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पुरुष: “तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुन्दर हो जाती है।”
स्त्री: “जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों में पहुँच जाती हूँ!”
पुरुष: “इसे ध्यान नहीं ख्याली पुलाव कहूंगा मैं। आँखें बंद करते ही बेतुके सपने देखने लगती हो तुम।”
स्त्री: “नहीं! मेरा विश्वास करो, साधना से सब कुछ संभव है। मुझे देखो, मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे सामने। और इसी समय अपनी साधना के बल पर मैं हरिद्वार के आश्रम में भी उपस्थित हूँ स्वामी जी के चरणों में।”
पुरुष: “उस बुड्ढे की तो...”
स्त्री: “तुम्हें ईर्ष्या हो रही है स्वामी जी से?”
पुरुष: “मुझे ईर्ष्या क्यों कर होने लगी?”
स्त्री: “क्योंकि तुम मर्द बड़े शक़्क़ी होते हो। याद रहे, शक़ का इलाज़ तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं है।”
पुरुष: “ऐसा क्या कह दिया मैंने?”
स्त्री: “इतना कुछ तो कहते रहते हो हर समय। मैं अपना भला-बुरा नहीं समझती। मेरी साधना झूठी है। योग, ध्यान सब बेमतलब की बातें हैं। स्वामीजी लम्पट हैं।”
पुरुष: “सच है इसलिये कहता हूँ। तुम यहाँ साधना के बल पर नहीं हो। तुम यहाँ हो, क्योंकि हम दोनों ने दूतावास जाकर वीसा लिया था। फिर मैंने यहाँ से तुम्हारे लिए टिकट खरीदकर भेजा था। और उसके बाद हवाई अड्डे पर तुम्हें लेने आया था। कल्पना और वास्तविकता में अंतर तो समझना पडेगा न!”
स्त्री: “हाँ, सारी समझ तो जैसे भगवान ने तुम्हें ही दे दी है। यह संसार एक सपना है। पता है?”
पुरुष: “सब पता है मुझे। पागल हो गई हो तुम।”
बालक: “यह आदमी कौन है?”
बालिका: “पता नहीं! रोज़ शाम को इस पार्क में सैर को आता है। हमेशा अपने आप से बातें करता रहता है। पागल है शायद।”
पुरुष: “तुम साथ होती हो तो शाम बहुत सुन्दर हो जाती है।”
स्त्री: “जब मैं ध्यान करती हूँ तो क्षण भर में उड़कर दूसरे लोकों में पहुँच जाती हूँ!”
पुरुष: “इसे ध्यान नहीं ख्याली पुलाव कहूंगा मैं। आँखें बंद करते ही बेतुके सपने देखने लगती हो तुम।”
स्त्री: “नहीं! मेरा विश्वास करो, साधना से सब कुछ संभव है। मुझे देखो, मैं यहाँ हूँ, तुम्हारे सामने। और इसी समय अपनी साधना के बल पर मैं हरिद्वार के आश्रम में भी उपस्थित हूँ स्वामी जी के चरणों में।”
पुरुष: “उस बुड्ढे की तो...”
स्त्री: “तुम्हें ईर्ष्या हो रही है स्वामी जी से?”
पुरुष: “मुझे ईर्ष्या क्यों कर होने लगी?”
स्त्री: “क्योंकि तुम मर्द बड़े शक़्क़ी होते हो। याद रहे, शक़ का इलाज़ तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं है।”
पुरुष: “ऐसा क्या कह दिया मैंने?”
स्त्री: “इतना कुछ तो कहते रहते हो हर समय। मैं अपना भला-बुरा नहीं समझती। मेरी साधना झूठी है। योग, ध्यान सब बेमतलब की बातें हैं। स्वामीजी लम्पट हैं।”
पुरुष: “सच है इसलिये कहता हूँ। तुम यहाँ साधना के बल पर नहीं हो। तुम यहाँ हो, क्योंकि हम दोनों ने दूतावास जाकर वीसा लिया था। फिर मैंने यहाँ से तुम्हारे लिए टिकट खरीदकर भेजा था। और उसके बाद हवाई अड्डे पर तुम्हें लेने आया था। कल्पना और वास्तविकता में अंतर तो समझना पडेगा न!”
स्त्री: “हाँ, सारी समझ तो जैसे भगवान ने तुम्हें ही दे दी है। यह संसार एक सपना है। पता है?”
पुरुष: “सब पता है मुझे। पागल हो गई हो तुम।”
बालक: “यह आदमी कौन है?”
बालिका: “पता नहीं! रोज़ शाम को इस पार्क में सैर को आता है। हमेशा अपने आप से बातें करता रहता है। पागल है शायद।”
हम्म... एक बडबडाता पागल था शायद !
ReplyDeleteभिनसारे में झूठ बोलना मुमकिन नहीं हो पा रहा। आपकी लघु कथा को आधार बनाऍं तो मानना पडेगा कि हम सब दिन भर में दो-चार बार तो पागल हो जाते हैं।
ReplyDelete'सूरज का सातवाँ घोड़ा' की याद हो आई।
ReplyDeleteप्रेम के लिए धन या समृद्धि आवश्यक है। अब किसी के यहाँ भैंस न हो तो दूध लेने कोई कैसे आएगी? नहीं आएगी तो दूहने वाले पठ्ठे से नैन कैसे मिलेंगे? न मिलेंगे तो प्रेम कैसे होगा? मतलब कि प्रेम के घटित होने के लिए भैंस या उसी तरह की कोई चीज आवश्यक है।
हे देव! मैं भी क्या अंट शंट बके जा रहा हूँ?
चेतना के दो अलहदे से आयामों को अच्छे से उकेरा है। कभी कभी दो आयामों से एक साथ साक्षी होते लोग बहुत कुछ खो बैठते हैं। दुनिया उन्हें पागल कहती है। नहीं?
और यह अंत में बालक बालिका का संकेत मारक है।
बालक-बालिका > पुरुष-स्त्री
दो > एक, किंतु पागल।
बेखुदी बेसबब नहीं ग़ालिब कुछ तो है जिसकी पर्दादारी है ...
ReplyDeleteबरबस यह शेर याद आ गया ...!
जब तक किसी का नुक्सान न हो, पागलपना ठीक है, आखिर इसी सनक की वजह से तो सारे लेखक और कवि भाईलोगों का गुजरा होता है ...
ReplyDeleteप्रभावशाली अंत .. मंटो वाला झटका याद आ गया ..
हाँ इसी तरह लोग पागल कह दिए जाते हैं -मतलब निकल गया तो पहचानते भी नहीं
ReplyDeleteबुढापा होता ही ऐसा है. सुन्दर लघु कथा. आभार.
ReplyDelete(कथा में उल्लिखित) साधना और कल्पना के साथ उसे तर्क नहीं करना चाहिए था :)
ReplyDeleteइन्सान होश हवास मे कम ही रहता है--- शायद मुमकिन भी नही है। रोचक कथा। शुभकामनायें
ReplyDeleteपागल या हालात का मारा बेचारा
ReplyDeleteअपने से बातें या तो पागल करते हैं या सिद्ध।
ReplyDeleteसच कहा आप ने धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत खूब .. कौन है पागल ... शायद ये दुनिया ही पागल है ....
ReplyDeleteबहुत जबरदस्त ....
आपकी यह लघुकथा वास्तव में
ReplyDeleteदिल पर अपनी छाप छोड़ गई!
ऐसा लगता है कि इस पागल ताऊ से कुछ जान पहचान सी है.
ReplyDeleteरामराम.
मैं पागल या ......ये दुनिया पागल ??
ReplyDeleteखुद से तर्क-वितर्क करने को उकसाती एक बेहतरीन लघुकथा लगी सर..
ReplyDeleteपागल ही होगा शायद..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर....
ReplyDeleteगोल गोल गोल घुमा दिया आपने..........
ReplyDeleteबस ठुड्डी पर हाथ धरे सोच रही हूँ.......
????????
:)
बहुत बहुत सुन्दर.......
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ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
सच कहूँ तो मेरी समझ में नहीं आया !
ReplyDeleteउस पोस्ट के साथ वो गाना बहुत जमता सरजी,
ReplyDelete’ये दिल ये पागल दिल मेरा, क्यों.....’
प्राय: दुनिया जिन्हें पागल समझती है, वे दुनिया को पागल समझते हैं।
लास्ट में आकर गज़ब ट्विस्ट दिया है आपने।
आभार।
Ek laghukatha me jitni bhi visheshtayen honi chahiye sabhi isme hain.Ant hatprabh kar deta hai aur sochne ko majboor bhi.
ReplyDeleteबहुत खूब। मनोवैग्यानिक कहानी है।
ReplyDeleteत्रासद है। है तो कहानी पर सच भी हो सकती है।
ReplyDeleteअतुल भाई, हम तो सच ही कहते हैं, सच के सिवा कुछ नहीं कहते। ;)
ReplyDeleteअंत असरकारी है ! लघुकथा ने खूब लुभाया.
ReplyDeleteआभार !
sateek kaha hai aapne.stree-purush dono ka jehan ek hi ped par lagaa hota hai. kabhi koi jamun meetha, to kabhi koi khatta. khane wale ka sabra hi santulan bindu hai.
ReplyDeleteMajaal ji ne sahi kahaa
ReplyDeleteMajaal ji s sahmat
ReplyDeleteअब जब सम्वाद की जगह सोशल मीडिया ने ले ली है तो पत्नी से सम्वाद करता पागल भी सराहनीय है.
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