आपको ही बताना पडेगा।

अभी तो यही कुछ शब्दार्थ याद आये। आप भी कुछ टिप्पणियों के निहितार्थ बताकर हमारा ज्ञानवर्धन कीजिये न!

Friday, September 12, 2008

दूर के इतिहासकार

अरे भाई, इसमें इतना आश्चर्यचकित होने की क्या बात है? जब दूर के रिश्तेदार हो सकते हैं, दूर की नमस्ते हो सकती है, दूर के ढोल सुहावने हो सकते हैं तो फ़िर दूर के इतिहासकार क्यों नहीं हो सकते भला?

साहित्य नया हो सकता है, विज्ञान भी नया हो सकता है। दरअसल, कोई भी विषय नया हो सकता है मगर इतिहास के साथ यह त्रासदी है कि इतिहास नया नहीं हो सकता। इतिहास की इसी कमी को सुधारने के लिए आपकी सेवा में हाज़िर हुए हैं "दूर के इतिहासकार"। यह एकदम खालिस नया आइटम है। पहले नहीं होते थे।

पुराने ज़माने में अगर कोई इतिहासकार दूर का इतिहास लिखना चाहता भी था तो उसे पानी के जहाज़ की तलहटी में ठण्ड में ठिठुरते हुए तीन महीने की बासी रसद पर गुज़ारा करते हुए दूर देश जाना पड़ता था। सो वे सभी निकट की इतिहासकारी करने में ही भलाई समझते थे।

अब, आज के ज़माने की बात ही और है। कंप्यूटर, इन्टरनेट, विकिपीडिया, सभी कुछ तो मौजूद है आपकी मेज़ पर। कंप्युटर ऑन किया, कुछ अंग्रेजी में पढा, कुछ अनुवाद किया, कुछ विवाद किया - लो जी तैयार हो गया "दूर का इतिहास"। फ़िर भी पन्ना खाली रह गया तो थोड़ा समाजवाद-साम्यवाद भी कर लिया। समाजवाद मिलाने से इतिहास ज़्यादा कागजी हो जाता है, बिल्कुल कागजी बादाम की तरह। वरना इतिहास और पुराण में कोई ख़ास अंतर नहीं रह जाता है।

जहाँ एक कार्टून बनाना तक किसी मासूम की हत्या का कारण बन जाता हो वहाँ दूर का इतिहास लिखने का एक बड़ा फायदा यह भी है कि जान बची रहती है. बुजुर्गो ने कहा भी है -
जान है तो दुकान है,
वरना सब वीरान है.
नहीं समझ आया? अगर आसानी से समझ आ जाए तो सभी लोग नेतागिरी छोड़कर इतिहासकार ही न बन जाएँ? चलिए मैं समझाता हूँ, माना आप आसपास का इतिहास लिख रहे हैं और आपने लिख दिया कि पाकिस्तान एक अप्राकृतिक रूप से काट कर बनाया हुआ राष्ट्र है तो क्या हो सकता है? हो सकता है कि आप ऐके ४७ के निशाने पर आ जाएँ। दूर का इतिहासकार अपनी जान खतरे में नहीं डालता। वह पास की बात ही नहीं करता। वह तो ईरान-तूरान सब पार करके लिखेगा कि इस्राइल नाम की झील अप्राकृतिक है। अच्छा जी! इस्रायल एक झील नहीं समुद्र है? इतिहासकार मैं हूँ कि आप? यही तो समस्या है हम लोगों की कि किसी भी बात में एकमत नहीं होते हैं। अरे आज आप राजी-खुशी से मेरी बात मान लीजिये, कल तो मैं बयानबाजी, त्यागपत्र, धरना, पिकेटिंग, सम्मान-वापसी  कर के ख़ुद ही मनवा लूँगा।

देखिये आपके टोकने से हम ख़ास मुद्दे से भटक गए। मैं यह कह रहा था कि अपने आसपास की बात लिखने में जान का ख़तरा है इसलिए "दूर के इतिहासकार" दूर-दराज़ की, मतलब-बेमतलब की बात लिखते हैं। कभी-कभी दूर-दराज़ की बात में भी ख़तरा हो सकता है अगर वह आज की बात है। इसलिए हर दूर का इतिहासकार न सिर्फ़ किलोमीटर में दूर की बात लिखता है बल्कि घंटे और मिनट में भी दूर की बात ही लिखता है।

दूर के इतिहासकार होने के कई फायदे और भी हैं। जैसे कि आपकी गिनती बुद्धिजीविओं में होने लगती है. आप हर बात पर भाषण दे सकते है। चमकते रहें तो हो सकता है पत्रकार बन जाएँ। और अगर न बन सके तो कलाकार बन सकते हैं। और अगर वहाँ भी फिसड्डी रह गए तो असरदार बन जाईये। असरदार यानी कि बिना पोर्टफोलियो का वह नेता जिसकी छत्रछाया में सारे मंत्री पलते है।

तो फ़िर कब से शुरू कर रहे हैं अपना नया करियर?