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अनुरागी मन - अब तक - भाग 1; भाग 2; भाग 3; भाग 4;
भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11
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पिछले अंक में आपने पढा:
वीर ने हाथ में पकड़ी किताब को देखा। उसमें से वाकई एक पत्र सा झांक रहा था। वीर ने उसे वापस पुस्तक में समेट लिया। क्या हो गया है उन्हें? माँ को इतनी दूर से दिखने वाला लिफाफा उन्हें क्यों नहीं दिखा? और क्या हो गया है माँ को जो निक्की को नापसन्द करने लगी हैं। इतनी प्यारी लड़की है। विशेषकर वीर के प्रति इतनी दयालु है। सारे रास्ते माँ-बेटे में बस नाम भर की ही बात-चीत हुई। घर पहुँचकर माँ काम में लग गईं और वीर अपने कमरे में जाकर लिफाफा खोलकर अन्दर का पत्र पढ़ने लगे।
अब आगे भाग 12 ...
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वीरसिंह को रह-रहकर दादाजी की याद आती थी। उनका मन पिछली नईसराय यात्रा से बाहर आ ही नहीं पा रहा था। दादाजी के अवसान के समय अपनी अनुपस्थिति के लिये वे अपने को माफ नहीं कर पा रहे थे। काश वे उस समय झरना के मोहपाश में बन्धने के बजाय अपने घर होते तो दादाजी को बचाने का कुछ उपाय ज़रूर कर पाते। शायद दादाजी आज जीवित होते। इस कृत्य के लिये वे अपने आप को शायद कभी भी माफ नहीं कर पायेंगे।
"हाय हसन हम न हुए ..." बाहर से नारों की आवाज़ आ रही थी। शायद मुहर्रम का जुलूस निकल रहा था। वीर बाहर आ गये। मातम करने वाले धर्मयुद्ध में अपनी अनुपस्थिति का शोक मना रहे थे लोहे की जंज़ीरों से अपने आप को लहूलुहान करके। वीर अपने आप को वहाँ देख पा रहे थे। उनके मुँह से बेसाख्ता निकला, "हाय हसन हम न हुए ...।" पहले कभी ऐसी बेचैनी से गुज़रे होते तो शायद वासिफ से मिलने गये होते। लेकिन अब किस मुँह से वहाँ जायें। उसकी बहन की सूरत भी नहीं देखना चाहते थे वे। इतने आहत थे वे कि अप्सरा के बारे में सोचना तक नहीं चाहते थे। उसका ख्याल अपने दिमाग से झटककर वे अन्दर आये और पिताजी को एक पत्र लिखने बैठे। हर मुसीबत के समय अंततः वे पिताजी को ही याद करते थे। बहुत कोशिश की लेकिन इस बार कागज़ कोरा ही रहा। इस बार की मुलाकात से उन्हें पिताजी की कार्य सम्बन्धी कठिन परिस्थितियों का पूरा अहसास था। वे उनके काम में बाधक नहीं बनना चाहते थे।
"कम्पनी बाग तक जा रहा हूँ माँ!"
वे बाहर निकले और अपने ख्यालों में खोये से कम्पनी बाग की ओर बढ़ चले। घर-नगर के कोलाहल से दूर शांति चाहने वालों के लिये एक वही स्थान था शहर में। सोचा था कि ताज़ी हवा में ताज़गी मिलेगी परंतु हुआ इसका उलट। हर कदम के साथ उनकी उदासी बढती ही जा रही थी। दादाजी के अवसान का शोक तो था ही पिताजी ऐवम अन्य सैनिकों की भीषण कार्यपरिस्थिति के प्रति राष्ट्र की उदासीनता उन्हें काटे डाल रही थी। इन सब के ऊपर उन्हें लगातार झरना से धोखा खाने का अहसास भी कचोट रहा था। पिछले कुछ सप्ताहों में उन्होंने न जाने कितनी बार जीवन की नश्वरता के बारे में बडी शिद्दत से सोचा था। वे बलपूर्वक संसार में मन लगाना चाहते थे परंतु सब कुछ अर्थहीन सा लगता था।
"अरे, यह तो वीर है" किसी महिला की आवाज़ उनके कान में पड़ी। जब तक वे समझ पाते, वासिफ की माँ और झरना उनके सामने खड़ी थीं। झरना के गाल और कान हया से या खुशी से सुर्ख से हो रहे थे। ढलते हुए सूरज की किरणों में उसकी स्वर्णिम रंगत पर यह लालिमा एक और ही सूर्योदय का संकेत दे रही थी।
"हम भी वासिफ भाई के साथ ही आ गये, दो हफ्ते यहीं रहेंगे। आप चलिये न साथ में ..." माँ के कुछ बोलने से पहले ही झरना उत्साह में भरकर बोलने लगी।
वह बोलती जा रही थी और वीरसिंह के मन में समुद्र मंथन सा हो रहा था, "झूठी कहीं की ... ।"
उनका गला सूखने लगा। जैसे तैसे मुँह से बस इतना ही निकला, "जल्दी में हूँ, बाद में आपके घर आऊँगा, वासिफ से मिलने।"
झटके से उन्होंने घर की ओर दौड़ सी लगा दी।
सोमवार से विद्यालय खुल गया। पुराने दोस्त मिले, सिवाय एक वासिफ के। उसने स्कूल बदल लिया या छोड़ ही दिया, भगवान जाने । पर उसकी अनुपस्थिति से वीर को कोई शिकायत नहीं हुई। बल्कि उन्होंने अपने को बन्धनमुक्त ही महसूस किया। पहले दो दिन तो नये सहपाठियों, अध्यापकों, पाठ्यक्रम और पुस्तकों से परिचय होने में ही चले गये पर उसके बाद फिर से जीवन की निरर्थकता का बोध उनके ऊपर हावी होने लगा। बल्कि हर पल के साथ उनके हृदय का खालीपन बढता जाता था। अध्यापक पूरे सत्र में बोलते चले जाते थे और वीर के दिमाग में कभी झरना का प्यार और झूठ चल रहा होता, कभी दादाजी की चिता दिखती कभी उससे पहले का आन्धी-तूफान। इन सबसे बच पाते तो अपने को नक्सलियों से घिरे एक भारतीय सैनिक के रूप में पाते। उन्हें लगता कि उनके अधिकारी दुश्मनों से मिल गये हैं।
ऐसा नहीं कि वीर को अपने अन्दर होते इस परिवर्तन का अहसास नहीं था। वे इसे समझ भी रहे थे और इससे जूझने के उपाय भी कर रहे थे। जीवन जितना उदास लगता वे अपने आप से लड़कर उसे उतना ही रोचक बनाने का प्रयास करते। घर में होते तो फिल्मी गीत और ग़ज़लें सुनते रहते। बाहर आते तो फिल्म देखने निकल जाते। रिज़र्व प्रकृति के वीर ने आसपास के बच्चों के साथ पतंग उड़ाना शुरू कर दिया। शहर में एक ही तरणताल था, वहाँ जाना शुरू कर दिया। कहाँ तो माँ इस घर-घुस्सू को बाहर निकालते-निकालते थक जाती थी और कहाँ अब जैसे बस खाना खाने और सोने के लिये ही घर आते थे।
भले ही भारत के अनेक नगरों में गुड़ी पडवा या पन्द्रह अगस्त का दिन पतंगों का होता हो, बरेली में हर दिन पतंगबाज़ी का होता है। रोज़ाना ही पेंच लड़ रहे होते हैं। तपते सूरज का सामना करते वीर इतवार को छत पर थे कि सामने सडक पर नज़र पड़ी तो प्रकाश की एक किरण वहाँ चमकी। झरना ही थी। हाथ में एक पर्ची लिये दलबीर की दुकान के बाहर खडी थी। दलबीर ने वीर की ओर इशारा किया। उनकी नज़रें झरना से मिलीं। ठीक उसी समय वीर ने एक झटके से अपनी पतंग की डोर तोड़ी, सीढ़ी से नीचे सरके, साइकिल उठाई और ताबड़तोड़ पैडल मारते हुए दलबीर इलेक्ट्रिकल्स की उलटी दिशा में दौड़ लिये, बिना किसी गंतव्य के।
[क्रमशः]
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भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9; भाग 10; भाग 11
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पिछले अंक में आपने पढा:
वीर ने हाथ में पकड़ी किताब को देखा। उसमें से वाकई एक पत्र सा झांक रहा था। वीर ने उसे वापस पुस्तक में समेट लिया। क्या हो गया है उन्हें? माँ को इतनी दूर से दिखने वाला लिफाफा उन्हें क्यों नहीं दिखा? और क्या हो गया है माँ को जो निक्की को नापसन्द करने लगी हैं। इतनी प्यारी लड़की है। विशेषकर वीर के प्रति इतनी दयालु है। सारे रास्ते माँ-बेटे में बस नाम भर की ही बात-चीत हुई। घर पहुँचकर माँ काम में लग गईं और वीर अपने कमरे में जाकर लिफाफा खोलकर अन्दर का पत्र पढ़ने लगे।
अब आगे भाग 12 ...
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वीरसिंह को रह-रहकर दादाजी की याद आती थी। उनका मन पिछली नईसराय यात्रा से बाहर आ ही नहीं पा रहा था। दादाजी के अवसान के समय अपनी अनुपस्थिति के लिये वे अपने को माफ नहीं कर पा रहे थे। काश वे उस समय झरना के मोहपाश में बन्धने के बजाय अपने घर होते तो दादाजी को बचाने का कुछ उपाय ज़रूर कर पाते। शायद दादाजी आज जीवित होते। इस कृत्य के लिये वे अपने आप को शायद कभी भी माफ नहीं कर पायेंगे।
"हाय हसन हम न हुए ..." बाहर से नारों की आवाज़ आ रही थी। शायद मुहर्रम का जुलूस निकल रहा था। वीर बाहर आ गये। मातम करने वाले धर्मयुद्ध में अपनी अनुपस्थिति का शोक मना रहे थे लोहे की जंज़ीरों से अपने आप को लहूलुहान करके। वीर अपने आप को वहाँ देख पा रहे थे। उनके मुँह से बेसाख्ता निकला, "हाय हसन हम न हुए ...।" पहले कभी ऐसी बेचैनी से गुज़रे होते तो शायद वासिफ से मिलने गये होते। लेकिन अब किस मुँह से वहाँ जायें। उसकी बहन की सूरत भी नहीं देखना चाहते थे वे। इतने आहत थे वे कि अप्सरा के बारे में सोचना तक नहीं चाहते थे। उसका ख्याल अपने दिमाग से झटककर वे अन्दर आये और पिताजी को एक पत्र लिखने बैठे। हर मुसीबत के समय अंततः वे पिताजी को ही याद करते थे। बहुत कोशिश की लेकिन इस बार कागज़ कोरा ही रहा। इस बार की मुलाकात से उन्हें पिताजी की कार्य सम्बन्धी कठिन परिस्थितियों का पूरा अहसास था। वे उनके काम में बाधक नहीं बनना चाहते थे।
"कम्पनी बाग तक जा रहा हूँ माँ!"
वे बाहर निकले और अपने ख्यालों में खोये से कम्पनी बाग की ओर बढ़ चले। घर-नगर के कोलाहल से दूर शांति चाहने वालों के लिये एक वही स्थान था शहर में। सोचा था कि ताज़ी हवा में ताज़गी मिलेगी परंतु हुआ इसका उलट। हर कदम के साथ उनकी उदासी बढती ही जा रही थी। दादाजी के अवसान का शोक तो था ही पिताजी ऐवम अन्य सैनिकों की भीषण कार्यपरिस्थिति के प्रति राष्ट्र की उदासीनता उन्हें काटे डाल रही थी। इन सब के ऊपर उन्हें लगातार झरना से धोखा खाने का अहसास भी कचोट रहा था। पिछले कुछ सप्ताहों में उन्होंने न जाने कितनी बार जीवन की नश्वरता के बारे में बडी शिद्दत से सोचा था। वे बलपूर्वक संसार में मन लगाना चाहते थे परंतु सब कुछ अर्थहीन सा लगता था।
"अरे, यह तो वीर है" किसी महिला की आवाज़ उनके कान में पड़ी। जब तक वे समझ पाते, वासिफ की माँ और झरना उनके सामने खड़ी थीं। झरना के गाल और कान हया से या खुशी से सुर्ख से हो रहे थे। ढलते हुए सूरज की किरणों में उसकी स्वर्णिम रंगत पर यह लालिमा एक और ही सूर्योदय का संकेत दे रही थी।
"हम भी वासिफ भाई के साथ ही आ गये, दो हफ्ते यहीं रहेंगे। आप चलिये न साथ में ..." माँ के कुछ बोलने से पहले ही झरना उत्साह में भरकर बोलने लगी।
वह बोलती जा रही थी और वीरसिंह के मन में समुद्र मंथन सा हो रहा था, "झूठी कहीं की ... ।"
उनका गला सूखने लगा। जैसे तैसे मुँह से बस इतना ही निकला, "जल्दी में हूँ, बाद में आपके घर आऊँगा, वासिफ से मिलने।"
झटके से उन्होंने घर की ओर दौड़ सी लगा दी।
सोमवार से विद्यालय खुल गया। पुराने दोस्त मिले, सिवाय एक वासिफ के। उसने स्कूल बदल लिया या छोड़ ही दिया, भगवान जाने । पर उसकी अनुपस्थिति से वीर को कोई शिकायत नहीं हुई। बल्कि उन्होंने अपने को बन्धनमुक्त ही महसूस किया। पहले दो दिन तो नये सहपाठियों, अध्यापकों, पाठ्यक्रम और पुस्तकों से परिचय होने में ही चले गये पर उसके बाद फिर से जीवन की निरर्थकता का बोध उनके ऊपर हावी होने लगा। बल्कि हर पल के साथ उनके हृदय का खालीपन बढता जाता था। अध्यापक पूरे सत्र में बोलते चले जाते थे और वीर के दिमाग में कभी झरना का प्यार और झूठ चल रहा होता, कभी दादाजी की चिता दिखती कभी उससे पहले का आन्धी-तूफान। इन सबसे बच पाते तो अपने को नक्सलियों से घिरे एक भारतीय सैनिक के रूप में पाते। उन्हें लगता कि उनके अधिकारी दुश्मनों से मिल गये हैं।
ऐसा नहीं कि वीर को अपने अन्दर होते इस परिवर्तन का अहसास नहीं था। वे इसे समझ भी रहे थे और इससे जूझने के उपाय भी कर रहे थे। जीवन जितना उदास लगता वे अपने आप से लड़कर उसे उतना ही रोचक बनाने का प्रयास करते। घर में होते तो फिल्मी गीत और ग़ज़लें सुनते रहते। बाहर आते तो फिल्म देखने निकल जाते। रिज़र्व प्रकृति के वीर ने आसपास के बच्चों के साथ पतंग उड़ाना शुरू कर दिया। शहर में एक ही तरणताल था, वहाँ जाना शुरू कर दिया। कहाँ तो माँ इस घर-घुस्सू को बाहर निकालते-निकालते थक जाती थी और कहाँ अब जैसे बस खाना खाने और सोने के लिये ही घर आते थे।
भले ही भारत के अनेक नगरों में गुड़ी पडवा या पन्द्रह अगस्त का दिन पतंगों का होता हो, बरेली में हर दिन पतंगबाज़ी का होता है। रोज़ाना ही पेंच लड़ रहे होते हैं। तपते सूरज का सामना करते वीर इतवार को छत पर थे कि सामने सडक पर नज़र पड़ी तो प्रकाश की एक किरण वहाँ चमकी। झरना ही थी। हाथ में एक पर्ची लिये दलबीर की दुकान के बाहर खडी थी। दलबीर ने वीर की ओर इशारा किया। उनकी नज़रें झरना से मिलीं। ठीक उसी समय वीर ने एक झटके से अपनी पतंग की डोर तोड़ी, सीढ़ी से नीचे सरके, साइकिल उठाई और ताबड़तोड़ पैडल मारते हुए दलबीर इलेक्ट्रिकल्स की उलटी दिशा में दौड़ लिये, बिना किसी गंतव्य के।
[क्रमशः]
रोज़ाना ही पेंच लड रहे होते हैं|
ReplyDeleteधर्मयुद्ध में अपनी अनुपस्थिति का शोक मना रहे थे |
जीवन की नश्वरता के बारे में बडी शिद्दत से सोचा|
lajavaab
वीर सिंह जी का मानसिक स्वस्थ्य ठीक नहीं लग रहा अभी...
ReplyDeleteसस्पेंस बना हुआ है , क्या होगा आगे ?
अच्छी कहानी...उत्सुकता अपने चरम पर है...आगे के इंतज़ार में...
ReplyDeleteआगे देखते हैं!
ReplyDeleteरोचक .....
ReplyDeleteकथानक कहीं उलझा हुआ लग रहा है चूँकि मैंने प्रारंभ से नहीं पढ़ी इसलिए कन्फुय्जन बन रहा है
ReplyDeleteअगले अंक में गन्तव्य की प्रतीक्षा है!
ReplyDelete@ उल्टी दिशा में दौड़ चला:
ReplyDeleteनाम वीरसिंह, निकला पलायनवादी:)
कम से कम इत्ते साईज़ की तो होनी ही चाहिये आपकी पोस्ट, और ज्यादा से ज्यादा इतने ही गैप पर।
कथ्य अवं शिल्प दोनों ही सुन्दर हैं ,कहानी वेगमयी है ....सुंदर /
ReplyDelete@ मो सम कौन जी ?
ReplyDeleteवास्ते,उल्टी दिशा में दौड चला :)
कल्पना कीजिये कि ये कथा आत्मकथात्मक है तो :)
@ स्मार्ट इन्डियन जी ,
आगे के कुछ और अंक पढ़ लूं तो देखूं क्या प्रतिक्रिया बन सकती है !
इतना अन्तर कर पोस्ट करने में तारतम्य बाधित हो जाता है।
ReplyDeleteरोचक चल रही है कहानी..... प्रभावी कथ्य
ReplyDeleteबहुत रोचक...
ReplyDeleteउत्सुकता बहुत हे अब जल्दी से आगे चले...
ReplyDeletebadhiya laga padhna .sundar .
ReplyDelete@ ali ji:
ReplyDeleteउस केस में एक कल्पना और कर लेंगे कि उल्टी दिशा की उल्टी दिशा बोले तो सीधी दशा:)
@ आगे के कुछ और अंक पढ़ लूं तो देखूं
ReplyDeleteतब तक तो प्रलय हो जायेगी अली जी।