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Sunday, August 2, 2020

रक्षाबंधन पर्व की बधाई

श्रावणी पूर्णिमा की बधाई
(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)


राखी रोली आ पहुँचे हैं
याद बहन की आई है।

कैसी हैं क्या करती होंगी
हिय में छवि मुस्कायी है।

है प्रेम छलकता चिट्ठी में
इतराती एक कलाई है।

अक्षत का संदेश स्नेहवत
शुभ-शुभ दिया दिखाई है।

अनुराग भरे अक्षर सारे
शब्दों में भरी मिठाई है॥

Tuesday, April 17, 2018

अक्षय तृतीया की शुभकामनाएँ

अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनूमांनश्च विभीषण:। 
कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरजीविनः॥

भारतीय परम्परा में वर्णित सात चिरंजीवियों में से एक भगवान परशुराम की गाथा अनंत विस्तार लिये हुए है। अनेक युगों तक, अनेक परतों में मानवता को प्रभावित करने वाली इस विभूति की चर्चा के लिये बहुत अधिक समय और समझ की आवश्यकता है। फिर भी अपनी सीमाओं को समझते हुए मेरा निवेदन आपके सामने है।

अदम्य जिजीविषा वाले भगवान परशुराम जैसे महानायक संसार में विरले ही हैं। गंगा-अवतरण की प्रसिद्धि वाले भागीरथ की ही तरह भगवान परशुराम द्वारा रामगंगा नदी और ब्रह्मपुत्र महानद के अवतरण जैसे असम्भव कार्य सिद्ध किये गये हैं। ब्रह्मकुण्ड (परशुराम कुण्ड) और लौहकुन्ड (प्रभु कुठार) पर हिमालय को काटकर ब्रह्मपुत्र जैसे उग्र महानद को भारत की ओर मोड़ने का असम्भव कार्य परशुराम जी द्वारा सम्भव हुआ और इसीलिये इस दुर्जेय महानद को ब्रह्मपुत्र नाम मिला है। गंगा की सहयोगी नदी रामगंगा को वे अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा से धरा पर लाये थे। इसके नाम में आया राम, उन्हीं का नाम है।

शिव का धनुष तोड़ने वाले रघुवंशी राम को वह वैसा ही अकेला दूसरा धनुष देकर उनकी वास्तविकता की जाँच करते हैं। वे ही यदुवंशी बलराम और रणछोड़ कृष्ण को कोंकण क्षेत्र में दिव्यास्त्रों का अभ्यास कराकर दुष्टों के अंत के लिये तैयार करते हैं। महाभारत के तीन दुर्जेय योद्धा उनकी शिक्षा, और उपकरणों से सुसज्जित हैं। इनमें जहाँ द्रोण जैसे अविजित गुरु हैं वहीं गांगेय भीष्म भी हैं जिनका श्राद्ध आज भी संसार भर के ब्राह्मण पूर्ण निष्ठा के साथ करते हैं।

अगस्त्य मुनि द्वारा विन्ध्याचल को झुकाने और समुद्र को सोखने जैसे कार्यों के समानांतर, परशुप्रयोग द्वारा पूरे पश्चिमीघाट के परशुरामक्षेत्र के दुर्गम क्षेत्र को मानव-निवास योग्य बनाने जैसे अद्वितीय कार्यों का श्रेय भगवान परशुराम को ही जाता है। परशुराम ने परशु (कुल्हाड़ी) का प्रयोग करके जंगलों को मानव बस्तियों में बदला। मान्यता है कि भारत के अधिकांश ग्राम परशुराम जी द्वारा ही स्थापित हैं। राज्य के दमन को समाप्त करके जनतांत्रिक ग्राम-व्यवस्था के उदय की सोच उन्हीं की दिखती है। उनके इसी पुण्यकार्य के सम्मान में भारत के अनेक ग्रामों के बाहर ब्रह्मदेव का स्थान पूजने की परम्परा है। यह भी मान्यता है कि परशुराम ने ही पहली बार पश्चिमी घाट की कुछ जातियों को सुसंस्कृत करके उन्हें सभ्य समाज में स्वीकृति दिलाई थी। कोंकण क्षेत्र का विशाल सह्याद्रि वन क्षेत्र उनके वृक्षारोपण द्वारा लगाया हुआ है। कर्नाटक के सात मुक्ति स्थल और केरल के 108 मंदिर उनके द्वारा स्थापित माने जाते हैं। साम्यवादी केरल में परशुराम एक्सप्रेस का चलना किसी आश्चर्य से कम नहीं है।

संसार की सभी समरकलाओं की माता कलरिपयट्टु के प्रथम गुरु भगवान परशुराम की महिमा अनंत है। सामान्य भारतीय मान्यताओं के अनुसार वे दशावतारों में से एक हैं। उनकी महानता किसी भी संदेह से परे है। लेकिन इन सब बातों से आगे, भगवान परशुराम के जन्मदिन वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय दिवस के रूप में मनाकर यह मानना कि उस दिन किये सत्कार्य अक्षय फल देने वाले हैं, एक कृतज्ञ राष्ट्र द्वारा अपने प्रथम क्रांतिकारी के सम्मान का अनोखा उदाहरण है।

जूडो, कराते, तायक्वांडो, ताई-ची आदि कलाएँ सीखने वाले अनेक भारतीयों ने कलरिपयट्टु का नाम भी नहीं सुना हो, तो आश्चर्य नहीं। भगवान् परशुराम को कलरि (समरकला प्रशिक्षण शाला/केंद्र) का आदिगुरू मानने वाले केरल के नायर समुदाय ने अभी भी इस कला को सम्भाला हुआ है।

बौद्ध भिक्षुओं ने जब भारत के उत्तर और पूर्व के सुदूर देशों में जाना आरंभ किया तो वहाँ के हिंसक प्राणियों के सामने इन अहिंसकों का जीवित बचना असंभव सा था और तब उन्होंने परशुराम-प्रदत्त समर-कलाओं को न केवल अपनाया बल्कि वे जहाँ-जहाँ गए, वहाँ स्थानीय सहयोग से उनका विकास भी किया। और इस तरह कलरिपयट्टु ने आगे चलकर कुंग-फू से लेकर जू-जित्सू तक विभिन्न कलाओं को जन्म दिया। इन दुर्गम देशों में बुद्ध का सन्देश पहुँचाने वाले मुनिगण परशुराम की सामरिक कलाओं की बदौलत ही जीवित, और स्वस्थ रहे, और अपने उद्देश्य में सफल भी हुये।

कलरि के साधक निहत्थे युद्ध के साथ-साथ लाठी, तलवार, गदा और कटार उरमि की कला में भी निपुण होते हैं। उरमि इस्पात की पत्ती से इस प्रकार बनी होती है कि उसे धोती के ऊपर कमर-पट्टे (belt) की तरह बाँधा जा सकता है। कई लोगों को यह सुनकर आश्चर्य होता है कि लक्ष्मण जी ने विद्युत्जिह्व दुष्टबुद्धि नामक असुर की पत्नी श्रीमती मीनाक्षी उर्फ़ शूर्पनखा के नाक कान एक ही बार में कैसे काट लिए। लचकदार कटारी उरमि से यह संभव है।

भारतीय संस्कृति आशा और विश्वास की संस्कृति है। भगवान के विश्वरूप, सभी प्राणियों के वैश्विक परिवार, आदि जैसी धारणाएँ तो हैं ही, हमें संसार में व्याप्त बुराइयों की जानकारी देते हुए साहसपूर्वक उनका सामना करने के निर्देश और सफल उदाहरण भी हमारे सामने हैं। तानाशाह हिरण्यकशिपु द्वारा अपने ही पुत्र, भक्त प्रह्लाद की हत्या के प्रयास हों, या यदुराज कंस द्वारा अपने भांजे भगवान कृष्ण को नष्ट करने की कामना जैसी दुर्भावनाएँ, सबका सुखद अंत हुआ है। और ऐसे सभी अवसर हमारे लिये प्रेरणादायक पर्व बनकर सामने आये हैं। आश्चर्य नहीं कि भारतीय स्वाधीनता संग्राम में श्रीमद्भग्वद्गीता और रामचरितमानस जैसी कृतियों ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं, प्रभुता पाय काहि मद नाहीं॥

रामचरितमानस में वर्णित उपरोक्त वचन बल के मद को स्पष्ट कर रहा है। सत्ताधारियों का अहंकार में पागल हो जाना एक स्वाभाविक सी प्रक्रिया लगती है। यद्यपि, इस विषय में मेरा व्यक्तिगत मत तनिक हटकर है। मुझे लगता है कि किसी निर्बल खलनायक के पास जब शक्ति आ जाती है तब उसकी बुराई का प्रभावक्षेत्र बढ़ जाता है और इसलिये हमें यह भ्रम होता है कि बल ने उसे बुरा बना दिया, जबकि वह बुरा पहले से ही था। कारण इन दोनों में से जो भी हो, इन परिस्थितियों में बुराई का सामना करना अवश्यंभावी हो जाता है। ‘असतो मा सद्गमय’ तथा ‘सत्यमेव जयते’ जैसे बोधवाक्यों से निर्मल हुए भारतीय जनमानस के सामने अन्याय के विरोध के लिये कोई दुविधा नहीं है। खल कितना भी सशक्त हो, हम कितने भी सामान्य और भंगुर हों - रसरी आवत जात ते, सिल पर परत निसान।

भगवान परशुराम की बात को आगे ले जाने से पहले एक दृष्टि यदि 1857 के स्वाधीनता संग्राम पर डालें तो ध्यान आयेगा कि जिस मुग़ल साम्राज्य के आगे बड़े-बड़े भारतीय वीर ध्वस्त हो चुके थे और क्रूर अपराधियों के सबसे बड़े जिस गिरोह, ईस्ट इंडिया कम्पनी का सूर्य कभी अस्त नहीं होता था, उन दोनों का अंत एक सिपाही मंगल पाण्डेय की गोली से हो गया। कालचक्र को कुछ और पीछे घुमाएँ, तो वानर-भालुओं की सहायता से भीमकाय नरभक्षी राक्षसों को धूल-धूसरित करते मर्यादा पुरुषोत्तम राम की लंकाविजय याद आती है। इन दोनों कालों के बीच किसी स्थान पर गुरु गोविंद सिंह का ख्यात कथन, ‘चिड़ियन से मैं बाज़ तुड़ाऊँ’ याद आयेगा। और अगर उन्हें ध्यान में रखते हुए सनातन परम्परा में और पीछे जायें तो प्रथम नृसिंह भगवान से लेकर आज तक अनवरत जारी ‘सिंह’ परम्परा पर ध्यान जाता है।

लम्बे समय से क्षत्रिय जाति समाज की रक्षा को अपना कर्तव्य समझकर जीती रही है। वर्णाश्रम व्यवस्था की स्थापना के बाद का एक लम्बा काल उन्नति और विकास का रहा है। लेकिन इस स्वर्णिम युग से पहले के संधिकाल से भी पहले (दुर्भाग्य से, बाद में भी) बहुत कुछ हुआ है। सत्ताधारियों ने भरपूर बेशर्मी से अनेक कुकृत्य किये हैं, निर्बल को सताया है। समुद्र-मंथन से पहले के हालाहल के बारे में ग्रंथों में आवश्यक जानकारी है। लेकिन उपलब्ध जानकारी के आधार पर सटीक निष्कर्ष निकालने की प्रक्रिया में जितने बंधनों की आवश्यकता है, उनमें कमी रही है। इसके लिये जिस वैश्विक दृष्टि की, जिस ज्ञान-विस्तार की आवश्यकता है, उसके समन्वय में हम छोटे पड़े हैं। अनंता वै वेदा की परिकल्पना को ध्यान में रखते हुए ज्ञान को तथाकथित ‘आधुनिक’ और ‘प्राचीन’, ‘भारतीय’ और ‘विदेशी’, या मेरे-तेरे जैसे खांचों में बाँटकर हमने पहले ही अपना बहुत अहित किया है। समन्वयी दृष्टि रखने वाले हमारे पूर्वज भारतीय उपमहाद्वीप से कहीं बड़े भूखण्ड को तब सभ्य कर चुके थे, जब अधिकांश संसार लगभग पशुवत था। फिर आज हम अपने-अपने पाकिस्तान बनाने में क्यों लगे हैं, इस महत्वपूर्ण प्रश्न को पाठकों के विचारार्थ छोड़ते हुए मैं भगवान परशुराम के विषय पर वापस आता हूँ।

अग्रत: चतुरो वेदा: पृष्‍ठत: सशरं धनु:, इदं ब्राह्मं इदं क्षात्रं शापादपि शरादपि।

भगवान परशुराम के बारे में कहे गये उपरोक्त श्लोक में उन्हें धनुष-बाणधारी, चारों वेदों के ज्ञाता, शाप और शर दोनों से ही दुष्टों का नाश करने वाले बताते हुए, ब्राह्मण और क्षत्रिय, दोनों के तेज से युक्त बताया गया है। बात सही है, उनके पिता ब्राह्मण हैं तो माँ क्षत्राणी हैं। भगवान परशुराम समस्त मानवता के अपने तो हैं ही वे क्षत्रियों के परिजन भी हैं।

परशुराम जी के वंश की बात विचारणीय है। विश्वामित्र के भांजे परशुराम का मातृवंश क्षत्रिय है। अत्याचार के विरुद्ध उनके संघर्ष को ब्राह्मण बनाम क्षत्रिय का रूप देने वालों की नीयत पर शंका जायज़ है। क्षत्राणी रेणुका माँ के इस वीर ब्रह्मपुत्र को किसी एक जाति तक सीमित करना दुखद ही नहीं एक प्रकार की कृतघ्नता है। जब हम अपनी व्यक्तिगत विचारधारा या सोच को अपने देश, परिवेश, परम्परा, या राष्ट्रनायकों पर थोपने लगते हैं तो हम एक नैतिक अपराध कर रहे होते हैं। हम खुद भी इससे बचें और दूसरों को भी टोकें तो बेहतर होगा।

यद्यपि आजकल विभिन्न गोत्रों, क्षेत्रों, व उपजातियों के कई ब्राह्मणों द्वारा अपने को किसी अन्य ऋषि की तुलना में सीधे भगवान परशुराम से जोड़ने की प्रवृत्ति देखने में आ रही है, जिसके अपने तर्कसंगत कारण हैं, तो भी ब्राह्मणों के बहुमत के लिये समस्त ऋषिगण, सभी अवतार एवम् अन्य सभी सिद्धपुरुष सम्माननीय हैं। एक सामान्य ब्राह्मण के लिये ‘परशुराम मेरे और रघुवंशी राम तेरे’ जैसे भेद के लिये कोई स्थान नहीं है, न ही किसी अन्य व्यक्ति के लिये होना चाहिये। यह अकाट्य तथ्य है कि संसार भर की पितृकुल और मातृकुल जैसी परम्पराओं के विपरीत ब्राह्मण वर्ण का विकास गुरुकुल परम्परा से हुआ है और आनुवंशिक रूप से वे भारत के किसी भी अन्य पंथ, जाति, वर्ण, या समुदाय से अधिक असम और वैविध्यपूर्ण हैं। बात चली है तो यह भी याद दिलाता चलूँ कि ब्राहमणों में एकता के अभाव से दुखी होने वाले व्यक्ति ब्राह्मणत्व के इस मूल वैचारिक स्वरूप को ही नहीं समझते हैं कि ब्राह्मण एक जाति नहीं, एक विचार है। जाति के नाम पर सही-ग़लत का विचार छोड़कर एकमत हो जाने की बात करने वाले की असलियत ठीक वैसे ही पहचानी जा सकती है जैसे भगवान परशुराम ने अपना रुधिर अपने गुरु के पवित्र मुख पर गिरने देने वाले कर्ण द्वारा स्वयं को ब्राह्मण बताने के असत्य को पहचाना था।

जब दूसरों से यत्नपूर्वक छिपाकर रखे गये अपने-अपने गुप्त ज्ञान के आधार पर कबीले सशक्त हो रहे थे और अन्य कबीलों या समुदायों की तुलना में अपने समूह की उन्नति के लिये तथाकथित मालिकाना ज्ञान (प्रोप्राइटरी नॉलेज) को छिपाकर रखने की प्रवृत्ति का बोलबाला था, उस काल में शक्तिशाली कबीलों का विरोध सहते हुए, मारे जाकर भी, गुरुकुल बनाकर, ग्रंथ लिखकर, घर-घर जाकर उनका वाचन करके, जनहित में ज्ञान-विज्ञान का प्रसार करते हुए सर्वस्व त्यागकर संसार नापना जिनके बस का था, वे ही ब्राह्मण थे। जनहित, परमार्थ, और ज्ञान-प्रसार की इस दैवी प्रवृत्ति और वृत्ति के कारण ही वे भूसुर थे, पूज्य थे। यह एक पैकेज्ड डील है, इसे टुकड़ों में नहीं बचाया जा सकता। बचाने की आवश्यकता क्या, कितनी, और किसे है, ये अलग प्रश्न हैं, जिनपर विस्तार से अन्यत्र चर्चा की जा सकती है।

श्रमण परम्पराओं से अलग, ब्राह्मण गुरुकुलों में पलती कामधेनु का विषय भारतीय परम्परा के उन रहस्यों में से है जिनके बारे में आज भी बहुत से भ्रम उपस्थित हैं। मेरी समझ में एक राजा की संतति/प्रजारूप स्थापित हो रहे बाहुबली कुनबों और कबीलों की राजेश्वरवादी, कठोर अनुशासन-केंद्रित और सामान्यतः दमनकारी परम्पराओं के विपरीत ऋषि समुदाय एक स्वतंत्र और आत्मनिर्भर ‘कामधेनु’ व्यवस्था विकसित करने में लगा हुआ था जो गुरुकुल, ज्ञान, और व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधारित थी और अपने परिपक्व रूप में मानवमात्र की सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में सक्षम थी। गौ और कृषि निश्चित रूप से इस परम्परा के मूल में थे और यह बाद में व्यवस्थित हुई ग्रामीण-गोपालक सनातन परम्परा का बीजरूप थी। इस अहिंसक और शांत व्यवस्था को अनेक सशस्त्र विरोधों का सामना करना पड़ा लेकिन अंततः यही इस देश की आज तक जारी मूलभूत भारतीय पारम्परिक विशेषताओं की जननी है। बेशक, बाद में इन दोनों प्रणालियों के विलय के कारण राजवंशों के बीच गणराज्य, मंत्रिमण्डल, वर्णाश्रम आदि व्यवस्थाओं के साथ-साथ राजकुल और गुरुकुल के समन्वय और जनसमुदाय की समग्र उन्नति का स्वर्णकाल आया।

लेकिन भारतीय संस्कृति के स्वर्णकाल से पहले का समय संघर्ष का था। ऋषि जमदग्नि की हत्या से बहुत पहले ही ऋषियों पर अनाचार होने लगे थे। परशुराम की गर्भवती दादी पुलोमा को अपहृत कर इतना सताया गया था कि ऋषि च्यवन का समय-पूर्व प्रसव हुआ। इसी वंश के शुक्राचार्य के शिष्य कच को मारकर शुक्राचार्य को ही खिला देने जैसे कृत्य सत्ताधीशों और उनके गिरोहों द्वारा सामान्य होते जा रहे थे। सत्ता के मद में डूबे शासकों के निरंतर चल रहे अनाचार को रोकने के लिये भगवान परशुराम को शासकवर्ग के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह के लिये खड़े होना पड़ा था। सहस्रबाहु द्वारा ऋषि जमदग्नि की हत्या इसका निमित्त बनी।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ, ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि॥ (गीता 2/38)

सुख-दुःख, लाभ-हानि, जय-पराजय की आकांक्षा के बिना किया गया युद्ध पापहीन है। भगवान परशुराम का संघर्ष सम्पत्ति, राज्य, कामधेनु, या किसी अन्य सांसारिक कामना के लिये नहीं था। सत्यनिष्ठा के लिये सहस्रबाहु को जीतने के बाद उन्होंने, कुछ समय तक फिर-फिर लड़ने आते आतताइयों को अनेक बार पराजित किया। धरा पर शांति स्थापित करने के बाद उन्होंने हिंसा का प्रायश्चित करके जीती हुई समस्त भूमि दान करके स्वयं ही महेंद्र पर्वत पर देश निकाला लिया और समस्त राज्य कश्यप ऋषि के संरक्षण में विभिन्न क्षत्रिय कुलों को दिये। इस कृत्य की समता भगवान् राम द्वारा श्रीलंका जीतने के बावजूद विभीषण का राजतिलक करने में मिलती है। परशुराम द्वारा मारे गए राजपुरुषों के स्त्री-बच्चों के पालन-पोषण और समुचित शिक्षा की व्यवस्था विभिन्न आश्रमों में की गयी और इन बाल-क्षत्रियों ने ही बड़े होकर अपने-अपने राज्य फिर से सम्भाले।

वाल्मीकि रामायण में भगवान् परशुराम श्रीरामचन्‍द्र से वार्ता करने के बाद विष्‍णु के धनुष पर प्रत्‍यंचा चढा कर संदेह निवारण का आग्रह करते हैं। शंका समाधान हो जाने पर विष्‍णु का धनुष राम को सौंप कर तपस्‍या हेतु चले जाते हैं। (इन तीन श्लोकों का सुन्दर हिन्दी अनुवाद श्री आनंद पाण्डेय का)

वधम् अप्रतिरूपं तु पितु: श्रुत्‍वा सुदारुणम्, क्षत्रम् उत्‍सादयं रोषात् जातं जातम् अनेकश: (1-75-24)

अर्थ: पिता के अत्‍यन्‍त भयानक वध को, जो कि उनके योग्‍य नहीं था, सुनकर मैने बारंबार उत्‍पन्‍न हुए क्षत्रियों का अनेक बार रोषपूर्वक संहार किया।

पृथिवीम् च अखिलां प्राप्‍य कश्‍यपाय महात्‍मने, यज्ञस्‍य अन्‍ते अददं राम दक्षिणां पुण्‍यकर्मणे (1-75-25)

अर्थ: हे राम। फिर सम्‍पूर्ण पृथिवी को जीतकर मैंने (एक यज्ञ किया) यज्ञ की समाप्ति पर पुण्‍यकर्मा महात्‍मा कश्‍यप को दक्षिणारूप में सारी पृथिवी का दान कर दिया।

दत्‍वा महेन्‍द्रनिलय: तप: बलसमन्वित:, श्रुत्‍वा तु धनुष: भेदं तत: अहं द्रुतम् आगत:।।1-75-26॥

अर्थ: (पृथ्‍वी को) देकर मैंने महेन्द्रपर्वत को निवासस्‍थान बनाया, वहाँ (तपस्‍या करके) तपबल से युक्‍त हुआ। धनुष को टूटा हुआ सुनकर वहाँ से मैं शीघ्रता से आया हूँ।

भृगुवंशी परशुराम ऋग्वेद, रामायण, महाभारत और विभिन्न पुराणों में एक साथ वर्णित हुए सीमित व्यक्तित्वों में से एक हैं। ऋग्वेद के दस आप्रीसूक्तों में से एक 10.110 उनका और उनके पिता जमदग्नि का संयुक्त है जिसमें वे  राम जामदग्नय के नाम से वर्णित है।


आप्रीसूक्त
ऋषि
गोत्र
1.13
मेधातिथि कण्व
कण्व
1.142
दीर्घतमा आंगिरस
आंगिरस
1.188
अगस्त्य मैत्रवरुणि
आगस्त्य
2.3
गृत्समद शौनहोत्र
शौनक
3.4
विश्वामित्र गाथिन
कौशिक
5.5
वसुश्रुत आत्रेय
आत्रेय
7.2
वसिष्ठ मैत्रवरुणि
वासिष्ठ
9.5
असित / देवल काश्यप
कश्यप
10.70
सुमित्रा वाध्र्यश्व
भरत
10.110
जमदग्नि भार्गव तथा राम जामदग्नय
भार्गव

ऋग्वेद – सूक्त 10.110 का वाचन, वैदिक हैरिटेज के सौजन्य से 
http://vedicheritage.gov.in/samhitas/rigveda/shakala-samhita/rigveda-shakala-samhita-mandal-10-sukta-110/

११ जमदग्निर्भार्गवः, जामदग्न्यो रामो वा। आप्रीसूक्तं = (१ इध्मः समिद्धोऽग्निर्वा, २ तनूनपात् , ३ इळ:, ४ बर्हिः, ५ देवीर्द्वारः, ६ उषासानक्ता, ७ दैव्यौ होतारौ प्रचेतसौ, ८ त्रिस्रो देव्यः सरस्वतीळाभारत्यः, ९ त्वष्टा, १० वनस्पतिः, ११ स्वाहाकृतयः)। त्रिष्टुप्।

समि॑द्धो अ॒द्य मनु॑षो दुरो॒णे दे॒वो दे॒वान्य॑जसि जातवेदः।
आ च॒ वह॑ मित्रमहश्चिकि॒त्वान्त्वं दू॒तः क॒विर॑सि॒ प्रचे॑ताः॥1॥

तनू॑नपात्प॒थ ऋ॒तस्य॒ याना॒न्मध्वा॑ सम॒ञ्जन्त्स्व॑दया सुजिह्व।
मन्मा॑नि धी॒भिरु॒त य॒ज्ञमृ॒न्धन्दे॑व॒त्रा च॑ कृणुह्यध्व॒रं न॑:॥2॥

आ॒जुह्वा॑न॒ ईड्यो॒ वन्द्य॒श्चा ऽऽया॑ह्यग्ने॒ वसु॑भिः स॒जोषा॑:।
त्वं दे॒वाना॑मसि यह्व॒ होता॒ स ए॑नान्यक्षीषि॒तो यजी॑यान्॥3॥

प्रा॒चीनं॑ ब॒र्हिः प्र॒दिशा॑ पृथि॒व्या वस्तो॑र॒स्या वृ॑ज्यत॒र अग्रे॒ अह्ना॑म्।
व्यु॑ प्रथते वित॒रं वरी॑यो दे॒वेभ्यो॒ अदि॑तये स्यो॒नम्॥4॥

व्यच॑स्वतीरुर्वि॒या वि श्र॑यन्तां॒ पति॑भ्यो॒ न जन॑य॒: शुम्भ॑मानाः।
देवी॑र्द्वारो बृहतीर्विश्वमिन्वा दे॒वेभ्यो॑ भवत सुप्राय॒णाः॥5॥

आ सु॒ष्वय॑न्ती यज॒ते उपा॑के उ॒षासा॒नक्ता॑ सदतां॒ नि योनौ॑।
दि॒व्ये योष॑णे बृह॒ती सु॑रु॒क्मे अधि॒ श्रियं॑ शुक्र॒पिशं॒ दधा॑ने॥6॥

दैव्या॒ होता॑रा प्रथ॒मा सु॒वाचा॒ मिमा॑ना य॒ज्ञं मनु॑षो॒ यज॑ध्यै।
प्र॒चो॒दय॑न्ता वि॒दथे॑षु का॒रू प्रा॒चीनं॒ ज्योति॑: प्र॒दिशा॑ दि॒शन्ता॑॥7॥

आ नो॑ य॒ज्ञं भार॑ती॒ तूय॑मे॒त्विळा॑ मनु॒ष्वदि॒ह चे॒तय॑न्ती।
ति॒स्रो दे॒वीर्ब॒र्हिरेदं स्यो॒नं सर॑स्वती॒ स्वप॑सः सदन्तु॥8॥

य इ॒मे द्यावा॑पृथि॒वी जनि॑त्री रू॒पैरपिं॑श॒द्भुव॑नानि॒ विश्वा॑।
तम॒द्य हो॑तरिषि॒तो यजी॑यान्दे॒वं त्वष्टा॑रमि॒ह य॑क्षि वि॒द्वान्॥9॥

उ॒पाव॑सृज॒ त्मन्या॑ सम॒ञ्जन्दे॒वानां॒ पाथ॑ ऋतु॒था ह॒वींषि॑।
वन॒स्पति॑: शमि॒ता दे॒वो अ॒ग्निः स्वद॑न्तु ह॒व्यं मधु॑ना घृ॒तेन॑॥10॥

स॒द्यो जा॒तो व्य॑मिमीत य॒ज्ञम॒ग्निर्दे॒वाना॑मभवत्पुरो॒गाः।
अ॒स्य होतु॑: प्र॒दिश्यृ॒तस्य॑ वा॒चि स्वाहा॑कृतं ह॒विर॑दन्तु दे॒वाः॥11॥


और अब ...

परशुराम स्तुति

कुलाचला यस्य महीं द्विजेभ्यः प्रयच्छतः सोमदृषत्त्वमापुः।
बभूवुरुत्सर्गजलं समुद्राः स रैणुकेयः श्रियमातनीतु॥।1॥

नाशिष्यः किमभूद्भवः किपभवन्नापुत्रिणी रेणुका
नाभूद्विश्वमकार्मुकं किमिति यः प्रीणातु रामत्रपा।
विप्राणां प्रतिमंदिरं मणिगणोन्मिश्राणि दण्डाहतेर्नांब्धीनो
स मया यमोऽर्पि महिषेणाम्भांसि नोद्वाहितः॥2॥

पायाद्वो जमदग्निवंश तिलको वीरव्रतालंकृतो
रामो नाम मुनीश्वरो नृपवधे भास्वत्कुठारायुधः।
येनाशेषहताहिताङरुधिरैः सन्तर्पिताः पूर्वजा
भक्त्या चाश्वमखे समुद्रवसना भूर्हन्तकारीकृता॥3॥

द्वारे कल्पतरुं गृहे सुरगवीं चिन्तामणीनंगदे पीयूषं
सरसीषु विप्रवदने विद्याश्चस्रो दश॥
एव कर्तुमयं तपस्यति भृगोर्वंशावतंसो मुनिः
पायाद्वोऽखिलराजकक्षयकरो भूदेवभूषामणिः॥4॥

॥ इति परशुराम स्तुतिः॥

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* बुद्ध हैं क्योंकि भगवान परशुराम हैं
* परशुराम स्तवन
* अक्षय-तृतीया - भगवान् परशुराम की जय!
* मटामर गाँव में परशुराम पर्वत
* अरुणाचल प्रदेश का जिला - लोहित

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Monday, May 30, 2016

दीवाली का पारितोषिक

गर्मियों के दिनों की शाम को पिट्सबर्ग में लॉन में चमकते जुगनू, जम्मू में बिताये मेरे बचपन की याद दिलाते हैं।  बचपन वाकई बहुत खूबसूरत अनुभव है लेकिन उसकी भी अपनी समस्यायें हैं। खासकर उन बच्चों के लिये जिन्हें बचपन में एक अपरिचित भाषा-संस्कृति का सामना करना पड़े। बरेली से जम्मू पहुँचने पर कुछ ऐसी ही समस्या मेरे साथ पेश आई।

पूरब-पश्चिम रातोंरात जब मगरिब-मशरिक़ हो जाएँ और गुणा-भाग ज़रब-तकसीम। न कोई सहपाठी आपकी भाषा समझे और न ही आप अपने सहपाठियों, यहाँ तक कि अध्यापकों के निर्देश समझ पाएँ तो ज़रा सोचिए आठ साल के एक मासूम छात्र को कितनी कठिनाई का सामना करना पड़ा होगा। बस मेरा यही हाल था जम्मू के विद्यापीठ में।

कला की शिक्षिका की मुझसे क्या दुश्मनी थी यह तो अब याद नहीं लेकिन इतना अभी भी याद है कि वे कक्षा में
आते ही मुझे बाहर निकाल देती थीं। आश्चर्य नहीं कि कला प्रतियोगिता में जब अन्य बच्चे ग्रामीण दृश्यावली से
लेकर साड़ी का किनारा तक बहुत कुछ बना रहे थे, मैंने मनुष्य के पाचनतंत्र का चित्रण किया था।

गणित के अलावा अङ्ग्रेज़ी भी एक भयंकर विषय था। टीचर जी जब अङ्ग्रेज़ी को डोगरी प्रभाव वाली उर्दू में पढ़ाते हुए “पीपल काल्ड हिम फादर ऑफ दी नेशन” बोलते थे तो यकीन मानिए गांधीजी नहीं, बरेली वाले घर के दरवाजे पर लगा पीपल ही याद आता था।

जम्मू का रघुनाथ मंदिर, सन् 1928 में
ऐसे में हिन्दी की अध्यापिका का प्रिय छात्र बन पाना बड़ा सहारा था। उनकी कक्षा में कभी “कन्न फड़” का आदेश नहीं मिला जिसका अर्थ कान पकड़ना नहीं बल्कि मुर्गा बनना होता था। उन्हीं ने विद्यापीठ के वार्षिकोत्सव में “वीर बालक” नाटक करने का अवसर दिया।

घर स्कूल से काफी दूर था। सुबह को सीआरपी की स्कूल बस सब बच्चों को शहर लाकर 'अंकल जी की दुकान' पर छोड़ देती थी। जहाँ से सब अपने-अपने स्कूल पैदल चले जाते थे। विद्यापीठ के लिए एक पहाड़ी पर स्थित हाईकोर्ट परिसर से होकर जाना पड़ता था जो एक भव्य महल का भाग था।

स्कूल के पीछे पहाड़ी के छोर से बीसियों फीट नीचे बहती विराट तवी नदी को देखना एक अद्वितीय अनुभव था। नदी को देखने पर जम्मू के अपने पिछले प्रवास के दौरान रणवीर नहर में बहे लड़कों की कहानियाँ आँखों के सामने ऐसे गुजरती थीं, मानो ताज़ा घटना हो। शरीर में एक सिहरन सी दौड़ जाती थी, लेकिन फिर भी इंटरवल में पहाड़ी के छोर पर आकर तवी दर्शन करना मेरा रोज़ का रूटीन बन गया था।

दशहरा-दीवाली के सम्मिलित समारोह जम्मू में बड़ी धूमधाम से मनाए जाते थे। जैसे आजकल बहुत से विद्यालयों में क्रिसमस की छुट्टियाँ होती हैं, वहाँ लगभग दो सप्ताह का दीपावली अवकाश होता था। छुट्टी से एक दिन पहले प्राइमरी, मिडल और हाई स्कूल के सभी छात्र-छात्राओं की सम्मिलित सभा बुलाई गई। दो शब्द बोलने के बाद प्रधानाचार्या ने छात्रों को दशहरा और दीवाली के पर्वों पर कुछ बोलने के लिए मंच पर आमंत्रित किया। जब काफी देर तक कोई आगे नहीं आया तो मैं उठा और बड़े-बड़े बच्चों की उस भीड़ में से चलकर मंच तक पहुँचा। मैंने बोलना शुरू किया तो राम-वनवास से लेकर अयोध्या वापसी में नगरवासियों द्वारा दीपों की पंक्तियाँ बनाकर उल्लास मनाने तक जितना कुछ पता था, जम्मू के लिए दुर्लभ शुद्ध हिन्दी में सब कुछ सुना दिया।

बात पूरी करके जब मैं चुपा तो महसूस किया कि हॉल में पूर्ण निस्तब्धता थी। कुछ क्षणों तक किसी को विश्वास ही नहीं हुआ कि वह छोटा सा लड़का इतना कुछ बोल गया था। अचानक शुरू हुई तालियों की गड़गड़ाहट के बीच प्रधानाचार्या ने मुझे गोद में उठाकर पाँच रुपये का नोट पुरस्कार में दिया। मैंने देखा कि कला की शिक्षिका के साथ-साथ गणित और अंग्रेज़ी के आध्यापकगण भी मुझे स्नेह से देख रहे थे।

तब से अब तक कितनी दीवाली मना चुका हूँ, कितने भाषण दिये हैं, कितने ही पुरस्कार मिले हैं लेकिन आज तक उतना बड़ा पारितोषिक नहीं मिला जितना वह पाँच रुपये का नोट था।

Saturday, August 30, 2014

ठेसियत की ठोसियत

मिच्छामि दुक्खड़म (मिथ्या मे दुष्कृतम)
जैसे ऋषि-मुनियों का ज़माना पुण्य करने का था वैसे आजकल का ज़माना आहत होने का है। ठेस आजकल ऐसे लगती है जैसे हमारे जमाने में दिसंबर में ठंड और जून में गर्मी लगती थी। अखबार उठाओ तो कोई न कोई आहत पड़ा है। रेडियो पर खबर सुनो तो वहाँ आहत होने की गंध बिखरी पड़ी है। टेलीविज़न ऑन करो तो वहाँ तो हर तरफ आहत लोग लाइन लगाकर खड़े हैं।

ये सब आहत टाइप के, सताये गए, असंतुष्ट प्राणी संसार के आत्मसंतुष्ट वर्ग से खासतौर से नाराज़ लगते हैं। कोई इसलिए आहत है कि जिस दिन उसका रोज़ा था उस दिन मैंने अपने घर में अपने लिए चाय क्यों बनाई। कोई इसलिए आहत है कि जब आतंकी हत्यारे के मजहब या विचारधारा के अनुसार सारे पाप जायज़ थे तो उसे क्षमादान देने के उद्देश्य से कानून में ज़रूरी बदलाव क्यों नहीं दिया गया। कोई किसी के कविता लिखने से आहत है, कोई कार्टून बनाने से, तो कोई बयान देने से। किसी को किसी की किताब प्रतिबंधित करानी है तो कोई किताब के अपमान से आहत है।

भारत से निरामिष ब्लॉग पर अब न आने वाले एक भाई साहब तो इसी बात से आहत थे कि ये पशुप्रेमी लोग मांसाहार क्यों नहीं करते। अमेरिका में कई लोग इस बात पर आहत हैं कि हर मास-किलिंग के बाद बंदूक जैसी आवश्यकता को कार जैसी अनावश्यक विलासिता की तरह नियमबद्ध करने की बात क्यों उठती है। जहाँ, धर्मातमा किस्म के लोग विधर्मियों और अधर्मियों से आहत हैं वहीं व्यवस्थाहीन देशों में आतंक और मानव तस्करी जैसे धंधे चलाने वाले गैंग, धर्मपालकों से आहत हैं क्योंकि धर्म के बचे रहते उनकी दूकानदारी वैसे ही आहत हो जाती है, जैसे जैनमुनियों के अहिंसक आचरण से किसी कसाई का धंधा।  

चित्र इन्टरनेट से साभार, मूल स्रोत अज्ञात
गरज यह है कि आप कुछ भी करें, कहीं भी करें, किसी न किसी की भावना को ठेस पहुँचने ही वाली है। लेकिन क्या कभी कोई इस ठेसियत की ठोसियत की बात भी करेगा? किसी को लगी ठेस के पीछे कोई ठोस कारण है भी या केवल भावनात्मक अपरिपक्वता है। आहत होने और आहत करने में न मानसिक परिपक्वता है, न मानवता, और न ही बुद्धिमता। आयु, अनुभव और मानसिक परिपक्वता बढ़ने के साथ-साथ हमारे विवेक का भी विकास होना चाहिए। ताकि हम तेरा-मेरा के बजाय सही-गलत के आधार पर निर्णय लें और फिजूल में आहत होने और आहत करने से बचें। कभी सोचा है कि सदा दूसरों को चोट देते रहने वाले भी खुद को ठेस लगाने के शिकवे के नीचे क्यों दबे रहते हैं? क्या रात की शिकायत के चलते सूर्योदय प्रतिबंधित किया जाना चाहिए? साथ ही यह भी याद रहे कि भावनाओं का ख्याल रखने जैसे व्यावहारिक सत्कर्म की आशा उनसे होती है जिन्हें समझदार समझा जाता है। और समझदार अक्सर निराश नहीं करते हैं। आग लगाने, भावनाएं भड़काने, आहत रहने या करने के लिए समझ की कमी एक अनिवार्य तत्व जैसा ही है

न जाने कब से ठेस लगने-लगाने पर बात करना चाहता था लेकिन संशय यही था कि इससे भी किसी न किसी की भावना आहत न हो जाये। लेकिन आज तो पर्युषण पर्व का आरंभ है सो ठोस-अठोस सभी ठेसाकुल सज्जनों, सज्जनियों से क्षमा मांगने के इस शुभ अवसर का लाभ उठाते हुए इस आलेख को हमारी ओर से हमारे सभी आहतों के प्रति आधिकारिक क्षमायाचना माना जाय। हमारी इस क्षमा से आपके ठेसित होते रहने के अधिकार पर कोई आंच नहीं आएगी।
शुभकामनाएँ!
अपराधसहस्त्राणि क्रियन्ते अहर्निशं मया। दासोयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर।।
गतं पापं गतं दु:खं गतं दारिद्रयमेव च। आगता: सुख-संपत्ति पुण्योहं तव दर्शनात्।।
* संबन्धित कड़ियाँ * 

Saturday, November 2, 2013

कुबेर ऐडविड (कुबेर वैश्रवण) उत्तर के दिक्पाल

कुबेर का चित्र: विकिपीडिया के सौजन्य से
वयं यक्षाम: का मंत्र देने वाले यक्षराज कुबेर देवताओं के कोषाध्यक्ष हैं। उनकी राजधानी हिमालय क्षेत्र के अलकापुरी में स्थित है। यक्ष समुदाय जलस्रोतों और धन संपत्ति का संरक्षक है। विश्रवस्‌ ऋषि और उनकी पत्नी इळविळा के पुत्र कुबेर की पत्नी हारिति है। भारत में हर पूजा से पहले दिक्पालों की पूजा का विधान है जिसमें उत्तर के दिक्पाल होने के कारण कुबेर की पूजा भी होती है। गहन तपस्या के बाद मरुद्गणों ने उन्हें यक्षों का अध्यक्ष बनाया और पुष्पक विमान भेंट किया। तपस्या का वास्तविक अर्थ क्या है?

निधिपति कुबेर के गण यक्ष हैं जो कि संस्कृत साहित्य में मनुष्यों से अधिक शक्तिशाली, ज्ञान की परीक्षा लेते हुए, निर्मम प्राणी हैं। जैन साहित्य में इन्हें शासनदेव व शासनदेवी भी कहा गया है। महाभारत के यक्षप्रश्न की याद तो हम सब को है। कुबेर की सम्मिलित प्रजा का नाम पुण्यजन है जिसमें यक्ष तथा रक्ष दोनों ही शामिल हैं। ।

महर्षि पुलस्त्य के पुत्र महामुनि विश्रवा ने भारद्वाज जी की कन्या इळविळा का पाणिग्रहण किया। उन्हीं से कुबेर की उत्पत्ति हुई। इसलिये उनका पूरा नाम कुबेर ऐडविड और कुबेर वैश्रवण है। विश्रवा की दूसरी पत्नी, दैत्यराज माली की पुत्री कैकसी के रावण, कुंभकर्ण और विभीषण हुए जो कुबेर के सौतेले भाई थे। विश्रवा की पुत्रों में कुबेर सबसे बड़े थे। रावण ने अपनी मां और नाना से प्रेरणा पाकर कुबेर का पुष्पक विमान और उनकी स्वर्णनगरी लंकापुरी तथा समस्त संपत्ति पर कब्जा करने के हिंसक प्रयास किए।

रावण के अत्याचारों से चिंतित कुबेर ने जब अपने एक दूत को रावण के पास क्रूरता त्यागने के संदेश के साथ भेजा तो रावण ने क्रुद्ध होकर उस दूत को मार-काटकर अपने सेवक राक्षसों को खिला दिया। यह घटनाक्रम जानकर कुबेर को दुख हुआ। अंततः यक्षों और राक्षसों में युद्ध हुआ। बलवान परंतु सरल यक्ष, मायावी, नृशंस राक्षसों के आगे टिक न सके, राक्षस विजयी हुए। रावण ने माया से कुबेर को घायल करके उनका पुष्पक विमान ले लिया। कुबेर अपने पितामह पुलत्स्य के पास गये। पितामह की सलाह पर कुबेर ने गौतमी के तट पर शिवाराधना की। फलस्वरूप उन्हें 'धनपाल' की पदवी, पत्नी और पुत्र का लाभ हुआ। कुछ जनश्रुतियों के अनुसार कुबेर का एक नेत्र पार्वती के तेज से नष्ट हो गया, अत: वे एकाक्षीपिंगल भी कहलाए। तपस्थली का वह स्थल कुबेरतीर्थ और धनदतीर्थ नाम से विख्यात है। ब्रजक्षेत्र में स्थित माना जाने वाला यह तीर्थ कहाँ है?

धनार्थियों के लिए कुबेर पूजा का विशेष महत्व है। परंपरा के अनुसार लक्ष्मी जी चंचला हैं, कभी भी कृपा बरसा देती हैं। लेकिन कुबेर संसार की समस्त संपदा के रक्षक हैं। उनकी अनिच्छा होते ही धन-संपदा अपना स्थान बदल लेती है। समस्त धन के संरक्षक कुबेर की मर्जी न हो तो लक्ष्मी चली जाती हैं। दीपावली पर बहीखाता पूजन के साथ कुबेर पूजन, तुला पूजन तथा दीपमाला पूजन का भी रिवाज है। महाराज कुबेर के कुछ मंत्र:
आह्वान मंत्र: आवाहयामि देव त्वामिहायाहि कृपां कुरु। कोशं वर्धय नित्यं त्वं परिरक्ष सुरेश्वर।।
कुबेर मंत्र: ॐ कुबेराय नम:
कुबेर मंत्र: धनदाय नमस्तुभ्यं निधिपद्माधिपाय च। भगवान् त्वत्प्रसादेन धनधान्यादिसम्पद:।।
अष्टाक्षर कुबेर मंत्र: ॐ वैश्रवणाय स्वाहा।
षोडशाक्षर कुबेर मंत्र: ॐ श्रीं ॐ ह्रीं श्रीं ह्रीं क्लीं श्रीं क्लीं वित्तेश्वराय नम:
पंच्चात्रिशदक्षर कुबेर मंत्र - ॐ यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धनधान्याधिपतये धनधान्यसमृद्धिं मे देहि दापय स्वाहा।


और हाँ, भारतीय रिज़र्व बैंक के आगे कुबेर की नहीं, यक्ष और यक्षी/यक्षिणी की मूर्ति है। और हँसता हुआ चीनी लाफिंग बुद्धा भी बुद्ध नहीं बल्कि शायद एक यक्ष है। और हाँ, बाबा शोभन सरकार को शायद कुबेर पूजन की ज़रूरत है।
तमसो मा ज्योतिर्गमय
दीपावली की शुभकामनायें। आपका जीवन ज्योतिर्मय हो!

दिग्दर्शक मिलता नहीं खुद राह गढ़ने चल पड़े
सूरज नहीं चंदा नहीं कुछ दीप मिलकर जल पड़े

Friday, October 4, 2013

पितृ पक्ष - महालय

साल के ये दो सप्ताह - इस पखवाड़े में हज़ारों की संख्या में वानप्रस्थी मिशनरी पितर वापस आते थे अपने अपने बच्चों से मिलने, उनको खुश देखकर खुशी बाँटने, आशीष देने. साथ ही अपने वानप्रस्थ और संन्यास के अनुभवों से सिंचित करने। दूर-देश की अनूठी संस्कृतियों की रहस्यमयी कथाएँ सुनाने। रास्ते के हर ग्राम में सम्मानित होते थे। जो पितर ग्राम से गुज़रते वे भी और जो संसार से गुज़र चुके होते वे भी, क्योंकि मिलन की आशा तो सबको रहती थी। कितने ही पूर्वज जीवित होते हुए भी अन्यान्य कारणों से न आ पाते होंगे, कुछ जोड़ सूनी आँखें उन्हें ढूँढती रहती होंगी शायद।

साल भर चलने वाले अन्य उत्सवों में ग्रामवासी गृहस्थ और बच्चे ही उपस्थित होते थे क्योंकि 50+ वाले तो संन्यासी और वानप्रस्थी थे। सो उल्लास ही छलका पड़ता था, जबकि इस उत्सव में गाम्भीर्य का मिश्रण भी उल्लास जितना ही रहता था। समाज से वानप्रस्थ गया, संन्यास और सेवा की भावना गयी, तो पितृपक्ष का मूल तत्व - सेवा, आदर, आद्रता और उल्लास भी चला गया।

भारतीय संस्कृति में ग्रामवासियों के लिए उत्सवों की कमी नहीं थी। लेकिन वानप्रस्थों के लिए तो यही एक उत्सव था, सबसे बड़ा, पितरों का मेला। ज़ाहिर है ग्रामवासी जहाँ पितृपूजन करते थे वहीं पितृ और संतति दोनों मिलकर देवपूजन भी करते थे। विशेषकर उस देव का पूजन जो पितरों को अगले वर्ष के उत्सव में सशरीर आने से रोक सकता था। यम के विभिन्न रूपों को याद करना, जीवन की नश्वरता पर विचार करते हुए समाजसेवा की ओर कदम बढ़ाना इस पक्ष की विशेषता है। अपने पूर्वजों के साथ अन्य राष्ट्रनायकों को याद करना पितृ पक्ष का अभिन्न अंग है। मृत्यु की स्वीकृति, और उसका आदर -
मालिन आवत देखि करि, कलियाँ करीं पुकार। फूले फूले चुन लिए, काल्हि हमारी बार।। ~ कबीर

केवल अपनी वंशरेखा के पितर ही नहीं, बल्कि परिवार में निःसंतान मरे लोगों के साथ-साथ गुरु. मित्र, सास, ससुर आदि के श्राद्ध की परम्परा याद दिलाती है कि कृतज्ञता भारतीय सभ्यता के केंद्र में है। अविवाहित और निःसंतान रहे भीष्म पितामह का श्राद्ध सभी वर्णों द्वारा किया जाना भी अपने रक्त सम्बंध और जाति-वर्ण आदि से मुक्त होकर हुतात्माओं को याद करने की रीति से जोड़ता है। मैं और मेरे के भौतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर, आज और अभी के लाभ को भूलकर, हमारे और सबके, बीते हुए कल के सत्कृत्यों और उपकार को श्रद्धापूर्वक स्मरण करने का प्रतीक है श्राद्ध।

आज पितृविसर्जनी अमावस्या को अपने पूर्वजों को विदा करते समय उनके सत्कर्मों को याद करने का, उनके अधूरे छूटे सत्संकल्पों को पूरा करने का निर्णय लेने का दिन है।

क्षमा प्रार्थना
अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया। दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर।।
गतं पापं गतं दु:खं गतं दारिद्रयमेव च। आगता: सुख-संपत्ति पुण्योऽहं तव दर्शनात्।

पिण्ड विसर्जन मन्त्र
ॐ देवा गातुविदोगातुं, वित्त्वा गातुमित। मनसस्पतऽइमं देव, यज्ञ स्वाहा वाते धाः॥

पितर विसर्जन मन्त्र - तिलाक्षत छोड़ते हुए
ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः ।। सर्वे ते हृष्टमनसः, सवार्न् कामान् ददन्तु मे॥ ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः पुण्यकर्मणां ।। सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तु, तान् व्रजध्वं सुपुष्कलान ॥ इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोगयसम्पदः ।। वृद्धिः सन्तानवगर्स्य, जायतामुत्तरोत्तरा ॥

देव विसजर्न मन्त्र - पुष्पाक्षत छोड़ते हुए
ॐ यान्तु देवगणाः सर्वे, पूजामादाय मामकीम्। इष्ट कामसमृद्ध्यर्थ, पुनरागमनाय च॥

सभी को नवरात्रि पर्व पर हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएँ!

Saturday, May 11, 2013

अक्षय तृतीया की शुभकामनायें

अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं। तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया॥
उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः। तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव॥
(मदनरत्न)
सोने की ख़रीदारी ज़ोरों पर है और शादियों की तैयारी भी। क्यों न हो, साल का सबसे शुभ मुहूर्त जो है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि चिरंजीवी भगवान परशुराम का जन्मदिन है। माना जाता है कि भगवान विष्णु के नर-नारायण और हयग्रीव रूपों का अवतरण भी इसी दिन हुआ था। ऐसी मान्यता है कि आज किए गए कार्य स्थायित्व को प्राप्त होते हैं। दया, दान और अन्य सत्कार्यों को विशेष महत्व देने वाली हमारी संस्कृति में आज का दिन व्रत, तप, पूजन और दान के लिए विशिष्ट है क्योंकि वह अनंतगुणा फल देने वाला समझा जाता है। स्थायित्व और वृद्धि की कामना से आज के दिन पुण्यकार्य किए जाते हैं। प्राचीन राज्यों में शासक किसानों को नई फसल की बुवाई के लिए बीजदान करते थे। उत्तर-पश्चिम के कई क्षेत्रों में किसान इस दिन घर से खेत तक जाकर मार्ग के पशु-पक्षियों को देखकर अपनी फसलों के लिए वर्षा के शकुन पहचानते हैं। कुछ समुदायों में आज सामूहिक विवाह सम्पन्न कराने की रीति है। अनेक गाँवों में बच्चे इस दिन अपने गुड्‌डे-गुड़िया का विवाह रचाते हैं। और जो ये सब नहीं भी करते हैं, उनके लिए शादी का सबसे बड़ा मुहूर्त तो है ही दावतें खाने के लिए।
संसार में जितने बड़े आदमी हैं, उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रताप से बड़े बने और सैंकड़ों-हजारों वर्ष बाद भी उनका यशगान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ करते हैं। ब्रह्मचर्य की महिमा यदि जानना हो तो परशुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, ईसा, मेजिनी, बंदा, रामकृष्ण, दयानन्द तथा राममूर्ति की जीवनियों का अध्ययन करो। ~ अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल
जम्बूद्वीप में अक्षय तृतीया को ग्रीष्मऋतु का आधिकारिक उदघाटन भी माना जा सकता है। बद्रीनारायण धाम के कपाट अक्षय तृतीया के आगमन पर खुलते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार अक्षय तृतीया को किये गये पितृतर्पण, पिन्डदान सहित किसी भी प्रकार का दान अक्षय फलदायी होता है। श्वेत पुष्प का दान किया जा सकता है। कुछ स्थानों में 9 कुछ में 7 और कुछ में 3 प्रकार के धान्य के दान का रिवाज है। भगवान ऋषभदेव ने 400 दिन के निराहार तप के बाद ‘अक्षय तृतीया’ के दिन ही हस्तिनापुर के राजकुमार के हाथों इक्षु (ईख = गन्ना) के रस का पारायण किया था। उसी परंपरा में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ वर्षीतप का उपवास ‘अक्षय तृतीया’ को सम्पन्न होता है। तपस्वियों के सम्मान में भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है और उपहार "प्रभावना" दिये जाते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर ही हमारे राष्ट्र का नाम भारतवर्ष पड़ा। यहाँ यह दृष्टव्य है कि भगवान राम का वंश भी ईक्ष्वाकु ही कहलाता है और गन्ने और शर्करा के उत्पादन का रहस्य आज भले ही संसार भर को ज्ञात हो परंतु हजारों साल तक यह रहस्य भारत के बाहर पूर्ण अज्ञात था। (कुछ परम्पराओं में भारतवर्ष के नामकरण का श्रेय दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत को भी जाता है।)
ऋषभो मरुदेव्याश्च ऋषभात भरतो भवेत्। भरताद भारतं वर्षं, भरतात सुमतिस्त्वभूत्
ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषुगीयते। भरताय यत: पित्रा दत्तं प्रतिष्ठिता वनम
(विष्णु पुराण)
एक अक्षय तृतीया के दिन भक्त सुदामा अपने बाल सखा कृष्ण से मिलने पहुँचे थे और अपने सेवाकार्यों के लिए सम्मानित हुए थे। कथा यह भी है कि इसी दिन जब शंकराचार्य जी भिक्षा के लिए एक निर्धन दंपति के पास पहुँचे तो उस भूखे परिवार ने कई दिन बाद अपने भोजन के लिए मिले एक फल को उन्हें समर्पित कर दिया। उनकी दान प्रवृत्ति के सम्मान में आदि शंकर ने कनकधारा स्तोत्र की रचना की। यह दिन युगादि भी है और कुछ परम्पराओं में महाभारत के युद्ध का अंत और फिर कलयुग का आरंभ भी इसी दिन से माना जाता है।

राम जामदग्नेय - अमर चित्र कथा 
भारत के अनेक ग्रामों में अक्षय तृतीया के दिन ग्राम के प्रवेशद्वार पर स्थापित ब्रह्मदेव, ग्राम देवी या ग्रामदेवता के पूजन का प्रचलन था। केनरा बैंक की नौकरी के दिनों में कुछ समय सातारा जिले के शिरवळ ग्राम (तालुक खंडाळा) में कुलकर्णी काका के घर रहा था जहाँ इस दिन ग्रामदेवी अंबिका माता की वार्षिक यात्रा बड़े धूमधाम से निकली जाती है।

हिमाचल, परशुराम क्षेत्र (गोआ से केरल तक) तथा दक्षिण भारत में तो परशुराम जयंती का विशेष महत्व रहा ही है, आजकल उत्तर भारत में भगवान परशुराम की जानकारी का प्रसार हो रहा है। परशुराम जी से जुड़े मंदिरों और तीर्थस्थलों में पूजा करने का विशेष महात्म्य है। भार्गव परशुराम ने जिस प्रकार अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से एक शक्तिशाली परंतु अन्यायी साम्राज्य के घुटने टिकाकर एक नई सामाजिक व्यवस्था की नींव रखी जिसमें शस्त्र और शास्त्र एक विशिष्ट वर्ग की गुप्त शक्ति न रहकर उनका वितरण और प्रसार नवनिर्माण के लिए हुआ वह अद्वितीय क्रान्ति थी। यदुवंशी सहस्रबाहु के अहंकार का पूर्णनाश करने वाले परशुराम यदुवंशी श्रीकृष्ण को दिव्यास्त्र प्रदान कर विजयी बनाते हैं। अजेय पश्चिमी घाट के घने जंगलों को परशु के प्रयोग से मानव निवास योग्य बनाकर बस्तियाँ बसाने की बात हो या पूर्वोत्तर में अटल हिमालय की चट्टानें काटकर ब्रह्मपुत्र की दिशा बदलने की बात हो, भगवान परशुराम जनसेवा के लिए जीवन समर्पण करने का ज्वलंत उदाहरण हैं।
पृथिवीम् च अखिलां प्राप्‍य कश्‍यपाय महात्‍मने। यज्ञस्‍य अन्‍ते अददं राम दक्षिणां पुण्‍यकर्मणे ॥
दत्‍वा महेन्‍द्रनिलय: तप: बलसमन्वित:। श्रुत्‍वा तु धनुष: भेदं तत: अहं द्रुतम् आगत:।। (रामायण) 

हे राम! सम्‍पूर्ण पृथिवी को जीतकर मैने एक यज्ञ किया, जिसकी समाप्ति पर पुण्‍यकर्मा महात्‍मा कश्‍यप को दक्षिणारूप में सारी पृथिवी का दान देकर मै महेंद्रपर्वत पर रहने गया। वहाँ तपस्‍या करके तपबल से युक्‍त हुआ मैं धनुष को टूटा हुआ सुनकर वहाँ से अतिशीघ्र आया हूँ।
जिस प्रकार हिमालय काटकर गंगा को भारत की ओर मोड़ने का श्रेय भागीरथ को जाता है उसी प्रकार पहले ब्रह्मकुन्ड से, और फिर लौहकुन्ड पर हिमालय को काटकर ब्रह्मपुत्र जैसे उग्र महानद को भारत की ओर मोड़ने का श्रेय परशुराम जी को जाता है। यह भी मान्यता है कि गंगा की सहयोगी नदी रामगंगा को वे अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा से धरा पर लाये थे। ऋषभदेव का निर्वाण स्थल कैलाश पर्वत है जो कि भगवान् परशुराम की तपस्थली है। अफसोस कि भारतीयों के तिब्बत स्थित प्राचीन तीर्थस्थल तक हमारी पहुँच अब चीनियों के वीसा पर निर्भर है। भगवान परशुराम से संबन्धित बहुत से तीर्थ हिमालय क्षेत्र में हैं। विश्व की पहली समर कला के प्रणेता, निरंकुश शासकों, अत्याचारी आतंकियों, और आसुरी शक्तियों के विरोधी परम यशस्वी भगवान् परशुराम के जन्म दिन यानी अक्षय तृतीया के शुभ अवसर पर आइये तेजस्वी बनकर सदाचरण और सद्गुणों से अक्षय सत्कर्म और परोपकार करने की कामना करें।

धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजो बलं बलं। एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे॥ (रामायण)
ज्ञानबल के सामने बाहुबल बेकार है। एक ज्ञानदंड के सामने सभी अस्त्र नष्ट हो जाते हैं।

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* बुद्ध हैं क्योंकि परशुराम हैं
* परशुराम स्तुति
* परशुराम स्तवन
* भगवान परशुराम की जन्मस्थली
* जिनके हाथों ने पहाडों से गलाया दरिया ...
* क्या परशुराम क्षत्रिय विरोधी थे?
* परशुराम - विकीपीडिया
* ऋषभदेव -विकीपीडिया
* पंडितों ने लिया बाल विवाह रोकने का संकल्प
* परशुराम और राम-लक्ष्मण संवाद - ज्ञानदत्त पाण्डेय
* परशुराम-लक्ष्मण संवाद प्रसंग - कविता रावत
* ग्वालियर में तीन भगवान परशुराम मंदिर
* अरुणाचल प्रदेश का जिला - लोहित
 * बुद्ध पूर्णिमा पर परशुराम पूजा

Friday, March 8, 2013

या देवी सर्वभूतेषु ...

मातृभूमि और मातृभाषा से जुड़े रहने के उद्देश्य से केबल का भारतीय पैकेज लिया हुआ था। जो चैनल, जब खोलो तब या तो सास, ननद बहू एक दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र रचती नज़र आती थीं या कोई पीर, तांत्रिक, बाबा अपनी जादुई कृपा बरसाते दिखते थे। ज़ी के अंतर्राष्ट्रीय संस्करण पर तो हिन्दी समाचारों का भी चुनाव, प्रस्तुति, वाचन, भाषा आदि हर स्तर पर इतना बुरा हाल था कि हर समाचार कार्यक्रम के बाद रक्त का दवाब शायद बढ़ ही जाता होगा। अब ढलती उम्र में स्वास्थ्य का ध्यान रखना भी ज़रूरी है, सो न चाहते हुए भी इन अति-निम्न-स्तरीय चैनलों का पत्ता काटना ही पड़ा।

लेकिन टीवी बंद कर देने भर से दुर्घटनाएँ तो नहीं रुकतीं। समाचार बंद नहीं होते। दूसरा पक्ष यह भी है कि समाचार का मतलब मीडिया और सोशल मीडिया के परोसे विज्ञापन भर भी नहीं होता। समाचारों के व्यवसायीकरण के बाद जिन विषयों में आपकी रुचि है, जो घटना आपको उद्वेलित करती है उसके बारे में आपको पता ही नहीं लगता है जब तक कि समाचार-व्यवसायियों के लिए उस घटना की कोई बाजारू-कीमत (मार्केट वैल्यू) न हो।

न जाने कितनी ही खबरें हमारे पास आने से पहले ही अंग्रेज़ीनुमा हिन्दी में आँय-बाँय कहने वाले टीवी समाचार-निर्माताओं के पेपरवेट तले दाब दी जाती हैं। आज महिला दिवस पर इनमें से कुछ खबरों का संघर्ष स्वाभाविक है ताकि हम साल में कम से कम एक दिन यह सोचें कि हमारा देश, हमारा समाज जा किधर रहा है।

एक जोड़ा पर और असीमित आकाश
दिसंबर में दिल्ली में हुए बलात्कार और हत्याकांड ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था लेकिन देश की नारियां रोज़ ही अनेक कठिनाइयों से गुजरती हैं। कुछ तो बहादुरी से मुक़ाबला करते जान दे देती हैं, कुछ जीती हैं इस उम्मीद में कि कल आज से बेहतर होगा और कुछ ऐसे टूटती हैं कि अपनी जान खुद ही दे देती हैं। कौन बनेगा करोड़पति में आ चुकीं झारखंड की सोनाली को मुहल्ले के गुंडों की अनुचित हरकतों का विरोध करने की कीमत तेज़ाब से अपना चेहरा और दृष्टि खोकर चुकानी पड़ी थी। मामला स्पष्ट था फिर भी उनके पिता को अपना पक्ष रखने के लिए अनगिनत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। यहाँ तक कि सोनाली ने एक बार सरकार से इच्छामृत्यु की अपील भी कर डाली थी। लेकिन कई मामले सोनाली जैसे साफ नहीं होते। केरल के कुन्नूर की निवासी माँ-बेटी सुल्फजा (58) और सरीना (23) इस साल जनवरी में अजमेर स्थित ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह की गर्म खौलती विशाल कढाही 'छोटी देग' में कूद गई थीं। काफी प्रयासों के बाद भी वे दोनों केवल तीन दिन तक जीवित रहीं। परिवार में एक पिता-पुत्र भी हैं जो घटनास्थल पर नहीं थे। गरीबी, और अवसाद के अलावा इस परिवार के बारे में अधिक कुछ भी पता नहीं लगा।

बेघर बच्चों की दुर्गति की खबरें तो अक्सर पढ़ने को मिलती थीं लेकिन अब घरेलू नौकरी के नाम पर लड़कियों की तस्करी और फिर महानगरों में उनका शोषण भी सामान्य होता जा रहा लग रहा है। पिछले साल अपनी तेरह वर्षीया नौकरानी को द्वारका (दिल्ली) के घर में बाहर से बंद करके विदेशयात्रा पर चले जाने वाले डॉक्टर की बात तो आपको याद होगी ही। हरियाणा में रोहतक के बहुचर्चित अपना घर मामले में सौ से अधिक बालिकाओं के संस्थागत यौन शोषण में घर की कर्ता-धर्ता जसवंती और अन्य अनेक सरकारी-असरकारी लोगों की गँठजोड़ के आसार दिखते हैं।

नेपाल से लाई गई 12 वर्षीय घरेलू नौकरानी को आठ महीने तक प्रताड़ित करने के मामले में 42 वर्षीय फिल्म अभिनेत्री हुमा खान को दिसंबर 2012 मे सजा सुनाई गई। हुमा के सहआरोपी शमीउद्दीन शेख पर उस बालिका के साथ कई बार दुराचार करने का आरोप था लेकिन सबूतों के अभाव में शमीउद्दीन बरी हो गया।

भारत में छेड़छाड़, दहेज-हत्या, प्रताड़न जैसे अपराधों के अलावा महिलाओं की खरीद-बेच भी एक गंभीर समस्या है जिसके तार अंतर्राष्ट्रीय तस्करों, जिहादियों, आतंकवादियों के गिरोहों और भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों के धृष्ट गँठजोड़ के सहारे अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश तक फैले हुए हैं।

लेकिन यह अमानवीयता दक्षिण एशिया तक सीमित नहीं। इस अपसंस्कृति का निर्यात भारत उपमहाद्वीप के बाहर भी हो रहा है। भारतीय नारी विदेश में भी अबला बनाई जा रही है। सन 2007 में न्यूयॉर्क की पुलिस ने सुगंध का व्यापार करने वाले भारतीय मूल के करोड़पति दंपति महेंद्र मुरलीधर सभनानी और वर्षा सभनानी को अपने घर में इंडोनेशियाई मूल की दो महिलाओं को कई सालों तक गुलामों की तरह बंदी बनाकर रखने, बेगार लेने और प्रताड़ित करने के आरोप में गिरफ्तार किया था। इन महिलाओं को बात-बेबात मारा-पीटा जाता था, कभी बार-बार ठंडे पानी से नहाने को मजबूर किया गया तो कभी बहुत-सी मिर्च फाँकने पर। इन दोनों को न तो वेतन मिलता था और न ही घर से बाहर निकलने की आज़ादी थी। एक दिन एक महिला किसी तरह भागकर फटे कपड़ों में बाहर घूमती दिखी। किसी चौकन्ने नागरिक ने गड़बड़ी भाँपकर पुलिस को सूचना दी, तब सारा मामला खुला। ये महिलाएं पर्यटक वीसा पर अमेरिका आई थीं और उनके पासपोर्ट सभानानी परिवार के कब्जे में थे।

अवैध कागजातों के जरिये ही अलबनी (न्यू यॉर्क राज्य) लाई गई वलसम्मा मथाई को एक विशाल महल के भारतीय मूल के मालिकों की रोज़ 17 घंटे तक सेवा करने के एवज में सोने के लिए एक बड़ी अलमारी मिली थी। उनके हिस्से में न छुट्टी के लिए कोई दिन था और न ही उस घर को छोड़कर जाने की आज्ञा। महल की मालकिन "ऐनी जॉर्ज" ने अदालत में अपने को बेकसूर बताते हुए कहा कि निजी हैलिकॉप्टर दुर्घटना में मरे अपने पति की गतिविधियों के बारे में उसे कुछ पता नहीं है। कोई स्वतंत्र निर्णय लेने पर पति तो उसकी पिटाई ही करता था।

हैदराबाद से अवैध रूप से लंडन ले जाई गई उस भारतीय महिला की कहानी और भी दुखद है जिसे समान परिस्थितियों में तीन परिवारों शमीनीयूसूफ़-अलीमुद्दीन, शहनाज़-एनकार्टा, शशि-बलराम ने न केवल आर्थिक-श्रम शोषण किया बल्कि उनका यौन शोषण भी होता रहा।

ऐसा भी नहीं है कि इस प्रकार के अपराधों में केवल अनिवासियों का नाम आया हो। भारत सरकार के उच्च पदों पर रहने वाले लोगों पर भी विदेशों में इस प्रकार के शोषण के आरोप लगते रहे हैं। न्यूयॉर्क में भारत के वाणिज्यदूत प्रभु दयाल का मामला भी वैसा ही है। उन पर पैंतालीस वर्षीया संतोष भारद्वाज ने रोज़ाना, हफ़्ते के सातों दिन, करीब 15 घंटों तक घर का काम करने पर मजबूर करने और न्यायिक न्यूनतम ($7.5 डॉलर प्रति घंटा) से भी कम वेतन (एक डॉलर) देने का मुक़दमा न्यूयॉर्क की संघीय अदालत में दायर किया है, जिसमें प्रभु दयाल के साथ उनकी पत्नी चांदनी औऱ बेटी अकांक्षा का नाम भी शामिल है। कम वेतन, अधिक काम के अतिरिक्त उन्हें एक छोटी सी कोठारी में ही सोना पड़ता था। सन 2011 में एक दिन जब प्रभु दयाल किसी मीटिंग में थे और उनकी पत्नी सो रही थीं, संतोष मौक़ा पाकर उनके घर से निकल भागीं और पुलिस के पास पहुँचीं। मज़े कि बात यह है कि इस मुकदमे के दौरान प्रभु दयाल के परिवार के वकील रवि बत्रा के नेतृत्व में 100 भारतीयों ने प्रभु दयाल के समर्थन में प्रदर्शन भी किया। इनका कहना था कि भारतीय समुदाय किसी भी तरह प्रभु दयाल को अकेला नहीं छोड़ सकता। संतोष भारद्वाज के पास अमरीका में रहने के लिए वैध दस्तावेज़ नहीं हैं। यदि पल भर के लिए बाकी सारी बातें झूठ मान भी ली जाएँ तो एक भारतीय राजनयिक का एक अवैध आप्रवासी को घरेलू नौकर रखना क्या दर्शाता है?

न्यूयॉर्क में ही एक अदालत ने फरवरी 2012 में भारतीय उपदूतावास की प्रेस सलाहकार नीना मल्होत्रा और उनके पति जोगेश मल्होत्रा को अपनी सेविका शांति गुरूङ्ग पर किए गए बर्बर अत्याचारों और मानसिक प्रताड़ना के लिए 15 लाख डॉलर का मुआवजा देने का आदेश दिया था। इन पति-पत्नी ने भी अपनी सेविका के कागज-पत्र अपने कब्जे में लेने के बाद उसका घर से आवागमन बंद कर दिया था और धमकाते थे कि बाहर निकलने पर उसे पुलिस से पकड़वाने, पीटने, बलात्कार करने के बाद सामान की तरह वापस हिंदुस्तान भिजवा देंगे। वीसा बनवाने के समय उन्होने 17 वर्षीय शांति से कई सारे झूठ बुलवाए थे।

इन घटनाओं की पीडिताओं को संसार के समृद्धतम देश में रहते हुए न तो कभी मानसिक प्रसन्नता का अनुभव हुआ होगा और न ही यहाँ उपलब्ध उन्नत सुविधाओं यथा चिकित्सा आदि से साबका पड़ा होगा जबकि इनके नियोक्ता (या शोषक?) पढे लिखे और शक्तिशाली धनिक थे। सारी दुनिया में महिला दिवस एक पर्व होगा, होगा उल्लास का दिन लेकिन शोषक प्रवृत्ति वाले धनाढ्यो की सताई महिलाओं के लिए साल में एक बार आने वाले इस दिन का कोई मतलब नहीं है।
"अफ़ग़ान पुरुषों को शिक्षित होने की ज़रूरत है। क्षमा कीजिये, अफ़ग़ानिस्तान के पुरूषों का आचरण अच्छा नहीं है। उन्हें और पढ़ने की ज़रूरत है।" ~ अफ़गान राजकुमारी "इंडिया"
वैसे नारी उत्थान की सारी ज़िम्मेदारी हम भारतीयों के मजबूत चौड़े कंधों पर ही नहीं सिमटी। देश के उत्तर में नेपाल, भूटान और तिब्बत के आगे एक देश चीन भी है जहां मार्क्स, माओ वगैरह के नाम पर दुनिया भर की समस्याओं को सुलझाकर समाज को एकदम बराबर कर दिये जाने के दावे किए जाते हैं। तो खबर यह है कि वहाँ की महिलाएं अपने पेट पर कपड़े आदि बांधकर गर्भवती दिखने का प्रयास कर रही हैं ताकि ट्रेन, बस आदि में उन्हें भी सीट मिलने की संभावना बने।

हर दिन पिछले दिन से बेहतर हो! आपको महिला दिवस की बधाई! 

Tuesday, October 23, 2012

दशहरे के बहाने दशानन की याद


नवरात्रि के नौ दिन भले ही देवी और श्रीराम के नाम हों, दशहरा तो महर्षि विश्रवा पौलस्त्य और कैकसी के पुत्र महापंडित रावण ने मानो हर ही लिया है। और हो भी क्यों न? इसी दिन तो अपने अंतिम क्षणों में श्रीराम के अनुरोध पर गुरु बनकर रावण ने दशरथ पुत्रों को आदर्श राज्य की शिक्षा दी थी। दैवी धन के संरक्षक और उत्तर दिशा के दिक्पाल कुबेर रावण महाराज के अर्ध-भ्राता थे। कुछ कथाओं के अनुसार सोने की लंका और पुष्पक विमान कुबेर के ही थे परंतु बाद में पिता की आज्ञा से वे इन्हें रावण को देकर उत्तर की ओर चले गये और अल्कापुरी में अपनी नयी राजधानी बनायी।

भारतीय ग्रंथों में रावण जैसे गुरु चरित्र बहुत कम हैं। वीणावादन का उस्ताद माना जाने वाला रावण सुरुचि सम्पन्न सम्राट था। वह षड्दर्शन और वेदत्रयी का ज्ञाता है। जैन विश्वास है कि वह अलवर के रावण पार्श्वनाथ मन्दिर में नित्य पूजा करता था। कैलाश-मानसरोवर क्षेत्र का राक्षस-ताल उसके भार से बना माना जाता है। कैलाश पर्वत पर पडी क्षैतिज रेखायें रावण द्वारा इस पर्वत को शिव सहित लंका ले जाने के असफल प्रयास के चिह्न हैं। ब्रह्मज्ञान उसके जनेऊ की फांस में बन्धा है। फिर वह राक्षस कैसे हुआ? उसके नारे "वयम रक्षामः" को भारतीय तट रक्षकों ने अपने नारे के रूप में अपनाया है। यह नारा ही राक्षस वंश की विशेषताओं को दर्शाने के लिये काफी है। ध्यान से देखने पर इस नारे में दो बातें नज़र आती हैं - एक तो यह कि राक्षस अपनी रक्षा स्वयम कर सकने का गौरव रखते हैं और दूसरी अंतर्निहित बात यह भी हो सकती है कि राक्षसों को अपनी शक्ति, सम्पन्नता और पराक्रम का इतना दम्भ है कि वे अपने को ही सब कुछ समझते हैं। याद रहे कि राक्षस, दानवों और दैत्यों से अलग हैं।

ऐसा कहा जाता है कि रावण ने काव्य के अतिरिक्त ज्योतिष और संगीत पर ग्रंथ लिखे हैं। रावण की कृतियों में आज "शिव तांडव स्तोत्र" सबसे प्रचलित है। मुझे छन्द का कोई ज्ञान नहीं है फिर भी केवल अवलोकन मात्र से ही आदि शंकराचार्य की कई रचनायें इसी छन्द का पालन करती हुई दिखती हैं। रावण के वयम रक्षामः में ईश्वर की सहायता के बिना अपनी रक्षा स्वयम करने का दम्भ उसके सांख्य-धर्मी होने की ओर भी इशारा करती है। हमारे परनाना के परिवार के सांख्यधर होने के कारण "रावण के खानदानी" होने का मज़ाकिया आक्षेप मुझे अभी भी याद है। सांख्यधर शब्द ही बाद में संखधर, शंखधार और शकधर आदि रूपों में परिवर्तित हुआ। वयम रक्षामः से पहले, कुवेर के शासन में लंका का नारा वयम यक्षामः था जिसमें यक्षों की पूजा-पाठ की प्रवृत्ति का दर्शन होता है जोकि राक्षस जीवन शैली के उलट है।

दूसरी ओर भगवान राम द्वारा लंकेश के विरुद्ध किये जा रहे युद्ध में अपनी विजय के लिये सेतुबंध रामेश्वर में महादेव शिव की स्तुति के समय का यज्ञ व प्राण-प्रतिष्ठा में वेदमर्मज्ञ पंडित रावण को बुलाना और अपने ही विरुद्ध विजय का आशीर्वाद रामचन्द्र जी को देने के लिये रामेश्वरम् आना निःशंक रावण की नियमपरायणता और धार्मिक निष्पक्षता का प्रमाण है।

मथुरा (मधुरा, मधुवन, मधुपुरी) के राजा मधु (मधु-कैटभ वाला) से रावण की बहिन कुम्भिनी का विवाह हुआ था। इसी कुम्भिनी और भाई कुम्भकर्ण के नाम पर दक्षिण के नगर कुम्भाकोणम का नामकरण हुआ माना जाता है। मध्य प्रदेश के मन्दसौर नाम का सम्बन्ध मन्दोदरी से समझा जाता है। यहाँ शहर से बाहर रावण की मूर्ति बनी है और रावण दहन नहीं होता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का बिसरख ग्राम (ग्रेटर नॉएडा) रावण के पिता ऋषि विश्रवा से सम्बन्धित समझा जाता है। खरगोन (Khargone) नगर भी खर (खर दूषण वाला खर) का क्षेत्र है। खरगोन से 55 किलोमीटर दूर सिरवेल महादेव मन्दिर की प्रसिद्धि इसलिये है कि यहाँ पर रावण ने अपने दशानन महादेव को अर्पित किये थे। जोधपुर/मंडोर क्षेत्र के कुछ ब्राह्मण (दवे कुल/श्रीमाली समाज) अपने को रावण का वंशज मानते हैं। जोधपुर के अमरनाथ महादेव मन्दिर में रावण की प्राण प्रतिष्ठा का विश्व हिन्दू परिषद द्वारा विरोध एक खबर बना था। पता नहीं चला कि बाद में प्रशासन ने क्या किया। यदि किसी को इस बारे में वर्तमान स्थिति की जानकारी है तो कृपया बताइये। मौरावा के लंकेश्वर महादेव का रावण दशहरे पर भी नहीं मरता है। सिंहासन पर बैठे राजा रावण की यह सात मीटर ऊँची प्रस्तर मूर्ति अब तक 200 से अधिक दशहरे देख चुकी है और इसकी नियमित पूजा-अर्चना होती है। विदिशा के रावणग्राम में भी नियमित रावण-पूजा होती है। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित प्राचीन धार्मिक तीर्थ बैजनाथ में भी विजया दशमी को रावण का पुतला नहीं जलाया जाता है। कानपुर निवासी तो शायद दशहरे पर शिवाला के दशानन मन्दिर में रावण के दर्शन कर रहे होंगे।

कभी कभी, एक प्रश्न मन में उठता है - श्रीराम ने एक रावण का वध करने पर उस हिंसा का प्रायश्चित भी किया था। हम हर साल रावण मारकर कौन सा तीर मार रहे हैं?

आप सभी को दुर्गापूजा और दशहरे की शुभकामनायें। पाप का नाश हो धर्म का कल्याण हो और हम समाज और संसार को काले सफेद में बाँटने के बजाये उसे समग्र रूप में समझने की चेष्टा करें।

शुभमस्तु!



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(17 अक्टूबर 2010)

Saturday, May 12, 2012

मातृ दिवस पर सभी माताओं को हार्दिक नमन!

पाकिस्तान से अमेरिका आये एक मित्र ने एक बार यह कथा सुनाई थी। वही क़िस्सा आज मातृदिवस के अवसर पर आपकी सेवा में प्रस्तुत है।
देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्॥
मातृ देवो भव, पितृ देवो भव, आचार्य देवो भव, अतिथि देवो भव॥
यान्यनवद्यानि कर्माणि। तानि सेवितव्यानि। नो इतराणि॥
यान्यस्माकम् सुचरितानि। तानि त्वयोपास्यानि। नो इतराणि॥
 - तैत्तरीय उपनिषद - शिक्षावल्ली (1-11-2)

एक बार एक पहुँचे हुए सत्पुरुष ने सिनाई पर्वत पर ईश्वर का साक्षात्कार किया। ईश्वर ने उन्हें बताया कि अमुक स्थान में रहने वाला एक वधिक स्वर्ग में उनका साथी होगा। एक वधिक, स्वर्ग में, उनका साथी? सत्पुरुष को आश्चर्य तो हुआ पर बात ईश्वर की थी सो उसका रहस्य जानने के उद्देश्य से वे इस वार्ता के बाद, अपनी पहचान गुप्त रखते हुए उस वधिक को मिले। अतिथि की सेवा करने के उद्देश्य से वह वधिक उन्हें अपने घर ले गया। घर पहुँचकर उन्हें बिठाकर कुछ देर इंतज़ार करने के लिये कहकर यजमान अपनी वृद्ध और जर्जर माँ के पास पहुँचा और उनके हाथ पाँव धोकर बाल संवारे फिर अपने हाथ से खाना खिलाया। तृप्त होकर वृद्धा कुछ बुदबुदाई जिस पर यजमान ने तथास्तु कहा।
माँ - एक कविता 
जब यजमान अतिथि के पास वापस पहुँचा तो सत्पुरुष ने उससे वृद्धा और उसकी कही बात के बारे में पूछा। यजमान ने हँसते हुए बताया कि माँ अपने बेटे के स्नेह में कुछ भी बोल देती है और मैं तो माँ की भावना का आदर करते हुए तथास्तु कहता हूँ। वरना, जो वह कहती है, वैसा संभव नहीं है।

अतिथि ने जानने का इसरार किया तो यजमान ने शर्माते हुए बताया कि माँ कहती है कि जन्नत में मूझे हज़रत मूसा का साथ मिलेगा, माँ की ममता को जानते हुए हाँ कह देता हूँ। वर्ना कहाँ एक वधिक, कहाँ स्वर्ग और कहाँ हज़रत मूसा।

तब अतिथि ने कहा, "तुम्हारी माँ की प्रार्थना स्वीकार हो चुकी है, मैं स्वर्ग में तुम्हारा साथी मूसा हूँ।"

पाकिस्तान में रहनेवाले डॉ क़ुरेशी से यह कथा सुनने के बाद मेरे मन में पहला विचार यही आया कि वन्दे-मातरम पर हम भारतीयों का एकाधिकार नहीं है। अन्य संस्कृतियों में भी जन्नत माँ के चरणों में ही मानी जाती है।

अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रुच्यते। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥

मूल आलेख की तिथि: रविवार, 12 मई 2012, मातृदिवस (Mother's Day)

Saturday, January 14, 2012

मकर संक्रांति की शुभकामनायें!

पिट्सबर्ग में उत्तरायण की सुबह के कुछ दृश्य और बचपन में जम्मू के लोहड़ी समारोहों में सुना एक गीत, जैसा, जितना याद रहा ...
हुल्ले नी माइ हुल्ले
दो बेरी पत्ता झुल्ले
दो झुल्ल पयीं खजूराँ
खजूराँ सुट्ट्या मेवा
एस मुंडे कर मगेवा
मुंडे दी वोटी निक्कदी
ओ खान्दी चूरी कुटदी
कुट कुट भरया थाल
वोटी बावे ननदना नाल
निन्नाँ ते वड़ी परजायी
ओ कुड़मा दे कर आयी


खिड़की से बाहर उत्तरायणी प्रभात
पिछले वर्ष की लोहड़ी पर मैं भारत में था। लोहड़ी 2011 की शाम कुछ प्यारे-प्यारे बच्चों के साथ

Saturday, December 31, 2011

नववर्ष 2012 शुभ हो - इस्पात नगरी से [53]

स्वर्गीय डॉ. अमर कुमार
एक भावनात्मक नाता, एक लम्बा साथ। पुराना साल हमारे साथ लगभग 3,15,36,000 पल गुज़ारकर रुखसती की तैयारी में है। हममें से बहुत से लोगों के लिये यह समय साल भर के लेखेजोखे का है। कितना खोया, कितना पाया इसका हिसाब लगाना आसान नहीं है। इस वर्ष मैंने अमेरिका में कई नये स्थान देखे, भारत, कैनाडा और जापान की यात्रायें कीं। हर साल की तरह इस साल भी अनेक नये मित्र मिले, कितने ही नये ब्लॉगर्स हिन्दी ब्लॉगिंग में आये। इसके साथ ही हमने इस वर्ष कई मूर्धन्य ब्लॉगर्स को खोया है जिनमें श्रीमती सन्ध्या गुप्ता, डॉ अमर कुमार, श्री हिमांशु मोहन के नाम प्रमुख हैं। हिमांशु जी से मेरा विशेष परिचय नहीं रहा था परंतु सन्ध्या जी और डॉ. साहब से ब्लॉग जगत के किसी न किसी चौक, नुक्कड़ या मोड़ पर मुलाकात हो ही जाती थी। इन तीनों की कमी सदा महसूस होगी।

ब्लॉगिंग की बात जारी रखूँ तो इस बात की खुशी है कि कुछ निकट मित्रों के सहयोग से इस वर्ष एक सामूहिक ब्लॉग रेडियो प्लेबैक इंडिया की शुरूआत हुई जिस पर गीत संगीत, बोलती कहानियाँ और सभी प्रकार के ऑडियो, पॉडकास्ट आदि उपलब्ध हैं। इसी प्रकार इस वर्ष मैं करुणा, स्वास्थ्य और शाकाहार का प्रसार करने को प्रतिबद्ध निरामिष ब्लॉग से जुड़ सका।

भारतीय संस्कृति उत्सवप्रिय है। जहाँ तालिबानी मनोवृत्ति के लोग जब नव शारदा और नौरोज़ पर प्रतिबन्ध लगाने की बात करते हैं और पश्चिमी संस्कृति को मातृदिवस और पितृदिवस जैसे पर्व गढने पड़ते हैं वहीं हमारे एक वर्ष में 400 त्योहार आराम से मिल जायेंगे। वसुधैव कुटुम्बकम की परम्परा को नित नये उत्सवों के उल्लास में सम्मिलित होने में प्रसन्नता ही होती है। क्रिसमस और नव वर्ष के उत्सव की रोशनी के बीच जब मैने एक बेघर के दिल के अँधेरे में झांकने का अनगढ सा प्रयास किया तब याद आया कि न जाने कितने मित्र अपनी समस्याओं में उलझे हुए हैं। उनसे हमारा भौतिक सम्पर्क हो न हो, वे हमारी प्रार्थनाओं में हैं। ईश्वर उनपर कृपा करे और नववर्ष में उनका जीवन प्रसन्नता से भरे, यही कामना है। 2011 के खट्टे-मीठे अनुभव याद करते समय उन सभी लोगों का आभार भी कहना चाहता हूँ जो व्यक्तिगत लेन-देन से ऊपर उठकर सत्यनिष्ठा की समझ रखते हैं।

बेघरों की बात चलने पर श्रीमतीजी ने याद दिलायी व्हिटनी एलिमेंटरी स्कूल और उसकी प्राचार्या शैरी गाह्न (Sherrie Gahn) की। श्रीमती जी बड़े उत्साह से बताती रहीं कि किस प्रकार एक टीवी कार्यक्रम में शैरी की उपस्थिति मात्र से उनके विद्यालय के हर छात्र के लिये बैकपैक, स्कूल पुस्तकालय के लिये पुस्तकें और कम्प्यूटर तथा विद्यालय के लिये बहुत सा पैसा मिला। लास वेगास स्थित यह विद्यालय अमेरिका के किसी सामान्य विद्यालय से इस मामले में फ़र्क है कि वहाँ के 610 विद्यार्थियों में से 518 बेघर हैं।

आठ वर्ष पहले इस पाठशाला में आयीं शैरी का कहना है कि इससे पहले उन्होंने ऐसी ग़रीबी नहीं देखी थी। हालात सुधरने के बजाय हर साल बिगड़ते ही गये। अंततः उन्होंने समुदाय के वयस्कों से मिलकर यह प्रस्ताव रखा कि यदि वे अपने बच्चों की शिक्षा की ज़िम्मेदारी उन्हें दें तो वे बच्चों के भोजन-वस्त्रों की ज़िम्मेदारी स्वतः ही ले लेंगी। लगभग 500 दानदाताओं के सहयोग से शैरी इन बच्चों के वस्त्र, भोजन, केश-कर्तन, चिकित्सा जैसी सुविधायें दे सकी हैं। दानदाताओं में निम्न मध्यवर्ग के व्यक्तियों से लेकर बड़े व्यवसायी भी शामिल हैं। जहाँ एक महिला फ़िलाडेल्फ़िया से 20 डॉलर प्रतिमास भेजती हैं, वहीं एक स्थानीय जुआरी दो हज़ार डॉलर प्रतिमास देता है।
जब मैंने लंचटाइम में बच्चों को केवल सॉस/केचप/चटनी खाते और उसमें से कुछ बचाकर घर ले जाने का प्रयास करते देखा तो मेरा दिल दहल गया। (~प्राधानाचार्या शैरी गाह्न)
पाप-नगर (sin city) के नाम से मशहूर और अनेक हिन्दी फ़िल्मों में दिखाये गये लास-वेगास नगर की तेज़ रोशनी और जगमगाते कसीनोज़ के पीछे 12% बेरोज़गारी छिपी है। फ़ोरक्लोज़र (गिरवी घर की किश्तें न दे सकने पर बैंक द्वारा कब्ज़ा करना) की दर सारे देश में सर्वाधिक है। अमेरिका में 12वीं कक्षा तक शिक्षा निशुल्क होते हुए भी बेरोज़गार माता-पिताओं के यह बेघर बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित रहे थे तो ज़ाहिर है कि महंगी कॉलेज शिक्षा पाना उनके लिये जादुई सपने से कम नहीं है। इस बात को ध्यान में रखते हुए शैरी के विद्यालय ने अपने बच्चों की कॉलेज शिक्षा के लिये एक कोश भी बनाया है जो योग्य बच्चों की फ़ीस का ध्यान रखेगा।
आप सभी को नववर्ष की हार्दिक शुभकामनायें!
नीचे के विडियो में आप शैरी को देख सकते हैं एक टीवी कार्यक्रम में अपने छात्रों के बारे में बात करते हुए। मानवता अभी जीवित है और सदा रहेगी!


The Ellen DeGeneres Show - Whitney Elementary School from Aaron Pinkston on Vimeo.

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* नव शारदा - रंग ही रंग - शुभकामनायें!
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Saturday, October 29, 2011

मर्द को दर्द नहीं होता -इस्पात नगरी से 49


बर्फ़ नहीं तो वर्षा - आखिर यह पिट्सबर्ग है
कहावतें हैं कहावतों का क्या?
रक्तदान तो नियमित ही है, मगर वार्षिक स्वास्थ्य जांच के लिये खून देना खलता है। ऊपर से दो-दो वैक्सीन का समय हो रहा था। इतने भर से पीछा छूट जाता तो भी ग़नीमत थी। आसमान काली घटाओं से भरा ही रहा। दो सप्ताह से लगातार हो रही बारिश में घास बाँस से टक्कर लेने लगी थी। लॉन पतझड़ के पत्तों से भरा हुआ भी था।  उस पर पैदल चलने का रास्ता  चौड़ा करने की योजना भी टलती जा रही थी। श्रमसाध्य कार्य करने से पहले अपनी बढती आयु को भी ध्यान में रखना पड़ता है। भारत में होते थे तो दीवाली पर वार्षिक सफ़ाई कार्यक्रम चलता था, यहाँ रहते उपरोक्त सारे काम पूरे हुए।

तीन चार दिन लगातार जुटकर सारे काम पूरे करने के शारीरिक श्रम और टीकों से दुखती बाहें लेकर सोने के बाद आज सुबह उठकर वर्ष का पहला हिमपात देखना अलौकिक अनुभव रहा।
क्वांज़न चेरी ब्लॉसम के अन्य रूप तो आपने पहले देखे हैं

हिमपात ने प्रभात के सौन्दर्य को निखार दिया
करुणा, आरोग्य और शाकाहार के उद्देश्य से बनाये गये सामूहिक ब्लॉग निरामिष पर 100 साल के दौड़ाक फौजा सिंह के बारे में पढा तो उनकी दृढता के क़ायल हो गये। चावल, पराँठा और पकौड़े तो नहीं छोड़ सकता हूँ पर फ़ौजा सिंह से प्रेरणा लेकर सोंठ खाना तो शुरू किया ही जा सकता है।

[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Snowfall as captured by Anurag Sharma]
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* कुछ भी असम्भव नहीं है - फौजा सिंह