| अनुरागी मन === भाग 1 भाग 2 भाग 3 भाग 4 === |
परी की मुस्कान के उत्तर में वीरसिंह भी मुस्कराये और फिर एक जम्हाई लेकर सोने के लिये जाने का उपक्रम करने लगे। रात वाकई गहराने लगी थी। आगे का किस्सा सुनने की उत्सुकता ईर और फत्ते दोनों को ही थी मगर अगले दिन तीनों को काम पर भी जाना था। सोने से पहले अगले दिन कहानी पूरा करने का वचन वीरसिंह से ले लिया गया। जैसे तैसे अगला दिन कटा। फत्ते घर आते समय शाम का खाना होटल से ले आया ताकि समय बर्बाद किये बिना कथा आगे बढ़ाई जा सके। जल्दी-जल्दी खाना निबटाकर, थाली हटाकर तीनों कथा-कार्यक्रम में बैठ गये।
एक पुरानी हवेली अन्दर से इतनी शानदार हो सकती है इसका वीर को आभास भी नहीं था। वासिफ ने वीर को अपनी दादी और माँ से मिलाया। दोनों ही सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति। वासिफ शायद अपने पिता पर गया होगा। उसके पिता और दादा शायद घर में नहीं थे। माँ चाय बनाने चली गयीं और वासिफ वीर को अन्दर एक कमरे में ले गया। कुछ पल तो वे चौंक कर उस कमरे की शान को बारीकी से देखते रहे जैसे कि सब कुछ आंखों में भर लेना चाहते हों। उसके बाद वे उस ओर चले जिधर पूरी दीवार किताबों से भरी आबनूस की अल्मारी के पीछे छिपी हुई थी। अधिकांश किताबें उर्दू या शायद अरबी-फारसी में थीं और चमड़े की ज़िल्द में मढ़ी हुई थीं। उत्सुकतावश एक पुस्तक छूने ही वाले थे कि एक कर्णप्रिय स्वरलहरी गूंजी, “चाय ले लीजिये।”
उन्होंने मुड़कर देखा और जैसी आशा थी, वही अप्सरा वासिफ के ठीक सामने पड़ी सैकडों साल पुरानी शाही मेज़ पर चाय और न जाने क्या-क्या लगा रही थी। रंग-रूप में वह और वासिफ़ एक दूसरे के ध्रुव-विपरीत लग रहे थे। वासिफ वीर की ओर देखकर हँसते हुए बोला, “इतना सब क्या इसके लिये लाई है? देव समझ रखा है क्या?”
“खायेंगे न आप? ... वरना आपके घर आ जाऊंगी खिलाने” अप्सरा वीर की ओर उन्मुख थी। बीच की मांग के दोनों ओर सुनहरे बालों ने उसका माथा ढँक लिया। उसकी हँसी देखकर वीर को मिलियन डॉलर स्माइल का अर्थ पहली बार समझ में आया।
“देव और अप्सरा, क्या संयोग है?” वीरसिंह सोच रहे थे, “नियति बार-बार उन दोनों को मिलाने का यह संयोग क्यों कर रही है?” वे अप्सरा की बात के जवाब में कुछ अच्छा कहना चाहते थे मगर ज़ुबान जैसे तालू से चिपक सी गयी थी। देव और अप्सरा, स्वर्गलोक, इन्द्रसभा। उनके मन में यूँ ही एक ख्याल आया जैसे उस कमरे में वासिफ नहीं था। उसी क्षण बाहर से एक भारी सी आवाज़ सुनाई दी, “वासिफ बेटा... ज़रा इधर को अइयो...”
“बच्चे को बोर मत करना, मैं बाद में आता हूँ ...” कहकर वासिफ तेज़ी से बाहर निकल गया।
“आइ वोंट, यू बैट!” अप्सरा ने उल्लसित होकर कहा, “टेक योर ओन टाइम!”
वासिफ ने कुछ सुना या नहीं, पता नहीं परंतु इतना सुन्दर उच्चारण सुनकर वीर के अन्दर हीन भावना सी आ गयी। ऑक्सफ़ोर्ड उच्चारण की बहुत तारीफ सुनी थी, शायद वही रहा होगा।
“इधर आ जाइये, उधर क्यों खड़े हैं?” परी की मनुहार से पहले ही वीरसिंह उसके सामने विराजमान थे। किताब अभी भी उनके हाथ में थी।
“वासिफ की छोटी बहन हैं आप?” वीर ने लगभग हकलाते हुए पूछा।
“नहीँ” फूल झरे।
“तो बड़ी हैं क्या?” वीर ने आशंकित होकर पूछा।
“नहीँ” फूल फिर झरे।
“अप्सरायें बड़ी-छोटी नहीं होतीं – चिर-युवा होती हैं” दादी की बात याद आयी, “क क क क्या नाम है आपका?”
“झरना... और आपका?”
“झरना यानि जल-प्रपात। और अप्सरा... यानि जल से जन्मी... सत्य है... स्वप्न है...”
“नहीं बतायेंगे अपना नाम? आपकी मर्ज़ी। वैसे आपकी ज़िम्मेदारी मुझे देकर गए हैं वासिफ भाई।
“मैं वीर, वीरसिंह!”
[क्रमशः]
सरकती जाए है रुख से नकाब आहिस्ता - आहिस्ता ..!
ReplyDeleteलगता है कहानी कोई सुन्दर सा मोड लेने वाली है--- अभी तो लेगी तभी आगे चलेगी। इन्तजार रहेगाआअगली कडी का। शुभकामनायें
ReplyDeleteअगली कड़ी का इन्तजार है...
ReplyDeleteअगली कड़ी का इन्तजार है...
ReplyDeleteकहानी दिलचस्प होती जा रही है !
ReplyDeleteकथा में रस आ रहा है!
ReplyDeleteअगली कड़ी की प्रतीक्षा है!
वीरसिंह के साथ होने वाली किसी गड़बड़ की आशंका हो रही है मुझे !
ReplyDeleteकुछ अधिक रोचक अवश्य है अगली कड़ी में।
ReplyDeleteकुछ ना कुछ गडबड तो होनी पक्की नजर आरही है, देखते हैं आगे क्या होता है?
ReplyDeleteरामराम.
सता लो उस्ताद जी, झलक सी दिखलाकर पर्दा गिरा देते हो आप।
ReplyDeleteइंतज़ार करेंगे और क्या!
विष्णु बैरागी has left a new comment on your post "अनुरागी मन - कहानी भाग 5":
ReplyDeleteमैंने शायद पहले भी कहा था, आप जासूसी उपन्यास लिखें तो झण्डे गाड देंगे।
रोमांच और रहस्य में रंच मात्र भी कमी नहीं आई है।
ईमेल द्वारा प्राप्त टिप्पणी
Girijesh Rao has left a new comment on your post "अनुरागी मन - कहानी भाग 5":
ReplyDeleteएक रहेन ईर, एक रहेन वीर, एक रहेन फत्ते
ग़जब हुआ कि ईर और फत्ते बस सुनते रहे और वीर को ग्रेटा मिल गई ...
फिर क्या हुआ?
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@ “नहीँ” फूल झरे।
“तो बड़ी हैं क्या?” वीर ने आशंकित होकर पूछा।
“नहीँ” फूल फिर झरे।
“अप्सरायें बड़ी-छोटी नहीं होतीं – चिर-युवा होती हैं” दादी की बात याद आयी, “क क क क्या नाम है आपका?”
“झरना... और आपका?”
“झरना यानि जल-प्रपात। और अप्सरा... यानि जल से जन्मी... सत्य है... स्वप्न है...”
सुन्दर चित्रण!
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@ क क क - तू है मेरी किरण।
ईमेल द्वारा प्राप्त टिप्पणी
गिरिजेश राव और विष्णु बैरागी जी की टिप्पणियाँ प्रकाशित होने के बाद भी मेरी असावधानी से हट गयी थीं - इमेल से लेकर पुनः लगा दी हैं - असुविधा के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ!
ReplyDeleteआप ऐसे मुहाने पर छोड़ते हैं कि अगली कड़ी का इन्तजार लगा रहता है...
ReplyDeleteआप कि कहानिया पढ़ने देर से आई पर ...देर आये :)
ReplyDeleteचलो सब कड़िय एक साथ पढ़ ली ...रोचक लग रही है ... अगले कड़ी का इन्तजार...
अब इस मोड़ के तो आप धुरंधर हैं !
ReplyDeleteआपसे बहुत जोर की शिकायत है....
ReplyDeleteथोडा सा और विस्तृत नहीं पोस्ट कर सकते आप ????
अरे, दो चार अंगुल तो और बढ़ाइए लम्बाई...
गज़ब का थ्रिल है...
ReplyDeleteधन्यवाद दीपक!
ReplyDeleteरोचक, उत्तेजक, मादक.....
ReplyDeleteआनंद आ रहा है...
सीरियल की तरह ब्रेक लगा देते हैं!
सर बहुत दिन बाद हाजिर हो पाया हूं इसलिये पहले चारों भाग पढ लूं फिर कुछ निवेदन कर पाउंगा
ReplyDeleteसामने आते ही वीर सिंह हकलाने लगे...अक्सर होता है अगर की खास सामने हो तो...बढ़िया प्रस्तुति..धन्यवाद जी
ReplyDeleteइन्तजार रहेगाआ अगली कडी का। शुभकामनायें
ReplyDeleteरोचक ..... इस कड़ी को कई दिन बाद पढ़ पाया .... दुबारा से लय में आ गया ... बड़े उतेज़ाक मोड़ पर रोकते हैं कहानी को आप .... अगली कड़ी की प्रतीक्षा है ...
ReplyDeleteहम पे ये किसने,
ReplyDeleteहरा रंग डाला ...!!
सुन्दर चित्रण ..
भावभरी माधुरी
अप्सरा ,
परी और वीर भी ..वाह वाह ...
स स्नेह
- लावण्या