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Sunday, September 10, 2017

अनुरागी मन

नवीं कक्षा में था तो रसायनशास्त्र के प्रवक्ता मु. यामीन अंसारी ने कहा कि छात्र संघ में कनिष्ठ उपाध्यक्ष के लिये नामांकन भर दो। उन्होंने बताया कि उस पद के लिये पात्रता कक्षा 9 तक की ही है। शायद इसीलिये उस दिन अंतिम तिथि होने के बावजूद, तब तक कोई नामांकन नहीं आया था। मुझे राजनीति में जाने की कोई इच्छा वैसे भी नहीं थी। ऊपर से मेरे जैसा शांत व्यक्ति ज़ोर-जबर के नक्कारखाने के लिये शायद ही उपयुक्त होता। तीसरी बात यह भी थी कि नामांकन के लिये दस रुपये शुल्क था, जो उस समय मेरे पास नहीं था। अंसारी साहब शुल्क अपनी जेब से देने को भी तैयार थे परंतु मैं अनिच्छुक ही रहा।

अंतिम तिथि निकल गई। उस वर्ष का छात्रसंघ कनिष्ठ उपाध्यक्ष के बिना ही बना क्योंकि मैंने उस पद पर निर्विरोध चुने जाने का अवसर छोड़ दिया था। अगले वर्ष से छात्रसंघ के चुनावों पर प्रतिबंध लग गया और सभी तत्कालीन पदाधिकारी जोकि 12वीं के ही छात्र थे, परीक्षा पास करके विद्यालय से बाहर चले गये। मैं तीन और साल वहीं था। अंसारी साहब ने एकाध बार मज़ाक में कहा भी कि यदि उस दिन मैंने पर्चा भर दिया होता तो चार साल मैं छात्रसंघ पर एकछत्र राज्य करता।

नवीं कक्षा में ही जीवविज्ञान की प्रयोगशाला में जब ताज़े कटे हुए मेंढ़कों को धड़कते दिल के साथ क्रूरता से एक गड्ढे में फेंके जाते देखा तो सभ्य-समाज में सर्व-स्वीकृत निर्दयता ने दिल को बहुत चोट पहुँचाई। आज शायद सुनने में अजीब लगे लेकिन यह सच है कि उस समय तक मैं यही समझता था कि प्रयोगशाला में डाइसेक्ट किये हुए प्राणियों को सर्जरी द्वारा पहले जैसा स्वस्थ बनाकर वापस प्रकृति में छोड़ दिया जाता होगा। जीवविज्ञान के साथ मानसिक रूप से उसी समय अपना तलाक़ हो गया लेकिन हाईस्कूल तक जैसे-तैसे साथ निभाया और फिर गणित-विज्ञान समूह की दिशा पकड़ी।

तब से अब तक जीवन में कई ऐसे अवसर आये जब मौके हाथ से छूटे, या कहूँ कि छूटने दिये गये। जब किसी को आत्मविश्वास के साथ यह कहते सुनता हूँ कि उसने परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाया तो अच्छा लगता है क्योंकि मैंने शायद इस दिशा में कभी कोई खास श्रम नहीं किया। हाँ, जीवन में जो कुछ सामने आता गया उसके सदुपयोग पर थोड़ा बहुत विचार अवश्य किया। लेकिन वहाँ भी कोई जल्दबाज़ी कभी नहीं की।

एक दफ़ा एक बस यात्रा में जेब कट गई। दो-चार सौ रुपयों के साथ-साथ परिचय-पत्र भी चला गया, जिसकी सामान्यतः आवश्यकता भी नहीं पड़ती थी। वैसे भी परिचयपत्र में चित्र के साथ अपने और संस्थान के नाम के अलावा काम की कोई जानकारी नहीं थी। न कार्यालय का नाम था और न ही पदनाम। दोबारा बनवाने का शुल्क भी लगता था और उसके लिये एक दूसरे कार्यालय में अर्ज़ी देने भी जाना पड़ता, जिसकी काम ने कभी फ़ुर्सत ही नहीं दी, सो टलता रहा।

जब नौकरी छोड़ने की नौबत आई तो नियमानुसार इस्तीफ़े के साथ परिचयपत्र भी जमा कराना था। नया परिचयपत्र बनवाने के लिये अगले सप्ताह का मुहूर्त निकालकर प्रबंधक जी को बता दिया गया। अगले हफ़्ते जब निकलने ही वाले थे तब उस दिन की अंतर-विभागीय डाक आ गई। और डाक में पत्रों के ऊपर ही मेरा परिचयपत्र भी पड़ा हुआ था जिसे कुछ साल पहले किसी जेबकतरे ने कहीं फेंका होगा और किसी भलेमानस ने शायद किसी मेलबॉक्स में डाल दिया होगा जोकि बरसों बाद किसी डाकिये को नज़र आया होगा और एक दफ़्तर से दूसरे में पहुँचते हुए आखिर मेरे पास आ गया।

यह तो एक सरल सा उदाहरण था लेकिन कई उदाहरण तो इतने जटिल संयोग के उदाहरण हैं कि लगता है मानो एक लम्बी परियोजना बनाकर उन्हें गढ़ा गया हो। सौ बात की एक बात यह कि ज़िंदगी अपने साथ बहाकर ले जाती रही लेकिन फिर भी रही अपने प्रति दयालु ही। तरबूज सौ बार छुरों पर गिरा लेकिन हर बार हाथ-पाँव झाड़कर उठ खड़ा हुआ।

पाँच साल की उम्र में एक नहर के तेज़ बहाव में बहकर मर ही जाता लेकिन बचा लिया गया। उसी समय तैरना सीखने का प्रण लिया। सीखने का कोई साधन ही नहीं था। न प्रशिक्षक, न तरण ताल। सो कुछ साल यूँ ही बीतने के बाद, अंततः, बिना पानी के ही तैराकी सीखने का निश्चय किया। जब पहली बार तरण-ताल देखने को मिला तब तक बिना पानी और बिना प्रशिक्षक के कामचलाऊ तैराकी सीख चुका था।

मरने के भी कई मौके आये और सीखने के भी। आलसी जीव, मृत्यु से भी बचकर निकलते रहे और सीखना भी अपने हिसाब से करते गये। हर काम सदा तसल्ली बख्श तो किया मगर किया भरपूर तसल्ली के साथ, बिना किसी जल्दबाज़ी के। बारहवीं के बाद जब सारे मित्र अभियांत्रिकी में जा रहे थे तब मैं उस उम्र में मिल सकने वाली एकमात्र नौकरी के लिये अर्ज़ियाँ भरकर जीवन की शुरुआत करने को तैयार था। अलबत्ता साथ में बेमन से ही सही बीएससी में प्रवेश भी ले लिया था।

बीएससी की फ़ाइनल परीक्षा के दौरान ही जीवन में पहली बार सीरियसली पढ़ाई करने का प्रण ले लिया। तय किया कि एमएससी गणित में की जायेगी। ज़िंदगी में पहली बार ऐसा हुआ कि कक्षा में प्रवेश लेने से पहले ही सारी किताबें खरीदी हों। लेकिन एमएससी में आवेदन से पहले ही नौकरी शुरू करनी पड़ी।

बिल्कुल एक जैसी तीन नौकरियों के लिये एप्लाई किया था। एक का ऑफ़र बहुत बाद में आया। लेकिन जिन दो में पहले बुलाया गया उनमें से दिल्ली वाली का साक्षात्कार देने नहीं गया क्योंकि परिवार की राय घर के पास, यानी रुहेलखण्ड में रहने की थी। परीक्षा परिणाम में प्रदेश के पहले पाँच में नाम था। किसे खबर थी कि उत्तरप्रदेश का बोर्ड ही मुझे दिल्ली पोस्टिंग दे देगा। दिल्ली तो दे नहीं सकते थे मगर उन्होंने नोएडा भेज दिया। केवल एक उस निर्णय के बहाने घर-गाँव, रुहेलखण्ड ऐसा छूटा कि दोबारा वहाँ रहने का सुयोग बना ही नहीं।

 मित्रों से पिछड़ने की बात तो मन में क्या आनी थी, अपने पैरों पर खड़े होने का संतोष अवश्य था। इत्तेफ़ाक़ से उसी समय पिताजी देश भर के दुर्गमतम क्षेत्रों की अपनी ड्यूटी से छुटकारा पाकर सीआरपीएफ़ के दिल्ली स्थित केंद्र झाड़ौदा कलाँ में आये, सो हम भी उनके सरकारी निवास में फ़िट हो लिये। दफ्तर से घर खासा दूर था तो रोज़ाना 6-7 घंटे का कम्यूट होता था। रूट ऐसा था कि बसों में बैठना तो दूर, चढ़ना और उतरना भी आसान न था। एक दिन बहन की सहेलियों ने उसे बताया कि हमारे घर कोई मेहमान आया हुआ है। वह मेहमान मैं ही था क्योंकि मैं घर से इतना बाहर रहता था कि आस-पड़ोस के बहुत से लोगों को घर में मेरे अस्तित्व के बारे में जानकारी ही नहीं थी।

मेरे दिल्ली आने पर एमएससी की गणित की किताबें बदायूँ के तालाबंद घर में रखी रह गईं क्योंकि नौकरी के साथ पढ़ाई जारी रखने के प्रयास में निराशा हाथ लगी। विश्वविद्यालय वालों ने स्नातकोत्तर में प्रवेश इस आधार पर नहीं दिया कि एमएससी न तो प्राइवेट ही हो सकती है और न ही उसके लिये सायंकालीन या सप्ताहांत कक्षा की कोई व्यवस्था है। इस बाधा का कारण पूछने पर विज्ञान के कोर्स में प्रयोगशाला की अनिवार्यता का तर्क दिया गया। गणित में प्रयोगशाला नहीं थी लेकिन अधिकार के आगे तर्क की क्या बिसात। सो जिस ज़माने में तथागत अवतार तुलसी बिना प्रयोगशाला देखे, बिना अनिवार्यता पूरी किये हुए बीएससी और एमएससी की परीक्षा देकर सरकारी खर्चे पर नोबल पुरस्कार विजेताओं से मिलवाने ले जाये जा रहे थे, हमारे रोहिलखण्ड (अब ज्योतिबा फुले) विश्वविद्यालय ने हमें नौकरी के साथ गणित में स्नातकोत्तर करने से मना कर दिया। 6-7 घण्टे के दैनिक कम्यूट, पूरे दिन की नौकरी के अलावा डोमिसाइल सर्टिफ़िकेट आदि के सरकारी जंजालों के कारण हम भी चुप लगाकर बैठ गये। भला हो विदेश-प्रवास का कि यह स्नातकोत्तर भी बाद में पूरा हुआ, यद्यपि हुआ गणित के बिना।

उस बीच में उपेक्षा के कारण टूटते-फ़ूटते पुश्तैनी घर की छत गिरने के बाद जब उसे बेचने के लिये गये तो एमएससी गणित की सभी किताबें बिना छत के कमरे की बिना दरवाज़ों की अलमारी में तला ऊपर रखी थीं। लगभग गली हुई हालत में भी सबसे ऊपर की किताब का मुखपृष्ठ पठनीय था। मानो हँस रहा हो, "ज़िंदगी प्लैन करने चले थे? अब मत करना"

नौएडा से झाड़ौदा तक की उस दैनिक भागदौड़ में बैंक के परिवीक्षाधीन अधिकारी की परीक्षा दी, एक बार फिर पहले पाँच में चुनाव हुआ। देश भर से चुने गये 135 से अधिक अधिकारियों में मैं सबसे कमउम्र था। कुछ वर्ष बाद बैंक ने कम्प्यूटरीकरण की इन-हाउस टीम के लिये जब देशव्यापी परीक्षा द्वारा युवा अधिकारियों को चुनना शुरू किया तो बैंकिंग में रहते हुए सूचना प्रौद्योगिकी, परियोजना प्रबंधन आदि की शिक्षा और अनुभव का अवसर मिला जो अब तक साथ चल रहा है।

पढ़ने लिखने का शौक पुराना था। सम्वाद-वाद-विवाद में पुरस्कार पाना स्कूल में ही शुरू हो गया था। 13-14 साल की आयु में सोचा था कि बड़े होने पर बरेली-बदायूँ मार्ग पर हरियाली के बीच बनाये आधुनिक फ़ार्महाउस से प्रकाशन का व्यवसाय चलाया जायेगा। अनुराग प्रकाशन का उन्हीं दिनों का डिज़ाइन किया लोगो और एकाध नमूना पुस्तकें भी शायद अल्मारी में अभी भी पड़ी हों। माचिस की डिब्बी के आकार की 'मैचबुक्स' का विचार भी तभी-कभी दिमाग़ में कौंधा था। खैर बरेली के दर्शन तो फिर भी हो जाते हैं, बदायूँ तो एकदम से ही पराया हो गया। नसीब अपना-अपना ...  

लेखन-प्रकाशन के सपने देखते हुए, लगभग उन्हीं दिनों में कई कहानियाँ लिख डाली थीं। 1983-84 में एक कहानी का प्लॉट मन में था। 3-4 पन्नों की कहानी बोल-बोलकर कई बार टाइप करवाई लेकिन हिंदी टंकण में हर बार अनेक ग़लतियाँ रह जाती थीं। दशकों बाद जब ब्लॉग पर उसे अनुरागी मन के नाम से धारावाहिक लिखना शुरू किया तो इस बीच के अनेक अनुभवों और उपलब्ध समय ने कथानक को पहले से अधिक रोचक बना दिया था। ब्लॉग नियमित पढ़ने वाले मित्रों को कहानी पसंद आई लेकिन अंतिम कड़ी पर कुछ मित्रों ने उसके दुखांत होने पर शिकायत भी की। कविहृदय मित्र देवेंद्र पाण्डेय ने तो कथा के दुखांत को मेरे पश्चिम में रहने का प्रभाव ही बता दिया। जबकि सच यह है कि कहानी का अंत 1984 में भी यही था। इसमें पूर्व-पश्चिम का कोई चक्कर नहीं था, यूँ ही सोचा कि आज यह बात स्पष्ट कर ही दी जाय।

देवेन्द्र पाण्डेय October 27, 2011 at 4:18 AM
मूड खराब कर दिया आपने तो। ऐसे अंत की उम्मीद नहीं थी। छुट्ठी निकालकर इतमिनान से पढ़ने बैठा था। शेख चिल्ली के मजार से जो उम्मीद बंधी थी यहां आकर तहस-नहस हो गई। ऐसे भी भला कोई अंत करता है! इतनी जल्दी क्या थी? अंततः समाप्त। यह भी कोई बात हुई। ... ... ... पश्चिम में रहकर यही अंत करने की भावना जगी? 
मेरे जीवन की लम्बी यात्रा के अनुरागी मन से ही सम्बंधित एक अल्पांश, जब इस कथा संग्रह को मॉरिशस के महात्मा गांधी संस्थान द्वारा भोपाल में हुए 10वें विश्व हिंदी सम्मेलन में स्थापित किये गये द्वैवार्षिक 'आप्रवासी हिंदी साहित्य सृजन संस्थान' का प्रथम विजेता बनने का गौरव प्राप्त हुआ। सम्मान मॉरिशस की संसद की स्पीकर शांतिबाई हनुमानजी जीओएसके द्वारा मॉरिशस में आयोजित एक सम्मान में प्रदान किया गया। निम्न विडियो में देखिये मॉरिशस टीवी पर प्रस्तुत इस समारोह की रिपोर्ट की एक झलक और बताइये किस भाषा में क्या कहा गया है:



पितृपक्ष चल रहे हैं। सालभर के कामधंधे और उलझनों के कारण बिसर गये पितरों से वापस जुड़ने का समय है। उन्हीं यादों के बीच ये कुछेक यादें मानो याद दिलाने आईं कि मेरे अपने जीवन पर मेरा कितना कम नियंत्रण रहा है। पितरों के संघर्षों द्वारा संवरी अपनी ज़िंदगी के पुनरावलोकन का समय यह भी विचार करने का है कि हम आने वाली संतति द्वारा कैसे पितरों के रूप में याद किये जायेंगे। उनके लिये हम धरा पर कौन सी विरासत, कैसी धरोहर छोड़कर जायेंगे।

फिर मिलेंगे ब्रेक के बाद

Sunday, July 19, 2015

किस्सागो का पक्ष - अनुरागी मन

अनुरागी मन से दो शब्द

अपनी कहानियों के लिए, उनके विविध विषयों, रोचक पृष्ठभूमि और यत्र-तत्र बिखरे रंगों के लिए मैं अपने पात्रों का आभारी हूँ। मेरी कहानियों की ज़मीन उन्होंने तैयार की है। वे सब मेरे मित्र हैं यद्यपि मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता हूँ।

कथा निर्माण के उदेश्य से मैं उनसे मिला अवश्य हूँ। कहानी लिखते समय मैं उन्हें टोकता भी रहता हूँ। लेकिन हमारा परिचय केवल उतना ही है जितना कहानी में वर्णित है। बल्कि वहाँ भी मैंने लेखकीय छूट का लाभ उठाया है। इस हद तक, कि कुछ पात्र शायद अपने को वहाँ पहचान न पायें। कई तो शायद खफा ही हो जाएँ क्योंकि मेरी कहानी उनका जीवन नहीं है।

मेरे पात्र भले लोग हैं। अच्छे या बुरे, वे सरल और सहज हैं, जैसे भीतर, तैसे बाहर। मेरी कहानियाँ इन पात्रों की आत्मकथाएँ नहीं हैं। उन्हें मेरी आत्मकथा समझना तो और भी ज्यादती होगी। मेरी कहानियाँ समाचारपत्र की रिपोर्ट भी नहीं हैं। मैंने अपने या पात्रों के अनुभवों में से कुछ भी यथावत नहीं परोसा है।

मेरी हर कहानी एक संभावना प्रदान करती है। एक अँधेरे कमरे में खिड़की की किसी दरार से दिखते तारों की तरह। किसी सुराख से आती प्रकाश की एक किरण जैसे, मेरी कहानियाँ आशा की कहानियाँ हैं। यदि कहीं निराशा दिखती भी है, वहाँ भी जीवन की नश्वरता के दुःख के साथ मृत्योर्मामृतम् गमय का उद्घोष है। कल अच्छा था, आज बेहतर है, कल सर्वश्रेष्ठ होगा।

हृदयस्पर्शी संस्मरण लिखने के लिए पहचाने जाने वाले अभिषेक कुमार ने अपने ब्लॉग पर अनुरागी मन की एक सुंदर समीक्षा लिखी है, मन प्रसन्न हो गया। आभार अभिषेक!

इसे भी पढ़िये:
अनुरागी मन की समीक्षा अभिषेक कुमार द्वारा
लेखक बेचारा क्या करे? भाग 1
लेखक बेचारा क्या करे? भाग 2
* अच्छे ब्लॉग लेखन के सूत्र
* बुद्धिजीवी कैसे बनते हैं? 

Wednesday, October 19, 2011

अनुरागी मन - कहानी अंतिम कड़ी (भाग 21)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17भाग 18भाग 19भाग 20;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ झरना को देखा परंतु झरना ने बात करना तो दूर, उन्हें पहचानने से भी इनकार कर दिया। वापस घर आते समय एक ट्रक ने उनकी कार को टक्कर मारी और पुलिस ने अस्पताल पहुँचाया।
अब आगे भाग 21 ...

दिल्ली मेरी दिल्ली
पुलिस ने फ़ोन से तीनों के घर पर सूचना भिजवा दी। ईर और फ़त्ते को तो प्राथमिक चिकित्सा के बाद छोड़ दिया गया। मगर वीर को गहन चिकित्सा कक्ष में ले जाया गया। तब तक सुबह हो चुकी थी। ईर और फ़त्ते उनीन्दे बैठे बाहर इंतज़ार कर रहे थे। बीच में कुछ डॉक्टरों ने इन दोनों को वीर की स्थिति के बारे में ब्रीफ़िंग भी दी। उनके जाने के बाद दोनों विचारमग्न थे कि बाहर का दरवाज़ा खुला और मानो सुबह की रोशनी की किरण जगमगाई हो। सूर्य के प्रकाश के साथ ही एक बदहवास कंचनकाया अन्दर आयी। एक पल ठिठककर झरना ने ईर और फ़त्ते को देखा और फिर घबराकर पूछा, "वीर? ... वीर कहाँ है?"

"ठीक है। अन्दर है।" ईर ने बताया।

"तुम लोग यहाँ हो तो वह अन्दर क्यों है?" झरना की आँखों से स्पष्ट था कि वह रात भर सो नहीं सकी थी।

"उसके कन्धे में लगी है थोड़ी। सीरियस है पर ठीक हो जायेगा।" फ़त्ते ने झरना को दिलासा देते हुए कहा। वह कहना चाहता था कि अगर आज आना ही था तो कल क्यों चली गयी थीं। मगर उसे यह समय ऐसी बात के लिये ठीक नहीं लगा। झरना ने बताया कि वह वीर से अब भी बहुत प्यार करती है और सदा करती रहेगी। दिल्ली आने से पहले वह नई सराय जाकर उसकी दादी और माँ से मिली भी थी और नोएडा का पता भी लेकर आयी थी। लेकिन साथ-साथ वह वीर के पिछले व्यवहार के कारण उससे बहुत गुस्सा भी थी और उसे यह भी समझाना चाहती थी कि बेरुखी कितनी क्रूर होती है। लेकिन परिक्रमा में वीर के प्रति अपने दुर्व्यवहार के बाद वह रात भर सो न सकी। अलस्सुबह फ़त्ते के घर पहुँची और वहाँ से सारी बात पता लगते ही अस्पताल आयी।

झरना ने बताया कि उसके माता-पिता के जाने के बाद बस वीर ही एक ऐसा व्यक्ति है जिसे वह नितांत अपना मानती है और उस पर अपना अधिकार समझती है। शायद इसी कारण उसकी अपेक्षा कुछ अधिक ही बढ गयी थी। उसे लगा कि जब वह परिक्रमा से बाहर जायेगी तो वीर आगे बढकर उसे रोक लेगा, जाने नहीं देगा। फ़त्ते ने बताया कि वीर तो रोकने जा रहा था पर उसे फ़त्ते ने पकड़कर रोका हुआ था। झरना ने अपने हाथों से उन दोनों का एक-एक हाथ पकड़कर एक घेरा बनाया। फिर आंखें बन्द करके वीर के लिये एकसाथ मिलकर प्रार्थना करने को कहा। तीनों ने मन में भगवान का नाम लिया। तीनों की आँख से मानो अनुराग के झरने बह रहे थे।

आँखें खुलीं तो दो डॉक्टर उनके सामने खड़े थे।

एक ने कहना आरम्भ किया, "हमें अफ़सोस है कि ..."

दूसरे ने वाक्य पूर्ण किया, "ही इज़ नो मोर! वी आर एक्स्ट्रीमली सॉरी! ... ... ..." वे बोलते गए पर शब्द मानो अपना अर्थ खो चुके थे।

अपने साथ आने का इशारा करके डॉक्टर उन्हें वहाँ तक ले गये जहाँ वीर ने अंतिम साँस ली थी। फ़फ़क-फ़फ़क कर रोते हुए फ़त्ते ने अपनी जेब से निकालकर कागज़ का एक छोटा सा टुकड़ा सिसकती हुई झरना को दिया जिसे वीर ने दुर्घटना के तुरन्त बाद फ़त्ते की सहायता से लिखा था।
प्रिय झरना,

बाबा रे, मेरी परी को इतना गुस्सा आता है! सब दिखावा है न? मुझे पता है कि तुम मुझे चाहती हो। मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ। मेरे मरते दम तक तुम मेरे दिल में रहोगी। ईश्वर तुम्हें सकुशल रखे।

केवल तुम्हारा,
अनुरागी मन
[समाप्त (अंततः)]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* नहीं जाना कुँवर जी - पीनाज़ मसानी - अमीर आदमी गरीब आदमी
* अनुरागी मन - लता मंगेशकर - रजनीगन्धा

अनुरागी मन - कहानी (भाग 20)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17भाग 18भाग 19;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ झरना को देखा परंतु झरना ने बात करना तो दूर, उन्हें पहचानने से भी इनकार कर दिया।
अब आगे भाग 20 ...
कंसर्ट के समापन तक कार्यक्रम स्थल का माहौल किसी उत्सव जैसा हो गया था। मगर वीर के दिल में मुर्दनी छाई थी। वे मानो नई सराय की उसी रात को उसी नहर के किनारे के श्मशानघाट में खड़े थे जहाँ दादाजी की चिता जल रही थी। लपटें उनके बदन को छू रही थीं, वे झुलस रहे थे। उनको बार-बार अपने जीवन पर धिक्कार हो रहा था। कैसे व्यक्ति हैं वे? अनजाने में ही सही, पर पहले किसी को इतना सताया और अब समय आने पर ढंग से क्षमा तक नहीं मांग पाये।

बाहर आकर कार में बैठने तक दोनों साथी वीर का एक-एक हाथ पकड़े हुए उनके दायें-बायें चलते रहे। ईर ने प्रस्ताव रखा कि आज गाड़ी वह चलायेगा और फ़त्ते वीर के साथ पीछे बैठेगा।

"मैं उससे मिलने जाऊँगा। वासिफ़ के अब्बा से मिलकर उसे खोजूंगा। उनसे ज़रूर मिली होगी वह।"

"मिल तो लिया तू एक बार। अब क्यों जायेगा फिर से?" अरविन्द झ्ंझलाया। वह आज की घटना से बहुत अप्रसन्न था।

"माफ़ी मांगने, और क्यों?" वीर ने स्पष्ट किया।

"आज मांग तो ली तूने माफ़ी" फत्ते ने दृढ स्वर में कहा, "तू नहीं जाता, अब वह आयेगी तुझसे मिलने, माफ़ी मांगने ..." फ़त्ते रुका नहीं "हम कोई गिरे पड़े नहीं है। लाइन लगी है लड़कियों की। वह समझती क्या है अपने आप को। "

"लेकिन ... उसकी ग़लती नहीं है" वीर ने सफ़ाई सी दी।

"बहुत खूबसूरत है वो? हूर की परी? मेरा भाई भी लाखों में एक है। जो लड़की तेरे जैसे को नहीं पहचानी, वो बेकार है, एकदम बेकार! शराफ़त की भी एक हद होती है।"

"और मैंने जो दुःख दिया है उसे, उसका क्या?"

"अरे तू गया तो था माफ़ी मांगने। हम सब सुन रहे थे पीछे खड़े हुए। ओ वीर, दुनिया देखी है मैंने। ये लड़की तेरे लायक नहीं है" फ़त्ते पहले तो गुस्सा हुआ और फिर अपने को शांत करते हुए बोला, "लेकिन सब्र कर, अगर तेरी मर्ज़ी यही है तो वो तुझे मिलेगी ज़रूर, वो खुद आयेगी। लेकिन ये होगा तभी जब तू अपनी तरफ़ से उससे बिल्कुल भी न मिले।"

"कैसे आयेगी अपने आप? क्या पता आज की ही वापसी फ़्लाइट हो उसकी?" वीर सम्भावनायें तलाश रहे थे।

"तो अगली फ़्लाइट में मिलना" गाड़ी चलाता हुआ ईर भी बातचीत में शामिल था।

"ओये तू मुर्गे की तरह गर्दन पाछे क्यों कर रहा है। सामने देख के चला। छोरे को घर पहुँचाने की ज़िम्मेदारी अब तेरे ही ऊपर है।

"और तुम्हारा क्या?" ईर हँसा।

"हम तो अब इसके लिये एक स्वर्ग की परी ढूँढकर लायेंगे ... अब हँस भी दे मेरे भाई। कह दिया न वो आयेगी। कैसे आयेगी ये हमारे भरोसे पर छोड़ दे।"

चींSSS ...। जब तक ईर देख पाता चौराहे पर बती लाल हो चुकी थी। उसने एकदम से ब्रेक लगाये। नई गाड़ी, नये टायर होते हुए भी सड़क पर पड़ी नन्ही रोड़ी व धूल के कारण पहियों की पकड़ न बन सकी। गाड़ी एक झटके के साथ रुकी लेकिन जब तक तीनों होश पाते, एक झटका और लगा। ईर तो रुक गया था मगर उनके पीछे तेज़ी से आता हुआ ट्रक रुकने के मूड में नहीं था। जब तक संभलते, लोहे की शीट्स से लदा ट्रक इनकी कार का बायाँ भाग छील चुका था। और कार के साथ ही छिले थे वीर सिंह। झटके तीनों को लगे परंतु वीर सिंह का वामस्कन्ध रगड़ा गया, शायद हड्डी टूटी थी। रक्त भी बहने लगा। वे बहुत पीड़ा में थे और दुर्भाग्य यह कि पूरे होशोहवास में थे।

ईर ने गाड़ी से बाहर निकलकर आते जाते वाहनों को रोकने का असफल प्रयास किया जबकि फ़त्ते ने वीर को सम्भाला।

"अगर मैं जीवित नहीं रहूँ तो परी से मेरी तरफ़ से तुम ही माफ़ी मांग लेना।"

"तुझे तो कुछ हुआ ही नहीं। ऐसे मत बोल। मरहम पट्टी करके ठीक कर देंगे तुझे।"

"एक काम कर दो मेरा ..." वीर ने हाथ बढ़ाया। फ़त्ते ने वीर को इतना हताश पहले कभी भी नहीं देखा था।

किस्मत अच्छी थी। कुछ ही देर में, दिल्ली पुलिस की एक पीसीआर जिप्सी वहाँ थी, पीछे-पीछे दूसरी। कुछ ही देर में तीनों सफ़दरजंग अस्पताल में थे। वीर पहले उधर से कई बार निकल चुके थे। एमर्जेंसी के बाहर कतार से सीधे खड़े शाल्मली के लाल फूलों से आच्छादित ऊँचे विशाल वृक्ष उन्हें बहुत पसन्द थे मगर आज यहाँ होते हुए भी वे उन्हें देख नहीं सके थे।

[क्रमशः]

Tuesday, October 18, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 19)

नोट: आज यह पोस्ट लिखते समय कठिनाई हुई, फिर ईमेल में सस्पिशस ऐक्टिविटी की चेतावनी मिली। सुरक्षा सम्बन्धी समुचित कदम उठाने के बाद अब पोस्ट लिख पा रहा हूँ। यदि वर्तनी या व्याकरण आदि की कुछ ग़लतियाँ होंगी तो बाद में ठीक कर दूंगा। पहले भी कई बार कुछ पोस्ट्स ब्लैंक हो चुकी हैं परंतु अधिकांश बाद में रिकवर की जा सकी थीं। फ़िकर नास्त, अल्लाह मेहरबान अस्त!

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17भाग 18;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये। फिर एक दिन जब तीनों परिक्रमा रेस्त्राँ में थे तब वीर ने वहाँ किसी को देखा।
अब आगे भाग 19 ...

"बीर को भी पसन्द आ गये शायद। देख, ठंडाई भी न पी इसने तो।" फ़तहसिंह खुश था।

"एक मिनट" वीर जो देखना चाह रहे थे, वह रेस्त्राँ की गोलाई के कारण अब तक पक्का नहीं हो पाया था। उन्हें अनजान लोगों को घूरना पसन्द नहीं था इसलिये उस समय सच उनसे कुछ हद तक ओझल सा था। और तभी उसने मेनू किनारे रखते हुए चेहरा ऊपर उठाया। दोनों की आँखें चार हुईं। फिर उसने सिर झुका लिया। वीर को अपने भाग्य पर विश्वास न हुआ। उनका दिल बल्लियों उछलने लगा। एक-एक क्षणांश भी मानो कई युगों के बराबर हो गया।

सब कुछ भूलकर वे उठे और सीधे उस मेज़ पर जाकर रुके।

"हाय, कैसी हो?" उनकी प्रसन्नता आवाज़ से छलकी पड़ रही थी, "यक़ीन नहीं करोगी कि इतने दिन बाद आज तुम्हें अचानक सामने पाकर मैं कितना खुश हूँ।"

अपनी अप्सरा के सामीप्य ने मानो उन्हें ज़मीन से उठाकर आसमान में पहुँचा दिया था।

झरना ने नज़रें उठाकर उन्हें भरपूर देखा, "हू आर यू? व्हाट डू यू वांट?"

उसके साथ बैठे चारों लोगों ने वीर को प्रश्नवाचक नज़र से देखा।

"परी ... अप्सरा ... झरना ..." इस अप्रत्याशित मोड़ को देखकर वीर भौंचक्के से रह गये। मानो किसी ने उनकी गर्दन मरोड़ दी हो। उनका शरीर बेजान सा हो गया, गला सूखने लगा। फिर भी साहस करके बोले, "नई सराय, बरेली, वासिफ़ खाँ, ज़रीना खानम ..."

"कहा न, मैं आपको नहीं जानती" उसने नज़रें नीची कर लीं और साथ रखा हुआ मेनू उठाकर उसे पढने का उपक्रम किया।

"वीर ... याद करो ... वीर हूँ मैं, नाराज़ हो मुझसे?"

"कौन वीर? मैं किसी वीर को नहीं जानती।"

"एए मिस्टर ..." साथ के लड़के ने वीर की कलाई पकड़ी।
ईर और फ़त्ते भी कुछ गड़बड़ी भाँपकर वहाँ आ गये थे। फ़त्ते को देखकर उस लड़के ने वीर का हाथ छोड़ दिया

"मैं वीरसिंह हूँ, तुम्हारा अपना वीर। लिसन झरना, आयम सॉरी ..." वीर रूँआसे हो उठे, "मैं तुम्हारा दोषी हूँ, जो सज़ा चाहे दे दो। उफ़ नहीं करूँगा!"

"लैट्स गो गाईज़" उनकी बात का जवाब दिये बिना वह उठी।

"तुम्हें क्या हो गया है झरना?" कहकर वीर उसके सामने आ गये लेकिन फ़त्ते ने दृढता से उन्हें पकड़कर झरना को जाने का रास्ता दिया। वीर देखते ही रह गये और झरना बाहर निकल गयी। झरना के साथी भी उसके पीछे-पीछे चले गये।

वे देखते रहे, उन कदमों को जो सदा उनकी ओर बढ़ा करते थे, आज कितनी बेदर्दी से उनसे दूर चले गये। सब कुछ जैसे बिखर गया हो। क्या चाहते थे वे? क्षमायाचना? या उससे अलग कुछ और। वे अपने नसीब से लड़ते क्यों रहे। जब झरना पास आना चाहती थी तब वे दूर भागते रहे और आज जब वे अपनी ग़लती का प्रायश्चित करना चाहते हैं तब यह सब क्या हो रहा है? यदि फ़त्ते उन्हें कसकर पकड़े न होता तो वे किसी की परवाह किये बिना पीछे-पीछे दौड़ गये होते।

"वही है। अच्छी तरह से पहचानती है मुझे। नाराज़ है बस।" अंतिम वाक्य बड़ी कठिनाई से उनके मुँह से बाहर निकल सका। जिस सपने के लिये वे अब तक ज़िन्दा थे आज मानो टूट सा गया था। पल भर में उनका सब कुछ बिखर चुका था। सम्बन्ध तो शायद बनने से पहले ही टूट चुका था परंतु आज उसे फिर से जोड़ने के प्रयास में वे स्वयं भी टूट चुके थे।

"जानता हूँ भाई, सब जानता हूँ। फिकर मत ना कर। जल्दी ही सब ठीक होगा। तू रुक तो सही, बस दो चार दिन" फ़त्ते ने दिलासा दी, "हम मिलायेंगे तुम दोनों को। वो तेरी है, तेरी ही रहेगी। भरोसा रख इस देहाती पर।"

वेटर ने पास आकर याद दिलाया कि ऑर्डर सर्व हो गया था। पर वहाँ भूख किसको थी। फ़त्ते ने ज़बर्दस्ती सी करके वीर को खिलाया। सदा शांत रहने वाला अरविन्द भी बेचैन सा लग रहा था। जितना सम्भव हुआ उतना खाकर प्लेटें हटवाकर भी वे काफ़ी देर वहाँ बैठे रहे। वीर लगातार झरना के बारे में कोई न कोई बात याद करके बोलते रहे और बाकी दोनों चुपचाप सुनते रहे।

कार्यक्रम का समय होने पर तीनों वहाँ पहुँचे। सबसे आगे तो नहीं, पर उनकी सीट स्टेज के इतना पास थी कि वे जगजीत सिंह के हाव-भाव स्पष्ट देख सकते थे। ईर व फ़तह उनके आजू-बाज़ू बैठे। पहले तो वे अपने ही ख्यालों में खोये अपने को यह विश्वास दिलाते रहे कि कुछ देर पहले जो हुआ वह सपना नहीं सच था। कार्यक्रम आरम्भ हुआ, अब हर ग़ज़ल उन्हें अपनी और झरना की कहानी लग रही थी।

[क्रमशः]

Monday, October 17, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 18)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16भाग 17;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये। ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया। वीर की नौकरी लगी और ईर, बीर, फ़त्ते साथ में नोएडा रहने लगे। वीर ने अपनी दर्दभरी दास्ताँ दोस्तों को सुनाई और वे तीनों झरना के लिये मन्नत मांगने थानेसर पहुँच गये।
अब आगे भाग 18 ...

"अबे कब तक सोते रहोगे तुम लोग?" यह लट्ठमार स्वर घर के मालिक फ़तहसिंह का था।

"उठ जा बच्चे, ईर तो तैयार भी हो लिया, तूई बचा रै गया इब तक।"

वीर ने आँखें खोलीं तो फ़त्ते को सजा-धजा, एकदम तैयार अपने कमरे में पाया। सुबह सुबह, छुट्टी के दिन!

"आज इतनी जल्दी कैसे उठ गये?" वीर ने अंगड़ाई लेते हुए पूछा।

"सुबह? 12 बज लिये हैं और तेरे चेहरे पे इबी 12 बज रहे हैं, उठ जा इब वरना ..." फ़त्ते ने शरारत से हाथ के टिकट हवा में हिलाते हुए कहा, " ... वरना जगजीत सिंह को देख नहीं पायेगा।

चादर झटक कर वीर बिस्तर से बाहर कूदे और फ़त्ते के हाथ से छीनकर टिकट देखे। वाकई जगजीत सिंह के कंसर्ट के तीन टिकट थे। यह तो उन्हें पता था कि दिल्ली में कंसर्ट था, उनकी इच्छा भी थी मगर टिकट महंगा होने, स्थल दूर होने और उस पर दोनों साथियों की संगीत में कोई खास रुचि न होने के कारण उन्होंने अधिक प्रयास नहीं किया था। पता लगा कि फ़त्ते ने खास उनके लिये अपने "कनेक्शंस" का प्रयोग करके बिल्कुल आगे के ये वीआइपी टिकट मंगवाये थे।

"हम तुझे खुस देखना चाहते हैं हीरो। इब नहा धो कै राजा बेटा बन जा फ़टाफ़ट, फेर निकलते हैं।"

"लेकिन इतनी जल्दी? क्या वहाँ गेट पर टिकट हमने ही चैक करने हैं?"

"देर मती न कर भाई, खाना दिल्ली में ही खायेंगे।"

कुछ ही देर में तीनों दोस्त फ़त्ते की गाड़ी में दिल्ली के लिये निकल पड़े। पहले तो परिक्रमा पहुँचे। फ़त्ते अपनी पार्टियों के साथ वहाँ आता रहता था परंतु वीर के लिये रिवॉल्विंग रेस्त्राँ में बैठकर घूमती दिल्ली देखने का अनुभव अद्भुत था। दल का अलिखित नियम था कि जब फ़त्ते खुद कहकर अपनी पसन्द की जगह लेकर जाता तो ट्रिप का स्पॉंसर वही होता था। सो आज का बिल भी उसी के नाम था।

ऐपेटाइज़र्स आ गये थे। खाते जा रहे थे, दिल्ली की परिक्रमा भी चल रही थी और मज़ाक भी। झरना का नाम लेकर दोनों वीर की शादी की वेन्यू तय करने के लिये झगड़ रहे थे। एक को फ़ाइव स्टार चाहिये था और दूसरे को फ़ार्म हाउस। वीर भी उनके उल्लास से उत्साहित थे।

तभी फ़त्ते ने ईर को कोहनी मारते हुए कहा, "ठाँ ठाँ, सामने।" और दोनों चुप होकर सामने देखने लगे। वीर उनका इशारा समझकर मन ही मन बोले, "कभी नहीं सुधरेंगे ये" फिर बोलकर फ़त्ते से कहा, "अरविन्द को भी बिगाड़ देना अपने साथ।"

"यो!" फत्ते ने हँसी से लोटपोट सा होते हुए कहा, "उल्टा इस चालू ने मुझे बिगाड़ा है।"

"पलटकर देख तो सही, तू भी बिगड़ जायेगा, झरना, ज़रीना सब भूल के" इस बार चुटकी लेने वाला ईर था।

तब तक जिनकी बात हो रही थी वे लोग अन्दर आकर इन लोगों के विपरीत टेबल पर बैठने लगे थे। वीर ने कनखियों से देखा और देखता ही रह गया।

"काँड़ी आँख से मत देख, घुमा ले गर्दन अपनी, आ सीट बदल ले मेरे से छोरे।" फ़त्ते ने अपने स्थान से उठकर वीर के पास आकर उनको आग्रहपूर्वक उठाकर अपनी सीट पर भेज दिया। यहाँ से सामने का दृश्य एकदम स्पष्ट था। वे पाँच लोग थे, दो लड़के और तीन लडकियाँ। उसे अपनी किस्मत पर विश्वास नहीं हो रहा था। ऐसे भी होता है क्या? एक हफ्ते मन्नत मांगो और दूसरे हफ्ते सच? वही है? नहीं है? वही है? अभी-अभी क्या चमत्कार हो गया था इसका वीर के साथियों को बिल्कुल भी अन्दाज़ नहीं था।

[क्रमशः]

Sunday, October 16, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 17)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1भाग 2भाग 3भाग 4भाग 5भाग 6भाग 7भाग 8भाग 9भाग 10भाग 11भाग 12भाग 13भाग 14भाग 15भाग 16;
पिछले अंकों में आपने पढा: दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया। और उसके बाद निक्की के बारे में भी सब कुछ स्पष्ट हो गया।
अब आगे भाग 17 ...
अब वीर झरना के अपराधी थे और हरदम प्रायश्चित की अग्नि में जल रहे थे। पाप धोने का कोई साधन उनके पास नहीं था। झरना का केन्या का कोई सम्पर्क वासिफ़ के पास नहीं था। उसके माता-पिता के अवसान के कारण यह भी तय नहीं था कि उसकी अगली भारत यात्रा कब होगी, होगी भी या नहीं। मुलाकात का कोई और रास्ता सूझता नहीं था। पिछले झटकों से हाल ही में उबरे वीर के लिये यह चोट काफ़ी गहरी थी। अपने किसी खास का दिल दुखाने का बोझ उनके दिल पर बैठ गया था। पढाई में सदा अव्वल रहने वाले वीर पिछड़ने लगे। सगे सम्बन्धियों ने घोषणा सी कर दी कि अब वे आगे पढ नहीं पायेंगे। आस-पड़ोस की महिलायें भी माँ को उनसे कोई नौकरी करवाने की सलाह देने लगीं। वीर को स्वयं भी यह समझ नहीं आता था कि वे अब तक अपने माता-पिता पर बोझ क्यों बने हुए हैं। क्या से क्या हो गया और वे कुछ कर भी नहीं पाये। काश वे पल भर के लिये अपनी समस्याओं के खोल से बाहर आ पाते और झरना के हृदय के भावों को पहचानने का प्रयास करते!

समय बीतता गया। विद्यालय में उल्टे सीधे अंकों से वीर आगे तो बढे परंतु कक्षा बढने के साथ-साथ उनका वैराग्य भी अधिक बढता गया। अब वे अपने नगर और सभी परिचितों से बुरी तरह उकता चुके थे। उन्होंने कुछ सरकारी नौकरियों की तलाश आरम्भ की। बीए पास होते-होते वे इक्कीस वर्ष के हो गये और जल्दी ही उन्होंने अपने आपको एक प्रतिष्ठित बैंक में काम करते हुए पाया। माँ दादी के पास रहने चली गयीं और वे अरविन्द के साथ फ़त्ते के घर नोइडा में किराये पर रहने लगे।

नई नौकरी और नये मित्रों का साथ मिलने से वीरसिंह का दर्द कम हुआ था। तीनों अपनी मर्ज़ी के मालिक थे। दिन में डटकर काम करते और शाम को मस्ती। सप्ताहांत में दिल्ली या आसपास के किसी पर्यटन स्थल चले जाते। जंतर मंतर और कुतुब मीनार से आरम्भ हुई साप्ताहिक यात्रायें बडकल और सूरजकुण्ड होते हुए अब मसूरी, हरिद्वार तक पहुँच चुकी थीं। सब कुछ ठीक-ठाक होते हुए भी हँसते-खेलते वीर को अचानक अपने घेरे में ले लेने वाली उदासी का कारण जानने के लिये पिछले कई दिनों से अरविन्द और फ़तह उनके पीछे पड़े हुए थे। अब झरना-वीर की कहानी पूरी होते तक सभी होनी के खेल से दुखी थे। ईर व फ़त्ते ने वीर को ढाढस बन्धाया कि झरना उसे जल्दी ही मिलेगी। फत्ते तो अगले रविवार को ही उसे हरयाणा में थानेसर स्थित शेख चिल्ली की मज़ार ले जाने वाला था। उसकी मान्यता है कि वहाँ मन्नत मांगने से बिछड़े हुए प्रेमी अवश्य मिलते हैं। वह ऐसे कई लोगों को जानता भी है जिनका काम वहाँ जाने से हुआ।

वीर तो शेख चिल्ली की बात को मज़ाक ही समझ रहे थे मगर जब ईर ने बताया कि दारा शिकोह के गुरु सूफ़ी संत रज़्ज़ाक अब्दुल रहीम अब्दुल करीम ही चालीस दिन तक थानेसर में ईश्वर की उपासना "चिल्ला" करते रहने के कारण शेख चिल्ली कहलाते थे तो बात वीर की समझ में धंस गयी। अगले रविवार को वे तीनों थानेसर पहुँच गये। लाल पत्थर और संगे-मरमर का बना हुआ शेख चिल्ली का मकबरा एक सुन्दर भवन था। यह भवन दारा शिकोह ने अपने गुरु के लिये बनवाया था और वह महीनों तक यहाँ अपने गुरु के चरणों में अध्ययन-मनन करता था। शेख चिल्ली की मृत्यु के बाद इसी इमारत को उनका मकबरा बना दिया गया। भवन और उसका उद्यान मनभावन थे। पुराना तालाब, सूखी नहर, मुग़ल बाग़ की हरियाली, पत्थर मस्जिद आदि भी वीर को बहुत सुन्दर लगा।

तीनों ने झरना की वापसी की दुआ मांगी
पता नहीं यह साथियों का सहारा था या दिल की गिरह खुल जाने की बात थी या सचमुच शेख चिल्ली की इनायत, थानेसर जाने के बाद से वीर अब प्रसन्न रहने लगे थे। उनके पास अपनी खोयी हुई ज़िन्दगी का सुराग़ लगाने का कोई निश्चित तरीका तो नहीं था पर फिर भी अब उन्हें कहीं न कहीं यह लगने लगा था कि उनका और झरना का मिलन जल्दी ही होने वाला है। क्या पता वह नई सराय आये और फिर माँ और दादी से मिलकर उनका पता मांगकर यहाँ आये। या फिर वहाँ पहुँचकर वासिफ़ द्वारा उन्हें बुलवा भेजे। कौन जाने कैसे हो, मगर यह मिलन जल्दी ही होना है, उनका ऐसा विश्वास बनने लगा था। क्या आशा की यह किरण सच्ची थी?


[क्रमशः]

Saturday, October 8, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 16)

अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13; भाग 14; भाग 15;
पिछले अंकों में आपने पढा:
दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे, फिर पता पता लगा कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये| ज़रीना खानम के विवाह के अवसर पर झरना के विषय में हुई बड़ी ग़लतफ़हमी सामने आयी जिसने वीर के हृदय को ग्लानि से भर दिया।
अब आगे भाग 16 ...
ज़रीना की शादी के बाद दो दिन तक वीर अपने घर से बाहर नहीं निकले। तीसरे दिन वासिफ़ उनसे मिलने आया। बहुत दिन बाद दो जिगरी दोस्त एक साथ शाम की सैर पर गये। झरना के बारे में बहुत बात हुई। कहानी काफ़ी लम्बी थी। वह सब ईर और फ़त्ते को सुनाकर वीर उन्हें बोर नहीं करना चाहते थे। लेकिन उन्होंने इतना बताया कि झरना का वासिफ़ से कोई रक्त-सम्बन्ध नहीं था। वासिफ़ के दादा झरना फर्शस्ती के पारसी दादा की नई सराय स्थित सम्पत्ति के प्रबन्धक थे। अंग्रेज़ों के समय से ही कई नगरों में उसके परिवार की स्थाई सम्पत्ति थी। नई सराय का पहला पेट्रोल पम्प, बरेली की पहली कत्था फ़ैक्ट्री और अमरोहा के कुछ बाग़ान के अलावा दिल्ली और कानपुर में भी उनका व्यवसाय था। झरना का जन्म केन्या में हुआ था। काफ़ी पहले एक सड़क दुर्घटना में उसके पिता गुज़र चुके थे। अपने पुराने कारकुनों के विश्वास पर व्यवसाय का सारा काम माँ-बेटी ही देखती थीं। झरना और उसकी माँ उसी सिलसिले में हर साल गर्मियों में भारत आते थे। माँ की तबियत बिगड़ने के कारण इस बार वह अकेले ही आयी थी और इसी बीच उनकी मृत्यु के कारण उसे अचानक वापस जाना पड़ा था।

जब वीर घर वापस आये तो माँ पिता के लिये पत्र लिख रही थीं। वीर ने भी महीनों बाद अपने पिता के लिये एक अच्छा सा पत्र लिखकर उसे माँ के पत्र के साथ ही लिफ़ाफे में बन्द किया और नुक्कड़ पर लगी डाकपेटी में डालकर आ गये। माँ खाना लगाने लगीं। वीर ने अपनी ममतामयी माँ को बड़े ध्यान से देखा।

कई मायनों में माँ इस परिवार की क्रांतिकारी बहू थीं। उन्होंने कभी घूंघट नहीं किया न ही पति का नाम लेने में झिझकीं। माँ ने कभी करवाचौथ का व्रत भी नहीं रखा था। वे उसे ज़रूरी नहीं मानती थीं परंतु उन्हें यह अहसास था कि हर साल निर्जला उपवास रखने वाली दादी इस बार अपने उपवास के देवता के बिना अकेली थीं। इसलिये करवाचौथ पर माँ वीर को साथ लेकर दादी से मिलने नई सराय आयीं। शाम का खाना खाकर सास बहू बातें करने लगीं। दादी थोड़ी भाव-विह्वल हो गयीं कि सदा उपवास करने के बाद भी वे विधवा हो गयीं। भरे गले से उन्होंने माँ के विवेक और उनके अन्धविश्वास से बचे रहने की प्रशंसा की।

माँ और दादी अभी भी बातें कर रहे थे परंतु बातों का रुख आस-पड़ोस के ताज़ा समाचार की ओर मुड़ चुका था। वीर उठकर छत पर आये और फिर छज्जे पर खड़े होकर बाहर का नज़ारा करने लगे। लजाती-शर्माती नववधू से लेकर वयोवृद्ध महिलायें तक आज नखशिख तक गहनों में सजी दिख रही थीं। प्रदेश के अन्य क्षेत्रों के विपरीत नई सराय और आसपास के क्षेत्रों में अविवाहितायें भी करवा चौथ का व्रत रखती थीं। मान्यता यह थी कि उनका पति तो उनसे पहले ही कहीं जन्म ले चुका है सो उपवास होना ही चाहिये। वीर को ख्याल आया कि उनकी बहन यदि जीवित होती तो माँ की तरह वह भी शायद ऐसा उपवास नहीं करती। अनदेखी बहन की याद आने पर भी आज वे उदास नहीं थे, अपने अन्दर आये इस परिवर्तन का श्रेय वे अपने डायरी लेखन को दे सकते थे।

ये तूने क्या किया वीर?
आजकल वे उदास कम ही होते थे लेकिन झरना के प्रति अपने दुर्व्यवहार के कारण एक ग्लानि सी उन्हें घेरे रहती थी। बिना माँ-बाप की एक निश्छल बेटी। न जाने कब मिलेगी और कब वे अपने कृत्यों की क्षमा मांग सकेंगे। सोचते-सोचते कब अन्धेरा घिर आया, और कब चांद खिला, उन्हें पता ही न लगा। वे हटकर अन्दर जाने को हुए ही थे कि देखा सामने मैदान में एकत्रित महिलाओं से अलग हटकर खड़ी एक लड़की चन्द्रमा को अर्ध्य देने के बाद उनकी ओर मुड़कर उन्हें झुककर प्रणाम कर रही थी।

ध्यान से देखने पर पता लगा कि वह पड़ोस की शरारती निक्की ही थी। वीर जी शर्मा गये और झटके से मुड़कर अन्दर आ गये। तीनों जन ने साथ बैठकर खाना खाया। माँ और दादी को रसोई में छोड़कर वीरसिंह सोने चले। सोने से पहले उन्होंने डायरी में आज की घटनाओं को विस्तार से लिखा। वे समझ नहीं पाये कि निक्की को उनके बारे में भ्रम कैसे पैदा हुआ। उन्होंने तो सदा उसे अपनी बहन जैसा ही माना था और वैसा ही व्यवहार किया था।

सुबह जब किसी ने माथे पर हाथ रखा तो उनकी आँख खुली। चाय लेकर अपने सिरहाने खड़ी निक्की को देखकर उनके माथे पर बल पड़ गये। अपने शब्दों को संवारते हुए उन्होंने धीरे से कहा, "तुम्हें तकलीफ़ करने की क्या ज़रूरत थी? माँ और दादी कहाँ हैं?"

"क्यों? यह भी तो मेरा ही घर है? अपने घर के काम में तकलीफ़ कैसी? वैसे काम में लगी हैं दोनों? पूरे घर की धुलाई हो रही है।"

प्याला हाथ में थमाकर निक्की सामने ही कुर्सी पर बैठ गयी।

"कल रात क्या कर रही थी?" वीर ने अपनी आवाज़ को यथासंभव संयत रखते हुए पूछा।

"आपने देख लिया था?" निक्की ने लजाते हुए पूछा।

"हम नई सराय के कुँवर जी हैं, यहाँ हमसे कुछ भी छिप नहीं सकता है।"

"तब तो आपको पता होना चाहिये कि हमने अपना वर चुन लिया है" निक्की ने अपने बिन्दास अन्दाज़ में कहा।

"ज़रा सी तो हो, अभी पढने-लिखने की उम्र है तुम्हारी।"

"आपसे बस छह मास छोटी हूँ, 17 की हो चुकी हूँ मैं, कोई बच्ची नहीं हूँ।"

"अच्छा!" वीर का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया, न जाने क्यों वे निक्की को 10-12 साल का ही समझते थे।

" तो सुना दो अपने वरदान का राज़ ..." वीर आगत का सामना करने की तैयारी कर रहे थे।

"मेरा चन्द्रमा तो कल चन्द्रमा निकलने के साथ ही आपके दरवाज़े के साथ आकर खड़ा हो गया था।"

"अरे वाह! कौन है वह?" वीर की वाणी का उल्लास छिपाये न छिपा।

"मंगल ... मिश्र अंकल का बेटा। बहुत अच्छा लड़का है। पढाकू है। और आपकी तो बहुत इज़्ज़त करता है। ... मतलब, आपकी इज़्ज़त तो सभी करते हैं, ... मैं भी करती हूँ।"

"अच्छा! तो यह बात है।" वीर प्रसन्न थे फिर भी एक उलझन थी, " ... अब यह बताओ कि वह पत्र क्यों लिखा था मुझे?"

"कौन सा?" निक्की सोच में पड़ गयी।

"वही जो पिछली बार मेरे बरेली जाते हुए दिया था तुमने।"

"अच्छा वो! धत्! मैं आपको क्यों लिखने लगी वैसा पत्र?" वह चुन्नी दांत से काटने लगी, "वह तो झरना जी ने आपको दिया था जब वे यहाँ आयी थीं, दादाजी की ग़मी में।"

"उसने दिया था? तुम सच बोल रही हो?" वीर को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ।

"हाँ भैया, उन्होंने तो आपको ही दिया था लेकिन तब आप होश में कहाँ थे। नीचे गिरा दिया था। मैंने ही उठाया और अपने पास रख लिया था ताकि किसी के हाथ न पड़े।"

"हे राम!"

"झरना जी बहुत अच्छी हैं भैया, लाखों में एक। आप दोनों की जोड़ी बहुत सुन्दर है। वे आपकी दीवानी हैं, उन्हें निराश मत कीजियेगा।"

वीर का दिल फिर बैठ गया। उनकी आँखों के सामने क्या-क्या होता रहा और वे कुछ भी देख नहीं पाये!

[क्रमशः]

Friday, October 7, 2011

अनुरागी मन - कहानी (भाग 15)

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6;
भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13; भाग 14;
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पिछले अंकों में आपने पढा:
दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे ... और अब यह नई बात पता पता लगी कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डाँवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीड़ा कह पाते। तभी अचानक रज्जू भैय्या घर आये और जीवन सम्बन्धी कुछ सूत्र दे गये
अब आगे भाग 15 ...
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डायरी लिखने की सलाह जम गयी। रज्जू भैया की सलाह द्वारा वीर ने अनजाने ही अपने जीवन का अवलोकन आरम्भ कर दिया था। डायरी के पन्नों में वे अपने जीवन को साक्षीभाव से देखने लगे थे। वीर ने अपने मन के सभी भाव कागज़ पर उकेर दिये। कुछ घाव भरने लगे थे, कुछ बिल्कुल सूख गये थे। दादाजी का जाना, पिताजी का कठिन जीवन, दादी का अकेलापन, बहन की मृत्यु, सारे ग़म मानो डायरी के पन्नों में आते ही सिकुड़ गये। टीसते थे परंतु अब खुले ज़ख्मों से रक्त नहीं बह रहा था सिवाय एक जगह के। झरना की याद, उसका प्रेममय व्यवहार, और उसकी बातें अब भी उनका हृदय छलनी कर जाती थीं। लाख सोचने पर भी वे समझ नहीं पाते थे कि उनके जीवन से इतना बड़ा खिलवाड़ कैसे हो गया। एक वाग्दत्ता उनकी भावनाओं के साथ क्यों खेलती रही? उनकी पीड़ा उनकी कविताओं में निखरकर आ रही थी जो कि अब स्थानीय पत्र में छपने भी लगी थीं। दिल दुखता तो था मगर अब तक वे इतना सम्भल चुके थे कि यदि झरना सामने पड़ जाती तो अपने दिल की हलचल को सबसे छिपाकर ऊपर से सामान्य व्यवहार कर सकते थे।

दुल्हन आ चुकी थी
दो महीने कब बीत गये पता ही न चला। माँ ने वीर को याद दिलाया कि आज ज़रीना की शादी का दिन था। दोनों तैयार होकर वासिफ़ के घर पहुँच गये। सब लोग अच्छी प्रकार से मिले। माँ महिलाओं के बीच ग़ुम हो गयीं जबकि वीर को वासिफ़ अपने साथ ले गया। ऊपर से संयत दिखने का प्रयास करते हुए वीर को यह डर नहीं था कि क्या वे सचमुच अपनी अप्सरा को किसी और का होते हुए देख पायेंगे। उन्हें अपने ऊपर इतना भरोसा तो था ही। लेकिन वे यह अवश्य देखना चाहते थे कि अपने विवाह के समय उन्हें उपस्थित पाकर झरना कितना सामान्य रह पाती है। वीर को अब तक पता नहीं था कि अलग-अलग सम्प्रदायों में विवाह के रिवाज़ कितने अलग होते हैं। घरातियों के साथ मिलकर वीर ने भी गुलाब की पंखुड़ियाँ बिछाकर बारात का स्वागत किया। दूल्हे और बरातियों को हार पहनाये गये और सेहरे पढे गये। कुछ लोगों ने दूल्हे को घेरकर उसके ऊपर चादर से एक छत्र सा बनाया और उसके आसन तक ले आये। दुल्हन भी सामने आ चुकी थी परंतु अभी उसका चेहरा फूलों के सेहरे के पीछे छिपा हुआ था। जल्दी ही सब अतिथियों ने भी अपने आसन ग्रहण कर लिये। निकाह पढा जाने से पहले वासिफ़ की अम्मी ने दुल्हन का सेहरा किनारे करते हुए उसका गाल चूमा तो वीर को मानो झटका सा लगा। वह झरना नहीं थी। उन्हें झरना के साथ पहले दिन हुआ अपना सम्वाद याद आया।

“वासिफ की छोटी बहन हैं आप?”

“नहीं”

“तो बड़ी हैं क्या?”

“नहीं”

हे राम! वे इतनी स्पष्ट बात का अर्थ भी नहीं समझ सके थे। इसका मतलब यह कि झरना वासिफ़ की बहन नहीं है। भगवान भी उनके साथ कैसा मज़ाक करता रहा और वे पहचान भी न सके। वीर, यह क्या कर दिया तूने? किसी के अनुरागी मन को अपवित्र समझा और आक्षेप लगाये। झरना और ज़रीना अलग-अलग हैं यह विचार मन में आते ही उन्होंने लड़कियों की दिशा में खोजना शुरू किया मगर झरना यदि वहाँ होती तो उस भीड़ में भी सबसे अलग दमक रही होती। शायद उन्हें देखकर स्वयं ही उनके पास चली आई होती।

विवाह की रस्म चल ही रही थीं कि वासिफ़ उनके पास आकर कान में कुछ फुसफुसाया। उन्होंने उसकी बात को अनसुना करके पूछा, "झरना कहाँ है?"

"झरना? वह तो कब की चली गयी। जाने से पहले तुम्हारे घर गयी तो थी मिलने। बताया नहीं क्या?"

"क्या? वह मेरे घर बताने आयी थी? यह सब क्या हो गया?"

"हाँ, मैं साथ आ रहा था पर वह अकेले ही जाना चाहती थी। चल क्या रहा है तुम लोगों के बीच?"

वे कुछ कह पाते इसके पहले कोई वासिफ़ को पकड़कर उसे अपने साथ ले गया।

ज़रीना का विवाह भली प्रकार सम्पन्न हुआ। उस दिन वासिफ़ से फिर उनकी मुलाक़ात नहीं हो सकी। माँ के साथ वे अपने घर पहुँचे। वीर रात भर अपनी डायरी में बहुत कुछ लिखते रहे। लिखने से कहीं अधिक पढ़ा भी डायरी के पिछले पन्नों से। जितना पढ़ते जाते उनका दिल उतना ही पिघलता जाता। कितना दोष दिया उन्होंने झरना को ... उन अपराधों के लिये जो उसने कभी किये ही नहीं। सच है कि पिछले दिनों वे बहुत कठिनाइयों से गुज़रे थे लेकिन उसमें झरना का कोई दोष नहीं था। झरना पर अविश्वास करके न केवल उन्होंने अपनी कठिनाइयाँ बढाईं बल्कि अपनी अप्सरा का दिल ... अप्सरा का दिल कैसे तोड़ते रहे वे? वीर का हृदय ग्लानि से भर गया। कमरे की हर बत्ती जल रही थी मगर उनके दिल में घना अन्धेरा था। रोशनी कैसे आये? अपनी ग़लतियों का प्रायश्चित कैसे हो? झरना है कहाँ? कब मिलेगी? कैसे मिलेगी?

[क्रमशः]

Friday, June 10, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 14

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5;
भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13;
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पिछले अंक में आपने पढा:
दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे ... और अब यह नई बात पता पता लगी कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते।
अब आगे भाग 14 ...
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उस रात वीर ने पहली बार अपनी भावनाओं को काग़ज़ पर उकेरा। अपने अन्दर छिपे बैठे कवि से यह उनका प्रथम परिचय था।
आंसू की अविरल धारा
बहने से रोक नही पाता
कोई आता


उनके अंतर के वैराग्य की अग्नि जितनी तेज़ी से प्रज्ज्वलित हो रही थी, वे उतनी ही बेचैनी से उसे संसार से, विशेषकर माँ से छिपाये रखना चाहते थे। इस प्रक्रिया में वे एक विरोधाभास को जन्म दे रहे थे। उन जैसा अंतर्मुखी व्यक्तित्व एक सामाजिक प्राणी में बदलता जा रहा था। उनकी मित्र मण्डली बढ़ती जा रही थी और पढ़ाई में रुचि कम होती जा रही थी। संगीत, फिल्म, साहित्य आदि में अचानक रुचि उत्पन्न हो चुकी थी। गुरुदत्त की फ़िल्में हों या ग़ुलाम अली की गायी ग़ज़लें, इब्ने इंशा की कवितायें हों चाहे मन्नू भंडारी और उपेन्द्रनाथ अश्क़ की कहानियाँ, सबको समय दिया जा रहा था।

अब वे अपने अन्दर एक गुण और महसूसने लगे थे। रहा शायद पहले भी हो पर उसका बोध उन्हें इसी काल में हुआ। वह था अपने से निर्लिप्त होकर अपने को देख पाना। उन दिनों अगर उन्हें अपने खिलाफ किसी मुकदमे का निर्णय देना होता तो वे पूरी निर्ममता को सहजता से निभा जाते।

शायद वे बिल्कुल यही कर भी रहे थे। नई सराय प्रवास में दादाजी की मृत्यु एक दुखद घटना थी। परंतु उस एक घटना के अतिरिक्त तब उनकी हर इच्छा जादुई तरीके से पूरी हो रही थी। बरेली वापस आने पर भी हो बिल्कुल यही रहा था, अंतर केवल इतना था कि अब कोई इच्छा नहीं रही थी, केवल एक शून्य था। उन्हें लगता था कि वे अवसादग्रस्त थे, शायद सही भी हो। पर साथ ही उन्हें यह भी लगता था कि यदि जीवन का अर्थहीन और क्षणभंगुर होना उन्हें नापसन्द है तो भी इससे जीवन अपना तरीका तो नहीं बदलेगा। नतीज़ा फिर वही निकलता, जीवन में रस ढूंढने का प्रयास। मतलब और कविता, कहानी, गीत, फ़िल्म।

एक दिन उन्होंने सब्ज़ी वाले खालिद को माँ से कहते सुना, "आवारा लड़कों से दोस्ताना चल्लिया है आजकल। अभी समझा दीजिये वन्ना एक दिन हाथ से निकल्लेंगे।"

वीर ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन उस दिन उनका ध्यान अटका जब वे रोज़ की तरह रोज़ी को भौतिकी की ट्यूशन पढाने गये और उसकी माँ ने बिना कारण बताये उन्हें आइन्दा घर आने से मना कर दिया। उन्हें बिल्कुल बुरा नहीं लगा। बस उनकी इंसान पहचानने की क्षमता के अभाव पर दु:ख हुआ।

"माईं, पालागन!" एक दिन अचानक से बड़ी बुआ के बेटे रज्जू भैया आ गये। वीर पर उनका विशेष स्नेह था। जब वीर सामने पड़े तो हमेशा की तरह गले लगने के बजाय उन्होंने वीर की बाँह पकड ली और माँ से पूछने लगे, "माईं, क्या खाना नहीं देतीं अपने सपूत को?"

बाद में जब उन्हें सिगरेट की तलब लगी तो शाम की सैर के बहाने वीर को लेकर घर से बाहर आ गये। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद एक कश लगाया और पूछने लगे, "कुछ परेशानी है?"

"नहीं तो!"

"कोई लौंडिया का चक्कर है क्या? न माने तौ हमैं बताओ, घर सै उठवा लें।"

"नहीं भैया, ऐसी बात होती भी तो भी मैं ऐसा काम नहीं होने देता।"

"सिगरेट पीते हौ? अब तो बड़े हो गए हो। ल्यो, पीओ।" रज्जू भैय्या ने सिगरेट वीर की तरफ बढाई।

"जी नहीं, मैं नहीं पीता" वीर ने विनम्रता से कहा।

"लौंडिया नहीं, नशा नहीं, फिर कोई भूत साध रहे हौ का जो ऐसा हाल बनाया है?" रज्जू भैय्या वाकई वीर के लिये चिंतित थे।

पहले खालिद, फिर रोज़ी की माँ, और अब रज्जू भैय्या, वीर को समझ आ गया कि अपनी बाहरी दिखावट पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। उन्हें आश्चर्य हुआ कि उनकी सुरुचिसम्पन्न माँ ने उन्हें इस बात के लिये एक बार भी नहीं टोका था।

"परेशान न हों भैय्या, सब ठीक है, सिचुएशन अंडर कंट्रोल।"

"अपना हाथ दिखइओ ज़रा" भैय्या ने हाथ ऐसे देखा मानो वे पहुँचे हुए ज्योतिषी हों। हाथ देखते ही वे चौंके और दूसरा हाथ पकडा और क्षण भर को दसों उंगलियाँ एक साथ देखकर बुदबुदाये, "दसों शंख जोगी ..." फिर एक गहरी साँस ली और बोले, "मेरी किसी बात का बुरा मत मानना ... वो ... घर से उठाना, सिग्रेट, भूत ... वगैरा।"

घर लौटते हुए रज्जू भैय्या ने बताया कि ऊपर से शांत और सहज दिखने वाली माँ वीर के बदलाव से बेखबर नहीं है। वह बहुत व्यथित है। उसी ने रज्जू भैय्या को बुलाया था ताकि वीर की परेशानी को समझकर हल किया जा सके। पर अब रज्जू भैय्या को लगता है कि परेशानी बस यही है कि पिताजी साथ में नहीं हैं। उन्हें घर बुलाकर बिठाया तो जा नहीं सकता इसलिये विकल्प है आत्मानुशासन का और आवारागर्दों से बचने का। उन्होंने वीर को डायरी लिखने की सलाह दी। इससे सातत्य भी आयेगा, आत्मावलोकन भी होगा और साथ के लिये मित्रों पर निर्भरता भी कम होगी। वीर सहमत थे। घर आकर दोनों ने ऐसे व्यवहार किया जैसे वीर के विषय में कोई बात ही न हुई हो।

[क्रमशः]

Thursday, June 9, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 13

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5;
भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12;
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पिछले अंक में आपने पढा:
वीर की नज़रें झरना से मिलीं। उन्होंने एक झटके से अपनी पतंग की डोर तोड़ी, सीढ़ी से नीचे सरके, साइकिल उठाई और ताबड़तोड़ पैडल मारते हुए दलबीर इलेक्ट्रिकल्स की उलटी दिशा में दौड़ लिये, बिना किसी गंतव्य के।
अब आगे भाग 13 ...
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अंग्रेज़ों के ज़माने में सैनिक वाहन चालकों को नैनीताल आदि के पहाड़ी मार्गों पर चलने के लिये तैयार करने के लिये छावनी में ऊँचे-नीचे हिलट्रैक मार्ग का निर्माण किया गया था। आज वीर ने उस हिलट्रैक लूप के न जाने कितने चक्कर लगाये थे। रात में जब घर पहुँचे तो काफी थक चुके थे। माँ कमला चाची के साथ बाहर खड़ी उन्हीं की प्रतीक्षा कर रही थीं। पसीने की गन्ध से माँ को दूर से ही उबकाई आती है इसलिये अन्दर पहुँचते ही वीर नहाने चले गये। बाहर आने तक माँ ने खाना लगा दिया था। दोनों खाना खाने बैठे तो माँ ने बताया, “वासिफ़ के घर से ... झरना आई थी आज ... बहुत प्यारी बच्ची है।”

वीर ने अनमनी सी “हाँ” में सर हिलाया। इसका मतलब है कि झरना ने उनके भागने के बारे में माँ से कुछ नहीं कहा था।

“बता रही थी कि वासिफ़ को मलेरिया हुआ था। तबियत काफी खराब थी। स्कूल भी नहीं गया। उसकी अम्मी तुमसे मिली थीं। बताना चाहती थीं, मगर तुम जल्दी में थे।”

“हाँ, उस दिन मिल गई थीं, कम्पनी बाग के पास। वासिफ़ कैसा है अब?”

“कमज़ोरी बनी हुई है। उसे किताबों की लिस्ट और अब तक के होमवर्क की कॉपियाँ चाहिये। यही बताने यहाँ आयी थी वह।”

“नवीन से कहके भिजा दूंगा, उधर ही रहता है वह।”

“कल हो आते हैं, मैं भी मिल लूंगी उन लोगों से” माँ कुछ उतावली सी दिखीं।

अगले दिन स्कूल में वीर ने किताबों की लिस्ट और तब तक का सारा गृहकार्य वासिफ़ के घर पहुँचाने की हिदायत देकर नवीन को दे दिया। उन्हें अच्छी प्रकार पता था कि इतने भर से उन्हें छुटकारा नहीं मिलने वाला है। अगर माँ का मन है तो वासिफ़ का काम हो जाने के बाद भी वह उन्हें लेकर वहाँ जायेगी ही। घर आते समय वे वासिफ के घर न जाने के सर्वश्रेष्ठ बहाने खोज रहे थे। हाथ मुँह धोकर डरते-डरते माँ के साथ चाय पीने बैठे तो माँ ने बताया कि वे दिन में वासिफ़ के घर हो आयी थीं।

“तुम्हें पूछ रहा था। बहुत कमज़ोर हो गया है।”

“मैंने कॉपियाँ और लिस्ट भिजा दी है।”

“ठीक किया। तुम्हें पता है कि उसकी बहन की शादी है दो महीने में?”

“अच्छा! मुझे नहीं पता” वीर ने अचरज में आँखें फैलाकर कहा। मुहब्बत का इज़हार किसी से और इकरार किसी से। वीर का मन कड़वा सा हो गया।

“बहुत प्यारी बच्ची है। तुम्हारी बहन आज होती तो शायद वैसी ही होती ...” वाक्य पूरा करते-करते माँ का गला भर आया। अब वीर को सचमुच आश्चर्य हुआ।

“मेरी बहन?”

“हाँ बेटा, तुम अकेले नहीं थे। तुम्हारी एक जुड़वाँ बहन भी थी ... तुमसे बड़ी। एक दिन भी जीवित नहीं रही।”

वीर को समझ नहीं आया कि जिस बहन के बारे में वे अब तक अन्धेरे में थे, उसके अवसान पर क्या कहें। हाँ, यह गुत्थी ज़रूर सुलझ गयी कि उनके जन्मदिन पर माँ उदास क्यों होती है। भगवान पर उनका क्रोध और बढ़ गया। उनकी बहन को जन्मते ही क्यों छीन लिया? माँ-पापा ने कैसे सहा होगा उसका जाना?

“क्या हुआ था उसे? इलाज नहीं हो सकता था? इसके बाद भी आप भगवान को कैसे पूज लेती हैं? गुस्सा नहीं आता क्या?”

“जन्म के समय तुम दोनों ही मृतप्राय थे। तब ज़माना काफ़ी पिछड़ा हुआ था। डॉक्टरों को तो पहले से यह भी पता नहीं था कि मुझे जुड़वां बच्चे होने वाले हैं ...” माँ ने आँख पोंछते हुए कहा, “और भगवान से गुस्सा तो हो ही नहीं सकती थी। वह चाहता तो मेरे दोनों बच्चे छीन सकता था मगर उसने इतना प्यारा बेटा मेरी गोद में जीवित छोड़ दिया न।”

वीर को अचानक माँ पर असीमित दया और प्यार दोनों ही आ गये। परंतु भगवान के प्रति उनका क्रोध कम नहीं हुआ।

[क्रमशः]

Tuesday, June 7, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 12

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4;
भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11
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पिछले अंक में आपने पढा:
वीर ने हाथ में पकड़ी किताब को देखा। उसमें से वाकई एक पत्र सा झांक रहा था। वीर ने उसे वापस पुस्तक में समेट लिया। क्या हो गया है उन्हें? माँ को इतनी दूर से दिखने वाला लिफाफा उन्हें क्यों नहीं दिखा? और क्या हो गया है माँ को जो निक्की को नापसन्द करने लगी हैं। इतनी प्यारी लड़की है। विशेषकर वीर के प्रति इतनी दयालु है। सारे रास्ते माँ-बेटे में बस नाम भर की ही बात-चीत हुई। घर पहुँचकर माँ काम में लग गईं और वीर अपने कमरे में जाकर लिफाफा खोलकर अन्दर का पत्र पढ़ने लगे।
अब आगे भाग 12 ...
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वीरसिंह को रह-रहकर दादाजी की याद आती थी। उनका मन पिछली नईसराय यात्रा से बाहर आ ही नहीं पा रहा था। दादाजी के अवसान के समय अपनी अनुपस्थिति के लिये वे अपने को माफ नहीं कर पा रहे थे। काश वे उस समय झरना के मोहपाश में बन्धने के बजाय अपने घर होते तो दादाजी को बचाने का कुछ उपाय ज़रूर कर पाते। शायद दादाजी आज जीवित होते। इस कृत्य के लिये वे अपने आप को शायद कभी भी माफ नहीं कर पायेंगे।

"हाय हसन हम न हुए ..." बाहर से नारों की आवाज़ आ रही थी। शायद मुहर्रम का जुलूस निकल रहा था। वीर बाहर आ गये। मातम करने वाले धर्मयुद्ध में अपनी अनुपस्थिति का शोक मना रहे थे लोहे की जंज़ीरों से अपने आप को लहूलुहान करके। वीर अपने आप को वहाँ देख पा रहे थे। उनके मुँह से बेसाख्ता निकला, "हाय हसन हम न हुए ...।" पहले कभी ऐसी बेचैनी से गुज़रे होते तो शायद वासिफ से मिलने गये होते। लेकिन अब किस मुँह से वहाँ जायें। उसकी बहन की सूरत भी नहीं देखना चाहते थे वे। इतने आहत थे वे कि अप्सरा के बारे में सोचना तक नहीं चाहते थे। उसका ख्याल अपने दिमाग से झटककर वे अन्दर आये और पिताजी को एक पत्र लिखने बैठे। हर मुसीबत के समय अंततः वे पिताजी को ही याद करते थे। बहुत कोशिश की लेकिन इस बार कागज़ कोरा ही रहा। इस बार की मुलाकात से उन्हें पिताजी की कार्य सम्बन्धी कठिन परिस्थितियों का पूरा अहसास था। वे उनके काम में बाधक नहीं बनना चाहते थे।

"कम्पनी बाग तक जा रहा हूँ माँ!"

वे बाहर निकले और अपने ख्यालों में खोये से कम्पनी बाग की ओर बढ़ चले। घर-नगर के कोलाहल से दूर शांति चाहने वालों के लिये एक वही स्थान था शहर में। सोचा था कि ताज़ी हवा में ताज़गी मिलेगी परंतु हुआ इसका उलट। हर कदम के साथ उनकी उदासी बढती ही जा रही थी। दादाजी के अवसान का शोक तो था ही पिताजी ऐवम अन्य सैनिकों की भीषण कार्यपरिस्थिति के प्रति राष्ट्र की उदासीनता उन्हें काटे डाल रही थी। इन सब के ऊपर उन्हें लगातार झरना से धोखा खाने का अहसास भी कचोट रहा था। पिछले कुछ सप्ताहों में उन्होंने न जाने कितनी बार जीवन की नश्वरता के बारे में बडी शिद्दत से सोचा था। वे बलपूर्वक संसार में मन लगाना चाहते थे परंतु सब कुछ अर्थहीन सा लगता था।

"अरे, यह तो वीर है" किसी महिला की आवाज़ उनके कान में पड़ी। जब तक वे समझ पाते, वासिफ की माँ और झरना उनके सामने खड़ी थीं। झरना के गाल और कान हया से या खुशी से सुर्ख से हो रहे थे। ढलते हुए सूरज की किरणों में उसकी स्वर्णिम रंगत पर यह लालिमा एक और ही सूर्योदय का संकेत दे रही थी।

"हम भी वासिफ भाई के साथ ही आ गये, दो हफ्ते यहीं रहेंगे। आप चलिये न साथ में ..." माँ के कुछ बोलने से पहले ही झरना उत्साह में भरकर बोलने लगी।

वह बोलती जा रही थी और वीरसिंह के मन में समुद्र मंथन सा हो रहा था, "झूठी कहीं की ... ।"

उनका गला सूखने लगा। जैसे तैसे मुँह से बस इतना ही निकला, "जल्दी में हूँ, बाद में आपके घर आऊँगा, वासिफ से मिलने।"

झटके से उन्होंने घर की ओर दौड़ सी लगा दी।

सोमवार से विद्यालय खुल गया। पुराने दोस्त मिले, सिवाय एक वासिफ के। उसने स्कूल बदल लिया या छोड़ ही दिया, भगवान जाने । पर उसकी अनुपस्थिति से वीर को कोई शिकायत नहीं हुई। बल्कि उन्होंने अपने को बन्धनमुक्त ही महसूस किया। पहले दो दिन तो नये सहपाठियों, अध्यापकों, पाठ्यक्रम और पुस्तकों से परिचय होने में ही चले गये पर उसके बाद फिर से जीवन की निरर्थकता का बोध उनके ऊपर हावी होने लगा। बल्कि हर पल के साथ उनके हृदय का खालीपन बढता जाता था। अध्यापक पूरे सत्र में बोलते चले जाते थे और वीर के दिमाग में कभी झरना का प्यार और झूठ चल रहा होता, कभी दादाजी की चिता दिखती कभी उससे पहले का आन्धी-तूफान। इन सबसे बच पाते तो अपने को नक्सलियों से घिरे एक भारतीय सैनिक के रूप में पाते। उन्हें लगता कि उनके अधिकारी दुश्मनों से मिल गये हैं।

ऐसा नहीं कि वीर को अपने अन्दर होते इस परिवर्तन का अहसास नहीं था। वे इसे समझ भी रहे थे और इससे जूझने के उपाय भी कर रहे थे। जीवन जितना उदास लगता वे अपने आप से लड़कर उसे उतना ही रोचक बनाने का प्रयास करते। घर में होते तो फिल्मी गीत और ग़ज़लें सुनते रहते। बाहर आते तो फिल्म देखने निकल जाते। रिज़र्व प्रकृति के वीर ने आसपास के बच्चों के साथ पतंग उड़ाना शुरू कर दिया। शहर में एक ही तरणताल था, वहाँ जाना शुरू कर दिया। कहाँ तो माँ इस घर-घुस्सू को बाहर निकालते-निकालते थक जाती थी और कहाँ अब जैसे बस खाना खाने और सोने के लिये ही घर आते थे।

भले ही भारत के अनेक नगरों में गुड़ी पडवा या पन्द्रह अगस्त का दिन पतंगों का होता हो, बरेली में हर दिन पतंगबाज़ी का होता है। रोज़ाना ही पेंच लड़ रहे होते हैं। तपते सूरज का सामना करते वीर इतवार को छत पर थे कि सामने सडक पर नज़र पड़ी तो प्रकाश की एक किरण वहाँ चमकी। झरना ही थी। हाथ में एक पर्ची लिये दलबीर की दुकान के बाहर खडी थी। दलबीर ने वीर की ओर इशारा किया। उनकी नज़रें झरना से मिलीं। ठीक उसी समय वीर ने एक झटके से अपनी पतंग की डोर तोड़ी, सीढ़ी से नीचे सरके, साइकिल उठाई और ताबड़तोड़ पैडल मारते हुए दलबीर इलेक्ट्रिकल्स की उलटी दिशा में दौड़ लिये, बिना किसी गंतव्य के।

[क्रमशः]

Thursday, June 2, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 11

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पिछली कड़ियाँ - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4;
भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10
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अपनी छुट्टी पूरी होते ही पिताजी तो वापस चले गये। परन्तु वीर और उनकी माँ छुट्टी भर नई सराय में ही रहे। दादी अकेली ज़रूर हुई थीं परंतु उनका जज़्बा बना हुआ था। अकेले में शायद रो लेती हों, मगर बहू और पोते के सामने कभी कमज़ोर नहीं दिखीं। पुत्तू और लखना भी सदा की भांति आते रहे और निक्की भी। स्कूल खुलने से पहले वीर को भी अपने घर जाना था। पहले पिताजी और अब माँ ने दादी को समझाने का प्रयत्न किया कि वे भी अपने पोते और बहू के साथ ही चलें परंतु दादी तो किसी भी कीमत पर नई सराय छोड़ने को तैयार ही नहीं थीं। वीर के चलने का दिन आया। वीर अपनी अटैचियाँ बांधे तैयार खड़े थे। माँ और दादी दोनों सजल नेत्रों से एक दूसरे के गले लगाकर रो रही थीं।

उसी समय कहीं से निक्की वहाँ आ गयी। कहीं से वीर की भौतिकी की पुस्तक ढूंढकर लाई थी। वीर ने पुस्तक हाथ में ली। लगभग उसी समय माँ ने विदा लेकर उन्हें चलने को कहा। लखना पहले ही इक्का ले आया था। इक्के में चुपचाप बैठे वे दोनों बस अड्डे जा रहे थे। माँ ने अचानक कहा, “क्या दिया निक्की ने तुम्हें?”

“मेरी किताब। और क्या?”

“किताब के साथ वह लिफाफा क्या है? तुम दूर ही रहना, पढाई में बिल्कुल ध्यान नहीं है इस लड़की का।”

वीर ने हाथ में पकड़ी किताब को देखा। उसमें से वाकई एक पत्र सा झाँक रहा था। वीर ने उसे वापस पुस्तक में समेट लिया। क्या हो गया है उन्हें? माँ को इतनी दूर से दिखने वाला लिफाफा उन्हें क्यों नहीं दिखा? और क्या हो गया है माँ को जो निक्की को नापसन्द करने लगी हैं। इतनी प्यारी लड़की है। विशेषकर वीर के प्रति इतनी दयालु है। सारे रास्ते माँ-बेटे में बस नाम भर की ही बात-चीत हुई। घर पहुँचकर माँ काम में लग गईं और वीर अपने कमरे में जाकर लिफाफा खोलकर अन्दर का पत्र पढ़ने लगे। सुन्दर अक्षरों में स्पष्ट अंग्रेज़ी में लिखा था, बिना किसी लाग-लपेट के।

प्रिय वीर,

तुम्हारी पीड़ा का अनुमान है मुझे। तुम्हें शायद विश्वास न हो मगर अब मैं अपने से अधिक तुम्हें पहचानने लगी हूँ। मुझे पूरा अहसास है कि तुम पर क्या बीत रही है। काश! मैं एक जादुई परी होती और तुम्हारा दर्द कम कर सकती। यदि मैं तुम्हारे किसी भी काम आ सकी तो अपने को धन्य समझूंगी। अभी तो तुम यहीं हो और मैं अभी से तुम्हारी कमी महसूस करने लगी हूँ। मुझे पता नहीं मुझे क्या हुआ है। शायद तुम्हें पता हो। अगर हो तो मुझे मिलकर बताना ...

केवल तुम्हारी ...


पागल लड़की! वीर के दिल में अजीब सा कुछ हुआ। कलेजे में भीतर तक अच्छा लगा कि किसी को उनकी तकलीफ़ का अहसास है। निक्की की हिम्मत पर हँसी भी आई। उसके भविष्य के बारे में सोचकर दु:ख भी हुआ। माँ शायद ठीक ही कहती हैं। निक्की का ध्यान पढ़ाई से हट चुका है। अभी है ही कितनी बड़ी? 10-12 साल की ही होगी शायद।

[क्रमशः]

Sunday, March 13, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 10

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अनुरागी मन - कहानी - भाग 1; भाग 2; भाग 3;
भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9
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क्षण भर में दुनिया कैसे बदल जाती है इस बात का मर्म वीरसिंह को उस एक दिन में पता चल गया था। अपने दादाजी की छत्रछाया में अपनी अप्सरा की गोद में सर रखे हुए बेफिक्र वीरसिंह का एक ही रात में कायाकल्प हो गया था। एक खिलंदड़े किशोर के जीवन में एक ही रात में इतने क़हर टूटे जिनको समझने में उसकी उम्र चली जानी थी। उस एक रात में जीवन ने उन्हें जो पाठ पढ़ाया वह अमूल्य था। कुछ देर पहले तक भाग्य उनकी मुट्ठी में था। वे जब जैसा चाहते थे बिल्कुल वैसा ही घट रहा था। अचानक से किस्मत कैसी करवट बैठ गयी। एक ही पल में दो प्रियजनों से एक झटके में सम्बन्ध टूट गया था। हाथ छुड़ाने वालों में से एक जन्म से भी पहले का प्रिय था और दूसरा? जन्म-जन्मांतर का साथी या केवल चार दिन का हमराही?

दादाजी का शोक प्रकट करने वासिफ भी आया था। साथ में झरना भी थी। आंखों में आँसू के झरने, काला दुपट्टा, काली कमीज़, काला शरारा। ऊपर से नीचे तक दुःख की कालिख में डूबी हुई। वासिफ ने कन्धा थपथपा कर सांत्वना दी, झरना गले लग कर रोई। लेकिन वीरसिंह पत्थर हो गये थे। वे प्रकृति के इस क्रूर खेल को स्वीकार तो कर चुके थे लेकिन अभी भी समझ नहीं पा रहे थे। वासिफ ने कुछ कहा जो वीर ने सुना ज़रूर पर समझ न सके। झरना ने कोई कागज़ दिया जो उन्होंने लिया ज़रूर पर उसके बारे में कुछ भी याद न रख सके।

दशमे की रस्म आज दिन में पूरी हो चुकी थी। तेरहवीं के बाद पिताजी को वापस जाना था। चान्दनी रात में पिता-पुत्र छत पर चुपचाप खडे शून्य में कुछ ढूंढ रहे थे। निक्की चाय देकर चुपचाप वापस चली गयी। वीर को पिताजी से सहानुभूति हो रही थी। अपने पिता के बिना न जाने कैसा खालीपन अनुभव कर रहे होंगे?

“माता-पिता को खोना कितना कठिन है। आप ठीक तो हैं न?” वीर ने साहस करके पूछा।

“हाँ, जो लोग साथ रहते हैं उन्हें ज़्यादा मुश्किल होती होगी शायद।”

“आप तो अंतिम समय पर देख भी नहीं पाये!”

“हम तो सिपाही हैं। हमारे लिये सरकार जहाज़ का टिकट नहीं दे सकती। छुट्टी मिली यही बहुत है।”

“ऐसा क्यों कह रहे हैं?” वीर ने आश्चर्य से पूछा। पता लगा कि सेना में सिपाहियों को कई बार ज़रूरी काम होने पर भी छुट्टी नहीं मिलती है। सारी सुविधायें भोगते हुए भी कुछ अधिकारी कई बार दुष्कर परिस्थितियों में रहते अपने सिपाहियों के प्रति क्रूरता की हद तक अमानवीय हो जाते हैं।

पिताजी को छुट्टी की समस्या नहीं आयी मगर महीने भर पहले उन्हीं की यूनिट में एक अधिकारी ने जब अपने सिपाही को कायर, झूठा और मक्कार कहते हुए मृत्यु के कगार पर पड़ी माँ को देखने की दर्ख्वास्त को फाड़कर फेंक दिया था तो उसी सिपाही ने रात में खूब शराब पीकर अधिकारी को गोली मार दी थी। सिपाही क़ैद में था और गाँव में उसकी माँ का शवदाह पडोसी कर रहे थे।

वीर को इस दुनिया और समाज से पूर्ण विरक्ति सी होने लगी। झरना ने उनके हृदय पर एक गहरा और अमिट ज़ख्म दिया था। उस रात की सभी दुखद घटनाओं के लिये वे अब तक उसे ही कारक मान रहे थे।

[क्रमशः]

Wednesday, January 26, 2011

अनुरागी मन - कहानी भाग 9

पूर्वकथा:
एक अलौकिक सुन्दरी बार-बार दिखती है, वासिफ के घर उससे एक नाटकीय भेंट भी होती है और आशाओं पर तुषारापात भी। हवेली के बाहर आकर वे खो गये थे। आँखों में लाली और हाथों में कुल्हाड़ियाँ लिये दो बाहुबली जब उनकी ओर बढ़े तो उन्हें साक्षात काल का स्पर्श महसूस हुआ। अचानक ही मूसलाधार वर्षा शुरू हो गयी। उनका पाँव कीच भरे एक गड्ढे में पड़ा और धराशायी होने से पहले ही वे अपने होश खो बैठे।

पिछले अंक
भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8

अब आगे:

जब वीर की आँख खुली तो दादाजी के मंत्रोच्चार की जगह कान में किसी के सुबकने की आवाज़ पडी। उन्होने उठने का प्रयास किया तो दायें पंजे से कमर तक पीडा की एक असहनीय तरंग दौड गयी।

"हिलो मत बेटा" यह तो माँ की आवाज़ है। माँ को सिरहाने बैठा देखकर वीरसिंह दंग रह गये।

"मैं तो नई सराय में था माँ, घर कैसे आ गया? यह कोई सपना तो नहीं?"

"भगवान करे सपना ही हो बेटा" माँ ने आंचल से अपने आँसू पोंछते हुए अपूर्व शांति से कहा।

"अरे आप जग गये! अभी चाय लाती हूँ" यह तो रात वाली वही छोटी बच्ची थी। मगर वह तो नई सराय में थी। क्या वे सचमुच जग गये हैं या अभी कोई सपना देख रहे हैं? दिमाग पर ज़्यादा ज़ोर देने की ज़रूरत नहीं पडी। एक नज़र आसपास डालने भर से यह स्पष्ट हो गया कि वे दादाजी के घर में ही थे। उन्हें ध्यान आया कि रात में उस बच्ची के साथ पडोस के भट्ट जी थे। जब तक बच्ची उनके लिये चाय का प्याला लेकर वापस आयी उन्हें उसकी शक्ल भी पहचान में आने लगी थी।

"बरखा?" भट्ट जी की पोती निक्की का नाम यही था।

"जी हाँ, मैं! कल आप घर आने की बजाय वहाँ क्यों घूम रहे थे ... "

"तुम अब घर जाओ बेटा, थोडा आराम करो, आँखों में कितनी नीन्द भरी है!" माँ ने उलाहना सा देते हुए चाय का प्याला बरखा के हाथ से छीन सा लिया।

बरखा चुपचाप कमरे से बाहर निकल गयी। मित्रों को आगे की बात बताते हुए वीर सिंह का गला रुन्ध आया था। माँ से पता लगा कि रात में उन्हें दादाजी के विश्वासपात्र पुत्तू और लखना गड्ढे से निकालकर लाये थे। टांग तो तब तक टूट ही चुकी थी। लेकिन वे दोनों अचानक वहाँ कैसे पहुँचे और फिर कुल्हाडी वालों का क्या हुआ? माँ यहाँ कैसे आयी? भट्ट जी रात में खाना किसके लिये ला रहे थे? निक्की ने घर आने के बजाय "वहाँ" घूमने की बात क्यों की? और फिर निक्की के साथ माँ का अजीब सा व्यवहार! क्या इन सबको परी के बारे में पता चल गया है? धीरे-धीरे पता लगा कि अप्सरा का रहस्य अभी भी किसी पर खुला नहीं था।

परंतु उस भयावह रात की घटनायें जो अभी तक किसी चमत्कार सरीखी लग रही थीं, अब एक एक करके उघड़नी आरम्भ हो गयी थीं। जब वीरसिंह और झरना की कहानी अपने दुखद मोड़ पर थी तभी किसी समय दादाजी को भयंकर हृदयाघात हुआ था। जब तक कोई समझ पाता, उनके प्राणपखेरू उड चुके थे। पिताजी उस समय पूर्वोत्तर के मोर्चे पर विद्रोही आतंकियों से जूझ रहे थे। उन्हें खबर तो कर दी गयी थी मगर उनके समय पर पहुँचने की कोई आशा नहीं थी। वीर के लिये सारी नई सराय में ढुंढेरा पड रहा था। माँ को अपने मायके से यहाँ तक आने में दो घंटे लगे थे। वे दादाजी के दुख के साथ वीर के लिये भी चिंतित थीं। वीर की अनुपस्थिति में दादीजी की इच्छानुसार देर किये बिना शवदाह पुत्तू और लखना के हाथों कराया गया था। वही दोनों दादाजी द्वारा अभी भी पहनी हुई सोने की अंगूठियों के लिये रात में चौकीदारी कर रहे थे जब वीर अनजाने ही भटककर श्मशानघाट पहुँचे थे। आखिर दादा ने अपनी चिता पर से अपने प्यारे पोते को देख ही लिया।

[क्रमशः].

Wednesday, December 8, 2010

अनुरागी मन - कहानी भाग 8

पूर्वकथा:
दादाजी के पिछ्डे से कस्बे में वीरसिंह को एक अलौकिक सुन्दरी बार-बार दिखती है। वासिफ के घर उससे एक नाटकीय भेंट होती है और आशाओं पर तुषारापात भी।

पिछले अंक: भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4 भाग 5; भाग 6; भाग 7

चन्द्रमा चित्र: अनुराग शर्मा [Photo: Anurag Sharma]
अनुरागी मन - अब आगे:

“हे भगवान! यह क्या हो रहा है” वीरसिंह अपनी कहानी कहते हुए मानो उसी बीते हुए काल में लौट गये हों। अब वे और वासिफ हवेली के बाहर खड़े थे। वासिफ उन्हें अकेले वापस भेजने को कतई तैयार न था परंतु वे अकेले ही घर जाने पर अड़े हुए थे। आगे की बात वीरसिंह के शब्दों में।

मुझे अकेले वापस जाने में डर लग रहा था। शायद रास्ते में चक्कर खाकर गिर पड़ूँ या फिर अपनी ही धुन में खोया हुआ रास्ता पार करते समय पीछे से आती लॉरी का भोंपू सुन न पाऊँ और दुनिया त्याग दूँ। मैं मौत से नहीं डरता लेकिन मेरा भय केवल इस बात का था कि माँ मेरी अकाल मृत्यु को सह नहीं पायेंगी। ऊपर से आकाश में छाये घने बादल और रह-रहकर कड़कती बिजली। यहाँ आते समय तो आसमान एकदम साफ था, फिर अचानक इतनी देर में यह क्या हो गया?

नहीं, मैं अकेले घर नहीं जा सकता था, उस समय और वैसी मानसिक स्थिति में मुझे हवेली से बाहर निकलना ही नहीं चाहिये था। लेकिन मैं हवेली में रुक भी नहीं सकता था और वासिफ के साथ चल भी नहीं सकता था। मुझे जाना था और अकेले ही जाना था। घर दूर ही कितना है? मैं होश में नहीं था। उसके सामने न जाने क्या सही-गलत बक दूँ अपनी परी के बारे में? नहीं, मैं परी का मान कम नहीं होने दूंगा। परी का मान? किस बात का मान? वाग्दत्ता होकर मुझसे प्यार की पैंगें बढ़ाने वाली का? न झरना अप्सरा है, न मैं देव हूँ, और न ही नई सराय हमारा असीम स्वर्ग। और फिर नई सराय है ही कितनी बड़ी? खो नहीं जाऊंगा? छोटी सी नई सराय तो आज से मेरे लिये ऐसा नर्क है जिसकी आग में मैं ताउम्र जलूँगा।

पाँव मन-मन के हो रहे थे और मन हवेली में अटका था। मेरा मन. मेरा पवित्र मन एक चरित्रहीन की चुन्नी में कैसे अटक सकता है? इतना कमज़ोर तो तू कभी भी नहीं था। झटक दे वीर, उसे अभी यहीं झटक दे। इस चार दिन के भ्रूण को जन्मने नहीं देना है। काल है यह, नाश है दो सम्माननीय परिवारों का।

मानस के अंतर्द्वन्द्व से गुत्थमगुत्था होते हुए वीर धीरे-धीरे हवेली से दूर होते गये। अचानक घिर आयी काली घटा ने पूर्णिमा के चाँद को अपने आगोश में बन्द सा कर लिया था। छिटपुट बून्दाबान्दी भी शुरू हो गयी थी।

कुछ ही दूर पहुँचे थे कि 8-10 वर्ष की एक बच्ची उनकी ओर दौड़ती हुई आती दिखी। जब तक वे कुछ समझ पाते, वह आकर उनसे लिपट गयी। वे हतप्रभ थे। अपने हाथों से उनकी कमर को घेरे-घेरे ही बच्ची ने कहा, “कहाँ चले गये थे आप? इतनी रात हो गयी है। अब घर चलिये। इतनी बारिश नहीं थी पर उनका कुर्ता गीला हो गया। बच्ची रो रही थी। उन्होने उसके सर पर हाथ फेरा और उनकी आंखें भी गीली हो गयीं। बच्ची के पीछे-पीछे चश्मा लगाये छड़ी के सहारे चलते हुए एक बुज़ुर्ग पास पहुँचे और बोले, “रोओ मत बच्चों, मिल गये, अब घर चलो। काके, तू सीधे कर जा पुत्तर। निक्की, तू मेरे नाल आ, खाना लेकर आते हैं सबके लिये।“

वे दोनों अन्धेरे में से जैसे अचानक प्रकट हुए थे उसी तरह अन्धेरे में गुम हो गये। वीर सिंह का कुर्ता और आँखें अभी भी गीले थे। अप्सरा के ख्यालों में खोये हुये वे अपने से बेखबर तो पहले से ही थे, अब इस बच्ची और उसके दादाजी ने उन्हें अचम्भे में डाल दिया था। उन्होंने आगे चलना शुरू किया तो समझ आया कि राह अनजानी थी। आसपास कोई घर-दुकान नज़र नहीं आ रहा था। नई सराय बहुत बड़ी भले ही न हो परंतु वे फिर भी खो गये थे। आज वे चाहते भी यही थे।

दोनों ओर घने वृक्षों से घिरी सड़क उन्हीं की तरह अकेली चली जा रही थी अपनी ही धुन में, किसी संगी के बिना। आगे कुछ प्रकाश दिखा, एक मैदान सा कुछ। प्रकाश, आग... नर्क! घिसटते हुए से पास पहुँचे तो मुर्दा सी नहर के किनारे एक चिता अभी सुलग रही थी। आँखों में लाली और हाथों में कुल्हाड़ियाँ लिये दो बाहुबली जब उनकी ओर बढ़े तो उन्हें साक्षात काल का स्पर्श महसूस हुआ। अचानक ही मूसलाधार वर्षा शुरू हो गयी। उनका पाँव कीच भरे एक गड्ढे में पड़ा और धराशायी होने से पहले ही वे अपने होश खो बैठे।

Sunday, November 14, 2010

अनुरागी मन - 7 [कहानी]

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अनुरागी मन - अब तक की कथा:
वासिफ वीरसिंह को अपनी हवेली में अप्सरा के सहारे छोड़कर ज़रूरी काम से बाहर गया। उसकी दिव्य सुन्दरी बहन झरना का असली नाम ज़रीना जानने पर वीर को ऐसा लगा जैसे उनका दिमाग काम नहीं कर रहा हो। बैठे बैठे उन्हें चक्कर सा आया ...
खण्ड 1; खण्ड 2; खण्ड 3; खण्ड 4; खण्ड 5; खण्ड 6
...और अब आगे की कहानी:
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“जी हाँ, मैं ठीक हूँ। बस तेज़ सरदर्द हो रहा है” वीरसिंह ने कठिनाई से कहा। अम्मा कुछ कहतीं इससे पहले ही झरना घबरायी हुई अन्दर आयी।

“क्या हुआ? किसे है सरदर्द?” वीर को चिंतित दृष्टि से देखते हुए पूछा और उनके उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना बाहर जाते जाते बोली, “एक मिनट, ... मैं अभी दवा लाती हूँ।”

वाकई एक मिनट में वह एक ग्लास पानी, सेरिडॉन की पुड़िया और अमृतांजन की शीशी लिये सामने खड़ी थी, एक्दम दुखी सी परंतु फिर भी उतनी ही सुन्दर।

वीरसिंह ने जैसे ही गोली खाकर पानी का ग्लास वापस रखा, झरना उनके साथ बैठ गयी। इतना तो याद है उन्हें कि झरना ने उनका सिर अपनी गोद में रखकर उनके माथे पर अमृतांजन मलना शुरू किया था। दर्द से बोझिल माथे पर झरना की उंगलियों का स्पर्श ऐसा था मानो नर्क की आग में जलते हुए वीर को किसी अप्सरा ने अमृत से नहला दिया हो। झरना का चेहरा उनके मुख के ठीक ऊपर था। वह धीमे स्वरों में गुनगुनाती जा रही थी जिसे केवल वही सुन सकते थे:

तेरे उजालों को गालों में रक्खूँ
हर पल तुझी को खयालों में रक्खूँ
तोहे पानी सा भर लूँ गगरिया में
नहीं जाना कुँवर जी बजरिया में

अपनी अप्सरा की गोद में सर रखे हुए वे कब अपनी चेतना खो बैठे, उन्हें याद नहीं। जब उन्हें होश आया तो वे सोफे पर लेटे हुए थे। सामने उदास मुद्रा में वासिफ बैठा था। उनकी आंखें खुलती देख कर वह खुशी से उछला, “ठीक तो है न भाई? हम तो समझे आज मय्यत उठ गयी तेरी।”

ऐसा ही है यह लड़का। मौका कोई भी हो, शरारत से बाज़ नहीं आता है।

“हाँ मैं ठीक हूँ, अम्मा को बता दो तो मैं घर चलूँ” वीर ने उठने का उपक्रम करते हुए कहा।

“अम्मी अभी मेहमाँनवाज़ी में लगी हैं। ज़रीना के ससुराल वाले आये हुए हैं। सभी उधर बैठक में हैं, मैं बाद में कह दूंगा” वासिफ ने सहजता से कहा।

“ज़रीना के ... ससुराल वाले?” वीरसिंह मानो आकाश से नीचे गिरे, “मगर .... वह तो अभी छोटी है ... क्या उसकी शादी इतनी जल्दी हो गयी?”

“अभी हुई नहीं है मगर तय तो कबकी हो चुकी है। हम लोगों में पहले से ही बात पक्की कर लेने का चलन है।”

“तुम्हारी बहन को पता है ये बात?” वीरसिंह अब सदमे जैसी स्थिति में थे

“हाँ, छिपाने जैसी कोई बात ही नहीं है। वह तो बहुत खुश है इस रिश्ते से” वसिफ ने उल्लास से कहा।

वीरसिंह को एक झटका और लगा। सोफे पर लगभग गिरते हुए उन्होने वासिफ से स्पष्टीकरण सा मांगा, “कितनी बहनें हैं तुम्हारी?”

“बस एक, ज़रीना। अम्मी-अब्बू के सभी भाई बहनों के लडके ही हैं। इसीलिये अकेली ज़रीना सभी की लाडली है। तू जानता नहीं है क्या? कैसी बहकी-बहकी बातें कर रहा है। तुझे आराम की ज़रूरत है शायद। थोड़ा रुक जा या अपने घर चल। वैसे यह घर भी तेरा ही है जैसा ठीक समझे।

“घर ही चलता हूँ” वीर ने जैसे तैसे कहा। उन्हें लग रहा था कि परी सब काम छोड़कर उन्हें जाने की उलाहना देने आयेगी। रुकने और आराम करने की मनुहार करेगी। मगर जब वे वासिफ के साथ हवेली से बाहर आये तो मुस्कराकर विदा करने भी कोई आया गया नहीं।

[क्रमशः]