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जाके कभी न परी बिवाई की पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि दिल्ली से आये वज्रांग ने बरेली की होली में बड़े उत्साह के साथ पहली बार मोर्चा लड़ा था. अब आगे पढ़ें...
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वज्रांग और उसके माता-पिता की छोटी सी दुनिया बहुत खूबसूरत थी. सब कुछ बढ़िया चल रहा था. पिता एक बैंक में काम करते थे जबकि माँ घर पर रहकर वज्रांग की देखभाल करती थीं.
इतवार का दिन था. उस दिन वज्रांग को हल्का सा बुखार था. उसके न करते-करते भी पिताजी तिलक नगर चौक तक चले गए उसके लिए दवा लेने. दस मिनट की कहकर गए थे मगर दरवाज़े की घंटी बजी चार घंटे के बाद. देखा तो दो पुलिसवाले खड़े थे. उन्होंने ही वह दुखद खबर दी.
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ढोल-ताशे की आवाज़ ने याद दिलाया कि होली की वार्षिक राम बरात का जुलूस निकल रहा था. हम दोनों ने रूककर कुछ देर तक उस अनोखी रंग-बिरंगी शोभा-यात्रा का मज़ा लिया और फिर जल्दी-जल्दी घर की तरफ बढ़ने लगे. शाम को गुलाबराय के होली मिलाप के लिए रगड़-रगड़कर रंग जो साफ़ करना था. आज के दिन जल-व्यवस्था का भी कोई भरोसा नहीं था देर होगी तो शायद नहाने लायक पानी भी मुश्किल हो.
कुल्हाड़ा पीर के चौराहे पर एक मजमा सा लगा हुआ था. भीड़ के बीच में से इतना ही दिखा जैसे लाल अबीर में लिपटी हुई कोई मानव मूर्ति निश्चल पडी हो. भीड़ से पूछा तो किसी ने कहा, "लोट रहे हैं भंग के रंग में, होली है भैय्ये!" भीड़ में से ही किसी और ने जयकारा लगाया, "होलिका मैया की..." "जय" सारी भीड़ ने समवेत स्वर में कहा और अपने-अपने रस्ते लग गए.
रंगीन मूर्ति अब अकेली थी. वज्रांग उत्सुकतावश उधर बढ़ा तो मैंने हाथ पकड़कर उसे रोका, नशेड़ियों का क्या भरोसा, गाली वगैरा जैसे मौखिक अपमान तो उनके लिए सामान्य बात है, कभी कभार वे हिंसक भी हो उठते हैं.
वज्रांग मेरा हाथ छुडाकर मूर्ति के पास पहुँचा, और उसे पकड़कर हलके से हिलाया. मैं भी उसके पीछे-पीछे गया. मूर्ति ने एक बार आँखें खोलीं और फिर बिना कुछ कहे शान्ति से बंद कर लीं. वज्रांग ने दिखाया कि उसके सर के नीचे का लाल द्रव रंग नहीं रक्त था. तब तक मैंने मूर्ति के रंगों के पीछे छिपे चेहरे को पहचान लिया था. वह भग्गा दही वाला था. बजरिया के पीछे चौक में कहीं रहता था. वज्रांग ने पास से गुजरते हुए एक रिक्शे को हाथ देकर रोका और भग्गा के निढाल शरीर को रिक्शा पर चढाने लगा. उसका उद्देश्य समझकर मैंने भी सहायता की और उसे बीच में करके हम दोनों इधर-उधर बैठ गए. तभी मुझे उस तरफ का ही एक लड़का बरात से वापस आता दिखा तो मैंने उसे भग्गा के घरवालों को गंगवार नर्सिंग होम भेजने को कहा.
जब तक हम लोगों ने भग्गा को भर्ती कराया, उसके परिवार के लोग वहाँ पहुँच गए थे. कुछ ने उसे सम्भाला और बाकी हमसे सवालात करने लगे. मैंने देखा कि अभी तक इतना साहस दिखाने वाला वज्रांग एकदम से बहुत विचलित सा लगा. मैंने भग्गा के घरवालों को सारी बात बताई और वज्रांग को साथ लेकर घर आ गया.
शाम को होली मिलन के लिए तैयार होकर जब में वज्रांग को लेने पहुँचा तो भग्गा के बेटों को उसके घर से निकलते देखा. मुझे देखकर वे दोनों रुके और बताया कि भग्गा बिलकुल ठीक है. अगर हम दोनों उसे नहीं देखते तो शायद वह ज़्यादा खून बहने से ही मर गया होता. मरने की बात सुनते ही एक सिहरन सी दौड़ गयी.
वज्रांग अपने कमरे के एक कोने में ज़मीन बैठा था मोड़े हुए घुटनों को दोनों हाथों से घेरे हुए. उसने सर उठाकर मुझे देखा. गीली आँखों के बावजूद मुस्कुराने की कोशिश की. मैं साथ ही बैठ गया.
"भग्गा ठीक है..." उसने कठिनाई से कहा.
"हाँ!" मैंने उसे बताया कि मैं उसके बेटों से मिल चुका हूँ.
"मैं जानता हूँ कि सर से साया हटने का मतलब क्या होता है..." उसने रुक रुक कर किसी तरह कहा, "... एक महीने तक घर से नहीं निकल सका था मैं."
"एक महीने बाद तिलकनगर जाकर उन दुकानदारों से बात करने की हिम्मत जुटा पाया था. घातक हृदयाघात हुआ था पापा को.... और... उन दुकानदारों ने जो कहा उस पर आज भी यकीन नहीं आता है."
"... हमें क्या पता? हम समझे कोई पीकर पडा होगा... होश आयेगा तो उठकर घर चला जाएगा."
"ज़िंदगी भर सबके काम आने वाले मेरे पापा ने कभी किसी नशे को हाथ नहीं लगाया था."
[समाप्त]
बहुत मामिक.
ReplyDeleteअच्छा तारतम्य रहा सीन दर सीन..
कहानी मर्मस्पर्शी है । सोच रहा हूँ, वज्रांग के साथ यदि यह भुक्त-यथार्थ न जुड़ा होता तब भी क्या वह यूँ ही संवेदित होता !
ReplyDeleteकहानी का आभार ।
हिमांशु जी आप सही सोच रहे हैं. वह शायद होता (उसके पिता तो थे) मगर हम नहीं हो पाते हैं. वज्रांग ने अंत में "जाके कभी न परी बिवाई..." के दृष्टिकोण का शिकवा भी किया था मगर मैं उसे कहानी में ठीक से जोड़ नहीं सका - यह मेरी कमी है.
ReplyDeleteरचना इतनी मार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है ।
ReplyDeleteकहानी है ये ना ? दुखांत और सुखांत भी होती हैं कहानियाँ ?
ReplyDeleteये किस श्रेणी में आयेगी ? जो भी हो कहानी यही है -जो लगे बिलकुल सच !
बेहतरीन रही प्रस्तुति.
ReplyDeleteदिल को छूने वाली मार्मिक रचना । शुभकामनायें
ReplyDeleteबेहद सुंदरतम और प्रवाह मयी कहानी है. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
आपकी कहानियों में संस्मरण की झलक होती है. समझ नहीं पाटा कितना संस्मरण है कितनी कहानी.
ReplyDeleteऐसा ही होता है. इसीलिये मेरा मानना है कि व्यक्ति अगर एम्पैथेटिक हो जाये तो सारे क्लेश स्वयं खत्म हो जायें.
ReplyDeleteउप्फ्फ़ ......
ReplyDeleteजाके पाँव न फटी बिवाई,सो क्या जाने पीर पराई...
सच्च....
ओह मार्मिक .......
ReplyDeleteबस, यही ज़िन्दगी है.
ReplyDeleteओह! समझ रहा हूं।
ReplyDeleteमहाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लगा ! बधाई!
मार्मिक कहानी ....... प्रवाह में बहती हुई .... दिल को छूती है ......
ReplyDeleteअनुराग जी, दिल को छू गई यह प्रस्तुति। सच में दूसरों की बात को, यदि वह हमारे लिये सुविधाजनक हो, मान लेना कितना आसान है।
ReplyDeleteपंक्ति दर पंक्ति अंत तक आते आते एकदम से स्तब्ध कर गये आप..
ReplyDeleteहिमांशु जी और आपका संवाद अच्छा लगा।