लगता है कि एक विनम्र निवेदन लगाना ही पडेगा - मनोविज्ञान, तंत्र-तंत्रिका विज्ञान, स्वप्न-विज्ञान, ..., इन किसी की कक्षा में नहीं बैठा कभी. जीव विज्ञान भी व्यक्तिगत कारणों से हाई स्कूल के बाद छोड़ दिया था. सिर्फ जिज्ञासु हूँ. इस शृंखला के बहाने स्वप्न के रहस्यों के कुछ टुकड़ों में अपने अनुभवों का पैबंद लगाने की कोशिश कर रहा हूँ. शृंखला पूर्ण होने तक आपकी बहुमूल्य टिप्पणियों से कुछ नया ज़रूर सीख सकूंगा, ऐसी आशा है.
सपनों की दुनिया बहुत रोचक है और आश्चर्यजनक भी। इस पर बहुत साहित्य बिखरा हुआ है मगर अधिकांश लेखन ऐसा है जो पर्दा हटाने के बजाय इसे और भी रहस्यमय बना देता है। किशोर चौधरी के नाम अपने पत्र में मैंने स्वप्न-जगत के बारे में अपनी जानकारी और अनुभव के आधार पर कुछ लिखने की इच्छा प्रकट की थी। यह लिखने की इच्छा बरसों से मन में थी मगर हाय समयाभाव...
कोई नहीं, जब आँख खुले तब सवेरा। अथ आरम्बिक्कलामा! पहले कुछ उदाहरण...
1960 का दशक, जम्मू...
एक साधु एकतारे पर गाता हुआ जा रहा है... बीच बीच में यदृच्छया कुछ भी बोल देता है. एक वाक्य पर मेरा ध्यान जाता है जब वह कहता है, अपना सपना किसी को मत बताना... पूछने पर भी कारण नहीं बताता।
1980 का दशक, बदायूँ...
कई दिनों से अजीब-अजीब से सपने आ रहे हैं... खासकर जबसे आगरा, सीकरी, मथुरा, वृन्दावन से लौटा हूँ। ऊँचे नीचे पहाडी रास्ते। सब घरों की छतें ढलवाँ। सामने से देखो तो हर भवन त्रिकोण जैसा लगे। यह मैदान तो कब्रिस्तान सा दिखता है, ढेरों क्रॉस लगे हैं। ... और यह लम्बी काली अर्ध-वृत्त जैसी सुरंग, छत पर पाइपों का एक जाल सुरंग के एक सिरे से दूसरे तक जा रहा है। दूसरे सिरे पर बना द्वार चौकोर है। उस छोर तक पहुँचते ही सूर्य का आँखें चौंधियाने वाला प्रकाश दिखता है। बहुत सुन्दर नगर, खुशनुमा बाज़ार। पहला अपरिचित सामने पड़ते ही मुस्कराकर स्वागत करता है।
आँख खुलते ही मैं सपने को सरल रेखाचित्रों सहित डायरी में लिख लेता हूँ पंद्रह साल बाद पिट्सबर्ग में मैं उन सब चिन्हों को वास्तविक पाता हूँ।
2000 का दशक, पिट्सबर्ग...
श्याम नारायण चौधरी सिर्फ एक सफ़ेद तौलिया लपेटे मेरे सामने खड़े हैं शायद नहाने जा रहे हैं। उनसे मेरा रक्त-सम्बन्ध नहीं है मगर माँ के लिए वे ताऊ जी हैं सो मेरे नानाजी। जूनियर हाई स्कूल में कई साल तक वे ही स्कूटर से मुझे स्कूल छोड़ते रहे थे। मैं कुछ पूछ पाता इससे पहले ही आँख खुलती है। दो दिन बाद माँ से बात होने पर पता लगता है कि अब वे दिवंगत हैं।
और भी कई सपने हैं मगर यहाँ पर उतना ही लिखना ठीक है जितना समयानुकूल है। मेरे सारे ब्लॉग-लेखों की तरह ही इस शृंखला का भी कोई नियमित प्रारूप नहीं बनाया है। जो कुछ ध्यान में आता रहेगा लिखता रहूँगा। आपकी टिप्पणियाँ भी दिशा-निर्देश देती रहेंगी, ऐसी आशा है। सपनों के अलावा दुसरे सम्बंधित तथ्य भी बीच-बीच में आ सकते हैं। अगली कड़ी से कुछ ठोस जानकारी सामने आने लगेगी।
सपनों पर पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है - हिन्दी ब्लॉग पर भी। लेकिन पढ़ने पर पता लगता है कि उनमें से अधिकतर सुनी सुनाई दोहराई बातें हैं और अधिकांश निराधार भी। यह कोई साइंस-ब्लॉगिंग है, इस भ्रम में मैं नहीं हूँ मगर अंधविश्वास से यथासंभव दूर हटने की कोशिश ज़रूर है।
स्वप्न में देखी टनल वास्तव में दिखी 15 वर्ष बाद
[Photo by Anurag Sharma - चित्र अनुराग शर्मा]
[क्रमशः]
सपनों की दुनिया बहुत रोचक है और आश्चर्यजनक भी। इस पर बहुत साहित्य बिखरा हुआ है मगर अधिकांश लेखन ऐसा है जो पर्दा हटाने के बजाय इसे और भी रहस्यमय बना देता है। किशोर चौधरी के नाम अपने पत्र में मैंने स्वप्न-जगत के बारे में अपनी जानकारी और अनुभव के आधार पर कुछ लिखने की इच्छा प्रकट की थी। यह लिखने की इच्छा बरसों से मन में थी मगर हाय समयाभाव...
कोई नहीं, जब आँख खुले तब सवेरा। अथ आरम्बिक्कलामा! पहले कुछ उदाहरण...
1960 का दशक, जम्मू...
एक साधु एकतारे पर गाता हुआ जा रहा है... बीच बीच में यदृच्छया कुछ भी बोल देता है. एक वाक्य पर मेरा ध्यान जाता है जब वह कहता है, अपना सपना किसी को मत बताना... पूछने पर भी कारण नहीं बताता।
1980 का दशक, बदायूँ...
कई दिनों से अजीब-अजीब से सपने आ रहे हैं... खासकर जबसे आगरा, सीकरी, मथुरा, वृन्दावन से लौटा हूँ। ऊँचे नीचे पहाडी रास्ते। सब घरों की छतें ढलवाँ। सामने से देखो तो हर भवन त्रिकोण जैसा लगे। यह मैदान तो कब्रिस्तान सा दिखता है, ढेरों क्रॉस लगे हैं। ... और यह लम्बी काली अर्ध-वृत्त जैसी सुरंग, छत पर पाइपों का एक जाल सुरंग के एक सिरे से दूसरे तक जा रहा है। दूसरे सिरे पर बना द्वार चौकोर है। उस छोर तक पहुँचते ही सूर्य का आँखें चौंधियाने वाला प्रकाश दिखता है। बहुत सुन्दर नगर, खुशनुमा बाज़ार। पहला अपरिचित सामने पड़ते ही मुस्कराकर स्वागत करता है।
आँख खुलते ही मैं सपने को सरल रेखाचित्रों सहित डायरी में लिख लेता हूँ पंद्रह साल बाद पिट्सबर्ग में मैं उन सब चिन्हों को वास्तविक पाता हूँ।
2000 का दशक, पिट्सबर्ग...
श्याम नारायण चौधरी सिर्फ एक सफ़ेद तौलिया लपेटे मेरे सामने खड़े हैं शायद नहाने जा रहे हैं। उनसे मेरा रक्त-सम्बन्ध नहीं है मगर माँ के लिए वे ताऊ जी हैं सो मेरे नानाजी। जूनियर हाई स्कूल में कई साल तक वे ही स्कूटर से मुझे स्कूल छोड़ते रहे थे। मैं कुछ पूछ पाता इससे पहले ही आँख खुलती है। दो दिन बाद माँ से बात होने पर पता लगता है कि अब वे दिवंगत हैं।
और भी कई सपने हैं मगर यहाँ पर उतना ही लिखना ठीक है जितना समयानुकूल है। मेरे सारे ब्लॉग-लेखों की तरह ही इस शृंखला का भी कोई नियमित प्रारूप नहीं बनाया है। जो कुछ ध्यान में आता रहेगा लिखता रहूँगा। आपकी टिप्पणियाँ भी दिशा-निर्देश देती रहेंगी, ऐसी आशा है। सपनों के अलावा दुसरे सम्बंधित तथ्य भी बीच-बीच में आ सकते हैं। अगली कड़ी से कुछ ठोस जानकारी सामने आने लगेगी।
सपनों पर पहले ही बहुत कुछ लिखा जा चुका है - हिन्दी ब्लॉग पर भी। लेकिन पढ़ने पर पता लगता है कि उनमें से अधिकतर सुनी सुनाई दोहराई बातें हैं और अधिकांश निराधार भी। यह कोई साइंस-ब्लॉगिंग है, इस भ्रम में मैं नहीं हूँ मगर अंधविश्वास से यथासंभव दूर हटने की कोशिश ज़रूर है।
स्वप्न में देखी टनल वास्तव में दिखी 15 वर्ष बाद
[Photo by Anurag Sharma - चित्र अनुराग शर्मा]
[क्रमशः]
रोचक रहेगा ,जारी रखें.
ReplyDeleteसंस्मरण बढ़िया रहा!
ReplyDeleteशुरुआत इतनी अच्छी है आगे का इन्तज़ार है बेसब्री से
ReplyDeleteयहाँ कुछ मिल सकता है आपको - http://main-samay-hoon.blogspot.com/2009/07/blog-post_10.html
ReplyDeletehttp://main-samay-hoon.blogspot.com/2009/07/blog-post.html
शेष आप लिखें हम पढेंगे ही.
ReplyDelete@लवली कुमारी,
ReplyDeleteसमय के लेखों का लिंक देने का शुक्रिया. अभी जाकर दोबों लेख पढ़े. अच्छे लगे मगर एक तो बहुत लम्बे और दुरूह भाषा में हैं. दूसरे, इतने सारे शब्दों में अंततः बात सिर्फ एक ही सुनाई देती है कि सपने में वही दिखता है जो अंतर्मन में चल रहा हो, जबकि सच्चाई इतनी सरल नहीं है.
एक बात और, सुमन जी ने भी उनमें से एक लेख को सिर्फ "good" दिया है जबकि सामान्यतः वे सभी लेखों को "nice" देते हैं.
अब और मज़ाक नहीं करूंगा, इस जानकारी की जानकारी का आभार!
सपने में वही दिखता है जो अंतर्मन में चल रहा हो, जबकि सच्चाई इतनी सरल नहीं है. - जहाँ तक मैं समझती हूँ...स्वप्न मानव अवेचेतन में चल रही यादों और अनुभवों का प्रतिबिम्ब ही होता है.
ReplyDeleteजुंग के शब्दों में - स्वप्न में आप खुद अपने समक्ष कन्फेशन के लिए पेश होते हैं ...हम भी ऐसा ही समझते हैं..
रही बात समय के लेख की वह सार -संक्षेप में लिखी गई सार-गर्भित प्रविष्टि लगी मुझे.. पर दो पोस्टों में अधिक नही समेटा जा सकता... शेष आप लिखे.
भाषा को लेकर मैं कुछ नही कहूँगी ....जैसे आप शुद्ध वर्तनी के पक्षधर है वैसे मैं गूढ़ विषयों के लिए मानक भाषा की :-)
अधिक मजाक नही करुँगी :-)
*अवेचेतन = अवचेतन :-D (शुद्ध वर्तनी)
ReplyDeleteअब तो मुझपर इतना दवाब है कि लिखना ही पडेगा कि मेरी पिछली टिप्पणी में
ReplyDelete"अभी जाकर दोबों लेख पढ़े."
की जगह कृपया
"अभी जाकर दोनों लेख पढ़े"
समझें, धन्यवाद.
इस बात पर सिर्फ :-)
ReplyDelete------------
दबाव कदापि नही है बड़े भाई एरर होते रहते हैं..जिंदगी में.
देश विदेश की इस तरह की कई घटनाओं को पुस्तकों में पढा हूँ । । लेकिन यह आता भी है तो अनायास आता है ।
ReplyDeleteअकारण और चमत्कार जैसा कुछ भी नहीं होता हमें वजह पता हो या नहीं ।
आपके अनुभव जानना मजेदार रहेगा ।
कोई माने या ना माने, मैं मानता हूं और जानता हूं, यह अवचेतन मन से कही आगे की बात है. गूढ इसलिये कि हम उसे डेसिफ़र करने में अक्षम है.
ReplyDeleteआपके द्वारा लिखे गये इन विषयों पर पोस्ट का स्वागत रहेगा.
अनुराग जी इन सपनो का समबंध है कही ना कही हमारे जीवन मै... आज से करीब १० साल पहले मुझे एक दो सपने आते थे, थोडे अंतराल के बाद, मेने एक दो बार बीबी को बताया ओर उन्हे भुल गया... लेकिन अब वही सपने सच हो रहे है, मै चार बार भारत गया यह मै आज से दस साल पहले सपने मै देख चुका था... ओर एक एक दर्शय वेसे का वेसा देखा... ओर अगले सपने के बारे सोच कर डर भी लगता है अगर वो सच हुया तो....
ReplyDeleteरोचक प्रसंग प्रारंभ किया है..आगे भी इन्तजार रहेगा. सपनों की यह दुनिया भी एक रहस्य रही है हमेशा से.
ReplyDeleteमेरे लिए तो रोचक विषय है। प्रतीक्षा करूँगा।
ReplyDeleteअवचेतन में कहां से आती हैं यें बाते? सपनों की दुनिया रहस्यमयी है.
ReplyDeleteकुछ और पन्ने खुलने की प्रतीक्षा । सहज नहीं है कोई निश्चय-तथ्य ! बातें होतीं रहेंगी आपकी प्रविष्टियों के माध्यम से ।
ReplyDeleteआभार ।
मुझे सपने बहुत कम आते हैं या यूँ कहें कम याद रहते हैं। सुना है जो सपने नहीं देखते वे कुछ भी महान नहीं कर पाते :)
ReplyDeleteसभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर आपकी इस श्रृंखला को गंभीरता से पढने का संकल्प लेता हूँ -
ReplyDeleteएक अनुग्रह करेगें -क्या जब भी इस श्रृखला की कोई पोस्ट प्रकाशित करेगें मुझे मेरे ई मेल पर भी सूचित कर सकेगें ?
drarvind3@gmail .com
कहीं कोई छूट न जाय !
@गिरिजेश राव
ReplyDeleteमुझे सपने बहुत कम आते हैं या यूँ कहें कम याद रहते हैं।
जल्दी ही हम इस विषय पर बात करेंगे.
सुना है जो सपने नहीं देखते वे कुछ भी महान नहीं कर पाते :)
आपने गलत सुना है यह सिद्ध करने में आप मेरी सहायता करने वाले हैं.
@भारतीय नागरिक
ReplyDeleteअवचेतन में कहां से आती हैं यें बाते?
हम देखेंगे अगली कड़ी/कड़ियों में.
और हाँ आपके और लवली जी की बतकही में एक बिघ्न -
ReplyDeleteसबसे बड़ा एरर जिदगी का वह होता है जब हम सच को एरर मानने की एरर
कर बैठते हैं -अगर यह जल्दी सुधार नहीं ली जाती तो इसकी भरपाई बहुत मुश्किल और जिन्दगी नारकीय बन
जाती है -तो इस मामले में सूनर द बेटर ,,,,
और हाँ जब विचार अस्पष्ट और अमूर्त होते हैं ,हृदयंगम नहीं ,तो भाषा गूढ़ और भारी भरकम हो ही जाती है .
पर शायद मैं अछूत बन गया हूँ इस विषय पर बात करने से /में
मुझे मेरे कुछ एरर सपने में दिखे हैं -ऐसी चर्चा कभी ....
ReplyDeleteयह एक रोचक विषय रहा है,
नतीज़े पर पहुँचने पर ज्ञानवर्धक भी होगा ।
मु्झ जैसे अनियमित पाठक की वही परेशानी जो
डा. अरविन्द की है, ई-मेल सदस्यता विकल्प उपलब्ध हो जाता तो..
मेरे जींस में ये बीमारी है .दोपहर में पंद्रह मिनट के लिए भी लेटता हूँ.कोई सपना फ़ौरन पलकों पर बैठा रहता मिलता है ....सिर्फ इतना कन्फर्म है के सपने देखने वालो की नींद पूरी नहीं मानी जाती क्यूंकि उसे आर इ एम् स्लीप बोलते है ...दूसरा अधिक सपनेदेखने वाले की मेमोरी सेल पर फर्क पड़ता है
ReplyDeleteपता नही यह पोस्ट कैसे चूकी? शायद फ़ीड मे गडबड है. बहरहाल आगे की कडियां काफ़ी रोचक रहने वाली हैं. इंतजार है.
ReplyDeleteरामराम.
रोचक है सपनों का शहर ....
ReplyDeleteSach kaha...itna bhi saral nahi sapano ki gutthi ko suljha lena ya nishchit roop se nishkarsh roop me kuchh kah dena...
ReplyDeleteMujhe to yah bahut hi rochak aur romanchak lagti hai...
अनुराग भाई ,
ReplyDeleteआपके सपनों पर लिखी ये शृंखला बढ़िया रहेगी
मैंने भी देखे हैं कई ऐसे स्वप्न जो सच हुए और
कई ऐसे जिन्हें आजतक समझने का विफल प्रयास
कर रही हूँ
स - स्नेह
- लावण्या
बेहद ही रोचक लगी सपनो से जुडी ये श्रंखला , पंद्रह साल बाद पिट्सबर्ग में मैं उन सब चिन्हों को वास्तविक पाता हूँ.
ReplyDeleteक्या सपने इतने लम्बे अंतराल के बाद भी सच हो जाते हैं, मन सोच में पड गया है, क्या सपनो में जो कुछ भी हम देखें उन्हें सहेज कर रखना चाहिए??? जिज्ञासा बड रही है क्योंकि सपने हमे भी बहुत आते हैं मगर कभी ध्यान नहीं दिया
regards