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Wednesday, September 11, 2013

त्सुकूबा पर्वत - एक तीर्थयात्रा जापान में

(आलेख व चित्र: अनुराग शर्मा)

कुछ समय पहले की एक पोस्ट "अई अई आ त्सुकू-त्सुकू" में हम मिले थे त्सुकूबा नगर के कुछ विशिष्ट पक्षियों से। आइये आज चलते हैं त्सुकूबा पर्वत की एक तीर्थ यात्रा पर।  

रास्ते से त्सुकूबा पर्वत का दृश्य
जापानी दंतकथाओं के अनुसार, हज़ारों वर्ष पहले एक देवी ने जापान के दो प्रमुख पर्वतों से धरा पर अवतरित होने की अपनी इच्छा प्रकट की । सर्वोच्च शिखर वाले फूजी पर्वत ने देवी के आशीर्वाद की कोई ज़रूरत न समझते हुए अहंकार पूर्वक न कर दी जबकि स्कूबा पर्वत ने विनम्रता से देवी का स्वागत भोजन व जल के साथ किया। समय बीतने पर माऊंट फूजी अपने गर्व और ठंडे स्वभाव के कारण बर्फीला और बंजर हो गया जबकि स्कूबा पर्वत हरियाली और रंगों की बहार से आच्छादित बना रहा ।

जापानी ग्रंथों के अनुसार उनके प्रथम पूर्वज दंपत्ति श्रीमती इजानामी और श्री इजानागी नो मिकोतो इसी पर्वत के नन्ताई और न्योताई शिखरों पर रहते थे। मिथकों के अनुसार जापान राष्ट्र इन्हीं दोनों की संतति है। दोनों चोटियों पर इनके भव्य स्वर्णजटित काष्ठ मंदिर आज भी हैं।

त्सुकूबा सान पर्वत परिसर का तोरणद्वार
अपनी संक्षिप्त जापान यात्रा में स्कूबा पर्वत का दर्शन मेरी एक ऐसी उपलब्धि रही जिसे आपके साथ बाँटना चाहूँगा। इसके शिखर-युग्म नन्ताई सान तथा न्योताई सान क्रमशः 871 व 877 मीटर ऊँचे हैं। स्कूबा पर्वत को जापानी भाषा में त्सुकुबासान (Tsukubasan) कहते हैं। स्कूबा पर्वत की बहुत सी विशेषताएँ हैं। उदाहरण के लिए जापान के अधिकांश पर्वतों के विपरीत यह ज्वालामुखी नहीं है। मुख्यतः गैब्रो और ग्रेनाईट से बना हुआ यह हरा-भरा पर्वत जापान के मुख्य पर्वतों में से एक है। दूर से नीलगिरी जैसे दिखने वाले इस पर्वत को स्थानीय भाषा में "बैंगनी" पर्वत भी कहते हैं।

सुबह अपने कमरे से निकलकर होटल की लॉबी में पहुँचा तो वहाँ उत्सव का सा माहौल था। एक किनारे पर साज सज्जा के साथ एक विकराल सी मूर्ति भी लगी थी। पूछने पर पता लगा कि जापानी योद्धा (समुराई) की यह मूर्ति बालक दिवस के प्रतीक के रूप में लगाई गयी है।

त्सुकूबा के टोड देवता
बाहर आकर टैक्सी ली। स्कूबा सान कहते ही ड्राइवर ने जोर से "हई" कहा और चल पडा। पथ भारत के किसी उपनगर जैसा ही था मगर बहुत साफ़ और स्पष्ट। भीड़-भाड़ और शोर भी नहीं था। नगर से बाहर का परिदृश्य भारत के किसी ग्रामीण इलाक़े जैसा ही था। दूर-दूर तक फैले खेतों के बीच में खपरैल पड़े एक या दोमंजिला घरों के समूह। कई घरों के आगे भारत की तरह ही स्कूटर या छोटी-बड़ी कारें दिख रही थीं मगर कुत्ता, बिल्ली, गाय, घोड़ा आदि नज़र नहीं आया। अब समझ में आया कि जापानी ऑटोमोबाइल उद्योग को इतनी तरक्की क्यों करनी पडी? थोड़ी देर बाद टैक्सी पहाड़ पर चढ़ने लगी। सड़क सँकरी हो गयी और नैनीताल के रास्तों की याद दिलाने लगी। लगभग एक घंटे में हम त्सुकुबायामा पहुँचे जहाँ इजानामी देवी के मठ पर एक विशालकाय टोड की मूर्ति ने हमारा स्वागत किया। आठ हज़ार येन लेकर ड्राइवर ने जोर से "हई" कहा और चलता बना।

यहाँ से ऊपर जाने के लिए मैंने रोपवे लिया। बादलों से घिरे रोपवे से जिधर भी देखो अलौकिक दृश्य था। रोपवे से उतरने पर देखा कि पहाडी पर हर तरफ बर्फ छिटकी हुई थी। रोपवे से न्योताई सान मठ तक जाने के लिए पत्थरों को काटकर बनाई गयी सीढ़ियों की कठिन खड़ी चढ़ाई चढ़कर ऊपर पहुँचा तो देखा कि छोटे बड़े लोगों के अनेक समूह वहाँ पहले से उपस्थित थे और पर्वत शिखर पर खड़े प्राकृतिक दृश्यों का आनंद ले रहे थे।

त्सुकूबा पर्वत पर स्थित एक मठ का दृश्य
लकड़ी के बने हुए छोटे से मठ पर सुनहरी धातु (शायद सोना) का काम था। मठ के अधिष्ठाता देव इजानागी नो मिकोतो शायद अपने काष्ठ-कोष्ठक में विश्राम कर रहे थे इसलिए उनके दर्शन नहीं हुए। शिखर से घाटी का दृश्य मनोरम था परन्तु वहाँ ग्रेनाईट के चिकने प्रस्तरों से बने शिखर पर खड़े होने से सैकड़ों फीट गहरी सीधी ढलान में गिरने का भय सताने लगा सो हमने नन्ताई सान के केबिल कार स्टेशन तक पद-यात्रा का मन बनाया और बर्फ से ढँकी सँकरी पथरीली ऊबड़-खाबड़ पगडंडी पर चल पड़े। रास्ते में आते-जाते समूहों ने जब सर झुकाकर “कुन्निचिवा” कहा तो हमने भी मुस्कराकर उन्हें "नमस्ते" कह कर अचम्भे में ड़ाल दिया। रास्ते में एक छोटी सी मठिया ऐसी भी मिली जो मृत-जन्मा (stillborn) बच्चों को समर्पित थी। नन्ताई सान पहुँचकर हमने स्कूबा सान के मुख्य मठ तक जाने के लिए केबिल कार (incline) ली। चीड, ओक, चैरी, आलूबुखारे और अन्य हरे-भरे वृक्षों के बीच से गुज़रते हुए हम एक सुरंग से भी निकले और तेंतीस अंश के झुकाव पर लगभग डेढ़ किलोमीटर की दूरी छः-सात मिनट में पूर्ण कर मुख्य मठ तक पहुँच गए।

स्कूबा सान का मुख्य मठ काफ़ी नीचाई पर ज़्यादा समतल जगह पर बना हुआ है और शिखरों पर बने मठों के मुकाबले काफ़ी बड़ा और भव्य है। इसके काष्ठ भवनों में जोड़ने के लिए धातु की कीलों के स्थान पर लकड़ी और रस्सी का ही प्रयोग हुआ है। मठ के आसपास की पगडंडियों के इर्द-गिर्द छोटे फेरी वाले खिलौने, कागज़ और लकड़ी की सज्जा वस्तुएँ बाँसुरी, घुँघरू, छड़ियाँ, के साथ-साथ मेंढक, उल्लू आदि की मूर्तियाँ भी बेच रहे थे। त्वचा को आकर्षक बनाने के लिए टोड का तेल भी मिल रहा था अलबत्ता ख़रीदते हुए कोई नहीं दिखा। पूछने पर पता लगा कि यह तेल टोड की त्वचा से निकलता है और इसकी प्राप्ति के लिए उसे मारा नहीं जाता है।

मुख्य मंदिर का परिसर द्वार
कुछ जोड़े पारंपरिक वेशभूषा में देवी का आशीर्वाद लेने आये हुए थे। दिखने में सब कुछ किसी पुराने भारतीय मंदिर जैसा लग रहा था मगर उस तरह की भीड़भाड़, शोरगुल और रौनक का सर्वदा अभाव था। मंदिर के बाहर ही प्रसाद में चढ़ाए जाने वाली मदिरा के काष्ठ-गंगालों के ढेर लगे हुए थे। एक बूढ़ी माँ अपनी पोती को मंदिर के आसपास की हर छोटी-बड़ी चीज़ से परिचित करा रही थीं।

मंदिर के जापानी देवदार से बने भव्य द्वार के दोनों और अस्त्र-शस्त्र लिए दो रक्षक खड़े थे। द्वार के ऊपर लकड़ी के और अन्दर पत्थर के हिम तेंदुए या शार्दूल जैसे कुछ प्राणी बने हुए थे। मंदिरों के इस प्रकार के पारंपरिक द्वार को जापानी भाषा में तोरी कहते हैं जोकि तोरण का अपभ्रंश हो सकता है। ज़िक्र आया है तो बता दूं कि भगवान् बुद्ध को जापानी में बुत्सु (या बडको) कहते हैं। कमाकुरा के अमिताभ बुद्ध (दाई-बुतसू = विशाल बुद्ध) तथा जापान की अन्य झलकियाँ भी आप बर्गवार्ता पर अन्यत्र देख सकते हैं।

यद्यपि मूल मंदिर काफ़ी प्राचीन बताया जाता है परन्तु मंदिर का वर्तमान भवन 1633 में तोकुगावा शोगुनाते साम्राज्य के काल में बनवाया गया था। इस मंदिर का काष्ठ शिल्प जापान के मंदिर स्थापत्य का एक सुन्दर नमूना है। मुख्य भवन के द्वार पर रस्सी के बंदनवार के बीच में जापानी शैली का घंटा टँगा हुआ था। मूलतः शिन्तो मंदिर होने के बावजूद पिछले पाँच सौ वर्षों से यह स्थल बौद्धों और सामान्य पर्यटकों का भी प्रिय है।
मेरे शब्दों में इस मंदिर की तारीफ़ शायद गूँगे के गुड जैसी हो इसलिए चित्र देखिये और स्कूबा पर्वत की वसंत-काल यात्रा का आनंद उठाइये। इस जापान यात्रा में काष्ठ-स्थापत्य और प्राकृतिक सौंदर्य के अतिरिक्त जिस एक बात ने मुझे मोहित किया वह है जापानियों की अद्वितीय विनम्रता।

(यह यात्रावृत्तान्त सृजनगाथा पर जनवरी 5, 2010 को प्रकाशित हो चुका है।)
अब देखें स्कूबासान की तीर्थयात्रा के कुछ नए चित्र

रोपवे स्टेशन

रोपवे स्टेशन कुछ और दूर जाने पर

एक और मठ

केबल कार

मार्ग की एक सुरंग

मुख्य मंदिर का काष्ठद्वार

एक छोटा मठ

एक काष्ठद्वार

काष्ठद्वार की सज्जा की एक झलक

जापानी अखबार में भारतीय मॉडल

Friday, November 16, 2012

दूर देश के काक, श्मशान और यमराज

आप सभी को यम द्वितीया (भैया दूज के पर्व) की हार्दिक शुभकामनायें!

कुछ दिन पहले गिरिजेश राव ने तेज़ी से लापता होते कौवों के बारे में पोस्ट लिखी थी। यहाँ पिट्सबर्ग में इतने कौवे हैं कि मुझे कभी यह ख्याल ही नहीं आया कि वहाँ लखनऊ में इनकी कमी महसूस की जा रही है। इसी बीच जापान जाने का मौका मिला। तोक्यो नगर में पदयात्रा पर था कि फुटपाथ के निकट ही मयूर और कौवे की मिली-जुली सी आवाज़ सुनाई दी। काँ काँ ही थी मगर इतनी तेज़ और गहरी मानो मयूर के गले से आ रही हो। शायद सामने के भवन की छत पर बैठे मित्र को पुकारा जा रहा था।

तोक्यो नगर के भारत सरीखे (परंतु अत्यधिक स्वच्छ और करीने वाले) मार्ग में भारत की ही तरह जगह जगह मन्दिर और मठियाँ दिख रही थीं। मैं उन्हें देखता चल रहा था कि एक मन्दिर में एक विकराल मूर्ति को देखकर देवता को जानने की गहरी उत्सुकता हुई। जैसे ही एक जापानी भक्त आता दिखा, मैंने पूछ लिया और उसने जापानी विनम्रता के साथ बताया, "एन्मा दाई ओ" अर्थात मृत्यु के देवता।

भैया दूज यानी यम द्वितीया के पावन पर्व के अवसर पर यमराज की याद स्वाभाविक है। आप सभी को भाई दूज की बधाई!

जापान के धरतीपकड काक

प्रकृतिप्रेमी काक

गगनचुम्बी काक

ज़ोजोजी परिसर में एक समाधि स्थल

मृतकों की शांति की प्रार्थनायें!

जापान के यमराज

एन्मा दाई ओ (यमदेव)
Saturday, November 6, 2010 अनुराग शर्मा (मूल आलेख: नवम्बर ६, २०१०)

Monday, April 30, 2012

बॉस्टन में वसंत का जापानी महोत्सव - इस्पात नगरी से [58]

एक पार्क का दृश्य
उत्तरी गोलार्ध में वसंतकाल अभी चल रहा है। कम से कम उत्तरपूर्व अमेरिका तो इस समय पुष्पाच्छादित है। पूरे-पूरे पेड़ रंगों से भरे हुए हैं। साल में दो बार प्रकृति इस प्रकार र्ंगीली छटा में नहाई दिखती है। यहाँ बहार और पतझड़ दोनों ही दर्शनीय होते हैं। अंतर इतना ही है कि एक सृजन का सौन्दर्य है और एक विदाई का। एक प्रातः है और दूसरी साँय। लेकिन सौन्दर्य में कोई कमी नहीं है। यह समय नव-पल्लवों का है जबकि वह समय पत्तों के सौन्दर्य का है जो जाते-जाते भी विदाई को यादगार बना जाते हैं। बाज़ार फ़िल्म के एक गीत की उस मार्मिक पंक्ति की तरह जहाँ संसार त्यागने का मन बना चुकी नायिका अपने प्रिय से कहती है:
याद इतनी तुम्हें दिलाते जायें, 
पान कल के लिये लगाते जायें, 
देख लो आज हमको जी भर के

जापान में भी कुछ समय पहले सकूरा का समय था। मुनीश भाई ने इस विषय पर तोक्यो से बहुत सुन्दर चित्रालेख लगाये थे। उनके शब्दों को दोहराऊँ तो सकूरा में जापानी संस्कृति का रहस्य छिपा है। भले ही कुछ देर के लिये खिलो, लेकिन ऐसे खिलो कि संसार वाह कर उठे। सकूरा का समय तो अब पूरा हुआ। मेरे आंगन का सकूरा (क्वांज़न चेरी ब्लॉसम) भी अपने सारे पुष्पों की वर्षा कर के अब हरे पत्तों से लदा हुआ है। लेकिन अन्य बहुत से पेड़ प्रकृति का सौन्दर्य संतुलन बनाने में जी-जान से लगे हुए हैं। प्रकृति में कहाँ से आते हैं इतने रंग? कौन भरता है जीवन में उल्लास। हम भारतीय तो उत्सव-प्रिय लोग हैं मगर वसंत उत्सव पर हमारा एकाधिकार नहीं है। सर्दी में सोई पड़ी प्रकृति के एक अंगड़ाई लेते ही संसार भर में वसंत की खुशबू बिखर जाती है और लोग निकल पड़ते हैं उत्सव मनाने।

अमेरिका की विशेषता है यहाँ की विविधता। भारतीय संस्कृति अपने उत्कर्ष पर थी तब जिस प्रकार कभी भारत में संसार भर से लोग आया करते थे उसी प्रकार आज अमेरिका विश्व का चुम्बक है। इस महान लोकतंत्र में आज आपको हर देश, जाति, संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले मिल जायेंगे। बेशक, इस विविधता ने अमेरिका को वह ऊँचाई प्रदान की है जिसे पाने के लिये संसार के अन्य राष्ट्र ललक रहे हैं। अनेकता में एकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अमेरिका की निरपेक्ष संस्कृति ने हर राष्ट्रीयता को अपनी विशेषतायें बनाये रखने और उनकी उन्नति करने का अवसर दिया है।

यहाँ आपको तिब्बती या अफ़ग़ान ढाबा भी आराम से मिल जायेगा और योग प्रशिक्षण केन्द्र भी। मन्दिर, मस्ज़िद तो हैं ही, विभिन्न भाषा-भाषियों और राष्ट्रीयता वाले अनेक चर्च भी मिल जायेंगे। अगर कोई भारतीय समूह अपने देवता या बाबा की प्रतिष्ठा में हर सप्ताह जगह किसी चर्च से किराये पर लेता हो तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मैंने खुद कई सरकारी स्कूलों में न जाने कितने रविवार को उपनिषदों पर प्रवचन सुने हैं। प्राचीन भारत और आधुनिक अमेरिका इस बात के सशक्त उदाहरण हैं कि सहिष्णुता और उदारता किसी राष्ट्र के उत्थान में कितनी आवश्यक है।

जब विविध राष्ट्रीयतायें और विभिन्न समुदाय हैं तो उनके अपने सांस्कृतिक उत्सव होना स्वाभाविक है। इस सप्ताहांत कुछ मित्रों ने बॉस्टन का जापानी वसंत महोत्सव देखने बुलाया। मेरे पास भी उस दिन कुछ खास काम नहीं था। नियत समय पर पहुँच गया नगर के एक प्राचीन चर्च के मैदान में। जाते ही नज़र पड़ी किमोनो स्टाल पर जहाँ बड़ी महिलाओं से लेकर नन्हीं बच्चियाँ तक सभी के ट्राय करने के लिये जापानी परिधान किमोनो उपलब्ध थे। ये दो स्त्रियाँ एक बच्ची को किमोनो पहना रही हैं जिससे हम आगे मिलेंगे।
इस स्टाल पर ये लोग अखबार और पुराने पत्र-पत्रिकाओं के कागज़ से विभिन्न वस्तुयें बनाकर आगंतुकों को दे रहे थे, साथ ही जापानी हिरागाना लिपि में उनके नामपट्ट और बुकमार्क भी बना रहे थे। कुछ बूथ पर कैलिग्राफ़ी और चित्रकला का प्रदर्शन भी था। बच्चे मगन होकर रंगों को मनचाहे रूप प्रदान कर रहे थे।
जापानी परिधान और नीली छतरी में पोज़ देती यह षोडषी निश्चित रूप से जापानी नहीं है। मगर विविधता का यही सौन्दर्य है। जहाँ आप न केवल विभिन्न संस्कृतियों को देखते हैं बल्कि उन्हें महसूस करते हैं और उनका भाग बनने में खुशी का अनुभव करते हैं। भिन्नता से भय नहीं बल्कि मानवता के एक होने का अहसास उपजता है। अफ़्रीकी मूल की युवती को जापानी परिधान में देखना मुझे अच्छा लगा। और भी बहुत से लोग थे जो जापानी वेशभूषा में थे। मौसम अच्छा था शायद इसलिये भीड़ बहुत थी। इतनी भीड़ कि किसी भारतीय मेले की याद आ जाये। किसी भी चित्र का बड़ा रूप देखने के लिये उस पर क्लिक कर सकते हैं।
चर्च के बाहर बने स्टेज पर गीत, संगीत और नृत्य के विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहे थे। मज़े की बात ये थी कि यहाँ भी भाग लेने वालों में जापानी मूल के लोगों के साथ बहुत से लोग अन्य जातियों, राष्ट्रीयताओं वाले थे। समूह गान और ढोल के प्रदर्शनों में भी स्थानीय प्रशिक्षण केन्द्र और स्थानीय छात्रों की कई लाजवाब प्रस्तुतियाँ थीं। दर्शकों की संख्या इतनी अधिक होने की मुझे कतई उम्मीद नहीं थी। ग़नीमत यह थी कि अधिकांश लोग जापानी मूल के थे इसलिये उनकी अद्वितीय विनम्रता के दर्शन हर ओर हो रहे थे।

किस्म-किस्म के स्टाल हैं। जापानी कलाकृतियाँ और चित्रों की बहुतायत है। जापान की यात्रा और जापानी शिक्षा देने वालों की भी कोई कमी नहीं दिखती। बच्चों के लिये बहुत से खेल और मुखौटे भी। यह देखिये जापानी परिधान में एक भारतीय ढोल। यह किसी महिला मंडल का स्टाल था जिसमें अधिकांश जापानी महिलाओं के साथ यह भारतीय युवती मगन होकर ढोल बजाने में व्यस्त थीं। आगे कुछ और झलकियाँ।
जैसे भारत में धार्मिक-सांस्कृतिक समारोहों में देवी-देवता की रथयात्रा या झांकियाँ निकालने की रीति है वैसे ही जापान में भी पालकी पर किसी मन्दिर के अधिष्ठाता देव की यात्रा निकाली जाती है। यह यात्रा जापानी उत्सवों का एक अभिन्न अंग है। इस पालकी को मिकोशी कहते हैं। बॉस्टन का यह जापानी वसंतोत्सव भी मिकोशी के बिना कैसे सम्पन्न होता। सो यहाँ भी एक मिकोशी सजाई गयी और फिर शाम को उसकी यात्रा निकाली गयी।
जाने कहाँ से आ रही थी इतनी भीड़। कार्यक्रम शुरू होने के दो घंटे बाद भी लोग कम होने के बजाय बढते ही जा रहे थे। कुछ ही देर में भोजन समाप्त हो गया। जापान एयर लाइंस वाले तोक्यो तक के मुफ़्त टिकट के लिये रैफ़ल निकाल रहे थे, न जाने कितने लोग उसके लिये भी किस्मत आज़माने में लगे थे।  स्टेज पर इस समय जापानी ड्रम ताइको वादन का प्रदर्शन शुरू होने वाला है जिसके लिये मैं विशेषतौर पर यहाँ आया था। आप मेला देखिये मैं तब तक ताइको  पर यागीबुशी का आनन्द लेता हूँ।
विशालकाय ढोलों पर गज़ब का अधिकार प्रदर्शित करती हुई छोटी लड़कियाँ। मधुर स्वरलहरी के साथ-साथ हमारे डांडिया का अहसास कराती नृत्य गतियाँ भी। बीच-बीच में जापानी में कुछ उद्घोष सा भी जो सुनने में सॉरे जैसा लगता है। उस समय अपने जापानी मित्रों से पूछने का याद नहीं रहा। बाद में कभी पूछकर सही शब्द लिख दूंगा।  लेकिन उस सबके बारे में फिर कभी। अभी तो आपके लिये एक चित्र और है ...

यह हैं इस समारोह के सबसे आकर्षक व्यक्ति का खिताब जीतने वाली प्यारी सी गुड़िया। जय हो!


अब देखिये एक झलकी जापानी ढोलवाद्य की। यह क्लिप यूट्यूब से ली है, जापान के नरिता में हुए एक प्रदर्शन से

* सम्बन्धित कड़ियाँ *
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
* झलकियाँ जापान की - श्रृंखला

Thursday, August 18, 2011

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की पुण्यतिथि

आज़ाद हिन्द फ़ौज़
द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटेन और मित्र राष्ट्रों की विजय के बाद जापान से वायुमार्ग से रूस की ओर जाते हुए महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु 18 अगस्त, 1945 को ताईवान के ताईहोकू में एक विमान दुर्घटना में हुई। उस विमान दुर्घटना के बाद नेताजी का अंतिम संस्कार ताईहोकू में ही हुआ और उसके बाद उनकी अस्थियों को तोक्यो ले जाकर रेनकोजी मंदिर में ससम्मान सुरक्षित रखा गया। मुझे रेनकोजी मन्दिर की रज छूने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। इस बारे में कुछ जानकारी यहाँ है। हर वर्ष 18 अगस्त को इस मन्दिर में नेताजी के अस्थिकलश वाले कक्ष को श्रद्धांजलि के लिये खोला जाता है।


नेताजी जर्मनी में
समय-समय पर नेताजी को देखे जाने के दावे किये गये। अनेक लोगों का यह मानना है कि द्वितीय विश्व युद्ध में जापान और जर्मनी के साथ खडे होने के कारण उनकी पराजय के बाद नेताजी पर भी युद्ध अपराधों का मुकदमा चलने की काट के तौर पर जापान सरकार द्वारा उनकी झूठी मौत का नाटक रचा गया। अनेक कयासों के चलते भारत सरकार ने समय समय पर नेताजी की मृत्यु या कथित अज्ञातवास की सत्यता जाँचने के लिए तीन समितियां व आयोग गठित किये: शाहनवाज समिति, खोसला आयोग और जस्टिस मुखर्जी आयोग। शाहनवाज समिति और खोसला आयोग ने ताईहोकू विमान दुर्घटना में नेताजी के निधन को पूर्णरूप से सत्य माना जबकि जस्टिस मुखर्जी आयोग इस बारे में शंकित था।

मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा
नेताजी का जन्म 23 जनवरी 1897 को कटक, उडीसा में प्रभावती और रायबहादुर जानकीनाथ बोस के घर हुआ था। फ़ॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना करने से पहले नेताजी ने स्वराज पार्टी और कॉंग्रेस में लम्बे समय तक काम किया और कॉंग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। अपने राजनीतिक जीवन में वे ग्यारह बार जेल गये और फिर अंग्रेज़ों को गच्चा देकर भारत से बाहर निकल गये।

उनके साथियों का कहना था कि आज़ाद हिन्द फ़ौज़ में काम करते हुए वे मानते थे कि वे भारत को अंग्रेज़ों से स्वतंत्र कराने में सफल होंगे और तब उन्हें अगर जापान व जर्मनी से लडना पडेगा तो वे लडेंगे। वे अपने साथ एक फ़िल्म रखते थे जिसे भारत वापस आने पर गांधीजी को दिखाना चाहते थे।

रेनकोजी मन्दिर का मुख्य द्वार
आज़ाद हिन्द फ़ौज़ की निर्वासित सरकार ने विदेशों में रह रहे भारतीय मूल के 18,000 लोगों के अतिरिक्त ब्रिटिश भारतीय सेना के 35,000 युद्धबन्दियों को स्वीकार किया, और अपनी करेन्सी व टिकट भी चलाये। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1944 में बर्मा-भारत के मोर्चे पर आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिकों ने जापानी सैनिकों के साथ मिलकर ब्रिटिश सेनाओं का सामना किया। उन्हीं दिनों नेताजी जापानी सैनिकों के साथ अंडमान भी आये थे।

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* नेताजी के दर्शन - तोक्यो के मन्दिर में
* तोक्यो के रेनकोजी मन्दिर का विडियो
* रेनकोजी मन्दिर के चित्र - तुषार जोशी
* नेताजी सुभाषचन्द्र बोस - विकीपीडिया
* Japan's unsung role in India's struggle for independence

Monday, December 6, 2010

नेताजी सुभाष चंद्र बोस के दर्शन - तोक्यो के मन्दिर में


नेताजी जापानी में
इस बार जापान के लिये बिस्तरा बांधते समय हमने तय कर लिया था कि कुछ भी हो जाये मगर वह जगह अवश्य देखेंगे जहाँ नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के भस्मावशेष (अस्थियाँ) रखे हैं। सो, जाने से पहले ही रेनकोजी मन्दिर की जानकारी जुटाने के प्रयास आरम्भ कर दिये। पुराने समय में छोटा-बडा कोई भी कार्य आरम्भ करने से पहले स्वयम् से संकल्प करने की परम्परा थी। परम्परा का सम्मान करते हुए हमने भी संकल्प ले लिया। कुछ जानकारी पहले से इकट्ठी कर ली ताकि समय का सदुपयोग हो जाये। जापान पहुँचकर पता लगा कि संकल्प लेना कितना आवश्यक था। कई ज्ञानियों से बात की परंतु वहाँ किसी ने भी नेताजी का नाम ही नहीं सुना था। उस स्थल का नाम बताया - रेनकोजी मन्दिर, तब भी सब बेकार। मुहल्ले का नाम (वादा, सुगानामी कू) बताया तो जापानी मित्रों ने नेताजी के बारे में एक जानकारी पत्र छापकर मुझे दिया था ताकि इसे दिखाकर स्थानीय लोगों से रेनकोजी मन्दिर की जानकारी ले सकूँ। वे स्वयं भी भारत और जापान के साझे इतिहास के बारे में पहली बार जानकर खासे उत्साहित थे। होटलकर्मियों ने जापानी में स्थल का नक्शा छाप दिया और सहकर्मियों ने 'चंद्रा बोस' तथा मन्दिर के बारे में कुछ जानकारी इकट्ठी करके हमें हिगाशी कोएंजी (Higashi-Koenji) स्टेशन का टिकट दिला कर मेट्रो में बिठा दिया।

लाफिंग बुद्धा/चीनी कुवेर की मूर्ति
हिगाशी कोएंजी उतरकर हमने सामने पड़ने वाले हर जापानी को नक्शा दिखाकर रास्ता पूछना आरम्भ किया। लोग नक्शा देखते और फिर जापानी में कुछ न कुछ कहते हुए (शायद क्षमा मांगते हुए) चले जाते। एकाध लोगों ने क्षमा मांगते हुए हाथ भी जोड़े। आखिरकार संकल्प की शक्ति काम आयी और एक नौजवान दुकानदार ने अपने ग्राहकों से क्षमा मांगकर बाहर आकर टूटी-फ़ूटी अंग्रेज़ी और संकेतों द्वारा हमें केवल दो मोड़ वाला आसान रास्ता बता दिया। उसके बताने से हमें नक्शे की दिशा का अनुमान हो गया था। जब नक्शे के हिसाब से हम नियत स्थल पर पहुँँचे तो वहाँ एक बड़ा मन्दिर परिसर पाया। अन्दर जाकर पूछ्ताछ की तो पता लगा कि गलत जगह आ गये हैं। वापस चले, फिर किसी से पूछा तो उसने पहले वाली दिशा में ही जाने को कहा। एक ही सडक (कन्नाना दोरी) पर एक ही बिन्दु के दोनों ओर कई आवर्तन करने के बाद एक बात तो पक्की हो गयी कि हमारा गंतव्य है तो यहीं। फिर दिखता क्यों नहीं?

रेनकोजी मन्दिर का स्तम्भ
सरसरी तौर पर आसपास की पैमाइश करने पर एक वजह यही लगी कि हो न हो यह रेनकोजी मन्दिर मुख्य मार्ग पर न होकर बगल वाली गली में होगा। सो घुस गये चीनी कुवेर की प्रतिमा के साथ वाली गली में।

कुछ दूर चलने पर रेनकोजी मन्दिर पहुुँच गये। दरअसल यह जगह स्टेशन से अधिक दूर नहीं थी। हम मुख्य मार्ग पर चलकर आगे चले आये थे।

मन्दिर पहुँचकर पाया कि मुख्यद्वार तालाबन्द था। वैसे अभी पाँच भी नहीं बजे थे लेकिन हमारे जापानी सहयोगियों ने मन्दिर के समय के बारे में पहले ही दो अलग-अलग जानकारियाँ दी थीं। एक ने कहा कि मन्दिर पाँच बजे तक खुलता है और दूसरे ने बताया कि मन्दिर हर साल 18 अगस्त को नेताजी की पुण्यतिथि पर ही खुलता है। अब हमें दूसरी बात ही ठीक लग रही थी।

कांजी लिपि में नेताजी का नामपट्ट =>

सूचना पट्

कार्यक्रम/समयावली?
द्वार तक आकर भी अन्दर न जा पाने की छटपटाहट तो थी परंतु दूर देश में अपने देश के एक महानायक को देख पाने का उल्लास भी था। द्वार से नेताजी की प्रतिमा स्पष्ट दिख रही थी परंतु सन्ध्या का झुटपुटा होने के कारण कैमरे में साफ नहीं आ रही थी।


मन्दिर का मुख्यद्वार
सुभाष चन्द्र बोस जैसे महान नेता के अंतिम चिह्नों की गुमनामी से दिल जितना दुखी हो रहा था उतना ही इस जगह पर पहुँचने की खुशी भी थी। वहाँ की मिट्टी को माथे से लगाकर मैंने भरे मन से अपनी, और अपने देशवासियों की ओर से नेताजी को प्रणाम किया और कुछ देर चुपचाप वहाँ खड़े रहकर उस प्रस्तर मूर्ति को अपनी आँखों में भर लिया।


छत पर प्रतीक चिह्न

गर्भगृह जहाँ अस्थिकलश रखा है

समृद्धि के देव रेनकोजी

रेनकोजी परिसर में नेताजी
मेरा लिया हुआ चित्र दूरी, अनगढ़ कोण, हाथ हिलने और प्रकाश की कमी आदि कई कारणों से उतना स्पष्ट नहीं है इसलिये नीचे का चित्र विकीपीडिया के सौजन्य से:
यह चित्र विकीपीडिया से

मन्दिर का पता:
रेनकोजी मन्दिर, 3‐30-20, वादा, सुगिनामी-कू, तोक्यो (जापान)
मन्दिर के दर्शन के लिये भविष्य में यहाँ आने के इच्छुकों के लिये सरल निर्देश:

हिगाशी कोएंजी स्टेशन के गेट 1 से बाहर आकर बायें मुड़ें, और पार्क समाप्त होते ही पतली गली में मुड़कर तब तक सीधे चलते रहें जब तक आपको दायीं ओर एक मन्दिर न दिखे। यदि यह गली मुख्य सड़क में मिलती है या बायीं ओर आपको ऊपर वाला चीनी कुवेर दिखता है तो आप मन्दिर से आगे आ गये हैं - वापस जायें, रेनकोजी मन्दिर अब आपके बायीं ओर है। नीचे मन्दिर का गूगल मैप है और उसके नीचे पूरे मार्ग का आकाशीय दृश्य ताकि आप मेरी तरह भटके बिना मन्दिर की स्थिति का अन्दाज़ लगा सकें।

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हिगाशी कोएंजी स्टेशन से रेनको-जी मन्दिर तक का नक्शा

[अंतिम चित्र विकिपीडिया से; अन्य सभी चित्र: अनुराग शर्मा द्वारा]
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