असुराः तेन दैतेयाः सुराः तेन अदितेः सुताः।
हृष्टाः प्रमुदिताः च आसन् वारुणी ग्रहणात् सुराः॥
ऐसा पढने में आया कि समुद्र मंथन में पहली बार उत्पन्न हुई सुरा को स्वीकार करने के कारण देवता सुर कहलाये. आइये इस कथन पर एक बार पुनर्विचार करें. सुरा के जन्म (समुद्र मंथन) के समय सुर (देवता) पहले से स्थापित थे. इसलिए यह मानना कि सद्यजन्मा सुरा - जिसका पहले नाम ही नहीं था - उसे स्वीकार करने की वजह से देवताओं और असुरों की दोनों जातियों का ही नया नामकरण हो गया, कुछ जमता नहीं. वैसे भी उस समुद्र मंथन में एक नहीं चौदह रत्न निकले थे जिनमें से अधिकाँश सुरा से अधिक दुर्लभ और बहुमूल्य बल्कि अद्वितीय थे. उनके नाम पर कोई नामकरण क्यों नहीं हुआ?
इससे भी बड़ी बात यह है कि पहले संग्राम और बाद में समुद्र मंथन देवासुर के बीच ही हुआ था. मतलब कम से कम असुर शब्द पहले से मौजूद था. फिर सुर शब्द के असुर से व्युत्पन्न होने की संभावना है न कि सुरा से. यहाँ मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि सुर सुरापान करते थे या नहीं. मैं सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ कि उनका नाम समुद्र मंथन से पहले से ही सुर था. कम से कम असुर शब्द तो पहले ही से प्रचलन में था. सुर और असुर दोनों ही शब्द ऋग्वेद में बहुत शुरू में ही प्रयुक्त हुए हैं और प्राचीन हैं.
एक नज़र देखने पर ऐसा लग सकता है जैसे सुर से असुर की व्यत्पत्ति हुई हो जबकि तथ्य इसके उलट है. असुर शब्द प्राचीन है. बाद में अ-असुरों को सुर शब्द से नवाज़ा गया था. सुर वे हैं जो असुर नहीं हैं या अब असुर नहीं रहे. आम तौर पर यह शब्द देवताओं के लिए प्रयुक्त होता है और असुर दानवों के लिए परन्तु जहां आदित्य, दानव, दैत्य, यक्ष, गन्धर्व, किन्नर आदि शब्द जातिसूचक (tribe/race/region) हैं वहीं सुर, असुर, देव और ऋषि शब्द उपाधियों जैसे हैं. इसीलिये कुछ असुर भी देवता हैं और कुछ मानव भी. ठीक उसी तरह जैसे ऋषि ब्राह्मण भी हैं राजा भी हैं और नारद जैसे देवता भी.
ऊपर के श्लोक का अर्थ केवल इतना ही है कि वारुणि को सुरों ने ग्रहण किया।
असुर शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है असु+र. यहाँ असु का अर्थ है द्रव शक्ति या शक्ति का रस. आसव, आसवन आदि सभी इसी के सम्बंधित शब्द हैं. "र" का अर्थ है स्वामी. अर्थात असुर वे हैं जो या तो शक्तिरस के स्वामी हैं या फिर द्रव, तरल या जल की शक्ति के स्वामी हैं.
पारसी आर्यों में परमेश्वर का नाम अहुर माजदा (असुर ?) है जिसके तीनों प्रमुख सहायक असुर ही हैं. इन तीनों असुरों में मित्र का नाम इसलिए उल्लेखनीय है कि उनकी पूजा भारत और ईरान से बाहर भी विभिन्न क्षेत्रों में स्वतंत्र रूप से होती रही है इसके अनेकों प्रमाण उत्खनन से मिले हैं. मित्र का ज़िक्र वेदों में भी है. तो क्या कुछ वैदिक ऋषि एक असुर के पूजक थे या फिर पारसियों ने भाषा की किसी गलती या भेद से असुर को सुर कहना शुरू किया, या फिर यह दोनों दल एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और इनमें से कुछ सुरासुर दोनों ही हैं? या फिर सुर, सुरा और संयुक्त समुद्र-मंथन अभियान का मतलब उससे विपरीत है हमें आधुनिक प्रगतिशील विद्वान वर्ग द्वारा समझाया जाता रहा है?
आइये अगली कड़ी में मित्र से इतर एक अन्य प्राचीन असुर से मिलकर देखें कि असुर आखिर किस शक्ति के स्वामि हैं और इस बारे में संस्कृत ग्रन्थ क्या कहते हैं. अन्य देवताओं इंद्र आदि के विपरीत उनकी पूजा आज भी होती है, वे अभी भी एक भारतीय समुदाय के अधिष्ठाता देवता हैं और असुर की पिछली परिभाषा (असु+र) पर आज भी खरे उतारते हैं. मेरे लिए वह एक वैदिक आश्चर्य है और शायद इस कन्फ्यूज़न को सुलझाने का एक सूत्र भी. क्या आप बता सकते हैं कि मैं किस असुर की बात कर रहा हूँ?
[क्रमशः आगे पढने के लिये यहाँ क्लिक करें ]
main ye bata to nahi sakti par is lekh se jaanne ko kafi kuchh mila .shukriya iske liye .
ReplyDeleteअच्छी जानकारी..... धन्यवाद्
ReplyDeleteविचारोत्तेजक ..लगता है ईरान के आस पास के आदि मनु थे वे असुर थे और उनका पलायन भारत के वर्तमान सिधु क्षेत्र में होने पर वे ही सुर के सुर के रूप में पूजित हो गए ..इंद्र हैं सुर पर आचरण है असुर का ...बड़ा ससुरा है इंद्र !
ReplyDeleteसुल्झायिये गुत्थी -मेरी तो हारी !
सर, मैं असुर का अर्थ उन मनुष्यमात्र प्राणियों से लगाता हूँ जो तरह तरह के मुखौटे पहनते है और लोगो को भर्मित करते है !
ReplyDeleteअगली पोस्ट का इन्तजार है... देखते हैं हम कहां खड़े होते हैं सुर में या असुर में.
ReplyDeleteउम्दा विचारणीय प्रस्तुती,सार्थक लेख और सही सोच की छटा बिखेरती पोस्ट के लिए धन्यवाद /
ReplyDeleteगोदियाल जी,
ReplyDeleteइन शब्दों के अपने-अपने अर्थ तो हैं ही, यही तो सारी गड़बड़ की जड़ है. जो हमें पसंद नहीं वे सारे असुर - ऐसे कैसे चलेगा?
भारतीय नागरिक,
अरे भाई, आप तो एक सजग नागरिक हैं - जहां हैं वहीं ठीक हैं.
सादर/सप्रेम!
आप तो साथ में बहाए लिए जा रहे हैं। मजा भी आ रहा है और परेशानी भी हो रही है।
ReplyDeleteनहीं जानता कि आप किसकी बात कर रहे हैं। आपसे ही मालूम हो पाएगा अब तो।
दोनों पोस्टें एक साथ पढ़ी... अति रोचक. कल एक बार फिर इधर का चक्कर लगाता हूँ अगली कड़ी के लिए.
ReplyDeleteश्री राम त्यागी का सन्देश - ईमेल द्वारा:
ReplyDeleteरोचक और सारगर्भित लेख , आपके लेखो को देखकर लगता है की आप काफी शोध करने के बाद और सोच विचार कर लिखते है. कुछ न कुछ नया सीखने को ही मिलता है इधर आकर.
इस तरह से हिंदी का विकास करते रहें और हम जैसे नए लोगो का उत्साहवर्धन भी.
असु+र - मेरे लिए नई जानकारी। आप ने तो कई सम्भावनाओं के द्वार खोल दिए !
ReplyDelete'द्रव' के स्वामित्त्व को देखें तो शिव 'विषपायी' हैं। पूरी तरह पी भी नहीं गए, गले में धारण किए। वेदों में एक गौण देवता 'रुद्र' भी है जो बाद में बलियूप (स्तम्भ, लिंग) की पूजा परम्परा से जुड़ कर आज महादेव है।
'र' - रुद्र के प्रारम्भ में 'र' अंत में 'र' कोई गुथ्थी है क्या ?
शंकर शमन करने वाला - क्या द्रव 'विष' की सर्वनाशी शक्ति का ?
..... 'स्वामि' को 'स्वामी' लिखा जाता है। :)
@ गिरिजेश राव said...
ReplyDelete'स्वामि' को 'स्वामी' लिखा जाता है।
शुक्रिया भाई. पहले सही लिखा था फिर नर्वस होकर गलत कर दिया.
बड़े दिनों के बाद एक अच्छी पोस्ट पढ़ने को मिली। नई जानकारियों से परिपूर्ण है आपका लेखन। बधाई।
ReplyDeleteजानकारी बढाने का शुक्रिया !
ReplyDeleteसारी कड़ियाँ यूँ एक साथ पढ़ना बेहतर है। वैसे भी प्रतीक्षा करना कष्टप्रद है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती