पिछले दिनों रंजना जी ने क्षमा के ऊपर एक बहुत अच्छा लेख लिखा जिसने मुझे बहुत प्रभावित किया. पूरा लेख और टिप्पणियाँ पढने के बाद मुझे लगा कि भारतीय मानस में क्षमा का एक अन्य पक्ष अक्सर छूट जाता है, क्यों न इस बहाने उसका ज़िक्र कर लिया जाए, सो कुछ विचार प्रस्तुत हैं.
क्षमा के बारे में दुनिया भर में बहुत कुछ कहा गया है. विशेषकर भारतीय ग्रन्थ क्षमा की महिमा से भरे पड़े हैं. हर प्रवचन में लगभग हर स्वामी जी क्षमा की महत्ता पर जोर देते रहे हैं. पश्चिमी विचारधारा में भी क्षमा महत्वपूर्ण है. जब भी हम किसी और से कुढे बैठे होते हैं तब अक्सर अंग्रेजी की कहावत "फोरगिव एंड फोरगेट" याद आती है (या फिर याद दिला दी जाती है.) भारत में तो बाकायदा क्षमा-पर्व भी होता है जिसमें बड़े बड़े लोग क्षमा मांगते हुए और छोटे-बड़े लोग क्षमा करके भूलते (?) हुए नज़र आते हैं.
बाबाजी प्रवचन में क्षमा पर जोर देते हैं और हम अपने बदतमीज़ बॉस के प्रति तुंरत ही क्षमाशील हो जाते हैं. यह बात अलग है कि हम बात-बेबात अपने बाल-परिचारक का कान उमेठना बंद नहीं करते. बीमार बच्चे के लिए महरी का एक दिन न आना कभी भी क्षम्य नहीं होता है. हमारी क्षमा या तो अपनों के लिए होती है या अपने से बड़ों के लिए. आइये एक नज़र देखें क्या यही हमारे ग्रंथों की क्षमा है.
बाबा तुलसीदास ने कहा था, "क्षमा बडन को चाहिए, छोटन को उत्पात." इस कथन में मुझे दो बाते दिखती हैं, पहली यह कि उत्पात छोटों का काम है. दूसरी बात यह है कि क्षमा (मांगना और करना दोनों ही) बड़े या शक्तिशाली का स्वभाव होना चाहिए. जब किसी राष्ट्र का सर्वोपरि मृत्युदंड पाए कैदियों को क्षमा करता है तो उसमें "क्षमा बडन को चाहिए" स्पष्ट दिखता है. अपराधी ने राष्ट्रपति के प्रति कोई अपराध नहीं किया था. फिर क्षमा राष्ट्रपति द्वारा क्यों? क्योंकि क्षमा शक्तिशाली ही कर सकता है. "क्षमा वीरस्य भूषणं" से भी यही बात ज़ाहिर होती है. भारतीय संस्कृति में तो एक बंदी छोड़ने का दिन भी होता था जब राजा सुधरे हुए अपराधियों की बाकी की सजा माफ़ कर देते थे. राष्ट्रकवि दिनकर के शब्दों में:
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन विषरहित विनीत सरल हो
"फोरगिव एंड फोरगेट" की बात करें तो एक और बात पर ध्यान जाता है वह है क्षमा किसको? हम किसी को क्षमा करते हैं क्योंकि हमने अपने मन में उसे किसी बात का दोषी ठहरा दिया था. क्या अपनी नासमझी के चलते दूसरों को दोषी ठहराना सही होगा?
अगर अस्सी साल की माँ अपनी साठ साल की बेटी से दशकों तक इसलिए नहीं मिली है क्योंकि बेटी ने प्रेम-विवाह कर लिया था तो उस माँ के लिए क्षमा सुझाना बचपना होगा. इस माँ ने बेटी के अपने से स्वतंत्र व्यक्तित्व को समझा नहीं तो उसमें बेटी का कोई अपराध नहीं है. निर्दोष को पहले दोषी ठहराकर आरोपित करना और कुढ़ते रहना और फिर क्षमा करके बड़े बन जाना सही नहीं लगता है. बेहतर होगा कि हम हर बात में दूसरों को दोष देने के बजाय वस्तुस्थिति को समझने का प्रयास करें.
मैं क्षमा के महत्व को कम नहीं आंक रहा हूँ बल्कि मैं इसके विपरीत यह कहने का प्रयास कर रहा हूँ कि क्षमा एक बहुत बड़ा गुण है और इसे देने का अधिकार उसे ही है जो शक्तिशाली भी है और जिसने दूसरों को अकारण दोषी नहीं ठहराया है. दूसरे शब्दों में, हम जैसे गलतियों के पुतलों के लिए, "क्षमा विनम्र होकर मांगने की चीज़ है, बड़े बनकर बांटने की नहीं."
जो तीसरी बात सामने आती है वह यह कि क्षमा न्याय-सांगत होनी चाहिए. हम गलतियां करते रहें और क्षमा मांगते रहें यह भी गलत है और उससे भी ज़्यादा गलत यह होगा कि सिर्फ स्वार्थ के लिए किसी भी धर्म, वाद या विचार के नाम पर आसुरी शक्तियां निर्दोषों का खून बहाती रहें और हम अपनी निस्सहायता, भीरुता या बेरुखी को क्षमा के नाम से महिमामंडित करते रहें.
संतों ने तो क्षमा को साक्षात प्रभु का रूप ही माना है इसलिए इस लेख में हुई सारी त्रुटियों के लिए आपसे क्षमा मांगते हुए मैं तुलसीदास जी को उद्धृत करना चाहूंगा:
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छांड़िए, जब लग घट में प्राण॥
यही बात कबीरदास के शब्दों में:
जहां क्रोध तहं काल है, जहां लोभ तहं पाप।
जहां दया तहं धर्म है, जहां क्षमा तहं आप॥
abhi to utpaad ki umr hae meri . mere kiye par bade hae hi kshama maangne ko
ReplyDeleteसही है ..आपकी बात
ReplyDeleteसंतुलन तो हर जगह जरूरी है. बस एक लाइन पकड़ कर चलना किसी भी मामले में बात का बतंगड़ बना देता है. हर पहलु को देखना जरूरी है. वही इस मामले भी है. सत्यम ब्रूयात... की तरह.
ReplyDeleteक्षमा ? जब कोई बार बार माफ़ी मांगे, ओर मतबल निकल जाने पर फ़िर गल्तियां करे, फ़िर माफ़ी... फ़िर माफ़ी का ड्रामा... ओर क्षमा करने वाला अपने आप को ठगा सा महसुस करे.इस लिये कई बार क्षमा भी कभी कभी मंहगी पडती है.
ReplyDeleteक्षमा वीरस्य भूषणं भी कहा गया है ना ?
ReplyDeleteआलेख अच्छा लगा अनुराग भाई
स स्नेह,
- लावण्या
सही ही है.पढ़ते पढ़ते जाने कहाँ खो गया था..अब आया फिर..क्षमाप्रार्थी हूँ :)
ReplyDeleteउत्पात न समझना क्यूँकि तुमसे छोटे तो हैं नहीं.. :)
वन्दे मातरम! यह कैसा धर्म है जो राष्ट्र धर्म के आड़े आए?
ReplyDelete"क्षमा बडन को चाहिए, छोटन को उत्पात?"
आपने बहुत अच्छा विश्लेषण किया है। कुछ लोग तो अधिकार पूर्वक क्षमा मांगते हैं। कहते हैं कि आप तो बड़े है आपको तो क्षमा ही करना है और मैं छोटा हूँ तो उत्पात ही करूंगा। मैंने देखा है कि हम प्रचलित मुहावरों और लोकोक्तियों का दुरुपयोग करते हैं। ऐसे कई प्रकरण हैं, जिनका हम खुलकर दुरुपयोग करते हैं और सज्जन व्यक्ति को ही शर्मिन्दा करते हैं।
ReplyDeleteबहुत कम शब्दों मे आपने बहुत बडी बात कह दी है. और मैं सोचने पर विवश हुआ हूं. बहुत शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
क्षमा मनुष्य का सबसे प्रधान गुण है। इसपर जितना भी लिखा जाए कम है।
ReplyDeleteइस प्रेरणप्रद पोस्ट के लिए बधाई।
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परा मनोविज्ञान- यानि की अलौकिक बातों का विज्ञान।
ओबामा जी, 75 अरब डालर नहीं, सिर्फ 70 डॉलर में लादेन से निपटिए।
बहुत रोचक और सारगर्भित पोस्ट है ये आपकी...इस विश्लेषण के लिए आपका धन्यवाद...
ReplyDeleteनीरज
sahi kaha hain aapne
ReplyDeleteविचारणीय लेख !
ReplyDelete"क्षमा बडन को चाहिए, छोटन को उत्पात." इस कथन में मुझे दो बाते दिखती हैं, पहली यह कि उत्पात छोटों का काम है. दूसरी बात यह है कि क्षमा (मांगना और करना दोनों ही) बड़े या शक्तिशाली का स्वभाव होना चाहिए. जब किसी राष्ट्र का सर्वोपरि मृत्युदंड पाए कैदियों को क्षमा करता है तो उसमें "क्षमा बडन को चाहिए" स्पष्ट दिखता है. अपराधी ने राष्ट्रपति के प्रति कोई अपराध नहीं किया था. फिर क्षमा राष्ट्रपति द्वारा क्यों?
ReplyDeleteबहुत ही तार्किक लेख लिखा है।
आभार!
विषय को आपने जिस तरह से विस्तार दिया ,उसके लिए मेरा मन आपके प्रति कृतज्ञता से भर गया है अनुराग भाई....बड़ा ही सुखद लगा यह विवेचना पढना...
ReplyDeleteवस्तुतः संसार का कोई भी शब्द अपने आप में पूर्ण नहीं होता...उसका प्रयोग जिस प्रकार से होता है,उसी के अनुसार अर्थ वह ध्वनित करना है...
क्षमाशीलता ईश्वरीय गुण है..इसे ह्रदय में धारण करना , एक प्रकार से ईश्वर को धारण करना है...परन्तु सभी परिस्थितियों में क्षमाशील नहीं हुआ जा सकता.....
जो आपने लिखा उससे उप्रेरित -
ReplyDeleteया देवी सर्वभूतेषु क्षमा रूपेण संस्थिता
नमस्तसयै ,,,,,,,,
अभिषेक भाई से सहमत.. क्षमा सही है, क्षमावाद नही ..वैसे ही जैसे आपने संतुलन बनाए रखा.
ReplyDeleteआपने बहुत prabhaavi और सुन्दर विश्लेषण किया है............. आज kshama भी सोच sanajh कर karni chaahaiye ......
ReplyDeleteक्षमा को गुण मानने में कोई हिचक है ही नहीं......हर बड़े को चाहिए की वो छोटे की भूलों को माफ़ कर दे.......मानवीयता से भरा आलेख.......साधुवाद!
ReplyDeleteक्षमा मन से होनी चाहिये आजकल की तरह नाटकीयता के साथ नही ।
ReplyDeleteक्षमा शब्द और इसकी महिमा के विस्तार में एक मर्यादित आलेख. आपके ब्लॉग पर आना सुखद रहा.
ReplyDelete- सुलभ
लेख पढते पढते आपकी सारगर्भिता, वाक्य विन्यास, बुद्वि चातुर्य और गहन अध्ययन का शैदाई हो गया । पर मेरी टिप्पणी है कि क्यों ऐसा होता है कि जब हम गलतियां करते हैं तो वह सही होती हैं और जब दूसरे करते हैं तो अक्षम्य होती हैं ? क्यों होता है ऐसा कि दूसरे की गलतियों को हम सहेज कर रख लेते हैं, क्षमा करने के लिए और उस क्षमा को याद रखते हैं अहसानों के लिए। लेख के लिए पुन: बधाई और यदि टिप्पणी में कोई गलती हुई है तो क्षमाप्रार्थी हूं।
ReplyDeleteलेख पढते पढते आपकी सारगर्भिता, वाक्य विन्यास, बुद्वि चातुर्य और गहन अध्ययन का शैदाई हो गया । पर मेरी टिप्पणी है कि क्यों ऐसा होता है कि जब हम गलतियां करते हैं तो वह सही होती हैं और जब दूसरे करते हैं तो अक्षम्य होती हैं ? क्यों होता है ऐसा कि दूसरे की गलतियों को हम सहेज कर रख लेते हैं, क्षमा करने के लिए और उस क्षमा को याद रखते हैं अहसानों के लिए। लेख के लिए पुन: बधाई और यदि टिप्पणी में कोई गलती हुई है तो क्षमाप्रार्थी हूं।
ReplyDeleteApne wyavhaar me kisi ke prati jo katuta na rakhe,wah wyakti tatasth ho jata hai..bade sthai bhav se duniya ki taraf dekhta hai..uska sntap bhi satvik hota hai!'maine kisi ko kshama kar dee,' yah aham bhav use chhoota hi nahi!
ReplyDeleteMuddaton baad aaj dobara is aalekh ka link mila aur mai padhane lagi! Behad umda aalekh hai! Jo saza de sakta hai,wo kshama kare tabhi koyi baat hai! Sahi kaha!
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