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Wednesday, November 1, 2017

सेतु हिन्दी लघुकथा प्रतियोगिता


आपकी प्रिय द्वैभाषिक मासिक पत्रिका 'सेतु' के प्रथमांक से अब तक के अल्पकाल में 'सेतु' को 231,000 से अधिक बार देखा और पढ़ा गया है। यह आप सबका प्रेम है सेतु के प्रति, सेतु के रचनाकारों के प्रति। प्रकाशन के अल्पकाल में ही सेतु द्वैभाषिक पत्रिका को असीमित सहयोग देने और अप्रतिम सफलता दिलाने के लिये सेतु सम्पादन मण्डल आपका आभारी है।

पिछले वर्ष इसी समय घोषित सेतु अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी काव्य प्रतियोगिता की असीम सफलता से उत्साहित होकर हिंदी दिवस और हिंदी पक्ष के पर्व वाले सितम्बर मास के इस अंक में 'सेतु' के हिन्दी संस्करण की ओर से एक अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है, जिसके लिए आप अपनी सर्वश्रेष्ठ, मौलिकअप्रकाशित लघुकथा को यूनिकोड देवनागरी में लिखकर वर्ड फ़ाइल के रूप में सेतु हिंदी को setuhindi@gmail.com पर 31 दिसम्बर 2017 (भारतीय समयानुसार) तक भेज दीजिये।

भाग लेने के लिये आयु, राष्ट्रीयता आदि जैसी कोई सीमा नहीं है। प्रतियोगिता के अन्य नियम वही हैं जो सेतु में प्रकाशन के लिये रचना भेजने के नियम हैं। कृपया रचना भेजने के नियम भली प्रकार पढ़कर, उनके पालन की स्वीकृति अवश्य भेजें। ईमेल भेजते समय विषय में एवं संलग्न कविता के शीर्षक के पूर्व 'सेतु हिन्दी लघुकथा प्रतियोगिता 2017' लिखना न भूलें।

निर्णायक मण्डल द्वारा चयनित सर्वश्रेष्ठ रचनाओं के लिये निम्न पुरस्कार निर्धारित किए गए हैं, जो कुछ विशेष परिस्थितियों में बढ़ाए जा सकते हैं।
  • प्रथम पुरस्कार: $125
  • द्वितीय पुरस्कार: $100
  • तृतीय पुरस्कार: $75
  • अन्य पुरस्कार: साहित्यिक पुस्तकें
कृपया परिणामों की घोषणा होने तक प्रविष्टियों को अन्यत्र प्रकाशन के लिये न भेजें। पुरस्कार प्राप्त न करने वाली लघुकथाओं में से भी प्रकाशन योग्य रचनाएँ सेतु के आगामी अंकों में प्रकाशित की जा सकती हैं। अन्य अप्रकाशित रचनाओं को लेखक कहीं भी भेजने के लिये स्वतंत्र हैं।

नियमों का सारांश:
1. प्रविष्टियाँ केवल ईमेल द्वारा setuhindi@gmail.com पते पर स्वीकार की जायेंगी।
2. एक व्यक्ति की ओर से केवल एक रचना स्वीकार की जायेगी।
3. रचना पूर्णतः अप्रकाशित हो, न कहीं छपी हो, न ऑनलाइन, फ़ेसबुक, ब्लॉग, ई-समूहों आदि में साझा की गई हो। प्रतियोगिता का निर्णय होने तक रचना कहीं प्रकाशन के लिये न भेजी जाय, न ही ऑनलाइन, फ़ेसबुक, ब्लॉग, ई-समूहों आदि में साझा की जाय। ऐसी जानकारी मिलते ही प्रविष्टि रद्द कर दी जायेगी।
4. रचना यूनिकोड में टंकित हो, अन्य स्वरूपों में लिखी, स्क्रीनशॉट, ऑडियो, लिंक, आदि के रूप में भेजी गई रचनाओं को पूर्व-अस्वीकृत मानिये।
5. विषय में एवं संलग्न कविता के शीर्षक के पूर्व 'सेतु हिन्दी लघुकथा प्रतियोगिता 2017' लिखना आवश्यक है।
6. रचना भेजने के नियम भली प्रकार पढ़कर, उनके पालन की स्वीकृति का वचन रचना के साथ भेजना एक अनिवार्यता है।
8. निर्णायक मण्डल का निर्णय अंतिम और मान्य होगा।
9. भारतीय समयानुसार 31 दिसम्बर 2017 के बाद मिली प्रतियोगिता प्रविष्टियाँ स्वतः अयोग्य मानी जायेंगी।
10. परिणामों का प्रकाशन सेतु के मार्च 2018 अंक में किया जायेगा।

हार्दिक मंगलकामनाएँ!

Tuesday, October 25, 2016

अनंत से अनंत तक - कविता

(अनुराग शर्मा)

जीवन क्या है एक तमाशा
थोड़ी आशा खूब निराशा

सब लीला है सब माया है
कुछ खोया है कुछ पाया है

न कुछ आगे न कुछ पीछे
कुछ ऊपर ही न कुछ नीचे

जो चाहे वो अब सुन कहले
उस बिन्दु से न कुछ पहले

उस बिन्दु के बाद नहीं कुछ
होगा भी तो याद नहीं कुछ

जो कुछ है वह सभी यहीं है
जितना सुधरे वही सही है.
सेतु हिंदी काव्य प्रतियोगिता में आपका स्वागत है, संशोधित अंतिम तिथि: 10 नवम्बर, 2016

Tuesday, September 13, 2016

ये दुनिया अगर - कविता

(अनुराग शर्मा)

बारूद उगाते हैं बसी थी जहाँ केसर
मैं चुप खड़ा कब्ज़े में है उनके मेरा घर

कैसे भला किससे कहूँ मैं जान न पाऊँ
दे न सकूँ आवाज़ मुझे जान का है डर

नक्सल कहीं माओ कहीं बैठे हैं जेहादी
कंधे बड़े लेकिन नहीं दीखे है कहीं सर

कोई अमल होता नहीं बेबस हुआ हाकिम
दर पे तेरे पटक के ये सर जायेंगे हम मर

बदलाव कभी आ नहीं सकता है वहाँ पे
परचम बगावत का हुआ चोरी जहाँ पर

Wednesday, September 7, 2016

शाब्दिक हिंसा - मत करो (कविता)

लोग अक्सर शाब्दिक हिंसा की बात करते हुए उसे वास्तविक हिंसा के समान ठहराते हैं. फ़ेसबुक पर एक ऐसी ही पोस्ट देखकर निम्न उद्गार सामने आये. शब्दों को ठोकपीट कर कविता का स्वरूप देने के लिये सलिल वर्मा जी का आभार. (अनुराग शर्मा)

मत करो
मत करो तुलना
कलम-तलवार में
और समता
शब्द और हथियार में
ताण्डव करते हुये हथियार हैं
शब्द पीड़ा-शमन को तैयार हैं

कुछ बुराई कर सके
अपशब्द माना
वह भी तभी जब
मैं समझ पाऊँ
गिरी भाषा तुम्हारी
और निर्बलता मेरी
आहत मुझे कर दे ज़रा
कुछ भी कहो
सामान्यतः
हर शब्द ने है
दर्द अक्सर ही हरा

लेकिन तुम्हारी
आईईडी, बम, और बरसती गोलियाँ
इनसे भला किसका हुआ
हर कोई बस है मरा
नारी-पुरुष, आबाल-वृद्ध
कोई नहीं है बच सका
जो सामने आया
वही जाँ से गया

शब्द और हथियार की तुलना
तो केवल बचपने की बात है
ध्यान से सोचें तनिक तो
ये किन्हीं हिंसक दलों की
इक गुरिल्ला घात है

इनके कहे पर मत चलो तुम
वाद या मज़हब,
किसी भी बात पर
इनका हुकुम मानो नहीं तुम
छोड़कर हिंसा को ही
संसार यह आगे बढ़ा है
नर्क तल में और हिम ऊपर चढ़ा है
बस चेष्टा इतनी करो
हिंसा से तुम बचकर रहो
जब भी कहो, जैसा कहो, बस सच कहो
और धैर्य धर सच को सहो

शब्द से उपचार भी सम्भव है जग में
प्रेम तो नि:शब्द भी करता है अक्सर
फिर भला नि:शस्त्र होना
हो नहीं सकता है क्यों
पहला कदम इंसानियत के नाम पर
कर जोड़कर
कर लो नमन, हथियार छोड़ो
अग्नि हिंसा की बुझाने के लिये तुम
आज इस पर बस ज़रा सा प्रेम छोड़ो!

Thursday, November 26, 2015

कबाड़ - कविता

(शब्द और चित्र: अनुराग शर्मा)
यादों का कबाड़

कचरा ढोते रहे
दुखित रोते रहे

ढेर में कबाड़ के
खुदको खोते रहे

तेल जलता रहा
लौ पर न जली

था अंधेरा घना
जुगनू सोते रहे

मूल तेरा भी था
सूद मेरा भी था

कर्ज़ दोनों का
अकेले ढोते रहे

शाम जाती रही
दिन बदलते रहे

बौर की चाह में
खत्म होते रहे।

Sunday, July 19, 2015

किस्सागो का पक्ष - अनुरागी मन

अनुरागी मन से दो शब्द

अपनी कहानियों के लिए, उनके विविध विषयों, रोचक पृष्ठभूमि और यत्र-तत्र बिखरे रंगों के लिए मैं अपने पात्रों का आभारी हूँ। मेरी कहानियों की ज़मीन उन्होंने तैयार की है। वे सब मेरे मित्र हैं यद्यपि मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ।

कथा निर्माण के उदेश्य से मैं उनसे मिला अवश्य हूँ। कहानी लिखते समय मैं उन्हें टोकता भी रहता हूँ। लेकिन हमारा परिचय केवल उतना ही है जितना कहानी में वर्णित है। बल्कि वहाँ भी मैंने लेखकीय छूट का लाभ उठाया है। इस हद तक, कि कुछ पात्र शायद अपने को वहाँ पहचान न पायें। कई तो शायद खफा ही हो जाएँ क्योंकि मेरी कहानी उनका जीवन नहीं है।

मेरे पात्र भले लोग हैं। अच्छे या बुरे, वे सरल और सहज हैं, जैसे भीतर, तैसे बाहर। मेरी कहानियाँ इन पात्रों की आत्मकथाएँ नहीं हैं। उन्हें मेरी आत्मकथा समझना तो और भी ज्यादती होगी। मेरी कहानियाँ समाचारपत्र की रिपोर्ट भी नहीं हैं। मैंने अपने या पात्रों के अनुभवों में से कुछ भी यथावत नहीं परोसा है।

मेरी हर कहानी एक संभावना प्रदान करती है। एक अँधेरे कमरे में खिड़की की किसी दरार से दिखते तारों की तरह। किसी सुराख से आती प्रकाश की एक किरण जैसे, मेरी कहानियाँ आशा की कहानियाँ हैं। यदि कहीं निराशा दिखती भी है, वहाँ भी जीवन की नश्वरता के दुःख के साथ मृत्योर्मामृतम् गमय का उद्घोष है। कल अच्छा था, आज बेहतर है, कल सर्वश्रेष्ठ होगा।

हृदयस्पर्शी संस्मरण लिखने के लिए पहचाने जाने वाले अभिषेक कुमार ने अपने ब्लॉग पर अनुरागी मन की एक सुंदर समीक्षा लिखी है, मन प्रसन्न हो गया। आभार अभिषेक!

इसे भी पढ़िये:
अनुरागी मन की समीक्षा अभिषेक कुमार द्वारा
लेखक बेचारा क्या करे? भाग 1
लेखक बेचारा क्या करे? भाग 2
* अच्छे ब्लॉग लेखन के सूत्र
* बुद्धिजीवी कैसे बनते हैं? 

Saturday, March 21, 2015

सीमित जीवन - कविता

(शब्द व चित्र: अनुराग शर्मा)
इस जीवन की आपूर्ति सीमित है, कृपया सदुपयोग करें

अवचेतन की
कुछ चेतन की
थोड़ी मन की
बाकी तन की
कुछ यौवन की
कुछ जीवन की
इस नर्तन की
उस कीर्तन की
परिवर्तन की
और दमन की
सीमायें होती हैं
लेकिन
सीमा होती नहीं
पतन की...

Wednesday, December 10, 2014

हम क्या हैं? - कविता

उनका प्रेम समंदर जैसा
अपना एक बूंद भर पानी

उनकी बातें अमृत जैसी
अपनी हद से हद गुड़धानी

उनका रुतबा दुनिया भर में
हम बस मांग रहे हैं पानी

उनके रूप की चर्चा चहुँदिश
ये सूरत किसने पहचानी

उनके भवन भुवन सब ऊँचे
अपनी दुनिया आनी जानी

वे कहलाते आलिम फाजिल
हमको कौन कहेगा ज्ञानी

इतने पर भी हम न मिटेंगे
आखिर दिल है हिन्दुस्तानी

Saturday, November 29, 2014

तल्खी और तकल्लुफ

जो आज दिखी
असहमति नहीं
अभिव्यक्ति मात्र है
आज तक
सारा नियंत्रण
अभिव्यक्ति पर ही रहा
असहमति
विद्यमान तो थी
सदा-सर्वदा ही
पर
रोकी जाती रही
अभिव्यक्त होने से
सभ्यता के नाते

Thursday, July 3, 2014

आस्तीन का दोस्ताना - कविता


फूल के बदले चली खूब दुनाली यारों, 
बात बढ़ती ही गई जितनी संभाली यारों

दूध नागों को यहाँ मुफ्त मिला करता है, 
पीती है मीरा यहाँ विष की पियाली यारों

बीन हम सब ने वहाँ खूब बजा डाली थी, 
भैंस वो करती रही जम के जुगाली यारों 

दिल शहंशाह था अपना ये भुलावा ही रहा, 
जेब सदियों से रही अपनी तो खाली यारों

ज़िंदगी साँपों की आसान करी है हमने, 
दोस्ती अपनी ही आस्तीन में पाली यारों

Thursday, June 5, 2014

लेखक बेचारा क्या करे? भाग 2

नोट: कुछ समय पहले मैंने यह लेखक बेचारा क्या करे? भाग 1 में एक लेखक की ज़िम्मेदारी और उसकी मानसिक हलचल को समझने का प्रयास किया था। उस पोस्ट पर आई टिप्पणियों से जानकारी में वृद्धि हुई। पिछले दिनों इसी विषय पर कुछ और बातें ध्यान में आयी, सो चर्चा को आगे बढ़ाता हूँ।
कालजयी ग्रन्थों की सूची में निर्विवाद रूप से शामिल ग्रंथ महाभारत में मुख्य पात्रों के साथ रचनाकार वेद व्यास स्वयं भी उपस्थित हैं। कोई लोग जय संहिता को भले आत्मकथात्मक कृति कहें लेकिन आज की आत्मकथाओं में अक्सर दिखने वाले एकतरफा और सीमित बयान के विपरीत वहाँ एक समग्र और विराट वर्णन है। मेरे ख्याल से समग्रता और विराट रूप अच्छे लेखन के अनिवार्य गुण हैं। यदि लेखन संस्मरणात्मक या आत्मकथनपरक लगे, और पाठक उससे अपने आप को जुड़ा महसूस करें तो सोने में सुहागा। लघुकथा के नाम पर अनगढ़ चुट्कुले या किसी उद्देश्यहीन घटना का सतही और आंशिक विवरण सामने आये तो निराशा ही होती है।

बदायूँ में अपने अल्पकालीन निवास के दौरान एक बार मैंने पत्राचार के माध्यम से अपने प्रिय लेखक उपेन्द्रनाथ अश्क से अच्छी कहानी के बारे में उनकी राय पूछी थी। अन्य बहुत से गुणों के साथ ही जिस एक सामान्य तत्व की ओर उन्होने दृढ़ता से इशारा किया था वह थी सच्चाई। उनके शब्दों में कहूँ तो, "अच्छी कहानियाँ सच्चाई पर आधारित होती हैं। कल्पना के आधार पर गढ़ी कहानियों के पेंच अक्सर ढीले ही रह जाते हैं।"
अच्छी कहानियाँ पात्रों से नहीं, लेखकों से होती हैं। सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ पात्रों या लेखकों से नहीं, पाठकों से होती हैं।
महाभारत का तो काल ही और था, छापेखाने से सिनेमा तक के जमाने में पाठक का लेखक से संवाद भी एक असंभव सी बात थी, पात्र की तो मजाल ही क्या। लेकिन आज के लेखक के सामने उसके पात्र कभी भी चुनौती बनकर सामने आ सकते हैं। बेचारा भला लेखक या तो अपना मुँह छिपाए घूमता है या अपने पात्रों का चेहरा अंधेरे में रखता है।

अपनी कहानियों के लिए, उनके विविध विषयों, रोचक पृष्ठभूमि और यत्र-तत्र बिखरे रंगों के लिए मैं अपने पात्रों का आभारी हूँ। मेरी कहानियों की ज़मीन उन्होंने तैयार की है। कथा निर्माण के दौरान मैं उनसे मिला अवश्य हूँ। कहानी लिखते समय मैं उन्हें टोकता भी रहता हूँ। वे सब मेरे मित्र हैं यद्यपि मैं उन सबको व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ। हमारा परिचय बस उतना ही है जितना कहानी में वर्णित है। बल्कि वहां भी मैंने लेखकीय छूट का लाभ यथासंभव उठाकर उनका कायाकल्प ही कर दिया है। कुछ पात्र शायद अपने को वहां पहचान भी न पायें। कई तो शायद खफा ही हो जाएँ क्योंकि मेरी कहानी उनका असली जीवन नहीं है। इतना ज़रूर है कि मेरे पात्र बेहद भले लोग हैं। अच्छे दिखें या बुरे, वे सरल और सहज हैं, जैसे भीतर, तैसे बाहर।

मेरी कहानियाँ मेरे पात्रों की आत्मकथाएँ नहीं हैं। लेकिन उन्हें मेरी आत्मकथा समझना तो और भी ज्यादती होगी। मेरी कहानियाँ वास्तविक घटनाओं का यथारूप वर्णन या किसी समाचारपत्र की रिपोर्ट भी नहीं हैं। मैं तो कथाकार कहलाना भी नहीं चाहता, मैं तो बस एक किस्सागो हूँ। मेरा प्रयास है कि हर किस्सा एक संभावना प्रदान करे , एक अँधेरे कमरे में खिड़की की किसी दरार से दिखते तारों की तरह। किसी सुराख से आती प्रकाश की एक किरण जैसे, मेरी अधिकाँश कहानियाँ आशा की कहानियाँ हैं। जहाँ निराशा दिखती है, वहां भी जीवन की नश्वरता के दुःख के साथ मृत्योर्मामृतंगमय का उद्घोष भी है।
एक लेखक अपने पात्रों का मन पढ़ना जानता है। एक सफल लेखक अपने पाठकों का मन पढ़ना जानता है। एक अच्छा लेखक अपने पाठकों को अपना मन पढ़ाना जानता है। सर्वश्रेष्ठ लेखक यह सब करना चाहते हैं ...
अरे, आप भी तो लिखते हैं, आपके क्या विचार हैं लेखन के बारे मेँ?

Monday, November 12, 2012

भारतीय संस्कृति के रखवाले

दीवाली के मौके पर यहाँ पिट्सबर्ग में एक भारतीय समारोह में जाना पड़ा। मेरी आशा के विपरीत दीये और मिठाई कहीं नज़र नहीं आयी। अलबत्ता शराब व कबाब काफ़ी था। कहने को शबाब भी था मगर मेकअप के नीचे छटपटा सा रहा था।

बहुत से लोगों से मुलाक़ात हुई। नवीन जी भी उन्हीं में से थे। दारु का गिलास उठाये कुछ चलते, कुछ झूमते, कुछ उड़ते और कुछ छलकते हुए से वे मेरे साथ की सीट पर संवर गए। अब साथ बैठे हैं तो बात भी करेंगे ही। पहले औपचारिकताएँ हुईं। मौसम, खेल, व्यवसाय, परिवार से गुज़रते हुए हम बड़ी बड़ी बातों तक पहुँचे। विदेश में बसे कुछ भारतीयों के लिए बड़ी बात का मतलब है उस मातृभूमि की फ़िक्र का ज़िक्र जिसके लिए हमने कभी अपनी जिंदगी से न एक पल दिया और न एक धेला ही।

वे पूछने लगे कि अगर मैं इसी शहर में रहता हूँ तो फ़िर कभी उन्हें मन्दिर में क्यों नहीं दिखता। मैंने अंदाज़ लगाकर बताया कि शायद हमारे मन्दिर जाने के दिन और समय अलग अलग रहे हों। वैसे भी भक्ति और पूजा मेरे लिए एक व्यक्तिगत विषय है और मेरी मन्दिर यात्रायें नियमित भी नहीं हैं। मेरी बात उनको अच्छी नहीं लगी।

"तो अपने बच्चों को हिन्दी नहीं सिखायेंगे क्या?" झूमते हुए उन्होंने अपना गिलास मुझपर लगभग उड़ेल ही दिया।

"मेरे बच्चे हिन्दी, ही नहीं बल्कि और भी भारतीय भाषायें अच्छी तरह जानते हैं। वे तो हिन्दी सिखा भी सकते है" मैंने खुश होकर उन्हें बताया।

"सवाल केवल भाषा का नहीं है।" उन्होंने मेरी मूर्खता पर हँसते हुए कहा, "अमेरिका में भारतीय संस्कृति को भी तो ज़िंदा रखना है ..."

अपने इस कथन को वे शायद ही सुन पाए होंगे क्योंकि इसे पूरा करने से पहले ही वे टुन्न हो गए। वे सोफा पर और भरा हुआ गिलास कालीन पर लोटने लगा। मैं समझ गया कि अमेरिका में उनकी भारतीय संस्कृति को कोई ख़तरा नहीं है।

आप सभी को, मित्रों और परिजनों के साथ दीपावली की हार्दिक मंगलकामनाएं! 
पिट्सबर्ग का एक दृश्य

 [मूल आलेख: अनुराग शर्मा; शनिवार २१ जून २००८]

Thursday, July 26, 2012

मियाँमार की चीख-पुकार

सदाबहार मौसम वाले भाई संजय अनेजा ने खाचिड़ी की कहानी सुनाकर बचपन की याद दिला दी। अपना बचपन उतना धर्म-निरपेक्ष नहीं रहा था, शायद इसीलिये बचपन की चार सबसे पुरानी यादें उस जगह (रामपुर) की हैं जिसका नाम ही देश के एक आदर्श व्यक्तित्व "पुरुषोत्तम" के नाम पर है। इन यादों में से एक मन्दिर, एक गुरुद्वारा और एक पुस्तकालय की है। चौथी अपने एक हमउम्र मित्र के साथ शाम के समय पुलिया पर बैठकर समवेत स्वर में "बम बम भोले" कहने की है। श्रावणमास में "बम बम" भजने का आनन्द ही और है लेकिन लगता है कि मेरी जन्मभूमि अब उतनी धर्मनिरपेक्ष नहीं रही।

आज भी याद है कि बरेली में दिन का आरम्भ ही मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से होता था। अज़ान ही नहीं बल्कि अलस्सुबह उनपर धार्मिक गायन प्रारम्भ हो जाता था। आकाशवाणी रामपुर पर भी सुबह आने वाले धार्मिक गीतों के कार्यक्रम में कम से कम एक मुस्लिम भजन भी होता ही था। हिन्दू-मुसलमान दोनों ही समुदाय समान रूप से जातियों में विभाजित थे। हमारी गली में ब्राह्मण, बनिये और कायस्थ रहते थे। उस गली के अलावा हर ओर विभिन्न जातियों के मुसलमान रहा करते थे। भिश्ती, नाई, दर्ज़ी, बढई, घोसी, क़साई, राजपूत, और न जाने क्या-क्या? मुसलमानों के बीच कई जातियाँ - जिन्हें वे ज़ात कहते थे - ऐसी भी थीं जो हिन्दुओं में होती भी नहीं थीं। उस ज़माने में कुछ जातियों ने धर्म की दीवार तोड़कर जाति-सम्बन्धी अंतर्धार्मिक संगठन बनाने के प्रयास भी किये थे मगर मज़हब की दीवार शायद बहुत मजबूत है। अगर ऐसा न होता तो इस सावन पर बरेली के शाहाबाद मुहल्ले में साल में बस एक बार शिव के भजन बजाये जाने पर दिन में पाँच बार लाउडस्पीकरों पर नमाज़ पढने वाला वर्ग भड़कता क्यों? हर साल अपना समय बदलने वाला रमज़ान क्या हज़ारों साल से अपनी जगह टिके सावन को रोक देगा? यह कौन सी सोच है? यह क्या होता जा रहा है मेरे शहर को?

मेरा शहर? यह आग तो हर जगह लगी हुई है। बरेली के बाद फैज़ाबाद में दंगा होने की खबरें आईं। लेकिन जो खबर अपना ड्यू नहीं पा सकी वह थी असम में बंगलाभाषी मुसलमानों द्वारा हज़ारों मूलनिवासियों के गाँव के गाँव फूंक डालने की। ऐसा कैसे हो जाता है जब किसी क्षेत्र के मूल निवासी अपने ही देश, गाँव, घर में असुरक्षित हो जाते हैं? दूसरी भाषा, धर्म, प्रदेश और देश के लोग बाहर से आकर जो चाहे कर सकते हैं? और यह पहली बार तो नहीं है जब बंगाली मुसलमानों ने सामूहिक रूप से असमी आदिवासियों के साथ इस तरह का कृत्य किया है।

लगभग इसी प्रकार की हिंसा का विलोमरूप महाराष्ट्र में हिन्दीभाषियों के विरुद्ध हुई हिंसा के रूप में देखने को मिला था। हर समुदाय दूसरे समुदाय से आशंकित है। लेकिन इस आशंका के बीच भी कुछ समुदाय ऐसे क्यों हैं कि वे हिंसक भी हैं और फिर अपने को सताया हुआ भी बताते रहते हैं?

श्रावण के पहले सोमवार पर श्रीनगर के एक प्राचीन शिव मन्दिर में अर्चना करते दलाई लामा का एक चित्र इंटरनैट पर आने के मिनटों बाद ही मुसलमान नामों की प्रोफ़ाइलों से उनके ऊपर गाली-गलौज शुरू हो गई। कई गालीकारों ने म्यानमार के दंगों में मुसलिम क्षति की बात भी की थी। यह बात समझ आती है कि कम्युनिस्ट चीन के साये में पल रहे म्यानमार के तानाशाही शासन में न जाने कब से सताये जा रहे बौद्धों के दमन के समय मुँह सिये बैठे लोग मुसलमानों की बात आते ही मुखर हो गये लेकिन इस मामले से बिल्कुल असम्बद्ध दलाई लामा को विलेन बनाने का प्रयास किसने शुरू किया यह बात समझ नहीं आती। अपने देश में भी राष्ट्रीय समस्याओं से आँख मून्दकर अमन का राग अलापने वाले लोग अब म्यानमार में मुसलमानों के इन्वॉल्व होते ही मियाँमार-मियाँमार चिल्लाना शुरू हो गये हैं।

अवनीश कुमार देव
हिंसा-प्रतिहिंसा ग़लत है, निन्दनीय है। पर ऐसा क्यों होता है कि अपनी हिंसक मनोवृत्ति और हिंसक प्रतीकों को दूसरों से मनवाने की ज़िद लिये बैठे लोगों से भरे समुदाय को दुनिया भर में बस अपने धर्म के पालकों के प्रति हुआ अन्याय ही दिखता है? कोई आँख इतनी बदरंग कैसे हो सकती है? वैसे हिंसा और धर्म का एक और सम्बन्ध भी है। जहाँ एक वर्ग धर्मान्ध होकर हिंसा कर रहा है वहीं हिंसक-विचारधारा वाला एक दूसरा वर्ग किसी भी धर्म को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। अपने को मज़दूरों का प्रतिनिधि बताने वाली इस विचारधारा ने अब तक न जाने कितने देशों में कम्युनिज़्म लाने के नाम पर इंसानों को कीड़ों-मकौड़ों की तरह कुचला है। ऐसे ही लोगों ने पिछले दिनों मनेसर में हिंसा का वह नंगा नाच किया है जिसकी किसी सभ्य समाज में कल्पना भी नहीं की जा सकती है। मारुति सुज़ूकी के मानव संसाधन महाप्रबन्धक अवनीश कुमार देव को मनेसर परिसर के अंदर चल रही वार्ता के दौरान जिस प्रकार जीवित जलाया गया उससे आसुरी शक्तियों के मन का मैल और उसका बड़ा खतरा एक बार फिर जगज़ाहिर हुआ है।

दिल्ली में मेट्रो स्टेशन के लिये गहरी खुदाई होने पर मृद्भांडों की खबर मिलते ही मुस्लिम समुदाय सभी नियम कानूनों को ताक़ पे रखकर, नियमों और न्यायालय के आदेश का खुला उल्लंघन करके न केवल सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेता है बल्कि वहाँ रातों-रात एक नई मस्जिद भी बना दी जाती है। तब सिकन्दर बख्त का वह कथन याद आता है जिसमें उन्होंने ऐसा कुछ कहा था कि इस देश में बहुसंख्यक समाज डरकर रहता है क्योंकि अपने को अल्पसंख्यक कहने वालों ने देश के टुकड़े तक कर दिये और बहुसंख्यक उसे रोक भी न सके। तथाकथित अल्पसंख्यक और भी बहुत कुछ कर रहे हैं। मज़े की बात यह है कि यह "अल्पसंख्यक" वर्ग जैन, सिख, पारसी, बौद्ध और विभिन्न जनजातियों आदि जैसा अल्पसंख्यक नहीं है। विविधता भरे इस देश में यह समुदाय हिन्दुओं के बाद सबसे बड़ा बहुसंख्यक है।

समाज में हिंसा और असंतोष बढता जा रहा है इतना तो समझ में आता है। लेकिन दुख इस बात का है कि प्रशासन और व्यवस्था नफ़रत के इस ज़हरीले साँप को इतनी ढील क्यों दे रही है? समय रहते इसे काबू में किया जाये। रस्सी को इतना ढीला मत छोड़ो कि पूरा ढांचा ही भरभराकर गिर जाये। एक बार लोगों के मन में यह बात आ गयी कि प्रशासन के निकम्मेपन के चलते जनता को अपनी, अपने परिवार, देश, धर्म, संस्कृति, इंफ़्रास्ट्रक्चर, व्यवसाय की ज़िम्मेदारी व्यक्तिगत स्तर पर खुद ही उठानी है तो आज के अनुशासनप्रिय लोग भी आत्मरक्षा के लिये प्रत्याघात पर उतर आयेंगे और फिर हालात काफ़ी खराब हो सकते हैं।
गिरा के दीवारें जलाया मकाँ जो, मुड़ के जो देखा लगा अपना अपना
कोई वर्ग सताया हुआ क्यों होता है? लोग पीढियों तक क्यों रोते हैं? किसके किये का फल किसे मिलता है? लीबिया, सीरिया, ईराक़, ईरान, सूडान, सोमालिया और अफ़ग़ानिस्तान ही नहीं, बल्कि पख्तून फ़्रंटियर, पाक कब्ज़े वाला कश्मीर, बलूचिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश का हाल भी देखिये। जो लोग आज़ादी से पहले भारत तोड़ने के मंसूबे बांध रहे थे, उनकी औलादें आज भी उनकी करनी को और अपनी क़िस्मत को रो रही हैं। कम लोगों को याद होगा कि बाद में पाकिस्तानी दमन के प्रतीक बने शेख मुजीबुर्रहमान ने भारत तोड़कर पाकिस्तान बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। प्रकृति कैसे काम करती है, मुझे नहीं पता लेकिन इतना पता है कि स्वार्थी की दृष्टि संकीर्ण ही नहीं आत्मघातक भी होती है। जो लोग आज़ादी के दशकों बाद भी इस देश में आग लगाने के प्रयासों में लगे हैं उनकी कितनी आगामी पीढियाँ कितना रोयेंगी इसका अन्दाज़ भी उन्हें समय रहते ही लग जाये तो बेहतर है। जो लोग इतिहास की ग़लतियों से सबक़ नहीं लेते उन्हें वह सब फिर से भोगना पड़ता ही है।


किसका पाकिस्तान, किसका हिन्दुस्तान, किसकी धरती, किसका देश
(पाकिस्तानी पत्रकार हसन निसार)
सम्बन्धित कड़ियाँ
* जावेद मामू - कहानी
* क़ौमी एकता - लघुकथा
* हिन्दी बंगाली भाई भाई - कहानी
* मैजस्टिक मूंछें - चिंतन
* खजूर की गुलामी - शीबा असलम फ़हमी
* जामा मस्जिद में दलाई लामा - मानसिक हलचल
* मुस्लिम स्टूडेंट यूनियन ऑफ असम [मूसा]

Thursday, June 21, 2012

व्यवस्था - कहानी

(कथा व चित्र: अनुराग शर्मा)

हाथ में गुलदस्ता लेकर वह कमरे में घुसी तो वहाँ का हाल देखकर भौंचक्की रह गई। सब कुछ बिखरा पड़ा था। बिस्तर कपड़ों से भरा था, कमीज़ें, पतलूनें, बनियान, पाजामा, मोज़े आदि तो थे ही, सूट और टाइयाँ भी मजगीले से पड़े थे। गुड़ी-मुड़ी से पड़े साफ़ कपड़ों के बीच एकाध पहने हुए कपड़े भी थे। ग़नीमत यही थी कि पहनी हुई ज़ुराबें कमरे के एक कोने में इकट्ठी थीं। अलमारियों के अलावा भी हर ओर किताबें, नोटबुकक्स, डायरियाँ, रजिस्टर, सीडी, डीवीडी और ब्लू रे आदि डिस्क जमा थीं। और पढने की मेज़? राम, राम! हर आकार के बीसियों कागज़ जिनपर तरह-तरह के नोट्स लिखे हुए थे।

अनेक फ़्लैश ड्राइव्स, पैन, पैंसिलें, एलर्जी और दर्द की दवाओं की डब्बियाँ, पेपर-कटर, हथौड़ी, पेंचकस जैसे छोटे मोटे औज़ार नेल-कटर, कैंची, टेप डिस्पैंसर आदि से प्रतियोगिता कर रहे थे। मेज़ पर चश्मों, बटुओं, पासबुकों, चैकबुकों और रोल किये हुए कई पोस्टरों के बीच अपने लिये जगह बनाते हुए किंडल, टैबलैट, फ़ोन और लैपटॉप पड़े थे। मेज़ के नीचे रखे वर्कस्टेशन से न जाने कितने तार निकलकर मेज़ पर ही रखी हुई कई बाहरी हार्ड डिस्क ड्राइवों को जोड़कर एक अजीब सा मकड़जाल बना रहे थे। उसके ऊपर दो-तीन पत्रिकायें भी पड़ी थीं। साथ की छोटी सी मेज़ पर एक बड़ा सा प्रिंटर रखा था जिस पर कार्डबोर्ड के दो डिब्बे भी एक के ऊपर एक भिड़ाये हुए थे। साथ में ही डाक में आने-जाने वाले पत्रों को छाँटने के लिये एक पोर्टेबल दराज ज़बर्दस्ती अड़ा दिया गया था जोकि अब गिरा तब गिरा की हालत में अपने को संतुलित करने का प्रयास कर रहा था।

बुकशेल्व्स पर किताबों के अलावा भी जिस किसी चीज़ की कल्पना की जा सकती है वह सब मौजूद थी। अपने खोल से कभी निकाले न गये अखबारों के रोल, डम्बल्स, कलाकृति सरीखी मोमबत्तियाँ, देश-विदेश से जमा किया गया कबाड़। कितनी तो कलाई घड़ियाँ ही थीं। पाँच छः तरह के हैड फ़ोन पड़े थे। लैपटॉप के पहियों वाले दो बैग कन्धे पर टांगने वाले थैले को कोने की ओर खिसका रहे थे। कपड़ों की अलमारी के दोनों पट खुले हुए थे और वहाँ से भी काफ़ी कुछ बाहर आने की प्रतीक्षा में था। चाय, कॉफ़ी द्वारा अन्दर से काले पड़े कप, तलहटी में दूध का निशान छोड़ते हुए गिलास और सेरियल की कटोरियाँ। पास पड़ा कूड़ेदान कागज़ों में गर्दन तक डूबा हुआ था।

"हे भगवान! ये क्या हाल बना रखा है?"

"समय नहीं मिला, अगले इतवार को सब ठीक कर दूंगा।"

"आज क्यों नहीं? आज भी तो इतवार ही है।"

"कर ही देता, लेकिन सामान रखने की जगह ही नहीं बची है। न जाने लोग कैसे स्पेस मैनेज करते हैं। लगता है इस काम में मुझे विशेषज्ञ की सहायता की ज़रूरत है।"

"थिंक ऑउट ऑफ़ द बॉक्स!"

"वाह, मेरा ही वाक्यांश मेरे ही सर पर!"

"बेसमेंट में रख दें?"

" ... लेकिन मुझे तो इन सब चीज़ों की ज़रूरत रोज़ ही पड़ती है, ... इसी कमरे में रखना पड़ेगा।"

"तो फिर ... कुछ बॉक्स लेकर ..."

"अरे हाँ, क्लीयर प्लास्टिक के दो बड़े डब्बे ले आता हूँ। उनसे सब सामान व्यवस्थित भी जायेगा और मुझे दिखता भी रहेगा।"

तीन हफ़्ते बाद वह फिर आयी तो कमरे के स्वरूप में अंतर था। उस अव्यवस्था के बीच आड़े-टेढे पड़े दो खाली डब्बे भी अब बाकी सामान के साथ अपने रहने की जगह बना चुके थे।

[समाप्त]

Tuesday, May 15, 2012

बदले ज़माने देखो - कविता

(कविता व चित्र अनुराग शर्मा)


रंग मेरे जीवन में, तुमने भी सजाये हैं
याद से हटते नहीं गुज़रे ज़माने देखो।
सूनी आँखों में बसे दोस्त पुराने देखो॥

प्यार की जीत सदा नफ़रतों पे होती है।
हर तरफ़ महके मेरे शोख फ़साने देखो॥

ग़लतियाँ हमने भी सरकार बड़ी कर डालीं।
चाहते क्या थे चले क्या-क्या कराने देखो॥

कोशिशें करने से भी वक़्त ही जाया होगा।
भर सकेंगे न कभी दिल के वीराने देखो॥

सारा दिन दर्द के काँटों पे ही गुज़रा था।
रात आयी है यहाँ ख्वाब सजाने देखो॥

आखिरी बूंद मेरे खून की बहने के बाद।
ताल खुद आये मेरी प्यास बुझाने देखो॥

साँस रोकी थी मेरी जिसने ज़ुबाँ काटी थी।
मर्सिया पढ़ता वही बैठ सिरहाने देखो॥

Tuesday, May 8, 2012

इतना भी पास मत आओ - कविता

 (कविता व चित्र: अनुराग शर्मा)

ज़िन्दगी प्रेम का राग है
मार तेरे प्यार की हमने प्रिये हँसकर सही है।
शब्द मिटते जा रहे पर अर्थ तो फिर भी वही है॥

सर झुका लेते हैं जब भी देखते हैं हम तुम्हें।
रास्ते में छेड़ना तुम ही कहो कितना सही है॥

है सफ़र मुश्किल अगर गुज़रें रक़ीबों की गली।
मेरी डगर के ज़िक्र पे तुमने सदा कड़वी कही है॥

सह सकूँ हर ज़ुल्म तेरा चाहत ए दिल है यही।
दर्द से चिल्ला पड़ा इतनी शिकायत तो रही है॥

खिड़की खुले तो हो सके रोशन जो घर अन्धेरा है।
सियाही कब से इस चौखट में जमती जा रही है॥

Saturday, May 5, 2012

चक्रव्यूह - कविता

आर्ट कनेक्शन 2012 से साभार
(कविता व चित्र: अनुराग शर्मा)

यादों के बंधन
बंधन के बांध
बांध की सीमायें
सीमा पर अन्धकार
अन्धकार का अज्ञान
और उस
अज्ञान की यादें
कभी तो यह चक्र टूटे
कभी तो टूटे ...


Sunday, April 8, 2012

खट्टे अंगूर - कविता

(अनुराग शर्मा)

काँटों का सौन्दर्य
सूरज क्रूर
रेत तन्दूर
वृक्ष खजूर

छिन्न गरूर
मिटता नूर
घायल शूर

विरह दस्तूर
सनम मगरूर
सदा मखमूर

फ़र्जी मंसूर
खफ़ा हुज़ूर
प्रीतम दूर

रंज भरपूर
वे मशहूर
मैं मजबूर

Saturday, March 3, 2012

मैं भी एक कवि बन पाता - कविता

[अनुराग शर्मा]

चित्र व कविता: अनुराग शर्मा
आग तुम्हारे अन्तर की मैं
अपने दिल में जला पाता
दर्द पिरो सकता सीने में
मैं भी एक कवि बन पाता

अन्धियारी यह रात अमावस
बन खद्योत चमका जाता
नहीं समझता अलग किसी को
मैं भी एक कवि बन पाता

एक जंगली फूल किसी
वनवासी के केश लगाता
पीर समझता बिना बिवाई
मैं भी एक कवि बन पाता

मुझे मिला सब बिना शर्त
वह प्यार अगर लौटा पाता
तू-तू मैं-मैं से ऊपर उठ
मैं भी एक कवि बन पाता

सत्य ढंका क्यों स्वर्णपात्र से
खोल सकें तो ज्ञान सत्य है
ग्रहण हटा, कर ज्योति ग्रहण
मैं भी एक कवि बन पाता

हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखं। तत्त्वं पूषन्न अपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये।।
[~ईशोपनिषद - 15]

Thursday, November 24, 2011

थैंक्सगिविंग - एक अनूठा आभार! - इस्पात नगरी से 52

आज नवम्बर मास का चौथा गुरुवार होने के कारण हर वर्ष की तरह आज संयुक्त राज्य अमेरिका में थैंक्सगिविंग का पर्व मनाया जा रहा है। यह उत्सव है परिवार मिलन का और अपने सुख और समृद्धि के लिये ईश्वर का आभार प्रकट करने के लिये। इस पर्व की परम्परा यूरोप से आये आप्रवासियों और अमेरिका के मूल निवासियों के समारोहों की सम्मिलित परम्परा का संगम है। आधुनिक थैंक्सगिविंग के आरम्भ के बारे में बहुत सी कहानियाँ हैं। सबसे ज़्यादा प्रचलित कथा के अनुसार इस परम्परा की जड़ें आधुनिक मासाचुसेट्स राज्य के प्लिमथ स्थान में 1621 में अच्छी फसल की खुशियाँ मनाने के लिये हुए एक समारोह में छिपी हैं। समारोह वार्षिक हो गया और यूरोपीय निवासियों के पास पर्याप्त भोजन न होने की दशा में वम्पानोआग जाति के मूल निवासियों ने उन्हें बीज देकर उनकी सहायता की।

टर्की (चित्र: अपार शर्मा द्वारा)
जैसे इस पर्व के उद्गम के बारे में किसी को ठीक से नहीं पता है वैसे ही किसी को यह नहीं पता कि धन्यवाद या आभार प्रकट करने के इस दिन पर टर्की पक्षी खाने की परम्परा कब से शुरू हुई। अधिकांश लोग इस बात पर सहमत हैं कि आरम्भिक आभार दिवसों पर टर्की नहीं खाई जाती थी। जो भी हो, कालांतर में टर्की इस पारिवारिक पर्व का आधिकारिक भोजन बन गयी। संयुक्त राज्य जनगणना विभाग के एक अनुमान के अनुसार आज के आभार दिवस के लिये पूरे देश में लगभग 24 करोड़ अस्सी लाख टर्कियाँ पोषित की गयीं।

ऐसा नहीं कि आज सारे अमेरिका ने टर्की खाई हो। कुछ समय से लोगों ने टर्की के शाकाहारी विकल्पों के बारे में सोचना आरम्भ किया है। टोफ़र्की एक ऐसा ही विकल्प है। इसके साथ सामान्यतः कद्दू की मिठाई, आलू और करी जैसी सह-डिशें प्रयुक्त होती हैं। बहुत से अमेरिकी परिवारों में आजकल नई पीढी शाकाहारी जीवन शैली अपना रही है। इस वजह से कई जगह बुज़ुर्गों की टर्की के साथ में टोफ़र्की बनाने का प्रचलन भी बढ रहा है। शाकाहारी और वीगन परिवारों द्वारा प्रयुक्त टोफ़र्की मुख्यतः गेहूँ और सोयाबीन के प्रोटीन से बनाया जाता है। हाँ, हमारे जैसे परिवार तो टर्की और टोफ़र्की से दूर भारतीय भोजन की सुगन्ध से ही संतुष्ट हैं।

लेकिन आज की पोस्ट का केन्द्रबिन्दु टर्की या टोफ़र्की नहीं है। आज की यह आभार पोस्ट पिट्सबर्ग निवासी 72 वर्षीय श्री महेन्द्र पटेल के सम्मान में लिखी गयी है जिन्होंने स्थानीय भोजन-भंडार (Pittsburgh food bank) को दस हज़ार डॉलर का अनुदान दिया है। लगभग पाँच वर्ष पहले अपनी पत्नी नीला के कैंसर ग्रस्त होने का समाचार मिलने पर महेन्द्र जी ने प्रभु से उनके ठीक होने की मन्नत मांगी थी। अब पत्नी के स्वस्थ होने पर आभारदिवस पर उन्होंने पिट्सबर्ग के भोजन-भंडार को एक चेक लिखकर प्रभु के प्रति अपना आभार व्यक्त किया है।

आज के कठिन समय में जब बेरोज़गारों की संख्या बढ रही है और मध्यवर्गीय लोग भी भोजन-भंडारों में दिख रहे हैं, मैंने 10,000 डॉलर (फ़ुडबैंक को) देने का निश्चय किया। ~ श्री महेन्द्र पटेल
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* Gift of thanks to food bank - स्थानीय समाचार
* काला जुमा, बेचारी टर्की
* थैंक्सगिविंग - लिया का हिन्दी जर्नल
* 24 करोड़ 80 लाख टर्कियाँ
* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* Pumpkin Pie - कद्दू की मिठाई
* Thanksgiving - a poem