1970 की हिन्दी फिल्म का पोस्टर |
शास्त्रों में जहाँ भी उनका उल्लेख है वहाँ यह बात स्पष्ट समझ में आती है कि वे अत्याचार और निरंकुशता के खिलाफ ही सीना तान कर खड़े हुए थे। मगर इसका मतलब यह नहीं कि वे हिंसा को अहिंसा से ऊपर मानते थे। आम जनता को अनाचारियों के पापों से बचाने के लिए उन्होंने सहस्रबाहु को नर्मदा नदी के किनारे महेश्वर में मारा जहाँ आज भी उसकी समाधि और शिव मन्दिर है।
राजकुमार विश्वामित्र के भांजे परशुराम राज-परिवार में नहीं बल्कि ऋषि आश्रम में जन्मे थे और उनका पालन पूर्ण अहिंसक और सात्विक वातावरण में हुआ था। इसलिए उनके द्वारा अन्याय के खिलाफ हिंसा का प्रयोग कुछ लोगों के लिए वैसा ही आश्चर्यजनक है जैसा कि गौतम बुद्ध या महावीर जैसे राजकुमारों का बचपन से अपने चारों ओर देखी और भोगी गयी हिंसा के खिलाफ खड़े हो जाना। अंतर केवल इतना है कि बुद्ध या महावीर जैसे राजकुमारों ने जब हिंसा का परित्याग किया तो कालान्तर में उनके अनुयायी इतने अतिवादी हुए कि उनकी नयी परम्परा का पूर्णरूपेण पालन आम गृहस्थों के लिए असंभव हो गया और दैनंदिन जीवन के लिए अव्यवहारिक जीवनचर्या के लिए गृहस्थों से अलग, भिक्षुकों की आवश्यकता पडी। इसके विपरीत भगवान् परशुराम ने स्वयं अविवाहित रहते हुए भी कभी अविवाहित रहने या अहिंसा के नाम पर हिंसक समुदायों या शासकों के विरोध से बचने जैसी बात नहीं की। उल्लेखनीय है कि महाभारत के दो महावीर भीष्म और कर्ण उनके ही शिष्य थे। समरकला के पौराणिक गुरु द्रोणाचार्य के दिव्यास्त्र भी परशुराम-प्रदत्त ही हैं।
अनाचार रोकने के लिये उन्हें हिंसा का सहारा लेना पडा फिर भी उन्होंने न सिर्फ 21 बार इसका प्रायश्चित किया बल्कि जीती हुई सारी धरती दान करके स्वयं ही देश निकाला लेकर महेंद्र पर्वत पर चले गए और राज्य कश्यप ऋषि के संरक्षण में विभिन्न क्षत्रिय कुलों को दिये। इस कृत्य की समता भगवान् राम द्वारा श्रीलंका जीतने के बावजूद विभीषण का राजतिलक करने में मिलती है। मारे गए राजाओं के स्त्री-बच्चों के पालन-पोषण और समुचित शिक्षा की व्यवस्था विभिन्न आश्रमों में की गयी और इन बाल-क्षत्रियों ने ही बड़े होकर अपने-अपने राज्य फिर से सम्भाले। भृगुवंशी परशुराम ऋग्वेद, रामायण, महाभारत और विभिन्न पुराणों में एक साथ वर्णित हुए चुनिन्दा व्यक्तित्वों में से एक हैं। ऋग्वेद में परशुराम के पितरों की अनेकों ऋचाएं हैं परन्तु 10.110 में राम जामदग्नेय के नाम से वे स्वयं महर्षि जमदग्नि के साथ हैं।
जब भी भगवान् परशुराम की बात आती है तब-तब उनके परशु और समुद्र से छीनकर बसाए गए परशुराम-क्षेत्र का ज़िक्र भी आता है। गोवा से कन्याकुमारी तक का परशुराम क्षेत्र समुद्र से छीना गया था या नहीं यह पता नहीं मगर परशुराम इस मामले में अग्रणी ज़रूर थे कि उन्होंने परशु (कुल्हाड़ी) का प्रयोग करके जंगलों को मानव बस्तियों में बदला। मान्यता है कि भारत के अधिकांश ग्राम परशुराम जी द्वारा ही स्थापित हैं। राज्य के दमन को समाप्त करके जनतांत्रिक ग्राम-व्यवस्था का उदय उन्हीं की सोच दिखती है। उनके इसी पुण्यकार्य के सम्मान में भारत के अनेक ग्रामों के बाहर ब्रह्मदेव का स्थान पूजने की परम्परा है। यह भी मान्यता है कि परशुराम ने ही पहली बार पश्चिमी घाट की कुछ जातियों को सुसंकृत करके उन्हें सभ्य समाज में स्वीकृति दिलाई। पौराणिक कथाओं में यह वर्णन भी मिलता है कि जब उन्होंने भगवान् राम को एक पौधा रोपते हुए देखा तब उन्होंने काटे गए वृक्षों के बदले में नए वृक्ष लगाने का काम भी शुरू किया। कोंकण क्षेत्र का विशाल सह्याद्रि वन क्षेत्र उनके वृक्षारोपण द्वारा लगाया हुआ है। हिंडन तट का पुरा महादेव मन्दिर, कर्नाटक के सात मुक्ति स्थल और केरल के 108 मंदिर उनके द्वारा स्थापित माने जाते हैं। साम्यवादी केरल में परशुराम एक्सप्रेस का चलना किसी आश्चर्य से कम नहीं है।
जिस प्रकार हिमालय काटकर गंगा को भारत की ओर मोड़ने का श्रेय भागीरथ को जाता है उसी प्रकार पहले ब्रह्मकुण्ड (परशुराम कुण्ड) से और फिर लौहकुन्ड (प्रभु कुठार) पर हिमालय को काटकर ब्रह्मपुत्र जैसे उग्र महानद को भारत की ओर मोड़ने का श्रेय परशुराम जी को जाता है। दुर्जेय ब्रह्मपुत्र का नामकरण इस ब्राह्मणपुत्र के नाम पर ही हुआ है। यह भी कहा जाता है कि गंगा की सहयोगी नदी रामगंगा को वे अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा से धरा पर लाये थे।
परशुराम क्षेत्र के निर्माण के समय भगवान परशुराम का आश्रम माने जाने वाले सूर्पारक (मुम्बई के निकट सोपारा ग्राम) में महात्मा बुद्ध ने तीन चतुर्मास बिताये थे। कभी कभी मन में आता है कि अगर शाक्यमुनि बुद्ध के शिष्यों ने अहिंसा के अतिवाद को नहीं अपनाया होता तो बौद्धों का परचम शायद आज भी चीन से ईरान तक लहरा रहा होता। न तो तालेबानी दानव बामियान के बुद्ध को धराशायी कर पाते और न ही चीन के माओवादी दरिन्दे तिब्बती महिलाओं का जबरन बंध्याकरण कर पाए होते। इस निराशा के बीच भी खुशी की बात यह है कि सुदूर पूर्व के क्षेत्रों में बौद्ध धर्म आज भी जापान तक जीवित है और इस अहिंसक धर्म को जीवित रखने का श्रेय भगवान् परशुराम के सिवा किसी को नहीं दिया जा सकता है।
परशुराम क्षेत्र के धुर दक्षिण, केरल में जाएँ तो परशुराम द्वारा प्रवर्तित एक कला आज भी न सिर्फ जीवित बल्कि फलीभूत होती दिखती है। वह है विश्व की सबसे पुरानी समर-कला 'कलरिपयट्टु।' दुःख की बात है कि जूडो, कराते, तायक्वांडो, ताई-ची आदि को सर्वसुलभ पाने वाले अनेकों भारतीयों ने कलारि का नाम भी नहीं सुना है। भगवान् परशुराम को कलारि (प्रशिक्षण शाला/केंद्र) का आदिगुरू मानने वाले केरल के नायर समुदाय ने अभी भी इस कला को सम्भाला हुआ है।
बौद्ध भिक्षुओं ने जब भारत के उत्तर और पूर्व के सुदूर देशों में जाना आरंभ किया तो वहाँ के हिंसक प्राणियों के सामने इन अहिंसकों का जीवित रहना ही असंभव सा था और तब उन्होंने परशुराम-प्रदत्त समर-कलाओं को न केवल अपनाया बल्कि वे जहाँ-जहाँ गए, वहाँ स्थानीय सहयोग से उनका विकास भी किया। और इस तरह कलरिपयट्टु ने आगे चलकर कुंग-फू से लेकर जू-जित्सू तक विभिन्न कलाओं को जन्म दिया। इन दुर्गम देशों में बुद्ध का सन्देश पहुँचाने वाले परशुराम की सामरिक कलाओं की बदौलत ही जीवित, स्वस्थ और सफल रहे।
कलारि के साधक निहत्थे युद्ध के साथ-साथ लाठी, तलवार, गदा और कटार उरमि की कला में भी निपुण होते हैं। इनकी उरमि इस्पात की पत्ती से इस प्रकार बनी होती थी कि उसे धोती के ऊपर कमर-पट्टे (belt) की तरह बाँध लिया जाता था। कई लोगों को यह सुनकर आश्चर्य होता है कि लक्ष्मण जी ने विद्युत्जिह्व दुष्टबुद्धि नामक असुर की पत्नी श्रीमती मीनाक्षी उर्फ़ शूर्पनखा के नाक कान एक ही बार में कैसे काट लिए। लचकदार कटारी से यह संभव है। केरल के वीर नायक सेनानी उदयन कुरूप अर्थात ताच्चोली ओथेनन के बारे में मशहूर था कि उनकी फेंकी कटार शत्रु का सर काटकर उनके हाथ में वापस आ जाती थी।
किसी भी कठिन समय में भारतीय संस्कृति की रक्षा के निमित्त सामने आने वाले सात प्रातः स्मरणीय चिरंजीवियों में परशुराम का नाम आना स्वाभाविक है:
अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमानश्च विभीषणः।
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः ॥ (श्रीमद्भागवत महापुराण)
एक बार फिर, अक्षय तृतीया की शुभकामनाएँ! भगवान् परशुराम की जय!
अपडेट: परशुराम जी से सम्बन्धित वाल्मीकि रामायण के तीन श्लोक=================================
(सुन्दर हिन्दी अनुवाद के लिये आनन्द पाण्डेय जी का कोटिशः आभार)
वधम् अप्रतिरूपं तु पितु: श्रुत्वा सुदारुणम्
क्षत्रम् उत्सादयं रोषात् जातं जातम् अनेकश: ।।१-७५-२४॥
अन्वय: पितु: अप्रतिरूपं सुदारुणं वधं श्रुत्वा तु रोषात् जातं जातं क्षत्रम् अनेकश: उत्सादम्।।
अर्थ: पिता के अत्यन्त भयानक वध को, जो कि उनके योग्य नहीं था, सुनकर मैने बारंबार उत्पन्न हुए क्षत्रियों का अनेक बार रोषपूर्वक संहार किया।।
पृथिवीम् च अखिलां प्राप्य कश्यपाय महात्मने
यज्ञस्य अन्ते अददं राम दक्षिणां पुण्यकर्मणे ॥१-७५-२५॥
अन्वय: राम अखिलां पृथिवीं प्राप्य च यज्ञस्यान्ते पुण्यकर्मणे महात्मने कश्यपाय दक्षिणाम् अददम् ।
अर्थ: हे राम । फिर सम्पूर्ण पृथिवी को जीतकर मैने (एक यज्ञ किया) यज्ञ की समाप्ति पर पुण्यकर्मा महात्मा कश्यप को दक्षिणारूप में सारी पृथिवी का दान कर दिया ।
दत्वा महेन्द्रनिलय: तप: बलसमन्वित:
श्रुत्वा तु धनुष: भेदं तत: अहं द्रुतम् आगत: ।।१-७५-२5॥
अन्वय: दत्वा महेन्द्रनिलय: तपोबलसमन्वित: अहं तु धनुष: भेदं श्रुत्वा तत: द्रुतम् आगत: ।।
अर्थ: (पृथ्वी को) देकर मैने महेन्द्रपर्वत को निवासस्थान बनाया, वहाँ (तपस्या करके) तपबल से युक्त हुआ। धनुष को टूटा हुआ सुनकर वहाँ से मैं अतिशीघ्रता से आया हूँ ।।
भगवान् परशुराम श्रीराम चन्द्र को लक्ष्य करके उपर्युक्त बातें कहते हैं। इसके तुरंत बाद ही उन्हें विष्णु के धनुष पर प्रत्यंचा चढा कर संदेह निवारण का आग्रह करते हैं। शंका समाधान हो जाने पर विष्णु का धनुष राम को सौंप कर तपस्या हेतु चले जाते हैं ।।
सम्बंधित कड़ियाँ
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* परशुराम स्तुति
* परशुराम स्तवन
* अक्षय-तृतीया - भगवान् परशुराम की जय!
* परशुराम और राम-लक्ष्मण संवाद
* मटामर गाँव में परशुराम पर्वत
* भगवान् परशुराम महागाथा - शोध ग्रंथ
* ग्वालियर में तीन भगवान परशुराम मंदिर
* अरुणाचल प्रदेश का जिला - लोहित
* बुद्ध पूर्णिमा पर परशुराम पूजा
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इस बात से असहमति नहीं हो सकती कि अनुशासन बनाए रखने की शक्ति के बिना शांति असंभव है।
ReplyDeleteआपका विश्लेषण विचारणीय है,अभी बहुत कुछ है जो कि इस महापुरुष के बारे में अज्ञात है-और जानकारी की आप से प्रतीक्षा है.
ReplyDeleteबढ़िया पोस्ट.
मिथक भी बड़े मज़ेदार होते हैं...
ReplyDeleteकई बार हम उनमें अपना इच्छित ढूंढ़ लेते हैं...कई बार वे ख़ुद ही गंभीर इशारे करते हैं...
बेहतर प्रस्तुति....
is kala ki jaankaai ke liye bahut bahut dhanyawad sir...
ReplyDeleteअक्षय तृतीया की शुभकामना-आपने बहुत काम की जानकारियाँ दी हैं
ReplyDeleteआप के इस सुंदर लेख से सहमत है, दिनेश जी की टिपण्णी से सहमत है.
ReplyDeleteधन्यवाद
फिलहाल संग्रह कर ले रहा हूँ , इस पोस्ट का !
ReplyDeleteसम्राट अशोक ने अहिंसा को अपना कर निसंदेह बहुत बड़ा काम किया लेकिन भारतीयों की मानसिकता के लिये घातक सिद्ध हुआ.. परशुराम जी को प्रणाम.. एक पूरी नयी व्यवस्था के सृजन के लिये...
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख.
ReplyDeleteअक्षय तृतीया की शुभकामनाएं.
परशुराम जी का व्यक्तित्त्व धूमकेतु सम ज्यलंत व उज्जवल है और बुध्ध चन्दन सम शीतल !
ReplyDeleteअक्षय तृतीया शुभ हो !
- स स्नेह,
- लावण्या
परशुराम क्षत्रिय विरोधी ज़रूर थे मगर केवल अन्याय न हो इसलिए ऐसा कदम उठाए थे...बाकी अच्छे लोगो से उनकी दुश्मनी थोड़ी थी..बढ़िया जानकरी भरी आलेख.....बधाई
ReplyDeleteअत्यधिक महत्वपूर्ण आलेख। अहिंसा के अतिवाद की ऐसी परिणति हो सकती है, सचमुच में कल्पनातीत है।
ReplyDeleteसहेज कर रखा जानेवाला आलेख।
जय परशुराम... बेहतरीन आलेख... साधुवाद..
ReplyDeleteपरशुराम आज सिर्फ़ ब्राह्मणो के हो गये कितना बुरा है महा पुरुषो को जातिबन्धन मे घेरना . आज यह जयन्ती सिर्फ़ ब्राह्म्ण महा सभा मना रही यह है कितना दुर्भाग्य है
ReplyDeleteबेहतरीन आलेख
ReplyDeletehttp://madhavrai.blogspot.com/
http://qsba.blogspot.com/
ज्ञानवर्धक आलेख ।
ReplyDeleteभगवान परशुराम जयंती अवसर पर हार्दिक शुभकामनाये .
ReplyDeleteभगवान परषुराम को एक बार फिर से समझना है - रामचरित मानस से इतर!
ReplyDeleteलेख के लिये धन्यवाद!
दीपक 'मशाल' said...
ReplyDeleteAnurag sir, Thanks for such a nice article..
[ईमेल में प्राप्त टिप्पणी]
बढ़िया...ज्ञानवर्धक पोस्ट के लिए आभार.
ReplyDeleteजानकारी पूर्ण लेख , आभार अनुराग जी।
ReplyDeleteजन्मदिवस की शुभकामना के लिए आपको बहुत धन्यवाद.
ReplyDeleteLekh sochne ko majboor karta hai.shubkamnayen.
ReplyDelete'मार्क्सवादी मिथकों' पर आप से एक लेख अपेक्षित है।
ReplyDeleteमुंशी जी के अनुसार परशुराम विवाहित थे। क्षत्रिय विश्वामित्र मंत्रद्रष्टा ऋषि हुए। बह्मर्षि होने के लिए क्या नहीं कर गए। वहीं ब्राह्मण परशुराम के नाम एक भी ऋचा नहीं है। एक ही गोत्र और आपसी विवाह सम्बन्ध करते इन प्राचीन वर्णों के आपसी द्वन्द्व बड़े रोचक लगते हैं। इनमें काफी सम्भावनाएँ हैं। धीरू जी की बात बढ़ाते हुए एक इशारा करना चाहूँगा - गोबर पट्टी में ब्राह्मणों और राजपूतों की महीन लड़ाई में क्षत्रियहंता परशुराम ब्राह्मणों के लिए प्रतीक पुरुष बन गए हैं। ब्रह्महत्या महापाप - बेचारे राजपूतों को कोई ऐसा प्रतीक पुरुष ही नहीं मिल रहा :)
हाँ, अति कैसी भी ठीक नहीं भले अहिंसा ही हो ।
गिरिजेश राव said...
ReplyDelete1.मुंशी जी के अनुसार परशुराम विवाहित थे।
2. ब्राह्मण परशुराम के नाम एक भी ऋचा नहीं है।
गिरिजेश बन्धु,
1.परशुराम जी की पत्नी के बारे में थोड़ी और जानकारी दो न. मैंने कभी इस बारे में पढ़ा-सुना नहीं इसलिए अज्ञानवश (और विद्रोही भृगुवंशियों की अनुभवजन्य भीतरी जानकारी के आधार पर) उनको अविवाहित कह दिया है. अगर गलत है तो गलती सुधरनी चाहिए.
2. ऋग्वेद में परशुराम के पितरों की अनेकों ऋचाएं हैं परन्तु १०.११० में राम जामदग्न्य के नाम से वे स्वयं महर्षि जमदग्नि के साथ हैं.
कन्हैया लाल माणिकलाल मुंशी का 'लोपामुद्रा' 'लोमहर्षिणी' और 'भगवान परशुराम' पढ़िए। अंतिम वाला तो बहुत रोमांचक है।
ReplyDelete@ राम जामदग्नेय
मेरे लिए नई जानकारी। फुरसत में उस खण्ड को खँगालता हूँ। देखना चाहता हूँ कि इस विद्रोही ने क्या देखा ?
आभार भैया।
'इस तरह कलारी पायत्तु ने आगे चलकर कुंग-फू से लेकर जू-जित्सू तक विभिन्न कलाओं को जन्म दिया..
ReplyDelete- नयी जानकारी. कलारी को केरल की प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार ने लोकप्रिय बनाने के प्रयत्न करने चाहिए.
अद्भुत !
ReplyDelete'भगवान परशुराम' स्कूल के दिनों में पढ़ा था... पिताजी पुस्तकालय से लेकर आये थे. बहुत रोचक किताब है.
ज्ञानवर्धक ।
ReplyDeleteआपके प्रविष्टि में उल्लिखित कई जानकारियां मेरे लिए नयी थीं,इसलिए बड़ा आनंद आया पढ़कर....
ReplyDeleteइस अनुपम जानकारी के लिए कोटिशः आभार...
वाह मजा आ गया जी. धन्यवाद आपका जानकारी के लिए !
ReplyDeleteतुलसीदासजी के राम को तो कहना पड़ा था, राम मात्र लघु नाम हमारा। परशु सहित बड़ नाम तोहारा।। सप्तर्षियों में परशुराम का उल्लेख है। वे ब्रह्मज्ञ थे और शास्त्र कहते हैं, ऐसा व्यक्ति जो भी करता है, परमार्थ ही होता है। वैसेभी उनका जीवनदर्शन नित्य प्रासंगिक है। उनका क्रोध लोकहित में था, रामजी से मिलने के बाद वे बुद्ध की भांति अहिंसावादी भी हो गए थे। कागजों में उल्लेख हो या नहीं, परंतु उनका महेंद्र पर्वत पर जाना, वहां गहन तपस्या, लोक-वित्त-कामनाओं से उपरत जीवन बिताना आदि इसके प्रमाण हैं। उनमें दिव्यक्षमताएं थीं। वो परशुराम ही हैं, जो राम के शस्त्रज्ञान की अंतिम परीक्षा लेते हैं। वशिष्ठ और विश्वामित्र के बाद वे राम के तीसरे शिक्षा-गुरु हैं।
ReplyDeleteप्रिय अनुराग,
ReplyDeleteअति ज्ञानवर्धक और शोधपरक आलेख के लिए धन्यवाद...
शक्ति के बिना कुछ भी नही हो सकता ... अहिंसा के पोषण के लिए भी शक्ति की उपासना ज़रूरी है ....
ReplyDeleteभगवान परशुराम और उनके चरित्र को गहरे से उतरा है आपने अपनी लेखनी से ....
मैं पोस्ट की कोई तारीफ़ नहीं करूंगा क्योंकि यह ज्ञान लगभग प्रत्येक भारतवासी (हिंदी, मुस्लिम सिख, ईसाई समेत) को प्राप्त है, किसी को कम, किसी को ज्यादा.
ReplyDeleteतारीफ़ तो मुझे आपकी करनी है जो अमेरिका में रहने-बसने के बावजूद अपनी सभ्यता, संस्कृति एवं मिथ नहीं भूले. बहुत अच्छा लगा मित्र.
क्या बात है ! इस बेहतरीन पोस्ट के लिए आपकी जितनी भी तारीफ की जाए कम है।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर विश्लेषण ...हार्दिक बधाई.
ReplyDelete________________________
'शब्द-शिखर' पर ब्लागिंग का 'जलजला'..जरा सोचिये !!
अनुराग सर,
ReplyDeleteपरशुराम जैसे चरित्र से अप्रभावित रह पाना लगभग असंभव है। ’राम चरित मानस’ में अपना प्रिय प्रसंग ’परशुराम-लक्ष्मण संवाद’ है। अपन खड़े लक्ष्मण वाली साईड होंगे लेकिन परशुराम के इष्ट-प्रेम, तेज और पौरुष से कम प्रभावित नहीं हैं(यह एक गैर-ब्राम्हण की स्वीकारोक्ति है)।
गौतम और महावीर के चेलों के अति अहिंसावाद की बजाय परशुरामी स्टाईल ज्यादा अनुकरणीय और अनुसरणीय लगता है, यह मानने में कोई संकोच नहीं है।
प्रतीक पुरुष या चरित्र किसी जाति या धर्म विशेष के नहीं हैं, यह बात अगर हम समझ सकें तो समाज का बहुत लाभ होगा।
कलारी पायत्तु के बारे में थोड़ा बहुत पढ़ा हुआ है और इसके पापुलर न होने का दुख भी बहुत महसूस किया है। ’च्यवनप्राश’ के एक विज्ञापन में इस कला का उपयोग किया गया था, और बच्चों ने भी इसे पसंद किया था। कमी हम लोगों की ही है कि अपने समृद्ध इतिहास को संजोकर नहीं रख पाये। आपके लेख में इस पर पढ़कर बहुत अच्छा लगा। ऐसी ही एक विधा ’मल्लखम्बम’ है, कभी इसपर भी प्रकाश डालें तो अच्छा लगेगा। फ़रमाईश करना कितना आसान है न नेट पर? हा हा हा
देर से ही सही, आपके बहाने से वीर यौद्धा परशुराम जी को स्मरण किया, आशा है कोप से बचे रहेंगे :)
आपका बहुत बहुत आभार
बहुत बढ़िया ! आपने बहुत ही सुन्दरता से प्रस्तुत किया है! शानदार पोस्ट!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लेख, आपकी यह बातें सच में विचारणीय हैं !
ReplyDeleteअनुराग जी,
ReplyDeleteबहुत बढ़िया विश्लेषण, खोजपरक तथ्यों के साथ आपने परशुराम वाला लेख बनाया है..आपको ढेर साड़ी बधाई...लिखने का यह सिलसिला बनी रहे...अनेकानेक शुभकामनाएं..
Sadhu Sadhu ......Atti Sunder Aalekh !
ReplyDeleteराम के बारे में तो बहुत जानकारी है परंतु परशुराम के बारे में ऐसी विस्तृत जानकारी की आवश्यकता है। आपके ब्लाग के माध्यम से ही आज गद्यकोश की सदस्यता ली :)
ReplyDeleteपहले कभी सुना था कि ब्राह्मण के दो रूप होते हैं। शांत हो तो राम और क्रोध आ जाए तो परशुराम। इससे अधिक कभी जानकारी जुटाने का प्रयास भी नहीं किया। पहली बार परशुराम के बारे में इतना पढ़ रहा हूं। भीष्म और कर्ण के गुरु के रूप में जानता हूं। अमर चित्र कथा में उनके जीवन के बारे में पढ़ चुका हूं पर कहीं विश्लेषण और कार्यों के स्तर पर जाकर परशुराम को नहीं देखा। अब इस चिरंजीव ब्रह्म योद्धा के बारे में और जानकारी प्राप्त करने का प्रयास करूंगा।
ReplyDeleteइस आलेख के लिए हृदय से आभार...
यह दुखद हैकि भगवान परशुराम जी के जीवन के अछूते प्रसंगों का प्रवचन प्रायः पण्डित जी लोग भी नहीं करते। उन्होने शिक्षा,संस्कार और कृषि के लिये जो किया वह अनुपम है। उन्होने क्षत्रियों का संहार किया किंतु क्षत्रियों का मार्गदर्शन भी किया, उनके अद्भुत कार्यों की चर्चा की जानी चाहिये। शूद्रों को शिक्षित कर ब्राह्मण बनाने का काम भी परशुराम जी के द्वारा किया गया था। धनुषभंग के समय राम से अपने पुण्यों का भी अंत करदेने की याचना करने वाले परशुराम जी का चरित्र बहुआयामी और अद्भुत था, भारतीय इतिहास में ऐसा बहुआयामी व्यक्तित्व कदाचित ही किसी का हो। अनुराग जी! आपने यह आलेख बड़े परिश्रम से तैयार किया है। साधुवाद!! ऐसा ही एक आलेख प्रमोद भार्गव जी ने भी प्रवक्ता पर लिखा है।
ReplyDeleteधन्यवाद! चर्चा किस विषय पर नहीं होती डॉ. साहब! लोग केवल अपने मतलब की बात सुनते हैं। सकल पदारथ हैं जग माहीं
Deleteकर्महीन नर पावत नाहीं।
केरल की प्राचीन युद्धकला के नाम का सही उच्चारण कलरि पयट्टु है।
ReplyDeleteआभार, वर्तनी सही कर दी गयी है|
Deleteभगवान परशुराम कृत कृषिकार्य हेतु डीफ़ॉरेस्टेशन और उसके बदले में पर्यावरण हेतु रीफ़ॉरेस्टेशन तथा नदियों के मार्ग के परिवर्तन की विस्तृत जानकारी मिल सके तो अवश्य दीजिये
ReplyDeleteआभार इस पोस्ट के लिए । पहले भी पढ़ी थी, आज फिर । आभार आपका ।
ReplyDeleteसुन्दर लेख के लिये आपका हार्दिक धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर आलेख. दुर्भाग्यवश अब तक परशुरामजी का एक भी प्राचीन मंदिर नहीं देख पाया.
ReplyDeleteक्या कोई बता सकते हैं कि डी आर शर्मा की पुस्तक भगवां परशुराम यशोगाथा कैसे मिलेगी ?
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