आधी रात थी. मैं दिल्ली फ़ोन लगा रहा था. भारत का कोड, दिल्ली का कोड, फ़िर फ़ोन नम्बर. सभी तो ठीक था - ९१-११-२५२.... पहली बार में फोन नहीं लगा. उसके बाद कितनी भी कोशिश की, डायल टोन ही वापस नहीं आयी. कुछ ही क्षणों में किसी ने बहुत बेरहमी से दरवाजा खटखटाया. समझ में नहीं आया कि इतनी रात में कौन है और घंटी न बजाकर दरवाज़ा क्यों पीट रहा है. जब तक दरवाज़े तक पहुँचा, घंटी भी लगातार बजने लगी. देखा तो काले कपडों में साढ़े छः फ़ुट का एक पुलिस अधिकारी एक हाथ में पिस्टल और दूसरे में टॉर्च लेकर खड़ा था. मुझे देखकर बड़ी विनम्रता से कुशल-क्षेम पूछने लगा.
उसके बताने पर समझ आया कि दिल्ली फ़ोन करने के प्रयास में गलती से आपदा-सहायता नम्बर ९११ डायल हो गया था. चूंकि मैंने फ़ोन पर कुछ बोला नहीं इसलिए आपात-विभाग ने तुंरत ही एक पुलिसकर्मी को भेज दिया. मैंने स्थिति का खुलासा किया तो वह खलल डालने के लिए क्षमा मांगकर वापस चला गया. इसी प्रकार जब मेरे एक सहकर्मी को दफ्तर में दौरा पड़ा तो प्राथमिक चिकित्सा कर्मियों को पहुँचने में १० मिनट भी नहीं लगे.
मुझे ध्यान आया जब १० साल पहले दिल्ली में हमारे घर में चोरी हुई थी तो १०० नम्बर काफी समय तक व्यस्त ही आता रहा था. २०० कदम की दूरी पर स्थित थाने से दो पुलिसकर्मी घर तक पहुँचने में आधे घंटे से ज़्यादा लगा था और तफ्तीश के बारे में तो सोचना ही बेकार था. इसी तरह दिल्ली में बीमार के घर पर चिकित्सा सुविधा पहुँचाना तो दूर, सड़क पर दुर्घटना में घायल हुए अधिकाँश लोगों की मौत सिर्फ़ समय पर चिकित्सा न मिलने से ही हो जाती है. यह हाल तो है राजधानी का. थोड़ा दूर निकल गए तो फ़िर तो कहना ही क्या.
प्रशासन तंत्र की कुशलता अमेरिका की एक विशेषता है. कुछ लोग इसका कारण समृद्धि बताएँगे. ग़लत नहीं है, मगर इसमें समृद्धि से ज़्यादा काम मानवीय दृष्टिकोण का है. नाभिकीय समझौते की बाबत हमारे एक नेता ने हाल ही में अमेरिका को मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन बता दिया. जब मैंने अपने पाकिस्तानी मुसलमान मित्र से इसका ज़िक्र किया तो उन्होंने कहा कि जितने बेखौफ वे और उनका परिवार अमेरिका में महसूस करते हैं उस स्थिति की पकिस्तान में उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी. उनकी बात एक आम मुसलमान के लिए बिल्कुल सच है. आम अमेरिकी आपको इंसान की तरह देखता है - हिन्दू या मुसलमान की तरह नहीं.
महात्मा गाँधी की हत्या के बाद पूरे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों पर ज़ुल्म हुए. दशकों बाद इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली-यूपी में वही इतिहास सिखों के ख़िलाफ़ दोहराया गया. मजाल तो है कि अमेरिका में ११ सितम्बर २००१ को ३००० लोगों की नृशंस हत्या के बाद भी आम जनता किसी एक समुदाय या राष्ट्रीयता के ख़िलाफ़ क़त्ले-आम करने निकली हो. उलटा मेरे अमेरिकी हितैषियों ने बार बार यह पूछा कि कभी मेरे साथ कहीं किसी तरह का भेदभाव तो नहीं हुआ. जनता जागरूक थी और प्रशासन मुस्तैद था तो दंगा और आगज़नी कैसे होती?
भारत में बच्चे तो बच्चे, कई वयस्क(?) भी हर समस्या का हल तानाशाही और सशस्त्र आन्दोलनों में ढूंढ रहे होते हैं. बच्चों के साथ स्कूलों में कई मास्टर कसाई की तरह पेश आते हैं तो घरों में कई अभिभावक. सड़क के किनारे खुले में बनी मांस की दुकानों पर, ढाबों, ठेलों व खोखों पर भी छोटे-छोटे बच्चों को बचपन से ही हिंसा दिखाई देती है. अमेरिका में अधिकाँश लोगों के मांसाहारी होने के बावजूद भी वह हिंसा कत्लगाह से बाहर खुली सड़क तक नहीं आ सकती है. इसके उलट भारतीय बच्चे परिवार, विद्यालय, आस-पड़ोस सब जगह ताकतवर को कमज़ोर पर हाथ उठाते हुए देखते हैं और धीरे-धीरे अनजाने ही यह हिंसा उनके जीवन का एक सामान्य अंग बन जाती है.
ऐसा नहीं है कि इनमें सब अच्छा है और हममें सब बुरा. मगर हमें एक पल ठहरकर इतना तो सोचना ही पड़ेगा कि अहिंसा और प्रेम की धरती अपनी भारत भूमि को हिंसा से बंजर होने से रोकने के लिए हमने क्या किया? समय आ गया है जब हमें मजबूरी का नाम महात्मा गांधी जैसे आम मुहावरों की आड़ में पनप रही हिंसक वृत्तियों को रोकने के प्रयास शुरू करना पड़ेगा. आम जन के साथ साथ प्रशासन को भी जागरूक होना पड़ेगा.
[यह लेख पहले (सन् 2008 में) सृजनगाथा में प्रकाशित हो चुका है]
मेरी हालिया जापान यात्रा पर आधारित आलेख एक तीर्थयात्रा जापान में पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें
उसके बताने पर समझ आया कि दिल्ली फ़ोन करने के प्रयास में गलती से आपदा-सहायता नम्बर ९११ डायल हो गया था. चूंकि मैंने फ़ोन पर कुछ बोला नहीं इसलिए आपात-विभाग ने तुंरत ही एक पुलिसकर्मी को भेज दिया. मैंने स्थिति का खुलासा किया तो वह खलल डालने के लिए क्षमा मांगकर वापस चला गया. इसी प्रकार जब मेरे एक सहकर्मी को दफ्तर में दौरा पड़ा तो प्राथमिक चिकित्सा कर्मियों को पहुँचने में १० मिनट भी नहीं लगे.
मुझे ध्यान आया जब १० साल पहले दिल्ली में हमारे घर में चोरी हुई थी तो १०० नम्बर काफी समय तक व्यस्त ही आता रहा था. २०० कदम की दूरी पर स्थित थाने से दो पुलिसकर्मी घर तक पहुँचने में आधे घंटे से ज़्यादा लगा था और तफ्तीश के बारे में तो सोचना ही बेकार था. इसी तरह दिल्ली में बीमार के घर पर चिकित्सा सुविधा पहुँचाना तो दूर, सड़क पर दुर्घटना में घायल हुए अधिकाँश लोगों की मौत सिर्फ़ समय पर चिकित्सा न मिलने से ही हो जाती है. यह हाल तो है राजधानी का. थोड़ा दूर निकल गए तो फ़िर तो कहना ही क्या.
प्रशासन तंत्र की कुशलता अमेरिका की एक विशेषता है. कुछ लोग इसका कारण समृद्धि बताएँगे. ग़लत नहीं है, मगर इसमें समृद्धि से ज़्यादा काम मानवीय दृष्टिकोण का है. नाभिकीय समझौते की बाबत हमारे एक नेता ने हाल ही में अमेरिका को मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन बता दिया. जब मैंने अपने पाकिस्तानी मुसलमान मित्र से इसका ज़िक्र किया तो उन्होंने कहा कि जितने बेखौफ वे और उनका परिवार अमेरिका में महसूस करते हैं उस स्थिति की पकिस्तान में उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी. उनकी बात एक आम मुसलमान के लिए बिल्कुल सच है. आम अमेरिकी आपको इंसान की तरह देखता है - हिन्दू या मुसलमान की तरह नहीं.
महात्मा गाँधी की हत्या के बाद पूरे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों पर ज़ुल्म हुए. दशकों बाद इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली-यूपी में वही इतिहास सिखों के ख़िलाफ़ दोहराया गया. मजाल तो है कि अमेरिका में ११ सितम्बर २००१ को ३००० लोगों की नृशंस हत्या के बाद भी आम जनता किसी एक समुदाय या राष्ट्रीयता के ख़िलाफ़ क़त्ले-आम करने निकली हो. उलटा मेरे अमेरिकी हितैषियों ने बार बार यह पूछा कि कभी मेरे साथ कहीं किसी तरह का भेदभाव तो नहीं हुआ. जनता जागरूक थी और प्रशासन मुस्तैद था तो दंगा और आगज़नी कैसे होती?
अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः (महाभारत - आदिपर्व ११।१३)कई बरस पहले की बात है. मेरी नन्ही सी बच्ची भारत वापस बसने की बात पर सहम सी जाती थी. मैंने कई तरह से यह जानने की कोशिश की कि आख़िर भारत में ऐसा क्या है जिसने एक छोटे से बच्चे के मन पर इतना विपरीत असर किया है. बहुत कुरेदने पर पता लगा कि भारत में उसने बहुत बार सड़क पर लोगों को बच्चों पर और ग़रीबों पर, खासकर ग़रीब चाय वाले लड़के या रिक्शा वाले के साथ मारपीट करते हुए देखा. उसको हिंसा का यह आम प्रदर्शन अच्छा नहीं लगा. यह बात सुनने पर मुझे याद आया कि बरसों के अमेरिका प्रवास में मैंने एक बार भी किसी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति पर हिंसा करते हुए नहीं देखा. अगर देखा भी तो बस एकाध भारतीय माता-पिता को ही अपने मासूमों के गाल पर थप्पड़ लगाते देखा.
भारत में बच्चे तो बच्चे, कई वयस्क(?) भी हर समस्या का हल तानाशाही और सशस्त्र आन्दोलनों में ढूंढ रहे होते हैं. बच्चों के साथ स्कूलों में कई मास्टर कसाई की तरह पेश आते हैं तो घरों में कई अभिभावक. सड़क के किनारे खुले में बनी मांस की दुकानों पर, ढाबों, ठेलों व खोखों पर भी छोटे-छोटे बच्चों को बचपन से ही हिंसा दिखाई देती है. अमेरिका में अधिकाँश लोगों के मांसाहारी होने के बावजूद भी वह हिंसा कत्लगाह से बाहर खुली सड़क तक नहीं आ सकती है. इसके उलट भारतीय बच्चे परिवार, विद्यालय, आस-पड़ोस सब जगह ताकतवर को कमज़ोर पर हाथ उठाते हुए देखते हैं और धीरे-धीरे अनजाने ही यह हिंसा उनके जीवन का एक सामान्य अंग बन जाती है.
परम धरम श्रुति विदित अहिंसा। पर निंदा सम अध न गरीसा।।सभी जानते हैं कि अमेरिका में बन्दूक खरीदने के लिए सरकार से किसी लायसेंस की ज़रूरत नहीं होती है. यहाँ के लोग बन्दूक को व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जोड़कर देखते है. निजी हाथों में दुनिया की सबसे ज्यादा बंदूकें शायद अमेरिका में ही होंगी. मगर हत्याओं के मामले में वे अव्वल नंबर नहीं पा सके. २००७-०८ में अमेरिका में हुए १६,६९२ खून के मुकाबले शान्ति एवं अहिंसा के देश भारत में ३२,७१९ मामले दर्ज हुए. इस संख्या ने भारत को क़त्ल में विश्व में पहला स्थान दिलाया. हम सब जानते हैं कि हिन्दुस्तान में एक अपराध दर्ज होता है तो कितने बिना लिखे ही दफ़न हो जाते हैं.
ऐसा नहीं है कि इनमें सब अच्छा है और हममें सब बुरा. मगर हमें एक पल ठहरकर इतना तो सोचना ही पड़ेगा कि अहिंसा और प्रेम की धरती अपनी भारत भूमि को हिंसा से बंजर होने से रोकने के लिए हमने क्या किया? समय आ गया है जब हमें मजबूरी का नाम महात्मा गांधी जैसे आम मुहावरों की आड़ में पनप रही हिंसक वृत्तियों को रोकने के प्रयास शुरू करना पड़ेगा. आम जन के साथ साथ प्रशासन को भी जागरूक होना पड़ेगा.
[यह लेख पहले (सन् 2008 में) सृजनगाथा में प्रकाशित हो चुका है]
मेरी हालिया जापान यात्रा पर आधारित आलेख एक तीर्थयात्रा जापान में पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें
आँखों को खोलती पोस्ट। जिस देश में मनुष्य मनुष्य नहीं हिन्दू, मुस्लिम, दलित, अल्पसंख्यक, सवर्ण, अवर्ण .... शब्दों से पहचाने जाते हों, वहाँ आप क्या उम्मीद कर सकते हैं ?
ReplyDeleteइस देश के सबसे बड़े शत्रु यहाँ के बुद्धिजीवी हैं। कायरता की खोल में बन्द मनोविलासी शुतुर्मुर्ग। अपने आस पास को सँवारने की कोशिश के बजाय इन्हें फिलिस्तीन दिखता है। कश्मीरी शरणार्थियों के बजाय चीन की समस्याएँ विमर्श के लिए अधिक उपयुक्त दिखती हैं।
भैया ! आप आशावान हैं , रहिए। मुझे तो इस देश का कोई अच्छा भविष्य नहीं दिखता। यह देश ऐसे ही रहेगा। स्थितियाँ और खराब होंगी। यहाँ का पूरा तंत्र कोढ़ग्रस्त है - असाध्य, कुछ नहीं हो सकता इसका।
come girijesh ji - why so pessimistic ? of course we can change - we ARE changing ...
Deleteगंभीर चिंतन को प्रेरित करती पोस्ट -आपने बहुत साफगोई से दोनों समाजों में अंतर स्पष्ट किया है !
ReplyDeleteगंभीर चिंतन को प्रेरित करती पोस्ट -आपने बहुत साफगोई से दोनों समाजों में अंतर स्पष्ट किया है !
ReplyDeleteसमय आ गया है जब हमें मजबूरी का नाम महात्मा गांधी जैसे आम मुहावरों की आड़ में पनप रही हिंसक वृत्तियों को रोकने के प्रयास शुरू करना पड़ेगा
ReplyDelete-सही कह रहे हैं..उम्दा एवं सार्थक चिन्तन!!
यह बिल्कुल सही बात है वहाँ अनुशासन है और खुले आम बात मनवाने के लिए तोड़-फोड़ और आंदोलन का इतना बुरा हाल तो नही जैसा भारत में...हर चीज़ों से बड़े शख़्ती से निपटा जाता है और यही कारण है की एकाध घटनाओं को छोड़ दे बाकी वहाँ की जनता शांति के साथ जी तो रही है...बहुत बढ़िया प्रसंग...
ReplyDeleteमन को झकझोरती पोस्ट है जी।
ReplyDeleteप्रेरक पोस्ट!
ReplyDeleteबिल्कुल सही बात......आँखों को खोलती पोस्ट।
ReplyDeleteभारत में जितनी रिपोर्टेड होती हैं उससे दस गुना अधिक अनरिपोर्टेड... वहां छोटी से छोटी घटना भी की रिपोर्ट दर्ज होती है और यहां हत्या की भी नहीं होती...
ReplyDeleteएक लड़का जब तक आईए-एस पीएस नहीं बनता तब तक उसे सब कुछ दिखाई देता है जब बन जाता है तो उसे दिखाई देना बन्द हो जाता है...
अमेरिका को गाली बकना एक फ़ैशन हो गया है, वर्ना बिना किसी विशेषता के यह वर्क क्वालीटी नही आ सकती. आपके सिर्फ़ रोंग नंबर डायल करने पर खोज खबर लेने पुलिस वाला आ धमका यहां चोरी हो जाये तो चार दिन रपट नही लिखते.
ReplyDeleteबहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
अमेरिका को गाली बकना एक फ़ैशन हो गया है, वर्ना बिना किसी विशेषता के यह वर्क क्वालीटी नही आ सकती. आपके सिर्फ़ रोंग नंबर डायल करने पर खोज खबर लेने पुलिस वाला आ धमका यहां चोरी हो जाये तो चार दिन रपट नही लिखते.
ReplyDeleteबहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
गंभीर चिंतन, सार्थक लेख.
ReplyDeleteसमय आ गया है चेतने का... यह कर आपने दायित्व निभाया.
कितनी सहजता से आपने साफ कर दिया है अन्तर !
ReplyDeleteसाफ-साफ कह दिया है !
सोचने को विवश करती प्रविष्टि ! आभार ।
बिलकुल सही कहा आप ने, पिछले साल हमे घर पर एम्बुलेंस बुलनी पडी जो सिर्फ़ २,३ मिन्ट मै ही आ गई, उस से पहले भारत मै हमारा एक्सीडेंट हुआ दो घंटे तक हम पुलिस ओर एम्बुलेंस की इन्तजार करते रहे.... कोई नही आया
ReplyDeleteभारत की हिंसा कुण्ठा की हिंसा है। यह हमारा मूल तत्व नहीं है।
ReplyDeleteमैं आशा करता हूं कि अगले दो-ढ़ाई दशक में हालात बहुत बदल जायेंगे - बेहतरी की ओर।
यथा राजा तथा प्रजा.....
ReplyDeleteजब इन्द्रा जी की हत्या के बाद हजारों सिखों का कत्लेआम हुआ तो राजीवजी का यह कहना की जब कोई बड़ा दरख्त गिरता है तो धरती हिलती ही है। व्ही कांग्रेसी गुजरात दंगों पर महज़ इस लिए हाए तौबा मचा रहे हैं की मुसलमानों के वोट काफी हैं सीखो की बनिस्बत। बुध,महांबीर व् गाँधी जैसे अहिंसा के पुज़रिओं के देश में इतनी अहिंसा अशह्शुनता
यथा राजा तथा प्रजा
गांधी जी,
ReplyDeleteपुरानी फिल्म का गीत यद् आ गया,
"राजा गए राज गए, बदला जहां सारा..."
लोकतंत्र में राजा की बात सोचना ही गलत है, काल्पनिक राजाओं को दोष कैसे दिया जाए?
सही लिखा है। यहाँ भी बदलाव की आवश्यकता है।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
कुछ भी परफेक्ट नहीं हम कहते तो है लेकिन... अगर अगर कुछ परफेक्ट हो सकता है तो उससे कितनी दूरी पर कौन है. ये देखें तो पता चले. घृणित अपराध दोनों तरफ होते हैं लेकिन तुलना करें तो... खैर... भगवान ने इंसान को आशा जैसी चीज दी है वो कब काम आएगी.
ReplyDeleteहम अपने चश्मे से ही दुनिया को देखने के आदी हैं।
ReplyDeleteकट्टरवादी पश्चिम के भोगवाद का विरोध करता है, वामपंथी पश्चिम के विस्तारवाद और बाजारवाद का विरोध करता है, वैलेंटाइनिया टाईप लोग पश्चिम के वीकेंड कल्चर के दीवाने हैं, लेकिन पश्चिमी वर्क कल्चर, कानून का पालन, देशप्रेम के प्रति प्रैक्टिकल सोच जैसी अनुकरणीय बातों की तरफ़ हम ध्यान नहीं देते क्यूंकि इसमें हमें कुछ योगदान करना पड़ता है। आपकी पोस्ट सच में आंखें खोलनी वाली है।
देश की सुरक्षा के लिये सभी के लिये एक कानून(खान साहब से पहले हमारे रक्षा मंत्री के साथ जो कुछ हुआ, मेरी नजर में तो वो गलत नहीं बल्कि हमारे देश में और भी जरूरी होना चाहिये), अपराधी की पहचान सिर्फ़ अपराधी के रूप में करना न कि धर्म, जाति, रसूख के आधार पर करना, ऐसी कितनी ही बातें हैं जो हमारे यहां शायद कभी नहीं लागू हो पायेंगी, गिरिजेश साहब से सहमत।
हालांकि समय बदलेगा, लेकिन कब, नहीं कह सकते। कन्फ़्यूज़्ड हूं हमेशा की तरह।
आप आभार स्वीकार करें।
वाकई बडी पते की बात कही है. यह सोच और कर्तव्य के प्रति सजगता हमें नई पीढी में विकसित करना चाहिये. लाता है, कुछ कुछ पहल हो रही है.
ReplyDeleteकुछ सालों पहले मेरे एक मित्र नें अमेरिका से इंदौर लौट कर बसने की सोची. वह वापिस चला गया है.
anurag jee bilakul sahi kaha aapane mujhe ab samajh aataa hai ki log videsh jaa kar vapis kyon nahin aanaa chahate. yahan aa kar maine bahut kuch achha dekhaa beshak majak me jo marji kahen magar sahi jindagee to aap jee rahe hain. hamare bharat ko to neta log hee ujad rahe hain aur dharam jativaad ne baki kasar pooree kar dee hai| dhanyavaad aur shubhakamanayen
ReplyDeleteआपका यह कहना सही है कि वहॉं सब कुछ अच्छा ही अच्छा और यहॉं सब कुछ बुरा ही बुरा नहीं है। सब तरह के लोग सब जगह होते हैं।
ReplyDeleteआपका यह कहना भी सही है कि अब समय आ गया है कि हम अपनी इस दशा पर गम्भीरता से विचार करें।
मुझे अधिक कुछ तो पता नहीं किन्तु तनिक इस कोण से भी विश्लेषण कीजिएगा कि इन सारी बातों का और जनसंख्या का कोई अन्तर्सम्बन्ध ळै या नहीं।
विष्णु जी,
ReplyDeleteमैं पिछले मास जापान में था. टोक्यो नगर में आपको रेलवे स्टेशन या चौराहों पर लोगों का जैसा हुज्जूम देखने को मिलता है वैसा मैंने न दिल्ली में देखा और न ही न्यूयोर्क में. मगर उस भीड़ और भाग दौड़ के बाद भी वहां अनुशासन और विनम्रता छलकी पड़ती है. मगर उन्हीं के हवाई अड्डे पर चीनी पासपोर्ट धारक लाइनें भी तोड़ रहे थे और जंगलीपन के अन्य सभी संभावित रूप स्वाभाविक रूप से फैला रहे थे. मैं तो यही कहूंगा कि जनसंख्या के कारण कमियाँ बढ़ती ज़रूर हैं मगर बहुत मामूली रूप से.
दिक्कत ये है अनुराग जी, हम लोगों ने अपनी सभ्यता और संस्कृति को इतना महान समझ लिया है कि उसे जीना लगभग असंभव हो गया है| महापुरुष इस देश में इतनी उंचाई पे हैं, वहां तक पहुंचना तो दूर , छू लेना भी मुश्किल है| कब समझ आएगा लोगों को अच्छा बनकर भी रहा जा सकता है|
ReplyDeleteआज सुबह मैं भ्रष्टाचार के बारे में सोच रहा था, मेरे रूममेट ने लाईट खुली रखी थी| सामने के घर में आँगन धोने के लिए पानी बहाया जा रहा था| ये सब रोज होता है| इन लोगों से अगर ये सब बंद करने को कहूँगा तो ये तर्क देंगे कि हम पैसे देते हैं इन सब चीज़ों के| बहुत बार मन करता है कि इनसे पूछूं कि जिसे ये सब नहीं मिल रहा क्या तुम लोगों ने उसे भी खरीद लिया है| बिजली पानी जैसी चीजों को पैसे देकर कितना भी उपभोग करो? कैसे भी बहाओ? ये क्या बात हुई? भ्रष्ट आचार ही भ्रष्टाचार है| छोटी छोटी चीजों में आप यही सब दिखा देते हो तो सुरेश कलमाड़ी वाली जगह पे तो आप उससे भी दो कदम आगे निकल जाओगे| शायद लोग मेरी बात से इत्तेफाक न रखते हों, लेकिन रखेंगे भी क्यों आखिर हम सब भी तो यही करते हैं| अपने आप को भ्रष्ट सोच भी नहीं सकते हम :)
ji -
ReplyDeleteबढ़िया लेख पढ़ाया आपने।
ReplyDeleteजीभ की हिंसा से कई हजार गुना स्वभाव में आ जाने वाली हिंसा खतरनाक है। आप कह सकते हैं कि जीभ ही स्वभाव का निर्धारण करती है मगर मुझे यह अर्ध सत्य ही लगता है।