निर्मल आनंद वाले भाई अभय तिवारी कम लिखते हैं मगर जो भी लिखते हैं उसमें दम होता है. हमारी तो उनसे अक्सर असहमति ही रहती है मगर एक विचारवान मौलिक चिन्तक से असहमत होने में भी मज़ा आता है. निर्मल आनंद उन कुछ ब्लोग्स में से है जिन्हें मैं नियमित पढता हूँ. हाँ, टिप्पणी कम करता हूँ असहमति को अपने तक ही रखने के उद्देश्य से. अभी उनकी कविता बँटा हुआ सत्य पढी और उसके विचार ने ही इस कविता को जन्म दिया. कई बार कुछ पढ़कर पूरक विचार पर ध्यान जाता है. इसे भी उस कविता की पूरक कविता ही समझिये.
(अनुराग शर्मा)
सत्य पहले भी बँटा हुआ था
फर्क बस इतना था कि
तब टुकड़े जोड़कर सीने की
कोशिश होती थी
पञ्च परमेश्वर करता था
सत्यमेव जयते
पाँच अलग-अलग सत्य जोड़कर
विषम संख्या का विशेष महत्त्व था
ताकि सत्य को टांगा न जा सके
हंग पार्लियामेंट की सूली पर
सत्य के टुकड़े मिलाकर
निर्माण करते थे ऋषि
अपौरुषेय वेद का
टुकड़े मिलकर बना था
सत्य का षड-दर्शन
देवासुर में बँटा सत्य
एकत्र हुआ था
समुद्र मंथन के लिए
और उससे निकले थे
रत्न भांति-भांति के
सत्य
हमेशा टुकड़ों में रहता है
यही उसकी प्रवृत्ति है
मेरे टुकड़े में
अपना मिलाओगे
तभी सत्य को पाओगे
तभी सत्य को पाओगे
अभय का लेखन पढ़ना मुझे भी पसन्द है। उनकी कविता भी पढ़ी थी। बहुत पसन्द भी आई थी।
ReplyDeleteअब आपका सत्य भी अच्छा लगा।
घुघूती बासूती
अनुराग जी
ReplyDeleteसत्य तो एक हो ही नहीं सकता, वह तो न जाने कितने टुकड़ों में बंटा होता है। सभी का सत्य अपना होता है। हमारे यहाँ अभी रात है और आपके यहाँ दिन। दोनों ही सत्य है। आपने अच्छा संदेश दिया है, साहित्य में विभिन्न दृष्टिकोणों की ही आवश्यकता रहती है।
अच्छा जोड़ा है आप ने।
ReplyDeleteएक टुकड़ा ग़लती मैंने की थी, और आप ने उस में एक और टुकड़ा जोड़ दी (कविता रूपी ग़लती)। बेचारी हिन्दी कवियों के बोझ तले कराह रही है। उम्मीद करता हूँ कि उसकी दशा उस हद से हुज़र गई है जब हमारे आप की एकाध ग़लती और हो जाने से उसकी कराह और ऊँची न होगी।
मेरा कविता और कवियों से विरोध इसलिए है क्योंकि हिन्दी में करियरिस्ट कवि हैं, पेशेवर कवि हैं जो कविता लिखकर महान हो जाने की महत्वाकांक्षा से कविकर्म करते हैं, अन्तःप्रेरणा से नहीं। और हिन्दी साहित्य का जो माफ़िया है, आलोचक नाम का जानवर जिसके शीर्ष पर विराजमान है, वो भी इसी तरह की कविताओं का पोसता है जो पेशेवर कवियों की क़लम से गढ़ी जाती हैं।
स्खलन कुछ अश्लील सा शब्द है, मगर कविता के सन्दर्भ में वो अधिक श्रेय है क्योंकि उसमें एक निश्छलता है और पूर्वयोजना का अभाव भी। लेकिन हिन्दी माफ़िया में वही साहित्य, यानी कि मोटे तौर पर वही कविता सोहराई जाती है जो एक आधिकारिक लाइन पर चलती हो। तो सारे पेशेवर कवि उसी लाइन पर कविता गढ़ते हैं, और उसी शिल्प में गढ़ते हैं जो आलोचक को पसन्द हो। इसलिए मुझे कविता और कवि दोनों से चिढ़ हो चुकी है।
इसके दूसरे छोर पर ऐसे कवि हैं जो पिटी-पिटाई लीक पर इश्क़, जाम आदि की शाइरी करते हैं, और अपनी भावनाओं की धूल में लोट लगा कर अभिभूत होते रहते हैं। उसमें कुछ नई बात नहीं, नया अन्दाज़ भी नहीं। तो बचा क्या।
इसीलिए मैं बहुत समय से ये सोचता हूँ कि हिन्दी लिखने वालों को चाहिये कुछ काल के लिए कविता लिखना बन्द कर दें। कोशिश करें कि न लिखें। जिस कविता को सच में बाहर आना होगा वो फूटेगी। ज़रा बेईमानी कम होगी। पाठक वैसे तो हैं नहीं, लिखने वाले ही जो दूसरों का लिखा पढ़ते हैं, उनका कुछ भला होगा। ज़रा गंगा की गन्दगी कम होगी।
अपनी कविता के विषय में भी मेरी अपनी राय काफ़ी अपॉलोजेटिक है। इसको कविता कहना भी शायद ठीक नहीं। एक विचार था, कुछ सघनता नहीं थी उसमें, न कोई अनुभूति।
उम्मीद है आप मेरी टिप्पणी को अन्यथा न लेंगे।
आपकी कविता ..पूरक कविता..बहुत अच्छी लगी..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.
ReplyDeleteसचमुच बढिया !!
ReplyDeleteस्यान्नास्ति
ReplyDeleteस्याद् अस्ति न नास्ति च अस्ति
स्याद् अवक्तव्य
स्याद् अस्ति च अवक्तव्यश्च
स्यान्नास्ति च अवक्तव्यश्च
स्याद् अस्ति च नास्ति च अस्ति।
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पसंद आई..अनुराग भाई..कल अभय भाई को भी पढ़ आये थे.
ReplyDeleteबहुत पसंद आई अनुराग जी.
ReplyDeleteधन्यवाद
सत्य ... यथार्थ सत्य . आज तो पर्मेश्वर भी डरता है सत्य के टुकडे बटोरने मे
ReplyDeleteअभय भाई की कविता अब तक तो नहीं पढी - आपकी पसंद आयी है :)
ReplyDeleteअभय भाई का लेखन मेरा पसंदीदा लेखन है ...आपकी तरह ..
और वो चाहें कुछ भी कहें , हमने तो आज ही कुछ पुरानी
दिल से निकलीं बातें , नयी पोस्ट में , मय चित्र लगा लीं हैं :)
अब इसे आत्म मुग्धता वाले ब्लोगरों की जमात में हमें बिठाल दिया जाए
तब भी कोइ , दुःख नहीं ...
" हम तो भी ऐसे हैं,
ऐसे ही रहेंगें "
ठण्ड कैसी है ?
-- स स्नेह,
- लावण्या
बहुत सुंदर लगी यह रचना.
ReplyDeleteरामराम.
सत्य
ReplyDeleteहमेशा टुकड़ों में रहता है
यही उसकी प्रवृत्ति है
मेरे टुकड़े में
अपना मिलाओगे
तभी सत्य को पाओगे
तभी सत्य को पाओगे
बहुत सुन्दर संदेश है
अभय जी की कविता तो पहले नहीं पढी है मगर आपकी कविता पढ कर अच्छी लगी। लोहडी पर्व की शुभकामनाये4ं
सच कहा हर किसी का अपना अपना सत्य होता है .......... कुछ गिनी चुनी बातों को छोड़ कर ........ सत्य की परिभाषा निरंतर बदलती भी रहती है ......... देश काल के अनुसार भी सत्य बता रहता है ......... बहुत अच्छा लिखा है ..........
ReplyDeleteJai Shri Krishna,
ReplyDeleteNice reading this blog.
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yah aapne ekdam sateek kaha...
ReplyDeletemere tukdon me milaoge ,tabhi apne saty ko poorn paaoge....
saty bilkul saty....
अभय प्रिय व्यक्ति हैं। ज्यादा समझ नहीं आते।
ReplyDeleteआपको आते हैं! :)
अभय जी और आप सबको लोहिड़ी पर्व और मकर संक्रांति की
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनाएँ!
शाश्वत सत्यों के अतिरिक्त प्रत्येक क्षण का अपना सत्य होता है। जाहिर है, सत्य तो सदैव ही टुकडों में बँटे रहने को अभिशप्त ही है।
ReplyDeleteयह सही है कि सबका अपना अपना सत्य होता है ,यह टुकड़ो मे बंटा हो सकता है ,सम्पूर्ण भी , आपका यह कहना सत्य है कि पहले भी सत्य टुक्ड़ों मे बंटा था लेकिन उस वक्त जोडने का प्रयास किया जाता था । जब दो सत्य मिलते है तभी पूर्ण सत्य होता है ।
ReplyDeleteहमेशा टुकड़ों में रहता है
ReplyDeleteयही उसकी प्रवृत्ति है
मेरे टुकड़े में
अपना मिलाओगे
तभी सत्य को पाओगे
क्या ये व्यापक अर्थो मे है ?
सत्य हमारे यहां से निकल कर जा चुका है. अब तो असत्यमेव जयते ही भारत में साकार है.
ReplyDelete
ReplyDeleteसभी के अपने सत्य समय और सँदर्भ के साथ बदलते रहते हैं,
पर अभय जी से असहमत.. स्खलन का सँदर्भ विचारों, भावाव्यक्तियों से लेकर बड़ा व्यापक है । अश्लील तो कदापि नहीं !
बाप रे कहा तक सोच सकता है कोइ
ReplyDeleteशायद इसी का एक अर्थ है " जहाँ न पहुंचे रवि वहां पहुंचे कवी "
सत्य को दमित और दलित बहुत बार सुना था पर आज सोच रहा हूँ की ऐसा क्यूँ है
वास्तव में संजो के रखने की चीज हैं आप की ये रचना
पहले आपकी कविता पढ़ना और फिर अभय भाई की टिप्पणी को पढ़ना...यहाँ भी सत्य दो टुकड़ों में बँटा है।
ReplyDeletesatya humesha se banta hua hai... kadve aur mithe swad mein... mithe satya se fark nahi padta par kadve satya ko jaroor apnanna chahiye...
ReplyDeleteवाह अनुराग जी!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!!
.... बेहद प्रभावशाली रचना !!!!
ReplyDelete... मेरे द्वारा सत्य पर लिखी गई एक रचना के कुछ अंश प्रस्तुत हैं....
"...सत्य के साथ खडा होकर भी
क्यों डरता इस दुनिया से
सत्य न झूठा हो पायेगा
हो सकती ये दुनिया सच्ची ...।"
अनुराग जी, आप मुझे अपना ईमेल देंगे प्लीज़। आप war veterans के परिवार से हैं और मैं फिल्ममेकर की हैसियत से कुछ जानकारी इकट्ठी कर रही हूं। आपका ई-मेल नहीं मिला, इसलिए यहां टिप्पणी में लिखना पड़ा। बाकी, आपकी रचनाओं पर फिर लिखूंगी, इत्मीनान से।
ReplyDeleteअनु जी, अपना ईमेल का पता आपकी ईमेल पर ईमेल से भेज दिया है, आशा है अब तक मिल गया होगा, धन्यवाद!
ReplyDeleteमेरे टुकड़े में
ReplyDeleteअपना मिलाओगे
तभी सत्य को पाओगे
तभी सत्य को पाओगे
मुझे तो अनुराग हो गया है, अनुराग भाई.
'पूर्ण इद पूर्ण इदं पूर्णात'
सत्य की सत्य में मिलावट से अनुराग ही तो उत्पन्न होगा न.