Sunday, February 7, 2010

जाके कभी न परी बिवाई - कहानी

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रंग डालने का समय गुज़र चुका था. पिचकारियाँ रखी जाने लगी थी. फिर भी होली के रंग हर तरफ बिखरे थे लाल हरे लोगों के बीच सुनहरी या सफेदी पुते चेहरे भी हर तरफ दिख रहे थे. बरेली में यह समय था मोर्चा लड़ने का. मोर्चे की परम्परा कितनी पुरानी है पता नहीं मगर मोर्चा लड़ने के लिए लगभग हर घर में पीढ़ियों पुराना पीतल का हैण्ड पम्प मिल जाएगा. यह पम्प एक बड़ी परम्परागत पिचकारी जैसे होते हैं. एक बड़ी फूंकनी के भीतर एक छोटी फूंकनी. एक सिरे पर तीखी धार फेंकने के लिए पतला सा मुँह और दुसरे छोर पर जुड़ा हुआ एक लंबा सा रबड़ का पाइप जिसका दूसरा सिरा पानी से भरे लोहे के बड़े कढाह में डाल दिया जाता था. लोहे की वर्गाकार पत्तियों को जोड़कर बनाए हुए यह कढाह किसने बनाए थे यह भी मुझे नहीं मालूम मगर इतना मालूम है कि ये पूरा साल किसी नुक्कड़, चौक या चौराहे पर उपेक्षित से पड़े रहते थे, सिवाय एक दिन के.

धुलेड़ी यानी बड़ी होली वाले दिन बारह बजते ही हर ओर दो-दो लोग अपने-अपने पम्प लिए हुए मोर्चा लड़ते नज़र आते थे. दोनों खिलाड़ी अपनी आँख बचाकर अपने प्रतिद्वंद्वी की आँख को निशाना बनाते थे. जो मैदान छोड़ देता उसकी हार होती थी और उसकी जगह लेने कोई और आ जाता था. हमारा पम्प औरों से भिन्न था. ताम्बे का बना और काफी छोटा. हलके पम्प की धार दूसरे पम्पों जैसी जानलेवा नहीं थी. मगर उसे चलाना भी औरों से आसान था. यह इसी पम्प का कमाल था जो मैं मोर्चे में कभी भी नहीं हारा - सामने कोई भी महारथी हो.

वज्रांग के लिए यह सब नया था. वह दिल्ली से आया था. हम दोनों एक ही उम्र के थे. उसका दाखिला भी मेरे ही स्कूल में हुआ. वह खिलाड़ी भी था और पढ़ाकू भी. शिक्षकों का चहेता था लेकिन काफी गंभीर और अंतर्मुखी. जल्दी ही हम दोनों में दोस्ती भी हो गयी. उसके पिता नहीं थे. माँ एक सरकारी बैंक में काम करती थीं और ८-१० महीने पहले ही उनका तबादला बरेली में बड़ा बाज़ार शाखा में हुआ था. बरेली में यह उसकी पहली होली थी. वह बहुत ही उत्साहित था, खासकर हम लोगों को मोर्चा लड़ते देखकर. उसके उत्साह को देखकर मैंने जल्दी-जल्दी उसे पम्प का प्रयोग बताया. सामने एक दूसरा पम्प मांगकर पानी से आँख बचाने और सामने वाली आँख पर अचूक निशाना लगाने की तकनीक भी सिखाई. कुछ ही देर में वह अपनी बाज़ी के लिए तैयार था.

मोर्चे खेल-खेलकर जब हम दोनों के ही हाथ थक गए तब हमने घर की राह ली. वज्रांग बहुत खुश था. पहली बार उसने होली का ऐसा आनंद उठाया था. अपनी प्रकृति के उलट आज वह खूब बातें कर रहा था. उसने बताया कि उसके पिताजी के जाने के बाद से क्या होली, क्या दीवाली सब उत्सव बेमजा हो गए थे.

[क्रमशः]

17 comments:

  1. संस्मरण बहुत रोचक है अगली कडी का इन्तज़ार रहेगा। शुभकामनायें

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  2. सुंदर संस्मरण! कड़ियों की प्रतीक्षा रहेगी।

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  3. रोचक संस्मरण चल रहा है .......... प्रतीक्षा है अगली कड़ी की ........

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  4. बहुत सुंदर और रोचक संस्मरण है. आगे का इंतजार है. शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  5. सदैव की तरह रोचक ओर जीवन्‍त चित्रण-बिलकुल शब्‍द चित्र की तरह।

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  6. आपका संस्मरण रोचक होने के साथ-साथ
    प्रेरक भी है!

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  7. वह खिलाड़ी भी था और पढ़ाकू भी. शिक्षकों का चहेता था लेकिन काफी गंभीर और अंतर्मुखी.
    > कौन माटी का बना था! स्पेशल रहा होगा।

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  8. वाह होली के संस्मरण भी

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  9. उत्तर-प्रदेश की होली तो वैसे भी देश में लोकप्रिय है। हमने राजस्थान में बहुत होली खेली है। वहां की होली का भी अपना मजा है। मौका मिला तो जरूर वहां के संस्मरण लिखेंगे। आपके अगले संस्मरण का भी इंजतार रहेगा।

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  10. आज भी मोर्चे लडाये जाते है अपनी बरेली मे . राम बरात उसी शान से निकलती है. बमनपुरी से कालीवाडी होते हुये वापिस . कालीवाडी पर अब भी दो दिन पहले कढाव मे रन्ग घुल जाता है .

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  11. वाह बढ़िया संस्मरण - आगे भी लिखिएगा

    - लावण्या

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  12. गज़ब की संस्मरण कथा । होली के मोर्चे की परम्परा का अच्छा खयाल दिलाया आपने । हम लोगों की तरफ भी मोर्चे तो खुलते ही हैं टोलियों में । हाँ ढंग कुछ अलग - जैसे भी हुआ रंगा, पिचकारी का खयाल कहाँ !

    आभार ।

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  13. उत्साह और उत्सव के संस्मरण में ताज़े रंग भरती कथा। सबका सझा अनुभव पर प्रस्तुति रोचक और बेजोड़!!
    शुभकामनाएँ!!

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  14. aapko aur aapke paathakon ko bhi holi kee shubhkaamnaayein

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