किसी अदीब ने इक बार
इन्हें बताया था मोती
असलियत में तो बस
एक टूटा मुस्तक़बिल हैं
अभिषेक ओझा का "खिली-कम-ग़मगीन तबियत (भाग २)" पढा तो याद आया कि कुछ मिसरे मेरी झोली में भी हैं। अभिषेक के कथनों जितने खूबसूरत भले न हों, फिर भी उनकी अनुमति से आपके नज़रे इनायत हैं:
1. जो जूते बचाने जाते हैं, वे पैर गंवाकर आते हैं।
2. समय बाँटने के मामले में ईश्वर साम्यवादी है।
3. भविष्य प्रकाशित होगा, दिया जलाया क्या?
4. चले थे दुनिया बदलने, मांग रहे हैं चन्दा।
5. जीवन नहीं बदला है, केवल मेरी दृष्टि बदली है।
6. नाच का अनाड़ी कैसे भी एक टेढा आंगन ढूंढ ही लेता है।
7. खुद करें तो मज़ाक, और करे तो बदतमीज़ी।
8. हर रविवार के साथ एक सोमवार बन्धा है।
9. मैंने जीवन भर अपने आप से बातें की हैं। सच तो सच ही रहेगा, कोई सुने न सुने।
10. मेरे शव में से चाकू वापस निकालकर आपने मुझ पर अहसान तो नहीं किया न?
11. कितने निर्धन हैं वे जिनके पास धन के अलावा कुछ भी नहीं है।
12. जिसने दोषारोपण किया ही नहीं, उसे "फॉरगिव ऐंड फॉरगैट" जैसे बहानों से क्या काम?
13. आत्मकेन्द्रित जगत में दूसरों का सत्य घमंड लगता है और अपना कमीनापन भी खरा सत्य।
14. शहंशाह को भिक्षा कौन देगा?
15. मामूली रियायत मतलब बडी इनायत।
16. खुशी कोई चादर तो है नहीं कि दिल किया तो ओढ ली।
17. सृजन काम न आये तो अनुवाद करके देखो। वह भी बेकार जाये तो विवाद का ब्रह्मास्त्र तो है ही।
18. बोर को पता होता कि वह बोर है तो वह बोर होता ही क्यों?
(बोर वह होता है जो बोर करता है)
... और भी हैं परंतु बोरियत की एक बडी डोज़ एक ही बार में देना भी ठीक नहीं है। आज के लिये बस एक और जिसका अनुवाद नहीं हुआ है:
It's not the food that kills, it's the company.
[क्रमशः]
[डिस्क्लेमर: ऊलजलूल सोच पर मेरा सर्वाधिकार नहीं है। अगर किसी महापुरुष ने मिलती-जुलती (या एकदम यही) बात पहले कही है तो उनसे क्षमाप्रार्थना सहित। हाँ मार्क ट्वेन या गुरुदत्त ने कही हो तो बात और है, वे तो मेरे ही पूर्वजन्म थे।]
[अनुवाद आभार: आचार्य गिरिजेश राव]
=================================
सम्बंधित कड़ियाँ
=================================
* शब्दों के टुकड़े - भाग 1, भाग 2, भाग 3, भाग 4, भाग 5, भाग 6
* कच्ची धूप, भोला बछड़ा और सयाने कौव्वे
* मैं हूँ ना! - विष्णु बैरागी
* सत्य के टुकड़े
इन्हें बताया था मोती
असलियत में तो बस
एक टूटा मुस्तक़बिल हैं
अभिषेक ओझा का "खिली-कम-ग़मगीन तबियत (भाग २)" पढा तो याद आया कि कुछ मिसरे मेरी झोली में भी हैं। अभिषेक के कथनों जितने खूबसूरत भले न हों, फिर भी उनकी अनुमति से आपके नज़रे इनायत हैं:
1. जो जूते बचाने जाते हैं, वे पैर गंवाकर आते हैं।
2. समय बाँटने के मामले में ईश्वर साम्यवादी है।
3. भविष्य प्रकाशित होगा, दिया जलाया क्या?
4. चले थे दुनिया बदलने, मांग रहे हैं चन्दा।
5. जीवन नहीं बदला है, केवल मेरी दृष्टि बदली है।
6. नाच का अनाड़ी कैसे भी एक टेढा आंगन ढूंढ ही लेता है।
7. खुद करें तो मज़ाक, और करे तो बदतमीज़ी।
8. हर रविवार के साथ एक सोमवार बन्धा है।
9. मैंने जीवन भर अपने आप से बातें की हैं। सच तो सच ही रहेगा, कोई सुने न सुने।
10. मेरे शव में से चाकू वापस निकालकर आपने मुझ पर अहसान तो नहीं किया न?
11. कितने निर्धन हैं वे जिनके पास धन के अलावा कुछ भी नहीं है।
12. जिसने दोषारोपण किया ही नहीं, उसे "फॉरगिव ऐंड फॉरगैट" जैसे बहानों से क्या काम?
13. आत्मकेन्द्रित जगत में दूसरों का सत्य घमंड लगता है और अपना कमीनापन भी खरा सत्य।
14. शहंशाह को भिक्षा कौन देगा?
15. मामूली रियायत मतलब बडी इनायत।
16. खुशी कोई चादर तो है नहीं कि दिल किया तो ओढ ली।
17. सृजन काम न आये तो अनुवाद करके देखो। वह भी बेकार जाये तो विवाद का ब्रह्मास्त्र तो है ही।
18. बोर को पता होता कि वह बोर है तो वह बोर होता ही क्यों?
(बोर वह होता है जो बोर करता है)
... और भी हैं परंतु बोरियत की एक बडी डोज़ एक ही बार में देना भी ठीक नहीं है। आज के लिये बस एक और जिसका अनुवाद नहीं हुआ है:
It's not the food that kills, it's the company.
[क्रमशः]
[डिस्क्लेमर: ऊलजलूल सोच पर मेरा सर्वाधिकार नहीं है। अगर किसी महापुरुष ने मिलती-जुलती (या एकदम यही) बात पहले कही है तो उनसे क्षमाप्रार्थना सहित। हाँ मार्क ट्वेन या गुरुदत्त ने कही हो तो बात और है, वे तो मेरे ही पूर्वजन्म थे।]
[अनुवाद आभार: आचार्य गिरिजेश राव]
=================================
सम्बंधित कड़ियाँ
=================================
* शब्दों के टुकड़े - भाग 1, भाग 2, भाग 3, भाग 4, भाग 5, भाग 6
* कच्ची धूप, भोला बछड़ा और सयाने कौव्वे
* मैं हूँ ना! - विष्णु बैरागी
* सत्य के टुकड़े
sarthak & praharak vakya srijan /
ReplyDeletevicharmayi prastuti. sabhar ji .
गुड मोर्निंग !
ReplyDeleteअभिषेक ब्लॉग जगत के मोती हैं ...उनके यहाँ होने से भाषा सम्रद्ध महसूस करती है !
शुभकामनायें !
सभी पंक्तियाँ लाजवाब है ...
ReplyDeleteकभी प्रहार करती हैं , कभी दार्शनिक बनती है ...
dhansoo.........
ReplyDeleteएक से बढ़कर एक ! लाजबाब !
ReplyDeleteफ़ट्टे चक दित्ते जी।
ReplyDeleteएक हमारी तरफ़ से भी नज़र करते हैं -
शेर कभी मुँह नहीं धोते,....... (सामने वाले को चाय पूछी तो उसने कहा कि अभी मुँह नहीं धोया है, उसे खुश कर दिया जाये)............... वो तो अपनी जीभ से ही चाटकर मुँह साफ़ कर लेते हैं।
एक से एक खूबसूरत मोती है, आपकी झोली से…!!
ReplyDeleteकुछ तो ब्लॉगजगत की सीपो के उत्पाद लगते है…।
"खुद करें तो मज़ाक, और करे तो बदतमीज़ी।"
"आत्मकेन्द्रित जगत में दूसरों का सत्य घमंड लगता है और अपना कमीनापन भी खरा सत्य लगता है।"
ला-जवाब!!
कितने निर्धन हैं वे जिनके पास धन के अलावा कुछ भी नहीं है।
ReplyDeleteसरजी, वाकई लाजवाब कर दिया........ ऐसी ऐसी लफ्फबाजी अगर मौहल्ले में कर दी तो बैठकी जमी रहेगी - कसम से.
उम्दा साहित्य -क्योंकि साहित्य की आत्मा वक्र मानी गयी है!
ReplyDeleteयह तो जार्ज आर्वेल के डबल स्पीक से भी बढ़कर घुमाऊ है
बहुत ही सुन्दर समन्वय
ReplyDelete:)
ReplyDeleteकुछ तो ब्लॉग जगत पर बिलकुल सटीक बैठते है |
ReplyDeleteआपके इन 'उद्धरणों' को पढ़कर मुझे कल रात देखा सपना याद आया. वह भी अजीब था.
ReplyDeleteमैंने उस सपने में एक अजीब परिभाषा गढ़ी....
सपने में किसी ब्लोगर ने मुझसे पूछा कि 'गूढ़ शब्द' का सही अर्थ कैसे पता किया जाये?'
मैंने उत्तर दिया — "उस गूढ़ शब्द के पीछे जाकर 'भु' कर दो [मतलब डराओ] तब उस शब्द में से डरकर जो चीज़ बाहर निकले वही उसका वास्तविक अर्थ होगा."
शब्दों के अजीबो गरीब टुकड़े ज़िन्दगी का पाठ हैं इसे दीवार पर लगाना चाहिए ताकि रोज देख कर पढ़ सकें...
ReplyDeleteनीरज
आपके द्वारा दिये कुटेशन बातचीत को समृद्ध करने और रोचक बनाने में सहायक होंगे. इसलिये इन्हें पढ़ने में बोर नहीं सराबोर हो जाते हैं. कह डालिए सब के सब.
ReplyDeleteChalaymaan jagat men har cheez badalta hai.ye muhavra aaj ka aaina hai...satik ...achchhi lagi..aabhar
ReplyDelete"...नाच का अनाड़ी कैसे भी एक टेढा आंगन ढूंढ ही लेता है।..."
ReplyDeleteयह तो सेल्फ-प्रूव्ह्ड थ्योरम है!
यह अजीबोगरीब से शब्दों के टुकड़े हैं बड़े सटीक ...और अर्थपूर्ण भी
ReplyDeleteमुझे तो सारे के सारे बड़े बढ़िया लगे. कम शब्दों में गहरी बात.
ReplyDeleteबोर को पता होता कि वह बोर है तो वह बोर होता ही क्यों? कहां होता हे... वो ओ दुसरो को करता हे ना बोर.... ओर खुद मजे मे रहता हे, राम राम
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.....
ReplyDeleteमुझे तो आपके टिप्पणी बॉक्स के ऊपर लिखा ये सबसे ज़्यादा ये पसंद है-
ReplyDeleteमौडरेशन की छन्नी से सिर्फ बुरा इरादा छ्नेगा - बाकी सब जस का तस...
जय हिंद...
पहले मैंने इनकी क्रम संख्या लिखना चालू किया... सोचा था लिखूंगा कौन-कौन से खूब पसंद आये. दुबारा पढ़ा तो लगा जो छुट गए उनके साथ नाइंसाफी सी हो रही है. फिर सोच रहा हूँ बता ही देते हैं :) पहली बार के बाद २, ५, ६, ९, १०, ११, १२, १३ और १८ बहुत पसंद आये.
ReplyDelete[आपके 'टुकड़ों' को देखकर अपना पोस्ट लिखना सफल सा लगने लगा. धन्य हुए.]
लाजवाब
ReplyDeleteसारे ही ज्ञान बढाने के लिए काफी है लेकिन यह बहुत अच्छा लगा -
ReplyDeleteसृजन काम न आये तो अनुवाद करके देखो। वह भी बेकार जाये तो विवाद का ब्रह्मास्त्र तो है ही।
Saare ras ek ki post mein ...
ReplyDeleteएक - एक पंक्ति सोचने पर मजबूर करती हुई .....एक अलग सा चिंतन और दृष्टिकोण ......आपका आभार
ReplyDeleteबहुत खूब...
ReplyDeleteसबसे अच्छा डिस्क्लेमर है :)
बहुत बढ़िया और मज़ेदार भी। सबसे ज्यादा मज़ा आया डिस्क्लेमर पढ़।
ReplyDeleteसोचना तो पड़ ही गया।
ReplyDeleteअच्छा खज़ाना.. एक मेरी और से भी.
ReplyDeleteग़ालिब का एक शेर है:
उनके देखे से जो आती है मुंह पे रौनक,
वे समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है.
और इसका होंदी अनुवाद देखिये,उसी बहर में:
उनके दर्शन से जो आ जाती है मुख पर आभा,
वो समझते हैं रोगी की दशा उत्तम है!
गुलज़ार ने भी ओप्नी फिल्मों के संवाद में इस तरह के मुहावरे प्रयोग किये हैं..
अच्छा लगा सच में!!!
11. कितने निर्धन हैं वे जिनके पास धन के अलावा कुछ भी नहीं है।
ReplyDelete17 .सृजन काम न आये तो अनुवाद करके देखो। वह भी बेकार जाये तो विवाद का ब्रह्मास्त्र तो है ही।
यूँ तो सभी बेजोड़ हैं,पर ये दो....लाजवाब !!!!
हर रविवार के साथ एक सोमवार बन्धा है। :(
ReplyDeleteअरे अनुरागजी! आपने तो जीवन सूत्रों का खजाना दे दिया है!
ReplyDeleteब्लॉग से चित्र उतारना मुझे नहीं आता। इसलिए कृपा कर मुझे मेरे ई-मेल पर अपना चित्र भेजिए। मैं एक साप्ताहिक में स्तम्भ लिखता हूँ। उसी में आपके ये जीवन सूत्र देना चाहता हूँ। उम्मीद है, आप अनुमति देंगे। हॉं, चित्र जरूर भेजिएगा वर्ना आनन्द अधूरा रह जाएगा।
मजा आ गया। कई जाले झड गए।
Kalmadi visits Antique shop (owned by Ronie, the naughty fellow).
ReplyDeleteKalmadi : I’m looking for something “unique” to be kept in my Drawing………. make others envious…..U know..... (winks).
Ronie : Ok, Ok Sir, I got it……(assures and goes to Store Room; after a while, returns with “something” beautifully wrapped in a gift pack).
Ronie : This is the only piece left…………SPECIALLY FOR YOU.
Kalmadi wanted to see it before parting Rs.50,000/- but Ronie won’t allow fearing leakage of its secrecy/uniqueness……instructs Kalmadi not to open it before reaching home. Finally Kalmadi makes payment and comes home wondering about the content. At home, he opens the pack.
Kalmadi : What nonsense…….."old dusty leather sleeper and that too a single piece” ?
(Immediately makes a Call to Ronie who asks him to read the letter attached with it)
Letter goes this way :-
“This is a unique sleeper which was hurled at former corrupt CWG Official Kalmadi in the Court complex in New Delhi."
HA HA HA ! ! !
Bahut khoob likha hai aapne
ReplyDeleteआपके पोस्ट पर पहली बार आया हूं।पोस्ट अच्छा लगा। मे रेपोस्ट पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा। शुभ रात्रि।
ReplyDeleteअनुराग जी, बहुत अच्छा लगा इसे बोरियत भारी डोज मत कहिए ये कमाल की लाइनें है..बढ़िया प्रस्तुति..बधाई
ReplyDeleteDost hai dushman hai
ReplyDeleteRag hai Anuraag hai
dhoop hai barsaat hai
moharram ya phaag hai
sab bulbule hain waqt ke
koi thoss hai ki jhag hai
Anurag g aapto kamaal karte hain
blog ko roj hi maalamaal kate hain
kaviyon ko masaala dene ke liye kaviyon ki aur se dhanyavaad...
आप बुरादा क्यूँ छानते हैं ..............
ReplyDeleteमोटे वाले बुरादे को कहाँ एक्सपोर्ट करते हैं ??????????किस ब्लॉग पर .........
जोक्स अपार्ट (अरे वाह ये भी हिंदी में लिख गया है )
कुल मिलाकर अच्छे वाक्यांश ,इस बुध्धू को भी समझ में आये और पसंद भी आये ........
बाद वाला भाग मैंने पहले पढ़ा तब इसे पढने की इच्छा हुई... बहुत ही शानदार.
ReplyDeleteअजीब-ओ-गरीब नहीं ये तो चिंतनशीलता की गवाही देते हुए शब्द और वाक्य हैं !
ReplyDelete