Saturday, September 1, 2012

दिल यूँ ही पिघलते हैं - कविता

उस आँख में बस मीठे सपने ही पलते हैं
सब अपने हैं उसके, वे भी जो छलते हैं।

(अनुराग शर्मा)


बर्ग वार्ता - पिट्सबर्ग की एक खिड़की
जो आग पे चलते हैं
वे पाँव तो जलते हैं

कितना भी रोको पर
अरमान मचलते हैं

युग बीते हैं पर लोग
न तनिक बदलते हैं

श्वान दूध पर लाल
गुदड़ी में पलते हैं

हालात पे दुनिया के
दिल यूँ ही पिघलते हैं

मानव का भाग्य बली
अपने ही छलते हैं

पत्थर मारो फिर भी
ये वृक्ष तो फलते हैं

शिखरों के आगे तो
पर्वत भी ढलते हैं

मेरे कर्म मेरे साथी
टाले से न टलते हैं।

* सम्बन्धित कड़ियाँ *

39 comments:

  1. जो आग पे चलते हैं
    वे पाँव तो जलते हैं

    क्या खूब लिखते हो, बड़े प्यारे लगते हो ( वाकई )
    नज़र ना लग जाए :))

    ReplyDelete
  2. पत्थर मारो फिर भी
    ये वृक्ष तो फलते हैं

    ये हुई ना काम की बात .
    bahut badhiya ghazal .

    ReplyDelete
  3. वैलकम है जी, पिट्सबर्गीय खिड़की बहुत दिनों के बाद खुली :)

    जो आग पे चलते हैं
    वे पाँव तो जलते हैं
    हमेशा की तरह नपे तुले शब्दों में जानदार जज़्बात, वाह-वाह!!

    ReplyDelete
  4. "Apne hi chhalte hain"Jaisi anubhootiyan aapke dil me bhi agar aane lageen,to suraksha ki avdharna hi duniya se mit jayegi- "ye baat kahen fir se, ham kanon ko malte hain "

    ReplyDelete
    Replies
    1. प्रबोध जी,
      :) बात वही है, अब ज़रा उसी बात को कवि के कबीरी/फ़क़ीरी अंदाज़ में एक बार फिर देखिये
      उस आँख में बस मेरे सपने ही पलते हैं
      सब अपने हैं उसके, वे भी जो छलते हैं

      Delete
    2. vaah - क्या कविता है, क्या प्रश्न है और क्या समाधान है | प्रणाम स्मार्ट जी आपको ....

      Delete
  5. ब्लॉगजगत की सैर को आजकल
    हम कुछ कम ही निकलते हैं

    इस आलस को लानत है जो
    ऐसे नगीने हाथ से फिसलते हैं

    तबीयत खुश हुई आज यहाँ आकर
    वर्ना इधर से उधर हाथ ही मलते हैं

    ReplyDelete
  6. जो आग पे चलते हैं
    वे पाँव तो जलते हैं

    ..बेहतरीन!

    ReplyDelete
  7. क्या खूब लिखा है..वाह..

    ReplyDelete
  8. @युग बीते हैं ये लोग
    न तनिक बदलते हैं


    जी सही बात है .... ये तनिक भी नहीं बदले...


    साधुवाद... सुंदर कविता के लिए.

    ReplyDelete
  9. बिलकुल सही कहा आपने .........मेरे कर्म मेरे साथी
    टाले से न टलते हैं

    ReplyDelete
  10. कम शब्दों में बहुत कहा,
    लय में मन इस बार बहा।

    ReplyDelete
  11. वाह...
    बहुत बढ़िया....बड़े इन्तेज़ार के बाद...

    अबके वादा करिये
    बिना ब्रेक के मिलते हैं :-)

    अनु

    ReplyDelete
  12. लफ़्ज़ों की किफायत और मानी की गहराई, बस आपकी कविता में ही दिखाई देती है!!

    ReplyDelete
  13. पत्थर मारो फिर भी
    ये वृक्ष तो फलते हैं

    इंसाँ का भाग्य बली
    अपने ही छलते हैं

    बेहतरीन पंक्तियाँ.....

    ReplyDelete

  14. इन्सान का भाग्य बली , अपने ही छलते हैं !
    तुक और सुर सब में धनी !

    ReplyDelete
  15. बहुत सुंदर !
    पर
    पाँव को अपने कभी समझाया भी करें
    फायर प्रूफ जूते दे कर के जाया करें !

    ReplyDelete
  16. 'शिखरों के आगे तो
    पर्वत भी ढलते हैं '
    - शिखर के आगे ढलान का क्रम है ,पर ऐसे शिखर कहाँ मिलते हैं !

    ReplyDelete
  17. छोटी बहर की ये ग़ज़ल काबिले तारीफ है बहुत पसंद आई

    ReplyDelete
  18. इंसाँ का भाग्य बली
    अपने ही छलते हैं ..

    छोटी बहर में आपसे
    कमाल के शेर निकलते हैं ... मज़ा आ गया ...

    ReplyDelete
  19. धन्यवाद शास्त्री जी!

    ReplyDelete
  20. पत्थर मारो फिर भी
    ये वृक्ष तो फलते हैं

    इंसाँ का भाग्य बली
    अपने ही छलते हैं

    शिखरों के आगे तो
    पर्वत भी ढलते हैं

    मेरे कर्म मेरे साथी
    टाले से न टलते हैं
    सभी लाइन मन के भाव को पूर्णतः व्यक्त करते हैं . कम शब्दों में अपनी पूरी बात कहने में समर्थ

    ReplyDelete





  21. हालात पे दुनिया के
    दिल यूँ ही पिघलते हैं



    नीरज भैया क्या बताऊ ये आपके सेर नहीं |

    ये नन्हे शावक बड़े भले लगते है

    ReplyDelete
  22. बहुत खूब ! अंत की सकारात्मकता अच्छी लगी...

    शिखरों के आगे तो
    पर्वत भी ढलते हैं

    ReplyDelete
  23. हमने देखी दुनिया
    अपने कम मिलते हैं !


    ...बढ़िया रचना !

    ReplyDelete
  24. एक कदम तो चलो
    भगवान मिलते है !
    एकसे एक पंक्ति सुंदर ....

    ReplyDelete
  25. उचित शब्द, उचित बात।

    ReplyDelete
  26. प्यारी,छोटी सी सुन्दर रचना बधाई

    ReplyDelete
  27. पत्थर मारो फिर भी
    ये वृक्ष तो फलते हैं
    SAHI KAHA AAPNE sunder bhav
    rachana

    ReplyDelete
  28. यथार्थ का चित्रण!!
    इंसाँ का भाग्य बली
    अपने ही छलते हैं

    ReplyDelete
  29. शिखरों के आगे तो
    पर्वत भी ढलते हैं

    मेरे कर्म मेरे साथी
    टाले से न टलते हैं

    बहुत सुंदर ...

    ReplyDelete
  30. अनुराग जी, बहुत ही शानदार कविता.. खासकर शुरुवाती पंक्तियाँ तो दिल बाग़ बाग़ कर गईं...
    जो आग पे चलते हैं
    वे पाँव तो जलते हैं

    कितना भी रोको पर
    अरमान मचलते हैं

    ReplyDelete
  31. किफायती कविता करते हैं आप.. लाजवाब से छोटा कोई शब्द?

    ReplyDelete
  32. भोग के रस्ते पर गुजर कर ही हम निखरते हैं..

    ReplyDelete
  33. मेरे कर्म मेरे साथी
    टाले से न टलते हैं

    वाह जी.
    बहुत पते की बातें
    सरलता से कह दी हैं आपने.

    ReplyDelete

मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।