ॐ स्वस्ति साम्राज्यं भौज्यं स्वाराज्यं वैराज्यं पारमेष्ठ्यं राज्यंआदमखोर जंगली समुदायों ने जब-तब विरोधी कबीलों द्वारा मारकर खा लिये जाने से बचने के लिये मार्ग खोजना आरम्भ किया होगा तब ज़रूर ऐसे नियमों की बात उठी होगी जो मानवता को निर्भय करें। ऐसी खुली हवा जिसमें हमारी भावी पीढियाँ खुलकर सांस ले सकें। कभी विश्वव्यापी रहे हिंसक आसुरी बलप्रयोग की जगह यम, नियम, संयम, नैतिकता, अहिंसा, प्रेम, विश्व-बन्धुत्व जैसे माध्यम अपनाये जाते रहे हैं। लेकिन पापी मन कहाँ मानते हैं। बल का बोलबाला हो तो हिंसा के दम पे और जब स्वतंत्रता की बात हो तो अपनी उन्मुक्ति के नाम पर अपना उल्लू सीधा करना उनकी फ़ितरत रही है। ऐसी दुष्प्रवृत्तियों की पहचान और उपचार होता रहे। तसल्ली इस बात की है कि छिटपुट अपवादों के बावजूद आज का जनमानस समानता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्व को समझता है। उसे अपने विचारों पर ताले स्वीकार्य नहीं हैं और न ही अपनी ज़मीन पर नाजायज़ कब्ज़ा।
महाराज्यमपित्यमयं समन्तपर्यायी स्यात् सार्वभौमः सार्वायुषान्तादापरार्धात्
इंसान को स्वतंत्रता चाहिये अराजकता नहीं। विधि, प्रशासन और न्याय चाहिये तानाशाही नहीं। नियंत्रणवाद चाहे राजवंशों के नाम पर आये चाहे मज़हब के नाम पर और चाहे माओवाद और कम्युनिज़्म जैसी संकीर्ण राजनीतिक विचारधाराओं के नाम पर, चाहे सैन्यबल से आये चाहे तालिबानी क्रूरता से, लम्बे समय तक टिक नहीं सकता। यही कारण है कि आज के समय में लोकतंत्र का केवल एक ही विकल्प है, और वह है - बेहतर लोकतंत्र।
ज़ुबाँ पे मुहर लगी है तो क्या के रख दी हैलेकिन दुःख की बात है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता, विश्व-बन्धुत्व, अहिंसा, प्राणिमात्र में समभाव की भावना की जन्मदात्री भारत की धरती पर भी ये सद्विचार "एलियन थॉट्स" जैसे पराये होते जा रहे हैं। किस्म-किस्म के गिरोह हमारी-आपकी छोटी-छोटी शिकायतों को अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिये असंतोष का बम बनाने के काम में ला रहे हैं। यदि आपके पास असंतोष का कोई कारण नहीं भी है तो वे ढूंढकर ला देंगे।
हर एक हल्क़ा-ए-ज़ंज़ीर में ज़ुबाँ मैंने ~ फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
इस दुर्भावना का एक दूसरा पक्ष भी है। लगता है जैसे देश की प्रशासन व्यवस्था ने आत्महत्या कर ली है। सरकारों, राजनीतिक दलों, प्रशासनिक सेवा, और सम्बन्धित संगठनों में लालची, चाटुकार और मक्कार किस्म के लोगों की बहुतायत है। सत्ता पर काबिज़ ये परजीवी अपने निहित स्वार्थ के लिये किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। असम हो या कश्मीर, बोड़ो हों या पण्डित, राज्यों के मूलनिवासी खुद शरणार्थी बन रहे हैं। महाराष्ट्र में किसी टुच्चे क्षेत्रीयतावादी का बचकाना बयान हो या कर्नाटक में अपनी पहचान छिपाये चूहों के भेजे टेक्स्ट सन्देश, ये गीदड़ भभकियाँ लाखों देशवासियों को पलायन करने को बाध्य कर देती हैं। सब जानते हैं कि लाखों निहत्थे निर्धनों के हत्यारे माओवाद जैसी देशव्यापी गहन समस्या को बहुत हल्के में लेकर गरीबों को सशस्त्र गिरोहों से दया की भीख मांगने के लिये छोड़ देना किसी भी सरकार के लिये अति निन्दनीय कृत्य है। लेकिन फिर भी सरकार में बैठे नेताओं, विपक्षियों, नौकरशाहों का समय जटिल समस्याओं के निराकरण के बदले अपनी जेबें भरी जाने में लगा दिखता है। भारत के इतिहास में यह कालखण्ड शायद बेशर्म घोटालों का समय कहकर पहचाना जायेगा।
5 अक्टूबर 1963 में पारित 16वें संविधान संशोधन के बाद से चुने हुए सांसदों और विधायकों की शपथ में जोड़ा गया एक वाक्य उन्हें याद दिलाता है कि वे देश की एकता और संप्रभुता बनाये रखने के लिये उत्तरदायी हैं। आज कितने जनप्रतिनिधि अपनी इस शपथ के प्रति निष्ठावान हैं? बल्कि बड़ा सवाल यह होना चाहिये कि सांसद, मंत्री या अन्य उच्च पदों के कितने अभिलाषी राष्ट्र की एकता और संप्रभुता के महत्व को समझते हैं? कुछ लोग मानते हैं कि राजनीति के गिरते स्तर के लिये स्वार्थी नेताओं के साथ-साथ जनचेतना की कमी भी बराबर की ज़िम्मेदार है। लेकिन जनचेतना के लिये प्रशासन की ओर से क्या किया जा रहा है? सर्वशिक्षा अभियानों की क्या प्रगति है, सभी जानते हैं। यह समय "कोउ नृप होय हमें का हानी" का नहीं, जगने, उठने और जगाने का है।
ऐसे कठिन समय में, जब हिंसक हो उठना बहुत आसान, बल्कि स्वाभाविक सा दिखने लगता है, सरकार द्वारा ग्रामवासियों का समुचित पुनर्वास किये बिना ओंकारेश्वर बांध की ऊँचाई बढाने के लिये गाँव डुबोने की योजना के विरोध में घोगल के ग्रामवासियों का शांत अहिंसक विरोध विश्वास जगाता है कि देशवासियों की आत्मा पूरी तरह मरी नहीं है। बांधो के आर्थिक लाभ-हानि तो हम सब देख ही चुके हैं। लेकिन हम उसका मानवीय पक्ष कैसे भूल सकते हैं? अपनी कुर्सियों से चिपके सत्ताधीश ग़रीबों के विस्थापन की समस्या को कैसे समझेंगे? और फिर क्या मुआवजे का सही आँकलन और ईमानदार वितरण होगा? कब? क्या बांध से मिलने वाले लाभ, सिंचाई, बिजली, रोज़गार आदि पर इन विस्थापितों का कोई हक़ है? इन सबसे ऊपर की बात यह कि जिनके गाँव, घर-बार डुबोये जाते हैं क्या उन्हें लोकतंत्र में किसी निर्णय, सहमति, असहमति का अधिकार नहीं है? बड़े नगरों के वातानुकूलित भवनों में बैठे किसी भाग्य-विधाता ने उनसे कभी पूछा कि बड़े नगरों के बड़े व्यवसाइयों के लाभ के लिये उनकी जीवनशैली और पैतृक भूमि का बलिदान जायज़ है या नहीं? मैंने अपनी कहानी "बांधों को तोड़ दो" में जन-दमन के इसी पक्ष को प्रस्तुत करने का प्रयास किया था। अफ़सोस कि वे सवाल आज भी सर उठाये वैसे ही खड़े हैं।
मैं ग्राम घोघल आँवा, खंडवा, मध्यप्रदेश और जल आन्दोलन के आसपास के क्षेत्रों के डॉक्टरों से अपील करता हूँ कि ग्रुप बना कर वहाँ पहुँचें और आन्दोलनकारियों की चिकित्सा करने के साथ ही उन्हें समझायें कि वे देह की हानि करने की सीमा तक न जायें। आन्दोलन क्रमिक करें। दैहिक क्षति के बाद तो अपना भी सहारा नहीं रहेगा। - गिरिजेश रावकई दिनों से पानी में आकंठ डूबे घोघलवासियों की इन तस्वीरों से आप व्यथित हुए हैं तो क्षमाप्रार्थी हूँ पर सभी पढने वालों से अनुरोध है कि इस समस्या का मानवीय हल निकालने के लिये जो कुछ भी आपके बस में हो करने का प्रयास कीजिये। जीवन बहुमूल्य है, वह व्यर्थ नहीं जाना चाहिये।
[आभार: इस पोस्ट के सभी चित्र विभिन्न समाचार स्रोतों से लिये गये हैं।]
10 सितम्बर 2012 अपडेट:
17-18 दिन से जल सत्याग्रह कर रहे लोगों के आगे झुकते हुए राज्य सरकार ने नर्मदा नदी पर बने ओंकारेश्वर बांध के जलस्तर को पहले की तरह 189 मीटर ही बनाये रखने की मांग मान ली है और जल-प्लावन प्रभावित लोगों की समस्याओं के निराकरण के लिये एक पाच सदस्यीय समिति बनाई है।
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मैजस्टिक मूंछें
नायकत्व ११ सितम्बर के बहाने
बांधों को तोड़ दो
जल सत्याग्रहियों के आगे झुकी सरकार
१-संवेदनहीनता चंहु ओर व्याप्त है. क्या अफसर और क्या नेता. २-आजादी मिली जरुर लेकिन समर्थों को, गरीब-गुनिया वैसा ही गुलाम है जैसा वह सैंतालीस के पहले था. ३- बस थाली इधर से उधर पहुँच गयी, पहले गोरे साफ कर रहे थे और अब अपने, जिनसे निजात पाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है. ४- भारत में भूमि अधिग्रहण कानून शायद दुनिया का सबसे खराब कानून कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगी, हालाँकि इसमें यह खतरा है कि कोई यह न कहने लगे कि डाक्टर साहब का अपमान कर दिया यह लिखकर. ५- आम आदमी तो लूटने के लिए है और खास लूटने के लिए. ६- मौका सबको दिया जा रहा है, लूटो या फिर लूटो.
ReplyDeleteग्रामीणों का वाजिब पुनर्वास का अधिकार है। वह अगर सरकार नहीं देती तो विरोध होना चाहिये।
ReplyDeleteइस आलेख की एक एक बात से सहमत हूँ| जैसा गिरिजेश जी ने भी अपनी पोस्ट में लिखा है कि विश्वास उठ जाने की नौबत आ चुकी है, सच है| दूसरे नजरिये से देखें तो किसी पर भी विश्वास कर भी बहुत आसानी से ले रहे हैं| गरीबी, भुखमरी, कुपोषण रोग भी हैं और लक्षण भी| इनको दूर करने के नाम पर इनका दोहन करने वालों की भी कमी नहीं है| हमने एक ऐसे समाज का निर्माण कर लिया है जो आजाद तो रहना चाहता है लेकिन जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता| ऐसी आजादी उच्छ्रंखलता ही मानी जानी चाहिए|
ReplyDeleteदो सप्ताह से चल रहे इस आन्दोलन के बारे में मुझे तो पिछले दो तीन दिन से ही पता चला है| पूरे तथ्यों के जानकारी के अभाव में खुद को वही किंकर्तव्यमूढ़ता की स्थिति में ही पाता हूँ| सरकारों की ईमानदारी तो जगजाहिर है ही, लेकिन नाजायज कब्जों के बदले में महानगरों में सरकारी प्लाट\फ़्लैट आवंटन और फिर उन्हें बेचकर 'पुनर्मूषको भव' फिर आवंटन और फिर और फिर... ये खेल भी देखे हैं इसलिए आपकी और गिरिजेश की यही अपील सार्थक लगती है कि जीवन बहुमूल्य है और आत्मघात से समस्या ख़त्म नहीं होगी|
देश, समाज और कर्णधार सम्वेदानीं हो गए हैं .... जान बूझ के अंजान बने रहते हैं जिनके हाथ में सत्ता है ... क्रान्ति बस किताबोब के लिए है ...
ReplyDeleteक्या हम सब कुछ कर सकते हैं ? सरकार के कानों पर तो आजकल कोई बात पहुँचती ही नहीं ?? क्या किया जाए, कुछ समझ नहीं आता :(
ReplyDeleteसबसेपहले अपना जीवन बचाएं पश्चात किसी ऐसे मुहीम में शामिल हों जिसमें जान का जोखिम न हो . मर जाने के बाद अगली पीढ़ी मुआवजा लेकर बगल में आ गई तो फिर क्या हो हो जायेगा .
ReplyDeleteप्रशासन से पहल हो, समस्या के निराकरण की दिशा में, संवादहीनता सदा ही ले डूबती है।
ReplyDeleteकोई भी क्रांति हो , गरीबो को पहले मरना पड़ता है |सरकार के अड़ियल रवैये की वजह से अनेक प्रकार के आन्दोलन जन्म ले रहे है | फिर उस सरकार के चुनाव में उन्ही गरीबो का हाथ है |
ReplyDeleteहमें औरों की तकलीफ नहीं दिखती ...
ReplyDeleteप्रशासन की यह अनदेखी सचमुच दुखद है | सरकार की और पहल हो....
ReplyDeleteकितना भी कोस लूँ, छटपटा लूँ किन्तु अंततः - 'जीवन बहुमूल्य है, वह व्यर्थ नहीं जाना चाहिये'। :(
ReplyDeleteएक-एक बात से सहमत .अहिंसापूर्ण की लड़ाई उनसे उनसे करना उचित है जिनके भीतर मनुष्यता की भावना हो !
ReplyDeleteअपील का कुछ असर तो हुआ ..दुआ रंग लाई !
ReplyDeleteमगर यह भी सोचना पड़ रहा ही कि सरकारें किस होनी /अनहोनी का सत्रह दिनों तक इंतज़ार करती रही!
Hamesha garib hi pista hai.
ReplyDeletehttp://jhindu.blogspot.in/2012/07/blog-post.html
पिछले दो सप्ताह से ज्यादा समय से मिडिया चिल्ला रहा है पर सरकार की कानों में जूं भी नहीं रेंगी, दो दिन पहले एक वरिष्ठ ताऊ (मंत्री महोदय) वहां पहुंचे जो लड झगड कर आ गये. वो तो शिव मामा को बाद में समझ आया की चुनाव सामने है...सो कल जाकर एक कमिटी गठित करके आंदोलन समाप्त कराया गया है.
ReplyDeleteसंवेदहीनता की पराकाष्ठता देखिये की अपने भाषण में यह भी जोड़ा की बांध की उंचाई घटाने से २० लाख हेक्टर जमीन की सिंचाई और बिजली उत्पादन से वंचित होना पडेगा.....क्या आज अपनी सरजमीं पर रहने का अधिकार भी हम विकास के नाम पर खो चुके हैं?
रामराम
Agar ham sab ek hokar koi abhiyaan chhed de to achcha parinaam jarur aayega..badhiya aalekh sir ji..
ReplyDeleteआपके आह्वान, सद्प्रयास हेतु ह्रदय से आभारी हैं हम...
ReplyDeleteभले स्थान विशेष पर चलकर हम पहुँचने में असमर्थ हैं, परन्तु हमारा ऐसे सत्याग्रहियों को नैतिक समर्थन, उनके लिए विजय की प्रार्थना यूँ ही निरर्थक नहीं जायेगी...