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Thursday, November 10, 2016

मोड़ - लघुकथा

चित्र: अनुराग शर्मा
लाइसेंस भी नहीं मिला और एक दिन की छुट्टी फिर से बेकार हो गई। एक बार पहले भी उसके साथ यही हो चुका है। परिवहन विभाग का दफ़्तर घर से दूर है। आने-जाने में ही इतना समय लग जाता है। उस पर इतनी भीड़ और फिर दफ़्तर के बाबूजी के नखरे। अभी किसी से बात कर रहे हैं, अब खाने का वक़्त हो गया, अभी आये नहीं हैं, आदि।

पिछली बार के टेस्ट में इसलिये फ़ेल कर दिया था कि उसने स्कूटर मोड़ते समय इंडिकेटर दे दिया था, तब बोले कि हाथ देना चाहिये था। इस बार उसने हाथ दिया तो कहते हैं कि इंडिकेटर देना चाहिये था।

भुनभुनाता हुआ बाहर आ रहा था कि एक आदमी ने उसे रोक लिया, "लाइसेंस चाहिये? लाइसेंस?"

उसने ध्यान से देखा, आदमी के सर के ठीक ऊपर दीवार पर लिखा था, "दलालों से सावधान।"

"नहीं, नहीं, मुझे लाइसेंस नहीं चाहिये ... "

"तो क्या यहाँ सब्ज़ी खरीदने आए थे? अरे यहाँ जो भी आता है उसे लाइसेंस ही चाहिये, चलो मैं दिलाता हूँ।"

कुछ ही देर में वह मुस्कुराता हुआ बाहर जा रहा था। उसे पता चल गया था कि मुड़ते समय न हाथ देना होता है न इंडिकेटर, सिर्फ़ रिश्वत देना होता है।


(अनुराग शर्मा

Thursday, July 2, 2015

सच या झूठ - लघुकथा

पुत्र: ज़माना कितना खराब हो गया है। सचमुच कलयुग इसी को कहते हैं। जिन माँ-बाप का सहारा लेकर चलना सीखा, बड़े होकर उन्हीं को बेशर्मी से घर से निकाल देते हैं, ये आजकल के युवा।

माँ: अरे बेटा, पहले के लोग भी कोई दूध के धुले नहीं होते थे। कितने किस्से सुनने में आते थे। किसी ने लाचार बूढ़ी माँ को घर से निकाल दिया, किसी ने जायदाद के लिए सगे चाचा को मारकर नदी में बहा दिया। सौतेले बच्चों पर भी भांति-भांति के अत्याचार होते थे। अब तो देश में कायदा कानून है। और फिर जनता भी पढ लिख कर अपनी ज़िम्मेदारी समझती है।

पुत्र: नहीं माँ, कुछ नहीं बदला। आज सुबह ही एक बूढ़े को फटे पुराने कपड़ों में सड़क किनारे पड़ी सूखी रोटी उठाकर खाते देखा तो मैंने उसके बच्चों के बारे में पूछ लिया। कुछ बताने के बजाय गाता हुआ चला गया
 खुद खाते हैं छप्पन भोग, मात-पिता लगते हैं रोग।

माँ: बेटा, उसने जो कहा तुमने मान लिया? और उसके जिन बच्चों को अपना पक्ष रखने का मौका ही नहीं मिला, उनका क्या? हो सकता है बच्चे अपने पूरे प्रयास के बावजूद उसे संतुष्ट कर पाने में असमर्थ हों। हो सकता है वह कोई मनोरोगी हो?

पुत्र: लेकिन अगर वह इनमें से कुछ भी न हुआ तो?

माँ: ये भी तो हो सकता है कि वह झूठ ही बोल रहा हो।

पुत्र: हाँ, यह बात भी ठीक है। 

Tuesday, May 5, 2015

सांप्रदायिक सद्भाव

(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)
जब मुसलमानों ने मकबूल की जमीन हथियाकर उस पर मस्जिद बनाई तो हिंदुओं के एक दल ने मुकुल की जमीन पर मठ बना दिया। मुकुल और मकबूल गाँव के अलग-अलग कोनों में उदास बैठे हैं फिर भी गाँव में शांति है क्योंकि इस बार कोई यह नहीं कह सकता कि हिंदुओं ने मुसलमान या मुसलमानों ने हिन्दू को सताया है।

Saturday, April 11, 2015

ऊँट, पहाड़, हिरण, शेर और शाकाहार - लघुकथा

(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)
झुमकेचल प्रसाद काम में थोड़ा कमजोर था। बदमाशियाँ भी करता था। दिखने में ठीक-ठाक था और उसके साथियों ने उसके इस ठीक-ठाक का भाव काफी चढ़ाया हुआ था। सो, वह अपने आप को डैनी, नहीं, शायद राजेश खन्ना समझता था। अब नौजवान राजेश खन्ना अपने से कई साल छोटे और कई किलो हल्के अधिकारी के अधीनस्थ होकर आराम से तो काम कर नहीं सकता सो हर बात में थोड़ा बहुत विद्रोह भी दिखाता रहता था। अकारण द्रोह का एक कारण शायद उस अधिकारी का अनारक्षित कोटे से आना भी था।

झुमकेचल के काम में काफी कमियाँ थीं। लेकिन अधिकारी उसकी क्षमता को जानते हुए उसे कुछ जताए बिना शाम को घर जाने से पहले उसकी गलतियाँ ठीक कर देता था। जितना जायज़ था उतनी छूट अधिकारी उसे हमेशा देता रहा। वह फरीदाबाद से दिल्ली आता था। आने में अक्सर देर हो जाती थी। वरिष्ठ प्रबंधक कड़कसिंह रोज़ सुबह दरवाजे पर लगी घड़ी के नीचे खड़ा हर देर से आने वाले की क्लास लगाता था। उसकी समस्या को ध्यान से सुनने के बाद अधिकारी ने कड़कसिंह से कड़क बहसें कर के अपने अधीनस्थों की पूरी ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेते हुए उसकी देरी सदा के लिए अनुशासन के दायरे से निकलवा दी। हर सुबह बाकी लेट-लतीफों को झिड़कता कड़कसिंह जब उसे कुछ नहीं कहता तो उसकी सुबह, जोकि अब लगभग दोपहर हो चुकी होती थी, उत्साह से भर जाती। इसी उत्साह में अब वह नियमित रूप से देर से आने लगा। जब कई दिन तक अधिकारी की ओर से उसकी नियमित देरी का कोई प्रतिरोध नहीं दिखा तो एक दिन अपनी सुबह की देरी को कम्पनसेट करने के उद्देश्य से उसने शाम को जल्दी घर जाने की बात की। अधिकारी ने उस दिन आराम से जाने दिया तो अगले दिन से उसने जल्दी जाने का अधिकार अपने गमछे में खोंस लिया और प्रतिदिन जल्दी जाने लगा।

आप सोचेंगे कि अधिकारी से मिलने वाले हर लाभ के बाद वह बेहतर होता गया होगा लेकिन हुआ इसका उलट। न तो उसके काम की गलतियों में कोई सुधार हुआ, न ही उसके नाजायज अक्खड़पन में कोई कमी आई। कुछ दिन बाद जब उसके लंच से वापस आने का समय उसके स्वास्थ्य की अनिवार्यता, यानी टेबल टेनिस के खेल के कारण बढ़ गया तो अधिकारी ने उसे कुछ कहे बिना भविष्य में कोई रियायत न देने का निश्चय किया।

एक दिन उसने बताया कि घर में चल रही पुताई के कारण वह लंचटाइम में ही घर चला जाएगा। अधिकारी को क्या एतराज़ होता, उसने विनम्रता से बता दिया कि छुट्टियाँ उसकी कमाई हुई हैं, आधा दिन की ले या पूरे दिन की, उसकी मर्ज़ी। छुट्टी का नाम सुनते ही वह गरम हो गया। शोर-शराबा सुनकर टेबल टेनिस के कुछ दबंग कामरेड भी मौका-ए-वारदात पर पहुँच गए। जिन्होंने सरकारी बैंक में काम किया हो उन्हें पता ही होगा कि बैंकिंग चुटकुलों में अधिकारियों का प्रयोग अक्सर ताश के जोकर की तरह किया जाता है। सो एकाध महारथी ने अपने मित्र के पक्ष में घिसे हुये चुटकुले जैसा कुछ कहा। अधिकारी ने उसके अधूरे ज्ञान वाले चुट्कुले वाला पूरा उपन्यास बाँच दिया। एकाध साथी ने वैज्ञानिक तर्क दिये, तो उनके आगे वैज्ञानिक निष्कर्ष रख दिये गए। फिर शाखा के सबसे भारी बोझ ने अपने वजन का प्रयोग किया तो इस छोटे से अधिकारी ने उसी के वजन और मूमेंटम का तात्कालिक प्रयोग करते हुए उसे काउंटर की दीवार पे दोहरा हो जाने दिया। कराहता हुआ बोझ अपनी सीट पर जाकर बड़बड़ाते हुए स्टाफ सेक्शन के नाम एक हाथापाई की शिकायत लिखने लगा।

बात हाथ से निकलते देखकर झुमकेचल प्रसाद जी अधिकारी को बताने लगे कि वे रोज़ जल्दी भले चले जाते हों, अपना सारा काम सही-सही पूरा करके जाते हैं। बात गलत थी सो अधिकारी ने रिजेक्ट कर दी। झुमकेचल की आवाज़ फिर ऊँची हो गई। गरजकर बोला "मेरे काम में एक भी कमी निकाल कर दिखा दो।" अधिकारी ने उस महीने की बनाई उसकी विवरणियों के फोल्डर सामने रख दिये। हर पेज पर लाल स्याही से ठीक की हुई कम से कम एक गलती चमक रही थी। कहीं स्पेलिंग, कहीं संख्या, कहीं जोड़, कहीं कोड, कहीं कुछ और। क्षण भर में झुमकेचल का चेहरा, शरीर, हाव-भाव, सब ऐसा हो गया जैसे किसी ने उसे पकड़कर दस जूते मारे हों। उसने मरी हुई आवाज़ में पूछा, "लेकिन आपने इसके लिए कभी डाँटा भी नहीं, न मुझसे कभी ठीक कराया।"

खैर, बंदा एकदम सुधर गया। जाने से पहले उसने छुट्टी की अर्ज़ी अधिकारी के सामने रख दी जो अधिकारी ने अपने विवेक से निरस्त भी कर दी। कुछ दिन बाद जब वह अधिकारी व्यक्तिगत काम से एक हफ्ते की छुट्टी पर गया तो उसके वापस आते ही झुमकेचल ने सबसे पहले अपने अधिकारी से उसके सब्स्टिट्यूट की शिकायत की, "मैंने बस 15 मिनट पहले जाने के लिए पूछा तो बोले सारा काम सही-सही पूरा करके चले जाना और जब सब कर दिया तो कहने लगे कि जाओ सीनियर मेनेजर से पर्मिशन ले लो।"

"आज चले जाना" कहकर अधिकारी मुस्करा दिया। पहाड़ ऊँट से ऊँचा हो गया था।
निष्कर्ष: शेर अगर हिरण को न खाये तो उसका मतलब ये नहीं होता कि हिरण शेर से ताकतवर हो गया है। इसका अर्थ ये है कि शेर शाकाहारी है। लेकिन हिरण तेंदुए से फिर भी काम नहीं निकलवा सकता।

Friday, March 27, 2015

पुरानी दोस्ती - लघुकथा

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

बेमेल दोस्ती की गंध
कल उसका फोन आया था। ताबड़तोड़ प्रमोशनों के बाद अब वह बड़ा अफसर हो गया है। किसी ज़माने में हम दोनों निगम के स्कूल में एक साथ काम करते थे। मिडडे मील पकाने से लेकर चुनाव आयोग की ड्यूटी बजाने तक सभी काम हमारे जिम्मे थे। ऊपर से अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ। इन सब से कभी समय बच जाता था तो बच्चों की क्लास भी ले लेते थे।  

उसे अपने असली दिल्लीवाला (मूलनिवासी) होने का गर्व था। मुझे हमेशा 'ओए बिहारी' कहकर ही बुलाता था। दिल का बुरा नहीं था  लेकिन हज़ार बुराइयाँ भी उसे सामान्य ही लगती थीं। अपनी तो मास्टरी चलती रही लेकिन वह असिस्टेंट ग्रेड पास करके सचिवालय में लग गया। अब तो बहुत आगे पहुँच गया है।

आज मूड ऑफ था उसका। अपने पुराने दोस्त से बात करके मन हल्का करना चाहता था सो बरसों बाद उस दिन मुझे फोन किया।

"कैसा है तू?"

"हम ठीक हैं। आप कैसे हैं?"

"गुड ... और तेरी बिहारिन कैसी है?"

इतने साल बाद बात होने पर भी उसका यह लहज़ा सुनकर बुरा लगा। मुझे लगा था कि उम्र बढ़ने के साथ उसने कुछ तमीज़ सीख ली होगी। मैं आरा का सही, उसका इलाका तो दिल्ली देहात ही था। सोचा कि उसे उसी के तरीके से समझाया जा सकता है।

"हाँ, हम सब ठीक हैं, तू बता, तेरी देहातन कैसी है?"

"ओए बिहारी, ये तू-तड़ाक मुझे बिलकुल पसंद नहीं। और ये देहातिन किसे बोला? अपनी भाभी के बारे में इज़्ज़त से बात किया कर।"

फोन कट गया था। बरसों की दोस्ती चंद मिनटों में खत्म हो गई थी।

[समाप्त]

Monday, February 23, 2015

खिलखिलाहट - लघुकथा

दादी और दादा
(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)

"बोलो उछलना।"

"उछलना।"

"अरे बिलकुल ठीक तो बोल रही हो।"

"हाँ, उछलना को ठीक बोलने में क्या खास है।"

"तो फिर बच्चों के सामने छुछलना क्यों कहती हो? सब हँसते हैं।"

"इसीलिए तो।"

"इसीलिए किसलिए?"

"ताकि वे हंस सकें। उनकी दैवी खिलखिलाहट पर सारी दुनिया कुर्बान।"

Saturday, February 14, 2015

मुफ्तखोर - लघुकथा

(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)


कमरे की बत्ती और पंखा खुला छोडकर वह घर से निकला और बस में बिना टिकट बैठ गया। आज से सब कुछ मुफ्त था। आज़ादी के लंबे इतिहास में पहली बार मुफ्तखोर पार्टी सत्ता में आई थी। उनके नेता श्री फ़ोकटपाल ने चुनाव जीतते ही सब कुछ मुफ्त करने का वादा किया था। उसने भी मुफ्तखोर पार्टी को विजयी बनाने के लिए बड़ी लगन से काम किया था। कारखाने में रोज़ हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद घर आते ही पोस्टर लगाने निकल पड़ता था। सड़क पर पैदल या बस में आते जाते भी लोगों को मुफ्तखोर पार्टी के पक्ष में जोड़ने का प्रयास करता।

फैक्टरी पहुँचते ही उल्लास से काम पर जुट गया। एक तो सब कुछ मुफ्त होने की खुशी ऊपर से आज तो वेतन मिलने का दिन था। लंच के वक्फ़े में जब वह तन्खाबाबू को सलाम ठोकने गया तो उन्हें लापता पाया। वापसी में सेठ उधारचंद दिख गए। सेठ उधारचंद फैक्ट्री के मालिक हैं और अपने नाम को कितना सार्थक करते हैं इसकी गवाही शहर के सभी सरकारी बैंक दे सकते हैं।

उसने सेठजी को जयरामजी कहने के बाद हिम्मत जुटाकर पूछ ही लिया, "तन्खाबाबू नहीं दिख रहे, आज छुट्टी पर हैं क्या?"

"कुछ खबर है कि नईं? मुफतखोर पार्टी की जीत का जशन चल रिया हैगा।"

"तन्खाबाबू क्या जश्न में गए हैं?"

"बीस-बीस हज़ार के लंच करे हैं हमने फ़ोकटपाल्जी के साथ। पचास-पचास हज़ार के चेक भी दिये हैं चंदे में। इसीलिए ना कि वे हमें भी कुछ मुफत देवें।"

"जी" वह प्रश्नवाचक मुद्रा में आ गया था।

"हमने फ़ोकटपाल्जी को जिताया है। अब तन्खाबाबू की कोई जरूरत ना है। आज से इस फैक्ट्री में सब काम मुफत होगा। गोरमींट अपनी जाकिट की पाकिट में हैगी।"

उसे ऐसा झटका लगा कि नींद टूट गई। बत्ती, पंखा, सब बंद था क्योंकि मुफ्तखोर पार्टी जीतने के बावजूद भी उसकी झुग्गी बस्ती में बिजली नहीं थी।

[समाप्त] 

Saturday, January 31, 2015

किनाराकशी - लघुकथा

(चित्र व लघुकथा: अनुराग शर्मा)
गाँव में दो नानियाँ रहती थीं। बच्चे जब भी गाँव जाते तो माता-पिता के दवाब के बावजूद भी एक ही नानी के घर में ही रहते थे। दूसरी को सदा इस बात की शिकायत रही। बहला-फुसलाकर या डांट-डपटकर जब बच्चे दूसरी नानी के घर भेज दिये जाते तो जितनी देर वहाँ रहते उन्हें पहली नानी का नाम ले-लेकर यही उलाहनाएं मिलतीं कि उनके पास बच्चों को वशीभूत करने वाला ऐसा कौन सा मंत्र है?  ये वाली तो पहली वाली से कितने ही मायनों में बेहतर हैं। यह वाली नानी क्या बच्चों को मारती-पीटती हैं जो बच्चे उनके पास नहीं आते? बच्चे 10-15 मिनट तक अपना सिर धुनते और फिर सिर झुकाकर पहले वाली नानी के घर वापस चले जाते।

हर साल दूसरी नानी के घर जाकर उनसे मिलने वाले बच्चों की संख्या कम होते-होते एक समय ऐसा आया जब मैं अकेला वहाँ गया। तब भी उन्होने यही शिकवा किया कि उनके सही और सच्चे होने के बावजूद भोले बच्चों ने पहली नानी के किसी छलावे के कारण उनसे किनाराकशी कर ली है। उस दिन के बाद मेरी भी कभी उनसे मुलाक़ात नहीं हुई, हाँ सहानुभूति आज भी है।

Thursday, October 23, 2014

खान फ़िनॉमिनन - कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)
"गरीबों को पैसा तो कोई भी दे सकता है, उन्हें इज्ज़त से जीना खाँ साहब सिखाते हैं।"

"खाँ साहब के किरदार में उर्दू की नफ़ासत छलकती है।"

"अरे महिलाओं को प्रभावित करना तो कोई खान साहब से सीखे।"

"कभी शाम को उनके घर पर जमने वाली बैठकों में जा के तो देख। दिल्ली भर की फैशनेबल महिलायें वहाँ मिल जाएंगी।"

"खाँ साहब कभी भी मिलें, गजब की सुंदरियों से घिरे ही मिलते हैं।

"महफिल हो तो खाँ साब की हो, रंग ही रंग। सौन्दर्य और नज़ाकत से भरपूर।"

बहुत सुना था खाँ साहब के बारे में। सुनकर चिढ़ भी मचती थी। रईस बाप की बिगड़ी औलाद, उस बददिमाग बूढ़े के व्यक्तित्व में कुछ भी ऐसा नहीं है जिससे मैं प्रभावित होता। कहानी तो वह क्या लिख सकता है, हाँ संस्मरणों के बहाने, अपने सच्चे-झूठे प्रेम-प्रसंगों की डींगें ज़रूर हाँकता रहता है। अपनी फेसबुक प्रोफाइल पर भी यह कुंठित व्यक्तित्व केवल महिलाओं के कंधे पर हाथ धरे फोटो ही लगाता है। मुझे नहीं लगता कि उस आदमी में ऐसी एक भी खूबी है जो किसी समझदार महिला या पुरुष को प्रभावित करे। स्वार्थजनित संबंधों की बात और होती है। मतलब के लिए तो बहुत से लोग किसी की भी लल्लो-चप्पो करते रहते हैं। खाँ तो एक बड़े साहित्यिक मठ द्वारा स्थापित संपादक है सो छपास की लालसा वाले लल्लू-पंजू लेखकों-कवियों-व्यंग्यकारों द्वारा उसे घेरे रहना स्वाभाविक ही है। एक ही लीक पर लिखे उसके पिटे-पिटाए संस्मरण उसके मठ के अखबार उलट-पलटकर छापते रहते हैं। चालू साहित्य और गॉसिप पढ़ने वालों की संख्या कोई कम तो नहीं है, सो उसके संस्मरण चलते भी हैं। लेकिन इतनी सी बात के कारण उसे कैसानोवा या कामदेव का अवतार मान लेना, मेरे लिए संभव नहीं। मुझे न तो उसके व्यक्तित्व में कभी कोई दम दिखाई दिया और न ही उसके लेखन में।

कस्साब वादों से हटता रहा है, बकरा बेचारा ये कटता रहा है
खाँ साहब कोई पहले व्यक्ति नहीं जिनके बारे में अपनी राय बहुमत से भिन्न है। अपन तो जमाने से मठाधीशों को इगनोर मारने के लिए बदनाम हैं। लेकिन बॉस तो बॉस ही होता है। जब मेरे संपादक जी ने हुक्म दिया कि उसका इंटरव्यू करूँ तो जाना ही पड़ा। नियत दिन, नियत समय पर पहुँच गया। खाँ साहब के एक साफ सुथरे नौकर ने दरवाजा खोला। मैंने परिचय दिया तो वह अदब के साथ एक बड़े से हॉलनुमा कमरे में ले गया। सीलन की बदबू भरे हॉल के अंदर बेतरतीब पड़े सोफ़ों पर 10-12 अधेड़ महिलाएं बैठी थीं। कमरे में बड़ा शोर था। बेशऊर सी दिखने वाली वे महिलाएँ कचर-कचर बात करे जा रही थीं।

कमरे के एक कोने में 90 साल के थुलथुल, खाँ साहब, अपनी बिखरी दाढ़ी के साथ मैले कुर्ते-पाजामे में एक कुर्सी पर चुपचाप पसरे हुए थे। सामने की मेज़ पर किताबें और कागज बिखरे हुए थे। मुझे "दैनंदिन प्रकाशिनी" नामक पत्रिका के खाँ विशेषांक में छपा एक आलेख याद आया जिसमें खान फ़िनॉमिनन की व्याख्या करते हुए यह बताया गया था कि लोग, खासकर स्त्रियाँ, उनकी तरफ इसलिए आकृष्ट होती हैं क्योंकि वे उनकी बातें बहुत ध्यान से सुनते हैं और एक जेंटलमैन की तरह उन्हें समुचित आदर-सत्कार के साथ पूरी तवज्जो देते हैं।

नौकर के साथ मुझे खाँ साहब की ओर बढ़ते देखकर अधिकांश महिलाएँ एकदम चुप हो गईं। खाँ साहब के एकदम नजदीक बैठी युवती ने अभी हमें देखा नहीं था। अब बस एक उसी की आवाज़ सुनाई दे रही थी। ऐसा मालूम पड़ता था कि वह खाँ साहब से किसी सम्मेलन के पास चाहती थी। खाँ साहब ने हमें देखकर कहा, "खुशआमदीद!" तो वह चौंकी, मुड़कर हमें देखा और रुखसत होते हुए कहती गई, "पास न, आप मेरे को, ... परसों ... नहीं, नहीं, कल दे देना"

खाँ साहब ने इशारा किया तो अन्य महिलाएँ भी चुपचाप बाहर निकल गईं। नौकर मुझे खाँ साहब से मुखातिब करके दूर खड़ा हो गया। मैं खाँ साहब को अपना परिचय देता उससे पहले ही वे बोले, "अच्छा! इंटरव्यू को आए हो, गुप्ताजी ने बताया था, बैठो।" हफ्ते भर से बिना बदले कुर्ते-पाजामे की सड़ान्ध असह्य थी। अपनी भाव-भंगिमा पर काबू पाते हुए मैं जैसे-तैसे उनके सामने बैठा तो अपनी दाढ़ी खुजलाते हुए वे अपने नौकर पर झुँझलाये, "अबे खबीस, जल्दी मेरी हियरिंग एड लेकर आ, इनके सवाल सुने बिना उनका जवाब क्या तेरा बाप देगा?"

[समाप्त]

Saturday, August 23, 2014

जोश और होश - बोधकथा

चेले मीर ने सारे दांव सीख लिए थे। जीशीला भी था, फुर्तीला भी। नौजवान था, मेहनती था, बलवान तो होना ही था। फिर भी जो इज्ज़त उस्ताद पीर की थी, उसे मिलती ही न थी। गैर न भी करें, उस्ताद भी उसे बहुत होशियार नहीं समझते थे और सटीक से सटीक दांव पर भी और अधिक होशियार रहने की ही सलाह देते थे।

बहुत सोचा, बहुत सोचा, दिन भर, फिर रात भर सोचा और निष्कर्ष यह निकाला कि जब तक वह शागिर्द बना रहेगा, उसे कोई भी उस्ताद नहीं मानेगा। आगे बढ़ना है तो उसे शागिर्दी छोडकर जाना पड़ेगा। लेकिन उसके शागिर्दी छोड़ने भर से उस्ताद की उस्तादी तो छूटने वाली नहीं न। फिर?

उस्ताद को चुनौती देनी होगी, उसे हराना पड़ेगा। उस्ताद की इज्ज़त इसलिए है क्योंकि वह आज तक किसी से हारा नहीं है। चुनौती नहीं स्वीकारेगा तो बिना लड़े ही हार जाएगा। और अगर मान ली, तब तो मारा ही जाएगा। सारे दांव तो सिखा चुका है, और अब बूढ़ी हड्डियों में इतना दम नहीं बचा है कि लंबे समय तक लोहा ले सके।

लीजिये जनाब, युवा योद्धा ने अखाडा छोड़कर गुरु को ललकार कर मुक़ाबला करने की चुनौती भेज दी। उस्ताद ने हँसकर मान भी ली और यह भी कहा कि पहले भी कुछ चेले नौजवानी में ऐसी मूर्खता कर चुके हैं। उनमें से कई मुक़ाबले के दिन कब्रिस्तान सिधार गए और कुछ आज भी बेबस चौक पर भीख मांगते हैं। युवा योद्धा इन बातों से बहकने वाला नहीं था। मुक़ाबले में समय था फिर भी टाइमटेबल बनाकर गुरु के सिखाये सारे गुरों का अभ्यास लगन से करने लगा।

(चित्र: अनुराग शर्मा)
एक दिन सपने में देखा कि उस्ताद से मुक़ाबला है। वह ज़मीन पर पड़ा है और उस्ताद ने तलवार उसकी गर्दन पर टिकाई हुई है। उसने आश्चर्य से पूछा, "इन बूढ़े हाथों में इतनी ताकत कैसे?" उस्ताद ने सिंहनाद कराते हुए कहा, "ताकत मेरी नहीं मेरे गुरू के सूत्र द्वारा बनवाई गई इस तलवार की है।"  बेचैनी में आँख खुली तो फिर नींद न आई। सुबह उठते ही पुराने अखाड़े पहुँचकर ताका-झाँकी करने लगा। गाँव का लुहार उसके सामने ही अखाड़े में गया। उस्ताद उसे अक्सर बुलाते थे। उस्ताद की तलवारें अखाड़े की भट्टी में उनके निर्देशन में ही बनती थीं। शाम को जब लुहार बाहर निकला तो चेले ने पूछा, "क्या करने गया था?" लुहार ने बताया कि उस्ताद पाँच फुट लंबी तलवार बनवा रहे हैं, आज ही पूरी हुई है।

जोशीले चेले ने सोने का एक सिक्का लुहार के हाथ में रखकर उसी समय आठ फुट लंबी तलवार मुकाबले से पहले बनाकर लाने का इकरार करा लिया और घर जाकर चैन से सोया।

दिन बीते, मुकाबला शुरू हुआ। गुरु की कमर में पाँच फुट लंबी म्यान बंधी थी तो चेले की कमर में आठ फुट लंबी। तुरही बजते ही दोनों के हाथ तलवार की मूठ पर थे। चेले के हाथ छोटे पड़ गए, म्यान से आठ फुटी तलवार बाहर निकल ही न सकी तब तक उस्ताद ने नई पाँच फुटी म्यान से अपनी पुरानी सामान्य छोटी सी तलवार निकालकर उसकी गर्दन पर टिका दी।

होश के आगे जोश एक बार फिर हार गया था।

[समाप्त]

Monday, May 19, 2014

ईमान की लूट - लघुकथा

लुटेरों के गैंग को उस बार लूट में अच्छी ख़ासी मात्रा में ईमानदारी मिल गई। लूट का माल बांटते समय झगड़ा होने लगा। कोई कहता कि मैं सबसे बड़ा हूँ इसलिए ईमानदारी में ज़्यादा हिस्सा लूँगा, कोई बोला कि सबसे चालाक होने के कारण सबसे बड़ा हिस्सा मुझे ही मिलना चाहिए।

सरदार ने कहा कि उसूलन तो आधा हिस्सा उसका है बाकी आधे में सारा गैंग जो चाहे करे। गांधीवादी ने कहा कि उसने सबसे अधिक थप्पड़ खाये हैं इसलिए उसे सबसे अधिक भाग का अधिकार  है। जिहादी बोला कि सबसे ज़्यादा सेकुलर होने के कारण उसका हक़ सबसे बड़ा है। माओवादी बोला कि उसने बम और IED फोड़कर अन्य सदस्यों से ज़्यादा खतरा उठाया है इसलिए उसका हक़ भी ज़्यादा है। मार्क्सवादी कहने लगा कि उसे 75% मिलना चाहिए क्योंकि बाकी जनता में तो सब बराबर के अधिकारी हैं, सो उन्हें 25% भी कम नहीं।

वकील बोला कि गैंग को बचाने के लिए झूठ बोलते-बोलते उसकी ईमानदारी सबसे पहले खर्च हो जाती है वहीं प्रोफेसर ने छात्रों को फुसलाकर केडर भर्ती करने के काम को सबसे कठिन बताया। अर्थगामी ने लारा दिया कि जितनी ज़्यादा ईमानदारी उसे मिलेगी, वह दल को निवेश पर उतना ही अधिक लाभांश दिलवाएगा। पत्रकार का कहना था कि प्रचार के लिए उसे ईमानदारी खसोटने में प्राथमिकता मिलनी चाहिए।

सबने एक दूसरे पर बंदूकें तान दीं। गोलियां चलीं तो कुछ मर-खप गए। बचे हुए लुटेरे गंभीर रूप से घायल होकर भाग लिए। लुटे-पिटे सरदार अकेले रह गए। अब उनकी ईमानदारी भी सब खर्च हो गई है। सो ईमानदारी बैंक पर अगला ज़्यादा बड़ा हाथ मारने की सोच रहे हैं। तब तक उनके छिटके हुए गैंग पर कब्जा करने के लिए कई अन्य घायल अपनी अपनी ईमानदारी का बचा-खुचा कटोरा लिए नज़रें गढ़ाए बैठे हैं।

देखते हैं जनता किसकी ईमानदारी से लहलोट होने वाली है। जोतखी बाबा बोले कि बिना किसी भेदभाव के, पुराने ईमानदारी-लूट गैंग के जिस प्रमाणित सदस्य की किस्मत बुलंदी पर होगी, सरदार वही बनेगा।