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निराशा अपने मूर्त रूप में |
जितनी भारी भरकम आस
उतना ही मन हुआ निरास
राग रंग रीति इस जग की
अब न आतीं मुझको रास
सागर है उम्मीदों का पर
किसकी यहाँ बुझी है प्यास
जीवन भर जिसको महकाया
वह भी साथ छोडती श्वास
संयम का सम्राट हुआ था
बन बैठा इच्छा का दास
जिसपे किया निछावर जीना
वह क्योंकर न आता पास
कुछ पल की कहके छोड़ा था
गुज़र गये दिन हफ्ते मास
तुमसे भी मिल आया मनवा
फिर भी दिन भर रहा उदास
जिसके लिये बसाई नगरी
उसने हमें दिया वनवास
अपनी चोट दिखायें किसको
जग को आता बस उपहास
(चित्र ऐवम् कविता: अनुराग शर्मा)
achhi rachna..sadhuwad...
ReplyDeleteजिसके लिये बसाई नगरी
ReplyDeleteउसने हमें दिया बनवास
अपनी चोट दिखायें किसको
जग को आता बस उपहास
बात सही ही है। सुंदर कविता।
अपनी चोट दिखायें किसको
ReplyDeleteजग को आता बस उपहास...
और क्या ...!
सुन्दर रचना !
यह कविता आपकी प्रवृत्ति से मेल खाती तो नहीं लगती :)
ReplyDeleteरचना तों अच्छी है लेकिन एक तो यह आपके स्वभाव से मेल नहीं खाती और दूसरे सवेरे-सवेरे ऐसी निराशाजनक बातें पढना अच्छा नहीं लगता। बीच का कोई रास्ता निकालिए न।
ReplyDeleteसागर है उम्मीदों का पर
ReplyDeleteकिसकी यहाँ बुझी है प्यास
बहुत सटीक तरीके से कहा है आपने यहाँ उम्मीदों के सागर है लेकिन जितनी उम्मीदें पूरी होती जाती हैं उतनी ही प्यास बढती जाती है ..और हम अंत तक अशांत रहते हैं ...आपका आभार
काजल कुमार की बात दोहरा रहा हूं! :)
ReplyDeleteआज मूड बिल्कुल अलग है..
ReplyDeleteकाजल कुमार गहरे पकड़ते हैं -आखिर इंसा हम सभी है (आपके डिफेन्स में )
ReplyDeleteबाकी आपकी इस विधा की रचनाएं पाठक को ललचाती हैं अपना योगदान करने के लिए भी ..
उजियारा कब बीत गया
घिर आती अंधियारी रात
दीगर प्रशस्त कवि मन के सहज उदगार आयेंगें ही और हम भेयून्हे पढने बार बार लौटे रहेगें !
मन का हो तो अच्छा,
ReplyDeleteन हो तो और भी अच्छा...
जय हिंद...
आज बड़े दुखी नज़र आ रहे हो ... अल्ला खैर करे !!
ReplyDeleteआज अपना वोट काजल कुमार को :)
ReplyDeleteबहुत सारी उम्मीदों के बीच बीच अनुराग शर्मा जी की
ReplyDeleteनाउम्मीदी - कविता बहुत अच्छी लगती है।
क्योंकि *** इन बातों में हक़ीक़त है।
सागर है उम्मीदों का पर
ReplyDeleteकिसकी यहाँ बुझी है प्यास
ख़ूबसूरत पंक्तियाँ.....सुदर रचना
आपकी रचनाएं पढकर,
ReplyDeleteदूरी भी अब लगती पास!
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मनमोहक, अनुराग जी!
बहुत सुन्दर ....यह शरीर नाशवान है !
ReplyDeleteसुन्दर और सरल कविता, मन के भावों का निरूपण।
ReplyDeleteकुछ पल की कहके छोडा था
ReplyDeleteगुज़र गये दिन हफ्ते मास
तुमसे भी मिल आया मनवा
फिर भी दिन भर रहा उदास
सुन्दर गज़ल .. सुंदर भावाभिव्यक्ति
एक अच्छी ग़ज़ल प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद।
जिसके लिये बसाई नगरी
ReplyDeleteउसने हमें दिया बनवास
अपनी चोट दिखायें किसको
जग को आता बस उपहास
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वाह!
आपने तो छोटी बहर की गजल में
एक-एक शब्द नगीने की तरह से जड़ दिया है।
@Kajal Kumar
ReplyDeleteये बातें झूठी बातें हैं जो लोगों ने फैलाई हैं ...
(इब्न-ए-इंशा)
जिसके लिये बसाई नगरी
ReplyDeleteउसने हमें दिया बनवास
अपनी चोट दिखायें किसको
जग को आता बस उपहास
har baat lagi khas ,bahut hi badhiyaa .
जितनी भारी भरकम आस
ReplyDeleteउतना ही मन हुआ निरास
हमे आस तो रखनी चाहिये, ओर अगर निराश भी हो जाये तो निराश नही होना चाहिये, बल्कि दुगनी हिम्मत से फ़िर से मेहनत करे... फ़िर निराशा नही होगी....ना ऊमीद कभी नही होना चाहिये...
sharma ji
ReplyDeleteapki rachana maine pahali bar padhi {.जिसके लिये बसाई नगरी
उसने हमें दिया बनवास------] rachna ki maulikata se main bada prabhavit hua .
sundar kavy . sadhuvad .
जिसके लिये बसाई नगरी
ReplyDeleteउसने हमें दिया बनवास
अपनी चोट दिखायें किसको
जग को आता बस उपहास
बहुत सुंदर ..... सच....
बहुत ठीक। कभी कभी ऐसा ही कहने सुनने का मन होता है।
ReplyDeleteमेरा मन तो वैसा ही चल रहा है आजकल।
तुमसे भी मिल आया मनवा
ReplyDeleteफिर भी दिन भर रहा उदास
बहुत ही बढ़िया कविता....
jab naummidi taari hoti hai samjho
ReplyDeleteakl parakhne ki baari hoti hai smjho
main bhi
aise hi prashn puchha karta hu..
ab kya karna hai socha karta hu..
उदासी को महसूस कराती अच्छी रचना ..
ReplyDeleteसंयम का सम्राट हुआ था
ReplyDeleteबन बैठा इच्छा का दास
बहुत सही बात कही आपने.. बहुत मुश्किल होता है संयम बरतना
अच्छी कविता!
अपनी चोट दिखायें किसको
ReplyDeleteजग को आता बस उपहास
बहुत नाउम्मीदी है ..........
बस इतनी सी .....
एकदम बरोबर। वैसे भी ऐसे में ’वक्त’ फ़िल्म में जानी उवाच गये हैं कि ’राजा को अपने गम में किराये के रोनेवालों की जरूरत नहीं है’, सो सहमत हैं कि झेलना चाहिये।
ReplyDeleteसत्य वचन!
ReplyDeleteअच्छी कविता भाई अनुराग जी बधाई और शुभकामनाएं |
ReplyDelete.
ReplyDelete@--अपनी चोट दिखायें किसको
जग को आता बस उपहास....
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अपने मन की पीड़ा किसी से कहनी नहीं चाहिए , सिवाय दो लोगों के।
* माता पिता से
* गुरु से
गुरु तो आजकल मिलते नहीं। और माता पिता सभी खुशनसीबों के पास होते हैं। इसलिए जब कभी मन उदास हो या पीड़ा असह्य हो जाए तो माता-पिता के सिवाय किसी के साथ साझा नहीं करना चाहिए , क्यूंकि अक्सर व्याकुल मन को जो चाहिए होता है , वो नहीं मिलता, बल्कि थोड़ी देर की सहानुभूति या फिर ढेरों समझाइशें या फिर आपमें ही ये कमी है , जिसके कारण ऐसा हुआ , सुनने को मिलता है।
किसी का दुःख साझा करने के लिए बहुत बड़ा दिल चाहिए , वो भी आपके लिए स्नेह से लबालब भरा होना चाहिए। तभी उसके साथ अपने मन की व्यथा कहनी चाहिए। अन्यथा अल्पकालिक आराम तो वो दे देगा आपको अपने सहानुभूतिपूर्ण वचनों से। लेकिन अक्सर उन जानकारियों का गलत इस्तेमाल ही करेगा , जब खुद नाराज़ हो जाएगा तब।
इसलिए जब मन व्यथित हो तो स्वयं के साथ थोडा समय गुजारना चाहिए। जब मन में स्फूर्ति वापस आ जाये , तभी मित्रों और सहयोगियों से कुछ कहें। थोडा वक़्त दुखों को जीतने में भी लगाना चाहिए। जब हम अपने दुखों के साथ लड़ना सीख जाते हैं तो दुःख में भी सुख की अनुभूति होने लगती है।
और हाँ एक विशेष बात - जब हम दुखी होते हैं तो हमें कोशिश करनी चाहिए की हम अपने मित्रों को परेशान ना करें। अपने दुःख उनसे कहकर हम उनपर भी दुःख का बोझ अनायास ही डाल देते हैं। वो कुछ कर भी नहीं सकेंगे और परेशान भी हो जायेंगे। हो सकता है वो आपके हित में कुछ कहें और आपको पसंद न आये तो दोनों का मन उदास होगा। इसलिए बेहतर यही है की मन की व्यथा को पिया जाए और नीलकंठ बना जाए।
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ye udasi ki ardas bhi chant jayegi...
ReplyDeletebasanti bayar phir se ullas layegi...
pranam.
तुमसे भी मिल आया मनवा
ReplyDeleteफिर भी दिन भर रहा उदास
जिसके लिये बसाई नगरी
उसने हमें दिया बनवास...
गहन अनुभूतियों की सुन्दर अभिव्यक्ति है आपकी इस कविता में ...
हार्दिक बधाई
JI BAHIUT HI BADHIYA....
ReplyDeletekunwar ji,
मसे भी मिल आया मनवा
ReplyDeleteफिर भी दिन भर रहा उदास
जिसके लिये बसाई नगरी
उसने हमें दिया बनवास ...
कभी कभी हक़ीकत को लिखना उदासी का सबब माना जाता है .. पर जब हकीकात ऐसी है निराशाजनक है तो वही तो लिखा जायगा ... बहुत अच्छे से शेरॉन में उतारा है यथार्थ को ...
सही है जितनी ज्यादा उम्मीदें करेंगे उतनी ही ज्यादा निराशाहोगी। अक्सर संसार के रीति रिवाज कम ही रास आते है।खारे पानी से भी कहीं प्यास बुझी है। यह तो युनीवर्सल ट्रुथ है। संयम का सम्राट तो फिर भी हुआ जा सकता ाहै।जो गुजर गया उसे भूल जा जो पास है उसे याद रख। वाकी चारो शेर उदासी भरे मगर अच्छे लगे
ReplyDeletepriya anurag sharma ji
ReplyDeletesader bandan
aaj maine aapko padha , ek behatarin kavy -arjak, hridayvan shilpkar ko paya
utkrisht samvedanshil rachnayen" kanto men mahak hogi,chubhaya yun hi nahin koyi "
sadhuvad.
जिसके लिये बसाई नगरी
ReplyDeleteउसने हमें दिया बनवास
achhi panktiyan hain...
वाह! शानदार!
ReplyDelete...देर से आये मगर पढ़ पाये इसी बात की खुशी।
तुमसे भी मिल आया मनवा
ReplyDeleteफिर भी दिन भर रहा उदास
जिसके लिये बसाई नगरी
उसने हमें दिया बनवास...
किसी से अधिक आपे़अयें ही दुख का कारण बनती हैं। बहुत भावमय रचना है शुभकामनायें।
सच्ची बात लिखी है ..
ReplyDeleteब्लॉगजगत से लम्बी गैरहाज़िरी रही.. यहाँ का कारवाँ आगे निकल गया और हम बहुत पीछे रह गए..कविता कुछ कुछ अपने मन की कह रही है.
ReplyDeleteजिसके लिये बसाई नगरी
ReplyDeleteउसने हमें दिया बनवास
अपनी चोट दिखायें किसको
जग को आता बस उपहास
बहुत खूबसूरत पंक्तियां..
भावपूर्ण हृदयस्पर्शी रचना के लिए हार्दिक बधाई...
bahut achchi lagi......
ReplyDeleteसंयम का सम्राट हुआ था
ReplyDeleteबन बैठा इच्छा का दास
बेहतरीन रचना ! हर पंक्ति सोच समझकर लिखी हुई है ...
गहन अनुभूतियों की सुन्दर अभिव्यक्ति|
ReplyDeleteबहुत अच्छी कविता साझा करने के लिए आपका धन्यवाद
ReplyDeleteWow, so nice and positive poem thanks for sharing with us.
ReplyDeleteKabeer-raheem si sondhi khushabu se bhari rachana...ek atyantarik satya jise hamara vyktitv dabaye rakhata hai..usse jab kuchh nikalta hai to virodhabhashi tohota hai par satya har virodh ko katne me samarth hota hai...main aapko nahi janti..nirvirodh rup se mujhe ye rachana bahut achchhi lagi...shubhkamna..
ReplyDeleteयह तो एक अलग ही अनुराग शर्मा से भेंट हुई. यह रूप भी भाया, कविता भी.
ReplyDeleteघुघूती बासूती
beautiful!!!!!!
ReplyDeletebahut sunder, beautiful!!!!!!
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