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नेताजी जापानी में |
इस बार जापान के लिये बिस्तरा बांधते समय हमने तय कर लिया था कि कुछ भी हो जाये मगर वह जगह अवश्य देखेंगे जहाँ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के भस्मावशेष (अस्थियाँ) रखे हैं। सो, जाने से पहले ही रेनकोजी मन्दिर की जानकारी जुटाने के प्रयास आरम्भ कर दिये। पुराने समय में छोटा-बडा कोई भी कार्य आरम्भ करने से पहले स्वयम् से संकल्प करने की परम्परा थी। परम्परा का सम्मान करते हुए हमने भी संकल्प ले लिया। कुछ जानकारी पहले से इकट्ठी कर ली ताकि समय का सदुपयोग हो जाये। जापान पहुँचकर पता लगा कि संकल्प लेना कितना आवश्यक था। कई ज्ञानियों से बात की परंतु वहाँ किसी ने भी नेताजी का नाम ही नहीं सुना था। उस स्थल का नाम बताया - रेनकोजी मन्दिर, तब भी सब बेकार। मुहल्ले का नाम (वादा, सुगानामी कू) बताया तो जापानी मित्रों ने नेताजी के बारे में एक जानकारी पत्र छापकर मुझे दिया था ताकि इसे दिखाकर स्थानीय लोगों से रेनकोजी मन्दिर की जानकारी ले सकूँ। वे स्वयं भी भारत और जापान के साझे इतिहास के बारे में पहली बार जानकर खासे उत्साहित थे। होटलकर्मियों ने जापानी में स्थल का नक्शा छाप दिया और सहकर्मियों ने 'चंद्रा बोस' तथा मन्दिर के बारे में कुछ जानकारी इकट्ठी करके हमें हिगाशी कोएंजी (Higashi-Koenji) स्टेशन का टिकट दिला कर मेट्रो में बिठा दिया।
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लाफिंग बुद्धा/चीनी कुवेर की मूर्ति |
हिगाशी कोएंजी उतरकर हमने सामने पड़ने वाले हर जापानी को नक्शा दिखाकर रास्ता पूछना आरम्भ किया। लोग नक्शा देखते और फिर जापानी में कुछ न कुछ कहते हुए (शायद क्षमा मांगते हुए) चले जाते। एकाध लोगों ने क्षमा मांगते हुए हाथ भी जोड़े। आखिरकार संकल्प की शक्ति काम आयी और एक नौजवान दुकानदार ने अपने ग्राहकों से क्षमा मांगकर बाहर आकर टूटी-फ़ूटी अंग्रेज़ी और संकेतों द्वारा हमें केवल दो मोड़ वाला आसान रास्ता बता दिया। उसके बताने से हमें नक्शे की दिशा का अनुमान हो गया था। जब नक्शे के हिसाब से हम नियत स्थल पर पहुँँचे तो वहाँ एक बड़ा मन्दिर परिसर पाया। अन्दर जाकर पूछ्ताछ की तो पता लगा कि गलत जगह आ गये हैं। वापस चले, फिर किसी से पूछा तो उसने पहले वाली दिशा में ही जाने को कहा। एक ही सडक (कन्नाना दोरी) पर एक ही बिन्दु के दोनों ओर कई आवर्तन करने के बाद एक बात तो पक्की हो गयी कि हमारा गंतव्य है तो यहीं। फिर दिखता क्यों नहीं?
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रेनकोजी मन्दिर का स्तम्भ |
सरसरी तौर पर आसपास की पैमाइश करने पर एक वजह यही लगी कि हो न हो यह रेनकोजी मन्दिर मुख्य मार्ग पर न होकर बगल वाली गली में होगा। सो घुस गये चीनी कुवेर की प्रतिमा के साथ वाली गली में।
कुछ दूर चलने पर रेनकोजी मन्दिर पहुुँच गये। दरअसल यह जगह स्टेशन से अधिक दूर नहीं थी। हम मुख्य मार्ग पर चलकर आगे चले आये थे।
मन्दिर पहुँचकर पाया कि मुख्यद्वार तालाबन्द था। वैसे अभी पाँच भी नहीं बजे थे लेकिन हमारे जापानी सहयोगियों ने मन्दिर के समय के बारे में पहले ही दो अलग-अलग जानकारियाँ दी थीं। एक ने कहा कि मन्दिर पाँच बजे तक खुलता है और दूसरे ने बताया कि मन्दिर हर साल 18 अगस्त को नेताजी की पुण्यतिथि पर ही खुलता है। अब हमें दूसरी बात ही ठीक लग रही थी।
कांजी लिपि में नेताजी का नामपट्ट =>
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सूचना पट् |
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कार्यक्रम/समयावली? |
द्वार तक आकर भी अन्दर न जा पाने की छटपटाहट तो थी परंतु दूर देश में अपने देश के एक महानायक को देख पाने का उल्लास भी था। द्वार से नेताजी की प्रतिमा स्पष्ट दिख रही थी परंतु सन्ध्या का झुटपुटा होने के कारण कैमरे में साफ नहीं आ रही थी।
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मन्दिर का मुख्यद्वार |
सुभाष चन्द्र बोस जैसे महान नेता के अंतिम चिह्नों की गुमनामी से दिल जितना दुखी हो रहा था उतना ही इस जगह पर पहुँचने की खुशी भी थी। वहाँ की मिट्टी को माथे से लगाकर मैंने भरे मन से अपनी, और अपने देशवासियों की ओर से नेताजी को प्रणाम किया और कुछ देर चुपचाप वहाँ खड़े रहकर उस प्रस्तर मूर्ति को अपनी आँखों में भर लिया।
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छत पर प्रतीक चिह्न |
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गर्भगृह जहाँ अस्थिकलश रखा है |
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समृद्धि के देव रेनकोजी |
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रेनकोजी परिसर में नेताजी |
मेरा लिया हुआ चित्र दूरी, अनगढ़ कोण, हाथ हिलने और प्रकाश की कमी आदि कई कारणों से उतना स्पष्ट नहीं है इसलिये नीचे का चित्र विकीपीडिया के सौजन्य से:
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यह चित्र विकीपीडिया से |
मन्दिर का पता:
रेनकोजी मन्दिर, 3‐30-20, वादा, सुगिनामी-कू, तोक्यो (जापान)
मन्दिर के दर्शन के लिये भविष्य में यहाँ आने के इच्छुकों के लिये सरल निर्देश:
हिगाशी कोएंजी स्टेशन के गेट 1 से बाहर आकर बायें मुड़ें, और पार्क समाप्त होते ही पतली गली में मुड़कर तब तक सीधे चलते रहें जब तक आपको दायीं ओर एक मन्दिर न दिखे। यदि यह गली मुख्य सड़क में मिलती है या बायीं ओर आपको ऊपर वाला चीनी कुवेर दिखता है तो आप मन्दिर से आगे आ गये हैं - वापस जायें, रेनकोजी मन्दिर अब आपके बायीं ओर है। नीचे मन्दिर का गूगल मैप है और उसके नीचे पूरे मार्ग का आकाशीय दृश्य ताकि आप मेरी तरह भटके बिना मन्दिर की स्थिति का अन्दाज़ लगा सकें।
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View Renkoji Temple, Tokyo in a larger map
हिगाशी कोएंजी स्टेशन से रेनको-जी मन्दिर तक का नक्शा
धन्यवाद एक तीर्थ के दर्शन कराने के . दुर्भाग्य है नेता जी को मात्रभूमि नसीब नही हुई .
ReplyDeleteआभारी हैं आपके, आपके माध्यम से हमने भी खुद को कुछ क्षणों के लिये उस महातीर्थ पर सर झुकाते महसूस किया।
ReplyDeleteजापान के लोगों द्वारा नेताजी के बारे में अनभिज्ञता होने से अपने को कोई आश्चर्य नहीं हुआ, जब अपने देश में ही हम लोग उनको यथोचित मान नहीं दिलवा सके तो एक दूसरे देश के वासियों से क्या उम्मीद रखते।
पुन: आभारी, और बहुत बहुत आभारी।
भारतीय स्वातन्त्र्य के महानायक को नमन।
ReplyDeleteआपका आभारी हूँ कि आपने उस तीर्थ के दर्शन करा दिये
ReplyDeleteजहाँ पहुँचना मेरे लिए लगभग असम्भव है
किसी भी भारतवासी के लिए वह स्थान तीर्थ से कम नहीं होगा ...कितनी दुःख की बात है कि हम अपने देश के सपूत और एक महान नेता को भुला दिए हैं पर विदेश में उनकी मूर्ति रखी गई है ...
ReplyDeleteआज समय आ गया है कि हम फिर से उस महान आत्मा की यादों को पुनरजीवित करें ...
इस विवरण के लिए तहे दिल से शुक्रिया ...
... netaaji ko naman ... behatreen post !!!
ReplyDeleteजहॉं चाह, वहॉं राह। फिर, आपकी चाह में तो जज्बा भी शारीक था। या फिर कहें कि नेताजी का नाम ही व्यक्ति को लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रेरित कर देता है। सब कुछ पढकर, जानकर अच्छा लगा।
ReplyDeleteमालवा की परम्परा है - कोई तीर्थ यात्रा से लौटता है तो उसे प्रणाम किया जाता है। मान्यता है कि ऐसा करने से प्रणाम करनेवाले को भी तीर्थ यात्रा का पुण्स-लाभ मिल जाता है।
इस क्षण आप सामने होते तो आपको प्रणाम कर लेता।
ReplyDeleteशर्मा जी,
सब से पहले आपका बहुत बहुत आभार कि आपने इस प्रवित्र स्थल के दर्शन करवाए !
पर फिर भी जयदीप भाई के ब्लॉग में दिए गए तथ्यों से सहमत होते हुए मैं भी यह मानता हूँ कि वहाँ रखा गया अस्थि कलश नेताजी का नहीं है !
आधिक जानकारी के लिए देखें
नेताजी पर बहुत विस्तृत सारगर्वित आलेख प्रस्तुति .... आपका लेख संग्रह के योग्य है ... आभार
ReplyDeleteतुम मुझे खून दो, मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा जैसे नारों से अलख जगाने वाले, नेताजी की आज बहुत जरूरत है |
ReplyDeletenetajiii ko naman!!!!...........achchhha laga aapne unhe yaad karwaya!
ReplyDeleteइस पर हमारी सरकारों का रवैय्या निराशाजनक है !
ReplyDeleteएक बात समझ में नहीं आती की नेता जी के बारे में सारी जानकारी जो भारत सरकार के पास है उसे इतना छुपाती क्यों है | उनको ले कर जितनी भी जानकारिय मांगी गई सब सुरक्षा गोपनीयता के नाम पर छुपा दी गई | आम आदमी से लेकर जाँच कर रही एजेंसियों तक को नहीं दी गई उलटे जापान सरकार को भी जानकारी देने से माना किया गया | इन बातो से कई और सक होता है की कही उनकी मृत्यु में उस समय की सरकार की लापरवाही का भी हाथ था या सरकार के पास असल में कोई जानकारी है ही नहीं क्योकि कांग्रेसी सरकारों ने कभी उनके बारे में खोज खबर लेने की जरुरत ही नहीं समझी और अब उस अज्ञानता को गोपनीयता के नाम पर छुपा रहे है | नेता जी से जुड़े इस तीर्थ स्थल के दर्शन कराने और हमारा ज्ञान बढ़ाने के लिए आप का धन्यवाद |
ReplyDelete@ अंशुमाला जी, अली जी,
ReplyDeleteबात जितनी सरल है उतनी ही जटिल भी है. मुझे इस पर भी एक आलेख लिखना है लेकिन टाल केवल उसी कारण से रहा हूँ जिस कारण से सरकार इस विषय पर एक श्वेत पत्र को टाल रही है। फिर भी एक क्लू यह है कि "यदि आप समझना चाहें तो कठिनाई नहीं होगी।"
@शिवम मिश्र जी,
ReplyDeleteआलेख पढा, आलेख काफी खोजपूर्ण होते हुए भी पूर्वाग्रह दिख रहे हैं विशेषकर आदरणीय मेजर जनरल शाहनवाज़ की बात करते हुए। तो भी कुल मिलाकर निष्कर्ष सत्य की ओर ही हैं। मुझे भी इस विषय में कुछ कहना है, बाद में कभी फुर्सत से लिखूंगा। अभी के लिये इतना ही कि "सत्यान्वेषण के लिये भावनाओं से ऊपर उठना पडता है।"
आप को प्रणाम। तीर्थयात्रा से जो लौटे हैं!
ReplyDeleteजबरदस्त इच्छाशक्ति दिखाई आपने इस स्थान पर पंहुचने में।
ReplyDeleteइसके कारण आपके प्रति स्नेहभाव और भी बढ़ गया अनुराग जी।
इस पोस्ट की आज बहुत जरूरत थी, इस संबंध में आपके और भी आलेख प्रासंगिक रहेंगे और उनकी आवश्यकता भी है. बहुत आभार आपका.
ReplyDeleteरामराम.
नेता जी को सादर नमन !
ReplyDeleteदेश के ऐसे सपूत के बारे में आपकी जिज्ञासा और जिजीविषा प्रणाम योग्य है | आपके माध्यम से हम सब ने उस पुण्यभूमि के दर्शन कर लिए यह क्या कम है ?
आपके उन आलेखों का हम सब को इन्तजार रहेगा !
हमारी तरफ़ से भी इस महान आत्मा को नमन, आप का धन्यवाद
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद आपका... वन्दनीय नेताजी के अस्थि कलश के दर्शन करवाए...
ReplyDeleteबढ़िया, हमारे बड़े भाई साब जाने वाले हैं टोकियो उनको बताता हूँ.
ReplyDelete
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
रोचक वर्णन!
ReplyDeleteआज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति ,बधाई ......
ReplyDeleteनेता जी को विनम्र श्रद्धाँजली। अच्छा लगा उनका नाम वहाँ देख कर। धन्यवाद।
ReplyDeleteइस नेताजी को सादर नमन ..... इस पावन जगह हम सब को ले जाने का हार्दिक आभार
ReplyDeleteइसे ही कहते हैं "जहाँ चाह ..वहाँ राह'..इतनी मुश्किलें पार कर भी आपने उस तीर्थ के दर्शन कर डाले और हमें भी करा दिए..बहुत बहुत आभार आपका.
ReplyDeleteशायद ही कोई भारतीय हो जिसने अपने युवावस्था में नेता जी को प्रेरणास्रोत ना माना हो..सरकार का उनकी यादो ..स्मृतिचिन्हो के प्रति ऐसा निराशाजनक रवैया क्षुब्ध करता है.
बहुत-बहुत धन्यवाद इन दर्शनों के लिए... बहुत अच्छा लगा इन जगहों को देखकर... नेताजी और उस पुण्यस्थल को नमन...
ReplyDeleteअनुराग जी ! जाने कैसी अजीब सी ..कभी खुशी, तो कभी गर्व की सी भावनाये महसूस होने लगी हैं आपके इस आलेख को पढकर.जब आपको रास्ता नहीं मिल रहा था तो लगा उफ़ ..कोई ठीक से बताता क्यों नहीं ..जैसे उस पवित्र स्थल को देखने की हमें भी बहुत जल्दी थी.
ReplyDeleteबहुत आभार आपका वहां तक पहुचने का.
अपने साथ साथ इस स्थान की यात्रा हमें भी करवाने के लिये धन्यवाद। आप के दिये विवरण से हम भी लाभान्वित हुए। वरना तो ऐसी जगह, पर पता नहीं हम जा भी पाएंगे या नहीं।
ReplyDeleteआपका कहना बिल्कुल दुरूस्त है कि किसी भी सच्चे हिन्दुस्तानी के लिए इस स्थान का महत्व निसंदेह तीर्थ से कम नहीं हो सकता....
ReplyDeleteमातृभूमि के इस वीर सपूत को हमारा भी नमन!!!
वाह यह किया कोई काम आपने पुरुषार्थ /मर्दानगी का -आपके सौजन्य से हम भी जापान के इस नेता जी के मंदिर का संदर्भ झलक पा सके -आभार !
ReplyDeleteबहुत अच्छा लगा इस मंदिर के बारे में जानकारी पाकर! आभार!
ReplyDeletehttp://www.orkut.co.in/Main#Album?uid=5818550587755957701&aid=1207387015
ReplyDeleteधन्यवाद तुषार!
ReplyDeleteयहाँ भारतीयों का एक मेलिंग ग्रुप है हिंदी सभा जापान जिसमें आपका ये लेख साझा करता हूँ ।
ReplyDeleteकृपया निम्न तथ्यों को ध्यान से पढ़िये:-
ReplyDelete1. 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन को ब्रिटिश सरकार कुछ ही हफ्तों में कुचल कर रख देती है।
2. 1945 में ब्रिटेन विश्वयुद्ध में ‘विजयी’ देश के रुप में उभरता है।
3. ब्रिटेन सिंगापुर को वापस अपने कब्जे में लेता है।
4. इतना खून-पसीना ब्रिटेन ‘भारत को आजाद करने’ के लिए तो नहीं ही बहा रहा है। अर्थात् उसका भारत से लेकर सिंगापुर तक अभी जमे रहने का इरादा है।
5. फिर 1945 से 1946 के बीच ऐसा कौन-सा चमत्कार होता है कि ब्रिटेन हड़बड़ी में भारत छोड़ने का निर्णय ले लेता है?
हम अपनी ओर से भी इसका उत्तर जानने की कोशिश नहीं करते- क्योंकि हम बचपन से ही सुनते आये हैं- दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल। इससे आगे हम और कुछ जानना नहीं चाहते।
(प्रसंगवश- अँग्रेजों द्वारा भारत में किये गये ‘निर्माणों’ पर नजर डालें- दिल्ली के ‘संसद भवन’ से लेकर अण्डमान के ‘सेल्यूलर जेल’ तक- हर निर्माण 500 से 1000 वर्षों तक कायम रहने एवं इस्तेमाल में लाये जाने के काबिल है!)
ये धारणा दिमाग में बैठाना कि ‘नेताजी और आजाद हिन्द फौज की सैन्य गतिविधियों के कारण’ हमें आजादी मिली- जरा मुश्किल काम है। अतः नीचे अँग्रेजों के ही नजरिये पर आधारित कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहे हैं,
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ब्रिटिश संसद में जब विपक्षी सदस्य प्रश्न पूछते हैं कि ब्रिटेन भारत को क्यों छोड़ रहा है, तब प्रधानमंत्री एटली क्या जवाब देते हैं।
प्रधानमंत्री एटली का जवाब दो विन्दुओं में आता है कि आखिर क्यों ब्रिटेन भारत को छोड़ रहा है-
1. भारतीय मर्सिनरी (पैसों के बदले काम करने वाली- पेशेवर) सेना ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति वफादार नहीं रही, और
2. इंग्लैण्ड इस स्थिति में नहीं है कि वह अपनी खुद की सेना को इतने बड़े पैमाने पर संगठित कर सके कि वह भारत पर नियंत्रण रख सके।
अंग्रेजी इतिहासकार माईकल एडवर्ड के शब्दों में ब्रिटिश राज के अन्तिम दिनों का आकलन:
“भारत सरकार ने आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चलाकर भारतीय सेना के मनोबल को मजबूत बनाने की आशा की थी। इसने उल्टे अशांति पैदा कर दी- जवानों के मन में कुछ-कुछ शर्मिन्दगी पैदा होने लगी कि उन्होंने ब्रिटिश का साथ दिया। अगर सुभाष चन्द्र बोस और उनके आदमी सही थे- जैसाकि सारे देश ने माना कि वे सही थे भी- तो सेना के भारतीय जरूर गलत थे। भारत सरकार को धीरे-धीरे यह दीखने लगा कि ब्रिटिश राज की रीढ़- भारतीय सेना- अब भरोसे के लायक नहीं रही। सुभाष बोस का भूत, हैमलेट के पिता की तरह, लालकिले (जहाँ आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चला) के कंगूरों पर चलने-फिरने लगा, और उनकी अचानक विराट बन गयी छवि ने उन बैठकों को बुरी तरह भयाक्रान्त कर दिया, जिनसे आजादी का रास्ता प्रशस्त होना था।”
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निष्कर्ष के रुप में यह कहा जा सकता है कि:-
1. अँग्रेजों के भारत छोड़ने के हालाँकि कई कारण थे, मगर प्रमुख कारण यह था कि भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों के मन में ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में कमी आ गयी थी और- बिना राजभक्त भारतीय सैनिकों के- सिर्फ अँग्रेज सैनिकों के बल पर सारे भारत को नियंत्रित करना ब्रिटेन के लिए सम्भव नहीं था।
2. सैनिकों के मन में राजभक्ति में जो कमी आयी थी, उसके कारण थे- नेताजी का सैन्य अभियान, लालकिले में चला आजाद हिन्द सैनिकों पर मुकदमा और इन सैनिकों के प्रति भारतीय जनता की सहानुभूति।
3. अँग्रेजों के भारत छोड़कर जाने के पीछे गाँधीजी या काँग्रेस की अहिंसात्मक नीतियों का योगदान नहीं के बराबर रहा।
अगली बार आप भी ‘दे दी हमें आजादी ...’ वाला गीत पर यकीन करने से पहले पुनर्विचार जरुर कर लीजियेगा।
--जय हिन्द।
netaji ko pranam
ReplyDelete~!~ सब के सब नेता के नाम पर कलंक हैं ?
ReplyDeleteनेता नाम हैं नेत्रत्व का !!
नेता नाम हैं निर्भीकता का !!
नेता नाम हैं विश्व को अपना लोहा मनवाने का !!
नेता नाम हैं एक उद्घोष का !!
नेता नाम हैं '' सुभाषचन्द्र '' बोष का !!
~!~ अमित आनंद ~!~
~!~ सब के सब नेता के नाम पर कलंक हैं ?
ReplyDeleteनेता नाम हैं नेत्रत्व का !!
नेता नाम हैं निर्भीकता का !!
नेता नाम हैं विश्व को अपना लोहा मनवाने का !!
नेता नाम हैं एक उद्घोष का !!
नेता नाम हैं '' सुभाषचन्द्र '' बोष का !!
~!~ अमित आनंद ~!~
आपके संकल्प और साहस को नमन। आशा है कि नेताजी से संबन्धित सभी फाइलें अब शीघ्र ही सार्वजनिक हो जाएँ।
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