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Thursday, December 29, 2016

राजनैतिक प्रश्नोत्तरी - व्यंग्य

बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री जीतन राम मांझी ने कहा, "दलित दारू पीना नहीं छोड़ सकते तो उसे दवा की तरह पियें" (स्रोत: एक पुरानी खबर)

आइये ज़रा देखें इस कथन के जवाब में आए कुछ काल्पनिक महापुरुषों के सटीक बयान

मोदी गोरमींट आने के 100 घंटे में सरकारी शराब की दुकानों में ताले पड़ जाएँगे - बाबा कामदेव

लिकर इंडिया की समस्या है, हिंदूस्थान में तो दूध घी और मृत संजीवनी सुरा की धाराएँ बहती हैं - श्री आवभगत जी

हमारी किताब में ही नहीं, आपके ग्रन्थों में भी अल्कोहल मना है - हम शराब की सब दुकानें और आयुर्वेद की सब फेक्टरी बंद करा देंगे। आम के बाग जलाकर खजूर उगाना ज़रूरी कर देंगे - हकीम अक्सर जमालघोटा

ये जो स्कॉच है, ये आपको पता नहीं होगा, हमारे देश में बनती थी, छिपकली और कॉकरोच से। तब इसे छिरोच कहते थे। सन् 1234 में सर वाल्टर स्कॉट उसका फार्मूला चुराकर जर्मनी ले गया था। तब से ये स्कॉच कहलाने लगी - वीडियो प्रवचन महाराज सुपरशिक्षित

अगर ये आरोप सही साबित हो जाएँ कि मेरी पार्टी में शराब की नदी बहती है तो चोरी गई बावली भैंस की कसम, मुझे चोरमीनार पर फाँसी लटका दिया जाये - कम खा रामपुरी

ये बयान अल्पसंख्यकों पर अत्याचार है। शराब को बढ़ावा देने वाली बात भगवा आतंकवाद का उदाहरण है। हम श्री राहुल जी महाराज से निवेदन करेंगे कि हमें फिर से राज्य का क्षत्रप मुख्यमंत्री बनाया जाये ताकि हम अपने अधिकार का दुरुपयोग करते हुए बासा आराबाम को करोड़ों की सरकारी ज़मीन एक रुपये में दे दें - न बाबा न बाबा पिछवाड़े बुड्ढा खाँसता

शराब बुरी बात है। चाय भी बुरी बात है। हम भी इसी देस के नागरिक हैं। चाय बनाना भी बुरी बात है और चाय पिलाना भी। खबरदार, चायवालों से होसियार, खरीदिए लौकी का अचार, इस बार, हर बार - अचार और मिशन

शराब तो पीनी ही चाहिए। लाल रंग की हो तो बहुत बढ़िया, रेड वाइन वगैरा। शराबबंदी की बात बाज़ारवाद का षडयंत्र है। शराब बंद हो जाएगी तो हमारी पार्टी की तो पार्टियाँ ही बंद हो जाएंगी। क्रांति की धार वोदका की बोतल से शुरू होकर ही बारूदी सुरंग पर खत्म हो पाती है। लिक़र के बिना हमारे नौजवान कहाँ जाएँगे? शराब पिये बिना उन्हें बम फोड़ना कौन सिखाएगा - कामरेड पी के लालबुझक्कड़

शराब रात में पीने की चीज़ है। दिन में हम हमेसा दूध पीता हूँ। आप भी पीजिए न, हमारा मुख्यमंत्री आवास वाला डेरी से खरीदकर - चारा खा लूँ परसाद

अगर स्टिंग ऑपरेशन करने में मुश्किल आये तो शराब पिलाकर आसानी से करें। लेकिन हमारे विधायकों को बख्श दें। सदन से ज़्यादा तो पहले ही जेल में पड़े रहते हैं - हरीश्चंद पछाड़ ईमानवाल

70 साल से रिज़र्व बैंक ने नोट छापे, गरीब लोग उन नोटों से शराब खरीदकर पीते हैं और फिर रोते हैं। मित रो, अब मत रो, हम नया गवर्नर लाकर पुराने नोट छपना बंद करा देंगे, जेब में 11 नोट रखकर चलना गैरकानूनी होगा। घर में 15 से ज़्यादा नोट रखने के लिये लाइसेंस लेना पडेगा। कार्ड स्वाइप मशीन लिये बिना चौराहे पर घूमते भिखारियों को पकडकर जेल भेज दिया जायेगा मित रो। हर सुबह एक समोसा और एक चाय खरीदने के लिये दो-दो हज़ार के नोट लेकर आने वाले 40-50 ग्राहकों के लिये भी पर्याप्त छुट्टा न रखने वाले दुकानदारों के कर की दर, बदर कर दी जायेगी, उनका आधार निराधार कर दिया जायेगा। - प्रधानयात्रामंत्री

शराब पीते पकड़े जाने वालों के लिये ऑनलाइन परमिट की व्यवस्था की गई है, कैशलैस रिश्वत के लिये घूसटीएम ऐप डाउनलोड करें, विकासमार्ग पर चलें - केशकर्तन मंत्रालय

[व्यंग्य जारी रहे]

Thursday, November 10, 2016

मोड़ - लघुकथा

चित्र: अनुराग शर्मा
लाइसेंस भी नहीं मिला और एक दिन की छुट्टी फिर से बेकार हो गई। एक बार पहले भी उसके साथ यही हो चुका है। परिवहन विभाग का दफ़्तर घर से दूर है। आने-जाने में ही इतना समय लग जाता है। उस पर इतनी भीड़ और फिर दफ़्तर के बाबूजी के नखरे। अभी किसी से बात कर रहे हैं, अब खाने का वक़्त हो गया, अभी आये नहीं हैं, आदि।

पिछली बार के टेस्ट में इसलिये फ़ेल कर दिया था कि उसने स्कूटर मोड़ते समय इंडिकेटर दे दिया था, तब बोले कि हाथ देना चाहिये था। इस बार उसने हाथ दिया तो कहते हैं कि इंडिकेटर देना चाहिये था।

भुनभुनाता हुआ बाहर आ रहा था कि एक आदमी ने उसे रोक लिया, "लाइसेंस चाहिये? लाइसेंस?"

उसने ध्यान से देखा, आदमी के सर के ठीक ऊपर दीवार पर लिखा था, "दलालों से सावधान।"

"नहीं, नहीं, मुझे लाइसेंस नहीं चाहिये ... "

"तो क्या यहाँ सब्ज़ी खरीदने आए थे? अरे यहाँ जो भी आता है उसे लाइसेंस ही चाहिये, चलो मैं दिलाता हूँ।"

कुछ ही देर में वह मुस्कुराता हुआ बाहर जा रहा था। उसे पता चल गया था कि मुड़ते समय न हाथ देना होता है न इंडिकेटर, सिर्फ़ रिश्वत देना होता है।


(अनुराग शर्मा

Friday, March 27, 2015

पुरानी दोस्ती - लघुकथा

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)

बेमेल दोस्ती की गंध
कल उसका फोन आया था। ताबड़तोड़ प्रमोशनों के बाद अब वह बड़ा अफसर हो गया है। किसी ज़माने में हम दोनों निगम के स्कूल में एक साथ काम करते थे। मिडडे मील पकाने से लेकर चुनाव आयोग की ड्यूटी बजाने तक सभी काम हमारे जिम्मे थे। ऊपर से अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ। इन सब से कभी समय बच जाता था तो बच्चों की क्लास भी ले लेते थे।  

उसे अपने असली दिल्लीवाला (मूलनिवासी) होने का गर्व था। मुझे हमेशा 'ओए बिहारी' कहकर ही बुलाता था। दिल का बुरा नहीं था  लेकिन हज़ार बुराइयाँ भी उसे सामान्य ही लगती थीं। अपनी तो मास्टरी चलती रही लेकिन वह असिस्टेंट ग्रेड पास करके सचिवालय में लग गया। अब तो बहुत आगे पहुँच गया है।

आज मूड ऑफ था उसका। अपने पुराने दोस्त से बात करके मन हल्का करना चाहता था सो बरसों बाद उस दिन मुझे फोन किया।

"कैसा है तू?"

"हम ठीक हैं। आप कैसे हैं?"

"गुड ... और तेरी बिहारिन कैसी है?"

इतने साल बाद बात होने पर भी उसका यह लहज़ा सुनकर बुरा लगा। मुझे लगा था कि उम्र बढ़ने के साथ उसने कुछ तमीज़ सीख ली होगी। मैं आरा का सही, उसका इलाका तो दिल्ली देहात ही था। सोचा कि उसे उसी के तरीके से समझाया जा सकता है।

"हाँ, हम सब ठीक हैं, तू बता, तेरी देहातन कैसी है?"

"ओए बिहारी, ये तू-तड़ाक मुझे बिलकुल पसंद नहीं। और ये देहातिन किसे बोला? अपनी भाभी के बारे में इज़्ज़त से बात किया कर।"

फोन कट गया था। बरसों की दोस्ती चंद मिनटों में खत्म हो गई थी।

[समाप्त]

Monday, February 23, 2015

खिलखिलाहट - लघुकथा

दादी और दादा
(चित्र व कथा: अनुराग शर्मा)

"बोलो उछलना।"

"उछलना।"

"अरे बिलकुल ठीक तो बोल रही हो।"

"हाँ, उछलना को ठीक बोलने में क्या खास है।"

"तो फिर बच्चों के सामने छुछलना क्यों कहती हो? सब हँसते हैं।"

"इसीलिए तो।"

"इसीलिए किसलिए?"

"ताकि वे हंस सकें। उनकी दैवी खिलखिलाहट पर सारी दुनिया कुर्बान।"

Saturday, February 14, 2015

मुफ्तखोर - लघुकथा

(लघुकथा व चित्र: अनुराग शर्मा)


कमरे की बत्ती और पंखा खुला छोडकर वह घर से निकला और बस में बिना टिकट बैठ गया। आज से सब कुछ मुफ्त था। आज़ादी के लंबे इतिहास में पहली बार मुफ्तखोर पार्टी सत्ता में आई थी। उनके नेता श्री फ़ोकटपाल ने चुनाव जीतते ही सब कुछ मुफ्त करने का वादा किया था। उसने भी मुफ्तखोर पार्टी को विजयी बनाने के लिए बड़ी लगन से काम किया था। कारखाने में रोज़ हाड़तोड़ मेहनत करने के बाद घर आते ही पोस्टर लगाने निकल पड़ता था। सड़क पर पैदल या बस में आते जाते भी लोगों को मुफ्तखोर पार्टी के पक्ष में जोड़ने का प्रयास करता।

फैक्टरी पहुँचते ही उल्लास से काम पर जुट गया। एक तो सब कुछ मुफ्त होने की खुशी ऊपर से आज तो वेतन मिलने का दिन था। लंच के वक्फ़े में जब वह तन्खाबाबू को सलाम ठोकने गया तो उन्हें लापता पाया। वापसी में सेठ उधारचंद दिख गए। सेठ उधारचंद फैक्ट्री के मालिक हैं और अपने नाम को कितना सार्थक करते हैं इसकी गवाही शहर के सभी सरकारी बैंक दे सकते हैं।

उसने सेठजी को जयरामजी कहने के बाद हिम्मत जुटाकर पूछ ही लिया, "तन्खाबाबू नहीं दिख रहे, आज छुट्टी पर हैं क्या?"

"कुछ खबर है कि नईं? मुफतखोर पार्टी की जीत का जशन चल रिया हैगा।"

"तन्खाबाबू क्या जश्न में गए हैं?"

"बीस-बीस हज़ार के लंच करे हैं हमने फ़ोकटपाल्जी के साथ। पचास-पचास हज़ार के चेक भी दिये हैं चंदे में। इसीलिए ना कि वे हमें भी कुछ मुफत देवें।"

"जी" वह प्रश्नवाचक मुद्रा में आ गया था।

"हमने फ़ोकटपाल्जी को जिताया है। अब तन्खाबाबू की कोई जरूरत ना है। आज से इस फैक्ट्री में सब काम मुफत होगा। गोरमींट अपनी जाकिट की पाकिट में हैगी।"

उसे ऐसा झटका लगा कि नींद टूट गई। बत्ती, पंखा, सब बंद था क्योंकि मुफ्तखोर पार्टी जीतने के बावजूद भी उसकी झुग्गी बस्ती में बिजली नहीं थी।

[समाप्त] 

Sunday, May 18, 2014

राजनैतिक व्यंग्य की दो लाइनाँ

संसार के सबसे बड़े लोकतन्त्र में जनमत की विजय के लिए हर भारतीय मतदाता को बधाई  
ताज़े-ताज़े लोकसभा चुनावों ने बड़े-बड़ों के ज्ञान-चक्षु खोल दिये। कई चुनाव विशेषज्ञों के लिए मोदी और भाजपा की जीत में हर विरोधी का सफाया हो जाना 1977 की चुनावी क्रान्ति से भी अधिक अप्रत्याशित रहा। रविश कुमार नामक रिपोर्टर को टीवी पर मायावती की एक रैली का विज्ञापन सा करते देखा था तब हँसी आ रही थी कि आँख के सामने के लट्ठ को भी तिनका बताने वालों की भी पूछ है हमारे भारत में। अब मायावती के दल का पूर्ण सफाया होने पर शायद रवीश पहली बार अपनी जनमानस विश्लेषण क्षमता पर ध्यान देंगे। क्योंकि खबर गरम है कि हाथी ने इस बार के चुनाव में अंडा दिया है।

इसी बीच अपने से असहमत हर व्यक्ति को फेसबुक पर ब्लॉक करने के लिए बदनाम हुए ओम थानवी पर भी बहुत से चुट्कुले बने। कुछ बानगी देखिये,
  • आठवें चरण के चुनाव में थानवी जी ने 64 सीटों को ब्लाक कर दिया
  • थानवी जी की लेखन शैली की वजह से जनसत्ता के पाठकों में इतना इजाफा हुआ कि आज उसे दो लोग पढ़ते हैं, एक हैं केजरीवाल और दुसरे हैं संपादक जी खुद। बाकी सब को थानवी जी ने ब्लॉक कर दिया है।
  • 16 मई को अगर मोदी पीएम बने तो थानवी जी भारत देश को ब्लाक करके पाकिस्तान चले जायेगे। 

हीरो या ज़ीरो?
जहाँ केजरीवाल के राखी बिडलान और सोमनाथ भारती जैसे साथी अपने अहंकार और बड़बोलेपन के कारण पहचाने गए वहीं स्वयं केजरीवाल ने अल्प समय में भारतीय राजनीति के विदूषक समझे जाने वाले लालू प्रसाद को गुमनाम कर दिया। केजरीवाल की फूहड़ हरकतों और उनसे लाभ की आशा में जुटे गुटों की जल्दबाज़ी ने कार्टूनिस्टों को बड़ा मसाला प्रदान किया। उनका हर असहमत के लिए, "ये सब मिले हुए हैं जी" कहने की अदा हो, अपने साथियों के मुँह पर खाँसते रहने का मनमोहक झटका, हर विरोधी को बेईमान कहने और अपने साथियों को ईमानदारी के प्रमाणपत्र बाँटने का पुरस्कारी-लाल अंदाज़ हो,  या फिर हर वायदे से पलटने का केजरीवाल-टर्न, जनता का मनोरंजन जमकर हुआ। वैसे तो वे 49 दिन के भगोड़े भी समझे जाते हैं लेकिन अपने पहले ही लोकसभा चुनाव में 400 जमानत जब्त कराने का जो अभूतपूर्व करिश्मा उन्होने कर दिखाया है उसके लिए उनके पार्टी सदस्य और देश कि जनता उन्हें सदा याद रखेंगे।

आज कुछ सीरियस लिखने का मूड नहीं है सो प्रस्तुत है इन्हीं चुनावों के अवलोकन से उपजा कुछ निर्मल हास्य। अगर आपको लगता है कि प्रस्तुत पोस्ट वन्य प्राणियों के लिए अहितकर है तो कृपया अपना मत व्यक्त करें, समुचित कारण मिलने पर पोस्ट हटा ली जाएगी।

दिल्ली छोड़ काशी को धावै,
सीएम रहै न पीएम बन पावै

खाँसियों  का  बड़ा सहारा है
फाँसियों ने तो सिर्फ मारा है

सूली से भय लगता है, थप्पड़ से काम चलाते हैं,
जब तक मूर्ख बना सकते जनता को ये बनाते हैं

टोपी मफ़लर फेंक दियो, झाड़ू दई छिपाय
न जाने किस मोड़ पे मतदाता मिल जाय।

पहले साबरमती उबारी
आई अब गंगा की बारी

इल्मी हारे, फ़िल्मी हारे, हारे बब्बर राज
लोकतन्त्र ऐसा चमका मेरे भारत में आज

स्विट्जरलैंड की खोज में बाबा हुए उदास
कालाधन की खान हैं सब दिल्ली के पास



संबन्धित कड़ियाँ
* क्यूरियस केस ऑफ केजरीवाल
आशा की किरण

Saturday, August 23, 2008

ह्त्या की राजनीति

कल तक जिस गाँव में शमशान सा सन्नाटा छाया हुआ था आज वहाँ कुम्भ मेले जैसी गहमागहमी है। लोगों का हुजूम समुद्र की लहरों जैसा उछल रहा है। क्यों न हो, बर्बर समाज पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव बर्बर प्रताप जो अपने लाव लश्कर के साथ आए हुए हैं।

उनकी शान का क्या वर्णन करूँ। अलग ही है। खानदानी रईस हैं। 50 गाँवों की ज़मींदारी थी। राजा साहब कहलाते थे। मगर गरीब जनता की सेवा का चस्का ऐसा लगा कि आज अगर कोई राजा कह दे तो शायद उसकी जुबान ही खिंचवा दें। उनका काम करने का तरीका भी आम नेताओं से बिल्कुल अलग है। भाषण तो देते ही हैं, गरीब जनता के ऊपर कविताएँ भी लिखते हैं और चित्रकारी भी करते हैं। गरीबों से इतना अपनापन मानते हैं कि सिर्फ़ भेड़ का सेवन करते हैं। उनकी नज़र में गाय-भैंस तो अमीरों के चोंचले हैं। लोग तो उनकी तारीफ़ में यहाँ तक कहते हैं कि अगर कोई कलाकार गाय का चित्र भी बना दे तो वे उसे तुंरत साम्प्रदायिक करार कर देंगे।

राजसी परिवार का कोई दंभ नहीं तभी तो महल के ऐशो-आराम छोड़कर आम सांसदों की तरह नई दिल्ली के सरकारी बंगले में रहते हैं। सुप्रीम कोर्ट के शहरी जजों का बस चले तो गरीबों के इस मसीहा को पिछले पाँच सालों से उस बंगले का किराया व बिल आदि न देने के इल्जाम में बेघर ही कर दें। मगर राजा साहब जानते हैं कि इस देश की बेघर, भूखी, नंगी और अनपढ़ जनता सब देखती और समझती है। वह अपने राजा साहब के साथ ऐसा अन्याय हरगिज़ न होने देगी।

-=xXx=-
बर्बर प्रताप जी का हैलिकोप्टर अभी अभी नत्थू के खेत में उतरा है। वह बेचारा दूर एक कोने में सहमा सा खडा काले कपडों वाले बंदूकधारियों के दस्ते को देख रहा है। कल रात इसी दस्ते की निगरानी में पुलिसवालों ने उसके खेत की सारी अरहर काट डाली थी ताकि राजा साहब का हेलिकॉप्टर आराम से उतर सके। वह बेचारा सोच रहा है कि अगर उसकी पहुँच राजा साहब के किसी कारिंदे तक होती तो शायद महाजन क़र्ज़ अदायगी को अगली फसल तक टाल देता, वरना तो सल्फास की गोली ही उसका आख़री सहारा है।

लाउडस्पीकर की आवाज़ से उसका ध्यान भंग हुआ। राजा साहब मंच पर आ गए थे। मंच क्या पूरा किला ही लग रहा था। काले कपड़े वाले बंदूकधारी हर तरफ़ मोर्चा लेकर खड़े हुए थे। राजा साहब पिछले हफ्ते हुई काले प्रधान की ह्त्या का ज़िक्र कर रहे थे। काले हमारे गाँव का प्रधान था। अव्वल दर्जे का जालिम। गरीबों को उसके खेतों में बेगार तो करनी ही पड़ती थी, उनकी बहू बेटियाँ भी सुरक्षित नहीं थी। थाने में भी गरीबों की कोई सुनवाई न थी इसलिये लोग खून का घूँट पीकर रह जाते थे। मगर जब उसहैत की 10 साल की बेटी के साथ पैशाचिक कृत्य की ख़बर मिली तो सारा गाँव ही गुस्से से भर गया। सभी पागल हुए घूम रहे थे मगर किसी की भी इतनी हिम्मत न थी कि थाने में जाकर रपट भी लिखाए। सबको पता था कि जो भी जायेगा थानेदार उसी को मार-कूट कर अन्दर कर देगा। सुबह पता लगा कि उसी रात काले प्रधान का काम तमाम हो गया। गाँव के मर्द तो यह ख़बर मिलते ही भाग खड़े हुए, पुलिस का कहर टूटा औरतों और बच्चों पर। कई बच्चे तो अभी भी हल्दी-चूना लपेटे खाट पर पड़े हैं।


राजा साहब पुलिस के निकम्मेपन का ज़िक्र कर रहे थे। उन्होंने कहा कि गरीब लोग अपनी जान हथेली पर लिए हुए घूम रहे हैं। वे बोले कि पूरे प्रदेश में गुंडों- माफियाओं का राज हो गया है तथा कानून व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई है। काले प्रधान जैसे सत्पुरुषों की जान ही सुरक्षित नहीं है तो आम लोगों का तो कहना ही क्या। रोजाना ही डकैती, हत्या और बलात्कार हो रहे हैं। उन्होंने नई सरकार के कार्यकाल में कानून व्यवस्था की स्थिति ध्वस्त होने का आरोप लगाते हुए अपनी हत्या की आशंका भी जताई।

मंच से उतरने के बाद राजा साहब ने पत्रकारों से बात की और वहाँ भी अपनी ह्त्या की आशंका को दुहराया। पत्रकारों से बातचीत करते हुए उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा कि यह सरकार कभी भी उनकी हत्या करवा सकती है। उन्होंने काले प्रधान हत्याकांड को एक राजनीतिक साजिश करार दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि विजेता समाज पार्टी की सरकार के दौरान उनकी पार्टी कार्यकर्ताओं की सरकारी सुरक्षा वापस ली जा रही है। उनके लोगों की चुन-चुनकर हत्या हो रही है। उन्होंने कहा कि विजेता समाज पार्टी की सरकार सिर्फ शहरों पर ध्यान दे रही है और गाँवों के गरीब मजदूर महंगाई, बेरोजगारी और असुरक्षा के बीच पिस रहे हैं। इस सरकार का ग्रामीण जनता से कोई सरोकार नहीं है।


-=xXx=-
चार दिन के बाद जब राजा साहब एक निकटवर्ती गाँव में एक और छुटभय्ये नेता के दशमे में गए तो उनके काफिले पर गंभीर हमला हुआ। उनके सभी बंदूकधारियों का काम तमाम हो गया। हमलावर उनके गोली-बन्दूक भी अपने साथ ले गए। पता लगा कि राजा साहब मृतक नेता के परिवार के भरण-पोषण के लिए पार्टी फंड से कई लाख रुपये भी लाये थे। हमलावर वह सारा रोकड़ा भी अपने साथ ही ले गए। देवी माँ की असीम कृपा थी कि राजा साहब का बाल भी बाँका न हुआ।

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इस बात को कई महीने गुज़र गए हैं। नेताओं पर बढ़ते हमलों का कारण पता करने के लिए जांच समिति भी बैठ चुकी है। पुलिस आज भी गाँव-गाँव जाकर लोगों को डरा-धमका रही है मगर आज तक किसी को यह पता नहीं चला कि ये सारी घटनाएँ राजा साहब के कारकुनों ने विजेता समाज पार्टी की सरकार के ऊपर राजनैतिक लाभ लेने के लिये कराई थीं।
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