असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसाऽऽवृताः।
ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥
ईशोपनिषद के इस वचन में आत्महनन करने वालों के गहन अन्धकार में जाने की बात कही गयी है। संस्कृत में लिखे भारतीय ग्रन्थ काव्य के प्राचीनतम सौन्दर्य का अद्वितीय उदाहरण हैं। (संस्कृत, संस्कृति, सुसंस्कृत)
अब काव्य है तो प्रतीक भी होंगे और अर्थ गूढ़ होने के कारण उसके हाथ से फिसल जाने का ख़तरा भी बना रहता है। हमारे एक गुरुजी विनोद में कहा करते थे कि हज़ारों साल बाद यदि कोई दूर का इतिहासकार किसी बेईमान के बारे में यह शिकायत पढेगा कि "वह मेरा पैसा खा गया" तो वह उसका यही अर्थ निकालेगा कि भारतीय समाज इतना पिछड़ा था कि धन के रूप में रोटी को इस्तेमाल करता था। हज़ारों वर्ष पीछे छूटे हुए एक रहस्यमय समाज को एक अनजान भाषा के सहारे ढूँढने की कोशिश आसान नहीं है। खासकर उन लोगों के लिए जिन्होंने आधुनिकता की धारा में बहकर अपने को परम्परा से पूरी तरह काट लिया हो। करेला तब नीम चढ़ जाता है जब हम हर भारतीय चीज़ को यूरोपीय चश्मे से देखने लगते हैं। इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता कि वह चश्मा मैक्समुलर का है या कार्ल मार्क्स का। यहाँ तक भी ठीक है मगर जब हम पहले से निकाले गए एक झूठे निष्कर्ष का प्रचार करने को बैठे हों तब तो कोढ़ में खाज ही समझो।
पिछले दिनों में हिन्दी ब्लॉग में प्राचीन संस्कृति के रहस्य ढूँढने का प्रयास शुरू हुआ है और इसके साथ ही उसे ऐसी विचारधाराओं द्वारा हाइजैक करने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं जो न तो इस भूमि पर पनपीं और न ही उनमें अपने से इतर विचारधाराओं को जांचने परखने की सहिष्णुता या धैर्य है। याद दिलाना चाहूंगा कि विचारधाराएँ ज्ञान, सत्य, उपयोगिता आदि पर टिकती हैं असत्य प्रचार और स्वार्थ पर नहीं। इसीलिये अंततः वही सत्य जीता है जिसमें और बेहतर सत्य पैदा करने की क्षमता होती है (असतो मा सद्गमय और चरैवेति चरैवेति)। मेरा यह स्पष्ट विचार है कि सत्य को एक परम पवित्र और सर्वकाल-सम्पूर्ण किताब या मैनिफेस्टो में बाँधने का प्रयास दरअसल सत्य की ह्त्या करने की कोशिश ही है। उदाहरण के लिए, अंग्रेज़ी किताबें पढ़कर सांख्य दर्शन के बारे में सत्य जानना उतना आसान नहीं है जितना सांख्य को उसके दार्शनिकों जैसे जीकर और उन्हीं की भाषा में पढ़कर जाना जा सकता है।
काफी कुछ लिखना है परन्तु समय नहीं है। अगले कुछ सप्ताह तक भी काफी व्यस्त रहूँगा मगर इस पोस्ट को मैं आगे की कुछ पोस्ट की भूमिका मान सकता हूँ। हाँ इस बीच में आत्महत्या के बारे में किसी की एक पोस्ट "आत्महत्या करने से बेहतर हैं लड़ कर मरो" पढी। बचपन में मैं भी कुछ-कुछ वैसा ही सोचता था जैसा उन्होंने लिखा है मगर आज मैं अपने अनुभवों और मनन से यह भली प्रकार जानता हूँ कि आत्महत्या के बारे में मनुष्य तभी सोचता है जब वह जीवन से हार चुकता है। लड़ने के लिए भी जिजीविषा चाहिए. जिसमें वह नहीं है, भले ही एक क्षण के लिए, वह भला कैसे लड़ मरेगा? आत्महत्या के बारे में इतना और कहना चाहूंगा कि आत्महत्या करने वाले की तुलना डूबते हुए उस व्यक्ति से की जा सकती है जिसे तैरना नहीं आता है मगर रहना जल के बीच ही पड़ता है। इन लोगों को बचाने के लिए दूसरों की सहायता की ज़रुरत तो है ही, बचाने के बाद इन्हें तैरना भी सिखाना पडेगा। मतलब यह कि जीवन जीने की कला सिखाना ज़रूरी है, घर में हो, मंदिरों में या विद्यालय में।
ईशोपनिषद का उपरोक्त श्लोक भी उस पोस्ट की वजह से ही याद आया था। बीच में थोड़ा विषय-परिवर्तन हो गया मगर वह भी शायद ज़रूरी था।
और हाँ, पूर्व में कुछ मित्रों ने "पतझड़ सावन वसंत बहार" के बारे में पूछताछ की थी. यह पुस्तक 19वें विश्व पुस्तक मेला के दौरान प्रगति मैदान, नई दिल्ली में 30 जनवरी 2010 से 7 फरवरी 2010 तक, हिन्द-युग्म के स्टॉल नं॰- 285 (हॉल नं॰ 12A) पर उपलब्ध है।
ताँस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥
ईशोपनिषद के इस वचन में आत्महनन करने वालों के गहन अन्धकार में जाने की बात कही गयी है। संस्कृत में लिखे भारतीय ग्रन्थ काव्य के प्राचीनतम सौन्दर्य का अद्वितीय उदाहरण हैं। (संस्कृत, संस्कृति, सुसंस्कृत)
अब काव्य है तो प्रतीक भी होंगे और अर्थ गूढ़ होने के कारण उसके हाथ से फिसल जाने का ख़तरा भी बना रहता है। हमारे एक गुरुजी विनोद में कहा करते थे कि हज़ारों साल बाद यदि कोई दूर का इतिहासकार किसी बेईमान के बारे में यह शिकायत पढेगा कि "वह मेरा पैसा खा गया" तो वह उसका यही अर्थ निकालेगा कि भारतीय समाज इतना पिछड़ा था कि धन के रूप में रोटी को इस्तेमाल करता था। हज़ारों वर्ष पीछे छूटे हुए एक रहस्यमय समाज को एक अनजान भाषा के सहारे ढूँढने की कोशिश आसान नहीं है। खासकर उन लोगों के लिए जिन्होंने आधुनिकता की धारा में बहकर अपने को परम्परा से पूरी तरह काट लिया हो। करेला तब नीम चढ़ जाता है जब हम हर भारतीय चीज़ को यूरोपीय चश्मे से देखने लगते हैं। इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता कि वह चश्मा मैक्समुलर का है या कार्ल मार्क्स का। यहाँ तक भी ठीक है मगर जब हम पहले से निकाले गए एक झूठे निष्कर्ष का प्रचार करने को बैठे हों तब तो कोढ़ में खाज ही समझो।
पिछले दिनों में हिन्दी ब्लॉग में प्राचीन संस्कृति के रहस्य ढूँढने का प्रयास शुरू हुआ है और इसके साथ ही उसे ऐसी विचारधाराओं द्वारा हाइजैक करने के प्रयास भी शुरू हो गए हैं जो न तो इस भूमि पर पनपीं और न ही उनमें अपने से इतर विचारधाराओं को जांचने परखने की सहिष्णुता या धैर्य है। याद दिलाना चाहूंगा कि विचारधाराएँ ज्ञान, सत्य, उपयोगिता आदि पर टिकती हैं असत्य प्रचार और स्वार्थ पर नहीं। इसीलिये अंततः वही सत्य जीता है जिसमें और बेहतर सत्य पैदा करने की क्षमता होती है (असतो मा सद्गमय और चरैवेति चरैवेति)। मेरा यह स्पष्ट विचार है कि सत्य को एक परम पवित्र और सर्वकाल-सम्पूर्ण किताब या मैनिफेस्टो में बाँधने का प्रयास दरअसल सत्य की ह्त्या करने की कोशिश ही है। उदाहरण के लिए, अंग्रेज़ी किताबें पढ़कर सांख्य दर्शन के बारे में सत्य जानना उतना आसान नहीं है जितना सांख्य को उसके दार्शनिकों जैसे जीकर और उन्हीं की भाषा में पढ़कर जाना जा सकता है।
काफी कुछ लिखना है परन्तु समय नहीं है। अगले कुछ सप्ताह तक भी काफी व्यस्त रहूँगा मगर इस पोस्ट को मैं आगे की कुछ पोस्ट की भूमिका मान सकता हूँ। हाँ इस बीच में आत्महत्या के बारे में किसी की एक पोस्ट "आत्महत्या करने से बेहतर हैं लड़ कर मरो" पढी। बचपन में मैं भी कुछ-कुछ वैसा ही सोचता था जैसा उन्होंने लिखा है मगर आज मैं अपने अनुभवों और मनन से यह भली प्रकार जानता हूँ कि आत्महत्या के बारे में मनुष्य तभी सोचता है जब वह जीवन से हार चुकता है। लड़ने के लिए भी जिजीविषा चाहिए. जिसमें वह नहीं है, भले ही एक क्षण के लिए, वह भला कैसे लड़ मरेगा? आत्महत्या के बारे में इतना और कहना चाहूंगा कि आत्महत्या करने वाले की तुलना डूबते हुए उस व्यक्ति से की जा सकती है जिसे तैरना नहीं आता है मगर रहना जल के बीच ही पड़ता है। इन लोगों को बचाने के लिए दूसरों की सहायता की ज़रुरत तो है ही, बचाने के बाद इन्हें तैरना भी सिखाना पडेगा। मतलब यह कि जीवन जीने की कला सिखाना ज़रूरी है, घर में हो, मंदिरों में या विद्यालय में।
ईशोपनिषद का उपरोक्त श्लोक भी उस पोस्ट की वजह से ही याद आया था। बीच में थोड़ा विषय-परिवर्तन हो गया मगर वह भी शायद ज़रूरी था।
aapki vivechna acchi hai atmhatya jaise krity ko chunane waale vyaktiyon ke liye....
ReplyDeletelekin atmhatya karne ke liye bhi bahut himmat chahiye..
vichar karne yogy vishay chuna aapne...
aapki pustak..patjhad swaan basant bahar ke liye hardik shubhkaamana.. !!!
धन्यवाद अदा जी!
ReplyDeleteभूमिका इतनी विद्वतापूर्ण और सारगर्भित है तो आगत लेखन का स्तर सहज ही अनुमान में लिया जा सकता है ।
ReplyDeleteइस बात से पूर्णतया सहमत कि - "सत्य को एक परम पवित्र और सर्वकाल-सम्पूर्ण किताब या मैनिफेस्टो में बाँधने का प्रयास दरअसल सत्य की ह्त्या करने की कोशिश ही है. "
आलेख का आभार ।
ईशोपनिषद में ही अतिशय ज्ञानियों को तो और भी दुत्कारा गया है .....जो महज ज्ञान के लिए ही ज्ञान को उन्मुख रहते है
ReplyDeleteमैं तो उसी निम्न कोटि का हूँ हा हा ....
आपकी यह पोस्ट किसी बड़े चिंतन भावभूमि की पूर्व पीठिका है तो ठीक है !
शुभकामनाएँ भैया।
ReplyDeleteमेरे एक और भैया हैं जो अक्सर उन अकादमिक लोगों के बारे में बताते हैं जिन्हें संस्कृत का क ख ग भी नहीं आता और प्राचीन इतिहास एवं दर्शन के आचार्य बने बैठे हैं। उनका सारा शोध अंग्रेजी कुंजियों (शिष्ट भाषा - भाष्य) पर आधारित होता है और रोमन ट्रांसलिटरेशन में मूल को क़ोट करते हैं। पढ़ने को कहने पर अटकते हैं :)
अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।
आत्महत्या के समय 'हिम्मत' नहीं क्षणिक उद्वेग या कई दिनों से जारी अति निषेधात्मक मनोभाव काम करता है इसीलिए पहचान और कौंसिलिंग महत्त्वपूर्ण है।
बढियां पोस्ट.
ReplyDeleteजीवन से पलायन संभवतः विश्वयुद्धों के बाद पश्चिमी मानस में पसरे एकाकीपन की परिणति है.विश्व साहित्य इस एकाकीपन और अजनबीयत का दस्तावेजी सबूत है.एक परिघटना के रूप में ये शायद पश्चिम की देन है.और यूँ पौर्वात्य समाज भी इनसे अछूता नहीं रहा है.हाराकिरी को ही ले लीजिये.पर विश्व युद्धोत्तर समाज एक सन्दर्भ बिंदु के रूप में ठीक रहेगा.
ReplyDeleteअल्बेर कामू ने आत्महत्या को व्यक्ति की चरम स्वतंत्रता की स्थिति में लिया गया निर्णय बताया है.
उपनिषद् भारतीयों के चिंतन का उज्जवल पक्ष सामने रखते हैं.आप इसे और विस्तार दें.
आभार.
इस भूमिका पोस्ट नें भारतीय सांख्य दर्शन के प्रति हमारी उत्सुकता बढा दी है बडे भाई.
ReplyDeleteआगामी पोस्टो का इंतजार रहेगा.
मेल के द्वारा पोस्ट पढ पाने के लिये फीड सब्स्क्रिप्शन की सुविधा देवे.
मैंने भी वह पोस्ट पढ़ी थी. और अब आपकी यह पोस्ट भी. आपने इस पोस्ट को लिखकर उस पोस्ट को संपूर्ण कर दिया है.
ReplyDeleteभविष्य मे गूढ आत्मचिंतन की तरफ़ लिखे जने का इशारा लग रही है यह पोस्ट. एक बहुत ही सारग्रभित श्रंखला का इंतजार रहेगा.
ReplyDeleteरामराम.
जल्दी मे हूँ फिर आती हूँ
ReplyDeleteअग्रज भूमिका इतनी सारगर्भी है तो यक़ीनन आपका लेख विचारणीय होगा ...... आत्म हत्या पर आपका कथन सच है ........ बहुत अच्छा लिखा है .....
ReplyDeleteबहुत श्रेष्ठ पोस्ट पढने को मिली ,जब उपनिषद का जिक्र आ ही गया है तो यह क्रम कुछ दिन चलेगा । किसी के लेख की आलोचना करना मेरा कतई उद्देश्य नही रहता मगर कोई बात दिमाग आ जाती है तो वह लिखा भी जाती है ऐसा ही कुछ आज हो रहा है ""अय मुब्तिला-ए-जीश्त, ठहर खुदकुशी न कर / तेरा इलाज ज़हर नही है ,शराब है ।""
ReplyDeleteबहुत श्रेष्ठ पोस्ट पढने को मिली ,जब उपनिषद का जिक्र आ ही गया है तो यह क्रम कुछ दिन चलेगा । किसी के लेख की आलोचना करना मेरा कतई उद्देश्य नही रहता मगर कोई बात दिमाग आ जाती है तो वह लिखा भी जाती है ऐसा ही कुछ आज हो रहा है ""अय मुब्तिला-ए-जीश्त, ठहर खुदकुशी न कर / तेरा इलाज ज़हर नही है ,शराब है ।""
ReplyDeleteआप के लेख से सहमत हुं
ReplyDelete२२ साल पूर्व धर्मयुग में एक कहानी पढी थी. शीर्षक था 'एक घटना का इन्तजार'. लेखिका थीं - नीलम चतुर्वेदी.उस कहानी की एक पंक्ति मेरी डायरी में नोट है :
ReplyDeleteमौत में मुक्ति ढूँढना जीवन का सबसे घटिया इस्तेमाल है.
आपने बिलकुल सही कहा...आत्महत्या,जीवन के गहन निराशा में डूबा व्यक्ति ही करता है...उसे जरूरत होती है एक मजबूत हाथ के सहारे की जो उसे, उस अन्धकार से निकालने में मदद कर सके...और विश्वास दिला सके कि वह अकेला नहीं है...बहुत ही सार्थक आलेख.
ReplyDeleteपुस्तक के लिए शुभकामनाएं
विवेचनाओं से भरा सुन्दर लेख पढ़वाने के लिए आभार!
ReplyDeleteबहुत सार्गर्भित भूमिका है आलेख पढने की उतसुकता बढ गयी है। शुभकअमनायें
ReplyDeleteयथार्थ लेखन।
ReplyDeleteआत्महत्या के लिये मानसिक बल की आवश्यकता होती है, जो अगर वे रचनात्मकता में लगायें तो बहुत ज़्यादह कार्य कर सकते हैं.
ReplyDeleteअच्छा लगा आलेख...विचारणीय विषय!
ReplyDeleteआत्महत्या के बारे में इतना और कहना चाहूंगा कि आत्महत्या करने वाले की तुलना डूबते हुए उस व्यक्ति से की जा सकती है जिसे तैरना नहीं आता है मगर रहना जल के बीच ही पड़ता है। इन लोगों को बचाने के लिए दूसरों की सहायता की ज़रुरत तो है ही, बचाने के बाद इन्हें तैरना भी सिखाना पडेगा।
ReplyDeletesolah aane sach.
अनुराग भाई आपकी व्यस्तता के बावजूद , एक गंभीर विषय की पूर्व भूमिका
ReplyDeleteसशक्त रीत से लिखी है जिसका कोटिश : आभार ...
आगे जो आलेख आयेंगें उनकी प्रतीक्षा रहेगी
गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में सभी भारत माता की संतानों को मेरी मंगल कामनाएं
स - स्नेह,
- लावण्या
सत्य को एक परम पवित्र और सर्वकाल-सम्पूर्ण किताब या मैनिफेस्टो में बाँधने का प्रयास दरअसल सत्य की ह्त्या करने की कोशिश ही है. "
ReplyDeleteकितनी खरी बात है .पर कभी कभी हार ओर उस डर.....आने वाले भविष्य को ज्यादा तालीफ़ में देखता है ....शायद आहा जिंदगी में ही पढ़ा था ...जापान के एक इंसान ने तीन बार कोशिश की बचा लिए गए .पर आखिरी बार सफल हो गए ....विषय एक विस्तृत विवेचना की मांग करता है .......आगे लेख का इंतज़ाररहेगा
आत्महत्या के मामले में कुछ कहना बड़ा कठिन लगता है. इंसान के जटिल दिमाग में कुछ क्षणिक आवेश ही मुझे इसका कारण लगता है... खैर आप और लिखिये. संस्कृत और चश्मा लगाकर देखने वाली बात तो पूरी सही है. आगे का इंतज़ार रहेगा.
ReplyDelete"हमारे एक गुरुजी विनोद में कहा करते थे कि हज़ारों साल बाद यदि कोई इतिहासकार किसी बेईमान के बारे में यह शिकायत पढेगा कि "वह मेरा पैसा खा गया" तो उसका अर्थ निकालेगा कि भारतीय समाज इतना पिछड़ा था कि धन के रूप में रोटी को इस्तेमाल करता था।"
ReplyDeleteभाई जी ऐसी झलक आज भी देखने को मिल जाती है | John Woodrof, Richard Thompson, Stephan Knapp.... जैसे एक्का-दुक्का अंग्रेजी में लिखने वाले लेखकों को छोड़ दें तो बाकी सारे मेक्स मुलर, मेकाले आदि को ही प्रमाणिक मान बैठे हैं |
सुन्दर विवेचन !
हज़ारों वर्ष पीछे छूटे हुए एक रहस्यमय समाज को एक अनजान भाषा के सहारे ढूँढने की कोशिश आसान नहीं है। खासकर उन लोगों के लिए जिन्होंने आधुनिकता की धारा में बहकर अपने को परम्परा से पूरी तरह काट लिया हो। करेला तब नीम चढ़ जाता है जब हम हर भारतीय चीज़ को यूरोपीय चश्मे से देखने लगते हैं। इससे कोई ख़ास फर्क नहीं पड़ता कि वह चश्मा मैक्समुलर का है या कार्ल मार्क्स का।
ReplyDeleteआपकी ये पंक्तियाँ मुझे कितनी अच्छी लगी मैं,बता नहीं सकती......जैसे लगता है, बिलकुल मेरे ही मन की बात को बहुत ही सुन्दर ढंग से शब्दों में गूंथकर आपने यहाँ टांक दिया...
एकं सही कहा आपने अंततः वही सत्य जीवित और स्थायी रह सकता है जिसमे और सत्य पैदा करने का सामर्थ्य हो...
आत्महत्या,घोर हताशा का परिणाम है,परन्तु लड़ कर मरने के लिए तीव्र जीजिविषा,जोश और लक्ष्य प्राप्ति का जूनून चाहिए होता है...इसलिए यह संभव ही नहीं की दोनों परिस्थितियों को एक परिप्रेक्ष्य में देखा जाय...आपने एक बहुत ही अच्छे विषय को चुना है,विवेचित करने के लिए...इस विषय को आगे बढाइये,हो सकता है कई हताश ह्रदय को संबल मिल जाय....कोई रास्ता निकले...
जितना अच्छा आलेख उतनी ही अच्छी टिप्पणिया.
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