(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)
इंडिया शाइनिंग के बारे में ठीक से नहीं कह सकता लेकिन इतना ज़रूर है कि गांव बदल रहे हैं। धोती-कुर्ते की जगह पतलून कमीज़, चुटिया की जगह घुटे सिर से लेकर फ़िल्मस्टार्स के फ़ैशनेबल इमिटेशन तक, घोड़े, इक्के, बैलगाड़ी की जगह स्कूटर, मोटरसाइकिल और चौपहिया वाहन। किसी-किसी हाथ में दिखने वाले मरफ़ी या फिलिप्स के ट्रांज़िस्टर की जगह हर हाथ में दिखने वाले किस्म-किस्म के मोबाइल फोन। अनजान डगर, तंग गलियाँ छोटा सा कस्बा। क्या ढूंढने जा रहा है? क्या खोया था? मन? क्या इतने वर्ष बाद सब कुछ वैसा ही होगा? बारह साल बाद तो कानूनी अधिकार भी समाप्त हो जाते हैं शायद। तो क्या लम्बे समय पहले खोया हुआ मन कभी वापस मिलेगा? न मिले, एक बार देख तो लेगा।
मुकेश का परिवार पास ही रहता था। तब वे दोनों बारहवीं कक्षा में एकसाथ ही पढते थे। मनोज अपने घर में अकेला था पर मुकेश की एक छोटी बहन भी थी, नीना। वह कन्या विद्यालय में दसवीं कक्षा में जाती थी। शाम को तीनों साथ बैठकर होमवर्क भी करते और दिनभर का रोज़नामचा भी देखते। प्राइवेसी की आज जैसी धारणा उनके समाज में नहीं थी। उनकी उम्र ज़्यादा नहीं थी, वही जो हाई स्कूल-इंटर के औसत छात्र की होती है लेकिन नीना के लिये रिश्ता ढूंढा जा रहा था। ऊँची जाति लेकिन ग़रीब घर की बेटी का रिश्ता हर बार जुड़ने से पहले ही दहेज़ की बलि चढ जाता।
एक शाम मनोज से गणित के सवाल हल करने में सहायता मांगते हुए अचानक ही पूछ बैठी मासूम। दादा, आप भी अपनी शादी में दहेज़ लेंगे क्या?
"कभी नहीं। क्या समझा है मुझे?"
"तो फिर आप ही क्यों नहीं कर लेते मुझसे शादी?"
यह क्या कह दिया था नीना तुमने? विचारों का एक झंझावात सा उठ खडा हुआ था। वह ज़माना आज के ज़माने से एकदम अलग था। उस ज़माने के नियमों के हिसाब से तो मुकेश की बहन मनोज की भी बहन होती थी। बल्कि पिछले रक्षाबन्धन पर तो वह राखी बांधने भी आयी थी, गनीमत यह थी कि मनोज उस दिन मौसी के घर गया हुआ था।
"यह सम्भव नहीं है नीना।"
"सब कुछ सम्भव है, आपमें साहस ही नहीं है।"
"पता है क्या कह रही हो? जो मुँह में आया बोल देती हो।"
"मुझे अच्छी तरह पता है, तभी कहा है। इतनी पागल भी नहीं हूँ मैं। आप तो वहीं करना जहाँ मोटा दहेज़ मिले।"
समय बीता। नीना की शादी भी हुई, पर हुई एक दुहाजू लड़के से। लड़का कहना शायद ठीक न हो। वर की आयु मनोज और नीना के पिता की आयु का औसत रही होगी। वर की आर्थिक स्थिति शायद नीना के पिता से भी गिरती हुई थी। हाँ दहेज़ का प्रश्न बीच में नहीं आया। एकाध बार मनोज के मन में कुछ चुभन सी हुई लेकिन छोटी जगह का भाग्यवादी माहौल। मनोज ने यही सोचकर मन को समझा लिया कि नसीब से अधिक किसे मिलता है।
कई वर्ष गुज़र गये। बीए करके मनोज को साधारण बीमा में पद मिल गया। माँ को साथ ही बुला लिया। गाँव का घर बेचकर कुछ पैसे भी मिल गये, जो माँ के नाम से बैंक में जमा करा दिये। पिछले दिनों मौसेरे भाई की शादी में गाँव जाने पर मुकेश मिला। पुराने किस्से खुले। पता लगा कि लम्बी बीमारी के बाद नीना के पति की मृत्यु हो गयी थी। तभी से दिल बेचैन था उसका ...
ज़्यादा ढूंढना नहीं पड़ा। नीना के पति का नाम बताने भर से काम हो गया। गन्दी गली का जर्जर घर। दरवाज़े की जगह टाट का पर्दा। सूखकर कांटा हो रही थी नीना लेकिन उस चिर-परिचित मासूम चेहरे को पहचानना बिलकुल भी कठिन न था। बड़ी-बड़ी आँखें कुछ और बड़ी हो गई थीं। बिना डंडी के कप में चाय पीते हुए मनोज बात कम कर रहा था, नीना उत्साह में भरी बोलती जा रही थी और मनोज उसके चेहरे में उसका खोया हुआ कैशोर्य और अपना खोया हुआ भाग्य ढूंढ रहा था। तभी वह आया, "नमस्ते!"
"जुग जुग जियो!" कहते कहते कराह सा उठा मनोज, "क्या हुआ है इसे?"
"बचपन से ही ऐसा है, चल नहीं सकता" नीना ने सहजता से कहा।
"गली भर में सबसे तेज़ दौड़ता हूँ मैं ..." कहते ही बच्चे ने उस छोटे से कमरे में हाथों के सहारे से तेज़ी से एक चक्कर लगाया और फिर मनोज को देख कर मुस्कुराया ।
शहर वापस तो आना ही था। काम-धाम तो छोड़ा नहीं जा सकता। मन कहीं भी फंसा हो, द शो मस्ट गो ऑन।
...
अध्यापिका ने पूछा, "बच्चे का नाम?"
"रतन"
"माता पिता का नाम?"
मनोज के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गयी जब बड़ी-बड़ी आँखें बोलीं, "नीना और मनोज कुमार।"
[समाप्त]
इंडिया शाइनिंग के बारे में ठीक से नहीं कह सकता लेकिन इतना ज़रूर है कि गांव बदल रहे हैं। धोती-कुर्ते की जगह पतलून कमीज़, चुटिया की जगह घुटे सिर से लेकर फ़िल्मस्टार्स के फ़ैशनेबल इमिटेशन तक, घोड़े, इक्के, बैलगाड़ी की जगह स्कूटर, मोटरसाइकिल और चौपहिया वाहन। किसी-किसी हाथ में दिखने वाले मरफ़ी या फिलिप्स के ट्रांज़िस्टर की जगह हर हाथ में दिखने वाले किस्म-किस्म के मोबाइल फोन। अनजान डगर, तंग गलियाँ छोटा सा कस्बा। क्या ढूंढने जा रहा है? क्या खोया था? मन? क्या इतने वर्ष बाद सब कुछ वैसा ही होगा? बारह साल बाद तो कानूनी अधिकार भी समाप्त हो जाते हैं शायद। तो क्या लम्बे समय पहले खोया हुआ मन कभी वापस मिलेगा? न मिले, एक बार देख तो लेगा।
मुकेश का परिवार पास ही रहता था। तब वे दोनों बारहवीं कक्षा में एकसाथ ही पढते थे। मनोज अपने घर में अकेला था पर मुकेश की एक छोटी बहन भी थी, नीना। वह कन्या विद्यालय में दसवीं कक्षा में जाती थी। शाम को तीनों साथ बैठकर होमवर्क भी करते और दिनभर का रोज़नामचा भी देखते। प्राइवेसी की आज जैसी धारणा उनके समाज में नहीं थी। उनकी उम्र ज़्यादा नहीं थी, वही जो हाई स्कूल-इंटर के औसत छात्र की होती है लेकिन नीना के लिये रिश्ता ढूंढा जा रहा था। ऊँची जाति लेकिन ग़रीब घर की बेटी का रिश्ता हर बार जुड़ने से पहले ही दहेज़ की बलि चढ जाता।
एक शाम मनोज से गणित के सवाल हल करने में सहायता मांगते हुए अचानक ही पूछ बैठी मासूम। दादा, आप भी अपनी शादी में दहेज़ लेंगे क्या?
"कभी नहीं। क्या समझा है मुझे?"
"तो फिर आप ही क्यों नहीं कर लेते मुझसे शादी?"
यह क्या कह दिया था नीना तुमने? विचारों का एक झंझावात सा उठ खडा हुआ था। वह ज़माना आज के ज़माने से एकदम अलग था। उस ज़माने के नियमों के हिसाब से तो मुकेश की बहन मनोज की भी बहन होती थी। बल्कि पिछले रक्षाबन्धन पर तो वह राखी बांधने भी आयी थी, गनीमत यह थी कि मनोज उस दिन मौसी के घर गया हुआ था।
"यह सम्भव नहीं है नीना।"
"सब कुछ सम्भव है, आपमें साहस ही नहीं है।"
"पता है क्या कह रही हो? जो मुँह में आया बोल देती हो।"
"मुझे अच्छी तरह पता है, तभी कहा है। इतनी पागल भी नहीं हूँ मैं। आप तो वहीं करना जहाँ मोटा दहेज़ मिले।"
समय बीता। नीना की शादी भी हुई, पर हुई एक दुहाजू लड़के से। लड़का कहना शायद ठीक न हो। वर की आयु मनोज और नीना के पिता की आयु का औसत रही होगी। वर की आर्थिक स्थिति शायद नीना के पिता से भी गिरती हुई थी। हाँ दहेज़ का प्रश्न बीच में नहीं आया। एकाध बार मनोज के मन में कुछ चुभन सी हुई लेकिन छोटी जगह का भाग्यवादी माहौल। मनोज ने यही सोचकर मन को समझा लिया कि नसीब से अधिक किसे मिलता है।
कई वर्ष गुज़र गये। बीए करके मनोज को साधारण बीमा में पद मिल गया। माँ को साथ ही बुला लिया। गाँव का घर बेचकर कुछ पैसे भी मिल गये, जो माँ के नाम से बैंक में जमा करा दिये। पिछले दिनों मौसेरे भाई की शादी में गाँव जाने पर मुकेश मिला। पुराने किस्से खुले। पता लगा कि लम्बी बीमारी के बाद नीना के पति की मृत्यु हो गयी थी। तभी से दिल बेचैन था उसका ...
ज़्यादा ढूंढना नहीं पड़ा। नीना के पति का नाम बताने भर से काम हो गया। गन्दी गली का जर्जर घर। दरवाज़े की जगह टाट का पर्दा। सूखकर कांटा हो रही थी नीना लेकिन उस चिर-परिचित मासूम चेहरे को पहचानना बिलकुल भी कठिन न था। बड़ी-बड़ी आँखें कुछ और बड़ी हो गई थीं। बिना डंडी के कप में चाय पीते हुए मनोज बात कम कर रहा था, नीना उत्साह में भरी बोलती जा रही थी और मनोज उसके चेहरे में उसका खोया हुआ कैशोर्य और अपना खोया हुआ भाग्य ढूंढ रहा था। तभी वह आया, "नमस्ते!"
"जुग जुग जियो!" कहते कहते कराह सा उठा मनोज, "क्या हुआ है इसे?"
"बचपन से ही ऐसा है, चल नहीं सकता" नीना ने सहजता से कहा।
"गली भर में सबसे तेज़ दौड़ता हूँ मैं ..." कहते ही बच्चे ने उस छोटे से कमरे में हाथों के सहारे से तेज़ी से एक चक्कर लगाया और फिर मनोज को देख कर मुस्कुराया ।
शहर वापस तो आना ही था। काम-धाम तो छोड़ा नहीं जा सकता। मन कहीं भी फंसा हो, द शो मस्ट गो ऑन।
...
खंडहर भी महल हो जाते हैं कभी? बीते लम्हे मिल पाते हैं कभी? |
अध्यापिका ने पूछा, "बच्चे का नाम?"
"रतन"
"माता पिता का नाम?"
मनोज के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गयी जब बड़ी-बड़ी आँखें बोलीं, "नीना और मनोज कुमार।"
[समाप्त]
कहानी जिस परिवेश की है उस समय यह बिल्कुल साधारण सी बात थी. उस समय के बंधन को आपने बखूबी बयान किया है. इसे कहानी ना कहें क्योंकि यह सच्ची घटना ही समझे, ऐसी अनेकों घटनाएं हमने देखी है. कई नीना और मुकेश समाज के बंधनों की वजह से ऐसा जीवन गुजारने को बाध्य हुये हैं.
ReplyDeleteरामराम.
मनोज के चेहरे पर मुस्कुराहट तैर गयी जब बड़ी-बड़ी आँखें बोलीं, "नीना और मनोज कुमार।"
ReplyDeleteकहानी का यह अंत? शायद मनोज अभी तक कुंवारा ही था, यह तो तो बडा सुखांत हुआ कहानी का. काश ऐसे मनोज कहीं और भी हो सके.
रामराम.
अंत सुखान्त से अधिक चौकाने वाला है .. बेलौस निर्णय !
ReplyDelete'अंत भला तो सब भला' किंतु एक छोटे सुखांत के पूर्व जीवन कितने दर्द, कितनी पीडाएँ, कितने दुख भोग लेता है.
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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बेहतरीन ! आप ने अपना आज का दिन तो बना दिया... दिन भर खुश रहूँगा आज !
...
सुंदर कहानी, साथ में काम करने वाली बहुत सी लड़कियों को देखता हूँ जो किसी कारण से उम्रदराज हो चुकी हैं उनके चेहरे में मायूसी झलकती है। जीवन की बुनियादी चीजें भी जब पूरी न हो तो बहुत दुख होता है।
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत कथा. सुखान्त होते हुए भी एक झटका हमें भी झेलना पड़ा. कुछ पल के लिए भूल ही गए कि यह एक लघु कथा है. उस घर की बनावट ने मन मोह लिया.
ReplyDeleteजी हां, ऐसे भी लोग हैं. लेकिन शायद वे छुपे ही रह जाते हैं.
ReplyDeleteये चित्र कहां का है, जगह तो बड़ी हरी-भरी है.
ReplyDeleteउस घर से कुछ दूर था, लेकिन इस घर के एकदम पास एक नैनीताल है। चित्र वहीं का है
Deleteगजब का दर्द सुखद सा सुखांत आज के जीवन मैं ऐसे ही किरदार की जरुरत है आम आदमी की जिंदगी मैं .....
ReplyDeleteजय बाबा बनारस....
सुन्दर प्रस्तुति -
ReplyDeleteआभार -
वक्त कितना ही गुजर जाये तो भी मन के कुछ कोने वैसे ही रहते हैं..सुखद कहानी..
ReplyDeleteअच्छी लगी कहानी।
ReplyDeleteकहने की शैली इसे सच्ची घटना बताती है और सुखांत..कहानी।
आपने कहानी को एक झटके में ख़त्म किया लेकिन माँ का नाम नीना और पिता का नाम मनोज कह गया कि मनोज ने अपनी गलती सुधार ली आपका कहानी का अंदाज़ पसंद आया बेहतरीन नहीं मनमाफिक हम तो *****आप पर फ़िदा हो गये*****
ReplyDeletetouching really
ReplyDeleteमन कहीं भी फंसा हो, द शो मस्ट गो ऑन.........जबर्दस्त, 'कुछ कर सकते थे कुछ कर नहीं पाए' वाले भाव में स्थिर करती कहानी। बर्बाद कैशोर्य के ऐसे किस्से अंत:स्थल तक हिला जाते हैं।
ReplyDeleteकहानी का अंत बहुत अच्छा लगा !
ReplyDeleteआपकी लघु कथा की लम्बाई देख कर डर लग रहा था कि जब लघु इतनी है तो दीर्घ कैसी होगी ! :)
ReplyDeleteलेकिन अंत वास्तव में लघु कथा विशेष रहा ।
अति सुन्दर।
कहानी कहें भले बिलकुल सच लग रही है- जीवन ऐसा ही है !
ReplyDelete...बढ़िया कथा !
ReplyDeleteजैसा हमारा मन चाहता है कि समाज हो, बिल्कुल वैसी ही कहानी, पर काश हर कहानी सच हो जाती।
ReplyDeleteकाश हर दुखद कहानी का अंत इतना सुखद ही हो सकता !
ReplyDeleteINDEED A GREAT STORY OF LIFE TIME.
ReplyDeleteIndeed a great story to be remembered..
ReplyDeleteअंत भला....
ReplyDeleteपढते-पढते,अन्त का पूर्वानुमान तो हो गया था किन्तु उसकी पुष्टि करने के लिए सॉंस रोक कर पढता रहा। अनुमान की पुष्टि होने के बाद भी, जिस अन्दाज में आपने अन्त किया, उसे ही 'लेखकीय चमत्कार' कहते होंगे शायद।
ReplyDeleteमन भीग गया।
ReplyDeleteबढ़िया लघु कथा! चलिए कहानी का सुखान्त तो हुआ !
आमी, परिवेश और माहोल के साथ बहुत इमानदारी से लिखी कहानी है ... ऐसा होता है बहुत बार ... मन को छूती है आपकी कहानी ...
ReplyDeleteNice :)
ReplyDelete[ise har post par kiya jaane waale nice na samjha jaaye.]
:)
Deleteकहानी है या घटना .... पर अंत सुखद रहा ... अच्छी कहानी
ReplyDeleteएक लघु कथा ही सही ,पर बहुत बड़ा प्रभाव छोड़ती कथा ...सुखान्त पर खतम करके एक संदेश दिया है आपने ...
ReplyDeleteबहुत अच्छी लगी ...
ऐसा कुछ हमारे परिवेश में दिखे..... सुंदर कहानी
ReplyDeletekatu saty
ReplyDeleteSukhant hai ye bahut achchi bat hai ji
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