हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा प्रकाशित प्रवासी काव्य संग्रह "देशांतर" की प्रथम कविता |
पूनम का चन्दा हो चाहे अमावस
अली की गली या बली का पुरम हो
निराकार हो या सगुण का मरम हो
हो मज़हब रिलीजन, मत या धरम हो
मैं फल की न सोचूँ तो सच्चा करम हो
कोई नाम दे दो कोई रूप कर दो
उठा दो गगन में धरा पे या धर दो
तमिलनाडु, आंध्रा, शोनार बांगला
सिडनी, दोहा, पुणे माझा चांगला
सूरत नी दिकरी, मथुरा का छोरा
मोटा या पतला, काला या गोरा
सारे जहाँ से आयी ये लहरें
ऊँची उठी हैं, पहुँची हैं गहरे
खुदा की खुमारी, मदमस्त मस्ती
हरि हैं हृदय में, यही मेरी हस्ती
हो मज़हब रिलीजन, मत या धरम हो
ReplyDeleteमैं फल की न सोचूँ तो सच्चा करम हो
कोई नाम दे दो कोई रूप कर दो
उठा दो गगन में धरा पे या धर दो
तमिलनाडु, आंध्रा, शोनार बांगला
सिडनी, दोहा, पुणे माझा चांगला
वाह आज की ये कविता देश प्रेम और एकता से और प्रोत है , सुन्दर अभिव्यक्ति आभार
regards
मैं फल की न सोचूं तो सच्चा करम हो। अनुराग भाई बेहतरीन रचना। बधाई।
ReplyDeleteअहम् ब्रह्मास्मि - कविता
ReplyDeleteTuesday, November 3, 2009शामे अवध हो या सुबहे बनारस
पूनम का चन्दा हो चाहे अमावस
अली की गली या बली का पुरम हो
निराकार हो या सगुण का मरम हो
हो मज़हब रिलीजन, मत या धरम हो
मैं फल की न सोचूँ तो सच्चा करम हो
Bahut sundar !!
प्रभु हैं ह्रदय में, यही मेरी हस्ती
ReplyDeleteयही तो सारभूत है !
और यद् सारभूतं तदुपास्नीयम !
खुदा की खुमारी, मदमस्त मस्ती
ReplyDeleteप्रभु हैं ह्रदय में, यही मेरी हस्ती
ये शेर बहुत बढ़िया है।
बधाई!
शामे अवध हो या सुबहे बनारस
ReplyDeleteपूनम का चन्दा हो चाहे अमावस
पहली शेर इतनी खबसूरत और गहरी बाते लिये हुये ........बाकि की रचना एक से बढकर एक है ........
सारे जहां से आयी ये लहरें
ऊंची उठी हैं, पहुँची हैं गहरे
आपकी यह पंक्तियाँ आपके रचना के लिये मै कह सकता हूँ ......बहुत बहुत सुन्दर लाज़वाब!
sundar abhivyakti
ReplyDeleteअली की गली या बली का पुरम हो
ReplyDeleteनिराकार हो या सगुण का मरम हो ...
खुदा की खुमारी, मदमस्त मस्ती
प्रभु हैं ह्रदय में, यही मेरी हस्ती
ये दोनों chhand बहुत ही achhe लगे आपकी इस रचना के ..... vaise तो पूरी रचना ही kamaal की है ...... anoothi .....
वाह, ऋग्वैदीय युग से ले कर आजतक के सभी फ्लेवर मिले पोस्ट में!
ReplyDeleteअति सुंदरतम रचना.शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
कोई नाम दे दो कोई रूप कर दो
ReplyDeleteउठा दो गगन में धरा पे या धर दो
अत्यंत खूबसूरत रचना.
प्यारे अनुराग भाई,
ReplyDeleteआज दिल जीतने की बात कह गए आप।
बहुत ही बेहतरीन और संग्रहणीय रचना है ये आपकी।
बहुत बहुत आभार ऐसे वक्त पर इसे प्रस्तुत करने के लिए।
अद्वितीय..
ReplyDelete...बस यही एक शब्द पारिभाषित कर सकता है आपकी इस बेमिसाल रचना को !!!
कमाल है इस तरह से किसी और ने क्यों न सोचा !
ReplyDeleteभैया, आप का आत्मविश्वास नमनीय है। ..हस्ती अब इससे अधिक क्या होगी?
खुदा की खुमारी, मदमस्त मस्ती
ReplyDeleteप्रभु हैं ह्रदय में, यही मेरी हस्ती
बहुत सुंदर जी आप की यह गजल.
धन्यवाद
वॉव ! अद्भुत !
ReplyDeletesundar sundar bhai waah bhai waah
ReplyDeleteसुन्दर
ReplyDeleteस्नेह,
- लावण्या
बहुत सुंदर!
ReplyDelete