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पहले सोचा था कि आज लखनऊ विकास प्राधिकरण में ईमानदारी के साथ मेरे प्रयोग के बारे में लिखूंगा परंतु फिर पांडेय जी की पोस्ट
डिसऑनेस्टतम समय – क्या कर सकते हैं हम? पर भारतीय नागरिक की टिप्पणी पर ध्यान चला गया। इसमें और बातों के साथ एक विचारणीय मुद्दा शिक्षा का भी था:
"हम सब व्यापारी बन गये हैं. आजादी इसलिये मिल सकी कि लोग कम पढ़े-लिखे थे, एक आवाज पर निकल पड़ते थे. आज सब पढ़ गये हैं, सबने अपने स्वार्थमय लक्ष्य निर्धारित कर लिये हैं."
हम सभी अमूमन यह मानते हैं कि स्कूली शिक्षा हमें बुराइयों से बाहर निकालेगी। भारतीय नागरिक का अनुभव ऐसा नहीं लगता। मेरा अनुभव तो निश्चित रूप से ऐसा नहीं है। देश के प्रशासन में बेईमानी इस तरह रमी हुई है कि इससे गुज़रे बिना एक आम भारतीय का जीना असम्भव सा ही लगता है। प्रशासन की ज़िम्मेदारी पढे लिखे लोगों पर ही है। अगर शिक्षा ईमानदार बनाती तो यह शिक्षित वर्ग रोज़ ईमानदारी के नये उदाहरण सामने रख रहा होता और बेईमानी हमारे लिये विचार-विमर्श का विषय नहीं होती। कई लोग कहते हैं कि देश की जडें काटने का काम पढे लिखे लोगों ने सबसे अधिक किया है। अपने निहित स्वार्थ और सत्ता, पद और धन की लोलुपता के लिये देश का बंटवारा करके अलग पाकिस्तान बनाने की हिमायत करने वाले अनपढ लोग नहीं बल्कि बडे-बडे बैरिस्टर, शिक्षाविद, और साहित्यकार आदि थे। बस मैं गवर्नर-जनरल बन जाऊँ, चाहे इसके लिये मुझे "सारे जहाँ से अच्छा" वतन काटना पडे और इस विभाजन में चाहे दसियों लाख लोगों को अमानवीय स्थितियों से गुज़रना पडे। केवल स्कूली शिक्षा इस आसुरी विचार को काबू नहीं कर सकती है।
कुछ स्कूलों के पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा भले ही जोड दी गयी हो मगर "जिन बातों को खुद नहीं समझे, औरों को समझाया है..." का शायराना विचार वास्तविक जीवन में चलता नहीं है। बच्चे बडों को देखकर सीखते हैं। जब तक हम बडे मनसः वाचः कर्मणः ईमानदार होने का प्रयास नहीं करेंगे तब तक हम यह मूल्य अपने बच्चों तक नहीं पहुँचा सकते हैं। "कैसे कैसे शिक्षक" में मैने "तुम भी खर्चो तो तुम भी कर लेना" वाले शिक्षक का उदाहरण दिया था। उन्हीं के एक सहकर्मी थे एमकेऐस। भावुकहृदय कवि, चित्रकार, अभिनेता और अध्यापक। मैने इन कलाकार को अपने एक मित्र से कहते सुना, "एक नागरिक के रूप में मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि मेरा बेटा ईमानदार बने परंतु एक पिता के रूप में मैं जानता हूँ कि दुनिया उसे ईमानदारी से जीने नहीं देगी इसलिये मैं उसे दुनियादारी (बेईमानी?) सिखाता हूँ। एक और अध्यापक जी अपने वेतन के बारे में शिकायत करते हुए कह रहे थे, "उन्होने हमें पैसे नहीं दिये, हमने उन्हें संस्कार नहीं दिये।" ये शिक्षक अपने छात्रों (और बच्चों) को डंके की चोट पर बेईमानी सिखा रहे हैं। शिक्षा व्यवस्था में से ऐसे लोगों की छँटाई की गहन आवश्यकता है।
अक्टूबर 2010 में टाटा समूह ने अमेरिका के प्रतिष्ठित हारवर्ड बिज़नैस स्कूल को पाँच करोड डॉलर (225 करोड रुपये) दान किये। ज़रा सोचिये कि इतने पैसे से गरीबी रेखा के नीचे रह रहे कितने भारतीयों की किस्मत बदली जा सकती थी। उनसे पहले इसी संस्था को महिन्द्रा समूह भी एक बडा दान दे चुका था। हारवर्ड की तरह ही एक और प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय है, येल। 1861 में अमेरिका की पहली पीऐचडी सनद येल विश्वविद्यालय ने ही दी थी। 1718 में येल कॉलेज का नामकरण हुआ था इसके सबसे बडे दानदाता (500 पौंड) ईलाइहू येल के नाम पर। ईलाइहू येल भारत (मद्रास) में ईस्ट इंडिया कम्पनी का गवर्नर था। अधिकांश अंग्रेज़ अधिकारियों की तरह येल भी सिर से पैर तक भ्रष्ट था। उसके समय में मद्रास में बच्चों की चोरी और उन्हें गुलाम बनाकर बेचने की समस्या अचानक से बढ गयी थी। वैसे तो ईस्ट इंडिया कम्पनी में भ्रष्टाचार को पूरी सामाजिक मान्यता मिली हुई थी लेकिन येल इतना भ्रष्ट थी कि भ्रष्ट कम्पनी ने भी उसे भ्रष्टाचार के आरोप में नौकरी से निकाल दिया।
जिन्होने श्रीसूक्त पढा होगा वे लक्ष्मी और अलक्ष्मी शब्दों से परिचित होंगे। धन अच्छा या बुरा होता है। मगर शिक्षा? ईशोपनिषद का वाक्य है:
अन्धंतमः प्रविशंति येविद्यामुपासते, ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाम् रताः
अविद्या के उपासक तो घोर अन्धकार में जाते ही हैं, विद्या के उपासक उससे भी गहरे अन्धकार में जाते हैं।
ईमानदारी किसी स्कूल में पढाई नहीं जाती, हालांकि पढाई जानी चाहिये। गुरुर्देवो भव: से पहले यह मातृदेव और पितृदेव की भी ज़िम्मेदारी है। ईमानदारी सृजन की, उत्पादन की, सक्षमता की बात है न कि कामचोरी, सीनाज़ोरी, पराक्रमण, कब्ज़ेदारी, या गुंडागर्दी की। हम जो काम करें उसमें अपना सर्वस्व लगायें, बिना यह गिने कि बदले में क्या मिला। जितना पाया, उससे अधिक देने की इच्छा ईमानदारी है न कि "जितना पैसा उतना (या कम) काम" की बात। भारतीय नागरिक की बात पर वापस आयें तो दैनन्दिन जीवन में लाभ-हानि की भावना से ऊपर उठे बिना ईमानदार होना असम्भव नहीं तो कठिन सा तो है ही। दुर्भाग्य से आज शिक्षा भी एक व्यवसाय बन गयी है जिसमें अंततः लाभ की बात आ ही जाती है। जहाँ लाभ सामने है वहाँ लोभ भी पीछे नहीं रहता। फिर शिक्षा ईमानदारी कैसे बरते और कैसे सिखाये? धन के बिना संस्थान चल नहीं सकता और धन का प्रश्न हटाये बिना ईमानदारी कैसे आयेगी? यही मुख्य प्रश्न है। हम सब को इसके बारे में सोचना है कि ईमानदारी एक आर्थिक मुद्दा है या व्यवहारिक? मेरी नज़र में ऐसी समस्यायें अति-आदर्शवाद से पैदा होती हैं जहाँ हम सांसारिकता और अध्यात्मिकता को दो विपरीत ध्रुवों पर रख देते हैं। जनजीवन में ईमानदारी लानी है तो इस अव्यवहारिकता से निपटना होगा। मुद्दा काफी स्थान मांगता है इसलिये अभी इतना ही कहकर आगे कहीं विस्तार देने का प्रयास करूंगा। इस विषय पर आपके विचारों का सदा स्वागत है।
अरविन्द मिश्र जी ने मेरी एक पिछली पोस्ट में टिप्पणी करते हुए कहा,
ईमानदारी बेईमानी व्यक्ति सापेक्ष है -हम सब किसी न किसी डिग्री में बेईमान हैं! क्या सरकारी सेवा में रहकर ज्ञानदत्त जी खुद की ईमानदारी का स्व-सार्टीफिकेट दे सकते हैं - यहाँ चाहकर भी इमानदार बने रह पाना मुश्किल हो गया है और अनचाहे भ्रष्ट होना एक नियति ..... इमानदारी एक निजी आचरण का मामला है -दूसरों के बजाय अपनी पर ज्यादा ध्यान दिया जाना उचित है और दंड विधान को कठोर करना होगा जिससे बेईमानी कदापि पुरस्कृत न हो जैसा कि आपने एक दो उदहारण दिये हैं!
दंड विधान की कठोरता, निजी आचरण और व्यक्ति सापेक्षता की बात एक नज़र में ठीक लगती है। जहाँ तक ईमानदार बने रहने की मुश्किलों की बात है, यह सच है कि ईमानदारी कमज़ोरों का खेल नहीं है, बहुत दम चाहिये। किसी व्यक्ति विशेष का नाम लेना तो शायद अविनय हो मगर मैं इस बात से घोर असहमति रखता हूँ कि सरकारी सेवा में रहना भर ही किसी इंसान को बेईमान करने के लिये काफी है। ऐसा कर्मी यदि प्राइवेट नौकरी में हो और स्वामी लोभी हो तब? ईस्ट इंडिया कम्पनी में ईलाइहू येल? तब तो बेईमानी का बहाना और भी आसान हो जायेगा। अगर कई नौकरपेशाओं के लिये ईमानदारी एक बडी समस्या बन रही है तो इसका हल खोजने में अधिक समय, श्रम और संसाधन लगाये जाने चाहिये। मगर असम्भव कुछ भी नहीं है। इस विषय पर आगे विस्तार से बात होगी। तो भी यहाँ दोहराना चाहूंगा कि ईमानदारी वह शय है जिसके बिना बडे-बडे बेईमानों का गुज़ारा एक दिन भी नहीं चल सकता है। ईमानदारी बडे दिल वालों का काम है, भले ही वे सरकारी नौकरी में हों या असरकारी पद पर हों।
[एक ईमानदार भारतीय ने लखनऊ विकास प्राधिकरण के बेईमानों के गिरोह का सामना कैसे किया, इस बारे में फिर कभी किसी अगली कडी में।]
अनुराग जी,
ReplyDeleteसही समस्या पर अंगुली रख दी है आपने……
"जहाँ हम सांसारिकता और अध्यात्मिकता को दो विपरीत ध्रुवों पर रख देते हैं।"
और……
"ईमानदारी वह शय है जिसके बिना बडे-बडे बेईमानों का गुज़ारा एक दिन भी नहीं चल सकता है। "
जब आप विषय को विस्तार देंगे, वह पोस्ट भी पढना ज्ञानवर्धक होगा।
कमाल का लिखते हैं भाई.
ReplyDeleteमैं अब केवल टिप्पणियां ही ईमानदारी से कर पा रहा हूँ:)
सच तो यह है कि कुछ बेइमानों ने सारे भारत को बदनाम कर रखा है। वे ही प्रचारित करते हैं कि बिना बेईमानी कुछ नहीं होता। यह सत्य भी है लेकिन इतना सत्य भी नहीं है। मुझे स्मरण नहीं कि मैंने अपने जीवन में कभी बेईमानी से समझौता किया हो। आज यदि ईमानदारी प्रदर्शित होने लग जाए तो तस्वीर का उजला पक्ष सामने आएगा।
ReplyDeleteजिस भी देश और समाज में बेईमानी और भ्रष्टाचार है , वहां आम जनता अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकती ..
ReplyDeleteजब भ्रष्ट सुशोभित हों तो भ्रष्टाचार महलों में रहने लगता है।
ReplyDeleteयह भी सही है कि कुछ लोगों की भ्रष्टाचार के प्रति सहज प्रवृत्ति होती है ....कुछ बदनामी के डर से भ्रष्टाचार से अनचाही दूरी बनाए रखते हैं और कुछ नमक की बराबरी पर समझौता कर लेते हैं -कुछ विकल्पहीनता में भारी मन से इसे अपनाते हैं -उस पिता की पीड़ा देखिये जो न चाहकर भी बेटे को दुनियादारी सिखाता है -मैं एक बार जब बहुत व्यथित क्या बागी ही हो चला था तो पिता जी ने पितृमन्त्र दिया कि जब ठंडक अधिक हो तो कम्बल काँधे पर रख देना चाहिये -तब वे भी मुझे दुश्मन सरीखे लगे थे -और आज मुझे उनकी बात का मर्म समझ में आता है -
ReplyDeleteमैं अपने बेटे से वैसी बात भी कभी नहीं कहूँगा मगर जानता हूँ बिना भ्रष्टाचार के जीना मुहाल है ....अनुराग जी ,आप या ज्ञानदत्त जी की एक लान्जिंग इस मुद्दे पर बनी हुयी है तो सापेक्ष्तः आप लोग इमानदार तो हैं ही मगर जरा बताईये ब्लागरों में कितने फीसदी इमानदार है ? एक जन सैपुल तो यह भी है ही ...भारत में इन दिनों एक अभियान चल रहा है की मैंने घूस दिया ...वेबसाईट भी है -ऐसी पहलें होती रहनी चाहिए !
@इशोपनिषद ने बिना अवेकनिंग के शिक्षा दम्भियों पर गहरा प्रहार किया है !
ReplyDeleteरगों में लहू बनकर दौड़ रहा है.. भ्रष्टाचार.. बड़ी बात ये कि आप घूस लें भले ही न, लेकिन देना तो जरूर पड़ेगी.. कैसे बचोगे.. इससे.. जहां बिना पैसे दिये आप लाश ले जाने के लिये अथारिटी पत्र नहीं ले जा सकते... वहां कैसे बचेंगे.. गुहार किससे करेंग...
ReplyDeleteदेश के सभी विकास प्राधिकरण भ्रष्टाचार के अप्रतिम अड्डे हैं जिनपर हर भारतीय को अपार गर्व है कि यहां बिना पैसा दिये कोई माई का लाल काम करवा के दिखा तो दे
ReplyDeleteकितने ही लोग हममे से और हमारे आसपास ऐसे मिल जायेंगे जिन्होंने ईमानदारी से जीवन जिया और जी रहे है बिना लें दें के नियमो के अनुसार अपने काम करवाए है हाँ ये बात है की उसके लिए बहुत सी शारीरिक और मानसिक तकलीफे उठाई है बिना समझौता किये अन्तत उन्हें भी अपनी मंजिल मिली ही है |
ReplyDeleteक्रप्या समय मिले तो इसे पढ़े |
http://shobhanaonline.blogspot.com/2011/03/blog-post_13.html
सबसे ज्यादा इमनादारी तो बेइमानी के कामो मे ही देखने को मिलती है
ReplyDeleteघर की सफाई रौशनी में ही हो सकती है |
ReplyDeleteशिक्षा जरुरी है , हर तरह के भ्रष्टाचार और बेईमानी से मुकाबला करने के लिए ...
इमानदारी के बहाने आपने ईस्ट इंडिया की तस्वीर का छुप्पा पहलू भी दिखाया.
ReplyDeleteआज भारत मे इस बेईमानी को ही सलाम हे, कम पढे लिखे थे, इसी लिये आजादी के बाद उसे सही हाथो को दे ना सके... ओर आज उस गलती का फ़ल भुगत रहे हे....किस ओर जा रहा हे यह देश...जहां देखो वही दस लुटेरे बेठे हे...
ReplyDelete"शिक्षा और ईमानदारी"
ReplyDeleteजैसे सरदारों की बस्ती में नाई की दूकान!
@नीरज बसलियाल
ReplyDeleteकाम लायक शिक्षा तो उपलब्ध है ही। राष्ट्र के प्रशासन से जुडे सभी लोग सुशिक्षित हैं - राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, न्यायाधीशों से लेकर आइएऐस, आइपीऐस, पीसीऐस, सैनिक अधिकारियों तक। मेरा प्रश्न यह है कि यदि शिक्षा का सम्बन्ध सुआचरण से होता तब फिर ऐसे सुशिक्षित प्रशासन में इतना भ्रष्टाचार क्यों है?
मेरा अपना समझना यह है कि स्वार्थ एक प्राकृतिक मानवीय प्रवृत्ति है। जिस प्रकार हमने विवाह, वस्त्राभूषण, दया, जीवन का आदर आदि मानवीय पर कम प्राकृतिक गुणों को समाज के नियमों और कानूनी प्रावधानों द्वारा नियंत्रित किया है उसी प्रकार भ्रष्टाचार पर भी कडे नियंत्रण की आवश्यकता है। पश्चिमी देशों में वह नियंत्रण और उसके पीछे की इच्छा शक्ति स्पष्ट दिखती है। भारत में वह लापता है।
हमारी अधिकांश समस्यायें लचर या बिल्कुल नापैद प्रशासन व्यवस्था के कारण हैं और इसके लिये मुख्यतः पढे लिखे, प्रशिक्षित परंतु रीढविहीन आईएऐस अधिकारी ज़िम्मेदार हैं। शिक्षा और शक्ति है पर उदासीनता, बेरहमी, लालच, भय और चमचागिरी उस पर हावी दिखती है।
@शोभना जी,
ReplyDeleteबात विचारणीय है परंतु "क्या सरकार में हमारे लोग नहीं है?" पर मैं यही कहून्गा कि समाज में अच्छे बुरे सभी लोग होते हुए भी येन-केन-प्रकारेण सरकार, प्रशासन आदि में उदासीन, बेरहम, लालची, और डरपोक चमचे काबिज़ हो गये हैं। भले ही यह हमारे समाज के बीच से ही हों, मगर हैं हम ईमानदारों से अलग किस्म के लोग। मुझे तो ऐसा लगता है जैसे कि इन डाकुओं ने बलात ही मेरे देश का मुझसे अपहरण कर लिया है। मैं कितना भी स्वच्छ रहूँ, यह अपनी कीचड मुझ पर उछाले जा रहे हैं। दुर्भाग्य से सत्ता के मदान्ध यह मेरी (आम ईमानदार भारतीय नागरिक/उपभोक्ता) किसी भी बात को कान देने लायक नहीं समझते हैं।
@मुझे स्मरण नहीं कि मैंने अपने जीवन में कभी बेईमानी से समझौता किया हो।
ReplyDeleteअजित जी,
यदि आप दो-चार पोस्ट्स के माध्यम से पाठकों को बतायें कि आपने बेईमानी से मुठभेड कैसे की तो यह उदाहरण हमें कुछ क्लू ज़रूर दे पायेंगे।
@देश के सभी विकास प्राधिकरण भ्रष्टाचार के अप्रतिम अड्डे हैं जिनपर हर भारतीय को अपार गर्व है कि यहां बिना पैसा दिये कोई माई का लाल काम करवा के दिखा तो दे।
ReplyDeleteयह विकास प्राधिकरण वाकई भ्रष्टाचार के अप्रतिम अड्डे हैं।
यक़ीनन शिक्षा ज़रूरी है ..... और बेईमानी व्यवहारिक समस्या ज़्यादा है..... क्योंकि जिनके पास बहुत कुछ है वे गलत काम करने से बाज नहीं आते .....
ReplyDeleteअनुराग जी ईमानदारी पर की गयी हर बात मुझे बस किताबी लगती है. अपनी १५ वर्षों की नौकरी में मैंने देखा की जो आदमी या अफसर ईमानदारी पर जितना लम्बा भाषण देता है वो उतना ही ज्यादा बेईमान होता है. आज की दुनिया में आप इमानदार बनो आपके ही यार दोस्त आपको "चू _ या" की उपाधि से नवाज देते हैं. तब बहुत बुरा लगता है.
ReplyDeleteवैसे बेईमानी से आपकी लडाई की दास्तान का बेकरारी से इंतजार रहेगा.
प्रेमचंद ने कहा था कि मासिक वेतन तो पूर्णमासी के चाँद की तरह होता है जो घटते घटते एक दिन लुप्त हो जाता है. ऊपरी आय तो वह बहता स्रोत है जिससे सदा प्यास बुझती है.
ReplyDeleteजेम्स हेडली चेज़ की एक पुस्तक का नाम था There is always a price tag.
कुछ लोग इसलिए ईमानदार हैं कि उनको बेईमान हो जाने की सही कीमत नहीं ऑफर हुई. ऐसे भी लोग हैं जो यह कहते हुए देखे गए कि मैं ईमान दार रहा उम्र भर. यह पता लगाना मुश्किल था कि उनको इस बात का मलाल था कि फख्र!!
वैसे इमानदारी मुश्किल सही, तकलीफदेह सही, असंभव नहीं है कि प्रक्टिस न की जा सके!!
गहरा विमर्श -मेरे एक अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर यूं एस राव साहब वही कहते थे जो बिहारी बाबू ने कहा -ईमानदारी की कीमत अदा की जा सकती है -और यह व्यक्ति व्यक्ति पर निर्भर करता है ....मैंने ज्ञानदत्त जी के ब्लॉग पर माईक्रो हरिश्चन्द्र को ईमानदारी की इकाई कहा था -महाभारत में भीष्म खुद कहते हैं अर्थस्य पुरुषो दासः .....द्रोण का बेटा दूध के लिए तरस जाता -था!ईमानदारी की बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है और समय के साथ ये कीमतें बेतहाशा बढ़ती जा रही हैं -ईमानदारी बिना बचपन के गहरे संस्कार और नैतिक शिक्षा के नहीं आने वाली -इसके पक्ष में ईमानदार माहौल होना जरुरी है -
ReplyDeleteआज जिन आई ये यस अधिकारियों की बातें आप कर रहे हैं वे खुद भरष्टाचार में आकंठ डूबे हैं -नेताओं से उनकी सांठ गांठ है -अनुराग जी दूर के ढोल सुहावने लग रहे हैं आप को -यहाँ स्थिति बहुत खराब है !
इमानदारी की कीमत ऐसे भी लगाईं जाती है जैसा हिन्दी फिल्मों में दिखाया जाता है- "तुम्हारा इकलौता बेटा मेरे पास है." अधिकारी बेईमान न हो तो भी बाप को बेईमान होते कितनी देर लगती है. बेटे के हाथ पर लिख दिया जाता है कि "मेरा बाप चोर था."
ReplyDeleteतेल की मिलावट का वोरोध करने वाले को जब बेईमान नहीं बनाया जा सका तो गोली मार दी सरे आम.. फिर मीडिया ने उसके ऊपर दो चार कॉलम लिख दिए, टीवी ने शोर मचाया, नेताओं ने आंसू बहाए, स्कॉलरशिप शुरू कर दी उसके नाम की, सड़क का नाग्रेज़ी नाम बदल कर उसके नाम से रख दी.. हो गई ईमानदरी की श्रद्धांजलि..
अरविन्द जी और सलिल जी,
ReplyDeleteआप दोनों की ही बात सही है। जब ये ईमानदार लोग (जिनकी बात आप कर रहे हैं) सच के लिये जान भी दे देते हैं तब बाकी ईमानदारों को किस बात का डर है? ईमानदारी अनमोल है, इसकी कीमत रुपयों में आंकी नहीं जा सकती है। इसकी कीमत है जान पर खेलने का साहस और इस साहस के बिना ईमानदारी को उसका समुचित स्थान कैसे दिलाया जा सकेगा?
चोर उचक्के मिलकर गिरोह बना लेते हैं और सत्यवादी अकेले भिडते हैं। ईमानदारों की नैटवर्किंग क्यों नहीं हो सकती है? ईमानदारी अनमोल है मगर ईमानदार तय कर लें तो पल भर में बेईमानी को अनाफ़ोर्डेबल बना दें।
is tarah ke vimarsh 2/3 jagah aur chal rahi hai.....imandari par 'arvind evam salil bhaijee ke' vichar
ReplyDeletehame imandar lage ....... jiske pratikar ke tarike apke jawaw me hai......
jiwan ke 38 me saal tak ate-ate 'sadagi evam imandari ki jo ghutti'
parivar evam samaj se siksha evam sanskar ke madhyam se diye gaye....
vybharik jiwan me me uske mol....mati se kamtar nikle......
aaj jab 'vhrastachar' par har madhyam ke dwara vimarsh hote dekhta hoon to..........lagta hai 'wakai imandari o shai hai'.....jiske liye 'jan' ki kimat bhi kam hai..........
pranam.
एक संपादक ने एक बार अपने लेख में लिखा था कि हम सब चाहते हैं कि भगत सिंह हमारे देश में जन्म जरूर लें, लेकिन हमारे घर में नहीं। हम सब चाहते हैं कि ईमानदारी होनी चाहिये लेकिन जब अपना वास्ता पड़े तो फ़िर हमें जल्दी ही अपनी भूल का अहसास हो जाता है। ’भारतीय नागरिक’ ने सही कहा कि आप रिश्वत लें बेशक नहीं लेकिन दिये बिना गुजारा नहीं। हमेशा नहीं लेकिन बहुत बार ऐसा होता है। विषय वाकई बहुत विस्तृत है। अलग अलग जगह पर हम सब अलग अलग तरीके से रियैक्ट करते हैं, करना पड़ता है।
ReplyDeleteशिक्षा का अहम रोल तो है ही, कोई दोराय नहीं। इस युग में वैसे भी मूल्य, प्राथमिकतायें, मर्यादायें बदल गई हैं।
ईमानदारी, नैतिकता, संस्कार जैसी बातें किसी भी विद्यालय में नहीं सिखाई जा सकतीं। ये सारी बातें तो नितान्त व्यक्तिगत आचरण से ही विस्तारित की जा सकती हैं।
ReplyDeleteसंख्या, प्रतिशत और अनुपात की द़ष्टि से, याने हर दृष्टि से ईमानदार लोग आज भी अधिक हैं। किन्तु चर्चा बेईमानी और भ्रष्टाचार की ही होती है और होगी ही क्योंकि जो अनुचित है, वही चिह्नित किया जाता है और वही चर्चित भी होता है।
हमारे संकटों में बडा संकट यह है कि ईमानदार और सज्जन लोग असंगठित तथा निष्क्रिय हैं जबकि बेईमान, भ्रष्ट और अपराधी संगठित और सक्रिय हैं।
@vairagiji.......excellent...exactly
ReplyDeletepranam.
आपकी बात कहने का ढंग लाजवाब है अनुराग जी ... ये बात ईमानदारी से कह रहा हूँ ...
ReplyDeleteये सच है ईमानदारी आसानी से नही निभ सकती ... ईमानदार व्यक्ति को तलवार की धार पर चलना पढ़ता है ... समाज मेईएन भी आज ऐसे लोग उफ़ास का पात्र बनते हैं .. ये हमारी, समाज और देश की विडंबना है ... ये समस्या हमारे देश में दीमक की तरह घुस चुकी है ...
राष्ट्रीय चरित्र निर्माण ही इसका एकमात्र उपाय है और ये कार्य भी युध्स्तर पर हो तभी समस्या का हल है ...
ब्लॉगर मित्रों को ईमानदारी मापने का एक तरीका बताना चाहता हूं। जिसे कसौटी पर कसना है, उसे ब्लॉगिंग के बारे में बताइए। यदि वह ईमानदार हुआ तो खुद भी ब्लॉगिंग करना चाहेगा.. लेकिन यदि बेईमान हुआ तो सोचेगा कि यह बंदा कितना बेवकूफ है, बेमतलब का टाइम पास कर रहा है।
ReplyDeleteध्यान रहे यह कसौटी सिर्फ शिक्षित लोगों के लिए ही है। अशिक्षित लोगों पर यह काम नहीं करेगी :)
मसला जटिल है और कमोबेश हम सबके 'अंदर' को 'रिवील' करने जैसा है एक तो मैं देर से आया हूं पर यह सोचने का समय भी नहीं है कि जीवन के किस पहलू में मुझसे बेईमानी नहीं हुई होगी बस यही एक कारण है कि टिप्पणी करने में सकुचा रहा हूं ! हां यह ज़रूर कहूँगा कि बेईमानी एक बहुआयामी गुण है जिसे केवल राजनीति या अर्थनीति तक सीमित करके देखना उचित नहीं होगा ! अपने बच्चे के प्रवेश के समय ,उसके रिजल्ट के समय ,अपना ड्राइविंग लाइसेंस बनवाते हुए ,बिना नंबर गैस सिलेंडर लेते हुए ,कोई बिल पास करवाते हुये ,पत्नी के अलावा किसी अन्य स्त्री से प्रेम की कल्पना /आभास करते हुये , या शायद खेल में ,या किसी साफ्टवेयर का उपयोग करते हुए ? और ना जाने कितनी जगह लडखडाए होंगे हम ,आत्मालोचन करें ,गणना का समय मिले तो फिर इस पोस्ट पर निर्भीक होकर कमेन्ट करें !
ReplyDeleteमुझे नहीं लगता कि यह 'संस्कार' मुझे स्कूल से मिले हैं :) मुझे इस तरह से संभ्रमित करने में पूर्व की पीढ़ी और सहजीवी पीढ़ी में से किसका योगदान कितना है तय कर पाना कठिन है :)
फिलहाल दूसरों की ईमानदारी पर उंगली उठाने का ख्याल रद्द कर रहा हूं !
जीत गए अन्ना
ReplyDeleteजीता है ईमान
बधाई हो बंधू