Friday, June 10, 2011

अनुरागी मन - कहानी - भाग 14

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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4; भाग 5;
भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11; भाग 12; भाग 13;
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पिछले अंक में आपने पढा:
दादाजी की मृत्यु, एक अप्सरा का छल, पिताजी की कठिनाइयाँ - वीर सिंह पहले ही बहुत उदास थे ... और अब यह नई बात पता पता लगी कि उनकी जुड़वाँ बहन जन्मते ही संसार त्याग चुकी थी। ईश्वर पर तो उनका विश्वास डांवाडोल होने लगा ही था, जीवन भी निस्सार लगने लगा था। ऐसा कोई भी नहीं था जिससे अपने हृदय की पीडा कह पाते।
अब आगे भाग 14 ...
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उस रात वीर ने पहली बार अपनी भावनाओं को काग़ज़ पर उकेरा। अपने अन्दर छिपे बैठे कवि से यह उनका प्रथम परिचय था।
आंसू की अविरल धारा
बहने से रोक नही पाता
कोई आता


उनके अंतर के वैराग्य की अग्नि जितनी तेज़ी से प्रज्ज्वलित हो रही थी, वे उतनी ही बेचैनी से उसे संसार से, विशेषकर माँ से छिपाये रखना चाहते थे। इस प्रक्रिया में वे एक विरोधाभास को जन्म दे रहे थे। उन जैसा अंतर्मुखी व्यक्तित्व एक सामाजिक प्राणी में बदलता जा रहा था। उनकी मित्र मण्डली बढ़ती जा रही थी और पढ़ाई में रुचि कम होती जा रही थी। संगीत, फिल्म, साहित्य आदि में अचानक रुचि उत्पन्न हो चुकी थी। गुरुदत्त की फ़िल्में हों या ग़ुलाम अली की गायी ग़ज़लें, इब्ने इंशा की कवितायें हों चाहे मन्नू भंडारी और उपेन्द्रनाथ अश्क़ की कहानियाँ, सबको समय दिया जा रहा था।

अब वे अपने अन्दर एक गुण और महसूसने लगे थे। रहा शायद पहले भी हो पर उसका बोध उन्हें इसी काल में हुआ। वह था अपने से निर्लिप्त होकर अपने को देख पाना। उन दिनों अगर उन्हें अपने खिलाफ किसी मुकदमे का निर्णय देना होता तो वे पूरी निर्ममता को सहजता से निभा जाते।

शायद वे बिल्कुल यही कर भी रहे थे। नई सराय प्रवास में दादाजी की मृत्यु एक दुखद घटना थी। परंतु उस एक घटना के अतिरिक्त तब उनकी हर इच्छा जादुई तरीके से पूरी हो रही थी। बरेली वापस आने पर भी हो बिल्कुल यही रहा था, अंतर केवल इतना था कि अब कोई इच्छा नहीं रही थी, केवल एक शून्य था। उन्हें लगता था कि वे अवसादग्रस्त थे, शायद सही भी हो। पर साथ ही उन्हें यह भी लगता था कि यदि जीवन का अर्थहीन और क्षणभंगुर होना उन्हें नापसन्द है तो भी इससे जीवन अपना तरीका तो नहीं बदलेगा। नतीज़ा फिर वही निकलता, जीवन में रस ढूंढने का प्रयास। मतलब और कविता, कहानी, गीत, फ़िल्म।

एक दिन उन्होंने सब्ज़ी वाले खालिद को माँ से कहते सुना, "आवारा लड़कों से दोस्ताना चल्लिया है आजकल। अभी समझा दीजिये वन्ना एक दिन हाथ से निकल्लेंगे।"

वीर ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन उस दिन उनका ध्यान अटका जब वे रोज़ की तरह रोज़ी को भौतिकी की ट्यूशन पढाने गये और उसकी माँ ने बिना कारण बताये उन्हें आइन्दा घर आने से मना कर दिया। उन्हें बिल्कुल बुरा नहीं लगा। बस उनकी इंसान पहचानने की क्षमता के अभाव पर दु:ख हुआ।

"माईं, पालागन!" एक दिन अचानक से बड़ी बुआ के बेटे रज्जू भैया आ गये। वीर पर उनका विशेष स्नेह था। जब वीर सामने पड़े तो हमेशा की तरह गले लगने के बजाय उन्होंने वीर की बाँह पकड ली और माँ से पूछने लगे, "माईं, क्या खाना नहीं देतीं अपने सपूत को?"

बाद में जब उन्हें सिगरेट की तलब लगी तो शाम की सैर के बहाने वीर को लेकर घर से बाहर आ गये। कुछ देर इधर-उधर की बातें करने के बाद एक कश लगाया और पूछने लगे, "कुछ परेशानी है?"

"नहीं तो!"

"कोई लौंडिया का चक्कर है क्या? न माने तौ हमैं बताओ, घर सै उठवा लें।"

"नहीं भैया, ऐसी बात होती भी तो भी मैं ऐसा काम नहीं होने देता।"

"सिगरेट पीते हौ? अब तो बड़े हो गए हो। ल्यो, पीओ।" रज्जू भैय्या ने सिगरेट वीर की तरफ बढाई।

"जी नहीं, मैं नहीं पीता" वीर ने विनम्रता से कहा।

"लौंडिया नहीं, नशा नहीं, फिर कोई भूत साध रहे हौ का जो ऐसा हाल बनाया है?" रज्जू भैय्या वाकई वीर के लिये चिंतित थे।

पहले खालिद, फिर रोज़ी की माँ, और अब रज्जू भैय्या, वीर को समझ आ गया कि अपनी बाहरी दिखावट पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। उन्हें आश्चर्य हुआ कि उनकी सुरुचिसम्पन्न माँ ने उन्हें इस बात के लिये एक बार भी नहीं टोका था।

"परेशान न हों भैय्या, सब ठीक है, सिचुएशन अंडर कंट्रोल।"

"अपना हाथ दिखइओ ज़रा" भैय्या ने हाथ ऐसे देखा मानो वे पहुँचे हुए ज्योतिषी हों। हाथ देखते ही वे चौंके और दूसरा हाथ पकडा और क्षण भर को दसों उंगलियाँ एक साथ देखकर बुदबुदाये, "दसों शंख जोगी ..." फिर एक गहरी साँस ली और बोले, "मेरी किसी बात का बुरा मत मानना ... वो ... घर से उठाना, सिग्रेट, भूत ... वगैरा।"

घर लौटते हुए रज्जू भैय्या ने बताया कि ऊपर से शांत और सहज दिखने वाली माँ वीर के बदलाव से बेखबर नहीं है। वह बहुत व्यथित है। उसी ने रज्जू भैय्या को बुलाया था ताकि वीर की परेशानी को समझकर हल किया जा सके। पर अब रज्जू भैय्या को लगता है कि परेशानी बस यही है कि पिताजी साथ में नहीं हैं। उन्हें घर बुलाकर बिठाया तो जा नहीं सकता इसलिये विकल्प है आत्मानुशासन का और आवारागर्दों से बचने का। उन्होंने वीर को डायरी लिखने की सलाह दी। इससे सातत्य भी आयेगा, आत्मावलोकन भी होगा और साथ के लिये मित्रों पर निर्भरता भी कम होगी। वीर सहमत थे। घर आकर दोनों ने ऐसे व्यवहार किया जैसे वीर के विषय में कोई बात ही न हुई हो।

[क्रमशः]

15 comments:

  1. लगातार उत्कंठा बढ़ती जा रही है पढने की.

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  2. यह कथा श्रृंखला जीवन के काफी करीब लग रही है ...पात्र काफी जाने पहचाने से हैं !

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  3. यह कथा श्रृंखला जीवन के काफी करीब लग रही है| धन्यवाद|

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  4. ऐसे ही बुरे संगत लोगो को खराब करते है !

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  5. ानुराग जी बहुत दिनो बाद आने से पिछली कहानी भूल गयी थी आज फिर से पढी प्रवाहमय और रोचकता को बरकरार रखे हुये। आगे? शुभकामनायें।

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  6. स्वयं को विश्लेषित करते वक़्त व्यक्ति सबसे ज्यादा निर्मम हो उठता है...
    प्रवाहमयी कहानी

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  7. धारावाहिक का यह अंक भी अच्छा लगा!

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  8. मानवीय भावों की अभिव्यक्ति ऐसे ही होती है।

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  9. वीर सिंह जी जीवन और स्वभाव दोनों में परिवर्तन आ रहा है , उनका बिखराव साफ़ महसूस जा सकता है आपकी पंक्तियों में...
    जगाये रखिये वीर सिंह जी को ...
    रोचक , अगली कड़ी की प्रतीक्षा ...

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  10. ऐसा लग रहा है जैसे कहानी के प्रसंग और पात्र हमारे बीच के ही हैं।

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  11. अन्त की जिज्ञासा जगाती हुई रोचक कहानी।

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  12. कहानी काफ़ी रोचक है....

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  13. @ ’इस प्रक्रिया में वे एक विरोधाभास को जन्म दे रहे थे।’
    वीर सिंह बहुत आत्मीय लगने लगने हैं, एकदम जाने पहचाने..।

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  14. ओह - क्या इसके आगे के भाग लिखे नहीं अब तक ? मैं तो पहले भाग से यहाँ तक आज ही पढ़ गयी हूँ .... जीवन के काफी करीब ...

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  15. "दसों शंख जोगी ..."

    :
    :
    ह्म्म मेरे हाथ मे भी है! .....

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