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Thursday, February 18, 2010

नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे [5]

आइये मिलकर उद्घाटित करें सपनों के रहस्यों को. पिछली कड़ियों के लिए कृपया निम्न को क्लिक करें: खंड [1] खंड [2] खंड [3] खंड [4]

स्वप्न के बारे में आगे बात करने से पहले जल्दी से हमारे दिमाग द्वारा हमारे साथ अक्सर लिए जाने वाले कुछ पंगों पर एक नज़र डालते चलें.

अलार्म से पहले उठना
हम सभी ने अनुभव किया होगा जब हम सोने से पहले अलार्म लगाते हैं और सुबह को उससे पहले ही उठ जाते हैं. यदि आप रोज़ एक ही समय का अलार्म लगाते हैं तो आपकी जैव-घड़ी उस समय की अभ्यस्त हो चुकी है. जिन्हें काम के सिलसिले में अलग-अलग जगहों की यात्राएँ करनी पड़ती हैं उनको हर बार अलग-अलग समय का अलार्म लगाना पड़ता है. मेरे साथ ऐसा होता था और मेरी जैव-घड़ी को किसी भी अलार्म के समय के बारे में जानने या उसका अभ्यस्त होने का कोई तरीका नहीं था. फिर भी मैं लगभग हमेशा ही अलार्म से कुछ क्षण पहले उठ जाता था. अलार्म मेरे सामने बजता था और मैं आश्चर्य करता था कि मेरी जैव घड़ी को आज के समय के बारे में कैसे पता लगा. काफी खोजा, पूछा, पढ़ा परन्तु इसका स्पष्टीकरण मुझे नहीं मिला. क्या आपके साथ ऐसा हुआ है? अगली कड़ी में मैं अपना अवलोकन सामने रखता हूँ.

संज्ञानात्मक मतभेद
संज्ञानात्मक मतभेद (Cognitive dissonance) एक ऐसी दर्दनाक स्थिति है जिसमें विपरीत-धर्मी विचार एकसाथ उपस्थित होते हैं. कुरुक्षेत्र की रणभूमि में अर्जुन का विषाद इसका उदाहरण हो सकता है. कोई और अच्छा उदाहरण ध्यान में नहीं आ रहा है. एक सतही उदाहरण की कोशिश करता हूँ जहां एक अहिंसक व्यक्ति जल्लाद की नौकरी करता है और वह अपराधी को फाँसी चढाते वक्त, "हुक्म है सरकार का, मैं बेक़सूर हूँ" कहकर आराम से घर आकर भोजन कर पाता है क्योंकि उसके मानस में यह बात पक्की है कि फाँसी का कृत्य सरकार के आदेश से और मृतक के अपराध से तय हुआ है न कि उस जल्लाद के वहाँ होने से. हमारा मस्तिष्क भी उस जल्लाद की तरह हमें संज्ञानात्मक मतभेद से बचाने का भरसक प्रयत्न करता रहता है और उसके लिए भ्रम बनाता रहता है. नतीजा यह कि कई बार हमें चीज़ें वास्तविकता से भिन्न दिखती हैं.

देजा व्यू
बहुत से लोगों ने जीवन में कभी न कभी ऐसा महसूस किया है कि जो कुछ घट रहा है वह पहले घट चुका है. कई बार तो यह अनुभव इतना अलौकिक होता है कि आप काफी देर तक पहले से यह सोच पाते हैं कि इस घटना का अगला एक्ट क्या होगा. सब कुछ एक नाटक की तरह घटता जाता है. इस घटना को देजा वू या देजा व्यू (Déjà vu फ्रेंच = पहले देखा हुआ) कहते हैं. देजा व्यू में हम जिस प्रकार से वर्तमान को अतीत में हो चुका पाते हैं वह मुझे एक तरह से एक भविष्यवक्ता स्वप्न की विपरीत (या पूरक) अवधारणा जैसी लगती है. मेरे एक अमरीकी सहकर्मी लगभग हर मास देजा व्यू का अनुभव करते हैं जबकि मुझे इसका अनुभव बचपन में सिर्फ एक बार एक प्रियजन की मृत्यु के समय हुआ था.

देजा व्यू होता है इस पर वैज्ञानिकों में कोई असहमति नहीं है. इसकी व्याख्या करने के प्रयास भी हुए हैं. उनका ज़िक्र करने से पहले एक छोटा सा प्रयोग करते हैं. आप अपने हाथ से अपनी नाक को छुएँ और बताएँ कि पहले आपका हाथ नाक से छुआ या नाक हाथ से? आप कहेंगे कि दोनों एक साथ छुए. बात सच है. दोनों एक साथ छुए हैं और आपके दिमाग ने भी यही बात आपको बिलकुल सच-सच बताई. ख़ास बात यह हुई कि सच को सच जैसा दिखाने के लिए दिमाग ने आपसे एक छोटा सा धोखा किया. आपकी नाक के स्पर्श का संकेत दिमाग तक काफी पहले पहुँच गया था मगर उसने यह राज़ आपको तब तक नहीं बताया जब तक कि उसे वही संकेत आपके हाथ से नहीं मिला. ताकि आप कहीं इस संज्ञानात्मक मतभेद में न पड़ जाएँ कि नाक पहले छुई और हाथ बाद में. इस प्रकार जिस अनुभव को आप रियलटाइम समझते हैं उन सबको आपका दिमाग कुछ देर रोककर, उनमें से सारी विसंगतियाँ हटाकर फिर आपको सौंपता है. इस घटना को संवेदी देरी (Sensory delay) कहते हैं.

जब कभी किसी कारणवश (थकान, चुस्ती या कुछ और?) संवेदी देरी का काम गड़बड़ा जाता है तो हमें देजा व्यू जैसे अजीबोगरीब अनुभव होते हैं. हाथ का सन्देश मिलने पर नाक का सन्देश याद आता है और मन कहता है कि यह घटना पहले हो चुकी है.संवेदी देरी के सन्दर्भ में विस्तार से जानने के इच्छुक डेविड ईगलमैन (David M. Eagleman) का अंग्रेज़ी में लिखा लेख "ब्रेन टाइम" पढ़ सकते हैं.

इन्द्रियारोपित सीमाएँ (Sensory limitations)
अगर कभी आपको दो तीन लोगों से एक साथ अलग अलग विषय पर बात करनी पडी हो तब आपने देखा होगा कि आपके कथन उन्हें भ्रमित कर सकते हैं क्योंकि आपका दिमाग भले ही सारी बातचीत आराम से कर पाए आपका मुँह तो एक समय में एक ही व्यक्ति से बात कर सकता है. बोलते समय जब आपके मन में विचार बहुत तेज़ी से आते हैं तो आप हकलाने लगते हैं. यह मुख की सीमा है. ऐसी ही सीमा आँखों, हाथ, पाँव आदि शरीर के सभी अंगों और इन्द्रियों की हैं. हम कुछ ही क्षणों में अपने मन में एक पूरा आलेख बना लेते हैं मगर इन्हीं इन्द्रियारोपित सीमाओं के कारण उसे ब्लॉग पर ठीक-ठाक रूप में लिखने में लंबा समय लगता है.

स्वप्न - कितना याद रहा
स्वप्न में हम इन सब इन्द्रियारोपित सीमाओं से मुक्त होकर असीमित छवियों को एक साथ अनुभव कर सकते हैं, अनेकों लोगों से एक साथ घंटों बात कर सकते हैं, मीलों चल सकते हैं, और अपने जीवन में अब तक घटे सारे महत्वपूर्ण क्षणों को एक साथ देख सकते हैं. मतलब यह कि एक नन्हे से समयांतराल का स्वप्न आपको वह सब दे सकता है जो वास्तविकता में आप लम्बे समय तक नहीं कर सकते हैं. जागने पर आप यह सब भूल जाते हैं. [क्यों भूलते हैं इस पर भी बात करेंगे, मगर बाद में.] लेकिन अगर आप स्वप्न के दौरान जग जाते हैं तो यह लंबा (जागृत समय के अनुपात में) अनुभव न तो पूरी तरह याद रह सकता है और न ही हम इसके संज्ञानात्मक मतभेद झेल सकते हैं. इसलिए जहाँ तक संभव होता है हमारा मस्तिष्क समांतर घटी अनेक असम्बद्ध घटनाओं में से याद रहे अंशों को क्रम में आगे-पीछे जोड़कर यथासंभव एक तार्किक सी कहानी बनाता है. आम तौर पर हमारा सपना वह सब नहीं है जो हमने देखा बल्कि उसके सारांश रूप बची हुयी यह कहानी ही होता है.

अगली कड़ी में अलार्म से ठीक पहले की जागृति का मेरा अनुभव, व्याख्या और एक रोचक स्वप्न पर विचार.
[क्रमशः]

Wednesday, February 17, 2010

नींद हमारी ख्वाब तुम्हारे [4]

आइये मिलकर उद्घाटित करें सपनों के रहस्यों को. पिछली कड़ियों के लिए कृपया निम्न को क्लिक करें: खंड [1] खंड [2] खंड [3]

स्वप्नों के कारण पर विचार करने से पहले आइये हम स्वप्न के कारकों और इसकी संरचना पर एक नज़र डालते चलें. देखें कि क्या इसमें अतीत की छवियों के अलावा भी कुछ है? [कम्प्यूटर विज्ञान के छात्रों को "कूड़ा डाला कूड़ा पाया" (GIGO) याद होगा] या फिर स्वप्न में कोई सन्देश छिपा है?

जहाँ तक मैंने समझा (और मुझे भी गलत होने का पूरा अधिकार है) स्वप्न एक वाहन चलाने जैसा है जिसमें आप वाहन में पहले से भरी मशीनरी, शक्ति, ईंधन आदि पूरा उपयोग करते हुए अपने संचालन प्रशिक्षण और अनुभव का पूरा लाभ उठाते हैं. अभिप्राय यह कि आपके अनुभव, आपके मस्तिष्क में एकत्रित विभिन्न यादें, कथन, घटनाएँ, छवियाँ आदि स्वप्न को कच्चा मसाला प्रदान करते हैं. दिमाग में बेतरतीब पड़े इन टुकड़ों को जोड़कर एक रहस्यमय कैनवास बनता है जिसमें आपकी चेतना रियल टाइम में तार्किक पैबंद का स्पर्श देती चलती है. इस सब के अलावा एक बात और है और वह है आपके अनुभव, यादों, नियंत्रण या संज्ञान से बाहर के एक तत्व की मौजूदगी. स्पष्ट कहें तो बाहरी परिवेश के प्रभाव से पैदा हुई इंटर एक्टिविटी. मतलब यह कि स्वप्न इंटरएक्टिव होते हैं. सपने का वाहन चलाते समय आपको राह में पड़ने वाले गड्ढों, अवरोधों, यातायात और संकेतों का ध्यान भी रखना पड़ता है क्योंकि यह सब आपके स्वप्न की दिशा को रीयल टाइम में बदल रहे होते हैं. ठीक वैसे ही जैसे वाहन चलाते समय सड़क पर अचानक सामने आता हुआ जुलूस आपका मार्ग बदल देता है.

मसलन यह कि जब आप स्वप्न देख रहे हैं और कोई कमरे की बत्ती जला दे तो आपके स्वप्न में सूर्योदय हो सकता है या अँधेरे जंगल में किसी जीप की हैडलाईट आपकी आँखों पर पड़ती है. सोते हुए व्यक्ति को सुई चुभने से स्वप्न में छुरा घोंपे जाने का अनुभव हो सकता है. ऐसे उदाहरण हैं जब लोग सपने में शेर से लड़े और जागने पर अपने आप को चूहे या किसी अन्य प्राणी द्वारा कुतरा हुआ पाया. आप स्वप्न देख रहे हैं और उसी समय टीवी पर कोई वृत्तचित्र आ रहा है तो आपका स्वप्न उस वृत्तचित्र के विषय, संवाद और संगीत से प्रभावित हो सकता है बल्कि अक्सर होता ही है. अकेले रहने वालों के मुकाबले संयुक्त परिवारों में या छात्रावास में रहने वालों के स्वप्न अधिक गत्यात्मक होते हैं क्योंकि नींद के समय उनका परिवेश अधिक गतिमान है. इसी तरह दिन की झपकी के सपने ज़्यादा रंगीन होते हैं क्योंकि आसपास का प्रकाश हमारी रंग महसूसने की क्षमता बढ़ा देता है.

अभिषेक ओझा जी ने कहा, "पहले सपने बहुत आते थे... हर रात. अब बहुत कम. ऐसा क्यों?"
ख़ास संभावना यह है कि शायद अब आपकी नींद में बाहरी व्यवधान पहले से कम हैं. हमने पीछे देखा कि जागृति के क्षण वाला सपना याद रहने की संभावना सर्वाधिक है. होता यह है कि जब हमारी नींद स्वप्न देखते हुए टूट जाती है तभी हमें याद रहता है कि सपना देखा था वरना नहीं. मतलब यह कि भरपूर नींद कमाई तो समझो सपना गँवाया.

दूसरा [कम महत्वपूर्ण] कयास यह कि अब नींद के बीच में कोई और बत्ती जलाता-बुझाता नहीं, रेडियो ऑन-ऑफ नहीं करता और न ही सुबह पढने के लिए जगाता है इसलिए परिवेश-जन्य घटनाएँ कम हैं जिनके याद रहने की संभावना ज़्यादा होती है क्योंकि वह सिर्फ अवचेतन की एक हल्की छवि न होकर इन्द्रियों का ताज़ा अनुभव होता है.

अभी तक की कड़ियों का एक त्वरित सिंहावलोकन:
  • स्वप्न नींद के किसी भी भाग में आ सकते हैं
  • स्वप्न पूर्णतया आभासी होते हैं और उन्हें सांसारिक नियमों के पालन की आवश्यकता नहीं होती
  • स्वप्न को नियंत्रित करना संभव है.
  • स्वप्न किसी फिल्म की तरह न होकर विडियो गेम की तरह होते हैं.
  • निद्रा स्थल का परिवेश रीयल टाइम में आपके स्वप्न को बदलता चलता है
  • हमें अक्सर वही सपने याद रहते हैं जिनके दौरान हम जग गए हों

स्वप्न और नींद पर आगे बात करने से पहले हम दिमाग की कुछ उलटबांसियों पर विचार करेंगे.

[कृपया बताइये कि इंटरएक्टिव और रीयल टाइम की हिन्दी क्या है?]
[क्रमशः]