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Sunday, September 28, 2014

सम्राट पतङ्गम [इस्पात नगरी से - 69]


एक हिन्दी कहावत है,"खाली दिमाग शैतान का घर"। कुछ दिमाग इसलिए खाली होते हैं कि उनके पास फुर्सत खूब होती है लेकिन कुछ इसलिए भी खाली होते हैं कि वे पुराने काम कर कर के जल्दी ही बोर हो जाते हैं और इसलिए कुछ नया, कुछ रोचक करने की सोचते हैं। कोई एवरेस्ट जैसी कठिन चोटियों पर चढ़ जाता है तो कोई बड़े मरुस्थल को अकेले पार करने निकल पड़ता है। उत्तरी-दक्षिणी ध्रुव अभियान हों या अन्तरिक्ष में हमारे चंद्रयान और मंगलयान जैसे अभियान, ये मानव की ज्ञान-पिपासा और जिजीविषा के साथ उसकी संकल्प शक्ति के भी प्रतीक हैं। बड़े लोगों के काम भी बड़े होते हैं, लेकिन सब लोग बड़े तो नहीं हो सकते न। तो उनके लिए इस संसार में छोटे-छोटे कामों की कमी नहीं है।

प्यूपा से तितली बनाते देखना भी एक ऐसा ही सरल परंतु रोचक काम है जो कि हमने पिछले दिनों किया। यह प्यूपा था एक मोनार्क बटरफ्लाई का जिसे हम सुविधा के लिए हिन्दी में सम्राट पतंग या सम्राट तितली कह सकते हैं। सम्राट तितली के गर्भाधान का समय वसंत ऋतु है। गर्मी के मौसम में अन्य चपल तितलियों के बीच अमेरिका और कैनेडा से मेक्सिको जाती हुई ये सम्राट तितलियाँ अपने बड़े आकार और तेज़ गति का कारण दूर से ही नज़र आ जाती हैं।

तितली और पतंगे कीट वर्ग के एक ही परिवार (order: Lepidoptera) के अंग हैं और उनकी जीवन प्रक्रिया भी मिलती-जुलती है। तितली का जीवनकाल उसकी जाति के अनुसार एक सप्ताह से लेकर एक वर्ष तक होता है।

तितली के अंडे गोंद जैसे पदार्थ की सहायता से पत्तों से चिपके रहते हैं। कुछ सप्ताह में अंडे से लार्वा (larvae या caterpillars) बन जाता है जो सामान्य रेंगने वाले कीटों जैसा होता है। लार्वा जमकर खाता है और समय आने पर प्यूपा (pupa) में बदल जाता है। प्यूपा बनाने की प्रक्रिया पतंगों में भी होती है। प्यूपा एक खोल में बंद होता है। पतंगे के प्यूपा के खोल को ककून (cocoon) तथा तितली के प्यूपा के खोल को क्राइसेलिस (chrysalis) कहते हैं। ज्ञातव्य है कि ककून से रेशम बनता है। क्राइसेलिस का ऐसा कोई उपयोग नहीं मिलता। क्राइसेलिस भी गोंद जैसे प्राकृतिक पदार्थ द्वारा अपने मेजबान पौधे से चिपका रहता है।

अब आता है तितली के जीवन-चक्र का सबसे रोचक भाग, जब क्राइसेलिस में बंद प्यूपा एक खूबसूरत तितली में बदलता है। प्यूपा के रूपान्तरण की इस जादुई प्रक्रिया को मेटमोर्फ़ोसिस (metamorphosis) कहते हैं। रूपान्तरण काल में प्यूपा अपने खोल में बंद होता है। इसी अवस्था  में प्यूपा के पंख उग आते हैं और तेज़ी से बढ़ते रहते हैं। भगवा और काले रंग के पंखों वाली खूबसूरत सम्राट तितली पिट्सबर्ग जैसे नगर से हजारों मील दूर मेक्सिको की मिचोआकन (Michoacán) पहाड़ियों में स्थित अपने मूल निवास तक हर साल पहुँचती हैं। सामान्यतः नवंबर से मार्च तक ये तितलियां मेक्सिको में रहती हैं। और उसके बाद थोड़ा-थोड़ा करके फिर से उत्तर की ओर हजारों मील तक अमेरिका और दक्षिण कैनेडा तक बढ़ आती हैं।

सम्राट तितलियाँ शक्तिशाली होती हैं। अधिकांश तितलियों की तरह उनके चारों पंख भी एक दूसरे से स्वतंत्र होते हैं। लेकिन इनके पंख सामान्य तितलियों की तरह छूने से झड़ जाने वाले नाज़ुक नहीं होते हैं।

ऐसा समझा जाता है कि सम्राट तितलियों में धरती के चुंबकीय क्षेत्र और सूर्य की स्थिति की सहायता से मार्गदर्शन के क्षमता होती हैं। हजारों मील की दूरी सुरक्षित तय करने वाली सम्राट तितलियाँ जहरीली भी होती हैं। विषाक्तता उनमें पाये जाने वाले कार्डिनेलाइड एग्लीकॉन्स रसायनों के कारण है जो इनकी पाचनक्रिया में भी सहायक होते हैं। इस विष के कारण वे कीटों और चिड़ियों का शिकार बनाने से बच पाती हैं।  ये तितलियाँ काफी ऊँचाई पर उड़ सकती हैं और ऊर्जा संरक्षण के लिए गर्म हवाओं (jet streams) की सहायता लेती हैं।

सम्राट तितलियों का अभयारण्य (Monarch Butterfly Biosphere Reserve) एक विश्व विरासत स्थल है जहां का अधिकतम तापमान 22° सेन्टीग्रेड (71° फहरनहाइट) तक जाता है। राजधानी मेक्सिको नगर से 100 किलोमीटर उत्तरपूर्व स्थित यह क्षेत्र मेक्सिको देश का सबसे ऊँचा भाग है।

थोड़ा ढूँढने पर यूट्यूब पर एक वीडियो मिला जिसमें यह पूरी प्रक्रिया बड़ी सुघड़ता से कैमरा में कैद की गई है, आनंद लीजिये:


[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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इस्पात नगरी से - श्रृंखला
तितलियाँ

Friday, August 2, 2013

कैन्टन एवेन्यू, बीचव्यू - इस्पात नगरी से [63]

बरेली में थे तो सब कुछ समतल था। बिहारीपुर का ढलान, या कुल्हाड़ापीर की चढ़ाई से आगे यदि कोई सोचता तो शायद छावनी की हिलट्रेक रोड ही थी। हाँ, नैनीताल बहुत दूर नहीं था। सैर के लिए लोग गर्मियों में अक्सर वहाँ जाते थे। धार्मिक प्रवृत्ति के लोगों के लिए पूर्णागिरी देवी का दर्शन पर्वत यात्रा का कारक बनाता था। इस शृंखला की पिछली कड़ी में हमने पिट्सबर्ग के हिमाच्छादित कुटिल पथों के नैसर्गिक सौन्दर्य को देखा था। आज फिर से हम पिट्सबर्ग की सैर पर निकले हैं। ऊंची, नीची, टेढ़ी मेढ़ी सड़कें। सावन के महीने में बर्फ तो नहीं है लेकिन टेढ़ापन मौसम से कहाँ बदलता है?


आपके साथ आज हम चलते हैं कैन्टन एवेन्यू (Canton Avenue) देखने जिसका ढलान (grade) 37% है। यह मामूली सी दिखने वाली संख्या किसी सड़क की चढ़ाई के लिए काफी बड़ी है, इतनी बड़ी कि सामान्यतः नज़रअंदाज़ रहने वाली मामूली सी सड़क कैन्टन एवेन्यू को आधिकारिक रूप से अमेरिका की सबसे ढलवां सड़क होने का गौरव प्राप्त है।

गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकोर्ड्स के अनुसार न्यूज़ीलैंड की बाल्डविन स्ट्रीट संसार की सबसे खड़ी चढ़ाई है। लेकिन जब उसके ढलान की बात आती है तब स्पष्ट होता है कि वास्तव में कैन्टन एवेन्यू ही संसार की सबसे खड़ी चढ़ाई वाली सड़क है। शुक्र है कि अमेरिका में वोट पाने के लिए इन मुद्दों की आक्रामक दूकानदारी का रिवाज नहीं है वरना ...  

कैन्टन एवेन्यू की कुल लंबाई 192 मीटर या 630 फुट है। इस पर तीन मीटर की क्षैतिज दूरी तय करने पर आप स्वतः ही 1.1 मीटर चढ़ लेते हैं। पिट्सबर्ग के लोगों को यह सड़क देखने पर कोई आश्चर्य नहीं होता क्योंकि बहुत से घरों के घास के मैदान भी इससे अधिक ढलवां होते हैं। लेकिन (ड्राइवेबल) सड़क की बात और है। सड़क के किनारे का फुटपाथ दरअसल सीढ़ियाँ हैं।

पिट्सबर्ग की "डर्टी दजन" साइकल रेस 12 चढ़ाइयों से गुजरती है जिनमें कैन्टन एवेन्यू सबसे महत्वपूर्ण है। इसी साइकिल दौड़ के कैन्टन एवेन्यू खंड की एक वीडियो क्लिप यूट्यूब के सौजन्य से प्रस्तुत है।


सम्बन्धित कड़ियाँ
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
* डर्टी दजन साइकल रेस
* कैन्टन एवेन्यू - विकीपीडिया
 

Sunday, January 27, 2013

सुखदाम् वरदाम् मातरम् - इस्पात नगरी से [62]

(अनुराग शर्मा)

क्रिसमस के आसपास से जो हिमपात आरंभ हुआ वह अभी भी अपना श्वेत सौंदर्य बिखेर रहा है। चाँदनी रातों की तो बात ही अवर्णनीय है लेकिन दिन का सौंदर्य भी कोई कम नहीं। श्वेत-श्याम प्रकृति कितनी सुंदर हो सकती है इसका अनुभव देखे बिना नहीं किया जा सकता। आइये एक चित्रमयी सैर पर निकलते हैं
घर जाने का मार्ग

घर से आने का मार्ग

बर्फ की नदी का किनारा

लवणों द्वारा बर्फ पिघलाने के बाद की सड़क

बर्फ पिघलने से पहले श्वेत वालुका सा पथ 

वैदिक ऋषि केवल उषा के सौन्दर्य, मरुत के वेग, वरुण की असीमता पर ही मुग्ध नहीं होता, वह अरण्यानी अर्थात् प्रकृति की ग्राम से दूरी का अनुभव करके भी वियोग से व्याकुल हो जाता हैः
अरण्यान्रण्यान्सौ या प्रेवनश्यति, कथं ग्रामं न प्रच्छसि न त्वाभीरिवविन्दति।
(हे अरण्यानी तुम हमारी दृष्टि से कैसे तिरोहित हो जाती हो, इतनी दूर चली जाती हो कि हम तुम्हें देख नहीं पाते। तुम ग्राम जाने का मार्ग क्यों नहीं पूछती हो ? क्या अकेले रहने में भय की अनुभूति नहीं होती ?) ~ महादेवी वर्मा
शुभ्र ज्योत्सना पुलकित यामिनीम्

घर के काष्ठ चबूतरे का हाल 

बच्चों का क्लब हाउस उपेक्षित पड़ा है

शस्य-श्यामलां मातरम्

सम्बन्धित कड़ियाँ
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला

Monday, April 30, 2012

बॉस्टन में वसंत का जापानी महोत्सव - इस्पात नगरी से [58]

एक पार्क का दृश्य
उत्तरी गोलार्ध में वसंतकाल अभी चल रहा है। कम से कम उत्तरपूर्व अमेरिका तो इस समय पुष्पाच्छादित है। पूरे-पूरे पेड़ रंगों से भरे हुए हैं। साल में दो बार प्रकृति इस प्रकार र्ंगीली छटा में नहाई दिखती है। यहाँ बहार और पतझड़ दोनों ही दर्शनीय होते हैं। अंतर इतना ही है कि एक सृजन का सौन्दर्य है और एक विदाई का। एक प्रातः है और दूसरी साँय। लेकिन सौन्दर्य में कोई कमी नहीं है। यह समय नव-पल्लवों का है जबकि वह समय पत्तों के सौन्दर्य का है जो जाते-जाते भी विदाई को यादगार बना जाते हैं। बाज़ार फ़िल्म के एक गीत की उस मार्मिक पंक्ति की तरह जहाँ संसार त्यागने का मन बना चुकी नायिका अपने प्रिय से कहती है:
याद इतनी तुम्हें दिलाते जायें, 
पान कल के लिये लगाते जायें, 
देख लो आज हमको जी भर के

जापान में भी कुछ समय पहले सकूरा का समय था। मुनीश भाई ने इस विषय पर तोक्यो से बहुत सुन्दर चित्रालेख लगाये थे। उनके शब्दों को दोहराऊँ तो सकूरा में जापानी संस्कृति का रहस्य छिपा है। भले ही कुछ देर के लिये खिलो, लेकिन ऐसे खिलो कि संसार वाह कर उठे। सकूरा का समय तो अब पूरा हुआ। मेरे आंगन का सकूरा (क्वांज़न चेरी ब्लॉसम) भी अपने सारे पुष्पों की वर्षा कर के अब हरे पत्तों से लदा हुआ है। लेकिन अन्य बहुत से पेड़ प्रकृति का सौन्दर्य संतुलन बनाने में जी-जान से लगे हुए हैं। प्रकृति में कहाँ से आते हैं इतने रंग? कौन भरता है जीवन में उल्लास। हम भारतीय तो उत्सव-प्रिय लोग हैं मगर वसंत उत्सव पर हमारा एकाधिकार नहीं है। सर्दी में सोई पड़ी प्रकृति के एक अंगड़ाई लेते ही संसार भर में वसंत की खुशबू बिखर जाती है और लोग निकल पड़ते हैं उत्सव मनाने।

अमेरिका की विशेषता है यहाँ की विविधता। भारतीय संस्कृति अपने उत्कर्ष पर थी तब जिस प्रकार कभी भारत में संसार भर से लोग आया करते थे उसी प्रकार आज अमेरिका विश्व का चुम्बक है। इस महान लोकतंत्र में आज आपको हर देश, जाति, संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले मिल जायेंगे। बेशक, इस विविधता ने अमेरिका को वह ऊँचाई प्रदान की है जिसे पाने के लिये संसार के अन्य राष्ट्र ललक रहे हैं। अनेकता में एकता का एक उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत करते हुए अमेरिका की निरपेक्ष संस्कृति ने हर राष्ट्रीयता को अपनी विशेषतायें बनाये रखने और उनकी उन्नति करने का अवसर दिया है।

यहाँ आपको तिब्बती या अफ़ग़ान ढाबा भी आराम से मिल जायेगा और योग प्रशिक्षण केन्द्र भी। मन्दिर, मस्ज़िद तो हैं ही, विभिन्न भाषा-भाषियों और राष्ट्रीयता वाले अनेक चर्च भी मिल जायेंगे। अगर कोई भारतीय समूह अपने देवता या बाबा की प्रतिष्ठा में हर सप्ताह जगह किसी चर्च से किराये पर लेता हो तो उसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है। मैंने खुद कई सरकारी स्कूलों में न जाने कितने रविवार को उपनिषदों पर प्रवचन सुने हैं। प्राचीन भारत और आधुनिक अमेरिका इस बात के सशक्त उदाहरण हैं कि सहिष्णुता और उदारता किसी राष्ट्र के उत्थान में कितनी आवश्यक है।

जब विविध राष्ट्रीयतायें और विभिन्न समुदाय हैं तो उनके अपने सांस्कृतिक उत्सव होना स्वाभाविक है। इस सप्ताहांत कुछ मित्रों ने बॉस्टन का जापानी वसंत महोत्सव देखने बुलाया। मेरे पास भी उस दिन कुछ खास काम नहीं था। नियत समय पर पहुँच गया नगर के एक प्राचीन चर्च के मैदान में। जाते ही नज़र पड़ी किमोनो स्टाल पर जहाँ बड़ी महिलाओं से लेकर नन्हीं बच्चियाँ तक सभी के ट्राय करने के लिये जापानी परिधान किमोनो उपलब्ध थे। ये दो स्त्रियाँ एक बच्ची को किमोनो पहना रही हैं जिससे हम आगे मिलेंगे।
इस स्टाल पर ये लोग अखबार और पुराने पत्र-पत्रिकाओं के कागज़ से विभिन्न वस्तुयें बनाकर आगंतुकों को दे रहे थे, साथ ही जापानी हिरागाना लिपि में उनके नामपट्ट और बुकमार्क भी बना रहे थे। कुछ बूथ पर कैलिग्राफ़ी और चित्रकला का प्रदर्शन भी था। बच्चे मगन होकर रंगों को मनचाहे रूप प्रदान कर रहे थे।
जापानी परिधान और नीली छतरी में पोज़ देती यह षोडषी निश्चित रूप से जापानी नहीं है। मगर विविधता का यही सौन्दर्य है। जहाँ आप न केवल विभिन्न संस्कृतियों को देखते हैं बल्कि उन्हें महसूस करते हैं और उनका भाग बनने में खुशी का अनुभव करते हैं। भिन्नता से भय नहीं बल्कि मानवता के एक होने का अहसास उपजता है। अफ़्रीकी मूल की युवती को जापानी परिधान में देखना मुझे अच्छा लगा। और भी बहुत से लोग थे जो जापानी वेशभूषा में थे। मौसम अच्छा था शायद इसलिये भीड़ बहुत थी। इतनी भीड़ कि किसी भारतीय मेले की याद आ जाये। किसी भी चित्र का बड़ा रूप देखने के लिये उस पर क्लिक कर सकते हैं।
चर्च के बाहर बने स्टेज पर गीत, संगीत और नृत्य के विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम चल रहे थे। मज़े की बात ये थी कि यहाँ भी भाग लेने वालों में जापानी मूल के लोगों के साथ बहुत से लोग अन्य जातियों, राष्ट्रीयताओं वाले थे। समूह गान और ढोल के प्रदर्शनों में भी स्थानीय प्रशिक्षण केन्द्र और स्थानीय छात्रों की कई लाजवाब प्रस्तुतियाँ थीं। दर्शकों की संख्या इतनी अधिक होने की मुझे कतई उम्मीद नहीं थी। ग़नीमत यह थी कि अधिकांश लोग जापानी मूल के थे इसलिये उनकी अद्वितीय विनम्रता के दर्शन हर ओर हो रहे थे।

किस्म-किस्म के स्टाल हैं। जापानी कलाकृतियाँ और चित्रों की बहुतायत है। जापान की यात्रा और जापानी शिक्षा देने वालों की भी कोई कमी नहीं दिखती। बच्चों के लिये बहुत से खेल और मुखौटे भी। यह देखिये जापानी परिधान में एक भारतीय ढोल। यह किसी महिला मंडल का स्टाल था जिसमें अधिकांश जापानी महिलाओं के साथ यह भारतीय युवती मगन होकर ढोल बजाने में व्यस्त थीं। आगे कुछ और झलकियाँ।
जैसे भारत में धार्मिक-सांस्कृतिक समारोहों में देवी-देवता की रथयात्रा या झांकियाँ निकालने की रीति है वैसे ही जापान में भी पालकी पर किसी मन्दिर के अधिष्ठाता देव की यात्रा निकाली जाती है। यह यात्रा जापानी उत्सवों का एक अभिन्न अंग है। इस पालकी को मिकोशी कहते हैं। बॉस्टन का यह जापानी वसंतोत्सव भी मिकोशी के बिना कैसे सम्पन्न होता। सो यहाँ भी एक मिकोशी सजाई गयी और फिर शाम को उसकी यात्रा निकाली गयी।
जाने कहाँ से आ रही थी इतनी भीड़। कार्यक्रम शुरू होने के दो घंटे बाद भी लोग कम होने के बजाय बढते ही जा रहे थे। कुछ ही देर में भोजन समाप्त हो गया। जापान एयर लाइंस वाले तोक्यो तक के मुफ़्त टिकट के लिये रैफ़ल निकाल रहे थे, न जाने कितने लोग उसके लिये भी किस्मत आज़माने में लगे थे।  स्टेज पर इस समय जापानी ड्रम ताइको वादन का प्रदर्शन शुरू होने वाला है जिसके लिये मैं विशेषतौर पर यहाँ आया था। आप मेला देखिये मैं तब तक ताइको  पर यागीबुशी का आनन्द लेता हूँ।
विशालकाय ढोलों पर गज़ब का अधिकार प्रदर्शित करती हुई छोटी लड़कियाँ। मधुर स्वरलहरी के साथ-साथ हमारे डांडिया का अहसास कराती नृत्य गतियाँ भी। बीच-बीच में जापानी में कुछ उद्घोष सा भी जो सुनने में सॉरे जैसा लगता है। उस समय अपने जापानी मित्रों से पूछने का याद नहीं रहा। बाद में कभी पूछकर सही शब्द लिख दूंगा।  लेकिन उस सबके बारे में फिर कभी। अभी तो आपके लिये एक चित्र और है ...

यह हैं इस समारोह के सबसे आकर्षक व्यक्ति का खिताब जीतने वाली प्यारी सी गुड़िया। जय हो!


अब देखिये एक झलकी जापानी ढोलवाद्य की। यह क्लिप यूट्यूब से ली है, जापान के नरिता में हुए एक प्रदर्शन से

* सम्बन्धित कड़ियाँ *
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला
* झलकियाँ जापान की - श्रृंखला

Sunday, January 8, 2012

चौदहवीं का चांद - कुछ चित्र

पिछले दो दिनों से आकाश साफ़ है। कल पूर्णिमा है लेकिन आज भी चन्द्रमा बहुत सुन्दर लग रहा है। आइये देखें सुधाकर चन्द्रमा की कुछ झलकियाँ








[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Full moon as captured by Anurag Sharma]

Saturday, October 15, 2011

करवाचौथ की शुभकामनायें!

चन्द्रमा के कुछ रूप, मेरे सेलफ़ोन व कैमरों से 
शरद पूर्णिमा

शरद पूर्णिमा

पेड़ पर टँगा सायंकालीन चन्द्रमा

बर्फ़ीली रात का चान्द

स्वर्णिम चन्द्रमा

दूज का चान्द (चित्र: श्री रवि दत्त द्वारा)

भोर का हिमाच्छादित चान्द

सूर्य से प्रकाशित

ठंड में ठिठुरते चन्दामामा

Friday, June 24, 2011

मैं पिट्सबर्ग हूँ [इस्पात नगरी से - 42]

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इस सुरंग से मेरा पुराना नाता है
पिट्सबर्ग एक छोटा सा शहर है। सच्चाई तो यह है कि यह शहर सिकुड़ता जा रहा है। पिट्सबर्ग ही नहीं, अमेरिका के बहुत से अन्य शहर लगातार सिकुड़ रहे है। घबराईये नहीं, सिकुड़ने से मेरा अभिप्राय था जनसंख्या से। दरअसल पिट्सबर्ग जैसे ऐतिहासिक नगरों की जनसंख्या लगातार कम होती जा रही है। पिट्सबर्ग उत्तर-पूर्वी अमेरिका के पेन्सिल्वेनिया राज्य में है। 1950 में यहाँ 676,806 लोग रहते थे लेकिन 2005 के जनसंख्या आंकडों के अनुसार यहाँ केवल 316,718 लोग रहते हैं। 2010 के आंकडों में यहाँ की जनसंख्या 305,704 रह गयी है।

पिट्सबर्ग एक पुराना शहर है। इसकी स्थापना सन् 1758 में हुई थी और इस नाते से यह अपने 250 से अधिक वर्ष पूरे कर चुका है। नवम्बर 1758 में जनरल जॉन फोर्ब्स की अगुआई में ब्रिटिश सेना ने फोर्ट ड्यूकेन (Fort Duquesne – S शांत है) के भाग्नावाशेषों पर कब्ज़ा किया और इसका नाम तत्कालीन ब्रिटिश राज्य सचिव विलियम पिट के नाम पर रखा।

कथीड्रल ऑफ लर्निंग
जब पिट्सबर्ग को अमेरिका के "सबसे ज्यादा रहने योग्य नगर" का खिताब मिला तो यहाँ के लोग फूले नहीं समाये। पुराने समय से ही पिट्सबर्ग अग्रणी लोगों का नगर बन कर रहा है। चाहे वह बिंगो (ताम्बूला) का खेल हो, कोका कोला के कैन हों या कि बड़े फेरिस वील, इन सब की शुरुआत पिट्सबर्ग से ही हुई थी। पहला व्यावसायिक रेडियो स्टेशन हो या पहला व्यावसायिक पेट्रोल पम्प, दोनों का ही श्रेय पिट्सबर्ग को जाता है।

पिछले दिनों जब मैं पिट्सबर्ग में बैठा हुआ पढ़ रहा था कि पोलियो की बीमारी सारी दुनिया में ख़त्म हो चुकने के बाद भी अभी सिर्फ़ भारत में ही बची है और वह भी मुख्यतः मेरे गृह नगरों बरेली, बदायूँ, रामपुर और मुरादाबाद आदि में - तो मुझे भाग्य के इस क्रूर खेल पर आश्चर्य हुआ क्योंकि पोलियो का टीका भी सन 1952 में पिट्सबर्ग में ही खोजा गया था। पिट्सबर्ग की देन असंख्य है इसलिए ज़्यादा नहीं कहूँगा मगर स्माइली :-) का ज़िक्र ज़रूर करूँगा जिसकी खोज यहाँ कार्नेगी मेलन विश्व विद्यालय में हुई थी। विश्व का पहला रोबोटिक्स केन्द्र भी इसी विश्व विद्यालय में प्रारम्भ हुआ। पिट्सबर्ग के वर्तमान मेयर ल्यूक रेवेंस्टाल अमेरिका के सबसे कम आयु के मेयर होने का दर्जा पा चुके हैं।

एक प्राचीन गिरजाघर
पिट्सबर्ग दो नदियों मोनोंगहेला व एलेगनी के संगम पर स्थित है। चूँकि यह दोनों नदियाँ मिलकर एक तीसरी नदी ओहियो बनाती हैं इसलिए यहाँ के निवासी इसे संगम न कहकर त्रिवेणी पुकारते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि पिट्सबर्ग में आप बहुत से व्यवसायों का नाम "तीन-नदियाँ" पायें। तीन नदियों से घिरा होने के कारण पिट्सबर्ग में पुलों की खासी संख्या है जिनमें से 720 प्रमुख पुल हैं। वैसे इन तीन नदियों के नीचे धरा में छिपा एक एक्विफ़र भी बहता है।

पुराने समय से ही अमेरिका के सर्वाधिक धनी व्यक्ति या तो पिट्सबर्ग में व्यवसाय करते थे या इस नगर से किसी रूप में जुड़े थे। यहाँ कोयला, इस्पात और अलुमिनुम का व्यवसाय प्रमुखता से हुआ। पिट्सबर्ग को इस्पात नगरी के नाम से भी पुकारा जाता है। कहते हैं कि द्वितीय विश्व युद्ध में जितना इस्पात इस शहर में बना उतना शेष विश्व ने मिलकर भी नहीं बनाया। जहाँ एक तरफ़ व्यवसाय की उन्नति हुई वहीं ज्ञान विज्ञान में भी पिट्सबर्ग उन्नति करता रहा।

हर ओर गिरजे और फ़्यूनेरल होम्स
व्यवसाय ने पिट्सबर्ग को सम्पन्नता तो बहुत दी परन्तु उसकी कीमत भी ली। पिट्सबर्ग देश के सर्वाधिक प्रदूषित नगरों में से एक गिना जाता था। बहुत सी सुंदर इमारतें कारखानों के धुएँ से काली पड़ गयी। सत्तर के दशक में जब पर्यावरण सम्बन्धी विचारधारा को बढावा मिला तो इस तरह के सारे प्रदूषणकारी व्यवसायों पर प्रतिबन्ध लगने शुरू हो गए। जिसकी कीमत भी पिट्सबर्ग को चुकानी पड़ी। युवाओं ने नौकरी की तलाश में नगर छोड़ना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि शहर में वयोवृद्ध जनसंख्या का अनुपात युवाओं से अधिक हो गया। पिट्सबर्ग ने इस चुनौती को बहुत गर्व से स्वीकारा और जल्दी ही जन-स्वास्थ्य में एक अग्रणी नगर बनकर उभरा।

पिट्सबर्ग अमेरिका का एक प्रमुख शिक्षा केन्द्र है। पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय, कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय एवं ड्युकेन विश्वविद्यालय यहाँ के तीन बड़े शिक्षा संस्थान हैं। अन्य शिक्षा संस्थानों में पॉइंट पार्क विश्व विद्यालय, चैथम विश्वविद्यालय, कार्लो विश्वविद्यालय एवं रॉबर्ट मौरिस विश्व विद्यालय प्रमुख हैं।

सैनिक व नाविक स्मृति
खनिज, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के अतिरिक्त पिट्सबर्ग एक और व्यवसाय में अग्रणी है और वह है कम्पूटर सॉफ्टवेयर। अनेकों बड़ी कम्पनियाँ जैसे गूगल, माइक्रोसॉफ्ट आदि ने यहाँ अपने कार्यालय बनाए हैं। अब जहाँ चिकित्सालय हों प्रयोगशालाएँँ हों, विश्व विद्यालय हों और सॉफ्टवेयर कम्पनियाँ भी हों और वहां पर भारतीय न हों ऐसा कैसे हो सकता है? । इस नगर में 6% लोग भारतीय मूल के हैं जिनमें मुख्यतः डॉक्टर, सोफ्टवेयर इंजिनियर, शिक्षक एवं छात्र हैं। एक बड़ा वर्ग व्यवसायिओं एवं वैज्ञानिकों का भी है। यहाँ आपको मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा तो मिलेगा ही, यदि आप अपने बच्चों को भारतीय संगीत या नृत्य सिखाना चाहते हैं तो आपको उसके लिए भी अनेक गुरु मिल जायेंगे। इतने भारतीय हों और भारतीय खाना न मिले, भला यह भी कोई बात हुई। भारतीय स्टोर व रेस्तराँ भी बहुतायत में हैं जहाँ आपको हर प्रकार का भारतीय सामान, भोजन इत्यादि मिल जायेगा। कथीड्रल ऑफ लर्निंग पिट्सबर्ग विश्व विद्यालय की प्रतीक इमारत है। इसमें एक कक्ष नालंदा विश्व विद्यालय के सम्मान में बनाया गया है।

पिट्सबर्ग के वार्षिक लोक उत्सव ने भारतीय कला व संस्कृति का परिचय स्थानीय लोगों को कराया है। हमारी संस्कृति में तो आकर्षण है ही, यहाँ के लोग भी नए विचारों को खुले दिल से स्वीकार करने वाले हैं। यहाँ आने से पहले मैंने अमेरिका के बारे में बहुत सी बातें सुनी थीं यथा, एक सामान्य अमेरिकी जीवन में सात बार नगर बदलता है। पिट्सबर्ग में मेरे बहुत से ऐसे स्थानीय सहकर्मी हैं जिन्होंने कभी पिट्सबर्ग नहीं छोड़ा। कुछ तो दो या तीन पीढियों से यहीं हैं।


[सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Photos by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* इस्पात नगरी से - पिछली कड़ियाँ
* रैंडी पौष का अन्तिम भाषण
* पिट्सबर्ग का अंतर्राष्ट्रीय लोक महोत्सव (2011)
* ड्रैगन नौका उत्सव

[यह आलेख सृजनगाथा के लिये 25 जून 2008 को लिखा गया था]