पिछली पोस्ट क्रोध पाप का मूल है में हमने देखा कि ग्रंथों में काम, क्रोध, लोभ, मोह नामक चार प्रमुख पाप चिन्हित किये गये हैं। क्रोध का दुर्गुण असहायता, कमजोरी और कायरता का लक्षण है।अब आगे:
क्रोध के दुर्गुण होते हुए कुछेक जगह उसके लाभ की बात सुनने में आयी है। लेकिन थोड़ा ध्यान देते ही ऐसे कथनों का झोल स्पष्ट हो जाता है। ऐसा लगता है कि कुछ लेखक-लेखिकायें मन्यु को क्रोध से विभ्रमित कर रहे हैं। शायद वे दैवी गुण "मन्यु" को सात्विक क्रोध समझने के भुलावे में हैं। क्रोध एक अवांछनीय दुर्गुण है। सात्विक क्रोध जैसी कोई चीज़ नहीं होती। सच्चाई यह है कि मन्यु की उपस्थिति में क्रोध कोई स्थान नहीं पा सकता। स्पष्ट करना आसान नहीं है परंतु फिर भी प्रयास करता हूँ। विषय को परिभाषित करने में जिन आत्मीयजनों ने मेरी सहायता की उनका आभारी हूँ।
देवासुर संग्राम में देवताओं की विजय का श्रेय अन्य दैवी गुणों के साथ "मन्यु" को भी दिया जा सकता है। संग्राम हो, क्षमा हो या कृपा, सज्जन अपना कार्य अक्रोध के साथ करते हैं। उदाहरण के लिये एक न्यायाधीश जब न्याय करे और निर्णय सुनाये, सज़ा, बरी, चेतावनी या क्षमा - उसमें कोई क्रोध नहीं होना चाहिये परंतु निर्णय में दमन का अंश फिर भी हो सकता है। इसी प्रकार जहाँ क्रोध का पक्षधर अहिंसा, करुणा, क्षमा आदि को कायरता के समकक्ष रखता है वहां मन्युधारी इन सब गुणों को सर्वोपरि रखेगा। वह अहिंसक के प्रति होती हिंसा को रोकने आगे भी आयेगा लेकिन इसके साथ ही अपने मन में जीवदया रखे रह सकेगा।
कृष्ण हों या बलराम, परशुराम हों या रघुवंशी राम उन्होंने डटकर अन्याय का प्रतिकार किया परंतु इस सदुद्देश्य में भी इन सबने अपने हाथ से हुई हिंसा का प्रायश्चित किया - जबकि उनके कर्म में क्रोध, द्वेष, द्रोह, लाभ, अहंकार, यश की आकांक्षा, या विजय की लालसा आदि कुछ भी नहीं था। मन्युवान को क्रोध नहीं आता। मन्यु में आक्रोश भी नहीं है, न झुंझलाहट न आँख दिखाना। आत्मरक्षा हो भी सकती है, नहीं भी। हाँ, आत्मत्याग की भावना अवश्य है। जिस इन्द्र ने दधीचि पर आक्रमण किया उसी के मांगने पर दधीचि अपने प्राण खुशी-खुशी त्याग देते हैं। उन्हें न अपने जीवन की परवाह है न इन्द्र के प्रति रोष, द्वेष या क्रोध है। केवल एक कामना है सो है जगत कल्याण की। मन्यु में शरणागत-रक्षा भी है और धर्म-रक्षा भी पर है अक्रोध के साथ। देव एक सीमा तक सहते हैं, फिर प्रतिकार करते हैं। मगर न तो उनके सहने में शिकायत है और न ही उनके प्रतिकार में अहंकार, द्रोह, क्रोध या द्वेष है।
दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।भगवान परशुराम ने जब 21 बार आतताइयों का विनाश किया तो राज्यप्रथा समाप्त करके ग्राम बसाये जिनमें ग्रामणी सभा होती थी और वहाँ निर्णय ज्ञानी लोग करते थे जो आपराधिक मामले आने पर सबको ही क्षमा करते रहे क्योंकि हर अपराध के पीछे वे सत्पुरुष कोई न कोई कारण देख सके, मसलन भूखा पेट तो चोरी करेगा ही। अपराधियों पर होने वाली इस दया के परिणामस्वरूप अंततः धरती पर अराजकता फैलने लगी। कहते हैं कि जब राम और परशुराम मिले तब राम ने परशुराम को उनकी करनी का यह पक्ष दिखाया और परशुराम ने स्वीकार किया। तब परशुराम ने गुरुकुलों में ऋषियों द्वारा पाले जा रहे पितृहीन राजकुमारों को राज्यसत्ता फिर से सौंपकर खुद समरकलायें सिखाने का काम किया। इस प्रकार न्याय व शासन व्ययवस्था का नया हाइब्रिड मॉडल भारत में बना जिसमें क्षत्रिय राजा के साथ ब्राह्मण मंत्रिमण्डल भी होता था और प्रशासन अब पहले सा निरंकुश नहीं रहा।
अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्। (श्रीमद्भग्वद्गीता 16, 4)
दम्भ, दर्प और अभिमान, क्रोध, कठोरता और अज्ञान, ये सब आसुरी सम्पदा के लक्षण हैं।
इसी प्रकार बलराम जी व कृष्ण जी जब रणछोड़ थे तब वे परशुराम के पास आये थे और परशुराम ने दोनों भाइयों को दिव्य शस्त्र और प्रशिक्षण दिया, तब वे लड़े और जीते। मन्यु में अक्रोध तो है ही बढ़ी हुई सहनशीलता + क्षमाशीलता (टॉलरेंस व एंड्यूरेंस) भी है। मतलब यह कि मन्युवान युद्धप्रिय नहीं होते, वे जल्दी भड़कते नहीं। उन्हें उकसाना पड़ता है। मन्यु को परिभाषित करते हुए कुछ विद्वान मन के प्रबुद्ध रूप को ही मन्यु कहते हैं। मन्यु भाव की पूर्ति के लिए प्रेमभाव, मातृभाव, या वात्सल्य आवश्यक है। वात्सल्य भाव के बिना मन्यु क्षीण होकर असहायता और क्रोध जैसी भावनाओं को स्थान दे देगा। अतृप्त, आहत भावनायें जहाँ रहती हैं वहीं विनाश है जैसे अम्ल अपने बर्तन की धातु को भी नष्ट करता है, वैसे ही क्रोध पहले क्रोधित व्यक्ति को हानि पहुँचाता है।
गीता का आरम्भ अर्जुन के विषाद से हुआ है, वह मोहग्रस्त है पर बात अहिंसा, त्याग और वैराग्य की करता है। कृष्ण उसे दिखाते हैं कि उसके मन में अहिंसा नहीं बल्कि मोहजनित विषाद है। उसने पहले भी हिंसा की है और यहाँ से भागकर भी वह जहाँ जाएगा वहाँ हिंसा करेगा। इसके उलट यही वह जगह है जहाँ यदि उसका विवेक जागृत हुआ तो वह विश्वरूप को समझकर बेहतर मानव बनेगा। मन्यु शब्द शायद नहीं आया है यहाँ, परन्तु युद्ध के लिए प्रेरित करते हुए भी अहिंसा, प्रेम, करुणा, समभाव, अद्रोह आदि पर जोर बार-बार दिया गया है। मेरे प्रिय श्लोक "सुख दुखे समे कृत्वा ..." में कहा गया है कि सुख, विजय, लाभ, यश की कामना के बिना किया गया युद्ध ही पापहीन हो सकता है। मन्यु में अनाचार का प्रतिकार लक्षित है - मगर बड़बोलापन या क्रोध से अधिक यह तेज व ओज के निकट है
सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।आख़िर सुख-दुख, लाभ-हानि, जय-पराजय को समान मानने वाला किसी से युद्ध करेगा ही क्यों? युद्ध के लिए निकलने वाला पक्ष किसी न किसी तरह के त्वरित या दीर्घकालीन सुख या लाभ की इच्छा तो ज़रूर ही रखेगा। और इसके साथ विजयाकांक्षा होना तो प्रयाण के लिए अवश्यम्भावी है। अन्यथा युद्ध की आवश्यकता ही नहीं रह जाती है। और कुछ न भी हो तो यश या महिमामंडन ही युद्ध का कारण बन जाता है। तब गीता में श्री कृष्ण बिना पाप वाले किस युद्ध की बात करते हैं? यह युद्ध है अन्याय का मुकाबला करने वाला, धर्म की रक्षा के लिए आततायियों से लड़ा जाने वाला वह युद्ध जिसमें क्रोध का तत्व आवश्यक नहीं है। सच यह है कि ऐसे युद्ध अक्रोधी मनुष्यों ने ही लड़े हैं। क्रोध रक्त का अस्थाई उबाल है, जबकि मन्यु मन में न्यायप्रियता की निर्भय अवस्था है।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥
(श्रीमद्भग्वद्गीता २- ३८)
एक वेदमंत्र का उदाहरण नीचे है। अर्थ अंतर्जाल से ही लिया गया है:
त्वया मन्यो सरथमारुजन्तो हर्षमाणासो धर्षिता मरुत्वः |मरने की अवस्था में भी उठने की प्रेरणा देने वाले, हे मन्यु, उत्साह! तेरी सहायता से रथ सहित शत्रु को विनष्ट करते हुए और स्वयं आनन्दित और प्रसन्न चित्त हो कर हमें उपयुक्त शस्त्रास्त्रों से अग्नि के समान तेजस्वी नेतृत्व प्राप्त हो।
तिग्मेषव आयुधा संशिशाना अभि प्र यन्तु नरो अग्निरूपाः||
(ऋग्वेद 10/84/1 अथर्ववेद 4.31.1)
मरने की अवस्था में भी उठने की प्रेरणा देने वाले मन्यु, स्पष्ट है कि यहाँ मन्यु में जिजीविषा और प्रतिकार की शक्ति की उपस्थिति अवश्य है। ध्यान देने योग्य दूसरी बात है आनन्दित और प्रसन्नचित्त होना। क्रूर लोग क्रोध में विकृत अट्टहास भले लगा लें परंतु आनन्द और प्रसन्नता का क्रोध से विलोम सम्बन्ध है। लेकिन क्या हम साहस और आवेश में अन्तर कर पाते हैं? वीरता और क्रूरता को भिन्न समझते हैं? जिस प्रकार क्षमा और द्वेष साथ रह ही नहीं सकते, उसी प्रकार मन्यु और क्रोध साथ नहीं रह सकते। क्रोध में भावुकता है जबकि मन्यु में भावनात्मक परिपक्वता (इमोशनल इंटैलिजेंस) के साथ दृढ़ता और सहनशीलता है। क्रोध अविवेकी है और उसके कारक विषाद, विभ्रम, भय, अज्ञान या अहंकार हो सकते हैं।
मुझे नहीं लगता कि शास्त्रों में क्रोध के दुर्गुण को कभी इस लायक समझा हो कि किसी के नाम में क्रोध प्रयुक्त हुआ हो। मुझे तो अभी ऐसा कोई खलनायक भी याद नहीं आ रहा जिसके नाम में क्रोध आया हो। यदि आपको कोई नाम याद आये तो अवश्य बतायें। शास्त्रों पर एक नज़र डालने पर मन्युदेव के अतिरिक्त भी ऐसे नाम सामने आते हैं जिनमें मन्यु का प्रयोग हुआ है, युधामन्यु, उपमन्यु और अभिमन्यु।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान्।युधामन्यु (अर्थ: युद्ध में मन्यु की भावना) पाण्डवों के पक्ष में लड़ने वाला एक राजा।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथा:।। (श्रीमद्भग्वद्गीता 1-6)
उपमन्यु (अर्थ: मन्यु के साथ, मन्यु के निकट) एक गोत्र-प्रवर्तक ऋषि रहे हैं। कान्यकुब्ज ब्राह्मणों में उनका गोत्र आज भी है। शायद अन्य क्षेत्रों और वर्णों में भी हो। वे आयोदधौम्य के शिष्य थे। शब्दकोष के अनुसार उनके नाम का अर्थ बुद्धिमान, मेधावी, उत्साही व उद्यमी है।
अभिमन्यु (अभि=निर्भय) के नाम से ऐसा लगता है जिसमें मेधा, उत्साह, उद्यमी प्रवृत्ति के साथ निर्भयता भी हो।
जहाँ तक मैं समझता हूँ, तेज, बल, वीरता, अक्रोध, सहनशीलता और ओज की सहयोगी शक्ति है मन्यु। मन्यु में दूसरों की मामूली भूलों से अविचलित रहने की भावना है। इसमें अन्याय के प्रतिकार का भाव तो है ही परंतु प्रतिकार पापी का नहीं पाप का है। इस पवित्र और ग्राह्य गुण में चिड़ियों से बाज़ तुड़ाने की क्षमता तो है पर चिड़ियों को बाज़ जैसा हिंसक या क्रूर बनाने का भाव कतई नहीं है। इसमें सहनशीलता और सहिष्णुता अवश्य है परंतु उसकी सीमायें स्पष्ट हैं। जैसे कि भगवान श्रीकृष्ण ने शिशुपाल को 100 अपशब्दों तक कुछ नहीं कहा। कोई और होता तो शायद 1 या 10 अपशब्दों में भी आहत हो जाता और क्रोधवश प्रतिकार कर बैठता। क्या पता कोई अन्य होता तो पाँच सौ गालियाँ भी वहीँ छोड़कर चल देता। कोई अन्य चरित्र सारे हालाहल को पी लेता। हर कृत्य के अपने पार्श्व प्रभाव (साइड एफ़ेक्ट) होते लेकिन इतना तय है कि मन्युवान में न केवल सहनशक्ति होती है बल्कि उसे अक्सर अपनी सहनशक्ति की सीमायें भी स्पष्ट होती हैं। एक सीमा तक अन्यायी सुरक्षित भी रह पाता है। यदि शिशुपाल समझदार होता तो अपने अपराध को 100 अपशब्दों से पहले ही पहचानकर पश्चात्ताप करके अपने आगत को टाल भी सकता था। लेकिन वह अपने क्रोध के वशीभूत होकर अपनी सीमा से आगे निकल गया और अंततः न्याय को प्राप्त हुआ।
"परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ..." में किसी भी व्यक्ति के प्रति द्वेष या क्रोध न होकर केवल दुष्कृत्यों के (अक्रोधी) विनाश की बात है। यदि दुष्कृत्य करने वाले "मामेकम् शरणम व्रज" का आह्वान सुनकर अपना मार्ग बदल देते हैं तो वे भी "परित्राणाय साधूनाम्" की परिधि के अंतर्गत ही आयेंगे। हमने देखा कि जिस मन्यु को कभी ग़लती से और कभी सटीक तुलना या समानार्थी शब्द के अभाव में सात्विक क्रोध कह दिया जाता है उस दैवी गुण में क्रोध, द्वेष या द्रोह जैसे अवगुण बिल्कुल नहीं है। क्रोध अगर नंगी तलवार है तो मन्यु कवच और ढाल के साथ वह जंज़ीर है जो तलवार को लपेटकर छीनने की ताकत रखती है परंतु न आसानी से आहत होती है न अपने स्वार्थ के लिये रक्तपात करती है।
महानायक रामचंद्र पांडुरंग योलेकर* के वंशज डॉ राजेश टोपे के साथ अनुराग |
बल, सहनशक्ति, अन्याय का प्रतिकार, संतत्व से प्रेम, उदारता, दया, करुणा, वात्सल्य, अहंकार का अभाव, उत्साह, मेधा
मन्यु के सहयोगी क्या हैं
बल, तेज, वीरता, ओज, सहनशक्ति, सत्यनिष्ठा, जनकल्याण की भावना
मन्यु के विरोधी क्या हैं
आवेश, अहंकार, नियंत्रण, स्वार्थ, संकीर्णता, क्रोध, शारीरिक या मानसिक कमज़ोरी, भावुकता, अकारण आहत होना, बड़बोलापन
आइये मिलकर द्वेष व क्रोध जैसी कमज़ोरियों को त्यागकर ऐसे छः सद्गुणों की कामना करें जो हमें जीवनी शक्ति तो दें ही, समाज के लिये भी लाभकारी हों:
ॐ तेजोSसि तेजम् मयि देहि। वीर्यमसि वीर्यं मयि देहि। बलंसि बलम् मयि देहि।
मन्युरसि मन्युं मयि देहि। ओजोSसि ओजोमयि देहि। सहोSसि सहोमयि देहि।
(यजुर्वेद 19:9)
रामचंद्र पांडुरंग योलेकर* = तात्या टोपे
अगली कड़ी में देखिये
[क्रोध कायरता है, मन्यु शक्ति है - सारांश]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* मन्युरसि मन्युं मयि देहि - अखंड ज्योति
* मन्यु का महत्व
* मन्यु - सुबोध कुमार
* करें मन्यु से कलुष निवारण (सुमित्रानंदन पंत)
* तिरंगा (डॉ. कविता वाचक्नवी)
* मैं मन्यु लिखता हूं - दिनकर
* कर्म से असुर (स्वामी चक्रपाणि)
* नायकत्व क्या है?
मन्यु के बारे में इतनी गहन व्याख्या पढ़वाने का आभार, बड़ा महीन अन्तर है अनुभव का।
ReplyDeleteदेव एक सीमा तक सहते हैं, फिर प्रतिकार करते हैं। मगर न तो सहने में शिकायत है और न ही प्रतिकार में अहंकार, द्रोह, क्रोध या द्वेष है।
ReplyDeleteअतृप्त, आहत भावनायें जहाँ रहती हैं वहीं विनाश है जैसे अम्ल अपने बर्तन की धातु को भी नष्ट करता है।
यूँ तो पूरा लेख ही उपयोगी है ,मगर कुछ पंक्तियाँ क्रोध और मन्यु के अन्तर को बहुत विस्तार से समझा रही हैं ..
निश्चय ही संग्रहणीय अंक है !
जिस प्रकार क्षमा और द्वेष साथ रह ही नहीं सकते, उसी प्रकार मन्यु और क्रोध साथ नहीं रह सकते। क्रोध में भावुकता है जबकि मन्यु में भावनात्मक परिपक्वता (इमोशनल इंटैलिजेंस) के साथ दृढता और सहनशीलता है। क्रोध अविवेकी है और उसके कारक विषाद, विभ्रम, भय, अज्ञान या अहंकार हो सकते हैं।
ReplyDeleteसहेजने योग्य विवेचन ...... सार्थक पोस्ट के लिए आभार
हार्दिक आभार इस दुर्लभ जानकारी के लिए
ReplyDeleteअनुराग जी ालेख तो बहुत बार पढे जाते हैं लेकिन इस आलेख मे जिस तरह से सब कुछ स्पश्ट और समझ आता है वो सब के बस की बात नही। बहुत जानकारी पूर्ण आलेख है। धन्यवाद।
ReplyDelete.........
ReplyDelete.........
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pranam.
अनुराग जी - इस लेख पर जो कहना है - एक टिप्पणी में नहीं आ सकता | फिर भी मैं गीता के सन्दर्भ ले कर कहूँगी - कि कैसे हमें जो गलत लगे - उसका विरोध भी करना है, और विरोध में कर्म भी, परन्तु उस कर्म के बीच क्रोध को नहीं आने देना है |
ReplyDelete१) ३.३७ - कामेश क्रोधेश रजोगुणसमुद्भवः ॥ महाशनो महापाप्मा विद्येनमिह वैरिणम् ॥॥
-- अर्थात - काम से जनित क्रोध (दोनों रजोगुणी प्रवृत्तियां) ही इस संसार में सब कुछ नाश कर देने वाला शत्रु है |
२) ५.१० - ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः ॥ लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥॥
-- अर्थात जो अपन कर्तव्य (धर्म) बिन उस कर्म से attachment के करता है (अर्थात किसी गलत कार्य का विरोध भी करे तो अक्रोधित रहते हुए ) ,[ अपने कर्मों के फल अपने लिये नही बल्कि (ईश्वर के प्रति) मेरा कर्तव्य करूँ - इसका फल मुझे कुछ नही चाहिये - मैन बस अपना best effort दूँ ] - वह व्यक्ति उस कर्म के + या - प्रभाव से नहीं बंधता | जैसे कि पानी में रह कर भी कमल का पत्ता सूखा ही रहता है | [उसी तरह यदि हम किसी चीज़ को गलत समझते हैं - तो उसका विरोध करें, उस ओर कर्म करें, किन्तु अक्रोधित रहते हुए ही करें, उसमे "मैं" को न लायें |
३) ५.२६ - कामक्रोधविमुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् ॥ अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम॥॥
-- अर्थात जो क्रोध और कामना से मुक्त रह कर चेतनामय रहते हैं, वे निकट भविष्य में ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त होते हैं |
४) ६.७ जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः ॥ शीतोष्णसुखदु:खेषु तथा मानापमानयोः ॥॥
-- अर्थात जिसने अपने मन को (काम क्रोध्, मद, लोभ मोह को ) जीत लिया है और शांत स्वभाव को (और परिणाम स्वरुप परमात्मा को) प्राप्त किया है वह सर्दी, गर्मी, सुख, दुःख, मान और अपमान से प्रभावित नहीं होता (परन्तु अपना कर्त्तव्य कर्म करता रहता है)
इस लेख को बार - बार पढ़े , तो भी अधूरापन महसूस हो रहा है ! संग्रहनीय लेख !
ReplyDeleteआपके परिश्रम और संकल्प के लिए मैं आपका आभारी हूँ. यह लेखमाला दुर्लभ है और संग्रहणीय भी है.
ReplyDeleteअब एक पोस्ट क्रोध के उपचार के उपायों पर भी आनी चाहिए. यह जानना बहुत ज़रूरी है की क्रोध के सर उठाने की स्थिति में क्या किया जाए.
बहुत बढ़िया लिखा है.
ReplyDeleteयह विशिष्ठ आलेख पढ़कर मैं तो स्तम्भित सा हूं।
ReplyDeleteआज तक यह भ्रांति चली आ रही है कि 'मन्यु' एक तरह का 'सात्विक क्रोध'ही है। आपने मन्यु को सुपरिभाषित करते हुए उसके निर्मल अर्थघटन को प्रकाशित किया है। सही अर्थबोध का यह आपका मौलिक और सार्थक योगदान है। बधाई स्वीकार करें।
बहुत सुन्दर ,गहन व्याख्या,आभार.
ReplyDeleteक्रोध पर काबू पाना हर किसी के वश का नहीं ।
ReplyDeleteजो ऐसा कर पाए , वही सात्विक कहलाए ।
यहाँ ब्लॉगजगत में भी यही विडंबना चल रही है ।
जबरदस्त ! पूरे अध्यात्मिक मोड़ में पहुँच गए हैं !
ReplyDeleteचलिए यहाँ बनारस में चल रहे मुरारी बापू का प्रवचन
न सुन पाने का दुःख अब न सालेगा !
बढिया चर्चा के लिए आभार॥
ReplyDeleteइस तरह की आलेख पढकर अपने ज्ञान के अल्पत्व का अनुभव होता है.. जितनी सहजता से आप जितने गहन विषयों को स्पष्ट करते हैं वह अपने आप में एक आध्यात्मिक यात्रा है.. साधुवाद!!
ReplyDeleteबेहद महीन काता है भैया, बेहद महीन।
ReplyDeleteये पोस्ट सच में संग्रहणीय है, बार बार और अलग अलग मूड़ में पढ़ने लायक।
एक बहुत ही ज्ञानवर्धक पोस्ट!!!बार-बार मनन करने योग्य और जीवन में कुछ सार्थक जोड़ने वाली इस पोस्ट के लिए कोटिश: धन्यवाद!!!आभार
ReplyDeleteइस आलेख को पढ़ने के बाद अपनी अज्ञानता का बोध होता है। इतना गहन अध्यन और गंभीर चिंतन, नमन है आपको!
ReplyDeleteनिश्चय ही संग्रहणीय।
आप सभी के मृदु वचनों का आभार!
ReplyDeletesach kahu to ye lekh meri samajh to aa gaya par shayad meri umar ya mera bachpana ise jyada gahraai se accept nahi kar pa raha abhi.ya abhi ka mood asa nahi 1 baar fir padhungi....aur tab samjhdaron ki tarah tippani dungi:)
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया व गंभीर चिंतन भरा पोस्ट,आभार !
ReplyDeleteगहन व्याख्या!
ReplyDeleteहतप्रभ हूँ कि पहले कभी मन्यु के बारे में इतना विस्तार से नहीं पढ़ने को मिला। लेख के लिए आभार।
ReplyDeleteसादर नमन
ReplyDeleteआपका ब्लॉग देखा, बेहद अच्छा लगा!
यह अत्यंत सार्थक प्रयास है! हमारी शुभकामनाएं!!
सारिका मुकेश
सादर नमन
ReplyDeleteआपका ब्लॉग देखा, बेहद अच्छा लगा!
यह अत्यंत सार्थक प्रयास है! हमारी शुभकामनाएं!!
सारिका मुकेश
सादर नमन
ReplyDeleteआपका ब्लॉग देखा, बेहद अच्छा लगा!
यह अत्यंत सार्थक प्रयास है! हमारी शुभकामनाएं!!
सारिका मुकेश
सादर नमन
ReplyDeleteआपका ब्लॉग देखा, बेहद अच्छा लगा!
यह अत्यंत सार्थक प्रयास है! हमारी शुभकामनाएं!!
सारिका मुकेश
सादर नमन
ReplyDeleteआपका ब्लॉग देखा, बेहद अच्छा लगा!
यह अत्यंत सार्थक प्रयास है! हमारी शुभकामनाएं!!
सारिका मुकेश
सादर नमन
ReplyDeleteआपका ब्लॉग देखा, बेहद अच्छा लगा!
यह अत्यंत सार्थक प्रयास है! हमारी शुभकामनाएं!!
सारिका मुकेश
दोनो पोस्टें अद्वितीय हैं!
ReplyDeleteधन्यवाद।
क्रोध के विषय में "पतन की सीढ़ी" गीता में स्पष्ट की गयी है -
क्रोधात्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम: स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।
मननीय आलेख
ReplyDeleteमुग्ध करने लायक विश्लेषण ! अत्यंत प्रशंसनीय...
ReplyDelete'मन्यु' पर वैदिक संदर्भ में विस्तृत व्याख्या के लिए यह लिंक भी द्रष्टव्य है, जिसमें कहा गया है:
"ऋग्वेद में मन्यु शब्द ५३ बार प्रकट हुआ है । इनमें से ४१ स्थानों पर इस शब्द की व्याख्या सायणाचार्य द्वारा वैदिक निघण्टु के अनुरूप ही क्रोध अर्थ में की गई है, दो स्थानों पर तेजस् रूप में तथा तीन स्थानों पर स्तोत्र रूप में।"
"महर्षि दयानंद ने मन्यु को बोध जन्य क्रोध बताया है."
यजुर्वेद 19.9 में प्रार्थना है :
"मन्युरसि मन्युं मयि धेहि...
- हे दुष्टों पर क्रोध करने वाले (परमेश्वर) ! आप दुष्ट कामों और दुष्ट जीवों पर क्रोध करने का स्वभाव मुझ में भी रखिये."
मानव-जीवन को सहजता से निभाने में यह पोस्ट कारगर सिद्ध हो सकती है.मन्यु के बारे में विस्तृत जानकारी पहली बार मिली !
ReplyDeleteसोच रहा हूँ , किन शब्दों में आभार व्यक्त किया जाए
ReplyDeletepranaam hai aapko - si aalekh ke liye |
ReplyDeleteक्रोध रक्त का अस्थाई उबाल है, जबकि मन्यु मन में न्यायप्रियता की निर्भय अवस्था है।
ReplyDelete.......
कोई क्रूर लोग क्रोध में विकृत अट्टाहास भले लगा लें परंतु आनन्द और प्रसन्नता का क्रोध से विलोम सम्बन्ध है। लेकिन क्या हम साहस और आवेश में अन्तर कर पाते हैं? वीरता और क्रूरता को भिन्न समझते हैं? जिस प्रकार क्षमा और द्वेष साथ रह ही नहीं सकते, उसी प्रकार मन्यु और क्रोध साथ नहीं रह सकते। क्रोध में भावुकता है जबकि मन्यु में भावनात्मक परिपक्वता (इमोशनल इंटैलिजेंस) के साथ दृढता और सहनशीलता है। क्रोध अविवेकी है और उसके कारक विषाद, विभ्रम, भय, अज्ञान या अहंकार हो सकते हैं। ...
मुग्धभाव से पढ़ा, मनन किया और अभी निशब्दता की स्थति में पहुँच गयी...क्या कहूँ...?
कितने ही उलझे धागों को सुलझा दिया आपने इस सुन्दर विवेचना से...
आभार व्यक्त karne को shabd nahi mere paas...
maa sharda sada सहाय रहें आपपर...
जिज्ञासुओं एवं भ्रमितों के लिए एक अत्यावश्यक आलेख. मननीय एवं अनुकरणीय. अनुराग जी को साधुवाद ! बहुत स्पष्ट तरीके से ....सरल शब्दों में व्याख्या की है उन्होंने. बस इतना और जोड़ना चाहूंगा ......
ReplyDeleteस्वार्थ के उपहत होने से तामसिक वृत्ति के लोगों में प्रतिशोध की भावना से उत्पन्न हुआ मानसिक विकार क्रोध है जो अनियंत्रित होने पर स्वाधिष्ठान के साथ-साथ अपनी चपेट में आने वाले जड़/चेतन सभी को क्षति पहुंचाने के पश्चात ही शांत हो पाता है.
अन्याय, अधर्म, अनीति आदि निंदनीय कृत्यों के प्रतिकार करने एवं न्याय,धर्म, नीति आदि प्रशस्त कृत्यों की पुनर्स्थापना के पवित्र भाव के साथ मन की दृढ संकल्पना का भाव ही मन्यु है जो लोक कल्याणकारी परिवर्तनों के द्वारा सुव्यवस्था का कारण बनता है. क्रोध के विपरीत मन्यु का उद्देश्य स्वार्थ न होकर लोक कल्याण होता है
क्रोध एक ऐसा आवेग है जिसमें तामसिक भाव की प्रधानता होती है. जबकि मन्यु एक ऐसी प्रशांत ऊर्जा है जिसमें सात्विक भाव की प्रधानता होती है..
ek "manyu" naamdhaari yahaan bhi :)
ReplyDeleteऋषि भरद्वाज (विटठल) के पुत्र हैं - मन्यु
- जिनके पुत्र हैं - नर
- उनके पुत्र सन्क्रिति
- उनके पुत्र हैं रंतिदेव
आवेश, अहंकार, नियंत्रण, स्वार्थ, संकीर्णता, क्रोध, शारीरिक या मानसिक कमज़ोरी, भावुकता, अकारण आहत होना, बड़बोलापन --- ये सब मुझमे है ( था )
ReplyDeleteबल, सहनशक्ति, अन्याय का प्रतिकार, संतत्व से प्रेम, उदारता, दया, करुणा, वात्सल्य, अहंकार का अभाव, उत्साह,मेधा------ ये सब लाने की कोशीश करुगा --ये वचन देता हू ,आपका बहुत आभार व्यक्त करता हू बात करने के लिए .धन्यवाद
आवेश, अहंकार, नियंत्रण, स्वार्थ, संकीर्णता, क्रोध, शारीरिक या मानसिक कमज़ोरी, भावुकता, अकारण आहत होना, बड़बोलापन --- ये सब मुझमे है ( था )
ReplyDeleteबल, सहनशक्ति, अन्याय का प्रतिकार, संतत्व से प्रेम, उदारता, दया, करुणा, वात्सल्य, अहंकार का अभाव, उत्साह,मेधा------ ये सब लाने की कोशीश करुगा --ये वचन देता हू ,आपका बहुत आभार व्यक्त करता हू बात करने के लिए .धन्यवाद
अभय जी,
ReplyDeleteॠजु प्रकृति का मानव ही 'है' तो 'था' में बदल सकता है।
आपके संकल्प का अभिनंदन!!
अनुराग जी का आभार कि यह आलेख किसी के अन्तर्मन को निर्मल करने में सहायक सिद्ध हुआ।
@देव एक सीमा तक सहते हैं, फिर प्रतिकार करते हैं। :
ReplyDelete"sahanea"
is shabd par kuchh prakaash daalenge ? aapka aabahar hoga
सहयोग, सहिष्णुता और सहनशीलता का मूल एक ही है, जहाँ सहिष्णुता वैचारिक है, सहनशीलता भौतिक है। "सहोSसि सहोमयि देहि।" में इसी सह्य की मांग है।
Deleteसहनशीलता = शक्ति, उदारता और विवेक का संगम :)