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Saturday, March 24, 2012

अफ़वाहों का गणित

पुरानी घटना है। आस पड़ोस के सब लोग गणेश जी को दूध पिलाने के लिये दौड़ रहे थे। हमारी पड़ोसन भी आयीं ताकि वे माँ के साथ निकट के मन्दिर में जा सकें। माँ ने पहले तो समझाने का प्रयास किया फिर अचानक ही साथ चलने को तैयार हो गयीं। दूध के लोटे-गिलास के बजाय एक खाली चम्मच लिया और वहाँ जाकर संगेमरमर की मूर्ति की गर्दन से लगा दिया। पल भर में ही चम्मच दूध से भर गया। पड़ोसन को भी दिख गया कि मूर्ति दूध पी नहीं रही थी बल्कि दुग्ध-स्नान कर रही थी।

आजकल अफ़वाहें भी तकनीक की बेल के सहारे काफ़ी ऊँची उठ चुकी हैं। एक एस एम एस आता है या कोई ईमेल मिलती है और हम आश्चर्य से भर जाते हैं। सब कुछ अनोखा, इतना अनूठा कि संयोग शब्द कुछ हल्का लगने लगे। हम इतने प्रभावित हो जाते हैं कि जो मिलता है उसे उस ईमेल का विषय फ़टाफ़ट विस्तार के साथ बताने लगते हैं। कभी उस संदेश को आगे दो चार मित्रों को फ़ॉरवर्ड करते हैं और कभी ब्लॉग पोस्ट भी बना देते हैं। उत्साह के बीच ये बात दिमाग़ में आती ही नहीं कि वह सन्देश अफ़वाह भी हो सकता है। पहले किसी अफ़वाह के फैलने की रफ़्तार धीमी थी परंतु आजकल तो बस्स ...

क्या आपने कभी जानने का प्रयास किया है कि इन अफ़वाहों के पीछे कौन छिपा है? कौन हमारे भोले विश्वास का लाभ उठाकर अपना उल्लू सिद्ध करना चाहता है? अपने अभिनेता बेटे की हाई प्रोफ़ाइल फ़िल्म के विश्व-व्यापी उद्घाटन के समय भारत के एक फ़िल्म निर्माता को अंडरवर्ल्ड से पैसा देने की धमकी मिलती है। वह पुलिस में जाता है। पुलिस उसकी सुरक्षा में लग जाती है। तभी पड़ोसी देश का एक केबल नेटवर्क उस अभिनेता द्वारा उस देश का अपमान करने की खबर देता है। देशभक्ति की भावना से भरे भोले-भाले लोग उस अभिनेता के विरोध में घरों से बाहर निकल आते हैं। अभिनेता बेचारा सफ़ाई ही देता रह जाता है।

सम्बन्ध व्यवसायिक हों या पारिवारिक, वे तभी टिकते हैं जब उनमें दोनों पक्ष या तो लाभ में रहते हों या कम से कम एक पक्ष का लाभ हो रहा हो या कम से कम एक पक्ष इस सम्बन्ध के प्रति या तो निरपेक्ष हो या हानि भी सहने को तैयार हो। इसी प्रकार कुछ लोग कोई भी काम करते समय सबका भला देखते हैं। कुछ लोग केवल अपना भला देखते हैं। लेकिन इस सब से आगे बढकर कुछ लोग, देश या संस्थायें केवल इतना देखते हैं कि उनके काम से दूसरे व्यक्ति, संस्था या देश की हानि हो। उनके लिये यह दूसरा कोई व्यक्ति, संस्था या देश नहीं होता, वह होता है केवल एक प्रतिद्वन्द्वी बल्कि एक शत्रु, जिसे किसी भी कीमत पर नीचा दिखाना है, हराना है या नष्ट करना है।

मुझे याद पड़ता है कि एक अन्य पड़ोसी देश के एक प्रधानमंत्री ने कहा था कि हम हिन्दुस्तान से हज़ार साल तक लड़ेंगे, भले ही उसके लिये हमें घास खाना पड़े। पता नहीं उनके देश ने घास खाई या नहीं मगर पहले तो उस देश का एक बड़ा भूभाग अलग हुआ और फिर बचे हुए लोगों ने उस प्रधानमंत्री को फ़ाँसी पर लटका दिया। देश का चरित्र फिर भी काफ़ी हद तक वैसा ही रहा जैसा इन घटनाओं से पहले था। अपना इतिहास छिपाने और पड़ोसियों के विरुद्ध अफ़वाहें फैलाने का चलन वहाँ आज भी है और उस देश के पतन का एक बड़ा कारण है।

लेकिन ये अफ़वाहें फैलती क्यों हैं? पड़ोसी देश की समस्या तो ये है कि वहाँ इस्लाम के नाम पर कुछ भी कराया जा सकता है। हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान के विरोध के नाम पर इंसानियत का खून आसानी से किया जा सकता है। उनके स्कूलों की किताबें हों या मदरसों के सबक, सबका एक छिपा एजेंडा है। वे भूल गये हैं कि नफ़रत की आग जब एक बार जलनी शुरू होती है फिर समदर्शी होकर अपना पराया नहीं देखती। वे अन्धे हों तो हों मगर वैविध्य, उदारता और सहिष्णुता की अति-प्राचीन परम्परा वाले हम लोग अफ़वाहों के चक्र को तोड़ने के बजाय उसे हवा क्यों देते हैं? शायद इसलिये कि अफ़वाह फैलाने वाले आपके मन की घुटन पहचानते हैं। वे जानते हैं कि आपके मन में क्या चल रहा हैं? अफ़वाहें अक्सर ऐसी भावनाओं का शोषण करती हैं जिनसे एक बड़े समूह को आसानी से चलायमान किया जा सके। ये भावनायें धर्म, देशप्रेम, ग़रीबी, अन्याय, असमानता आदि कुछ भी हो सकती हैं लेकिन अक्सर इनके द्वारा एक बड़े समूह को पीड़ित बताया जाता है।

अब्राहम लिंकन 
अफ़वाहों के कुछ विशेषज्ञ भी होते हैं। पहले सीधी-सच्ची जैसी लगने वाली अफवाहें फैलाकर जनता का रुख और उनकी परिपक्वता का स्तर पहचाना जाता है। समय के साथ अफ़वाहों को बदला या हटाया जाता है। कई बार ये अफ़वाहें प्रत्यक्ष होती हैं जबकि कई बार परोक्ष भी होती हैं। शीतल पेयों में पशु-उत्पाद होना, नेहरू जी का मुसलमान होना, जिन्ना का सैकुलर होना जैसी सामान्य प्रचलित अफ़वाहों का परिणाम समझ आ जाये तो उनका उद्देश्य और उद्गम पहचानना आसान हो जायेगा। साथ ही यदि हम अफ़वाह पर एक सरसरी नज़र डालें तो उसका झूठ एकदम सामने आ जायेगा।

आइये केवल विश्लेषण के उद्देश्य से एक ब्लॉग पर ताज़ा छपी एक पुरानी अफ़वाह का नया संस्करण देखें। मैंने जानकर इस अफ़वाह को इसलिये चुना है क्योंकि यह एक विख्यात परंतु सरल सी अफ़वाह है और इसका हमारे देश, धर्म, राजनीति, राष्ट्रनायक या  परिस्थितियों से भी कोई लेना-देना नहीं है। अफ़वाह लम्बी है, कृपया धैर्य रखिये।

1. प्रेसिडेंट लिंकन 1860 मे राष्ट्रपति चुने गये थे, केनेडी का चुनाव 1960 मे हुआ था।
2. लिंकन के सेक्रेटरी का नाम केनेडी तथा केनेडी के सेक्रेटरी का नाम लिंकन था।
3. दोनों राष्ट्रपतियों का कत्ल शुक्रवार को अपनी पत्नियों की उपस्थिति मे हुआ था।
4. लिंकन के हत्यारे बूथ ने थियेटर मे लिंकन पर गोली चला कर एक स्टोर मे शरण ली थी और केनेडी का हत्यारा ओस्वाल्ड, एक स्टोर मे केनेडी को गोली मार कर एक थियेटर मे जा छुपा था।
5. बूथ का जन्म 1839 मे तथा ओस्वाल्ड का 1939 मे हुआ था।
6. दोनों हत्यारों की हत्या मुकद्दमा चलने के पहले ही कर दी गयी थी।
7. दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का नाम जानसन था। एन्ड्रयु जानसन का जन्म 1808 मे तथा लिंडन जानसन का जन्म 1908 मे हुआ था।
8. लिंकन और केनेडी दोनों के नाम मे सात अक्षर हैं।
9. दोनों का संबंध नागरिक अधिकारों से जुडा हुआ था।
10. लिंकन की हत्या फ़ोर्ड के थियेटर में हुई थी, जबकी केनेडी फ़ोर्ड कम्पनी की कार मे सवार थे।

आश्चर्य है कि इसकी काट बहुत पहले प्रकाशित हो जाने के बाद भी यह दंतकथा आज तक सर्कुलेशन में है। आइये बिन्दुवार देखें इस विचित्र से सत्य में सत्य का प्रतिशत कितना है:

1. अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव हर 4 वर्ष में होता है। इसलिये किन्हीं भी दो राष्ट्रपतियों के बीच का अंतर 4 से विभाज्य होगा। यह हम पर निर्भर है कि हम जो दो राष्ट्रपति चुनें उनके बीच का अंतर 56, 96, 100, 104 या 200 वर्ष है या कुछ और। यहाँ दो ऐसे राष्ट्रपति लिये गये हैं जिनकी हत्या हुई और उनके राष्ट्रपति बनने के वर्षों में सौ वर्ष का अंतर था।

2. यह पक्की बात है कि लिंकन के अनेक सचिवों में से किसी का उपनाम भी कैनेडी नहीं था।

3. सप्ताह के सात दिनों में से एक के होने की सम्भावना कितनी जटिल है। वैसे लिंकन की हत्या के समय उनकी पत्नी साथ नहीं थीं और उनकी मृत्यु शनिवार को हुई थी।

4. भागने के बाद बूथ ने अलग-अलग जगहों यथा घर, खेत, कुठार आदि में शरण ली थी परंतु स्टोर में नहीं।

5. इन दो राष्ट्रपतियों में एक दूसरे से एक शताब्दी का अंतर था, सो उनके हत्यारों के जन्म में भी 100 साल का अंतर कोई बड़ी बात नहीं है। मगर अफ़वाह का यह बिन्दु भी ग़लत है। बूथ का जन्म 1839 में नहीं बल्कि 1838 में हुआ था। वैसे, ओसवाल्ड केनेडी का हत्यारा था - इस बात पर आज भी बहुत से लोगों को विश्वास नहीं है।

6. चलिये एक बिन्दु तो सच है, वैसे राष्ट्रपति के हत्यारों का घटनास्थल पर ही मारा जाना एक सामान्य सम्भावना है।

7. दोनों राष्ट्रपतियों के उत्तराधिकारियों का कुलनाम जॉंन्सन होना सचमुच एक सन्योग है। जॉंन्सन अमेरिका का एक सामान्य नाम है। यदि दोनों जॉंन्सन के नाम भी समान होते तब ज़रूर आश्चर्य होता। या फिर उत्तराधिकारियों के नाम क्रमशः कैनेडी व लिंकन होते तब तो मैं भी इस अफ़वाह पर पूर्ण विश्वास करता। दोनों राष्ट्रपतियों में एक दूसरे से एक शताब्दी का अंतर उनके उत्तराधिकारियों के समान अंतर को ही साबित करता है। यदि उत्तराधिकारियों का अंतर 75 या 125 साल भी होता तो क्या फ़र्क पड़ना था?

8. यूरोपीय मूल के नामों में 7 अक्षर होना अनोखी बात नहीं है। वैसे कैनेडी के नाम "जॉन" में 7 नहीं चार अक्षर थे।

9. आश्चर्य? अमेरिका के हर राष्ट्रपति का नाम मानव अधिकारों से जुड़ा है, कइयों को नोबल शांति पुरस्कार भी मिल चुके हैं।

10. कैनेडी लिंकन कम्पनी द्वारा बनाई हुई लिंकन कॉंटिनेंटल लिमुज़िन में सवार थे। हाँ, लिंकन कम्पनी फ़ोर्ड कम्पनी के स्वामित्व में अवश्य है लेकिन क्या स्टेट बैंक ऑफ़ ट्रावनकोर को स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया कहा जा सकता है? दूसरी बात यह कि लिंकन कार का नाम ही राष्ट्रपति लिंकन के सम्मान में रखा गया था। इसलिये एक शताब्दी बाद आये कैनेडी की कार का नाम लिंकन होना आसान सी बात है। अनोखी बात तब होती जब लिंकन की कार का नाम कैनेडी होता।

क्या मैं कुछ अधिक ही विद्रोही हो रहा हूँ? शायद ऐसा हो क्योंकि किसी भी सन्देश को बिना विचारे दोहराते हुए देखना मुझे अजीब लगता है। वह भी तब जब अफ़वाह की तथ्यात्मक काट लम्बे समय पहले प्रकाशित हो चुकी हो। यदि अफ़वाहें राष्ट्र को उद्वेलित करके समुदायों के बीच नफ़रत पैदा करके राष्ट्रीय नागरिकों, सेवाओं या सम्पत्ति की हानि करने लगें तब तो हमारी ज़िम्मेदारी और भी बढ जाती है। ध्यान रखिये कि राष्ट्र की हानि कराने वाले राष्ट्रभक्ति का मुखौटा भले ही ओढ लें, वे रहेंगे राष्ट्रद्रोही ही। मेरा तो सभी मित्रों से यही अनुरोध है कि कुछ भी पढते सुनते वक़्त दिमाग का प्रयोग कीजिये, खुलकर सवाल पूछिये। सम्पादक के नाम आपका पत्र या किसी ब्लॉग पर आपकी टिप्पणी यदि प्रकाशित न हो तो अपनी बात अपने ब्लॉग पर कहिये। कुछ भी करिये मगर अनुसरण सत्य का ही कीजिये। याद रहे कि पाकिस्तान कभी भी हमारा आदर्श नहीं हो सकता। हाँ यदि पाकिस्तान फिर से भारतीय परम्परा अपनाये तो उनकी काफ़ी समस्यायें अपने आप हल हो सकती हैं। क्या कहते हैं आप?

Thursday, August 4, 2011

नव फ़्रांस में गांधी - इस्पात नगरी से - 44

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अंग्रेज़ों के कब्ज़े से पहले पिट्सबर्ग के किले फ़ोर्ट पिट का नाम फ़ोर्ट ड्यूकेन था और वह फ़्रांसीसी अधिकार क्षेत्र में था। जिस प्रकार भारत में अंग्रेज़ों ने फ़्रांसीसियों को निबटा दिया था उनका लगभग वैसा ही हाल अमेरिका में हुआ। यहाँ तक कि ब्रिटेन से स्वतंत्रता पाने के बाद भी अमेरिका में अंग्रेज़ी का साम्राज्य बना रहा। इसके उलट कैनैडा का एक बडा भाग आज भी फ़्रैंचभाषी है। जिस तरह संयुक्त राज्य के उत्तरपूर्वी तटीय प्रदेश का एक भाग न्यू इंगलैंड कहलाता है उसी तरह कैनैडा का एक क्षेत्र अपने को नव-फ़्रांस कहता है। आजकल (तीन अगस्त से सात अगस्त तक) कैनैडा के क्यूबैक नगर में नव-फ़्रांस महोत्सव चल रहा है। फ़्रांस में आज भले ही लोग आधुनिक वस्त्र पहनते हों, परंतु क्यूबैक में इस सप्ताह आप कहीं भी निकल जायें, आपको हर वय के लोग पुरा-फ़्रांसीसी या अमेरिकी-आदिवासी वस्त्र पहने मिल जायेंगे।

आइये, आपके साथ क्यूबैक की गलियों का एक चक्कर लगाकर देखते हैं कि यहाँ चल क्या रहा है।
आदिवासी ऐवम् फ़्रांसीसी

बच्चे, संगीतकार और तपस्वी

फ़्रैंच कुलीन का हैट पहने आदिवासी बच्ची 

दुकान के आगे तलवार भांजते सज्जन

फ़्रांसीसी भाषा में कोई ऐतिहासिक एकपात्री नाटक

हमारा तम्बू यहीं गढेगा


जॉर्ज वाशिंगटन से लेकर नेपोलियन तक जो पिस्टल चाहिये मिलेगी

सैनिक की आड में छिपा पाइरेट ऑफ़ दि कैरिबियन 

शाम की सैर

एक परिवार

सैकाजेविया?
आदिवासी और उसकी मित्र

The smartest Indian
शताब्दी का सबसे स्मार्ट भारतीय क्यूबैक संसद में  

सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Quebec photos by Anurag Sharma
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* मेरे मन के द्वार - चित्रावली

Monday, May 3, 2010

अहिसा परमो धर्मः

आधी रात थी. मैं दिल्ली फ़ोन लगा रहा था. भारत का कोड, दिल्ली का कोड, फ़िर फ़ोन नम्बर. सभी तो ठीक था - ९१-११-२५२.... पहली बार में फोन नहीं लगा. उसके बाद कितनी भी कोशिश की, डायल टोन ही वापस नहीं आयी. कुछ ही क्षणों में किसी ने बहुत बेरहमी से दरवाजा खटखटाया. समझ में नहीं आया कि इतनी रात में कौन है और घंटी न बजाकर दरवाज़ा क्यों पीट रहा है. जब तक दरवाज़े तक पहुँचा, घंटी भी लगातार बजने लगी. देखा तो काले कपडों में साढ़े छः फ़ुट का एक पुलिस अधिकारी एक हाथ में पिस्टल और दूसरे में टॉर्च लेकर खड़ा था. मुझे देखकर बड़ी विनम्रता से कुशल-क्षेम पूछने लगा.

उसके बताने पर समझ आया कि दिल्ली फ़ोन करने के प्रयास में गलती से आपदा-सहायता नम्बर ९११ डायल हो गया था. चूंकि मैंने फ़ोन पर कुछ बोला नहीं इसलिए आपात-विभाग ने तुंरत ही एक पुलिसकर्मी को भेज दिया. मैंने स्थिति का खुलासा किया तो वह खलल डालने के लिए क्षमा मांगकर वापस चला गया. इसी प्रकार जब मेरे एक सहकर्मी को दफ्तर में दौरा पड़ा तो प्राथमिक चिकित्सा कर्मियों को पहुँचने में १० मिनट भी नहीं लगे.

मुझे ध्यान आया जब १० साल पहले दिल्ली में हमारे घर में चोरी हुई थी तो १०० नम्बर काफी समय तक व्यस्त ही आता रहा था. २०० कदम की दूरी पर स्थित थाने से दो पुलिसकर्मी घर तक पहुँचने में आधे घंटे से ज़्यादा लगा था और तफ्तीश के बारे में तो सोचना ही बेकार था. इसी तरह दिल्ली में बीमार के घर पर चिकित्सा सुविधा पहुँचाना तो दूर, सड़क पर दुर्घटना में घायल हुए अधिकाँश लोगों की मौत सिर्फ़ समय पर चिकित्सा न मिलने से ही हो जाती है. यह हाल तो है राजधानी का. थोड़ा दूर निकल गए तो फ़िर तो कहना ही क्या.

प्रशासन तंत्र की कुशलता अमेरिका की एक विशेषता है. कुछ लोग इसका कारण समृद्धि बताएँगे. ग़लत नहीं है, मगर इसमें समृद्धि से ज़्यादा काम मानवीय दृष्टिकोण का है. नाभिकीय समझौते की बाबत हमारे एक नेता ने हाल ही में अमेरिका को मुसलमानों का सबसे बड़ा दुश्मन बता दिया. जब मैंने अपने पाकिस्तानी मुसलमान मित्र से इसका ज़िक्र किया तो उन्होंने कहा कि जितने बेखौफ वे और उनका परिवार अमेरिका में महसूस करते हैं उस स्थिति की पकिस्तान में उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी. उनकी बात एक आम मुसलमान के लिए बिल्कुल सच है. आम अमेरिकी आपको इंसान की तरह देखता है - हिन्दू या मुसलमान की तरह नहीं.

महात्मा गाँधी की हत्या के बाद पूरे महाराष्ट्र में ब्राह्मणों पर ज़ुल्म हुए. दशकों बाद इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली-यूपी में वही इतिहास सिखों के ख़िलाफ़ दोहराया गया. मजाल तो है कि अमेरिका में ११ सितम्बर २००१ को ३००० लोगों की नृशंस हत्या के बाद भी आम जनता किसी एक समुदाय या राष्ट्रीयता के ख़िलाफ़ क़त्ले-आम करने निकली हो. उलटा मेरे अमेरिकी हितैषियों ने बार बार यह पूछा कि कभी मेरे साथ कहीं किसी तरह का भेदभाव तो नहीं हुआ. जनता जागरूक थी और प्रशासन मुस्तैद था तो दंगा और आगज़नी कैसे होती?
अहिंसा परमो धर्मः सर्वप्राणभृतां वरः  (महाभारत - आदिपर्व ११।१३)
कई बरस पहले की बात है. मेरी नन्ही सी बच्ची भारत वापस बसने की बात पर सहम सी जाती थी. मैंने कई तरह से यह जानने की कोशिश की कि आख़िर भारत में ऐसा क्या है जिसने एक छोटे से बच्चे के मन पर इतना विपरीत असर किया है. बहुत कुरेदने पर पता लगा कि भारत में उसने बहुत बार सड़क पर लोगों को बच्चों पर और ग़रीबों पर, खासकर ग़रीब चाय वाले लड़के या रिक्शा वाले के साथ मारपीट करते हुए देखा. उसको हिंसा का यह आम प्रदर्शन अच्छा नहीं लगा. यह बात सुनने पर मुझे याद आया कि बरसों के अमेरिका प्रवास में मैंने एक बार भी किसी व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति पर हिंसा करते हुए नहीं देखा. अगर देखा भी तो बस एकाध भारतीय माता-पिता को ही अपने मासूमों के गाल पर थप्पड़ लगाते देखा.

भारत में बच्चे तो बच्चे, कई वयस्क(?) भी हर समस्या का हल तानाशाही और सशस्त्र आन्दोलनों में ढूंढ रहे होते हैं. बच्चों के साथ स्कूलों में कई मास्टर कसाई की तरह पेश आते हैं तो घरों में कई अभिभावक. सड़क के किनारे खुले में बनी मांस की दुकानों पर, ढाबों, ठेलों व खोखों पर भी छोटे-छोटे बच्चों को बचपन से ही हिंसा दिखाई देती है. अमेरिका में अधिकाँश लोगों के मांसाहारी होने के बावजूद भी वह हिंसा कत्लगाह से बाहर खुली सड़क तक नहीं आ सकती है. इसके उलट भारतीय बच्चे परिवार, विद्यालय, आस-पड़ोस सब जगह ताकतवर को कमज़ोर पर हाथ उठाते हुए देखते हैं और धीरे-धीरे अनजाने ही यह हिंसा उनके जीवन का एक सामान्य अंग बन जाती है.
परम धरम श्रुति विदित अहिंसा। पर निंदा सम अध न गरीसा।।
सभी जानते हैं कि अमेरिका में बन्दूक खरीदने के लिए सरकार से किसी लायसेंस की ज़रूरत नहीं होती है. यहाँ के लोग बन्दूक को व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जोड़कर देखते है. निजी हाथों में दुनिया की सबसे ज्यादा बंदूकें शायद अमेरिका में ही होंगी. मगर हत्याओं के मामले में वे अव्वल नंबर नहीं पा सके. २००७-०८ में अमेरिका में हुए १६,६९२ खून के मुकाबले शान्ति एवं अहिंसा के देश भारत में ३२,७१९ मामले दर्ज हुए. इस संख्या ने भारत को क़त्ल में विश्व में पहला स्थान दिलाया. हम सब जानते हैं कि हिन्दुस्तान में एक अपराध दर्ज होता है तो कितने बिना लिखे ही दफ़न हो जाते हैं.

ऐसा नहीं है कि इनमें सब अच्छा है और हममें सब बुरा. मगर हमें एक पल ठहरकर इतना तो सोचना ही पड़ेगा कि अहिंसा और प्रेम की धरती अपनी भारत भूमि को हिंसा से बंजर होने से रोकने के लिए हमने क्या किया? समय आ गया है जब हमें मजबूरी का नाम महात्मा गांधी जैसे आम मुहावरों की आड़ में पनप रही हिंसक वृत्तियों को रोकने के प्रयास शुरू करना पड़ेगा. आम जन के साथ साथ प्रशासन को भी जागरूक होना पड़ेगा.

[यह लेख पहले (सन् 2008 में) सृजनगाथा में प्रकाशित हो चुका है]

मेरी हालिया जापान यात्रा पर आधारित आलेख एक तीर्थयात्रा जापान में पढने के लिए कृपया यहाँ क्लिक करें

Sunday, November 9, 2008

गांधी, आइंस्टाइन और फिल्में

हमारे एक मित्र हैं। मेरे अधिकाँश मित्रों की तरह यह भी उम्र, अनुभव, ज्ञान सभी में मुझसे बड़े हैं। उन्होंने सारी दुनिया घूमी है। गांधी जी के भक्त है। मगर अंधभक्ति के सख्त ख़िलाफ़ हैं। जब उन्होंने सुना कि आइन्स्टीन ने ऐसा कुछ कहा था कि भविष्य की पीढियों को यह विश्वास करना कठिन होगा कि महात्मा गांधी जैसा व्यक्ति सचमुच हुआ था तो उन्हें अजीब सा लगा। सोचने लगे कि यह बड़े लोग भी कुछ भी कह देते हैं।

बात आयी गयी हो गयी और वे फिर से अपने काम में व्यस्त हो गए। काम के सिलसिले में एक बार उन्हें तुर्की जाना पडा। वहाँ एक पार्टी में एक अजनबी से परिचय हुआ। [बातचीत अंग्रेजी में हुई थी - मैं आगे उसका अविचल हिन्दी अनुवाद लिखने की कोशिश करता हूँ।]

नव-परिचित ने उनकी राष्ट्रीयता जाननी चाही तो उन्होंने गर्व से कहा "भारत।" उनकी आशा के विपरीत अजनबी ने कभी इस देश का नाम नहीं सुना था। उन्होंने जहाँ तक सम्भव था भारत के सभी पर्याय बताये। फिर ताजमहल और गंगा के बारे में बताया और उसके बाद मुग़ल वंश से लेकर कोहिनूर तक सभी नाम ले डाले मगर अजनबी को समझ नहीं आया कि वे किस देश के वासी हैं।

फिर उन्होंने कहा "गांधी" तो अजनबी ने पूछा, "गांधी, फ़िल्म?"

"हाँ, वही गांधी, वही भारत।" उन्होंने खुश होकर कहा।

कुछ देर में अजनबी की समझ में आ गया कि वे उस देश के वासी हैं जिसका वर्णन गांधी फ़िल्म में है। उसके बाद अजनबी ने पूछा, "फ़िल्म का गांधी सचमुच में तो कभी नहीं हो सकता? है न?"

तब मेरे मित्र को आइंस्टाइन जी याद आ गए।