Sunday, November 6, 2011

क्रोध पाप का मूल है ...

काम क्रोध मद लोभ की, जब लौ मन में खान।
तब लौ पण्डित मूर्खौ, तुलसी एक समान॥
~ तुलसीदास
त्स्कूबा में एक समुराई वीर
भाई मनोज भारती की चार पुरुषार्थों पर सुन्दर पोस्ट पढी। उन्होंने शास्त्रों में वर्णित चार पुरुषार्थों धर्म, अर्थ, काम मोक्ष का विस्तार से ज़िक्र किया। सन्दर्भ में काम, क्रोध आदि दोषों की बात भी सामने आयी। उससे पहले पिछले दिनों क्रोध एवम अन्य दुर्गुणों पर ही शिल्पा मेहता की तीन प्रविष्टियाँ  दिखाई दीं। इन स्थानों पर जहाँ क्रोध के दुष्परिणामों की बात कही गयी है वहीं एक बिल्कुल अलग ब्लॉग पर लिखी प्रविष्टियों और टिप्पणियों में क्रोध का बाकायदा महिमामण्डन किया गया है। सच यह है कि क्रोध सदा विनाशक ही होता है। क्रोध जहाँ फेंका जाये उसकी तो हानि करता ही है, जिस बर्तन में रहता है उसे भी छीलता रहता है। इसी विषय पर स्वामी बुधानन्द की शिक्षाओं पर आधारित मानसिक हलचल की एक पुराने आलेख में ज्ञानदत्त पाण्डेय जी ने क्रोध से बचने या उसपर नियंत्रण पाने के उपायों का सरल वर्णन किया है।
दैव संशयी गांठ न छूटै, काम-क्रोध माया मद मत्सर, इन पाँचहु मिल लूटै। ~ रविदास
भारतीय संस्कृति में जहाँ धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष नामक चार पुरुषार्थ काम्य हैं, उसी प्रकार बहुत से मौलिक पाप भी परिभाषित हैं। कहीं 4, कहीं 5, कहीं 9, संख्या भिन्न हो सकती है लेकिन फिर भी काम, क्रोध, लोभ, मोह, यह चार दुर्गुण सदा ही पाप की सूची में निर्विवाद रहे हैं।

वांछनीय = चार पुरुषार्थ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
अवांछनीय = चार पाप = काम, क्रोध, लोभ, मोह

क्रोध, लोभ, मोह जैसे दुर्गुणों के विपरीत कामना अच्छी, बुरी दोनों ही हो सकती है। जीते-जी क्रोध, लोभ, और मोह जैसे दुर्गुणों से बचा जा सकता है परंतु कामना से पीछा छुड़ाना कठिन है, कामना समाप्त तो जीवन समाप्त। इसलिये सत्पुरुष अपनी कामना को जनहितकारी बनाते हैं। जहाँ हम अपनी कामना से प्रेरित होते हैं, वहीं संत/भक्त प्रभु की कामना से - जगत-हितार्थ। बहुत से संत तब आत्मत्याग कर देते हैं जब उन्हें लगता है कि या तो उद्देश्य पूरा हुआ या समय। इसलिये काम अवांछनीय व काम्य दोनों ही सूचियों में स्थान पाता रहा है।
लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोध पाप कर मूल।
जेहिबस जन अनुचित करहिं चलहिं विश्व प्रतिकूल॥
~ तुलसीदास
गीता के अनुसार रजोगुणी व्यक्तित्व की अतृप्त अभिलाषा 'क्रोध' बन जाती है। गीता में ही क्रोध, अहंकार, और द्रोह को अवांछनीय बताया गया है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार भी क्रोध हमारे आंतरिक शत्रुओं में से एक है। ॠग्वेद में असंयम, क्रोध, धूर्तता, चौर कर्म, हत्या, प्रमाद, नशा, द्यूतक्रीड़ा आदि को पाप के रुप में माना गया है और इन सबको दूर करने के लिए देवताओं का आह्वान किया गया है। ईसाइयत में भी क्रोध को सात प्रमुख पापों में गिना गया है। मनुस्मृति के अनुसार धर्म के दस मूल लक्षणों में एक "अक्रोध" है। धम्मपद की शिक्षा अक्रोध से क्रोध को, भलाई से दुष्टता को, दान से कृपणता को और सत्य से झूठ को जीतने की है। संत कबीर ने क्रोध के मूल में अहंकार को माना है।
कोटि करम लोग रहै, एक क्रोध की लार।
किया कराया सब गया, जब आया हंकार॥
~ कबीरदास
क्रोध के विषय में एक बात सदैव स्मरण रखना चाहिए कि अक्रोध के साथ किसी आततायी का विवेकपूर्ण और द्वेषरहित प्रतिरोध करना क्रोध नहीं है। इसी प्रकार भय, प्रलोभन अथवा अन्य किसी कारण से उस समय क्रोध को येन-केन दबा या छिपाकर शांत रहने का प्रयास करना अक्रोध की श्रेणी में नहीं आएगा। स्वयं की इच्छा पूर्ति में बाधा पड़ने के कारण जो विवेकहीन क्रोध आता है वह अधर्म है। अत: जीवन में अक्रोध का अभ्यास करते समय इस अत्यंत महत्वपूर्ण अंतर को सदैव ध्यान में रखना चाहिए। अंतर बहुत महीन है इसलिये हमें अक्सर भ्रम हो जाते हैं। क्रोध शक्तिहीनता का परिचायक है, वह कमजोरी और कायरता का लक्षण है।
क्रोध पाप ही नहीं, पाप का मूल है। अक्रोध पुण्य है, धर्म है, वरेण्य है। ~भालचन्द्र सेठिया
क्रोध एवम क्षमा का तो 36 का आंकड़ा है। क्रोधजनित व्यक्ति के हृदय में क्षमा का भाव नहीं आ सकता। बल्कि अक्रोध और क्षमा में भी बारीक अंतर है। अक्रोध में क्रोध का अभाव है अन्याय के प्रतिकार का नहीं। अक्रोध होते हुए भी हम अन्याय को होने से रोक सकते हैं। निर्बलता की स्थिति में रोक न भी सकें, प्रतिरोध तो उत्पन्न कर ही सकते हैं। जबकि क्षमाशीलता में अन्याय कर चुके व्यक्ति को स्वीकारोक्ति, पश्चात्ताप, संताप या किसी अन्य समुचित कारण से दण्ड से मुक्त करने की भावना है। क्रोध ही पालने और बढावा देने पर द्रोह के रूप में बढता जाता है।
जहां क्रोध तहं काल है, जहां लोभ तहं पाप।
जहां दया तहं धर्म है, जहां क्षमा तहं आप॥
~कबीरदास
आत्मावलोकन और अनुशासन के बिना हम इन भावनात्मक कमज़ोरियों पर काबू नहीं पा सकते हैं। भावनात्मक परिपक्वता और चारित्रिक दृढता क्रोध पर नियंत्रण पाने में सहायक सिद्ध होती हैं। लेकिन कई बार इन से पार पाना असम्भव सा लगता है। ऐसी स्थिति में प्रोफ़ेशनल सहायता आवश्यक हो जाती है। ज़रूरत है कि समय रहते समस्या की गम्भीरता को पहचाना जाये और उसके दुष्प्रभाव से बचा जाये। क्या आप समझते हैं कि क्रोध कभी अच्छा भी हो सकता है? यदि हाँ तो क्या आपको अपने जीवन से या इतिहास से ऐसा कोई उदाहरण याद आता है जहाँ क्रोध विनाशकारी नहीं था? अवश्य बताइये। साथ ही ऐसे उदाहरण भी दीजिये जहाँ क्रोध न होता तो विनाश को टाला जा सकता था। धन्यवाद!
क्रोध की उत्पत्ति मूर्खता से होती है और समाप्ति लज्जा पर ~पाइथागोरस


अगली कड़ी में देखिये
[मन्युरसि मन्युं मयि देहि - अक्रोध की मांग]



[चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: Samurai face captured by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* पुरुषार्थ - गूंजअनुगूंज (मनोज भारती)
* ज्वालामुखी - रेत के महल (शिल्पा मेहता)
* क्रोध और पश्चाताप - रेत के महल (शिल्पा मेहता)
* क्रोध पर नियंत्रण कैसे करें? - ज्ञानदत्त पाण्डेय
* गुस्सा - डॉ. महेश शर्मा
* पाप का मूल है क्रोध - भालचन्द्र सेठिया
* क्रोध का दुर्गुण - कृष्णकांत वैदिक
* क्रोध आग और निंदा धुआँ - दीपक भारतदीप
* क्रोध से नुकसान - प्रयास
* anger
* क्षमा बड़न को चाहिये छोटन को उत्पात

39 comments:

  1. क्रोध एक सहज मानवीय प्रवृत्ति है पर इसे नियंत्रण में रखना शायद ही आम इंसान के वश में हो ! यह व्यक्ति की मूल-प्रकृति होती है !हाँ,यदि सत्संग किया जाय तो ज़रूर कुछ लाभ पहुँच सकता है ,लेकिन सत्संग की प्रवृत्ति भी तो होनी चाहिए !

    "क्रोध में व्यक्ति अपने मूल गुण भूल जाता है! "

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  2. गीता २ । ६३ ।।
    क्रोधाद्भवति सम्मोहः
    संमोहात्स्मृतिविभ्रमः
    स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो
    बुद्धिनाशात्प्रणश्यति

    अर्थात - क्रोध से मोह पैदा होता है,
    जिससे स्मृति बिगाड़ जाती है,
    जिससे बुद्धि ख़राब होती है
    जिससे विनाश होता है |

    और यह नाश उसका नहीं जिस पर क्रोध है, बल्कि उसका जो स्वयं क्रोधित है |

    [ .....
    इससे ठीक पहले के श्लोक में कहा गया कि -
    - जिस विषय पर हम हमेशा सोचते हैं (ध्यान करते हैं ) उससे आसक्ति,
    - आसक्ति से पाने की कामना ( negative कामना )
    - और काम से क्रोध उत्पन्न होता है |
    फिर चाहे वह निरंतर विचार का विषय कोई असल वस्तु हो (जैसे मुझे car चाहिए, घर चाहिए) या कोई abstract वस्तु (जैसे मुझे respect चाहिए, recognition चाहिए, लोग मेरे follower हों, मेरा point of view सब स्वीकारें आदि ) यह विचार ही क्यों न हों - आसक्ति सब ही पैदा करते हैं |
    ]

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  3. क्रोध आना स्वाभाविक है, व्यक्त करना धैर्य के साथ हो और सकारात्मक दिशा में हो। मन में रख स्वयं की हानि करना भी मूर्खता ही है।

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  4. क्रोध करना तभी जायज है जब क्रोध करने से समस्या का हल निकलता हो, और मधुर संबंध नष्ट होते हैं।

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  5. हम सभी जानते हैं मगर फिर भी क्रोध आ ही जाता है ...
    पोस्ट को अभी और विस्तार से पढना होगा ...

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  6. क्रोध सिर्फ पतन की ओर ही ले जाता है|

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  7. क्रोध हर तरह से और हर किसी के लिए हानिकारक है.....बहुत सुंदर पोस्ट

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  8. क्रोधाद्भवति सम्मोहः
    संमोहात्स्मृतिविभ्रमः
    स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो
    बुद्धिनाशात्प्रणश्यति

    ------एक शाश्वत सीख शिल्पा जी के सौजन्य से ..पढ़ते हुए यही श्लोक मेरे मन में भी कौंध रहा था !

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  9. शिल्पा जी, अरविन्द जी,
    श्लोक के लिये आभार!

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  10. क्रोध पर अच्‍छा निबन्‍ध।

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  11. क्रोध क्यों? यह विषय विचारिणीय है। समाज में फैली कुरीतियों पर, दीन हीन पर हो रहे अन्याय को देखकर, भ्रष्ट आचरण को देखकर और अपने ऊपर हो रहे शोषण को देखकर भी क्रोध न करना नपुंसकता है।
    वहीं दूसरी ओर अंहकार से ग्रस्त होकर क्रोध करना अर्थात जिस क्रोध के मूल में अहंकार हो वह त्याज्य है। जैसा कि आपने भी लिखा इसमें एक बारीक सा फर्क होता है जिसे समझने और सतर्क रहने की जरूरत है।

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  12. हमने जो पढ़ा था, उसमें पांच दुर्गुणों में अहंकार का भी स्थान है। और ये सभी आपस में एक दूसरे के कांप्लीमेंटरी और सप्लीमेंटरी हैं। अहंकार को फ़ोकस में रखकर जो लिखना चाहता था, देवेन्द्र पाण्डेय जी ने बहुत संतुलित तरीके से कह दिया है। वैसे मुझे बहुत बार सही मौके पर क्रोध न कर पाने के कारण भी क्रोध आता है:)
    हर घटना से जुड़े तीन आयाम - ’काल,स्थान और व्यक्ति विशेष’ वाली थ्योरी मुझे तो बहुत सटीक लगती है। इस परिपेक्ष्य में देखता हूँ तो कई बार क्रोध भी सत्गुण लगने लगता है। ’विनय न मानति जलधि जड़...’ प्रसंग में राम का क्रोध करना भाता है क्योंकि वह अवसरानुकूल भी है और सोद्देश्य भी।
    आशा है अहंकार पर भी कम से कम एक पोस्ट का मसाला बन गया होगा। आप हमारी फ़्ररमाईशों पर गौर फ़रमाते रहिये, हम आईडिया देते रहेंगे:)

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  13. बहुत अच्छी पोस्ट है लेकिन किसी को तो इस पोस्ट को पढ़ने से भी क्रोध आ सकता है :)

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  14. आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा 'चिंतामणि' में क्रोध पर किए गए विमर्श को आपका यह लेख आगे बढ़ाता है।

    सात्विक क्रोध का न होना भी एक कमजोरी है, पाप का लक्षण है।

    सामने हो रहे अन्याय के बावजूद आप भीष्म बने रहें तो वह गलत है।

    भले ही आप अन्याय को रोक न सकें मगर विदुर की तरह उस पर अपना प्रतिरोध जता सकें, इतना क्रोध तो होना चाहिए और वह अनासक्ति और अनन्य सत्य-निष्ठा से ही संभव है।

    बहुत अच्छा लिखा है।

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  15. बहुत सार्थक लेख...बधाई .

    नीरज

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  16. बहुत ही जानकारीवरक व उपयोगी आलेख !

    क्रोध के ऊपर एक दोहा गोस्वामी जी ने लिखा है उसे उद्धत करना चाहूँगा

    सुन्दरकाण्ड - (विभीषण जी रावन से ) -

    काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक नरक के पंथ ।
    सब परिहरि रघुबीरही भजहूँ भजहिं जेहिं संत ।।

    मेरे नए पोस्ट पर आपका स्वागत है,कृपया अपने महत्त्वपूर्ण विचारों से अवगत कराएँ ।
    http://poetry-kavita.blogspot.com/2011/11/blog-post_06.html

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  17. इस विषय पर जब भी टिप्पणी करता हूँ , बाद में मुझे ही अधूरी लगती है |
    फिर भी इतना तो कहूँगा की ये लेख मुझे बार बार पढना , समझना और आत्मसात करना होगा

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  18. बहुत उम्दा!
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी की गई है! सूचनार्थ!

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  19. बहुत ही सुन्दर संयोजन - क्रोध पर ! बधाई

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  20. क्रोध और आक्रोश में फर्क है । आक्रोश किसी भी विसंगति जैसे अन्याय , अधर्म या कुकर्म पर एक सार्थक प्रतिक्रिया होती है । लेकिन क्रोध एक आंतरिक कमजोरी है जिसे वश में करना ही चाहिए ।
    यह लोहे में लगे जंग जैसा है जो अन्दर ही अन्दर क्रोध करने वाले को खा डालता है ।

    सुन्दर आलेख ।

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  21. वांछनीय = चार पुरुषार्थ = धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष
    अवांछनीय = चार पाप = काम, क्रोध, लोभ, मोह

    सुंदर सूक्तियों से सजी क्रोध पर एक गंवेषणात्मक पोस्ट।

    गूंजअनुगूंज का संदर्भ लेने पर आपका आभार!!!

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  22. नायाब पोस्ट,जानकारी से लबालब,आभार.

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  23. ज्ञानपरक आलेख

    आभार

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  24. सुज्ञ भैया की पंक्तियाँ बहुत सुन्दर हैं...... परन्तु क्रोध करने वाले उसमे भी बहुत बड़ी गलती ढूंढ ही सकते हैं :) और क्रोधित हो सकते हैं |

    अनुराग जी - आपने एक सवाल उठाया कि "ऐसा कोई उदाहरण याद आता है जहाँ क्रोध विनाशकारी नहीं था? अवश्य बताइये"
    -- नहीं याद आता मुझे तो :) | अब कोई शायद माता भवानी, या शिव, या राम, या कृष्ण, के "कल्याणकारी क्रोध" की बात उठाएं - तो मैं पहले ही कहना चाहती हूँ - जो कुछ इन के द्वारा किया गया बताया जाता है - उनमे से कुछ भी "क्रोध" युक्त हो कर नहीं किया गया, बल्कि लोक कल्याण के लिए "कर्त्तव्य धर्म " के लिए अक्रोधित रहते हुए किया गया | क्रोधित होने की सिर्फ लीला रची गयी | उसमे भी अपराधी से आखरी वक्त भी माफ़ी मांगे जाने पर माफ़ी देने की बात की गयी | वैष्णो देवी माता जी ने तो भैरव को मारना जितना हुआ - avoid किया, और सर काटने के बाद भी उसके माफ़ी मांगने पर उसकी पूजा के बिना अपने दर्शन अधूरे माने जाने का वरदान दिया |

    दूसरा सवाल "ऐसे उदाहरण भी दीजिये जहाँ क्रोध न होता तो विनाश को टाला जा सकता था।" - हाँ - एक नहीं - अनेकानेक उदाहरण हैं ऐसे | और ऐसे जितने भी उदाहरण याद आते हैं , अधिकतर क्रोध कहानी के "नायक /नायिका" वाले पात्रों को नहीं, बल्कि "खलनायक / खलनायिका " के पात्र को ही आया | यदि नायक नायिका का भी क्रोध रहा हो, तब भी उसका परिणाम विनाशकारी ही हुआ |

    "खलनायक / खलनायिका " की तरह के पात्र
    १) शूर्पनखा का (राम/लक्ष्मण के ना करने से सीता पर आया) क्रोध
    २) रावण का (बहन की बेईज्ज़ती पर) क्रोध
    ३) दुर्योधन का (भाभी के हंसी उड़ाने पर) क्रोध
    ४) ध्रितराष्ट्र का अपनी बेबसी पर क्रोध

    ---
    "नायक /नायिका" वाले पात्रों का क्रोध
    १) द्रौपदी का क्रोध
    २) लक्ष्मण का (शूर्पनखा पर) क्रोध

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  25. क्रोध और अक्रोध को लेकर यह बहुत ही महत्‍वपूर्ण पोस्‍ट है। मुझे इसे बार-बार पढना पढेगा। सचमुच में बहुत ही महीन अन्‍तर है।

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  26. अनुराग जी,
    इस पोस्ट का तो प्रिंट लेकर सहेज लिया है। कितनी भी कोशिश करो लेकिन इन प्रवत्तियों पर काबू पाना एक धीमी और सतत प्रक्रिया है। इस पोस्ट से उस भावना को और बल मिला।

    बहुत आभार,
    नीरज

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  27. क्रोध को लेकर काफी गहरी बातें हो गईं इस पोस्ट के बहाने....

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  28. सत्य है क्रोध एक दुर्गुण ही है इसीलिए पाप है। क्रोध इतनी सहज आमान्य प्रवृति भी नहीं कि उसे नियंत्रित या दमित न किया जा सके।

    सात्विक या सार्थक क्रोध जैसी कोई बात नहीं होती, बस यह दुर्गुण अपने अहंकारवश न्यायसंगतता का आधार ढ़ूंढता है।

    सुज्ञ ब्लॉग के कथन को सम्मान देने के लिए आभार।

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  29. ग्यानवर्द्धक और सार्थक आलेख। धन्यवाद।

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  30. गहन अध्यन से उपजी आपकी ये पोस्ट सचमुच संजो के रखने लायक है ... बहुत ही सार्थक चिंतन ... क्रोध के दुष्परिणाम को जानते हुवे भी इस पर नियंत्रण ऐसे लेख बार बार पढ़ के ही किया जा सकता है ...

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  31. सार्थक और सौदेश्य प्रस्तुति सुन्दर पोस्ट .

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  32. अक्रोध एक बड़ी ही उच्च कोटि की मनः स्थिति है. क्रोध की प्रतिक्रिया में प्रतिक्रियाविहीन रहते हुए मन को शांत रख पाना ही अक्रोध है. यह सभी के लिए संभव नहीं ........विशिष्ट लोगों का आभूषण है यह. आमजन के लिए तो क्रोध एक मनः आवेग है जिसे शास्त्रों में धारण किये जाने का निर्देश दिया गया है. यहाँ धारण का अर्थ आभूषण की तरह धारण कर प्रदर्शन करना नहीं है, दमन करना भी नहीं है ....क्रोध के कारणों की स्थिति में उत्पन्न हुए क्रोध को प्रतिक्रिया के रूप में व्यक्त न करना ही क्रोध को धारण करना है. यह धारणा दूध में जल की तरह है ...पूरी तरह मिलकर अदृश्य हो जाना ...या दूध के जैसा ही हो जाना.

    अब कोई तर्क दे सकता है कि तुलसी बाबा तो कह गए हैं- "......बोले राम सकोप तब, गए तीन दिन बीति....."

    शायद इसे ही लोग सात्विक क्रोध मान बैठे हैं. जैसाकि आपने कहा "मन्यु " को समझना होगा....इसे समझे बिना नयी कुमान्यताओं के उत्पन्न होने का खतरा है. मन्यु में किसी को क्षति पहुंचाने का भाव नहीं होता....किसी के अहित का भाव नहीं होता. राष्ट्र हित में किसी सैनिक के द्वारा की जाने वाली हिंसा के पीछे मन्यु भाव है. किन्तु चंगेज खान के सैनिकों द्वारा की गयी हिंसा में अधिकारों और संपत्ति के हरण का भाव था. स्थूलरूप में कोई कार्य भले ही एक जैसा दिखे पर उद्देश्यों का अंतर कार्यों की प्रकृति का कारण बन जाया करता है.

    अपनी संतान के प्रति माता-पिता का या अपने शिष्य के प्रति गुरु का कोपभाव उनके कल्याण की भावना से उत्पन्न होता है. सत्य और धर्म की पुनर्स्थापना के लिए जिस कठोर बल की आवश्यकता होती है वह मन्यु जन्य होता है ...क्रोध और मन्यु में यही अंतर है.

    अनुराग जी ! आपके बारे में प्रचलित हुईं परस्पर विपरीत धारणाओं के बाह्य स्वरूप से परिचित होता रहा हूँ, ब्लॉग पर आज प्रथम बार आया हूँ........और अब मुझे एक तीसरी धारणा बनानी होगी. ( क्या करें, हम भारतीय बिना धारणा के रह ही नहीं सकते -:))) अमूर्त की आराधना में मूर्त की पूजा के पीछे भी कदाचित यही कारण रहा होगा.

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  33. सही बात!
    क्रोध नष्ट करने की कोशिश जारी है..


    ये कितनी सही बात है -

    "क्रोध पाप ही नहीं, पाप का मूल है। अक्रोध पुण्य है, धर्म है, वरेण्य है"

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  34. ऐसी सुन्दर, ऐसी युक्तियुक्त परिपक्व विवेचना...साधु साधु !!!!

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  35. घुस्से के कारण मेरा करियर खत्म हो गया आप से निवेदन है क्योकि में तो अब खत्म हो चूका हू
    घुस्सा न करे लोगो ने मुझे संज्ञा दी है एक श्रेष्ठ टीचर पर घुस्से में बद दिमाग व्यक्ति --अवसाद के दोर से गुजर रहा हू -गुस्सा क्यों आता है यह तो में जनता हू पर नियंत्रण करना नहीं आता -

    मेने वक्त को हराया है पर घुसे ने सब कुछ छीन लिया -इस गुस्से ने मुझे परिपक्व नहीं होने दिया

    में बहुत आभारी रहूगा यदि कोइ मेरी इस हेतु मदद करे mob --9425449480

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  36. @ अक्रोध के साथ किसी आततायी का विवेकपूर्ण और द्वेषरहित प्रतिरोध करना क्रोध नहीं है। इसी प्रकार भय, प्रलोभन अथवा अन्य किसी कारण से उस समय क्रोध को येन-केन दबा या छिपाकर शांत रहने का प्रयास करना अक्रोध की श्रेणी में नहीं आएगा। स्वयं की इच्छा पूर्ति में बाधा पड़ने के कारण जो विवेकहीन क्रोध आता है वह अधर्म है।

    aabhaar

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  37. आज फिर यहाँ आई हूँ, आज फिर शायद आपका यह आलेख किसी की मदद करेगा | आभार इस विषय पर इतना सघन अध्ययन करने और इसे इतना सरल बना कर हमें देने के लिए |

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मॉडरेशन की छन्नी में केवल बुरा इरादा अटकेगा। बाकी सब जस का तस! अपवाद की स्थिति में प्रकाशन से पहले टिप्पणीकार से मंत्रणा करने का यथासम्भव प्रयास अवश्य किया जाएगा।