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Sunday, July 15, 2018

हल - लघुकथा

(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

प्लास्टिक और पॉलीथीन के खिलाफ़ आंदोलन इतना तेज़ हुआ कि प्रशासन को यह समस्या हल करने के लिये आपातकालीन सभा बुलानी पड़ी। दो-चार पदाधिकारी प्रदर्शनकारियों के विरुद्ध कठोर कार्रवाई और बलप्रयोग के पक्ष में थे लेकिन अन्य सभी समस्या को गम्भीर मानते हुए एक वास्तविक हल चाहते थे।

“पूर्ण प्रतिबंध” गहन विमर्श के बाद सभा के अध्यक्ष ने कहा। अधिकांश सदस्यों ने सहमति में तालियाँ बजाईं।

“पॉलीथीन के बिना सामान दुकान से घर तक कैसे आयेगा?” एक असंतुष्ट ने पूछा।

“बेंत की कण्डी, काग़ज़ के लिफ़ाफ़े और कपड़े के थैलों में” किसी ने सुझाया।

“खाना पकाने के लिये घी-तेल भी तो चाहिये, वह?”

“घर से शीशे की बोतल लेकर जाइये।”

“एक घर से कोई कितनी बोतलें लेकर जा पायेगा? एक पानी की, एक सरसों के तेल की, एक नारियल के तेल की, एक सिरके की, एक ...” एक सदस्या ने आपत्ति की

“तो तेल-सिरके को भी बैन करना पड़ेगा। दूध लेकर आइये और उसी से घर पर घी बनाइये।” उत्तर तैयार था।

“... दूध? लेकिन सरकारी डेयरी का दूध भी तो पॉलीथीन के पाउच में ही आता है!”

“तो हम दूध को भी बैन कर देंगे।”

“लेकिन, उससे तो बच्चों का स्वास्थ्य प्रभावित होगा ...”

“स्वास्थ्य के लिये दूध छोड़कर अण्डे खाइये न, वे तो दफ़्ती के डब्बों में भी मिलते हैं।”

रात बढ़ती गई, बात बढ़ती गई, प्रतिबंधित सामग्री की सूची भी बढ़ती गई।

अगले दिन अखबार में खबर छपी कि तुरंत प्रभाव से राज्य के बाज़ारों में दूध, और घरों में रसोईघर प्रतिबंधित कर दिये गये हैं। समाचार से यह तथ्य ग़ायब था कि प्रशासनिक परिषद के एक प्रमुख सदस्य राज्य ढाबा संघ के पदाधिकारी थे और दूसरे अण्डा उत्पादक समिति के।

[समाप्त]

Thursday, July 30, 2015

मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन - 31 जुलाई

मैं एक निर्धन अध्यापक हूँ ... मेरे जीवन मैं ऐसा क्या ख़ास है जो मैं किसी से कहूं ~ मुंशी प्रेमचंद (१८८०-१९३६)
मुंशी प्रेमचंद का हिन्दी कथा संकलन मानसरोवर
आज मुंशी प्रेमचंद का जन्मदिन है। हिन्दी और उर्दू साहित्य में रुचि रखने वाला कोई विरला ही होगा जो उनका नाम न जानता हो। हिन्दी (एवं उर्दू) साहित्य जगत में यह नाम एक शताब्दी से एक सूर्य की तरह चमक रहा है। विशेषकर, ज़मीन से जुड़े एक कथाकार के रूप में उनकी अलग ही पहचान है। उनके पात्रों और कथाओं का क्षेत्र काफी विस्तृत है फिर भी उनकी अनेक कथाएँ भारत के ग्रामीण मानस का चित्रण करती हैं। उनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। वे उर्दू में नवाब राय और हिन्दी में प्रेमचंद के नाम से लिखते रहे। आम आदमी की बेबसी हो या हृदयहीनों की अय्याशी, बचपन का आनंद हो या बुढ़ापे की जरावस्था, उनकी कहानियों में सभी अवस्थाएँ मिलेंगी और सभी भाव भी। अपने साहित्यिक जीवनकाल में उन्होने सैकड़ों कहानियाँ और कुछ लेख, उपन्यास व नाटक भी लिखे। उनकी कहानियों पर फिल्में भी बनी हैं और अनेक रेडियो व टीवी कार्यक्रम भी। उनकी पहली हिन्दी कहानी सरस्वती पत्रिका के दिसंबर १९१५ के अंक में "सौत" शीर्षक से प्रकाशित हुई थी और उनकी अंतिम प्रकाशित (१९३६) कहानी "कफन" थी।
जिस युग में उन्होंने लिखना आरंभ किया, उस समय हिंदी कथा-साहित्य जासूसी और तिलस्मी कौतूहली जगत् में ही सीमित था। उसी बाल-सुलभ कुतूहल में प्रेमचंद उसे एक सर्व-सामान्य व्यापक धरातल पर ले आए। ~ महादेवी वर्मा

प्रेमचंद की हिन्दी कथाओं की ऑडियो सीडी
मैं पिछले लगभग सात वर्षों से इन्टरनेट पर देवनागरी लिपि में उपलब्ध हिन्दी (उर्दू एवं अन्य रूप भी) की मौलिक व अनूदित कहानियों के ऑडियो बनाने से जुड़ा रहा हूँ। विभिन्न वाचकों द्वारा "सुनो कहानी" और "बोलती कहानियाँ" शृंखलाओं के अंतर्गत पढ़ी गई कहानियों में से अनेक कहानियाँ मुंशी प्रेमचंद की हैं। आप उनकी कालजयी रचनाओं को घर बैठे अपने कम्प्युटर या चल उपकरणों पर सुन सकते हैं। प्रेमचंद की कुछ कहानियो से हिन्द युग्म ने एक ऑडियो सीडी भी जारी की थी। कुछ चुनिन्दा ऑडियो कथाओं के लिंक यहाँ संकलित हैं। आशा है आपको पसंद आएंगे। यदि आप उनकी (या अपनी पसंद के किसी अन्य साहित्यकार की हिन्दी में मौलिक या अनूदित) कोई कथा विशेष सुनना चाहते हों तो अवश्य बताइये ताकि उसे रेडियो प्लेबैक इंडिया के साप्ताहिक "बोलती कहानियाँ" कार्यक्रम में सुनवाया जा सके।
मुंशी प्रेमचंद की 57 कहानियों के ऑडियो का भंडार, 4 देशों से 9 वाचकों के स्वर में

(31 जुलाई 1880 - 8 अक्तूबर 1936)
सौत (शन्नो अग्रवाल) [दिसंबर १९१५]
निर्वासन (अर्चना चावजी और अनुराग शर्मा)
आत्म-संगीत (शोभा महेन्द्रू और अनुराग शर्मा)
प्रेरणा (शोभा महेन्द्रू, शिवानी सिंह एवं अनुराग शर्मा)
बूढ़ी काकी (नीलम मिश्रा)
ठाकुर का कुआँ' (डॉक्टर मृदुल कीर्ति)
स्त्री और पुरुष (माधवी चारुदत्ता)
शिकारी राजकुमार (माधवी चारुदत्ता)
मोटर की छींटें (माधवी चारुदत्ता)
अग्नि समाधि (माधवी चारुदत्ता)
मंदिर और मस्जिद (शन्नो अग्रवाल)
बड़े घर की बेटी (शन्नो अग्रवाल)
पत्नी से पति (शन्नो अग्रवाल)
पुत्र-प्रेम (शन्नो अग्रवाल)
माँ (शन्नो अग्रवाल)
गुल्ली डंडा (शन्नो अग्रवाल)
दुर्गा का मन्दिर' (शन्नो अग्रवाल)
आत्माराम (शन्नो अग्रवाल)
नेकी (शन्नो अग्रवाल)
मन्त्र (शन्नो अग्रवाल)
पूस की रात (शन्नो अग्रवाल)
स्वामिनी (शन्नो अग्रवाल)
कायर (अर्चना चावजी)
दो बैलों की कथा (अर्चना चावजी)
खून सफ़ेद (अर्चना चावजी)
अमृत (अनुराग शर्मा)
अपनी करनी (अनुराग शर्मा)
अनाथ लड़की (अनुराग शर्मा)
अंधेर (अनुराग शर्मा)
आधार (अनुराग शर्मा)
आख़िरी तोहफ़ा (अनुराग शर्मा)
इस्तीफा (अनुराग शर्मा)
ईदगाह (अनुराग शर्मा)
उद्धार (अनुराग शर्मा)
कौशल (अनुराग शर्मा)
क़ातिल (अनुराग शर्मा)
घरजमाई (अनुराग शर्मा)
ज्योति (अनुराग शर्मा)
बंद दरवाजा (अनुराग शर्मा)
बांका ज़मींदार (अनुराग शर्मा)
बालक (अनुराग शर्मा)
बोहनी (अनुराग शर्मा)
देवी (अनुराग शर्मा)
दूसरी शादी (अनुराग शर्मा)
नमक का दरोगा (अनुराग शर्मा)
नसीहतों का दफ्तर (अनुराग शर्मा)
पर्वत-यात्रा (अनुराग शर्मा)
पुत्र प्रेम (अनुराग शर्मा)
वरदान (अनुराग शर्मा)
विजय (अनुराग शर्मा)
वैराग्य (अनुराग शर्मा) 
शंखनाद (अनुराग शर्मा)
शादी की वजह (अनुराग शर्मा)
सभ्यता (अनुराग शर्मा)
समस्या (अनुराग शर्मा)
सवा सेर गेंहूँ (अनुराग शर्मा)
कफ़न (अमित तिवारी) [१९३६]

Saturday, January 31, 2015

किनाराकशी - लघुकथा

(चित्र व लघुकथा: अनुराग शर्मा)
गाँव में दो नानियाँ रहती थीं। बच्चे जब भी गाँव जाते तो माता-पिता के दवाब के बावजूद भी एक ही नानी के घर में ही रहते थे। दूसरी को सदा इस बात की शिकायत रही। बहला-फुसलाकर या डांट-डपटकर जब बच्चे दूसरी नानी के घर भेज दिये जाते तो जितनी देर वहाँ रहते उन्हें पहली नानी का नाम ले-लेकर यही उलाहनाएं मिलतीं कि उनके पास बच्चों को वशीभूत करने वाला ऐसा कौन सा मंत्र है?  ये वाली तो पहली वाली से कितने ही मायनों में बेहतर हैं। यह वाली नानी क्या बच्चों को मारती-पीटती हैं जो बच्चे उनके पास नहीं आते? बच्चे 10-15 मिनट तक अपना सिर धुनते और फिर सिर झुकाकर पहले वाली नानी के घर वापस चले जाते।

हर साल दूसरी नानी के घर जाकर उनसे मिलने वाले बच्चों की संख्या कम होते-होते एक समय ऐसा आया जब मैं अकेला वहाँ गया। तब भी उन्होने यही शिकवा किया कि उनके सही और सच्चे होने के बावजूद भोले बच्चों ने पहली नानी के किसी छलावे के कारण उनसे किनाराकशी कर ली है। उस दिन के बाद मेरी भी कभी उनसे मुलाक़ात नहीं हुई, हाँ सहानुभूति आज भी है।

Monday, January 12, 2015

कंजूस मक्खीचूस - लघुकथा

दिवाली मिलन के समारोह में जब सुरेखा जी मुस्कराती हुई नजदीक आईं तो खुशी के साथ मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। कहाँ राजा भोज और कहाँ गंगू तेली। शहर की सबसे धनी और प्रसिद्ध भारतीय डॉक्टर। बड़े-बड़े लोगों से पहचान। बिना अपॉइंटमेंट के एक मिनट की बात भी संभव नहीं और बिना कनेक्शन के अपोइंटमेंट भी संभव नहीं।

अरे इन्हें तो मेरा नाम भी पता है, यह भी मालूम है कि मेरा घर दिल्ली में है और मैं परसों छुट्टी पर भारत जा रहा हूँ। दो मिनट की बातचीत में ही इतनी नजदीकी। लोग यूँ ही इन्हें नकचढ़ा और घमंडी बताते हैं। जलते हैं सब इनकी समृद्धि से। ऐसी सुंदरी को काले दिल वाली और इतनी धनाढ्य होने पर भी एक नंबर की कंजूस मक्खीचूस बताते हैं। जलें, मेरी बला से। मैं तो किसी की बातों में आने से रहा।

समारोह के बाद घर आकर पैकिंग आदि करके सोया तो सुबह देर से उठा। अलसाई नींद में ऐसा लगा था जैसे किसी ने द्वार की घंटी बजाई थी। सोचा, उठकर देख ही लूँ। शायद कोई सचमुच आया ही हो, थक हारकर लौट न गया हो। दरवाजा खोला तो बाहर पोलीथीन का एक बड़ा सा लिफाफा रखा था। साथ में एक नोट भी था।

"बुरा न मानें, अपना समझकर यह हक़ जता रही हूँ। इस पैकेट में कुछ रेशमी साड़ियाँ हैं। आप भारत जा ही रहे हैं। वहाँ से ड्राइक्लीन करवा लाइये, यहाँ तो बहुत महंगा है। वापसी पर बिल के अनुसार भुगतान कर दूँगी।

~ आपकी सुरेखा।"


Thursday, October 23, 2014

खान फ़िनॉमिनन - कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)
"गरीबों को पैसा तो कोई भी दे सकता है, उन्हें इज्ज़त से जीना खाँ साहब सिखाते हैं।"

"खाँ साहब के किरदार में उर्दू की नफ़ासत छलकती है।"

"अरे महिलाओं को प्रभावित करना तो कोई खान साहब से सीखे।"

"कभी शाम को उनके घर पर जमने वाली बैठकों में जा के तो देख। दिल्ली भर की फैशनेबल महिलायें वहाँ मिल जाएंगी।"

"खाँ साहब कभी भी मिलें, गजब की सुंदरियों से घिरे ही मिलते हैं।

"महफिल हो तो खाँ साब की हो, रंग ही रंग। सौन्दर्य और नज़ाकत से भरपूर।"

बहुत सुना था खाँ साहब के बारे में। सुनकर चिढ़ भी मचती थी। रईस बाप की बिगड़ी औलाद, उस बददिमाग बूढ़े के व्यक्तित्व में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे मैं प्रभावित होता। कहानी तो वह क्या लिख सकता है, हाँ संस्मरणों के बहाने, अपने सच्चे-झूठे प्रेम-प्रसंगों की डींगें ज़रूर हाँकता रहता है। अपनी फेसबुक प्रोफाइल पर भी यह कुंठित व्यक्तित्व केवल महिलाओं के कंधे पर हाथ धरे फोटो ही लगाता है। मुझे नहीं लगता कि उस आदमी में ऐसी एक भी खूबी है जो किसी समझदार महिला या पुरुष को प्रभावित करे। स्वार्थजनित संबंधों की बात और होती है। मतलब के लिए तो बहुत से लोग किसी की भी लल्लो-चप्पो करते रहते हैं। खाँ तो एक बड़े साहित्यिक मठ द्वारा स्थापित संपादक है सो छपास की लालसा वाले लल्लू-पंजू लेखकों-कवियों-व्यंग्यकारों द्वारा उसे घेरे रहना स्वाभाविक ही है। एक ही लीक पर लिखे उसके पिटे-पिटाए संस्मरण उसके मठ के अखबार उलट-पलटकर छापते रहते हैं। चालू साहित्य और गॉसिप पढ़ने वालों की संख्या कोई कम तो नहीं है, सो उसके संस्मरण चलते भी हैं। लेकिन इतनी सी बात के कारण उसे कैसानोवा या कामदेव का अवतार मान लेना, मेरे लिए संभव नहीं। मुझे न तो उसके व्यक्तित्व में कभी कोई दम दिखाई दिया और न ही उसके लेखन में।

कस्साब वादों से हटता रहा है, बकरा बेचारा ये कटता रहा है
खाँ साहब कोई पहले व्यक्ति नहीं जिनके बारे में अपनी राय बहुमत से भिन्न है। अपन तो जमाने से मठाधीशों को इगनोर मारने के लिए बदनाम हैं। लेकिन बॉस तो बॉस ही होता है। जब मेरे संपादक जी ने हुक्म दिया कि उसका इंटरव्यू करूँ तो जाना ही पड़ा। नियत दिन, नियत समय पर पहुँच गया। खाँ साहब के एक साफ सुथरे नौकर ने दरवाजा खोला। मैंने परिचय दिया तो वह अदब के साथ एक बड़े से हॉलनुमा कमरे में ले गया। सीलन की बदबू भरे हॉल के अंदर बेतरतीब पड़े सोफ़ों पर 10-12 अधेड़ महिलाएं बैठी थीं। कमरे में बड़ा शोर था। बेशऊर सी दिखने वाली वे महिलाएँ कचर-कचर बात करे जा रही थीं।

कमरे के एक कोने में 90 साल के थुलथुल, खाँ साहब, अपनी बिखरी दाढ़ी के साथ मैले कुर्ते-पाजामे में एक कुर्सी पर चुपचाप पसरे हुए थे। सामने की मेज़ पर किताबें और कागज बिखरे हुए थे। मुझे "दैनंदिन प्रकाशिनी" नामक पत्रिका के खाँ विशेषांक में छपा एक आलेख याद आया जिसमें खान फ़िनॉमिनन की व्याख्या करते हुए यह बताया गया था कि लोग, खासकर स्त्रियाँ, उनकी तरफ इसलिए आकृष्ट होती हैं क्योंकि वे उनकी बातें बहुत ध्यान से सुनते हैं और एक जेंटलमैन की तरह उन्हें समुचित आदर-सत्कार के साथ पूरी तवज्जो देते हैं।

नौकर के साथ मुझे खाँ साहब की ओर बढ़ते देखकर अधिकांश महिलाएँ एकदम चुप हो गईं। खाँ साहब के एकदम नजदीक बैठी युवती ने अभी हमें देखा नहीं था। अब बस एक उसी की आवाज़ सुनाई दे रही थी। ऐसा मालूम पड़ता था कि वह खाँ साहब से किसी सम्मेलन के पास चाहती थी। खाँ साहब ने हमें देखकर कहा, "खुशआमदीद!" तो वह चौंकी, मुड़कर हमें देखा और रुखसत होते हुए कहती गई, "पास न, आप मेरे को, ... परसों ... नहीं, नहीं, कल दे देना"

खाँ साहब ने इशारा किया तो अन्य महिलाएँ भी चुपचाप बाहर निकल गईं। नौकर मुझे खाँ साहब से मुखातिब करके दूर खड़ा हो गया। मैं खाँ साहब को अपना परिचय देता उससे पहले ही वे बोले, "अच्छा! इंटरव्यू को आए हो, गुप्ताजी ने बताया था, बैठो।" हफ्ते भर से बिना बदले कुर्ते-पाजामे की सड़ान्ध असह्य थी। अपनी भाव-भंगिमा पर काबू पाते हुए मैं जैसे-तैसे उनके सामने बैठा तो अपनी दाढ़ी खुजलाते हुए वे अपने नौकर पर झुँझलाये, "अबे खबीस, जल्दी मेरी हियरिंग एड लेकर आ, इनके सवाल सुने बिना उनका जवाब क्या तेरा बाप देगा?"

[समाप्त]

Saturday, August 23, 2014

जोश और होश - बोधकथा

चेले मीर ने सारे दांव सीख लिए थे। जीशीला भी था, फुर्तीला भी। नौजवान था, मेहनती था, बलवान तो होना ही था। फिर भी जो इज्ज़त उस्ताद पीर की थी, उसे मिलती ही न थी। गैर न भी करें, उस्ताद भी उसे बहुत होशियार नहीं समझते थे और सटीक से सटीक दांव पर भी और अधिक होशियार रहने की ही सलाह देते थे।

बहुत सोचा, बहुत सोचा, दिन भर, फिर रात भर सोचा और निष्कर्ष यह निकाला कि जब तक वह शागिर्द बना रहेगा, उसे कोई भी उस्ताद नहीं मानेगा। आगे बढ़ना है तो उसे शागिर्दी छोडकर जाना पड़ेगा। लेकिन उसके शागिर्दी छोड़ने भर से उस्ताद की उस्तादी तो छूटने वाली नहीं न। फिर?

उस्ताद को चुनौती देनी होगी, उसे हराना पड़ेगा। उस्ताद की इज्ज़त इसलिए है क्योंकि वह आज तक किसी से हारा नहीं है। चुनौती नहीं स्वीकारेगा तो बिना लड़े ही हार जाएगा। और अगर मान ली, तब तो मारा ही जाएगा। सारे दांव तो सिखा चुका है, और अब बूढ़ी हड्डियों में इतना दम नहीं बचा है कि लंबे समय तक लोहा ले सके।

लीजिये जनाब, युवा योद्धा ने अखाडा छोड़कर गुरु को ललकार कर मुक़ाबला करने की चुनौती भेज दी। उस्ताद ने हँसकर मान भी ली और यह भी कहा कि पहले भी कुछ चेले नौजवानी में ऐसी मूर्खता कर चुके हैं। उनमें से कई मुक़ाबले के दिन कब्रिस्तान सिधार गए और कुछ आज भी बेबस चौक पर भीख मांगते हैं। युवा योद्धा इन बातों से बहकने वाला नहीं था। मुक़ाबले में समय था फिर भी टाइमटेबल बनाकर गुरु के सिखाये सारे गुरों का अभ्यास लगन से करने लगा।

(चित्र: अनुराग शर्मा)
एक दिन सपने में देखा कि उस्ताद से मुक़ाबला है। वह ज़मीन पर पड़ा है और उस्ताद ने तलवार उसकी गर्दन पर टिकाई हुई है। उसने आश्चर्य से पूछा, "इन बूढ़े हाथों में इतनी ताकत कैसे?" उस्ताद ने सिंहनाद कराते हुए कहा, "ताकत मेरी नहीं मेरे गुरू के सूत्र द्वारा बनवाई गई इस तलवार की है।"  बेचैनी में आँख खुली तो फिर नींद न आई। सुबह उठते ही पुराने अखाड़े पहुँचकर ताका-झाँकी करने लगा। गाँव का लुहार उसके सामने ही अखाड़े में गया। उस्ताद उसे अक्सर बुलाते थे। उस्ताद की तलवारें अखाड़े की भट्टी में उनके निर्देशन में ही बनती थीं। शाम को जब लुहार बाहर निकला तो चेले ने पूछा, "क्या करने गया था?" लुहार ने बताया कि उस्ताद पाँच फुट लंबी तलवार बनवा रहे हैं, आज ही पूरी हुई है।

जोशीले चेले ने सोने का एक सिक्का लुहार के हाथ में रखकर उसी समय आठ फुट लंबी तलवार मुकाबले से पहले बनाकर लाने का इकरार करा लिया और घर जाकर चैन से सोया।

दिन बीते, मुकाबला शुरू हुआ। गुरु की कमर में पाँच फुट लंबी म्यान बंधी थी तो चेले की कमर में आठ फुट लंबी। तुरही बजते ही दोनों के हाथ तलवार की मूठ पर थे। चेले के हाथ छोटे पड़ गए, म्यान से आठ फुटी तलवार बाहर निकल ही न सकी तब तक उस्ताद ने नई पाँच फुटी म्यान से अपनी पुरानी सामान्य छोटी सी तलवार निकालकर उसकी गर्दन पर टिका दी।

होश के आगे जोश एक बार फिर हार गया था।

[समाप्त]

Monday, June 9, 2014

सत्य पर एक नज़र - दो कथाओं के माध्यम से

1. दो सत्यनिष्ठ (संसार की सबसे छोटी बोधकथा)
चोटी पर बैठा सन्यासी चहका, "धूप है"।  तलहटी का गृहस्थ बोला, "नहीं, सर्दी है"।  ऊपर चढ़ते पर्वतारोही ने कहा, "ठंड घट रही है।"
2. निबंध - लघुकथा

बच्चा खुश था। उसने न केवल निबंध प्रतियोगिता में भाग लिया बल्कि इतना अच्छा निबंध लिखा कि उसे कोई न कोई पुरस्कार मिलने की पूरी उम्मीद थी। "एक नया दिन" प्रतियोगिता के आयोजक खुश थे। सारी दुनिया से निबंध पहुँचे थे, प्रतियोगिता को बड़ी सफलता मिली थी। आकलन के लिए निबंधों के गट्ठे के गट्ठे शिक्षकों के पास भेजे गए ताकि सर्वश्रेष्ठ निबंधों को इनाम मिल सके।

परीक्षक जी का हँस-हँस के बुरा हाल था। कई निबंध थे ही इतने मज़ेदार। उदाहरण के लिए इस एक निबंध पर गौर फरमाइए।

दिन निकल आया था। सूरज दिखने लगा। दिखता रहा। एक घंटे, दो घंटे, दस घंटे, बीस घंटे, एक दिन पाँच दिन, दो सप्ताह, चार हफ्ते, एक महीना, दो महीने, ....

शुरुआत से आगे पढ़ा ही नहीं गया, रिजेक्ट करके एक किनारे पड़ी रद्दी की पेटी में डाल दिया।  

उत्तरी स्वीडन के निवासी बालक को यह पता ही न था कि कोई विद्वान उसके सच को कोरा झूठ मानकर पूरा पढे बिना ही प्रतियोगिता से बाहर कर देगा।

हमारे संसार का विस्तार वहीं तक है जहाँ तक हमारे अज्ञान का प्रकाश पहुँच सके।          

Sunday, January 19, 2014

भविष्यवाणी - कहानी भाग 5 [अंतिम कड़ी]

कहानी भविष्यवाणी में अब तक आपने पढ़ा कि पड़ोस में रहने वाली रूखे स्वभाव की डॉ रूपम गुप्ता उर्फ रूबी को घर खाली करने का नोटिस मिल चुका था। उनका प्रवास भी कानूनी नहीं कहा जा सकता था। समस्या यह थी कि परदेस में एक भारतीय को कानूनी अड़चन से कैसे निकाला जाय। रूबी की व्यंग्योक्तियाँ और क्रूर कटाक्ष किसी को पसंद नहीं थे, फिर भी हमने प्रयास करने की सोची। रूबी ने अपनी नौकरी छूटने और बीमारी के बारे में बताते हुए कहा कि उसके घर हमारे आने के बारे में उसे शंख चक्र गदा पद्मधारी भगवान् ने इत्तला दी थी। बहकी बहकी बातों के बीच वह कहती रही कि भगवान् ने उसे बताया है यहाँ गैरकानूनी ढंग से रहने पर भी उसे कोई हानि नहीं होनी है जबकि भारत के समय-क्षेत्र में प्रवेश करते ही वह मर जायेगी। उसके हित के लिए हम भी उसकी तरह भगवान से वार्तालाप करने लगे। उसके लिए नौकरी ढूँढने के साथ-साथ उसके संबंधियों की जानकारी भी इकट्ठी करनी शुरू कर दी।
भाग १ , भाग २ , भाग ३ , भाग ४ ; अब आगे की कथा:

पिट्सबर्ग का एक दृश्य
(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

रूबी के पति से बात करना तो हमारी आशंका से कहीं अधिक कठिन साबित हुआ, "उस पगलैट से मेरा कोई लेना देना नहीं है। तंग आ चुका हूँ मुसीबत झेलते-झेलते …"

"कैसी बात कर रहे हैं आप? अपने काम से संसार भर में भारत का नाम रोशन करने वाली इतनी योग्य महिला को ऐसे कहते हुए शर्म नहीं आती?" मुझसे रहा न गया।

"मुझे पाठ मत पढाओ लडके! लेख उसने कोई नहीं लिखे, मैंने लिखे थे। उसे या तो नकल करना आता है या क्रेडिट लेना। जितना नसीब में था, मैंने झेल लिया, अब वो अपने रास्ते है, मैं अपने। तुम भी उस नामुराद औरत से दूर ही रहो वरना जल्दी ही किसी मुसीबत में फंसोगे।"

"कुछ भी हो, अपनी पत्नी के बुरे वक़्त में उसकी सहायता करना आपका कर्त्तव्य है … आखिर आपकी जीवन-संगिनी है वह ..."

"जब पत्नी थी तब बहुत कर ली सहायता, अब मेरा उससे कोई लेना-देना नहीं उस कमबख्त से" मेरी बात बीच में काटकर उस व्यक्ति ने अपनी बात कही और फोन काट दिया. बात वहीं की वहीं रह गई।

मार्ग कठिन था लेकिन उसकी सहायता कैसे की जाय यह सोचना छोड़ा नहीं था, न मैंने, न रोनित ने। नौकरी करना, घर संभालना, और फिर कुछ समय मिले तो रूबी के रिज्यूमे पर काम करना। पता ही न लगा कितना समय बीत गया। उसे सात्विक और पौष्टिक भोजन नियमित मिले, यह ज़िम्मेदारी श्रीमतीजी ने ले ली थी। वह खाने नहीं आती थी तो वे ही खाना लेकर सुबह शाम उसके पास चली जाती थी।

उस दिन काम करते-करते तबीयत कुछ खराब सी लगने लगी। इसी बीच श्रीमतीजी का फोन आया, "आप जल्दी से आ जाइए, रूबी को ले जाने आए हैं।"

"ले जाने आए हैं? कौन?"

उन्होने बताया कि प्रशासन की ओर से कुछ लोग आकर रूबी से बात कर रहे हैं। कौन लोग हैं, यह तो उन्हें भी ठीक से नहीं पता। मुझसे दफ्तर में रुका न गया और मैं तभी घर चला आया। अपार्टमेंट परिसर के द्वार तक पहुँचा तो रूबी को अफ्रीकी मूल के एक लंबे-तगड़े पुलिस अधिकारी के साथ बाहर आते देखा। मैंने उन्हें रोककर रूबी से सारा किस्सा जानना चाहा। उसके कुछ कहने से पहले ही उस पुलिस अधिकारी ने हमें आश्वस्त कराते हुए विनम्रता से बताया कि वह उसे नगर के महिला सुरक्षा संस्थान में ले जाने के लिए आया है। वहाँ उसके रहने-खाने, मनोरंजन व स्वास्थ्य सेवा का प्रबंध तो है ही, प्रशिक्षित जन उसे वीसा प्रक्रिया सुचारु करने और नई नौकरी ढूँढने में सहायता करेंगे। वह जब तक चाहे, महिला सुरक्षा संस्थान में निशुल्क रह सकती है। नई नौकरी मिलने तक वे लोग ही उसके बेरोज़गारी भत्ते के कागज भी तैयार कराएंगे। इन दोनों के पीछे-पीछे महिला सुरक्षा संस्थान की जैकेट पहने दो श्वेत महिलाओं के साथ ही श्रीमतीजी बाहर आईं। रूबी हमसे विदा लेकर उन महिलाओं के साथ, संस्थान की वैन में बैठकर चली गई और फिर उस पुलिस अधिकारी ने जाने से पहले हमें बेफिक्र रहने की सलाह देते हुए अपना हैट उतारकर विदा ली। उसके इमली के कोयले जैसे स्निग्ध चेहरे पर हैट हटाने से अनावृत्त हुए घने कुंचित केश देखकर न जाने क्यों मुझे नानी के घर बड़े से फ्रेम में लगे जर्मनी में छपे कृष्ण जी की पुरानी तस्वीर की याद आ गई।

सबके जाने के बाद अकेले बचे हम दोनों वहीं खड़े हुए बात करने लगे। संस्थान की महिलाओं ने श्रीमतीजी को बताया था कि रूबी नौकरी छूटने के दिन से ही बेरोजगारी भत्ते की अधिकारी थी और वे उसकी बकाया रकम भी उसे दिला देंगे। अपार्टमेंट वालों ने उसकी स्थिति को देखते हुए उस पर बकाया किराया, बिजली आदि का खर्च पहले ही क्षमा कर दिया था।

"चलो सब ठीक ही हुआ। हमारी उम्मीद से कहीं बेहतर" मैंने आश्वस्ति की साँस लेते हुए कहा।

"अरेSSS"  श्रीमतीजी ऐसे चौंकीं जैसे कोई बड़ा रहस्य हाथ लगा हो, " ... आपने देखा हम कहाँ खड़े हैं?" 

"पार्किंग लॉट में, और कहाँ?"

"ध्यान से देखिये, यह बिल्कुल वही जगह है जहाँ इंगित करते हुए रूबी ने भगवान का जहाज़ उतरने की भविष्यवाणी की थी।"

मैं भ्रमित था, क्या ये सारा घटनाक्रम, वाहन लैंडिंग स्थल, और उस पुलिस अधिकारी का चेहरा-मोहरा संयोगमात्र था?

[समाप्त]
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Saturday, October 5, 2013

भविष्यवाणी - कहानी [भाग 4]

कहानी भविष्यवाणी में अब तक आपने पढ़ा कि पड़ोस में रहने वाली रूखे स्वभाव की डॉ रूपम गुप्ता उर्फ रूबी को घर खाली करने का नोटिस मिल चुका था। उनका प्रवास भी कानूनी नहीं कहा जा सकता था। समस्या यह थी कि परदेस में एक भारतीय को कानूनी अड़चन से कैसे निकाला जाय। रूबी की व्यंग्योक्तियाँ और क्रूर कटाक्ष किसी को पसंद नहीं थे, फिर भी हमने प्रयास करने की सोची। रूबी ने अपनी नौकरी छूटने और बीमारी के बारे में बताते हुए कहा कि उसके घर हमारे आने के बारे में उसे शंख चक्र गदा पद्मधारी भगवान् ने इत्तला दी थी। बहकी बहकी बातों के बीच वह कहती रही कि भगवान् ने उसे बताया है यहाँ गैरकानूनी ढंग से रहने पर भी उसे कोई हानि नहीं होनी है जबकि भारत के समय-क्षेत्र में प्रवेश करते ही वह मर जायेगी। उसके हित के लिए हमने भी एक खेल खेलने की सोची।
भाग १ , भाग २ , भाग ३ ; अब आगे की कथा:
(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)

"भगवान् मेरे सामने आकर बताते हैं सारी बात?" वह आत्मविश्वास से बोली, "ठीक वैसे ही जैसे आप खड़े हैं यहाँ।"

"अच्छा! लेकिन हमें तो आज उन्होंने यह बताया कि आप उनकी बात ठीक से समझ नहीं पा रही हैं। जैसा कि आपको पता है, उन्होंने ही हमें यहाँ आकर आपकी सहायता करने को कहा है।"

"मुझे तो ऐसा कुछ बोले नहीं।"

"बोले तो थे मगर आप समझीं ही नहीं। उन्होंने आपको कई बार बताने की कोशिश की कि वीसा के लिए पुलिस द्वारा न पकड़ा जाना एक सामान्य बात है, लेकिन घर आखिर घर ही होता है। ऐसा न होता तो अपार्टमेंट मैनेजमेंट आपको निकालने का नोटिस ही क्यों भेजता? भगवान् आपको बेघर थोड़ी करना चाहेंगे।"

"आपकी बात गलत है। भगवान् ने ही इन्हें नोटिस भेजने को कहा। ये अपना अपार्टमेंट खाली करायेंगे तभी तो भगवान् मझे खुद आकर लेके जायेंगे।"

उसके आत्मविश्वास को देख मेरा माथा ठनका। खासकर खुद ले जाने की बात सुनकर। मैं जानना चाहता था कि कहीं वह कोई आत्मघाती गलती तो नहीं करने वाली। अगर उसे त्वरित मानसिक सहायता की ज़रुरत है तो उसमें देर नहीं होनी चाहिए थी।"

कैसे ले जायेंगे वे आपको?

"यहाँ से" उसने खिड़की की और इशारा करते हुए कहा।

"क्या?" मैं अवाक था, अगर यह खिड़की से कूदी तो कुछ भी नहीं बचने वाला।

"हाँ ..." मुझे खिड़की के पास ले जाकर उसने बड़े से पार्किंग लॉट के दूर के एक खंड को इंगित करके बताया कि भगवान् का विमान उसे लेने आने पर वहीं रुकेगा।

" ... यहाँ से उनका विमान आयेगा और मुझे अपने साथ ले जाएगा" वह तुनकी, "आपको विश्वास नहीं आया? आप तो कह रहे थे कि भगवान् आपसे भी बात करते हैं।"

"हाँ, बात भी करते हैं और आपको ले जाने की बात भी बताई थी। साथ ही यह भी बोले कि आपके बारे में उनके मन में एक दूसरा प्लान भी है।" मैंने भी एक पत्ता फेंका, "पूरी बात वे अगले सप्ताह तक ही बताएँगे।"

"मुझे भी उनकी बात ठीक से समझ नहीं आई थी ..." वह रुकी, फिर झिझकते हुए बोली, "मैं एमबीबीएस पीएचडी ज़रूर हूँ, लेकिन स्मार्ट बिलकुल नहीं हूँ। सीधी बात भी बड़ी देर से समझ आती है मुझे।"

"अच्छा!" मैंने  अचम्भे का अभिनय क्या, "पढाई कहाँ से की थी आपने?"

कुछ देर वहां रुककर मैंने बातों बातों में उससे उसके बारे में सारी ज़रूरी जानकारी हासिल कर ली। रूबी ने पीएचडी तो फ्रांस में की थी लेकिन भारत में उसका मेडिकल कॉलेज संयोग से वही निकला जो रोनित का था। घर आकर मैंने सबसे पहले रोनित को फोन किया। मैं रूबी को जानता हूँ और वह मेरी पड़ोसन है, यह सुनकर रोनित को आश्चर्य हुआ। उसके हिसाब से तो रूबी का केस एकदम होपलेस था। वह रोनित से सीनियर थी इसलिए उन दोनों का व्यक्तिगत परिचय तो नहीं था लेकिन रूबी की मानसिक अस्थिरता सारे कॉलेज में मशहूर थी। रोनित के अनुसार रूबी से बुरी तरह पक गए प्रबंधन और फैकल्टी का सारा जोर उसे जल्दी से जल्दी डिग्री थमाकर बाहर का रास्ता दिखाने में था। स्थिति की गंभीरता को समझकर उसने अपने कोलेज के सभी पुराने संबंधों को खड़काकर रूबी के परिवार से सम्बंधित जानकारी जल्दी ही निकालकर मुझे देने का वायदा किया। फोन रखते ही मैंने इंटरनेट खंगालना शुरू कर दिया।

उसकी नौकरी में सहायता के उद्देश्य से देर रात जब तक मैंने इंटरनेट की सहायता से उसकी प्रोफेशनल प्रोफाइल और रिज्यूमे तैयार की, रोनित का फोन आया। उसने बताया कि उसे रूबी के परिवार की पूरी जानकारी मिल गयी थी। उसके माँ-बाप इस दुनिया में नहीं थे और इकलौती बहन तो फोन पर उसका नाम सुनते ही रोनित पर चढ़ बैठी. उसने तो फोन पर रूबी को अपनी बहन मानने से भी इनकार कर दिया और रोनित को चेतावनी दी कि दोबारा फोन आने पर पुलिस में जायेगी।

बस एक व्यक्ति है। नंबर मिल गया है लेकिन तुमसे बात किये बिना उसे फोन करना मैंने ठीक नहीं समझा। तुम चाहो तो अभी बात कर सकते हैं।

इसका कौन है वह?

"उसका पति है ... उनके संबंधों की ज़्यादा जानकारी नहीं मिली है, लेकिन यह पक्का है कि वे हैं पति-पत्नी" फिर कुछ रूककर बोला, " ... वैसे जब उसकी सगी बहन उसका नाम सुनते ही इतना भड़क गयी तो पति का भी क्या भरोसा।

"वह खुद भारत जाने का मतलब अपनी मौत बताती है। भारत में भरोसे का कोई संबंधी नज़र नहीं आता। यहाँ अगर नौकरी फिर से बन जाए तो सारा झंझट ही ख़त्म।" मैंने सुझाव दिया।

"हाँ, यही करके देखते हैं। वैसे तो बड़ी विशेषज्ञ है वह। दुनिया के सबसे बड़े जर्नल्स में छप चुकी है। भगवान् जाने, काम पर क्या तमाशा किया होगा।"

कथा का अगला भाग

Saturday, September 21, 2013

भविष्यवाणी - कहानी [भाग 3]

कहानी भविष्यवाणी में अब तक आपने पढ़ा कि पड़ोस में रहने वाली रूखे स्वभाव की डॉ रूपम गुप्ता उर्फ रूबी को घर खाली करने का नोटिस मिल चुका था। उनका प्रवास भी कानूनी नहीं कहा जा सकता था। समस्या यह थी कि परदेस में एक भारतीय को कानूनी अडचन से कैसे निकाला जाय। रूबी की व्यंग्योक्तियाँ और क्रूर कटाक्ष किसी को पसंद नहीं थे, फिर भी हमने प्रयास करने की सोची। रूबी ने कहा कि हमारे उसके घर आने के बारे में उसे शंख चक्र गदा पद्मधारी भगवान् ने इत्तला दी थी।
भाग १
भाग २
अब आगे की कथा:
"और क्या क्या बताया था आपके शंख चक्र गदा पद्मधारी भगवान् ने?" मैंने पूछा

"अपने को हुशियार समझते, आयेंगे समझाने लोग ..." उसने तुनककर कहा

"आप स्थिति की गंभीरता को नहीं समझ रही हैं। यदि व्यवस्था को पता लगा कि आपका कार्य-वीसा वैलिड नहीं रहा है, तो आपको वापस भेज देंगे।"

"मेरे साथ यह नहीं होने वाला. कार्य दूर, मेरा तो वीसा ही छः महीने पहले ख़त्म हो गया था। होना होता तो अब तक जेल भी हो सकती थी।"

"हाँ, यह तो गनीमत है आप अमेरिका में हैं। और कोई देश होता तो वीसा के बिना अब तक न जाने क्या दुर्दशा हुई होती। लेकिन गैरकानूनी होना तो कहीं भी सही नहीं है। आपके लिए भारत वापस जाना ही सही है। आप परेशान न हों, हम आपके टिकट की व्यवस्था कर देंगे।"

"मैंने आपका क्या बिगाड़ा है? आप मुझसे परेशान हैं? मुझे मारना चाहते हैं?

"नहीं, आपके पास वापसी का टिकट नहीं है, हम घर वापस जाने में आपकी मदद करना चाहते हैं। बस इतनी सी बात है।" समझाने की कमान इस बार श्रीमती जी ने संभाली।

"टिकट दिलाने में मरने-मारने की बात कहाँ से आ गयी?" पूछे बिना रहा नहीं गया मुझसे।

उसने मेरी और ऐसे देखा जैसे संसार में मुझसे बड़ा नादान कोई और न हो। फिर कुछ सोचकर मेरे पास आई और बोली, "इतना समझ लो कि मैं बस उतने दिन ही ज़िंदा हूँ, जितने दिन यहाँ हूँ। आइएसटी (IST भारतीय समय) मेरा काल है और ईएसटी (EST पूर्वोत्तर अमेरिका का स्थानीय समय) मेरा जीवनकाल. मुझे भारत भेजने की बात करने वाला मेरा हत्यारा ही होगा।"

"मुझे कुछ समझ नहीं आया, ठीक से समझायेंगी?"

"जिम में तो आप देखते थे न मुझे? स्विमिंग पूल में भी देखती थी मैं आपको ..."

मुझे याद आया कि अकस्मात नज़र मिलने पर मुस्कान का जवाब तो दूर, मुँह चिढाकर नज़र फेर लेती थी वह।

" ... मेरी नौकरी ऐसे ही नहीं ख़त्म हुई है, वह सब एक षड्यंत्र था मेरे खिलाफ। दुर्घटना हुई थी, फिजियोथेरेपी भी कराती थी मैं और स्विमिंग, योगा, सब तरह के व्यायाम भी करती थी।"

"तो?"

"तो, यह दर्द ठीक होने वाला नहीं। अब मैं नौकरी नहीं कर सकती। भगवान् ने बताया कि इंडिया जाते ही मर जाऊंगी।"

"अच्छा, कैसे बताया भगवान् ने?" मुझे रास्ता सूझने लगा था। अब आगे की योजना ज़्यादा कठिन नहीं लगी, "... भगवान् कान में बोले थे कि चिट्ठी भेजी थी?"

[क्रमशः]
 

Monday, September 2, 2013

भविष्यवाणी - कहानी [भाग 2]

(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)

कहानी भविष्यवाणी की पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि पड़ोस में रहने वाली रूखे स्वभाव की डॉ रूपम गुप्ता उर्फ रूबी को घर खाली करने का नोटिस मिल चुका था। उनका प्रवास भी कानूनी नहीं कहा जा सकता था। समस्या यह थी कि परदेस में एक भारतीय को कानूनी अडचन से कैसे निकाला जाय। अब आगे की कथा:


हम लोगों ने कुछ देर तक विमर्श किया। कई बातें मन में आईं। अपार्टमेंट प्रबंधन से बात तो करनी ही थी। यदि वे कुछ दिनों की मोहलत दें तो मैं स्थानीय परिचितों से मिलकर उसकी नई नौकरी ढूँढने में सहायता कर सकूँगा। लेकिन मेरा मन यह भी चाहता था कि रूबी को भारत वापस लौटाने का कोई साधन बने। टिकट खरीदकर देने में मुझे ज़्यादा तकलीफ नहीं थी। अगर कोई कानूनी अडचन होती तो किसी स्थानीय वकील से बात करने में भी मुझे कोई समस्या नहीं थी। श्रीमती जी उसके खाने पीने और अन्य आवश्यकताओं का ख्याल रखने को तैयार थीं।

शाम सात बजे के करीब हम दोनों उसके अपार्टमेंट के बाहर खड़े थे। मैंने दरवाजा खटखटाया। जब काफी देर तक कोई जवाब नहीं आया तो एक बार फिर कोशिश की। फिर कुछ देर रूककर इंतज़ार किया और वापस मुड़ ही रहे थे कि दरवाजा खुला। तेज़ गंध का एक तूफान सा उठा। सातवीं मंज़िल पर स्थित दरवाजे के ठीक सामने बिना पर्दे की बड़ी सी खिड़की से डूबता सूरज बिखरे बाल और अस्तव्यस्त कपड़ों में खड़ी रूबी के पीछे छिपकर भी अपनी उपस्थिति का बोध करा रहा था। उसने हमें अंदर आने को नहीं कहा। दरवाजे से हटी भी नहीं। बल्कि जब उसने हम दोनों पर प्रश्नवाचक दृष्टि डाली तो मुझे समझ ही नहीं आया कि क्या कहूँ। मुझे याद ही न रहा कि मैं वहाँ गया किसलिए था। श्रीमती जी ने बात संभाली और कहा, "कैसी हो? हम आपसे बात करने आए हैं।"

कुछ अनमनी सी रूबी ज़रा हिली तो श्रीमती जी घर के अंदर पहुँच गईं और उनके पीछे-पीछे मैं भी अंदर जाकर खड़ा हो गया। इधर उधर देखा तो पाया कि छोटा सा स्टुडियो अपार्टमेंट बिलकुल खाली था। पूरे घर में फर्नीचर के नाम पर मात्र एक स्लीपिंग बैग एक कोने में पड़ा था। दूसरे कोने में किताबों और कागज-पत्र का ढेर था। कपड़े घर भर में बिखरे थे। एक लैंडलाइन फोन अभी भी हुक्ड रहते हुए हमें मुँह सा चिढ़ा रहा था। घर में भरी ऑमलेट की गंध इतनी तेज़ थी कि यदि मैं सामने दिख रही बड़ी सी खिड़की खोलकर अपना सिर बाहर न निकालता तो शायद चक्कर खाकर गिर पड़ता।

एक गहरी सांस लेकर मैंने कमरे में अपनी उपस्थिति को टटोला। मैं कुछ कहता, इससे पहले ही एक कोने की धूल मिट्टी खा रहे रंगीन आटे से बने कुछ अजीब से टूटे-फूटे नन्हे गुड्डे गुड़िया पड़े दिखाई दिये। मैं समझने की कोशिश कर रहा था कि वे क्या हैं, कि श्रीमती जी ने सन्नाटा तोड़ा,

"हम चाहते थे कि आज आप डिनर हमारे साथ ही करें।"

"आज तक तो कभी डिनर पर बुलाया नहीं, आज क्या मेरी शादी है?"

मुझे उसका बदतमीज़ अकखड़पन बिलकुल पसंद नहीं आया, "रहने दो!" मैंने श्रीमती जी से कहा।

"आपके पड़ोसी और भारतीय होने के नाते हमारा फर्ज़ बनाता है कि हम ज़रूरत के वक़्त एक दूसरे के काम आयें", मैं रूबी से मुखातिब हुआ। उसकी भावशून्य नज़रें मुझ पर गढ़ी थीं।"

"आप घबराइए नहीं, सब कुछ ठीक हो जाएगा।" श्रीमती जी का धैर्य बरकरार था।

"सब ठीक ही है। मुझे पता है!" एक लापरवाह सा जवाब आया।

"क्या पता है?" लगता है मैं बहस में पड़ने वाला था।

"कि आप आने वाले हैं मुझे समझाने ..."

"अच्छा! कैसे?"

"अभी मैं भगवान से बातें कर रही थी ..."

"भगवान से ?"

"हाँ! वे ठीक यहीं खड़े थे, इसी जगह ... शंख चक्र गदा पद्म लिए हुए। उन्होने ही बताया।"

उसका कटाक्ष मुझे इस बार भी पसंद नहीं आया। बल्कि एक बार तो मन में यही आया कि उसकी करनी उसे भुगतनी ही है तो हम लोग बीच में क्यों पड़ रहे हैं।


[क्रमशः]

Friday, August 30, 2013

भविष्यवाणी - कहानी [भाग 1]

(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)

रोज़ की तरह सुबह तैयार होकर काम पर जाने के लिए निकला। अपार्टमेंट का दरवाजा खोलते ही एक मानवमूर्ति से टकराया। एक पल को तो घबरा ही गया था मैं। अरे यह तो ... मेरे दरवाजे पर क्यों खड़ी थी? कितनी देर से? क्या कर रही थी? कई सवाल मन में आए। अपनी झुंझलाहट को छिपाते हुए एक प्रश्नवाचक दृष्टि उस पर डाली तो वह सकुचाते हुए बोली, "आपकी वाइफ घर पर हैं? उनसे कुछ काम था, आप जाइए।"

मुझे अहसास हुआ कि मैंने अभी तक दरवाजा हाथ से छोड़ा नहीं था, वापस खोलकर बोला, "हाँ, वह घर पर हैं, जाइए!"

दफ्तर पहुँचकर काम में ऐसा व्यस्त हुआ कि सुबह की बात एक बार भी मन में नहीं आई। शाम को घर पहुँचा तो श्रीमती जी एकदम रूआँसी बैठी थीं।

प्रवासी मरीचिका
"क्या हुआ?"

"सुबह रूबी आई थी ..."

"हाँ, पता है, सुबह मैं निकला तो दरवाजे पर ही खड़ी थी। वैसे तो कभी हाय हॅलो का जवाब भी नहीं देती। तुम्हारे पास क्यों आई थी वह?"

"बहुत परेशानी में है।"

"क्या हुआ है?"

"उसको निकाल रहे हैं अपार्टमेंट से ... कहाँ जाएगी वह?"

"क्यों?"

बात निकली तो पत्थर के नीचे एक कीड़ा नहीं बल्कि साँपों का विशाल बिल ही निकल आया। श्रीमती जी की पूरी बात सुनने पर जो समझ आया उसका सार यह था कि रूबी यानी डॉ रूपम गुप्ता पिछले एक वर्ष से बेरोजगार हैं। एक स्थानीय संस्थान की स्टेम सेल शोधकर्ता की नौकरी से बंधा होने के कारण उनका वीसा स्वतः ही निरस्त है इसलिए उनका यहाँ निवास भी गैरकानूनी है। खैर वह बात शायद उतनी खतरनाक नहीं है क्योंकि अमेरिका इस मामले में उतना गंभीर नहीं दिखता जितना उसे होना चाहिए। डॉ साहिबा के मामले में खराब बात यह थी कि उन्होने छः महीने से घर का किराया नहीं दिया और अब अपार्टमेंट प्रबंधन ने उन्हें अंतिम प्रणाम कह दिया है।

"कल उसे अपार्टमेंट खाली करना है। यहाँ से जाने के लिए टैक्सी बुक करनी थी। बिल की वजह से उसका फोन भी कट गया है, इसीलिए हमारे घर आई थी, फोन करने।"

"फोन नहीं घर नहीं, नौकरी नहीं, तो टैक्सी कैसे बुक की? और कहाँ के लिए? इस अनजान शहर, पराये देश में कहाँ जाएगी वह? कुछ बताया क्या?"

"क्या बताती? दूसरी ही दुनिया में खोई हुई थी। मैंने उसे कह दिया है कि हम लोग मिलकर कोई राह ढूँढेंगे।"

"कल सुबह आप बात करना मैनेजमेंट से, आपकी तो बात मानते हैं वे लोग। आज मैंने रूबी को रोक दिया टैक्सी बुलाने से। हमारे होते एक हिन्दुस्तानी को बेघर नहीं होने देंगे परदेस में।"

"कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन नौकरी छूटते ही, कम से कम वीसा खत्म होने पर भारत वापस चले जाना चाहिए था न। इतने दिन तक यहाँ रहने का क्या मतलब है?"

"वह सब सोचना अब बेकार है। हम करेंगे तो कुछ न कुछ ज़रूर हो जाएगा।"

वैसे तो कभी सीधे मुँह बात नहीं करती। न जाने किस अकड़ में रहती है। फिर भी यह समय ऐसी बातें सोचने का नहीं था। मैंने सहज होते हुए कहा, "ठीक है। कल मैं बात करता हूँ। बल्कि कुछ सोचकर कानूनी तरीके से ही कुछ करता हूँ। अकेली लड़की दूर देश में किसी कानूनी पचड़े में न फँस जाये।"

[क्रमशः]

Friday, June 7, 2013

सुखांत - एक छोटी कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

इंडिया शाइनिंग के बारे में ठीक से नहीं कह सकता लेकिन इतना ज़रूर है कि गांव बदल रहे हैं। धोती-कुर्ते की जगह पतलून कमीज़, चुटिया की जगह घुटे सिर से लेकर फ़िल्मस्टार्स के फ़ैशनेबल इमिटेशन तक, घोड़े, इक्के, बैलगाड़ी की जगह स्कूटर, मोटरसाइकिल और चौपहिया वाहन। किसी-किसी हाथ में दिखने वाले मरफ़ी या फिलिप्स के ट्रांज़िस्टर की जगह हर हाथ में दिखने वाले किस्म-किस्म के मोबाइल फोन।  अनजान डगर, तंग गलियाँ छोटा सा कस्बा। क्या ढूंढने जा रहा है? क्या खोया था? मन? क्या इतने वर्ष बाद सब कुछ वैसा ही होगा? बारह साल बाद तो कानूनी अधिकार भी समाप्त हो जाते हैं शायद। तो क्या लम्बे समय पहले खोया हुआ मन कभी वापस मिलेगा? न मिले, एक बार देख तो लेगा।

मुकेश का परिवार पास ही रहता था। तब वे दोनों बारहवीं कक्षा में एकसाथ ही पढते थे। मनोज अपने घर में अकेला था पर मुकेश की एक छोटी बहन भी थी, नीना। वह कन्या विद्यालय में दसवीं कक्षा में जाती थी। शाम को तीनों साथ बैठकर होमवर्क भी करते और दिनभर का रोज़नामचा भी देखते। प्राइवेसी की आज जैसी धारणा उनके समाज में नहीं थी। उनकी उम्र ज़्यादा नहीं थी, वही जो हाई स्कूल-इंटर के औसत छात्र की होती है लेकिन नीना के लिये रिश्ता ढूंढा जा रहा था। ऊँची जाति लेकिन ग़रीब घर की बेटी का रिश्ता हर बार जुड़ने से पहले ही दहेज़ की बलि चढ जाता।

एक शाम मनोज से गणित के सवाल हल करने में सहायता मांगते हुए अचानक ही पूछ बैठी मासूम। दादा, आप भी अपनी शादी में दहेज़ लेंगे क्या?

"कभी नहीं। क्या समझा है मुझे?"

"तो फिर आप ही क्यों नहीं कर लेते मुझसे शादी?"

यह क्या कह दिया था नीना तुमने? विचारों का एक झंझावात सा उठ खडा हुआ था। वह ज़माना आज के ज़माने से एकदम अलग था। उस ज़माने के नियमों के हिसाब से तो मुकेश की बहन मनोज की भी बहन होती थी। बल्कि पिछले रक्षाबन्धन पर तो वह राखी बांधने भी आयी थी, गनीमत यह थी कि मनोज उस दिन मौसी के घर गया हुआ था।

"यह सम्भव नहीं है नीना।"

"सब कुछ सम्भव है, आपमें साहस ही नहीं है।"

"पता है क्या कह रही हो? जो मुँह में आया बोल देती हो।"

"मुझे अच्छी तरह पता है, तभी कहा है। इतनी पागल भी नहीं हूँ मैं। आप तो वहीं करना जहाँ मोटा दहेज़ मिले।"

समय बीता। नीना की शादी भी हुई, पर हुई एक दुहाजू लड़के से। लड़का कहना शायद ठीक न हो। वर की आयु मनोज और नीना के पिता की आयु का औसत रही होगी। वर की आर्थिक स्थिति शायद नीना के पिता से भी गिरती हुई थी। हाँ दहेज़ का प्रश्न बीच में नहीं आया। एकाध बार मनोज के मन में कुछ चुभन सी हुई लेकिन छोटी जगह का भाग्यवादी माहौल। मनोज ने यही सोचकर मन को समझा लिया कि नसीब से अधिक किसे मिलता है।

कई वर्ष गुज़र गये। बीए करके मनोज को साधारण बीमा में पद मिल गया। माँ को साथ ही बुला लिया। गाँव का घर बेचकर कुछ पैसे भी मिल गये, जो माँ के नाम से बैंक में जमा करा दिये। पिछले दिनों मौसेरे भाई की शादी में गाँव जाने पर मुकेश मिला। पुराने किस्से खुले। पता लगा कि लम्बी बीमारी के बाद नीना के पति की मृत्यु हो गयी थी। तभी से दिल बेचैन था उसका ...

ज़्यादा ढूंढना नहीं पड़ा। नीना के पति का नाम बताने भर से काम हो गया। गन्दी गली का जर्जर घर। दरवाज़े की जगह टाट का पर्दा। सूखकर कांटा हो रही थी नीना लेकिन उस चिर-परिचित मासूम चेहरे को पहचानना बिलकुल भी कठिन न था। बड़ी-बड़ी आँखें कुछ और बड़ी हो गई थीं। बिना डंडी के कप में चाय पीते हुए मनोज बात कम कर रहा था, नीना उत्साह में भरी बोलती जा रही थी और मनोज उसके चेहरे में उसका खोया हुआ कैशोर्य और अपना खोया हुआ भाग्य ढूंढ रहा था। तभी वह आया, "नमस्ते!"

"जुग जुग जियो!" कहते कहते कराह सा उठा मनोज, "क्या हुआ है इसे?"

"बचपन से ही ऐसा है, चल नहीं सकता" नीना ने सहजता से कहा।

"गली भर में सबसे तेज़ दौड़ता हूँ मैं ..." कहते ही बच्चे ने उस छोटे से कमरे में हाथों के सहारे से तेज़ी से एक चक्कर लगाया और फिर मनोज को देख कर मुस्कुराया ।

शहर वापस तो आना ही था। काम-धाम तो छोड़ा नहीं जा सकता। मन कहीं भी फंसा हो, द शो मस्ट गो ऑन।
...
खंडहर भी महल हो जाते हैं कभी? बीते लम्हे मिल पाते हैं कभी?


अध्यापिका ने पूछा, "बच्चे का नाम?"

"रतन"

"माता पिता का नाम?"

मनोज के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गयी जब बड़ी-बड़ी आँखें बोलीं, "नीना और मनोज कुमार।"


[समाप्त]

Wednesday, May 29, 2013

दूरभाष वार्ता मुखौटों से

चेहरे पर चेहरा

- ट्रिङ्ग ट्रिङ्ग 

- हॅलो?

- नमस्ते जी!

- नमस्ते की ऐसी-तैसी! बात करने की तमीज़ है कि नहीं?

- जी?

- फोन करते समय इतना तो सोचना चाहिए कि भोजन का समय है

- क्षमा कीजिये, मुझे पता नहीं था

- पता को मारिए गोली। पता तो चले कि आप हैं कौन?

- जी ... मैं ... अमर अकबर एंथनी, ट्रिपल ए डॉट कॉम लिटरेरी ग्रुप से ...

- ओह, सॉरी जी, आपने तो हमें पुरस्कृत किया था ... हैलो! आप पहले बता देते, तो कोई ग़लतफ़हमी नहीं होती,  हे हे हे!

- जी, वो मैं ... आपके तेवर देखकर ज़रा घबरा गया था

- अजी, जब से आपने सम्मानित किया, अपनी तो किस्मत ही खुल गई। उस साल जब आपके समारोह गया तो वहाँ कुछ ऐसा नेटवर्क बना कि पिछले दो साल में 12 जगह से सम्मानपत्र मिल चुके हैं, दो प्रकाशक भी तैयार हो गये हैं, अभी - मैंने अग्रिम नहीं दिया है बस ...

- यह तो बड़ी खुशी की बात है। मैं यह कहना चाह रहा था कि ...

- इस साल के कार्यक्रम की सूची बन गई?

- जी, बात ऐसी है कि ...

- मेरा नाम तो इस बार और बड़े राष्ट्रीय सम्मान के लिये होगा न? इसीलिये कॉल किया न आपने?

- जी, इस बार मैं राष्ट्रीय पुरस्कार समिति में नहीं हूँ ...

- ठीक तो है, आप इस लायक हैं ही नहीं ...

- जी?

- रत्ती भर तमीज़ तो है नहीं, भद्रजनों को लंच के समय डिस्टर्ब करते हैं आप?

- लेकिन मैंने तो क्षमा मांगी थी

- मांगना छोड़िए, अब थोड़ा शिष्टाचार सीखिये

- हैलो, हैलो!

- कट, कट!

- लगता है कट गया। बता ही नहीं पाया कि इस बार मैं अंतरराष्ट्रीय सम्मान समिति (अमेरिका) का जज हूँ। अच्छा हुआ इनका नखरीलापन पहले ही दिख गया। अब किसी सुयोग्य पात्र को सम्मानित कर देंगे।

Thursday, May 23, 2013

सच्चे फांसी चढ़दे वेक्खे - कहानी

ग्राहक: कोई नई किताब दिखाओ भाई
विक्रेता: यह ले जाइये, मंत्री जी की आत्मकथा, आधे दाम में दे दूंगा
ग्राहक: अरे, ये आत्मकथाएँ सब झूठी होती हैं
विक्रेता: ऐसा ज़रूरी नहीं, इसमें 25% सच है, 25% झूठ
ग्राहक: तो बाकी 50% कहाँ गया?
विक्रेता: उसी के लिये 50% की छूट दे रहा हूँ भाई...
बैंक में हड़बड़ी मची हुई थी। संसद में सवाल उठ गए थे। मामा-भांजावाद के जमाने में नेताओं पर आरोप लगाना तो कोई नई बात नहीं है लेकिन इस बार आरोप ऐसे वित्तमंत्री पर लगा था जो अपनी शफ़्फाक वेषभूषा के कारण मिस्टर "आलमोस्ट" क्लीन कहलाता था। आलमोस्ट शब्द कुछ मतकटे पत्रकारों ने जोड़ा था जिनकी छुट्टी के निर्देश उनके अखबार के मालिकों को पहुँच चुके थे। बाकी सारा देश मिस्टर शफ़्फाक की सुपर रिन सफेदी की चमकार बचाने में जुट गया था।

सरकारी बैंक था सो सामाजिक बैंकिंग की ज़िम्मेदारी में गर्दन तक डूबा हुआ था। सरकारी महकमों और प्रसिद्धि को आतुर राजनेताओं द्वारा जल्दबाज़ी में बनाई गई किस्म-किस्म की अधकचरी योजनाओं को अंजाम तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी ऐसे बैंकों पर ही थी। एक रहस्य की बात बताऊँ, चुनावों के नतीजे उम्मीदवार के बाहुबल, सांप्रदायिक भावना-भड़काव, पार्टी की दारू-पत्ती वितरण क्षमता के साथ-साथ इस बात पर भी निर्भर करते थे कि इलाके की बैंक शाखा ने कितने छुटभइयों को खुश किया है।

पैसे बाँटने की नीति सरकारी अधिकारी और नेता बनाते थे लेकिन उसे वापस वसूलने की ज़िम्मेदारी तो बैंक के शाखा स्तर के कर्मचारियों (भारतीय बैंकिंग की भाषा के विपरीत इस कथा में "कर्मचारी" शब्द में अधिकारी भी शामिल हैं) के सिर पर टूटती थी। पुराने वित्तमंत्री आस्तिक थे सो जब कोई त्योहार आता था, अपने लगाए लोन-मेले में अपनी पार्टी और अपनी जाति के अमीरों में बांटे गए पैसे को लोन-माफी-मेला लगाकर वापसी की परेशानी से मुक्त करा देते थे। लेकिन "आस्तिक" दिखना नए मंत्री जी के गतिमान व्यक्तित्व और शफ़्फाक वेषभूषा के विपरीत था। उनके मंत्रित्व कल में बैंक-कर्मियों की मुसीबतें कई गुना बढ़ गईं क्योंकि नए लोन-मेलों के बाद की नियमित लोन-माफी की घोषणा होना बंद हो गया। बेचारे बैंककर्मियों को इतनी तनख्वाह भी नहीं मिलती थी कि चन्दा करके देश के ऋण-धनी उद्योगपतियों के कर्जे खुद ही चुका दें।

बैंकर दुखी थे। मामला गड़बड़ था। वित्तमंत्री ने न जाने किस धुन में आकर सरकारी बैंकों  की घाटे में जाने की प्रवृत्ति पर एक धांसू बयान दिया था और लगातार हो रहे घाटे पर कड़ाई से पेश आने की घोषणा कर डाली। जोश में उन्होने घाटे वाले खाते बंद करने पर बैंकरों को पुरस्कृत करने की स्कीम भी घोषित कर दी। इधर नेता का मुस्कराता हुआ चेहरा टीवी पर दिखा और उधर कुछ सरफिरे पत्रकारों की टोली ने बैंक का पैसा डकारकर कान में तेल डालकर सो जाने वाले उस नगरसेठ के उन दो खातों की जानकारी अपने अखबार में छाप दी जो संयोग से नेताजी का मौसेरा भाई होता था।

विदेश में अर्थशास्त्र पढे मंत्री जी को बैंकों के घाटे के कारणों जैसे कि बैंकों की सामाजिक-ज़िम्मेदारी, उन पर लादी गई सरकारी योजनाओं की अपरिपक्वता, नेताओं और शाखाओं की अधिकता, स्टाफ और संसाधनों की कमी, क़ानूनों की ढिलाई और बहुबलियों का दबदबा आदि के बारे में जानकारी तो रही होगी लेकिन शायद उन्हें अपने भाई भतीजों के स्थानीय अखबारों पर असर की कमी के बारे में पूरी जानकारी नहीं थी। अखबार का मामला सुलट तो गया लेकिन साढ़े चार  साल से हाशिये पर बैठे विपक्ष के हाथ ऐसा ब्रह्मास्त्र लग गया जिसका फूटना ज़रूरी था।
 
संसद में प्रश्न उठा। सरकारी अमला हरकत में आ गया। पत्रकारों की नौकरी चली गई। एक के अध्यापक पिता नगर पालिका के प्राइमरी स्कूल में गबन करने के आरोप में स्थानीय चौकी में धर लिए गए। दूसरे की पत्नी पर अज्ञात गुंडों ने तेज़ाब फेंक दिया। नेताजी के भाई ने उसी अखबार में अपने देशप्रेम और वित्तीय प्रतिबद्धता के बारे में पूरे पेज का विज्ञापन एक हफ्ते तक 50% छूट पर छपवाया।

बैंक के ऊपर भाईसाहब के घाटे में गए दोनों ऋणों को तीन दिन में बंद करने का आदेश आ गया। जब बैंक-प्रमुख की झाड़ फोन के कान से टपकी तो शाखा प्रमुख अपने केबिन में सावधान मुद्रा में खड़े होकर रोने लगे। उसी वक़्त प्रभु जी प्रकट हुए। बेशकीमती सूट में अंदर आए भाईसाहब के साथ आए सभी लोग महंगी वेषभूषा में थे। उनके दल के पीछे एक और दल था जो इस बैंक के कर्मियों जैसा ही सहमा और थका-हारा दीख रहा था।

डील तय हो चुकी थी। भाईसाहब ने एक खाता तो मूल-सूद-जुर्माना-हर्जाना मिलाकर फुल पेमेंट करके ऑन द स्पॉट ही बंद करा दिया। इस मेहरबानी के बदले में बैंक ने उनका दूसरा खाता बैंक प्रमुख और वित्त मंत्रालय प्रमुख के मूक समझौते के अनुसार सरकारी बट्टे-खाते में डालकर माफ करने की ज़िम्मेदारी निभाई। शाखा-प्रमुख को बैंक के दो बड़े नॉन-परफोरमिंग असेट्स के कुशल प्रबंधन के बदले में प्रोन्नति का उपहार मिला और अन्य कर्मियों को मंत्रालय की ताज़ा मॉरल-बूस्टर योजना के तहत सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी का नकद पुरस्कार। मौसेरे भाई के तथाकथित अनियमितताओं वाले दोनों खातों के बंद हो जाने के बाद मंत्री जी ने भरी संसद में सिर उठाकर बयान देते हुए विपक्ष को निरुत्तर कर दिया।

एक मिनट, इस कहानी का सबसे प्रमुख भाग तो छूट ही गया। दरअसल एक और व्यक्ति को भी प्रोन्नति पुरस्कार मिला। भाईसाहब के साथ बैंक में पहुँचे थके-हारे दल का प्रमुख नगर के ही एक दूसरे सरकारी बैंक का शाखा-प्रमुख था। उसे नगर में उद्योग-विकास के लिए ऋण शिरोमणि का पुरस्कार मिला। भाई साहब के बंद हुए खाते का पूरा भुगतान करने के लिए उसकी शाखा ने ही उन्हें एक नया लोन दिया था।
[समाप्त]

Thursday, July 26, 2012

मियाँमार की चीख-पुकार

सदाबहार मौसम वाले भाई संजय अनेजा ने खाचिड़ी की कहानी सुनाकर बचपन की याद दिला दी। अपना बचपन उतना धर्म-निरपेक्ष नहीं रहा था, शायद इसीलिये बचपन की चार सबसे पुरानी यादें उस जगह (रामपुर) की हैं जिसका नाम ही देश के एक आदर्श व्यक्तित्व "पुरुषोत्तम" के नाम पर है। इन यादों में से एक मन्दिर, एक गुरुद्वारा और एक पुस्तकालय की है। चौथी अपने एक हमउम्र मित्र के साथ शाम के समय पुलिया पर बैठकर समवेत स्वर में "बम बम भोले" कहने की है। श्रावणमास में "बम बम" भजने का आनन्द ही और है लेकिन लगता है कि मेरी जन्मभूमि अब उतनी धर्मनिरपेक्ष नहीं रही।

आज भी याद है कि बरेली में दिन का आरम्भ ही मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से होता था। अज़ान ही नहीं बल्कि अलस्सुबह उनपर धार्मिक गायन प्रारम्भ हो जाता था। आकाशवाणी रामपुर पर भी सुबह आने वाले धार्मिक गीतों के कार्यक्रम में कम से कम एक मुस्लिम भजन भी होता ही था। हिन्दू-मुसलमान दोनों ही समुदाय समान रूप से जातियों में विभाजित थे। हमारी गली में ब्राह्मण, बनिये और कायस्थ रहते थे। उस गली के अलावा हर ओर विभिन्न जातियों के मुसलमान रहा करते थे। भिश्ती, नाई, दर्ज़ी, बढई, घोसी, क़साई, राजपूत, और न जाने क्या-क्या? मुसलमानों के बीच कई जातियाँ - जिन्हें वे ज़ात कहते थे - ऐसी भी थीं जो हिन्दुओं में होती भी नहीं थीं। उस ज़माने में कुछ जातियों ने धर्म की दीवार तोड़कर जाति-सम्बन्धी अंतर्धार्मिक संगठन बनाने के प्रयास भी किये थे मगर मज़हब की दीवार शायद बहुत मजबूत है। अगर ऐसा न होता तो इस सावन पर बरेली के शाहाबाद मुहल्ले में साल में बस एक बार शिव के भजन बजाये जाने पर दिन में पाँच बार लाउडस्पीकरों पर नमाज़ पढने वाला वर्ग भड़कता क्यों? हर साल अपना समय बदलने वाला रमज़ान क्या हज़ारों साल से अपनी जगह टिके सावन को रोक देगा? यह कौन सी सोच है? यह क्या होता जा रहा है मेरे शहर को?

मेरा शहर? यह आग तो हर जगह लगी हुई है। बरेली के बाद फैज़ाबाद में दंगा होने की खबरें आईं। लेकिन जो खबर अपना ड्यू नहीं पा सकी वह थी असम में बंगलाभाषी मुसलमानों द्वारा हज़ारों मूलनिवासियों के गाँव के गाँव फूंक डालने की। ऐसा कैसे हो जाता है जब किसी क्षेत्र के मूल निवासी अपने ही देश, गाँव, घर में असुरक्षित हो जाते हैं? दूसरी भाषा, धर्म, प्रदेश और देश के लोग बाहर से आकर जो चाहे कर सकते हैं? और यह पहली बार तो नहीं है जब बंगाली मुसलमानों ने सामूहिक रूप से असमी आदिवासियों के साथ इस तरह का कृत्य किया है।

लगभग इसी प्रकार की हिंसा का विलोमरूप महाराष्ट्र में हिन्दीभाषियों के विरुद्ध हुई हिंसा के रूप में देखने को मिला था। हर समुदाय दूसरे समुदाय से आशंकित है। लेकिन इस आशंका के बीच भी कुछ समुदाय ऐसे क्यों हैं कि वे हिंसक भी हैं और फिर अपने को सताया हुआ भी बताते रहते हैं?

श्रावण के पहले सोमवार पर श्रीनगर के एक प्राचीन शिव मन्दिर में अर्चना करते दलाई लामा का एक चित्र इंटरनैट पर आने के मिनटों बाद ही मुसलमान नामों की प्रोफ़ाइलों से उनके ऊपर गाली-गलौज शुरू हो गई। कई गालीकारों ने म्यानमार के दंगों में मुसलिम क्षति की बात भी की थी। यह बात समझ आती है कि कम्युनिस्ट चीन के साये में पल रहे म्यानमार के तानाशाही शासन में न जाने कब से सताये जा रहे बौद्धों के दमन के समय मुँह सिये बैठे लोग मुसलमानों की बात आते ही मुखर हो गये लेकिन इस मामले से बिल्कुल असम्बद्ध दलाई लामा को विलेन बनाने का प्रयास किसने शुरू किया यह बात समझ नहीं आती। अपने देश में भी राष्ट्रीय समस्याओं से आँख मून्दकर अमन का राग अलापने वाले लोग अब म्यानमार में मुसलमानों के इन्वॉल्व होते ही मियाँमार-मियाँमार चिल्लाना शुरू हो गये हैं।

अवनीश कुमार देव
हिंसा-प्रतिहिंसा ग़लत है, निन्दनीय है। पर ऐसा क्यों होता है कि अपनी हिंसक मनोवृत्ति और हिंसक प्रतीकों को दूसरों से मनवाने की ज़िद लिये बैठे लोगों से भरे समुदाय को दुनिया भर में बस अपने धर्म के पालकों के प्रति हुआ अन्याय ही दिखता है? कोई आँख इतनी बदरंग कैसे हो सकती है? वैसे हिंसा और धर्म का एक और सम्बन्ध भी है। जहाँ एक वर्ग धर्मान्ध होकर हिंसा कर रहा है वहीं हिंसक-विचारधारा वाला एक दूसरा वर्ग किसी भी धर्म को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। अपने को मज़दूरों का प्रतिनिधि बताने वाली इस विचारधारा ने अब तक न जाने कितने देशों में कम्युनिज़्म लाने के नाम पर इंसानों को कीड़ों-मकौड़ों की तरह कुचला है। ऐसे ही लोगों ने पिछले दिनों मनेसर में हिंसा का वह नंगा नाच किया है जिसकी किसी सभ्य समाज में कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मारुति सुज़ूकी के मानव संसाधन महाप्रबन्धक अवनीश कुमार देव को मनेसर परिसर के अंदर चल रही वार्ता के दौरान जिस प्रकार जीवित जलाया गया उससे आसुरी शक्तियों के मन का मैल और उसका बड़ा खतरा एक बार फिर जगज़ाहिर हुआ है।

दिल्ली में मेट्रो स्टेशन के लिये गहरी खुदाई होने पर मृद्भांडों की खबर मिलते ही मुस्लिम समुदाय सभी नियम कानूनों को ताक़ पे रखकर, नियमों और न्यायालय के आदेश का खुला उल्लंघन करके न केवल सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेता है बल्कि वहाँ रातों-रात एक नई मस्जिद भी बना दी जाती है। तब सिकन्दर बख्त का वह कथन याद आता है जिसमें उन्होंने ऐसा कुछ कहा था कि इस देश में बहुसंख्यक समाज डरकर रहता है क्योंकि अपने को अल्पसंख्यक कहने वालों ने देश के टुकड़े तक कर दिये और बहुसंख्यक उसे रोक भी न सके। तथाकथित अल्पसंख्यक और भी बहुत कुछ कर रहे हैं। मज़े की बात यह है कि यह "अल्पसंख्यक" वर्ग जैन, सिख, पारसी, बौद्ध और विभिन्न जनजातियों आदि जैसा अल्पसंख्यक नहीं है। विविधता भरे इस देश में यह समुदाय हिन्दुओं के बाद सबसे बड़ा बहुसंख्यक है।

समाज में हिंसा और असंतोष बढता जा रहा है इतना तो समझ में आता है। लेकिन दुख इस बात का है कि प्रशासन और व्यवस्था नफ़रत के इस ज़हरीले साँप को इतनी ढील क्यों दे रही है? समय रहते इसे काबू में किया जाये। रस्सी को इतना ढीला मत छोड़ो कि पूरा ढांचा ही भरभराकर गिर जाये। एक बार लोगों के मन में यह बात आ गयी कि प्रशासन के निकम्मेपन के चलते जनता को अपनी, अपने परिवार, देश, धर्म, संस्कृति, इंफ़्रास्ट्रक्चर, व्यवसाय की ज़िम्मेदारी व्यक्तिगत स्तर पर खुद ही उठानी है तो आज के अनुशासनप्रिय लोग भी आत्मरक्षा के लिये प्रत्याघात पर उतर आयेंगे और फिर हालात काफ़ी खराब हो सकते हैं।
गिरा के दीवारें जलाया मकाँ जो, मुड़ के जो देखा लगा अपना अपना
कोई वर्ग सताया हुआ क्यों होता है? लोग पीढियों तक क्यों रोते हैं? किसके किये का फल किसे मिलता है? लीबिया, सीरिया, ईराक़, ईरान, सूडान, सोमालिया और अफ़ग़ानिस्तान ही नहीं, बल्कि पख्तून फ़्रंटियर, पाक कब्ज़े वाला कश्मीर, बलूचिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश का हाल भी देखिये। जो लोग आज़ादी से पहले भारत तोड़ने के मंसूबे बांध रहे थे, उनकी औलादें आज भी उनकी करनी को और अपनी क़िस्मत को रो रही हैं। कम लोगों को याद होगा कि बाद में पाकिस्तानी दमन के प्रतीक बने शेख मुजीबुर्रहमान ने भारत तोड़कर पाकिस्तान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रकृति कैसे काम करती है, मुझे नहीं पता लेकिन इतना पता है कि स्वार्थी की दृष्टि संकीर्ण ही नहीं आत्मघातक भी होती है। जो लोग आज़ादी के दशकों बाद भी इस देश में आग लगाने के प्रयासों में लगे हैं उनकी कितनी आगामी पीढियाँ कितना रोयेंगी इसका अन्दाज़ भी उन्हें समय रहते ही लग जाये तो बेहतर है। जो लोग इतिहास की ग़लतियों से सबक़ नहीं लेते उन्हें वह सब फिर से भोगना पड़ता ही है।


किसका पाकिस्तान, किसका हिन्दुस्तान, किसकी धरती, किसका देश
(पाकिस्तानी पत्रकार हसन निसार)
सम्बन्धित कड़ियाँ
* जावेद मामू - कहानी
* क़ौमी एकता - लघुकथा
* हिन्दी बंगाली भाई भाई - कहानी
* मैजस्टिक मूंछें - चिंतन
* खजूर की गुलामी - शीबा असलम फ़हमी
* जामा मस्जिद में दलाई लामा - मानसिक हलचल
* मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन ऑफ असम [मूसा]

Thursday, June 21, 2012

व्यवस्था - कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

हाथ में गुलदस्ता लेकर वह कमरे में घुसी तो वहाँ का हाल देखकर भौंचक्की रह गई। सब कुछ बिखरा पड़ा था। बिस्तर कपड़ों से भरा था, कमीज़ें, पतलूनें, बनियान, पाजामा, मोज़े आदि तो थे ही, सूट और टाइयाँ भी मजगीले से पड़े थे। गुड़ी-मुड़ी से पड़े साफ़ कपड़ों के बीच एकाध पहने हुए कपड़े भी थे। ग़नीमत यही थी कि पहनी हुई ज़ुराबें कमरे के एक कोने में इकट्ठी थीं। अलमारियों के अलावा भी हर ओर किताबें, नोटबुकक्स, डायरियाँ, रजिस्टर, सीडी, डीवीडी और ब्लू रे आदि डिस्क जमा थीं। और पढने की मेज़? राम, राम! हर आकार के बीसियों कागज़ जिनपर तरह-तरह के नोट्स लिखे हुए थे।

अनेक फ़्लैश ड्राइव्स, पैन, पैंसिलें, एलर्जी और दर्द की दवाओं की डब्बियाँ, पेपर-कटर, हथौड़ी, पेंचकस जैसे छोटे मोटे औज़ार नेल-कटर, कैंची, टेप डिस्पैंसर आदि से प्रतियोगिता कर रहे थे। मेज़ पर चश्मों, बटुओं, पासबुकों, चैकबुकों और रोल किये हुए कई पोस्टरों के बीच अपने लिये जगह बनाते हुए किंडल, टैबलैट, फ़ोन और लैपटॉप पड़े थे। मेज़ के नीचे रखे वर्कस्टेशन से न जाने कितने तार निकलकर मेज़ पर ही रखी हुई कई बाहरी हार्ड डिस्क ड्राइवों को जोड़कर एक अजीब सा मकड़जाल बना रहे थे। उसके ऊपर दो-तीन पत्रिकायें भी पड़ी थीं। साथ की छोटी सी मेज़ पर एक बड़ा सा प्रिंटर रखा था जिस पर कार्डबोर्ड के दो डिब्बे भी एक के ऊपर एक भिड़ाये हुए थे। साथ में ही डाक में आने-जाने वाले पत्रों को छाँटने के लिये एक पोर्टेबल दराज ज़बर्दस्ती अड़ा दिया गया था जोकि अब गिरा तब गिरा की हालत में अपने को संतुलित करने का प्रयास कर रहा था।

बुकशेल्व्स पर किताबों के अलावा भी जिस किसी चीज़ की कल्पना की जा सकती है वह सब मौजूद थी। अपने खोल से कभी निकाले न गये अखबारों के रोल, डम्बल्स, कलाकृति सरीखी मोमबत्तियाँ, देश-विदेश से जमा किया गया कबाड़। कितनी तो कलाई घड़ियाँ ही थीं। पाँच छः तरह के हैड फ़ोन पड़े थे। लैपटॉप के पहियों वाले दो बैग कन्धे पर टांगने वाले थैले को कोने की ओर खिसका रहे थे। कपड़ों की अलमारी के दोनों पट खुले हुए थे और वहाँ से भी काफ़ी कुछ बाहर आने की प्रतीक्षा में था। चाय, कॉफ़ी द्वारा अन्दर से काले पड़े कप, तलहटी में दूध का निशान छोड़ते हुए गिलास और सेरियल की कटोरियाँ। पास पड़ा कूड़ेदान कागज़ों में गर्दन तक डूबा हुआ था।

"हे भगवान! ये क्या हाल बना रखा है?"

"समय नहीं मिला, अगले इतवार को सब ठीक कर दूंगा।"

"आज क्यों नहीं? आज भी तो इतवार ही है।"

"कर ही देता, लेकिन सामान रखने की जगह ही नहीं बची है। न जाने लोग कैसे स्पेस मैनेज करते हैं। लगता है इस काम में मुझे विशेषज्ञ की सहायता की ज़रूरत है।"

"थिंक ऑउट ऑफ़ द बॉक्स!"

"वाह, मेरा ही वाक्यांश मेरे ही सर पर!"

"बेसमेंट में रख दें?"

" ... लेकिन मुझे तो इन सब चीज़ों की ज़रूरत रोज़ ही पड़ती है, ... इसी कमरे में रखना पड़ेगा।"

"तो फिर ... कुछ बॉक्स लेकर ..."

"अरे हाँ, क्लीयर प्लास्टिक के दो बड़े डब्बे ले आता हूँ। उनसे सब सामान व्यवस्थित भी जायेगा और मुझे दिखता भी रहेगा।"

तीन हफ़्ते बाद वह फिर आयी तो कमरे के स्वरूप में अंतर था। उस अव्यवस्था के बीच आड़े-टेढे पड़े दो खाली डब्बे भी अब बाकी सामान के साथ अपने रहने की जगह बना चुके थे।

[समाप्त]

Monday, April 23, 2012

जंगल तंत्र - कहानी

(अनुराग शर्मा)

बूढा शेर समझा ही न सका कि जिस शेरनी ने मैत्री प्रस्ताव भेजा है, एक मृत शेरनी की खाल में वह दरअसल एक शेरखोर लोमड़ी है। बेचारा बूढा जब तक समझ पाता, बहुत देर हो चुकी थी। उस शेर की मौत के बाद तो एक सिलसिला सा चल पड़ा। यदि कोई शेर उस शेरनी की असलियत पर शक करता तो वह उसके प्यार में आत्महत्या कर लेने की दुहाई देती। दयालु और बेवकूफ किस्म के शेरों के लिए उसकी चाल भिन्न थी। उन्हें वह अपनी बीमारियों के सच्चे-झूठे किस्से सुनाकर यह जतलाती कि अब उसका जीवन सीमित है। यदि शेर उसकी गुफा में आकर उसे सहारा दे तो उसकी बाहों में वह चैन से मर सकेगी। जो शेर उसके झांसे में आ जाता, अन्धेरी गुफा में बेचैनी से मारा जाता। धीरे-धीरे जंगल में शेरों की संख्या कम होती गयी, जो बचे वे उस एक शेरनी के लिए एक दूसरे के शत्रु बन गये। छोटे-मोटे चूहे, गिलहरी और खरगोश आदि कमज़ोर पशुओं को वह अपना पॉलिश किया हुआ शेरनी वाला कोट दिखाने के लिये लुभाती, वे आते और स्वादिष्ट आहार बनकर उसके पेट में पहुँच जाते थे।

एक दिन जब लोमड़ी अपने घर से निकलने से पहले शेरनी की खाल का कोट पहन रही थी तो कुछ सिंहशावकों ने उसे पहचान लिया और इस धोखे के लिये उसका मज़ाक उड़ाने लगे। घबराई लोमड़ी ने उन्हें डराया धमकाया, पर वे बच्चे न माने। तब लोमड़ी ने अपने प्रेमजाल में फंसाये हुए कुछ जंगली कुत्तों व लकड़बघ्घों को बुलाकर उन बच्चों को डराया। शक्ति प्रदर्शन के उद्देश्य से एक हिरन और कुछ भैंसों को घायल कर दिया। बच्चे तब भी नहीं माने तो उन की शरारतें उनके माता-पिता को बता देने का भय दिखाकर उन्हें धमकाया। अब बच्चे डर गये और लोमड़ी फिर से बेफ़िक्र होकर अपना जीवन शठता के साथ व्यतीत करने लगी।

लगातार मिलती सफलता के कारण लोमड़ी की हिम्मत बढती जा रही थी। शेरों से उसके पारिवारिक सम्बन्ध की बात फ़ैलाये जाने के कारण जंगल के मासूम जानवर उसके खिलाफ कुछ कह नहीं पाते थे। लेकिन गधों द्वारा प्रकाशित जंगल के अखबार पर अभी भी उसका कब्ज़ा नहीं हो सका था जिसमें यदा-कदा उसके किसी न किसी अत्याचार की ख़बरें छाप जाती थीं। ऐसी स्थिति आने पर वह खच्चरों की प्रेस में पर्चियां छपवाकर उस घटना को अपने विरुद्ध द्वेष और ईर्ष्या का परिणाम बता देती थी। हाँ, उसने लोमड़ियों को अपनी असलियत बताकर अपने जाति-धर्म का नाता देकर साथ कर लिया था। यदि कभी बात अधिक बढ़ जाती थी तो यह लोमड़ियाँ एक "निर्दोष" शेरनी के समर्थन में आक्रामक मोर्चा निकाल देती थीं और मार्ग में आये छोटे-मोटे पशु पक्षियों को डकारकर पिकनिक मनाती थीं। इस सब से डरकर जंगल के प्राणी चुप बैठ जाते थे।

जंगल के बाहर ऊंची पहाड़ी पर रहने वाला बाघ काफी दिनों से दूर से यह सब धतकरम देख रहा था। लोमड़ी के दुष्ट व्यवहार के कारण वह उसकी असलियत पहले दिन से ही पहचान गया था। कमज़ोर जानवरों की मजबूरी तो उसे समझ आती थी। पर समर्थ शेरों की मूर्खता पर उसे आश्चर्य होता था। जंगल के एक विद्वान मोर को दौड़ा दौड़ा कर मार डालने के बाद लोमड़ी जब उस बाघ पर हमला करने दौड़ी तब उस बाघ से रहा न गया। उसने लोमड़ी की गुफा के बाहर जाकर उसे धिक्कारा। अपने षडयंत्रों की अब तक की सफलता से अति उत्साहित लोमड़ी ने सोचा कि जब वह बड़े-बड़े बब्बर शेरों को आराम से पचा गयी तो यह बाघ किस खेत की मूली है।

शेरनी की खाल पहनकर घड़ियाली आँसू बहाती लोमड़ी बाहर आयी और फिर से अपने सतीत्व की, नारीत्व की, असुरत्व की, बीमारी की, दुत्कारी की, सब तरह की दुहाई देकर जंगल छोड़ने और आत्महत्या करने की धमकी देने लगी। उसकी असलियत जानकर जब किसी ने उसका विश्वास नहीं किया तो उसने गुप्त सन्देश भेजकर अपने दीवाने लकड़बघ्घों व कुत्तों को पुकारा। बाघ के कारण इस बार वे खुलकर सामने न आये तो उसने चमचौड़ कुत्ते को अपनी नई पार्टी "बुझा दिया" का राष्ट्रीय समन्वयक बनाने की बोटी फेंकी। बोटी देखते ही वह लालची कुत्ता काली गुफा के पीछे से भौंककर वीभत्स शोर करता हुआ अपनी वफ़ादारी दिखाने लगा। पर लोमड़ी इतने भर से संतुष्ट न हुई। उसके दुष्ट मन में इस बाघ को मारकर खाने की इच्छा प्रबल होने लगी। सहायता के लिये उसने लोमड़ियों के दल को बुलाया। मगर भय के कारण उनका हाल भी लकड़बघ्घों व कुत्तों जैसा ही था। तब उसने अपनी अस्मिता की रक्षा का नाम लेकर बचे हुए शेरों को इस बाघ का कलेजा चीर कर लाने के लिए ललकारा।

शेर मैदान में आये तो बाघ ने उन्हें लोमड़ी की असलियत बता दी। शेर तो शेर थे, बाघ की बात से उनकी आँखो पर पड़ा लोमड़ी के कपट का पर्दा झड़ गया। सच्चाई समझ आ गयी और वे अपनी अब तक की मूर्खता का प्रायश्चित करने नगर के चिड़ियाघर में चले गए। अपनी असलियत खुल जाने के बाद लोमड़ी को डर तो बहुत लगा लेकिन उसे अपनी शठता, झूठ और शैतानियत पर पूरा भरोसा था। उसने यह तो मान लिया कि वह शेरनी नहीं है मगर उसने अपने को लोमड़ी मानने से इनकार कर दिया। बाघ की बात को झूठा बताते हुए उसने बेचारगी के साथ टेसुए बहाते हुए कहा कि वह दरअसल एक चीता नारी है और इस अत्याचारी बाघ ने पिछले कई जन्मों में उसे बहुत सताया है। उससे बचने के लिए ही वह मजबूरी में शेरनी का वेश बनाकर चुपचाप अपने दिन गुज़ार रही थी मगर देखो, यह दुष्ट बाघ अब भी उसे चैन से रहने नहीं दे रहा। लोमड़ियों, लकड़बघ्घों व कुत्तों की नारेबाजी तेज़ हो गयी। कुछ छछून्दर तो आगे बढ़-चढ़कर उस बाघ के गले का नाप भी मांगने लगे। गिरगिटों ने अपना रंग बदलते हुए तुरंत ही बाघ द्वारा किए जा रहे लोमड़ी-दमन के खिलाफ़ क्रांति की घोषणा कर दी। चमचौड़ कुत्ते ने फ़िल्मी स्टाइल में भौंकते हुए कहा, "हमारी नेता गाय सी सीधी हैं, जंगल के संविधान में संशोधन करके इन्हें राष्ट्रीय संरक्षित पशु घोषित कर दिया जाना चाहिये।" लोमड़ी ने घोषणा कर दी कि जिस जंगल में उसके जैसी शीलवान नारी को इस प्रकार सरेआम अपमानित किया जाता हो वह उस जंगल को तुरंत छोड़कर चली जायेगी। चमचौड़ कुत्ते ने लोमड़ी के तलवे चाटकर जंगलवासियों को बतलाया कि वह शब्दकोश में से रक्तपिपासु शब्द का अर्थ खूंख्वार से बदलकर शीलवान करने का राष्ट्रव्यापी आन्दोलन चलायेगा।
हमारी नेता गाय सी सीधी हैं, जंगल के संविधान में संशोधन करके इन्हें राष्ट्रीय संरक्षित पशु घोषित कर दिया जाना चाहिये।
लोमड़ियों, लकड़बघ्घों व कुत्तों ने लोमड़ी रानी से रुकने की अपील की और साथ ही बाघ को चेतावनी देकर उसे शेरनी माता यानी लोमड़ी से माफी मांगने को कहा। जब बाघ ने कोई ध्यान नहीं दिया तो अपने मद में चूर लोमड़ी ने अपनी ओर से ही बाघ को माफ़ करने की घोषणा खच्चर प्रेस में छपवा दी। और उसके बाद से नियमित रूप से बाघ के विरुद्ध कहानियाँ बनाकर छपवाने लगी। उसके साथी भी प्रचार में जुट गए। उन्हें लगा कि काम हो गया और लोग उसकी असलियत का सारा किस्सा भूल गए। मगर बाघपत्र से लेकर गर्दभ-समाचार तक किसी न किसी अखबार में अब भी गाहे-बगाहे उसके किसी न किसी अपराध का खुलासा हो जाता था। अब एक ही रास्ता था और शातिर लोमड़ी ने वही अपना लिया। उसने खच्चर प्रेस में एक नयी घोषणा छपवाकर गधों के साथ-साथ सभी चीतों, गेंडों, हाथियों और घोड़ों को भी अपना बाप बना लिया। जहाँ हाथी, घोड़े, गेंडे और चीते किसी दुष्ट लोमड़ी के ऐसे जबरिया प्रयास से खिन्न थे, वहीं गधे बहुत प्रसन्न हैं और अपनी नन्हीं सी, मुन्नी सी, प्यारी सी, भोली सी, (बन्दूक की गोली सी) गुड़िया के सम्मान में एक व्याघ्र-प्रतिरोध सम्मेलन आयोजित कर रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से जंगल में कुत्तों की भौंक तेज़ होती जा रही है। गधों की संख्या भी दिन ब दिन कम होती जा रही है। लोमड़ी की भी मजबूरी है। चमचौड़ कुत्ते की दुकान में धेला न होना, लोमड़ी की शठता की पोल खुलना, शेरों का जंगल से पलायन, बाघ का कभी हाथ न आ सकना, इतने सारे दर्द, मगर पापी पेट का क्या करे लोमड़ी बेचारी?

गर्दभ-समाचार से छपते-छपते ताज़ा अपडेट: कुछ हंसों के विरुद्ध झूठे पर्चे बाँटने का प्रयास चारों खाने चित्त होने के बाद खिसियानी लोमड़ी जंगल के चीतों को कोरा बेवक़ूफ़ समझकर उन्हें बाघ के खिलाफ़ लामबन्द करने की उछलकूद में लगी है। देखते हैं काग़ज़ी हांडी कितनी बार चढती है।

[समाप्त]
[कहानी व चित्र :: अनुराग शर्मा]
अक्षय तृतीया पर आप सभी को मंगलकामनायें! *
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* कुछ अन्य बोधकृतियाँ *
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* तरह तरह के बिच्छू
* आधुनिक बोधकथा – न ज़ेन न पंचतंत्र
* कुपोस्ट से आगे क्या?
* नानृतम - एक कविता
* होलिका के सपने
* कोई लेना देना नहीं
* कवि और कौवा ....
* उगते नहीं उजाले

Wednesday, March 14, 2012

हिन्दी-बंगाली भाई-भाई

कार्यक्रम का आरम्भ "वन्दे मातरम" के उद्घोष से हुआ। बच्चों के गीत और नृत्यों के अतिरिक्त देशप्रेम के बारे में कई भाषणों के बाद समारोह के समापन से पहले राष्ट्रीय गान गाया गया। उसके बाद भोजन काल आरम्भ हुआ और भोजन के साथ ही लोग छोटे-छोटे दलों में बँट गये। पोड़्मो बाबू से मेरी मुलाकात ऐसे ही एक दल में हुई। भारतीयों की हर सभा में भारत देश की दशा पर तो बात होती ही है। फिर आज तो दिन भी गणतंत्र दिवस का था। पता लगा कि वे चिकित्सक हैं और दो वर्ष पहले ही कलकत्ता से यहाँ आये हैं।

अंग्रेज़ी में चल रही बात बातों-बातों में भारत की समस्याओं पर पहुँची। पोड़्मो बाबू इस बात पर काफ़ी नाराज़ दिखे कि "हम" हिन्दी वाले उन पर हिन्दी थोप रहे हैं। मैंने विनम्रता से कहा कि मैं कुछ हिन्दी अतिवादियों को जानता ज़रूर हूँ परंतु भारत में हिन्दी थोपे जाने जैसी बात होती तो हिन्दी की गति आज कुछ और ही होती। मेरी बात सुने बिना जब उन्होंने दोहराया कि हिन्दी वाले बंगाल पर हिन्दी थोप रहे हैं तो मैंने बात को मज़ाक में लेते हुए कहा कि उन थोपने वालों में मैं कहीं नहीं हूँ, बल्कि मेरे तो खुद के ऊपर हिन्दी थोपने वाले बंगाली हैं। बचपन से अब तक जुथिका रॉय, पंकज मल्लिक, हेमंत कुमार, मन्ना दे, सचिन देव बर्मन, राहुल देव बर्मन, किशोर कुमार, भप्पी लाहिड़ी, अभिजीत, शान आदि ने हिन्दी गाने सुना-सुनाकर मुझे हिन्दी में डुबो डाला।

पोड़्मो बाबू को मेरी बात अच्छी नहीं लगी तो मैंने कहना चाहा कि भाषाई विविधता के देश में सम्पर्क भाषायें बिना थोपे स्वतः भी विकसित हो सकती हैं। उन्हें मेरा यह प्रयास भी पसन्द नहीं आया। समारोह में मौजूद एक बांग्लादेशी अतिथि भी हमारा वार्तालाप सुनकर पास आ गयीं। उनका कहना था कि पाकिस्तान ने भी बांग्लादेश पर अपनी भाषा थोपी थी। मैंने कहा कि भारत और पाकिस्तान की परिस्थितियों की कोई तुलना नहीं है। पाकिस्तान ने तो चुनाव में हार के बावजूद बांगलादेश पर पहले अपना नेता थोपा था और फिर सैनिक दमन भी। लेकिन वे बोलती रहीं कि उनकी बंगाली भाषा पर दूसरी भाषा का थोपा जाना बर्दाश्त नहीं होगा, वह चाहे हिन्दी हो या उर्दू।

मैंने बताया कि हिन्दी वाले खुद अपने क्षेत्रों में हिन्दी नहीं थोप सके तो किसी और पर थोपने कैसे जायेंगे। आधे हिन्दी भाषियों को तो यह भी नहीं पता होगा कि देवनागरी में कितने स्वर व कितने व्यंजन हैं। जिन्हें ग़लती से इतना पता हो उन्हें यह नहीं पता होगा कि हिन्दी में 79 और 89 को क्या-क्या कहते हैं। बात चलती रही। हिन्दी वाले अपनी भाषा के प्रति कोई खास गम्भीर नहीं हैं यह बताने के लिये मैंने उन्हें देश के विभिन्न नगरों के नये (या पुराने?) नामकरण के उदाहरण देते हुए कहा कि कलकत्ता तो हिन्दी अंग्रेज़ी में भी कोलकाता हो गया मगर बनारस तो आधिकारिक हिन्दी में भी काशी नहीं हुआ और न ही लखनऊ किसी भी हिन्दी में लक्ष्मणपुर बना।

गोरा साहब हिन्दी क्षेत्र में (चित्र: हाइंज़ संग्रहालय पिट्सबर्ग से)
कुरेदने पर पता लगा कि डॉक्टर साहब की पूरी शिक्षा अंग्रेज़ी में हुई थी। मैंने नोटिस किया कि उनका लम्बा मूल कुलनाम भी अंग्रेज़ी ने ही काटकर आधा किया था। मैंने अंग्रेज़ी के इस थोपीकरण का उल्लेख बड़ी विनम्रता से किया मगर उन्होंने मुझ हिन्दीभाषी पर लगाये हुए आरोप पर कोई रियायत नहीं दी। ऐसे में मैंने तिनके का सहारा ढूंढने के लिये इधर-उधर मुंडी घुमाई तो मुझे आशा की एक किरण नज़र आयी। राजभाषा हिन्दी वाले स्वाधीन भारत में 25 साल बिताने के बावज़ूद हिन्दी का एक शब्द भी न जानने वाली तिरुमदि कन्नन पास ही खड़ी थीं। मैंने सोचा कि उन्हें बुलाकर पोड़्मो बाबू के सामने हिन्दी के न थोपे जाने का सबूत पेश कर दूँ।

मैंने तिरुमदि कन्नन को पोड़्मो बाबू का आरोप सुना दिया और उनके जवाब की प्रतीक्षा करने लगा। रसम का कटोरा गटककर उन्होंने पास की मेज़ पर रखा और तमिळ अन्दाज़ की अंग्रेज़ी में कहने लगीं, "हाँ, हिन्दी तो पूरे राष्ट्र पर थोप दी गयी है।" मैं भौंचक्का था मगर वे जारी रहीं, "हमारा राष्ट्रीय गान, राष्ट्रीय गीत, टैगोर, बंकिम, सब हिन्दी वाले हैं, तिरुवल्लुवर, दीक्षितर, और भरतियार में से किसी का कुछ भी नहीं लिया गया ..."

"टैगोर और बंकिम चन्द्र, दोनों ही हिन्दी नहीं हैं, उनकी भाषा बंगला है।" मैंने सुधार का प्रयास किया।

"हिन्दी, नेपाली, बंगाली, गुजराती, संस्कृत, सब एक ही बात है - नॉर्थ नॉर्थ है, साउथ साउथ है।"

मुझे उत्तर नहीं सूझा। मगर वे जारी रहीं, " ... बंगाली, हिन्दी भाई-भाई है तभी तो हिन्दी/बंगाली बांगलादेश बनाने के लिये केन्द्र सरकार खासे बड़े पाकिस्तान से लड़ गई जबकि मासूम तमिलों पर इतने अत्याचार होने के बावज़ूद छोटे से श्रीलंका का विरोध करने के बजाये शांतिसेना के नाम पर उनकी सहायता की।"

पोड़्मो बाबू रसगुल्ला खाने के बहाने निकल लिये और मैं आ बैल मुझे मार वाले अन्दाज़ में अपनी थाली में पोंगल और मिष्टि दोई लिये तिरुमदि कन्नन का क्रोध झेल रहा था, "आप उत्तर वाले हम पर हिन्दी बंगाली कल्चर थोप रहे हैं।"

Tuesday, February 28, 2012

भोला - कहानी

पहली बार एक स्थानीय मन्दिर में देखा था उन्हें। बातचीत हुई, परिचय हो गया। पता लगा कि जल्दबाज़ी में अमेरिका आये थे, हालांकि अब तो उस बात को काफ़ी समय हो गया। यहाँ बसने का कोई इरादा नहीं है, अभी कार नहीं है उनके पास, रहते भी पास ही में हैं। उसके बाद से मैं अक्सर उनसे पूछ लेता था यदि उन्हें खरीदारी या मन्दिर आदि के लिये कहीं जाना हो तो बन्दा गाड़ी लेकर हाज़िर है। शुरू-शुरू में तो उन्होंने थोड़ा तकल्लुफ़ किया, "आप बड़े भले हो, इसका मतलब ये थोड़े हुआ कि हम उसका फ़ायदा उठाने लगें।" फिर बाद में शायद उनकी समझ में आ गया कि भला-वला कुछ नहीं, यह व्यक्ति बस ऐसा ही है।

धीरे-धीरे उनके बारे में जानकारी बढ़ने लगी। पति-पत्नी, दोनों ही सरकारी उच्चाधिकारी थे, और अब रिटायरमैंट के आसपास की वय के थे। इस लोक में सफल कहलाने के लिये जो कुछ चाहिये - रिश्ते, याड़ी, आमदनी, बाड़ी, इज़्ज़त, गाड़ी - सभी कुछ था। और उस दुनिया का बेड़ा पार कराने के लिये - उनके पास एक बेटा भी था।

मगर जिस पर बेड़ा पार कराने की ज़िम्मेदारी हो, जब वही बेड़ा ग़र्क कराने पर आ जाये तो क्या किया जाये? महंगे अंग्रेज़ी स्कूलों में बेटे की विद्वता का झंडा गाढ़ने के बाद माँ-बाप ने बड़े अरमान से उसे आगे पढ़ने के लिये अमेरिका भेजा। मगर बेटे ने पढ़ाई करने के बजाये एक गोरी से इश्क़ लड़ाना शुरू कर दिया। खानदानी माता पिता भला यह कैसे बर्दाश्त कर लेते कि बहू तो आये पर दहेज़ रह जाये? सीधे टिकट कटाकर बेटे के एक कमरे के अपार्टमेंट में जम गये।

बेटा भी समझदार था, जल्दी ही मान गया। लड़की का क्या हुआ यह उन्होंने बताया नहीं, और मैंने बीच में टोकना ठीक नहीं समझा। लेकिन उस घटना के बाद से वे बेटे पर दोबारा यक़ीन नहीं कर सके। माताजी की बीमारी का कारण बताकर लम्बी छुट्टी ली और यहीं रुक गये। बॉस ने फटाफट छुट्टी स्वीकार की, सहकर्मी भी प्रसन्न हुए, ऊपरी आमदनी में एक हिस्सा कम हुआ।

इस इतवार को जब शॉपिंग कराकर उन्हें घर छोड़ने गया तो पता लगा कि बेटा घर में ताला लगाकर बाहर चला गया था। इत्तेफ़ाक़ से उस दिन आंटी जी अपनी चाभी घर के अन्दर ही छोड़ आई थीं। कई बार कोशिश करने पर भी बेटे का फ़ोन नहीं लगा। अगर उन्हें वहाँ छोड़ देता तो उन दोनों को सर्दी में न जाने कितनी देर तक बाहर प्रतीक्षा करनी पड़ती। वैसे भी लंच का समय हो चला था। मैंने अनुरोध किया कि वे लोग मेरे घर चलें। उन दोनों को घर अच्छी तरह से दिखाकर श्रीमती जी चाय रखकर खाने की तैयारी में लग गयीं। आंटीजी टीवी देखने लगीं और मैं अंकल जी से बातचीत करने लगा। इधर-उधर की बातें करने के बाद बात भारत में मेरी पिछली नौकरी पर आ गयी। वे सुनहरे दिन, वे खट्टी-मीठी यादें!

वह मेरी पहली नौकरी थी। घर के सुरक्षित वातावरण के बाहर के किस्म-किस्म के लोगों से पहली मुठभेड़! बैंक की नौकरी, पब्लिक डीलिंग का काम। सौ का ढेर, निन्यानवे का फेर। तरह-तरह के ग्राहक और वैसे ही तरह-तरह के सहकर्मी। एक थे जोशीजी, जिन्होंने हर महीने डिक्लेरेशन देने भर से मिलने वाले पर्क्स भी कभी नहीं लिये। एक बार एक नई टीशर्ट पहनकर आये। मैंने कुछ अधिक ही तारीफ़ कर दी तो अगले दिन ही बिल्कुल वैसी एक टीशर्ट मेरे लिये भी ले आये। बनशंकरी जी थीं जो रोज़ सुबह सबसे छिपाकर मेरे लिये कभी वड़े, कभी कुड़ुम, दोसा और कभी उत्पम लेकर आती थीं। अगर मैं उन्हें भूलकर काम में लग जाता तो याद दिलातीं कि ठन्डे होने पर उनका स्वाद कम हो जायेगा।

घर आये लुटेरों का मुकाबला करने के लिये पिस्तौल चलाने के किस्से से मशहूर हुई मिसेज़ पाहवा शाखा में आने वाली हर सुन्दर लड़की के साथ मेरा नाम जोड़कर मुझे छेड़ती रहती थीं। तनेजा भी था जो कैश में बैठने के अलावा कुछ भी नहीं कर सकता था। और था भोपाल, जिसकी नज़र काम में कम, आने वाली महिलाओं के आंकलन में अधिक रहती थी। बहुत बड़ी शाखा थी। काम तो था ही। फिर भी कुछ लोग बैंकिंग संस्थान की परीक्षाओं की तैयारी करते रहते थे, और कुछ लोग प्रोन्नति परीक्षा की। कुछ लंच में और उसके बाद भी लम्बे समय तक टेबल टेनिस आदि खेलते थे। एक दल के बारे में अफ़वाह थी कि वे बैंक में जमा के लिये आये रोकड़े में से कुछ को प्रतिदिन ब्याज़ पर चलाते थे और शाम को सूद अपनी जेब में डालकर बैंक का भाग ईमानदारी से जमा करा देते थे।

चित्र व कहानी: अनुराग शर्मा
अनिता मैडम इतनी कड़क थीं कि उनसे बात करने में भी लोग डरते थे। रेखा मैडम व्यवहार में बहुत अच्छी थीं, और ग़ज़ब की सुन्दर भी। शादी को कुछ ही साल हुए थे। पति नेवी में थे और इस समय दूर किसी शिप पर थे। वे सामान्यतः अपने काम से काम रखती थीं। कभी-कभी वे भी घर से मेरे लिये खाने को कुछ ले आती थीं।

बैंक और शाखा का नाम सुनकर अंकल जी का चेहरा चमका, "कमाल है, इनका भतीजा चंकी भी वहीं काम करता है। बड़ा नेक बन्दा है। इंडिया में हमारे घर की देखभाल भी उसी के ज़िम्मे है, वर्ना वहाँ तो आप जानते ही हो, दो दिन घर खाली रहे तो किसी न किसी का कब्ज़ा हो जाना है।"

बैंक की यादें थीं कि रुकने का नाम ही नहीं ले रही थीं। एक कर्मचारी और ग्राहक की लड़ाई में दोनों के सर फट गये थे। रावत ने मेरे नये होने का लाभ उठाकर कुछ हज़ार रुपये की हेरफ़ेर कर ली थी जो बाद में मेरे सिर पड़ी। तनेजा अपने सस्पेंशन ऑर्डर पब्लिक होने से पहले लगभग हर कर्मचारी से 5-6 सौ रुपये उधार ले चुका था। पीके की शायरी और वीपी की डायरी के भी मज़ेदार किस्से थे।

"चंकी इनको कहाँ पता होगा ..." आंटी जी ने कहा, फिर मुझसे मुखातिब हुईं, "बड़ा ही नेक बच्चा है।"

उधार लेने से पहले तनेजा ने सबसे यही कहा था कि वह बस एक उसी व्यक्ति से उधार ले रहा है। उसने किसी को यह भी नहीं बताया कि विभागीय जाँच के चलते उसका ट्रांसफ़र ऑर्डर आ चुका है और उसी दिन इंस्टैंट रिलीविंग है। जैन का बहुत सा पैसा स्टॉक मार्केट में डूबा था। मेरे खाते में जितना था वह तनेजा मार्केट में डूबा। बनशंकरी जी उस दिन मेरे लिये मुर्कु और उपमा लाई थीं, जिसका स्वाद अभी तक मेरी ज़ुबान पर है।

"चंकी का असली नाम है नटवर, किस्मत वालों के घर में होते हैं ऐसे नेक बच्चे" आंटी जी ने कहा।

एक दिन रेखा मैडम के हाथ पाँव काँप रहे थे, मुँह से बोल नहीं निकला। मामूली बात नहीं थी। पिंकी ने देखा तो दौड़कर पहुँची। फिर सभी महिलाएँ इकट्ठी हुईं। उस दिन रेखा मैडम सारा दिन रोती रही थीं और सारा लेडीज़ स्टाफ़ उन्हें दिलासा देता रहा था। मगर बात महिलामंडल के अन्दर ही रही।

एक बार जब माँ बैंक में आईं तो डिसूज़ा उनसे मेरी शिकायत लगाते हुए बोला, "इनकी शादी करा दीजिये, घर से भूखे आते हैं और सारा दिन हम लोगों को डाँटते रहते हैं।" मेरी रिलीविंग के दिन लगभग सभी महिलाएँ रो रही थीं। मिसेज़ पाहवा ने उस दिन मुझसे बहुत सी बातें की थीं। उन्होंने ही बताया था कि नटवर ने काउंटर पर चाभी फेंकी थी।

"बड़ा अच्छा है मेरा भांजा! " आंटी जी खूब खुश थीं।"

सोखी की मुस्कान, खाँ साहब की मीठी ज़ुबान और रावल साहब की विनम्रता सब वैसी ही रही। मिसेज़ पाहवा बोलीं कि वे होतीं तो गोली मार देतीं।

मेरे पास आकर आंटी ने मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा, "... मेरा बच्चा एकदम भोला है।"

मुझे रेखा मैडम का पत्ते की तरह काँपना याद आया और साथ ही याद आये मिसेज़ पाहवा द्वारा बताये हुए नटवर के शब्द, "मेरे अंकल बहुत बड़े अफ़सर हैं, आजकल बेटे के पास अमेरिका में हैं। उनका बहुत बड़ा फ़्लैट है। फ़ुल-फ़र्निश्ड, एसी-वीसी, टिप-टॉप, जनकपुरी में ... एकदम खाली ... ये पकड़ चाभी, ... आज शाम ... जितना भी मांगेगी ... "

गर्व से उछल रही आंटी की बात जारी थी, "एकदम भोला है मेरा चंकी ...बिल्कुल आपके जैसा!"

[समाप्त]