(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)
रोज़ की तरह सुबह तैयार होकर काम पर जाने के लिए निकला। अपार्टमेंट का दरवाजा खोलते ही एक मानवमूर्ति से टकराया। एक पल को तो घबरा ही गया था मैं। अरे यह तो ... मेरे दरवाजे पर क्यों खड़ी थी? कितनी देर से? क्या कर रही थी? कई सवाल मन में आए। अपनी झुंझलाहट को छिपाते हुए एक प्रश्नवाचक दृष्टि उस पर डाली तो वह सकुचाते हुए बोली, "आपकी वाइफ घर पर हैं? उनसे कुछ काम था, आप जाइए।"
मुझे अहसास हुआ कि मैंने अभी तक दरवाजा हाथ से छोड़ा नहीं था, वापस खोलकर बोला, "हाँ, वह घर पर हैं, जाइए!"
दफ्तर पहुँचकर काम में ऐसा व्यस्त हुआ कि सुबह की बात एक बार भी मन में नहीं आई। शाम को घर पहुँचा तो श्रीमती जी एकदम रूआँसी बैठी थीं।
"सुबह रूबी आई थी ..."
"हाँ, पता है, सुबह मैं निकला तो दरवाजे पर ही खड़ी थी। वैसे तो कभी हाय हॅलो का जवाब भी नहीं देती। तुम्हारे पास क्यों आई थी वह?"
"बहुत परेशानी में है।"
"क्या हुआ है?"
"उसको निकाल रहे हैं अपार्टमेंट से ... कहाँ जाएगी वह?"
"क्यों?"
बात निकली तो पत्थर के नीचे एक कीड़ा नहीं बल्कि साँपों का विशाल बिल ही निकल आया। श्रीमती जी की पूरी बात सुनने पर जो समझ आया उसका सार यह था कि रूबी यानी डॉ रूपम गुप्ता पिछले एक वर्ष से बेरोजगार हैं। एक स्थानीय संस्थान की स्टेम सेल शोधकर्ता की नौकरी से बंधा होने के कारण उनका वीसा स्वतः ही निरस्त है इसलिए उनका यहाँ निवास भी गैरकानूनी है। खैर वह बात शायद उतनी खतरनाक नहीं है क्योंकि अमेरिका इस मामले में उतना गंभीर नहीं दिखता जितना उसे होना चाहिए। डॉ साहिबा के मामले में खराब बात यह थी कि उन्होने छः महीने से घर का किराया नहीं दिया और अब अपार्टमेंट प्रबंधन ने उन्हें अंतिम प्रणाम कह दिया है।
"कल उसे अपार्टमेंट खाली करना है। यहाँ से जाने के लिए टैक्सी बुक करनी थी। बिल की वजह से उसका फोन भी कट गया है, इसीलिए हमारे घर आई थी, फोन करने।"
"फोन नहीं घर नहीं, नौकरी नहीं, तो टैक्सी कैसे बुक की? और कहाँ के लिए? इस अनजान शहर, पराये देश में कहाँ जाएगी वह? कुछ बताया क्या?"
"क्या बताती? दूसरी ही दुनिया में खोई हुई थी। मैंने उसे कह दिया है कि हम लोग मिलकर कोई राह ढूँढेंगे।"
"कल सुबह आप बात करना मैनेजमेंट से, आपकी तो बात मानते हैं वे लोग। आज मैंने रूबी को रोक दिया टैक्सी बुलाने से। हमारे होते एक हिन्दुस्तानी को बेघर नहीं होने देंगे परदेस में।"
"कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन नौकरी छूटते ही, कम से कम वीसा खत्म होने पर भारत वापस चले जाना चाहिए था न। इतने दिन तक यहाँ रहने का क्या मतलब है?"
"वह सब सोचना अब बेकार है। हम करेंगे तो कुछ न कुछ ज़रूर हो जाएगा।"
वैसे तो कभी सीधे मुँह बात नहीं करती। न जाने किस अकड़ में रहती है। फिर भी यह समय ऐसी बातें सोचने का नहीं था। मैंने सहज होते हुए कहा, "ठीक है। कल मैं बात करता हूँ। बल्कि कुछ सोचकर कानूनी तरीके से ही कुछ करता हूँ। अकेली लड़की दूर देश में किसी कानूनी पचड़े में न फँस जाये।"
[क्रमशः]
रोज़ की तरह सुबह तैयार होकर काम पर जाने के लिए निकला। अपार्टमेंट का दरवाजा खोलते ही एक मानवमूर्ति से टकराया। एक पल को तो घबरा ही गया था मैं। अरे यह तो ... मेरे दरवाजे पर क्यों खड़ी थी? कितनी देर से? क्या कर रही थी? कई सवाल मन में आए। अपनी झुंझलाहट को छिपाते हुए एक प्रश्नवाचक दृष्टि उस पर डाली तो वह सकुचाते हुए बोली, "आपकी वाइफ घर पर हैं? उनसे कुछ काम था, आप जाइए।"
मुझे अहसास हुआ कि मैंने अभी तक दरवाजा हाथ से छोड़ा नहीं था, वापस खोलकर बोला, "हाँ, वह घर पर हैं, जाइए!"
दफ्तर पहुँचकर काम में ऐसा व्यस्त हुआ कि सुबह की बात एक बार भी मन में नहीं आई। शाम को घर पहुँचा तो श्रीमती जी एकदम रूआँसी बैठी थीं।
प्रवासी मरीचिका |
"क्या हुआ?"
"सुबह रूबी आई थी ..."
"हाँ, पता है, सुबह मैं निकला तो दरवाजे पर ही खड़ी थी। वैसे तो कभी हाय हॅलो का जवाब भी नहीं देती। तुम्हारे पास क्यों आई थी वह?"
"बहुत परेशानी में है।"
"क्या हुआ है?"
"उसको निकाल रहे हैं अपार्टमेंट से ... कहाँ जाएगी वह?"
"क्यों?"
बात निकली तो पत्थर के नीचे एक कीड़ा नहीं बल्कि साँपों का विशाल बिल ही निकल आया। श्रीमती जी की पूरी बात सुनने पर जो समझ आया उसका सार यह था कि रूबी यानी डॉ रूपम गुप्ता पिछले एक वर्ष से बेरोजगार हैं। एक स्थानीय संस्थान की स्टेम सेल शोधकर्ता की नौकरी से बंधा होने के कारण उनका वीसा स्वतः ही निरस्त है इसलिए उनका यहाँ निवास भी गैरकानूनी है। खैर वह बात शायद उतनी खतरनाक नहीं है क्योंकि अमेरिका इस मामले में उतना गंभीर नहीं दिखता जितना उसे होना चाहिए। डॉ साहिबा के मामले में खराब बात यह थी कि उन्होने छः महीने से घर का किराया नहीं दिया और अब अपार्टमेंट प्रबंधन ने उन्हें अंतिम प्रणाम कह दिया है।
"कल उसे अपार्टमेंट खाली करना है। यहाँ से जाने के लिए टैक्सी बुक करनी थी। बिल की वजह से उसका फोन भी कट गया है, इसीलिए हमारे घर आई थी, फोन करने।"
"फोन नहीं घर नहीं, नौकरी नहीं, तो टैक्सी कैसे बुक की? और कहाँ के लिए? इस अनजान शहर, पराये देश में कहाँ जाएगी वह? कुछ बताया क्या?"
"क्या बताती? दूसरी ही दुनिया में खोई हुई थी। मैंने उसे कह दिया है कि हम लोग मिलकर कोई राह ढूँढेंगे।"
"कल सुबह आप बात करना मैनेजमेंट से, आपकी तो बात मानते हैं वे लोग। आज मैंने रूबी को रोक दिया टैक्सी बुलाने से। हमारे होते एक हिन्दुस्तानी को बेघर नहीं होने देंगे परदेस में।"
"कोशिश करने में कोई हर्ज़ नहीं है लेकिन नौकरी छूटते ही, कम से कम वीसा खत्म होने पर भारत वापस चले जाना चाहिए था न। इतने दिन तक यहाँ रहने का क्या मतलब है?"
"वह सब सोचना अब बेकार है। हम करेंगे तो कुछ न कुछ ज़रूर हो जाएगा।"
वैसे तो कभी सीधे मुँह बात नहीं करती। न जाने किस अकड़ में रहती है। फिर भी यह समय ऐसी बातें सोचने का नहीं था। मैंने सहज होते हुए कहा, "ठीक है। कल मैं बात करता हूँ। बल्कि कुछ सोचकर कानूनी तरीके से ही कुछ करता हूँ। अकेली लड़की दूर देश में किसी कानूनी पचड़े में न फँस जाये।"
[क्रमशः]
अच्छी शुरुआत
ReplyDeleteप्रवासी भारतीयों को व्यक्त करने में आपकी यह कहानी रोचक राह चलेगी, शुभकामनायें।
ReplyDeleteकुछ नहीं संस्कारों ने एक करवट ली है अगली कड़ी कहूँ या गाथा का इंतजार जो सुखद ही हो
ReplyDeleteआगे की कहानी का इन्तेज़ार रहेगा.
ReplyDeleteउत्सुकता है अगले कड़ी की,कोई अच्छा रास्ता निकल आये रूबी के लिए
ReplyDeleteसुन्दर लगी यह कहानी की पहली कड़ी !
awaiting.....next
ReplyDeleteउसकी जॉब दिलवाने में अवश्य मदद करें , शुभकामनायें आपको !
ReplyDeleteaage ki kadiyon ke liye utsuk hun. america ko janna aur wanha bas rahe bhartiyon ke bare main jana sukhad anubhav hai.
ReplyDeleteप्रवासी भारतीयों की व्यथा! देखते हैं आगे क्या होता है.
ReplyDeleteसुन्दर शुरुवात-
ReplyDeleteआभार आदरणीय-
नजर रहेगी कथा पर-
सादर
उत्सुकता रहेगी जानने की आपने कैसे उसकी सहायता की।
ReplyDeleteoh oh oh.
ReplyDeleteरूबी के किरदार की भूमिका ने ही उसमें एक उत्सुकता पैदा कर दी है, उसकी समस्या का क्या हल निकला? अगले भागों की प्रतीक्षा रहेगी.
ReplyDeleteरामराम,
ReplyDeleteकहानी में यथार्थ झलक रहा है.
एक बेहद पेचीदा लेकिन संभावित समस्या नज़र आ रही है.
फिर क्या हुआ? (हुंकारा)
ReplyDeleteउत्सुकता बढ़ गयी है...अगली कड़ी का इंतज़ार
ReplyDeletebahut sundar ,aageeeeeee..
ReplyDeleteधन्यवाद ललित!
ReplyDeleteफिर क्या हुआ ?
ReplyDeleteकुछ देखा सुना सा ....सच के करीब
ReplyDeleteआगे की प्रतीक्षा ..
सीधे मुँह बात न करने के पीछे कोई न कोई काम्प्लेक्स तो होता ही है लेकिन मैंने देखा है कि अधिकतर यह इन्फ़ीरियरिटी कॉम्प्लेक्स होता है जिसे हम सामने वाले\वाली का सुपीरियरिटी कॉम्प्लेक्स समझ लेते हैं।
ReplyDeleteबहरहाल अकेली लड़की की मदद में क्या चक्कर हुआ, उत्सुकता जोरों पर है।
कहानी रोचक है। दूसरी किश्त अभी पढ़ता हूँ मगर अभी यह बताइये आपने प्रवासी की इतनी बढ़िया तस्वीर कैसे खींच ली? :) यह किसी पेंटिग का चित्र लगता है। नहीं.. ?
ReplyDeleteहम्म! रोचक!
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