आइये मिलकर उद्घाटित करें सपनों के रहस्यों को. पिछली कड़ियों के लिए कृपया निम्न को क्लिक करें: खंड [1] खंड [2] खंड [3] खंड [4]
स्वप्न के बारे में आगे बात करने से पहले जल्दी से हमारे दिमाग द्वारा हमारे साथ अक्सर लिए जाने वाले कुछ पंगों पर एक नज़र डालते चलें.
अलार्म से पहले उठना
हम सभी ने अनुभव किया होगा जब हम सोने से पहले अलार्म लगाते हैं और सुबह को उससे पहले ही उठ जाते हैं. यदि आप रोज़ एक ही समय का अलार्म लगाते हैं तो आपकी जैव-घड़ी उस समय की अभ्यस्त हो चुकी है. जिन्हें काम के सिलसिले में अलग-अलग जगहों की यात्राएँ करनी पड़ती हैं उनको हर बार अलग-अलग समय का अलार्म लगाना पड़ता है. मेरे साथ ऐसा होता था और मेरी जैव-घड़ी को किसी भी अलार्म के समय के बारे में जानने या उसका अभ्यस्त होने का कोई तरीका नहीं था. फिर भी मैं लगभग हमेशा ही अलार्म से कुछ क्षण पहले उठ जाता था. अलार्म मेरे सामने बजता था और मैं आश्चर्य करता था कि मेरी जैव घड़ी को आज के समय के बारे में कैसे पता लगा. काफी खोजा, पूछा, पढ़ा परन्तु इसका स्पष्टीकरण मुझे नहीं मिला. क्या आपके साथ ऐसा हुआ है? अगली कड़ी में मैं अपना अवलोकन सामने रखता हूँ.
संज्ञानात्मक मतभेद
संज्ञानात्मक मतभेद (Cognitive dissonance) एक ऐसी दर्दनाक स्थिति है जिसमें विपरीत-धर्मी विचार एकसाथ उपस्थित होते हैं. कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन का विषाद इसका उदाहरण हो सकता है. कोई और अच्छा उदाहरण ध्यान में नहीं आ रहा है. एक सतही उदाहरण की कोशिश करता हूँ जहां एक अहिंसक व्यक्ति जल्लाद की नौकरी करता है और वह अपराधी को फाँसी चढाते वक्त, "हुक्म है सरकार का, मैं बेक़सूर हूँ" कहकर आराम से घर आकर भोजन कर पाता है क्योंकि उसके मानस में यह बात पक्की है कि फाँसी का कृत्य सरकार के आदेश से और मृतक के अपराध से तय हुआ है न कि उस जल्लाद के वहाँ होने से. हमारा मस्तिष्क भी उस जल्लाद की तरह हमें संज्ञानात्मक मतभेद से बचाने का भरसक प्रयत्न करता रहता है और उसके लिए भ्रम बनाता रहता है. नतीजा यह कि कई बार हमें चीज़ें वास्तविकता से भिन्न दिखती हैं.
देजा व्यू
बहुत से लोगों ने जीवन में कभी न कभी ऐसा महसूस किया है कि जो कुछ घट रहा है वह पहले घट चुका है. कई बार तो यह अनुभव इतना अलौकिक होता है कि आप काफी देर तक पहले से यह सोच पाते हैं कि इस घटना का अगला एक्ट क्या होगा. सब कुछ एक नाटक की तरह घटता जाता है. इस घटना को देजा वू या देजा व्यू (Déjà vu फ्रेंच = पहले देखा हुआ) कहते हैं. देजा व्यू में हम जिस प्रकार से वर्तमान को अतीत में हो चुका पाते हैं वह मुझे एक तरह से एक भविष्यवक्ता स्वप्न की विपरीत (या पूरक) अवधारणा जैसी लगती है. मेरे एक अमरीकी सहकर्मी लगभग हर मास देजा व्यू का अनुभव करते हैं जबकि मुझे इसका अनुभव बचपन में सिर्फ एक बार एक प्रियजन की मृत्यु के समय हुआ था.
देजा व्यू होता है इस पर वैज्ञानिकों में कोई असहमति नहीं है. इसकी व्याख्या करने के प्रयास भी हुए हैं. उनका ज़िक्र करने से पहले एक छोटा सा प्रयोग करते हैं. आप अपने हाथ से अपनी नाक को छुएँ और बताएँ कि पहले आपका हाथ नाक से छुआ या नाक हाथ से? आप कहेंगे कि दोनों एक साथ छुए. बात सच है. दोनों एक साथ छुए हैं और आपके दिमाग ने भी यही बात आपको बिलकुल सच-सच बताई. ख़ास बात यह हुई कि सच को सच जैसा दिखाने के लिए दिमाग ने आपसे एक छोटा सा धोखा किया. आपकी नाक के स्पर्श का संकेत दिमाग तक काफी पहले पहुँच गया था मगर उसने यह राज़ आपको तब तक नहीं बताया जब तक कि उसे वही संकेत आपके हाथ से नहीं मिला. ताकि आप कहीं इस संज्ञानात्मक मतभेद में न पड़ जाएँ कि नाक पहले छुई और हाथ बाद में. इस प्रकार जिस अनुभव को आप रियलटाइम समझते हैं उन सबको आपका दिमाग कुछ देर रोककर, उनमें से सारी विसंगतियाँ हटाकर फिर आपको सौंपता है. इस घटना को संवेदी देरी (Sensory delay) कहते हैं.
जब कभी किसी कारणवश (थकान, चुस्ती या कुछ और?) संवेदी देरी का काम गड़बड़ा जाता है तो हमें देजा व्यू जैसे अजीबोगरीब अनुभव होते हैं. हाथ का सन्देश मिलने पर नाक का सन्देश याद आता है और मन कहता है कि यह घटना पहले हो चुकी है.संवेदी देरी के सन्दर्भ में विस्तार से जानने के इच्छुक डेविड ईगलमैन (David M. Eagleman) का अंग्रेज़ी में लिखा लेख "ब्रेन टाइम" पढ़ सकते हैं.
इन्द्रियारोपित सीमाएँ (Sensory limitations)
अगर कभी आपको दो तीन लोगों से एक साथ अलग अलग विषय पर बात करनी पडी हो तब आपने देखा होगा कि आपके कथन उन्हें भ्रमित कर सकते हैं क्योंकि आपका दिमाग भले ही सारी बातचीत आराम से कर पाए आपका मुँह तो एक समय में एक ही व्यक्ति से बात कर सकता है. बोलते समय जब आपके मन में विचार बहुत तेज़ी से आते हैं तो आप हकलाने लगते हैं. यह मुख की सीमा है. ऐसी ही सीमा आँखों, हाथ, पाँव आदि शरीर के सभी अंगों और इन्द्रियों की हैं. हम कुछ ही क्षणों में अपने मन में एक पूरा आलेख बना लेते हैं मगर इन्हीं इन्द्रियारोपित सीमाओं के कारण उसे ब्लॉग पर ठीक-ठाक रूप में लिखने में लंबा समय लगता है.
स्वप्न - कितना याद रहा
स्वप्न में हम इन सब इन्द्रियारोपित सीमाओं से मुक्त होकर असीमित छवियों को एक साथ अनुभव कर सकते हैं, अनेकों लोगों से एक साथ घंटों बात कर सकते हैं, मीलों चल सकते हैं, और अपने जीवन में अब तक घटे सारे महत्वपूर्ण क्षणों को एक साथ देख सकते हैं. मतलब यह कि एक नन्हे से समयांतराल का स्वप्न आपको वह सब दे सकता है जो वास्तविकता में आप लम्बे समय तक नहीं कर सकते हैं. जागने पर आप यह सब भूल जाते हैं. [क्यों भूलते हैं इस पर भी बात करेंगे, मगर बाद में.] लेकिन अगर आप स्वप्न के दौरान जग जाते हैं तो यह लंबा (जागृत समय के अनुपात में) अनुभव न तो पूरी तरह याद रह सकता है और न ही हम इसके संज्ञानात्मक मतभेद झेल सकते हैं. इसलिए जहाँ तक संभव होता है हमारा मस्तिष्क समांतर घटी अनेक असम्बद्ध घटनाओं में से याद रहे अंशों को क्रम में आगे-पीछे जोड़कर यथासंभव एक तार्किक सी कहानी बनाता है. आम तौर पर हमारा सपना वह सब नहीं है जो हमने देखा बल्कि उसके सारांश रूप बची हुयी यह कहानी ही होता है.
अगली कड़ी में अलार्म से ठीक पहले की जागृति का मेरा अनुभव, व्याख्या और एक रोचक स्वप्न पर विचार.
[क्रमशः]
very nice post...........a new type of post.Really you gave new knoeledge about our sleeping and biological system.....!
ReplyDeleteAgain thanx...
अलार्म के ठीक पहले जागने का मेरा भी निरंतर अनुभव है, जबकि मेरे जागने का समय हमेशा बदलता रहता है. शायद सब कान्सियश माईन्ड की बात हो..आपकी व्याख्या काइन्तजार रहेगा!
ReplyDeleteदेजा व्यू हमको तो इसका अनुभव अक्सर ही होता है. क्या हमारे दिमाग में कोई केमिकल लोचा तो नही चल रहा है?
ReplyDeleteकृपया जवाब दिजियेगा.
रामराम.
जब अलार्म बज जाय तब भी न उठे तब?
ReplyDelete@डॉ. मनोज मिश्र
ReplyDeleteजब अलार्म बज जाय तब भी न उठे तब?
तब तो मौज हो गयी. चैन से छुट्टी मनाइए. यह अध्ययन होना चाहिए की देर से दफ्तर आने के बहानों में "अलार्म सुनाई नहीं दिया" किस स्थान पर आता है.
बहुत अच्छी ज्ञानवर्द्धक श्रृंखला चल रही है यहां पर .. मैं एक दो दिन में ध्यान से पढकर टिप्पणी करती हूं !!
ReplyDeleteकभी कभी संयोग भी बड़े विचित्र हो जाते हैं. श्री सुरेश चिपलूनकर जी के लेख "जेएनयू में आरक्षण" पर मेरी टिप्पणी और सुरेश जी की एक प्रतिटिप्पणी एक-दो मिनट के अन्तर पर पोस्ट हुई. और दोनों में ही पहला वाक्य और उसका भावार्थ लगभग एक जैसा ही था. ऐसा ही संयोग सपनों के बारे में मुझे लगता है.
ReplyDeleteअलार्म से पहले उठना..
ReplyDeleteहां जी, एकदम सही, मैं भी जब कहीं सफ़र पर जाता हूं ,तो पहले ही वहां पहुंचने का समय अलार्म मे सेट कर लेता हूं, लेकिन ठीक अलार्म बजने से दो तीन मिनट पहले उठ ही जाता हूं, अपने आप.
पढ़ रहा हूँ -आगे विस्तृत चर्चा होगी ही
ReplyDeleteबिल्कुल सही बात आपने जीतने भी बात बताए वो मेरे जीवन में भी घट चुके हैं...बहुत बार ऐसा लगता है की यह तो मैने पहले महसूस किया था घाट आज है..बढ़िया चर्चा..
ReplyDeleteतो आजकल आप सपनो की दुनिया से बाहर नही आना चाहते अच्छा है हमे बहुत कुछ जानने को मिल रहा है इसी बहाने। शुभकामनायें । अलार्म बजने तक हम भी और काम निपटा कर आते हैं। शुभकामनायें
ReplyDeleteआज तम मै कभी भी आलर्म के हिसाब से नही ऊठा, उस से पहले ही ऊठ जाता हुं, पता नही क्यो...शायद फ़िक्र के कारण, बहुत सुंदर लिखा
ReplyDelete' Deja Vu ' is very real I have experienced it.
ReplyDeleteNice series Anurag bhai :)
उदाहरणों के कारण कुछ-कुछ पल्ले पडता लगता है। मेरी कोशिश जारी है।
ReplyDeleteछोटे फाण्ट के कारण पढने में अत्यधिक असुविधा जारी है।
अलार्म से पहले तो मैं हमेशा उठता हूँ.
ReplyDeleteसारी कड़ियाँ आज ही पढ़ी , बेहद रोमांचक रहा सपनो का सफ़र....
ReplyDeleteregards
ऐसा अक्सर मेरे साथ भी होता है ... ख़ास कर जब यात्रा पर जाना हो तो कई बार नींद खुलती है लगता है समय हो गया .. और अंत में भी एलार्म बजने से पहले ही नींद खुल जाती है ...
ReplyDeleteफिर से पढ़ा. ज्ञानवर्धन हुआ.
ReplyDeleteबढि़या आलेख ।
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