(चित्र व लघुकथा: अनुराग शर्मा)
गाँव में दो नानियाँ रहती थीं। बच्चे जब भी गाँव जाते तो माता-पिता के दवाब के बावजूद भी एक ही नानी के घर में ही रहते थे। दूसरी को सदा इस बात की शिकायत रही। बहला-फुसलाकर या डांट-डपटकर जब बच्चे दूसरी नानी के घर भेज दिये जाते तो जितनी देर वहाँ रहते उन्हें पहली नानी का नाम ले-लेकर यही उलाहनाएं मिलतीं कि उनके पास बच्चों को वशीभूत करने वाला ऐसा कौन सा मंत्र है? ये वाली तो पहली वाली से कितने ही मायनों में बेहतर हैं। यह वाली नानी क्या बच्चों को मारती-पीटती हैं जो बच्चे उनके पास नहीं आते? बच्चे 10-15 मिनट तक अपना सिर धुनते और फिर सिर झुकाकर पहले वाली नानी के घर वापस चले जाते।
हर साल दूसरी नानी के घर जाकर उनसे मिलने वाले बच्चों की संख्या कम होते-होते एक समय ऐसा आया जब मैं अकेला वहाँ गया। तब भी उन्होने यही शिकवा किया कि उनके सही और सच्चे होने के बावजूद भोले बच्चों ने पहली नानी के किसी छलावे के कारण उनसे किनाराकशी कर ली है। उस दिन के बाद मेरी भी कभी उनसे मुलाक़ात नहीं हुई, हाँ सहानुभूति आज भी है।
गाँव में दो नानियाँ रहती थीं। बच्चे जब भी गाँव जाते तो माता-पिता के दवाब के बावजूद भी एक ही नानी के घर में ही रहते थे। दूसरी को सदा इस बात की शिकायत रही। बहला-फुसलाकर या डांट-डपटकर जब बच्चे दूसरी नानी के घर भेज दिये जाते तो जितनी देर वहाँ रहते उन्हें पहली नानी का नाम ले-लेकर यही उलाहनाएं मिलतीं कि उनके पास बच्चों को वशीभूत करने वाला ऐसा कौन सा मंत्र है? ये वाली तो पहली वाली से कितने ही मायनों में बेहतर हैं। यह वाली नानी क्या बच्चों को मारती-पीटती हैं जो बच्चे उनके पास नहीं आते? बच्चे 10-15 मिनट तक अपना सिर धुनते और फिर सिर झुकाकर पहले वाली नानी के घर वापस चले जाते।
हर साल दूसरी नानी के घर जाकर उनसे मिलने वाले बच्चों की संख्या कम होते-होते एक समय ऐसा आया जब मैं अकेला वहाँ गया। तब भी उन्होने यही शिकवा किया कि उनके सही और सच्चे होने के बावजूद भोले बच्चों ने पहली नानी के किसी छलावे के कारण उनसे किनाराकशी कर ली है। उस दिन के बाद मेरी भी कभी उनसे मुलाक़ात नहीं हुई, हाँ सहानुभूति आज भी है।
नानी तेरी मोरनी को मोर ले गया
ReplyDeleteबाकी जो बचा था काला चोर ले गया
:) दूसरी नानी के लिये ।
नानी की शिकायत का क्या किया जाए ... पर वो इस उम्र में बदलना भी तो नहीं चाहती होगी ...
ReplyDeleteबहुत कुछ कह जाती है ये कहानी ...
सार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (02-02-2015) को "डोरबैल पर अपनी अँगुली" (चर्चा मंच अंक-1877) पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
धन्यवाद शास्त्री जी
Deleteसार्थक प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (02-02-2015) को "डोरबैल पर अपनी अँगुली" (चर्चा मंच अंक-1877) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
शक का कोई इलाज नहीं ..... :-( ...अन्त दुखद ही है ...
ReplyDeleteसोचने को विवश करती है यह लघुकथा . :)
ReplyDeleteसहज-स्नेह शिकायत नहीं करता ,अपने में समाने की लोच स्वाभाविक रूप से होती है उसमें .
ReplyDeleteबचपन में हमारी मराठी पाठ्य पुस्तक में एक बहुत सुन्दर कविता थी जो मै आज भी गुनगुनाती हूँ कवि का नाम तो याद नहीं आ रहा है उस कविता की कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार थी …
ReplyDelete"येता तरी सूखे या जाता तरी सूखे जा
कोणावरी न बोजा या झोपडित माझ्या "
शिकायती व्यक्ति से सब धीरे धीरे किनारा ही कर लेते है अंत में उनके हिस्से में सहानुभूति ही बचती है, दूसरे बहुत सारे संदर्भ में भी यह लघुकथा सटीक बैठती है !
शिकायती नानी की व्यथा समझने वाला कोई भी नहीं..आखिर उन्हें ऐसा क्यों लगता रहा होगा ..क्यों न बच्चे कहते चलों दोनों नानियाँ एक साथ ही रह लें..
ReplyDeleteबहुत ही सुंदरता से सुनाई यह लघुकथा...
ReplyDeleteकाश नानी अपने स्वभाव में परिवर्तन ले आती तो बच्चे जरूर उसके पास जाते ..
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आप सभी लोगो का हार्दिक स्वागत है
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteकितने काश हैं न इस जीवन में? :( काश...
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