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अनुरागी मन - कहानी - भाग 1; भाग 2; भाग 3;
भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9
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क्षण भर में दुनिया कैसे बदल जाती है इस बात का मर्म वीरसिंह को उस एक दिन में पता चल गया था। अपने दादाजी की छत्रछाया में अपनी अप्सरा की गोद में सर रखे हुए बेफिक्र वीरसिंह का एक ही रात में कायाकल्प हो गया था। एक खिलंदड़े किशोर के जीवन में एक ही रात में इतने क़हर टूटे जिनको समझने में उसकी उम्र चली जानी थी। उस एक रात में जीवन ने उन्हें जो पाठ पढ़ाया वह अमूल्य था। कुछ देर पहले तक भाग्य उनकी मुट्ठी में था। वे जब जैसा चाहते थे बिल्कुल वैसा ही घट रहा था। अचानक से किस्मत कैसी करवट बैठ गयी। एक ही पल में दो प्रियजनों से एक झटके में सम्बन्ध टूट गया था। हाथ छुड़ाने वालों में से एक जन्म से भी पहले का प्रिय था और दूसरा? जन्म-जन्मांतर का साथी या केवल चार दिन का हमराही?
दादाजी का शोक प्रकट करने वासिफ भी आया था। साथ में झरना भी थी। आंखों में आँसू के झरने, काला दुपट्टा, काली कमीज़, काला शरारा। ऊपर से नीचे तक दुःख की कालिख में डूबी हुई। वासिफ ने कन्धा थपथपा कर सांत्वना दी, झरना गले लग कर रोई। लेकिन वीरसिंह पत्थर हो गये थे। वे प्रकृति के इस क्रूर खेल को स्वीकार तो कर चुके थे लेकिन अभी भी समझ नहीं पा रहे थे। वासिफ ने कुछ कहा जो वीर ने सुना ज़रूर पर समझ न सके। झरना ने कोई कागज़ दिया जो उन्होंने लिया ज़रूर पर उसके बारे में कुछ भी याद न रख सके।
दशमे की रस्म आज दिन में पूरी हो चुकी थी। तेरहवीं के बाद पिताजी को वापस जाना था। चान्दनी रात में पिता-पुत्र छत पर चुपचाप खडे शून्य में कुछ ढूंढ रहे थे। निक्की चाय देकर चुपचाप वापस चली गयी। वीर को पिताजी से सहानुभूति हो रही थी। अपने पिता के बिना न जाने कैसा खालीपन अनुभव कर रहे होंगे?
“माता-पिता को खोना कितना कठिन है। आप ठीक तो हैं न?” वीर ने साहस करके पूछा।
“हाँ, जो लोग साथ रहते हैं उन्हें ज़्यादा मुश्किल होती होगी शायद।”
“आप तो अंतिम समय पर देख भी नहीं पाये!”
“हम तो सिपाही हैं। हमारे लिये सरकार जहाज़ का टिकट नहीं दे सकती। छुट्टी मिली यही बहुत है।”
“ऐसा क्यों कह रहे हैं?” वीर ने आश्चर्य से पूछा। पता लगा कि सेना में सिपाहियों को कई बार ज़रूरी काम होने पर भी छुट्टी नहीं मिलती है। सारी सुविधायें भोगते हुए भी कुछ अधिकारी कई बार दुष्कर परिस्थितियों में रहते अपने सिपाहियों के प्रति क्रूरता की हद तक अमानवीय हो जाते हैं।
पिताजी को छुट्टी की समस्या नहीं आयी मगर महीने भर पहले उन्हीं की यूनिट में एक अधिकारी ने जब अपने सिपाही को कायर, झूठा और मक्कार कहते हुए मृत्यु के कगार पर पड़ी माँ को देखने की दर्ख्वास्त को फाड़कर फेंक दिया था तो उसी सिपाही ने रात में खूब शराब पीकर अधिकारी को गोली मार दी थी। सिपाही क़ैद में था और गाँव में उसकी माँ का शवदाह पडोसी कर रहे थे।
वीर को इस दुनिया और समाज से पूर्ण विरक्ति सी होने लगी। झरना ने उनके हृदय पर एक गहरा और अमिट ज़ख्म दिया था। उस रात की सभी दुखद घटनाओं के लिये वे अब तक उसे ही कारक मान रहे थे।
[क्रमशः]
अनुरागी मन - कहानी - भाग 1; भाग 2; भाग 3;
भाग 4; भाग 5; भाग 6; भाग 7; भाग 8; भाग 9
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क्षण भर में दुनिया कैसे बदल जाती है इस बात का मर्म वीरसिंह को उस एक दिन में पता चल गया था। अपने दादाजी की छत्रछाया में अपनी अप्सरा की गोद में सर रखे हुए बेफिक्र वीरसिंह का एक ही रात में कायाकल्प हो गया था। एक खिलंदड़े किशोर के जीवन में एक ही रात में इतने क़हर टूटे जिनको समझने में उसकी उम्र चली जानी थी। उस एक रात में जीवन ने उन्हें जो पाठ पढ़ाया वह अमूल्य था। कुछ देर पहले तक भाग्य उनकी मुट्ठी में था। वे जब जैसा चाहते थे बिल्कुल वैसा ही घट रहा था। अचानक से किस्मत कैसी करवट बैठ गयी। एक ही पल में दो प्रियजनों से एक झटके में सम्बन्ध टूट गया था। हाथ छुड़ाने वालों में से एक जन्म से भी पहले का प्रिय था और दूसरा? जन्म-जन्मांतर का साथी या केवल चार दिन का हमराही?
दादाजी का शोक प्रकट करने वासिफ भी आया था। साथ में झरना भी थी। आंखों में आँसू के झरने, काला दुपट्टा, काली कमीज़, काला शरारा। ऊपर से नीचे तक दुःख की कालिख में डूबी हुई। वासिफ ने कन्धा थपथपा कर सांत्वना दी, झरना गले लग कर रोई। लेकिन वीरसिंह पत्थर हो गये थे। वे प्रकृति के इस क्रूर खेल को स्वीकार तो कर चुके थे लेकिन अभी भी समझ नहीं पा रहे थे। वासिफ ने कुछ कहा जो वीर ने सुना ज़रूर पर समझ न सके। झरना ने कोई कागज़ दिया जो उन्होंने लिया ज़रूर पर उसके बारे में कुछ भी याद न रख सके।
दशमे की रस्म आज दिन में पूरी हो चुकी थी। तेरहवीं के बाद पिताजी को वापस जाना था। चान्दनी रात में पिता-पुत्र छत पर चुपचाप खडे शून्य में कुछ ढूंढ रहे थे। निक्की चाय देकर चुपचाप वापस चली गयी। वीर को पिताजी से सहानुभूति हो रही थी। अपने पिता के बिना न जाने कैसा खालीपन अनुभव कर रहे होंगे?
“माता-पिता को खोना कितना कठिन है। आप ठीक तो हैं न?” वीर ने साहस करके पूछा।
“हाँ, जो लोग साथ रहते हैं उन्हें ज़्यादा मुश्किल होती होगी शायद।”
“आप तो अंतिम समय पर देख भी नहीं पाये!”
“हम तो सिपाही हैं। हमारे लिये सरकार जहाज़ का टिकट नहीं दे सकती। छुट्टी मिली यही बहुत है।”
“ऐसा क्यों कह रहे हैं?” वीर ने आश्चर्य से पूछा। पता लगा कि सेना में सिपाहियों को कई बार ज़रूरी काम होने पर भी छुट्टी नहीं मिलती है। सारी सुविधायें भोगते हुए भी कुछ अधिकारी कई बार दुष्कर परिस्थितियों में रहते अपने सिपाहियों के प्रति क्रूरता की हद तक अमानवीय हो जाते हैं।
पिताजी को छुट्टी की समस्या नहीं आयी मगर महीने भर पहले उन्हीं की यूनिट में एक अधिकारी ने जब अपने सिपाही को कायर, झूठा और मक्कार कहते हुए मृत्यु के कगार पर पड़ी माँ को देखने की दर्ख्वास्त को फाड़कर फेंक दिया था तो उसी सिपाही ने रात में खूब शराब पीकर अधिकारी को गोली मार दी थी। सिपाही क़ैद में था और गाँव में उसकी माँ का शवदाह पडोसी कर रहे थे।
वीर को इस दुनिया और समाज से पूर्ण विरक्ति सी होने लगी। झरना ने उनके हृदय पर एक गहरा और अमिट ज़ख्म दिया था। उस रात की सभी दुखद घटनाओं के लिये वे अब तक उसे ही कारक मान रहे थे।
[क्रमशः]
जवान के लिये छुट्टी तो वाकई बड़ी मुश्किल से मिलती है..
ReplyDeleteये अंक तो बहुत मार्मिक हो गया। सिपाहिओं के दर्द---- सच मे कई बार सोच कर मन दुखी होता है। देश की खातिर अपनी संवेदनाओं का गला भी घोटना पडता है। अब वीर सिंह का क्या होगा पिता के जाने के बाद? इन्तजार। ---- शुभकामनायें।
ReplyDeleteकहानी बहुत रोचकता लिए है,अगली कड़ी का इन्तजार है,आभार.
ReplyDeleteऐसी कारुणिक परिस्थितियों में भी सैनिकों को छुट्टी ना मिलना ...उनके दर्द को समझा जा सकता है ...
ReplyDeleteरोचक कड़ी मगर बहुत विलम्ब से !
बड़े पेड़ की पत्तियाँ जब गिरती हैं, तब ठूठ बड़ा भयावह लगता है।
ReplyDeleteसैनिकों की पीडा तो उनसे सीधे तौर पर जुडे लोग ही समझ सकते है, बहुत मार्मिक.
ReplyDeleteरामराम
किसी की दुनिया या किसी के लिये दुनिया या किसी के कारण दुनिया सिर्फ़ एक पल में भी बदल सकती है।
ReplyDeleteसैनिकों के तनाव का अंदाजा दूर बैठे लोग कम ही लगा पाते हैं।
अगली कड़ी में रहस्य बढ़ा रहे हैं या खोल रहे हैं, थोड़ा हिंट मिल जाता तो...:))
फ़ोजी का दुख तो उस के घरवाले या वो ही जाने... बेचारा छुट्टी के लिये तरसता रहता हे, अगर मिल जाये तो जल्दी ही वापिस बुला लेते हे(भारतिया फ़िल्मो मे तो खास कर)कहानी बहुत अच्छी लगी
ReplyDeleteबेहतरीन बातें सामने रख रही है कहानी ....सैनिकों की इन हालातों की किस्से अपने आस पास देखे हैं.... सच में परिस्थितियाँ बडी कष्टकारी होती हैं.....
ReplyDeleteपोस्ट मार्मिक है मगर रोचक है!
ReplyDeleteसैनिकों की पीड़ा को एक कहानी के अन्दर बहुत सही तरीके से जगह दी आपने ..
ReplyDeleteवीरसिंह को झरना पर क्रोध नहीं करना चाहिए |
@ वीरसिंह ,
ReplyDeleteपता नहीं क्या कहूं ? पहाड सा दुःख टूट पड़ना या फिर ज़लज़ले से गुज़र जाना ? या नियति की करवट ?
@ सैनिक ,
बहुत गंभीर मसला है ये ! हमारे यहां नक्सलवादियों के विरुद्ध तैनात जवान अक्सर कार्य की कठोर दशाओं और समय पर छुट्टियाँ ना मिलने की वज़ह से तनावग्रस्त हो जाते हैं ! आत्महत्या , सहकर्मियों की आपसी झगडे में मौत और अधिकारी को गोली मार देने की घटनायें बढ़ रही हैं !
बाद में हम बड़ी आसानी से कह देते हैं कि स्ट्रेस मैनेजमेंट की ज़रूरत है पर वर्किंग कंडीशंस का क्या ?
@ वीरसिंह ,
ReplyDeleteपता नहीं क्या कहूं ? पहाड सा दुःख टूट पड़ना या फिर ज़लज़ले से गुज़र जाना ? या नियति की करवट ?
@ सैनिक ,
बहुत गंभीर मसला है ये ! हमारे यहां नक्सलवादियों के विरुद्ध तैनात जवान अक्सर कार्य की कठोर दशाओं और समय पर छुट्टियाँ ना मिलने की वज़ह से तनावग्रस्त हो जाते हैं ! आत्महत्या , सहकर्मियों की आपसी झगडे में मौत और अधिकारी को गोली मार देने की घटनायें बढ़ रही हैं !
बाद में हम बड़ी आसानी से कह देते हैं कि स्ट्रेस मैनेजमेंट की ज़रूरत है पर वर्किंग कंडीशंस का क्या ?
कहानी बहुत रोचकता लिए है| धन्यवाद|
ReplyDeleteपोस्ट मार्मिक है मगर रोचक है| धन्यवाद|
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