Monday, April 30, 2012

बॉस्टन में वसंत का जापानी महोत्सव - इस्पात नगरी से [58]

एक पार्क का दृश्य
उत्तरी गोलार्ध में वसंतकाल अभी चल रहा है। कम से कम उत्तरपूर्व अमेरिका तो इस समय पुष्पाच्छादित है। पूरे-पूरे पेड़ रंगों से भरे हुए हैं। साल में दो बार प्रकृति इस प्रकार र्ंगीली छटा में नहाई दिखती है। यहाँ बहार और पतझड़ दोनों ही दर्शनीय होते हैं। अंतर इतना ही है कि एक सृजन का सौन्दर्य है और एक विदाई का। एक प्रातः है और दूसरी साँय। लेकिन सौन्दर्य में कोई कमी नहीं है। यह समय नव-पल्लवों का है जबकि वह समय पत्तों के सौन्दर्य का है जो जाते-जाते भी विदाई को यादगार बना जाते हैं। बाज़ार फ़िल्म के एक गीत की उस मार्मिक पंक्ति की तरह जहाँ संसार त्यागने का मन बना चुकी नायिका अपने प्रिय से कहती है:
याद इतनी तुम्हें दिलाते जायें, 
पान कल के लिये लगाते जायें, 
देख लो आज हमको जी भर के

जापान में भी कुछ समय पहले सकूरा का समय था। मुनीश भाई ने इस विषय पर तोक्यो से बहुत सुन्दर चित्रालेख लगाये थे। उनके शब्दों को दोहराऊँ तो सकूरा में जापानी संस्कृति का रहस्य छिपा है। भले ही कुछ देर के लिये खिलो, लेकिन ऐसे खिलो कि संसार वाह कर उठे। सकूरा का समय तो अब पूरा हुआ। मेरे आंगन का सकूरा (क्वांज़न चेरी ब्लॉसम) भी अपने सारे पुष्पों की वर्षा कर के अब हरे पत्तों से लदा हुआ है। लेकिन अन्य बहुत से पेड़ प्रकृति का सौन्दर्य संतुलन बनाने में जी-जान से लगे हुए हैं। प्रकृति में कहाँ से आते हैं इतने रंग? कौन भरता है जीवन में उल्लास। हम भारतीय तो उत्सव-प्रिय लोग हैं मगर वसंत उत्सव पर हमारा एकाधिकार नहीं है। सर्दी में सोई पड़ी प्रकृति के एक अंगड़ाई लेते ही संसार भर में वसंत की खुशबू बिखर जाती है और लोग निकल पड़ते हैं उत्सव मनाने।

अमेरिका की विशेषता है यहाँ की विविधता। भारतीय संस्कृति अपने उत्कर्ष पर थी तब जिस प्रकार कभी भारत में संसार भर से लोग आया करते थे उसी प्रकार आज अमेरिका विश्व का चुम्बक है। इस महान लोकतंत्र में आज आपको हर देश, जाति, संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले मिल जायेंगे। बेशक, इस विविधता ने अमेरिका को वह ऊँचाई प्रदान की है जिसे पाने के लिये संसार के अन्य राष्ट्र ललक रहे हैं। अनेकता में एकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अमेरिका की निरपेक्ष संस्कृति ने हर राष्ट्रीयता को अपनी विशेषतायें बनाये रखने और उनकी उन्नति करने का अवसर दिया है।

यहाँ आपको तिब्बती या अफ़ग़ान ढाबा भी आराम से मिल जायेगा और योग प्रशिक्षण केन्द्र भी। मन्दिर, मस्ज़िद तो हैं ही, विभिन्न भाषा-भाषियों और राष्ट्रीयता वाले अनेक चर्च भी मिल जायेंगे। अगर कोई भारतीय समूह अपने देवता या बाबा की प्रतिष्ठा में हर सप्ताह जगह किसी चर्च से किराये पर लेता हो तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मैंने खुद कई सरकारी स्कूलों में न जाने कितने रविवार को उपनिषदों पर प्रवचन सुने हैं। प्राचीन भारत और आधुनिक अमेरिका इस बात के सशक्त उदाहरण हैं कि सहिष्णुता और उदारता किसी राष्ट्र के उत्थान में कितनी आवश्यक है।

जब विविध राष्ट्रीयतायें और विभिन्न समुदाय हैं तो उनके अपने सांस्कृतिक उत्सव होना स्वाभाविक है। इस सप्ताहांत कुछ मित्रों ने बॉस्टन का जापानी वसंत महोत्सव देखने बुलाया। मेरे पास भी उस दिन कुछ खास काम नहीं था। नियत समय पर पहुँच गया नगर के एक प्राचीन चर्च के मैदान में। जाते ही नज़र पड़ी किमोनो स्टाल पर जहाँ बड़ी महिलाओं से लेकर नन्हीं बच्चियाँ तक सभी के ट्राय करने के लिये जापानी परिधान किमोनो उपलब्ध थे। ये दो स्त्रियाँ एक बच्ची को किमोनो पहना रही हैं जिससे हम आगे मिलेंगे।
इस स्टाल पर ये लोग अखबार और पुराने पत्र-पत्रिकाओं के कागज़ से विभिन्न वस्तुयें बनाकर आगंतुकों को दे रहे थे, साथ ही जापानी हिरागाना लिपि में उनके नामपट्ट और बुकमार्क भी बना रहे थे। कुछ बूथ पर कैलिग्राफ़ी और चित्रकला का प्रदर्शन भी था। बच्चे मगन होकर रंगों को मनचाहे रूप प्रदान कर रहे थे।
जापानी परिधान और नीली छतरी में पोज़ देती यह षोडषी निश्चित रूप से जापानी नहीं है। मगर विविधता का यही सौन्दर्य है। जहाँ आप न केवल विभिन्न संस्कृतियों को देखते हैं बल्कि उन्हें महसूस करते हैं और उनका भाग बनने में खुशी का अनुभव करते हैं। भिन्नता से भय नहीं बल्कि मानवता के एक होने का अहसास उपजता है। अफ़्रीकी मूल की युवती को जापानी परिधान में देखना मुझे अच्छा लगा। और भी बहुत से लोग थे जो जापानी वेशभूषा में थे। मौसम अच्छा था शायद इसलिये भीड़ बहुत थी। इतनी भीड़ कि किसी भारतीय मेले की याद आ जाये। किसी भी चित्र का बड़ा रूप देखने के लिये उस पर क्लिक कर सकते हैं।
चर्च के बाहर बने स्टेज पर गीत, संगीत और नृत्य के विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहे थे। मज़े की बात ये थी कि यहाँ भी भाग लेने वालों में जापानी मूल के लोगों के साथ बहुत से लोग अन्य जातियों, राष्ट्रीयताओं वाले थे। समूह गान और ढोल के प्रदर्शनों में भी स्थानीय प्रशिक्षण केन्द्र और स्थानीय छात्रों की कई लाजवाब प्रस्तुतियाँ थीं। दर्शकों की संख्या इतनी अधिक होने की मुझे कतई उम्मीद नहीं थी। ग़नीमत यह थी कि अधिकांश लोग जापानी मूल के थे इसलिये उनकी अद्वितीय विनम्रता के दर्शन हर ओर हो रहे थे।

किस्म-किस्म के स्टाल हैं। जापानी कलाकृतियाँ और चित्रों की बहुतायत है। जापान की यात्रा और जापानी शिक्षा देने वालों की भी कोई कमी नहीं दिखती। बच्चों के लिये बहुत से खेल और मुखौटे भी। यह देखिये जापानी परिधान में एक भारतीय ढोल। यह किसी महिला मंडल का स्टाल था जिसमें अधिकांश जापानी महिलाओं के साथ यह भारतीय युवती मगन होकर ढोल बजाने में व्यस्त थीं। आगे कुछ और झलकियाँ।
जैसे भारत में धार्मिक-सांस्कृतिक समारोहों में देवी-देवता की रथयात्रा या झांकियाँ निकालने की रीति है वैसे ही जापान में भी पालकी पर किसी मन्दिर के अधिष्ठाता देव की यात्रा निकाली जाती है। यह यात्रा जापानी उत्सवों का एक अभिन्न अंग है। इस पालकी को मिकोशी कहते हैं। बॉस्टन का यह जापानी वसंतोत्सव भी मिकोशी के बिना कैसे सम्पन्न होता। सो यहाँ भी एक मिकोशी सजाई गयी और फिर शाम को उसकी यात्रा निकाली गयी।
जाने कहाँ से आ रही थी इतनी भीड़। कार्यक्रम शुरू होने के दो घंटे बाद भी लोग कम होने के बजाय बढते ही जा रहे थे। कुछ ही देर में भोजन समाप्त हो गया। जापान एयर लाइंस वाले तोक्यो तक के मुफ़्त टिकट के लिये रैफ़ल निकाल रहे थे, न जाने कितने लोग उसके लिये भी किस्मत आज़माने में लगे थे।  स्टेज पर इस समय जापानी ड्रम ताइको वादन का प्रदर्शन शुरू होने वाला है जिसके लिये मैं विशेषतौर पर यहाँ आया था। आप मेला देखिये मैं तब तक ताइको  पर यागीबुशी का आनन्द लेता हूँ।
विशालकाय ढोलों पर गज़ब का अधिकार प्रदर्शित करती हुई छोटी लड़कियाँ। मधुर स्वरलहरी के साथ-साथ हमारे डांडिया का अहसास कराती नृत्य गतियाँ भी। बीच-बीच में जापानी में कुछ उद्घोष सा भी जो सुनने में सॉरे जैसा लगता है। उस समय अपने जापानी मित्रों से पूछने का याद नहीं रहा। बाद में कभी पूछकर सही शब्द लिख दूंगा।  लेकिन उस सबके बारे में फिर कभी। अभी तो आपके लिये एक चित्र और है ...

यह हैं इस समारोह के सबसे आकर्षक व्यक्ति का खिताब जीतने वाली प्यारी सी गुड़िया। जय हो!


अब देखिये एक झलकी जापानी ढोलवाद्य की। यह क्लिप यूट्यूब से ली है, जापान के नरिता में हुए एक प्रदर्शन से

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* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
* झलकियाँ जापान की - श्रृंखला

Thursday, April 26, 2012

परशु का आधुनिक अवतार - इस्पात नगरी से [57]


माँ बाप कई प्रकार के होते हैं। एक वे जो बच्चों की उद्दंडता को प्रोत्साहित करते हैं जबकि एक प्रकार वह भी है जो अपने बच्चे की ग़लती होने पर खुद भी शर्मिन्दा होकर क्षमायाचना करते हैं। एक माता पिता बच्चों के पढाई में ध्यान न देने पर उन्हें डराते हैं कि पढोगे नहीं तो घास काटनी पड़ेगी। हमारे यहाँ गर्मी का मौसम रहने तक लगभग प्रत्येक गृहस्वामी/स्वामिनी हफ़्ता दस दिन में अपने लॉन में घास काटता ही नज़र आता है। बेशक, हम भी शनिवार की कई दोपहरी यही महान कार्य करते बिताते हैं। मन में यह भी ख्याल आता है कि कहीं ज़्यादा पढ लेते तो शायद इस काम के भी न रहते। :(
एक दिन घास काटते-काटते देखा कि मेपल का एक छोटा वृक्ष बिजली, केबल, फ़ोन आदि के तारों तक पहुँचने लगा है। सोचा कि समय रहते छाँट दिया जाये तो बेहतर रहेगा। फिर भी मन में दुविधा थी। एक तो यह कि बोनसाई तो सैकड़ों बनाई थीं लेकिन बड़ा पेड़ काटने का कोई अनुभव नहीं था। दूसरी बात यह कि भरे पूरे वृक्ष पर चिड़ियों के घोंसले होने की पूरी सम्भावना थी। सर्दियों में ताम्बई लाल पत्ते पीले होकर गिर जाते हैं। हर तरफ़ प्रकृति के शांत रंगों की बहार सी छा जाती है। ठंड अधिक बढने पर काले कौवों व छोटी गौरय्या के अलावा कोई चिड़िया यहाँ नहीं दिखती है। पेड़ काटने के लिये वही समय उपयुक्त लगा।
मौसम बदलने का इंतज़ार किया। पतझड़ आने पर जब चिड़ियाँ दक्षिण दिशा को और पत्ते रसातल को चले गये तब एक दिन परशुराम जी की जय बोलकर एक आधुनिक परशु, मेरा मतलब है कि एक चेन वाली आरी (चेनसॉ) खरीदी गई। लेकिन सिर मुंडाते ओले पड़ने वाली कहावत का पालन करते हुए जब आरी आई तो बर्फ़ गिरनी शुरू हो गयी। लेकिन अल्लाह के फ़ज़ल से इस बार सर्दियाँ हल्की रहीं और ऐसे कई सप्ताहांत आये जब बर्फ़ का नामोनिशाँ न था। जब कभी मौसम ठीक था तब या तो हम शहर में नहीं थे या घर पर नहीं थे। एक दिन जब पेड़ पूर्णतया पर्णहीन था, आसमान साफ़ था और हम भी ठलुआ थे, सोचा काग़ज़ी कविताई करने के बजाय कुछ ठोस काम किया जाये।
उस शुभ दिन हमने अपने लॉन के सबसे छोटे मेपल पर हाथ आज़मा लिया। आरी वाकई बहुत सशक्त है। पच्चीस फ़िट ऊँचे पेड़ का मुख्य तना काटने में कुछ सेकंड ही लगे। यद्यपि बाद में तने और शाखाओं को छोटे टुकड़ों में काटने में अधिक समय लगा और फिर हमारे आलस के चलते उन्हें हटाने में और भी समय लगा। कुल मिलाकर एक नया अनुभव। कुछ समय तक तो पेड़ का ठूंठ अजीब सा दिखता रहा। वसंत में सब वृक्षों पर नई पत्तियाँ आईं तो यह मेपल भी फिर से खिलखिलाने लगा है।



मेपल के नवपल्लव

मेपल छाँटने से पहले के इस आकाशीय परिदृश्य में वह छोटा मेपल और अन्य सारे वृक्ष दिख रहे हैं। इस मेपल के अलावा तीन अन्य मेपल हैं जो कि खासे बड़े हैं और उनके तने की परिधि 4-5 फ़ुट की होगी यद्यपि इस चित्र में उनमें से बड़े वाले दो अपने से कहीं बड़े ओक वृक्षों से ढंके होने के कारण पूरे दिखाई नहीं दे रहे। यह चित्र अभय जी और दराल जी की टिप्पणियों के बाद प्रश्नोत्तर कार्यक्रम के अंतर्गत जोड़ा गया है।   


... और यह है हमारा तड़ित-परशु मौका-ए-वारदात पर। सात किलो वज़न,  डेढ फ़ुट का फल और कड़ी से कड़ी लकड़ी को मक्खन की तरह काटने में सक्षम।
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Monday, April 23, 2012

जंगल तंत्र - कहानी

(अनुराग शर्मा)

बूढा शेर समझा ही न सका कि जिस शेरनी ने मैत्री प्रस्ताव भेजा है, एक मृत शेरनी की खाल में वह दरअसल एक शेरखोर लोमड़ी है। बेचारा बूढा जब तक समझ पाता, बहुत देर हो चुकी थी। उस शेर की मौत के बाद तो एक सिलसिला सा चल पड़ा। यदि कोई शेर उस शेरनी की असलियत पर शक करता तो वह उसके प्यार में आत्महत्या कर लेने की दुहाई देती। दयालु और बेवकूफ किस्म के शेरों के लिए उसकी चाल भिन्न थी। उन्हें वह अपनी बीमारियों के सच्चे-झूठे किस्से सुनाकर यह जतलाती कि अब उसका जीवन सीमित है। यदि शेर उसकी गुफा में आकर उसे सहारा दे तो उसकी बाहों में वह चैन से मर सकेगी। जो शेर उसके झांसे में आ जाता, अन्धेरी गुफा में बेचैनी से मारा जाता। धीरे-धीरे जंगल में शेरों की संख्या कम होती गयी, जो बचे वे उस एक शेरनी के लिए एक दूसरे के शत्रु बन गये। छोटे-मोटे चूहे, गिलहरी और खरगोश आदि कमज़ोर पशुओं को वह अपना पॉलिश किया हुआ शेरनी वाला कोट दिखाने के लिये लुभाती, वे आते और स्वादिष्ट आहार बनकर उसके पेट में पहुँच जाते थे।

एक दिन जब लोमड़ी अपने घर से निकलने से पहले शेरनी की खाल का कोट पहन रही थी तो कुछ सिंहशावकों ने उसे पहचान लिया और इस धोखे के लिये उसका मज़ाक उड़ाने लगे। घबराई लोमड़ी ने उन्हें डराया धमकाया, पर वे बच्चे न माने। तब लोमड़ी ने अपने प्रेमजाल में फंसाये हुए कुछ जंगली कुत्तों व लकड़बघ्घों को बुलाकर उन बच्चों को डराया। शक्ति प्रदर्शन के उद्देश्य से एक हिरन और कुछ भैंसों को घायल कर दिया। बच्चे तब भी नहीं माने तो उन की शरारतें उनके माता-पिता को बता देने का भय दिखाकर उन्हें धमकाया। अब बच्चे डर गये और लोमड़ी फिर से बेफ़िक्र होकर अपना जीवन शठता के साथ व्यतीत करने लगी।

लगातार मिलती सफलता के कारण लोमड़ी की हिम्मत बढती जा रही थी। शेरों से उसके पारिवारिक सम्बन्ध की बात फ़ैलाये जाने के कारण जंगल के मासूम जानवर उसके खिलाफ कुछ कह नहीं पाते थे। लेकिन गधों द्वारा प्रकाशित जंगल के अखबार पर अभी भी उसका कब्ज़ा नहीं हो सका था जिसमें यदा-कदा उसके किसी न किसी अत्याचार की ख़बरें छाप जाती थीं। ऐसी स्थिति आने पर वह खच्चरों की प्रेस में पर्चियां छपवाकर उस घटना को अपने विरुद्ध द्वेष और ईर्ष्या का परिणाम बता देती थी। हाँ, उसने लोमड़ियों को अपनी असलियत बताकर अपने जाति-धर्म का नाता देकर साथ कर लिया था। यदि कभी बात अधिक बढ़ जाती थी तो यह लोमड़ियाँ एक "निर्दोष" शेरनी के समर्थन में आक्रामक मोर्चा निकाल देती थीं और मार्ग में आये छोटे-मोटे पशु पक्षियों को डकारकर पिकनिक मनाती थीं। इस सब से डरकर जंगल के प्राणी चुप बैठ जाते थे।

जंगल के बाहर ऊंची पहाड़ी पर रहने वाला बाघ काफी दिनों से दूर से यह सब धतकरम देख रहा था। लोमड़ी के दुष्ट व्यवहार के कारण वह उसकी असलियत पहले दिन से ही पहचान गया था। कमज़ोर जानवरों की मजबूरी तो उसे समझ आती थी। पर समर्थ शेरों की मूर्खता पर उसे आश्चर्य होता था। जंगल के एक विद्वान मोर को दौड़ा दौड़ा कर मार डालने के बाद लोमड़ी जब उस बाघ पर हमला करने दौड़ी तब उस बाघ से रहा न गया। उसने लोमड़ी की गुफा के बाहर जाकर उसे धिक्कारा। अपने षडयंत्रों की अब तक की सफलता से अति उत्साहित लोमड़ी ने सोचा कि जब वह बड़े-बड़े बब्बर शेरों को आराम से पचा गयी तो यह बाघ किस खेत की मूली है।

शेरनी की खाल पहनकर घड़ियाली आँसू बहाती लोमड़ी बाहर आयी और फिर से अपने सतीत्व की, नारीत्व की, असुरत्व की, बीमारी की, दुत्कारी की, सब तरह की दुहाई देकर जंगल छोड़ने और आत्महत्या करने की धमकी देने लगी। उसकी असलियत जानकर जब किसी ने उसका विश्वास नहीं किया तो उसने गुप्त सन्देश भेजकर अपने दीवाने लकड़बघ्घों व कुत्तों को पुकारा। बाघ के कारण इस बार वे खुलकर सामने न आये तो उसने चमचौड़ कुत्ते को अपनी नई पार्टी "बुझा दिया" का राष्ट्रीय समन्वयक बनाने की बोटी फेंकी। बोटी देखते ही वह लालची कुत्ता काली गुफा के पीछे से भौंककर वीभत्स शोर करता हुआ अपनी वफ़ादारी दिखाने लगा। पर लोमड़ी इतने भर से संतुष्ट न हुई। उसके दुष्ट मन में इस बाघ को मारकर खाने की इच्छा प्रबल होने लगी। सहायता के लिये उसने लोमड़ियों के दल को बुलाया। मगर भय के कारण उनका हाल भी लकड़बघ्घों व कुत्तों जैसा ही था। तब उसने अपनी अस्मिता की रक्षा का नाम लेकर बचे हुए शेरों को इस बाघ का कलेजा चीर कर लाने के लिए ललकारा।

शेर मैदान में आये तो बाघ ने उन्हें लोमड़ी की असलियत बता दी। शेर तो शेर थे, बाघ की बात से उनकी आँखो पर पड़ा लोमड़ी के कपट का पर्दा झड़ गया। सच्चाई समझ आ गयी और वे अपनी अब तक की मूर्खता का प्रायश्चित करने नगर के चिड़ियाघर में चले गए। अपनी असलियत खुल जाने के बाद लोमड़ी को डर तो बहुत लगा लेकिन उसे अपनी शठता, झूठ और शैतानियत पर पूरा भरोसा था। उसने यह तो मान लिया कि वह शेरनी नहीं है मगर उसने अपने को लोमड़ी मानने से इनकार कर दिया। बाघ की बात को झूठा बताते हुए उसने बेचारगी के साथ टेसुए बहाते हुए कहा कि वह दरअसल एक चीता नारी है और इस अत्याचारी बाघ ने पिछले कई जन्मों में उसे बहुत सताया है। उससे बचने के लिए ही वह मजबूरी में शेरनी का वेश बनाकर चुपचाप अपने दिन गुज़ार रही थी मगर देखो, यह दुष्ट बाघ अब भी उसे चैन से रहने नहीं दे रहा। लोमड़ियों, लकड़बघ्घों व कुत्तों की नारेबाजी तेज़ हो गयी। कुछ छछून्दर तो आगे बढ़-चढ़कर उस बाघ के गले का नाप भी मांगने लगे। गिरगिटों ने अपना रंग बदलते हुए तुरंत ही बाघ द्वारा किए जा रहे लोमड़ी-दमन के खिलाफ़ क्रांति की घोषणा कर दी। चमचौड़ कुत्ते ने फ़िल्मी स्टाइल में भौंकते हुए कहा, "हमारी नेता गाय सी सीधी हैं, जंगल के संविधान में संशोधन करके इन्हें राष्ट्रीय संरक्षित पशु घोषित कर दिया जाना चाहिये।" लोमड़ी ने घोषणा कर दी कि जिस जंगल में उसके जैसी शीलवान नारी को इस प्रकार सरेआम अपमानित किया जाता हो वह उस जंगल को तुरंत छोड़कर चली जायेगी। चमचौड़ कुत्ते ने लोमड़ी के तलवे चाटकर जंगलवासियों को बतलाया कि वह शब्दकोश में से रक्तपिपासु शब्द का अर्थ खूंख्वार से बदलकर शीलवान करने का राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलायेगा।
हमारी नेता गाय सी सीधी हैं, जंगल के संविधान में संशोधन करके इन्हें राष्ट्रीय संरक्षित पशु घोषित कर दिया जाना चाहिये।
लोमड़ियों, लकड़बघ्घों व कुत्तों ने लोमड़ी रानी से रुकने की अपील की और साथ ही बाघ को चेतावनी देकर उसे शेरनी माता यानी लोमड़ी से माफी मांगने को कहा। जब बाघ ने कोई ध्यान नहीं दिया तो अपने मद में चूर लोमड़ी ने अपनी ओर से ही बाघ को माफ़ करने की घोषणा खच्चर प्रेस में छपवा दी। और उसके बाद से नियमित रूप से बाघ के विरुद्ध कहानियाँ बनाकर छपवाने लगी। उसके साथी भी प्रचार में जुट गए। उन्हें लगा कि काम हो गया और लोग उसकी असलियत का सारा किस्सा भूल गए। मगर बाघपत्र से लेकर गर्दभ-समाचार तक किसी न किसी अखबार में अब भी गाहे-बगाहे उसके किसी न किसी अपराध का खुलासा हो जाता था। अब एक ही रास्ता था और शातिर लोमड़ी ने वही अपना लिया। उसने खच्चर प्रेस में एक नयी घोषणा छपवाकर गधों के साथ-साथ सभी चीतों, गेंडों, हाथियों और घोड़ों को भी अपना बाप बना लिया। जहाँ हाथी, घोड़े, गेंडे और चीते किसी दुष्ट लोमड़ी के ऐसे जबरिया प्रयास से खिन्न थे, वहीं गधे बहुत प्रसन्न हैं और अपनी नन्हीं सी, मुन्नी सी, प्यारी सी, भोली सी, (बन्दूक की गोली सी) गुड़िया के सम्मान में एक व्याघ्र-प्रतिरोध सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से जंगल में कुत्तों की भौंक तेज़ होती जा रही है। गधों की संख्या भी दिन ब दिन कम होती जा रही है। लोमड़ी की भी मजबूरी है। चमचौड़ कुत्ते की दुकान में धेला न होना, लोमड़ी की शठता की पोल खुलना, शेरों का जंगल से पलायन, बाघ का कभी हाथ न आ सकना, इतने सारे दर्द, मगर पापी पेट का क्या करे लोमड़ी बेचारी?

गर्दभ-समाचार से छपते-छपते ताज़ा अपडेट: कुछ हंसों के विरुद्ध झूठे पर्चे बाँटने का प्रयास चारों खाने चित्त होने के बाद खिसियानी लोमड़ी जंगल के चीतों को कोरा बेवक़ूफ़ समझकर उन्हें बाघ के खिलाफ़ लामबन्द करने की उछलकूद में लगी है। देखते हैं काग़ज़ी हांडी कितनी बार चढती है।

[समाप्त]
[कहानी व चित्र :: अनुराग शर्मा]
अक्षय तृतीया पर आप सभी को मंगलकामनायें! *
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* कुछ अन्य बोधकृतियाँ *
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* तरह तरह के बिच्छू
* आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र
* कुपोस्ट से आगे क्या?
* नानृतम - एक कविता
* होलिका के सपने
* कोई लेना देना नहीं
* कवि और कौवा ....
* उगते नहीं उजाले

Saturday, April 21, 2012

ओहायो में सरस्वती दर्शन - इस्पात नगरी से [56]

सिनसिनाटी डाउनटाउन की एक इमारत पर भित्तिकला का नमूना
अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों की संख्या भले ही कम हो, भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों की कोई कमी नहीं है। होली, दीवाली, रामनवमी हो, चाहे स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस या गान्धी जयंती, भारत से सम्बन्धित समारोह लगभग हर नगर में होते हैं। उत्सव भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। इन समारोहों में अन्य कार्यक्रमों के साथ साहित्य, संगीत, नृत्य आदि के कार्यक्रम भी चलते हैं। ऐसा नहीं कि यह सब बुज़ुर्गों द्वारा ही संचालित होता हो, नई पीढी भी अपनी सांस्कृतिक विरासत से जुड़े रहने में गर्व का अनुभव करती है। इस सांस्कृतिक गंगा से छलकती बून्दें अक्सर हमें भी भिगोती रहती हैं। इस रामनवमी पर एक भारतीय सांस्कृतिक कार्यक्रम के सिलसिले में ओहायो राज्य के सिनसिनाटी नगर में जाना हुआ। चार-पाँच सौ मील की दूरी को सड़क मार्ग से तय करना अमेरिका में सामान्य सी बात है। सिनसिनाटी मैं पहले भी जा चुका हूँ इसलिये कोई खास बात नहीं थी, मगर फिर भी एक खास बात तो थी। प्रसिद्ध कवयित्री और ब्लॉगर लावण्या जी से परिचय के बाद यह पहली सिनसिनाटी यात्रा थी।

अपनी लावण्या दीदी के घर अनुराग शर्मा
लावण्या जी की ममतामयी आवाज़ फ़ोन पर तो सुनता ही रहा हूँ। उनके साक्षात्कार का मौका छोड़ना नहीं चाहता था। उनकी कवितायें हों या प्रसिद्ध टीवी सीरियल महाभारत के लिये लिखे हुए दोहे, सभी अप्रतिम हैं। लेकिन एक कवयित्री से कहीं आगे वे एक उदार हृदय और महान व्यक्तित्व की स्वामिनी हैं। सुबह जल्दी उठकर घर से निकल पड़े और कुछ घंटों की ड्राइविंग के बाद महान कवि और स्वतंत्रता सेनानी पण्डित नरेन्द्र शर्मा की इस बिटिया के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ।

लावण्या जी एक कलाकार की कूची से

लावण्या जी को बिल्कुल वैसा ही पाया जैसा उनके बारे में सोचा था। उनके पति, बेटी, दामाद और सबका प्यारा नन्हा नोआ, इन सबके बारे में सुनते रहे थे, फ़ेसबुक पर उनसे मुलाकात भी होती रहती थी पर आमने-सामने मिलने की बात ही और है। बहुत खुशी हुई। बच्चे और दामादजी मिलकर मोनोपली खेलते रहे और बड़े लोगों की बातों का सिलसिला बैठक से शुरू होकर लावण्या जी के बनाये शुद्ध शाकाहारी भारतीय भोजन के साथ भी जारी रहा। सभी बहुत अच्छा था। उत्तर प्रदेश के अन्दाज़ में बनी दाल की खुशबू से ही माँ और मामियों की रसोई की याद आ गई।

सिनसिनाटी की यह घोड़ागाड़ी मानो किसी परीकथा से निकली है
पहली भेंट थी मगर ऐसा लग रहा था मानो हम लोगों की पहचान बहुत पुरानी हो। न जाने कितनी बातें थीं मगर समय तो सीमित ही था। शाम के कार्यक्रम में भाग लेने से पहले हमें होटल में चैक इन भी करना था। बातों-बातों में पता लगा कि कार्यक्रम के आयोजक लावण्या जी के परिचित हैं और वे स्वयं भी सपरिवार इस समारोह में आ रही हैं इसलिये उस समय उनसे विदा लेना बहुत भारी नहीं लगा। शाम को अत्यधिक भीड़ और अलग-अलग सीटिंग व्यवस्था बिना मिले ही ऑडिटोरियम से बाहर निकलने का सबब बनी। मगर लावण्या जी का आमंत्रण भी था और हम सब का मन भी, सो अगले दिन घर-वापसी के समय हम फिर उनके घर होते हुए आये। चाय नाश्ते के साथ उनकी रचनायें, माता-पिता से सम्बन्धित स्मृतियाँ, चित्र, कला आदि के दर्शन किये। पंडित जी की हस्तलिपि भी देखने को मिली। सभी परिजनों से विदा लेकर आते समय बड़े भाई, बहनों के घर से वापस आते समय की तरह ही वापसी में हमारे पास बहुत से उपहार थे। लेकिन सबसे बड़ा उपहार था एक बड़ी बहन का स्नेहसिक्त आशीर्वाद!
* सम्बन्धित कड़ियाँ *
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
* पण्डित नरेन्द्र शर्मा - कविता कोश
* रथवान का पाठ - लावण्या जी द्वारा
* लावण्या शाह - वेबसाइट

Tuesday, April 17, 2012

अमर महानायक तात्या टोपे (1814-1859)

तात्या टोपे की समाधि
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ भारत के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के महानायक रामचन्द्र पांडुरंग राव योलेकर से शायद ही कोई अपरिचित हो। जी हाँ, अपनी वीरता और रणनीति के लिये विख्यात महानायक कमांडर तात्या टोपे का वास्तविक नाम यही था।

1814 में योले (या यवले/यउले/यवला) ग्राम में एक देशस्थ कुलकर्णी परिवार में जन्मे तात्या अपने माता-पिता श्रीमती रुक्मिणी बाई व पाण्डुरंग त्र्यम्बक राव भट्ट़ मावलेकर की एकमात्र संतति थे। तात्या का परिवार सन 1818 में नाना साहब पेशवा के साथ ही बिठूर आ गया था। अंग्रेज़ों द्वारा हर कदम पर भारत और भारतीयों के विरुद्ध खेली जा रही चालों के विरुद्ध एक देशव्यापी अभियान संगठित रूप से चलाने में नाना के साथ तात्या का एक बड़ा योगदान था। यह अभियान 1857 के संग्राम से काफ़ी पहले से आरम्भ होकर तात्या टोपे की मृत्यु तक निर्बाध चलता रहा।

लाल कमल अभियान 1857
तात्या टोपे के परिवार की वर्तमान पीढी के श्री पराग टोपे ने कुनबे के अन्य सदस्यों व इतिहासकारों के सहयोग से 1857 के संग्राम के कुछ छिपे हुए पन्नों को रोशन करने का प्रयास किया है। उनके अध्ययन और परिवार में चल रही कथाओं के अनुसार 1857 के संग्राम के तयशुदा आरम्भ से कहीं पहले ही तात्या ने ब्रिटिश सेना के भारतीय प्लाटूनों को कमल भेजकर उनकी भागीदारी, संख्या और सैन्यबल सुनिश्चित करना आरम्भ कर दिया था। भागीदारी में सहमति देने वाले सैनिकों द्वारा कमल की पंखुड़ियाँ रखी जाने के बाद खाली डंडियाँ गिनकर सेना का आगत गमनागमन तय किया गया। डंडियों से निकले कमलगट्टों के मखाने के साथ रोटियों को ग्रामप्रधानों में बाँटकर सेना के संचलन के समय उनके सम्भावित मार्ग पर रसद की आपूर्ति सुनिश्चित करने का काम किया गया। रोटियाँ और कमल बँटने की घटनाओं का ज़िक्र कई इतिहास ग्रंथों में मिलता है परंतु उसका विस्तृत स्पष्टीकरण अन्यत्र नहीं दिखता।

अंग्रेज़ों के लिये सबसे आश्चर्य की बात थी तात्या के दस्तों का संचलन। छापामार युद्ध के माहिर तात्या हर जगह मौजूद थे। खासकर वहाँ, जहाँ अंग्रेज़ों की गणना के अनुसार उतने कम समय में पहुँचा ही न जा सकता हो। उस समय में चम्बल या नर्मदा नदी के एक ओर की सेना का पलक झपकते दूसरी ओर पहुँच जाना किसी आश्चर्य से कम न था। एक बार भारी ब्रिटिश गोलीबारी के बीच भी उनके दस्ते नर्मदा पार करके सलामत निकल गये थे। तात्या टोपे और उनके सिपाहियों के बारे में दंतकथाओं का अम्बार है, विशेषकर मध्य भारत में।

टोपे परिवार, परम्परागत वेशभूषा में (ऑपरेशन रेड लोटस से साभार)
तात्या के विरोधी भी तात्या के सैन्य-संचलन के क़ायल थे। कई ब्रिटिश इतिहासकारों का विश्वास है कि यदि सिन्धिया सरीखे कुछ राजा अंग्रेज़ों के पक्ष में न आये होते तो 1857 में भारत से गोरों का सफ़ाया निश्चित था। ऐतिहासिक कथा यह है कि 7 अप्रैल 1859 को अपने शिविर में सोते हुए तात्या को उनके साथी नरवर के राजा मानसिंह के विश्वासघात की सहायता से अंग्रेज़ों ने बन्दी बना लिया गया। 8 अप्रैल को वे शिवपुरी में जनरल मीड के शिविर में एक युद्धबन्दी थे। 1857 के डेढ वर्ष बाद अभी भी यत्र-तत्र संघर्षरत भारतीय सैनिकों का मनोबल तोड़ने के लिये तात्या टोपे को फ़ांसी देना तो तय था, तो भी शिवपुरी में सैनिक अदालत की काग़ज़ी कार्यवाही पूरी की गयी। फ़ांसी देने से पहले बन्दी तात्या से लिखवाये गये बयानों में उनका नाम तात्या टोपे (नाना साहेब के कार्यकर्ता) लिखा गया है। स्वाधीनता संग्राम में अपनी भागीदारी स्वीकार करते हुए उन्होंने लिखा कि वे अपने देश के महाराज नाना साहेब की ओर से अपनी देशरक्षा के लिये लड़े हैं और वे किसी अन्य सत्ता के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं। न ही उन्होंने अपने जीवन में किसी असैनिक को चोट पहुँचाई है। 15 अप्रैल 1859 को उन्हें मृत्युदंड की सज़ा सुनाई गयी और आज ही के दिन ... 18 अप्रैल 1859 को उन्हें शिवपुरी जेल की चार नम्बर बैरक में फांसी दी गयी थी। कहा जाता है कि उन्हें दो बार फ़ांसी पर लटकाकर अंग्रेज़ों ने अपनी संतुष्टि की थी।

डॉ. राजेश टोपे से एक अविस्मरणीय मुलाकात
इसके बाद बदला लेने के उद्देश्य से अंग्रेज़ सेना के साथ नरवर और ग्वालियर के शासक भी तात्या के परिवारजनों को ढूंढने में लग गये। लम्बे समय तक इस स्वाभिमानी परिवार के सदस्य अपने नाम और वेशभूषा बदलकर अनेक ग़ैर-पारम्परिक पेशों को चुनकर देशभर में भटकते रहे। गर्व की बात यह है कि वर्षों के उत्पीड़न के बावजूद भी स्वस्थ परम्पराओं का सम्मान करने वाला यह परिवार आज सुशिक्षित और समृद्ध हैं। तात्या टोपेज़ ऑपरेशन रेड लोटस के लेखक पराग टोपे अमेरिका में रहते हैं। डॉ राजेश टोपे आयरलैंड में रहे हैं परंतु अधिकांश टोपे परिवारजन भारत में ही रहते हैं।

पराग टोपे के अनुसार तात्या को कभी पकड़ा नहीं जा सका था और वे दरअसल एक छापामार युद्ध में शहीद हुए थे। उनकी शहादत के बाद युद्ध की शैली, सैन्य संचलन आदि में अचानक एक बड़ा अंतर आया। उनकी प्रतीकात्मक फ़ांसी अंग्रेज़ों की एक ज़रूरत थी जिसके बिना स्वतंत्रता संग्राम का पूर्ण पटाक्षेप कठिन था। इस प्रक्रिया के नाट्य रूपांतर में नरवर के राजा ने एक नरबलि देकर अपने गौर प्रभुओं की सहायता की। फ़ांसी लगे व्यक्ति ने अपनी आयु 55 वर्ष बताई थी जबकि उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार उस समय तात्या की आयु 45-46 वर्ष की होनी थी। सत्य जो भी हो, जन्मभूमि की ओर आँख उठाने वालों के छक्के छुड़ा देने वाले तात्या जैसे वीर संसार भर के स्वतंत्रताप्रिय देशभक्तों की नज़र में सदा अमर रहेंगे।

अमर हो स्वतंत्रता!
सम्बन्धित कड़ियाँ
* तात्या टोपे - अधिकारिक वैब साइट
* तात्या टोपे - हिन्दी विकीपीडिया
* तात्या टोपे प्रशंसक पृष्ठ - फ़ेसबुक
* फाँसी नहीं दी गई थी तात्या टोपे को
* प्रेरणादायक जीवन-चरित्र

Sunday, April 8, 2012

खट्टे अंगूर - कविता

(अनुराग शर्मा)

काँटों का सौन्दर्य
सूरज क्रूर
रेत तन्दूर
वृक्ष खजूर

छिन्न गरूर
मिटता नूर
घायल शूर

विरह दस्तूर
सनम मगरूर
सदा मखमूर

फ़र्जी मंसूर
खफ़ा हुज़ूर
प्रीतम दूर

रंज भरपूर
वे मशहूर
मैं मजबूर

Friday, April 6, 2012

नेताजी, गांधीजी और राष्ट्रपिता पर प्रश्न

स्वातंत्र्य-वीर नेताजी व राष्ट्रपिता
पिछले कई दिनों से राष्ट्रपिता चर्चा में हैं। आश्चर्य इस बात पर नहीं है कि राष्ट्रपिता चर्चा में हैं। आश्चर्य इस बात पर भी नहीं है कि इस प्रश्न से कई लोगों के दिल में राष्ट्रभक्ति की चिंगारी फिर से स्फुरित होने लगी है। सच पूछिये तो आश्चर्य है ही नहीं, हाँ दुःख अवश्य है। एक नन्हीं सी बच्ची को अपने राष्ट्र और राष्ट्रपिता के बारे में किये गये इस सामान्य से प्रश्न का जवाब न घर में मिला न विद्यालय में। शर्म की हद तब हो गयी जब सरकार के प्रतिनिधियों की ओर से भी इस सीधे से सवाल का सीधा जवाब नहीं मिला।

पूरी कहानी तो शायद आप सबको पता ही होगी। फिर भी आगे बढने से पहले पूरे किस्से पर फिर से एक सरसरी नज़र मार लेना ठीक ही है। लखनऊ में पांचवीं क्लास में पढने वाली बच्ची ऐश्वर्या पाराशर ने यह जानना चाहा कि महात्मा गांधी राष्ट्रपिता कब बने? पाँचवीं कक्षा की छात्रा है, शायद बच्ची ने सोचा हो कि राष्ट्रपिता कोई सरकारी उपाधि है। घर में, स्कूल में और अन्य सम्भावित स्थानों में भी जब उसे संतोषजनक उत्तर नहीं मिला तो मामला सूचनाधिकार कानून तक पहुँचा। सरकार से एक आवेदन किया गया। प्रधानमंत्री कार्यालय ने पत्र को गृहमंत्रालय के पास भेजा। गृहमंत्रालय ने कहा कि इस पत्र का उत्तर देना उनका काम नहीं है। अंत में यह सवाल राष्ट्रीय अभिलेखागार के पास पहुँचा और जवाब मिला कि महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता की उपाधि दिये जाने के बारे में उनके पास कोई दस्तावेज़ या आधिकारिक जानकारी नहीं है।

नमक सत्याग्रह (6-4-1930)
सरकार के काम करने के तरीके को दर्शाने के लिये यह एक आदर्श उदाहरण है। जिन लोगों पर प्रश्नों के उत्तर देने की ज़िम्मेदारी है वे इस कार्यक्रम का क्रियाकर्म कितनी सुघड़ता से कर रहे हैं, यह इस एक घटना से स्पष्ट है। सरकारी खानापूर्ति कोई नई बात नहीं है, इसलिये मैने भी इस विषय पर लिखने के बारे में ज़्यादा नहीं सोचा। मगर अभी कुछ भाई गांधीजी को राष्ट्रपिता मानने के बजाय नेताजी सुभाषचन्द्रबोस को राष्ट्रपिता मानने की बात करते सुनाई दिये। इस मांग ने एक बार फिर याद दिलाया कि हमें अपने राष्ट्रीय नायकों के बारे में कितनी जानकारी है। एक नन्ही बच्ची के मासूम प्रश्न के बहाने ही सही, यदि हम अपने अतीत को पहचानने का थोड़ा भी प्रयास कर सकें तो बहुत खुशी की बात है।

अपने समय के अनेक नवयुवकों की तरह नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने भी अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत गांधीजी की छत्रछाया में की थी। समय कुछ ऐसा चला कि दोनों के उद्देश्य समान होते हुए भी उनके मार्ग जुदा हो गये। फिर भी नेताजी के हृदय में गांधीजी के लिये सम्मान अंतपर्यंत बना रहा। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के समय गांधीजी को नज़रबन्द करके पुणे के आग़ाखाँ महल में रखा गया था। उसी नज़रबन्दी के दौरान 22 फ़रवरी 1944 को कस्तूरबा गांधी का देहावसान हो गया। यह समाचार मिलने के कुछ समय बाद 4 जून 1944 को रंगून से आज़ाद हिन्द रेडियो के प्रसारण में नेताजी ने भारत छोड़ो का सन्दर्भ देते हुए भारत में किये जा रहे (अहिंसक) आन्दोलन के आज़ादी दिलाने में कारगर होने के बारे में आशंका व्यक्त करते हुए गांधीजी को राष्ट्रपिता कहकर उनके आशीर्वाद से आज़ाद हिंद फ़ौज़ का कार्यक्रम जारी रखने की बात की।
"Father of our Nation in this holy war for India's liberation, we ask for your blessings and good wishes." ~ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस
उल्लेखनीय है कि इस प्रसारण से लगभग दो वर्ष पहले गांधीजी ने नेताजी को देशभक्तों के राजकुमार ("Prince among the Patriots) नाम से सम्बोधित किया था। एक बच्ची के मासूम प्रश्न ने राष्ट्र के दो महानायकों की याद और उनके बीच के भावनात्मक सम्बन्धों की याद ताज़ा करा दी, उसके लिये ऐश्वर्या का आभार!

संयोग से आज डांडी मार्च की वर्षगांठ भी है। जी हाँ, 6 अप्रैल 1930 को प्रातः 6:30 पर गांधीजी ने नमक कानून तोड़ा था और तभी पहली बार भारत में एक बड़ा जन समुदाय स्वाधीनता संग्राम के पक्ष में खुलकर सामने आया था।

  अमर हो स्वतंत्रता!
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