Wednesday, August 8, 2012

दिल है सोने का, सोने की आशा

एमसी मेरीकॉम
अपनी श्रेणी में कई बार विश्वविजेता रहीं मणिपुर की मैरीकॉम से भारत को बड़ी उम्मीदें थीं। काँस्य लाकर भी उन्होंने देश को गर्व का एक अवसर तो दिया ही है साथ ही एक बार यह सोचने को बाध्य किया है कि ओलिम्पिक स्वर्ण पाने के लिये विश्वविजेता होना भर काफ़ी नहीं है। कुछ और भी चाहिये। वह क्या है? आम भारतीयों के बीच आपसी सहयोग और सहनशीलता का रिकॉर्ड देखते हुए दल के रूप में खेले जाने वाले खेलों में तो भारत को अधिक उम्मीद लगाना शायद बचपना ही होगा। लेकिन कम से कम अपनी खुद की ज़िम्मेदारी ले सकने वाली व्यक्तिगत स्पर्धाओं में भारतीयों के चमकने के अवसर बनाये जा सकते हैं। तैराकी जैसे खेलों में तो तकनीक की भूमिका इतनी अधिक है कि भारत जैसे अव्यवस्थित देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचने के लिये यात्रा बहुत लम्बी है। हाँ, तीरन्दाज़ी, निशानेबाज़ी, भारोत्तोलन, कुश्ती, मुक्केबाज़ी आदि खेलों के लिये हमारे पास सक्षम खिलाड़ियों की कमी होनी नहीं चाहिये। फिर कमी कहाँ है? शायद हर जगह। खिलाड़ियों के चुनाव, प्रशिक्षण, सुविधायें, पोषण, चिकित्सा, प्रतिस्पर्धाओं से लेकर धन, आत्मविश्वास, राजनीति, और नीति-क्रियान्वयन तक हर जगह सुधार की बड़ी गुंजाइश है।

मैरीकॉम एक-दो बार नहीं पाँच बार (2002, 2005, 2006, 2008 और 2010) विश्व चैम्पियन रह चुकी हैं। लेकिन उन्होंने ये सभी स्वर्ण पदक 46 और 48 किलो की श्रेणियों में जीते है। वर्तमान ओलंपिक स्पर्धाओं में यह भार वर्ग है ही नहीं। यदि उन्हें खेलना होता तो अर्हता के लिये अपना भार बढाकर 51 किलो करना पड़ता जिससे वे फ्लाईवेट श्रेणी में भाग लेने की पात्र बनतीं। उन्होंने यही किया। मुझे नहीं पता कि उन्हें यह जानकारी कब मिली और अपना भार 10% बढाने के लिये उन्हें कितना समय और सहायता मिली। लेकिन इतना स्पष्ट है कि यह निर्णय लेने का मतलब है कि इस बार उनका सामना अपनी नियत श्रेणी से अगली श्रेणी के और अधिक भारी वर्ग के प्रतियोगियों से था जो कि उनकी स्पर्धा को और कठिन करता है। भविष्य में ऐसी चुनौतियों को देख पाने और बेहतर हैंडल करने की सुनियोजित रणनीति आवश्यक है।

दीपिका कुमारी
तीरंदाजी प्रतिस्पर्धा में झारखंड की 18 वर्षीय दीपिका कुमारी की कहानी इतनी मधुर नहीं रही। धनुर्विद्या में प्रथम सीडेड दीपिका को लंदन ओलम्पिक से खाली हाथ आना पड़ा यह खबर शायद उतनी खास नहीं है जितनी यह कि झारखंड के उप मुख्यमंत्री उनका प्रदर्शन देखने के लिये पाँच अन्य व्यक्तियों के साथ आठ दिन तक ब्रिटेन की यात्रा पर थे। एक ऑटो रिक्शा चालक शिव नारायण महतो की बेटी पेड़ों से आम तोड़ने के लिये घर पर बनाये तीर कमान से अपनी यात्रा आरम्भ करके प्रथम सीड तक पहुँच पाती है लेकिन उसका खेल "देखने" के लिये मंत्री जी की विदेश यात्रा से देश की खेल प्राथमिकतायें तो ज़ाहिर होती ही हैं।

एक अन्य स्पर्धा में अमेरिकी टीम द्वारा अपील करने पर पहले विजयी घोषित किये गये भारतीय खिलाड़ी को फ़ाउल्स के आधार पर हारा घोषित किया गया। भारतीय स्रोतों से कहा जा रहा है कि प्रतिद्वन्द्वी अमेरिकी खिलाड़ी ने भी बिल्कुल वही ग़लतियाँ की थीं। यदि यह बात सच है तब हमारे अधिकारी शायद अपना पक्ष सामने रखने में पीछे रह गये। स्पष्ट है कि खिलाड़ियों को खेल सिखाने के साथ अधिकारियों को अपील आदि के नियम सिखाना भी ओलम्पिक की तैयारी का ज़रूरी भाग होना चाहिये।

मिन क्षिया
खेलों में चीन की प्रगति के बारे में काफ़ी चर्चा होती है। 2004 में एथेंस और 2008 में बीजिंग में स्वर्ण जीतने के बाद 26 वर्षीया मिनक्षिया जब लंडन में गोताखोरी का स्वर्ण जीत चुकी तब उसके परिवार ने उसे खबर दी कि उसके दादा और दादी गुज़र चुके हैं तथा उसकी माँ पिछले आठ वर्षों से कैंसर का इलाज करा रही है। चीन के कड़े नियमों में जहाँ किसी परिवार को दूसरा बच्चा पैदा करने की आज्ञा भी नहीं है, किसी खिलाड़ी को ओलम्पिक स्पर्धा से पहले पारिवारिक हानि के समाचार सुनाना शायद खतरे से खाली नहीं होगा। यह घटना कितनी भी अमानवीय लगे यहाँ उल्लेख करने का अभिप्राय केवल यही दर्शाना है कि कुछ देशों के लिये अपने राष्ट्रीय गौरव के सामने नागरिकों के मानवीय अधिकारों को कुचलना सामान्य सी बात है। हमें चीन के स्तर तक गिरने की ज़रूरत नहीं लेकिन उससे पहले भी इतना कुछ है करने के लिये कि यदि हो जाये तो अनेक स्पर्धाओं - विशेषकर व्यक्तिगत - के पदक हमारी झोली में आ सकते हैं। वह दिन जल्दी ही आये, इंतज़ार है। शुभकामनायें!

[The images in this post have been taken from various news sources on Internet.]

38 comments:

  1. खिलाड़ियों के लिए अपने यहाँ वो सुविधाएँ नहीं हैं जो अन्य देशों में सुलभ रहती हैं. कल मैं विकलांग बच्चों को विभिन्न स्टारों पर प्रशिक्षित होते देख रहा था और यही बात मन में आई काश अपने यहाँ भी ऐसा कुछ होता.

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  2. हम पदक पा सकते हैं, यह विश्वास भारत की खेल व्यवस्था को दिला दिया गया है। विश्वविजेता बनने के लिये बहुत कुछ करना है हमें अब।

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  3. खिलाड़ी का ज़ज्बा सर्वोपरि है,पदक या हार-जीत नहीं !

    ...मैरीकोम को सलाम !

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  4. सच है.....
    हमारे देश में प्रतिभाएं क्या कम है..इतनी बड़ी आबादी क्या २-४ स्वर्ण नहीं ला सकते..???
    बस सरकार को अपना पेट भरने से ज़रा फुर्सत मिले तो....

    सादर
    अनु

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  5. हर स्तर पर कुछ और सुधार आवश्यकता है | आशा है आगे स्थितियां बेहतर होंगीं

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  6. कभी कभी शारीरिक संरचना भी आड़े आ जाती है जहा मेरी कॉम ने अपना वजन बढाया था वही ब्रिटेन की खिलाडी ने अपना वजन घटाया था और वो कद काठी में भी उनसे बड़ी थी जिसका फायदा उसे मिला , इस चीज का मुकाबला भी किया जा सकता है चीन इसका उदाहरण है , बाकि आप ने सही ही कहा है की खेलो की दशा क्या होगी इस बात से अंदाजा लगाया जा सकता है की लगभग सभी खले संघो पर नेताओ का कब्जा है जिनको खले का क कहरा भी नहीं पता है | चीन को देख कर थोड़ी चिढ हो रही है जब भी टीवी खोलो कोई भी खेल हो एक खिलाडी तो चीन का ही दिखता है सेमीफाइनल में सयाना के अलावा तीनो ही चीनी खिलाडी थी विजय के साथ शूटिंग में भी चीन के दो खिलाडी थे बाकि खेलो का यही हाल है , हर खेल में कई कई चीनी खिलाडी भरे है , वो इसे खेल की तरह नहीं युद्ध की तरह ले रहा है जहा बस मैडल जितने की चाह नहीं है बल्कि हर वर्ग के हर मैडल को ही जीत लेने की जिद है , अब अमेरिका को ये चुनौती दिख रही है जल्द ही ओलम्पिक से खेल और खेल भावना गायब होगी बस बचेगा मैडलो के लिए युद्ध , ओलम्पिक का सत्यानाश तय है |

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  7. वैसे भारतीय खिलाडियों के पिछड़ने की वजह ये भी है की खेलो के नियम यूरोप और अमेरिकी लोगो के दमखम को ध्यान में रख कर बनाये जाते रहे है या उनमे उस हिसाब से परिवर्तन किये जाते रहे है जिसको पार पाना एशियाई मूल के लोगो के लिए थोडा भारी हो जाता है , हाकी को घास से हटा कर टर्फ पर करा कर इतना तेज बना दिया गया की भारत पाकिस्तान के खिलाडियों के बस के बाहर की बात हो गई और बार बार नियम बदले जाते रहे है , जिसकी ज्यादा चलती है वही नियम बनाता है , वैसे हम भी कम कहा है क्रिकेट को ही देख लीजिये हमारी चलती है वहा तो हम कैसे सभी देशो को नाचते है , और हर देश की सहमती के बाद भी कुछ नियमो को ना मानने के लिए अड़े है |

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  8. यदि खिलाडी सामान्य और अधिकारी बिजनेस क्लास में सफ़र करेंगे तो मेडल कैसे जीतेंगे !
    हम प्लेयर्स की बजाय अपनी सुख सुविधाओं पर ज्यादा ध्यान देते हैं , इसलिए फेल हो जाते हैं .
    यह रवैया बदलना पड़ेगा . लेकिन बदलेगा कौन ?

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  9. आपकी पूरी पोस्ट से ही मेरी सहमति बनती है. मुझे लगता है अचानक मिली प्रसिद्धि भी दीपिका जैसी कम उम्र की खिलाड़ी के लिए घातक हो गयी. खैर ये मेरा सोचना है. मीडिया को चाहिए ये कि क्रिकेट के आलावा और खेलों और खिलाड़ियों को समाचार का हिस्सा बनाए न कि कुछ दिन की प्रसिद्धि का. मुझे याद है कि जब सिर्फ दूरदर्शन था, तब सभी खेलों को बराबर कवरेज मिलता था और उस समय के एथलीट्स और अन्य खेलों के खिलाड़ियों के विषय में भी हम आज से कहीं अधिक जानते थे. अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं का भी सीधा प्रसारण होता था. यहाँ तक कि मैंने खुद स्टेफी ग्राफ़ और मोनिका सेलेस के टेनिस मैच भी देखे हैं.
    जहाँ तक चीन से स्पर्धा करने का सवाल है, तो मैं भी इसके पक्ष में नहीं हूँ. हमारे यहाँ भी खिलाड़ी अपने घर से दूर रहकर तैयारी करते हैं, लेकिन ये उनकी इच्छा पर होता है. चीन में तो छोटे-छोटे बच्चों को ज़बरदस्ती खेलों के लिए तैयार किया जाता है.. बीजिंग ओलम्पिक में चीन पर इस बात का भी आरोप लगा था कि उसने बहुत छोटी लड़कियों को अधिक उम्र का बताकर जिमनास्टिक जैसी स्पर्धाओं में उतारा था.
    खेल बहुत ज़रूरी हैं, पर इतने भी नहीं कि मानवीय मूल्यों को ताक पर रख दिया जाय.

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  10. धीरे धीरे हमारा समाज/सरकार सजग हो रहा है पर अभी भी बहुत समय लगेगा मानसिकता बदलने के लिए ... खेलों के प्रति दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है आज ...

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  11. अब स्थिति बदल रही है, अगले ओलम्पिक में यकीनन भारत अच्छा प्रदर्शन करेगा..

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  12. उत्कृष्ट प्रस्तुति शुक्रवार के चर्चा मंच पर ।।

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  13. मुझे लगता है, हम खेलों और खिलाडियों की चिन्‍ता तब ही करते हैं जब कोई प्रतियोगिता सामने आती है। वस्‍तुत: ऐसी चिन्‍ता करना एक निरन्‍तर प्रक्रिया होनी चाहिए। इसके साथ ही साथ,हम खिलाडियों की और उनके मन-मान-सम्‍मान के समुचित देख-रेख की भावना नहीं रखते - उन्‍हें या तो बहुत हलके में लेते हैं या कुछ इस तरह मानो उन पर उपकार कर रहे हों। समूचे वातावरण और मानसिकता में आमूलचूल परिवर्तन की(और आमूलचूल परिवर्तन नहीं तो कम से कम,सुधार की तो)आवश्‍यकता मैं अनुभव करता हूँ।

    इसके अतिरिक्‍त जिन-जिन प्रबन्‍धकीय बातों की ओर आपने संकेत किए हैं, वे सब अनुभव करने के बाद यही कहा जा सकता है कि हमें अभी, अनेक 'खेलों' में 'कुशल' होना बाकी है।

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  14. मेरीकॉम को सलाम ... घर से निकलकर मुक्केबाजी जैसे खेल को चुनना नई उम्मीदें जगाता है....निश्चित रूप से आनेवाला कल बेहतर होगा यही आशा है ....

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  15. कृष्ण जन्माष्टमी की शुभकामनाएं ..खेलों के प्रोत्साहन और खेल नीति के साथ सम्बंधित समस्त अन्य कारकों पर ध्यान आवश्यक है ......

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  16. मैं तो मैरीकॉम की सरलता पर मुग्ध हूं। इंटरव्यू देते समय मैरीकॉम ने बिना किसी बनावट के बिल्कुल बच्चों की तरह सरलता से बतियाया। न कोई बनावट न कुछ, जो मन में था, जो परिस्थितियां थी सच्चाई से कहा।

    वरना तो हमारे क्रिकेटरों को देखा है एक से एक बहाना बनाते हैं।

    वैसे मेरा मन दोनों खिलाड़ियों के प्रति बंटा था, एक इच्छा थी कि मैरीकॉम जीते क्योंकि देश की हैं तो दूसरा मन कहता था कि निकोला जीते जिसके चोटिल हो जाने पर डॉक्टरों ने कभी कहा था कि वह उठ नहीं सकती, खेलना तो दूर की बात है.... और दो-चार वर्ष बीते न बीते देखिये उस खिलाड़ी ने क्या कमाल कर दिया।

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  17. एक खेल समीक्षक की तरह यह ओलिम्पिक खेल विश्लेषण आपने प्रस्तुत किया... खेलों में अभिरुचि कम होने के बावजूद भी मेरी कॉम की लगन देखकर और उनाका अभ्यास देखकर मैं दंग रह गया.. ऐसे में उनका पदक मिलना ही बहुत बड़ी बात है, न मिलता तो मुझे व्यक्तिगत रूप से उनके लिए बहुत अफसोस होता.. जिस देश में क्रिकेट दुनिया से सदी का महानतम बल्लेबाज सिर्फ पैसों में खेलता है या कहें पैसों के लिए खेलता है वहीं पान सिंह तोमर की व्यथा कथा भी देखी जा सकती है. लगता नहीं कि कुछ भी बदला है.. हाँ प्रतिनिधित्व बढ़ा है भारत का विभिन्न खेलों में और ये नाम भी सुने, देखे और पहचाने जाने लगे हैं..
    भारतीय हॉकी टीम का कप्तान हमारी शाखा में अपने खाते में पैसे जमा करने आया तो लोगों ने उसे पहचाना तक नहीं और जब उसने बताया कि वो भी हमारे ही बैंक में काम करता है, तब उसे बैठने के लिए कहा.. सोचिये क्या यह पतन देखना ही बाकी था???

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  18. अभी दो साल पहले एक प्रदेश के हॉकी संघ के अध्यक्ष पद पर जिन्हें नियुक्त किया गया था, उनकी उम्र थी मात्र चौरासी साल, कर लो खेती और भर लो दंड|
    जो पदक मिले है, सिर्फ और सिर्फ खिलाड़ियों की अपनी मेहनत, प्रतिभा के बल पर| लेकिन, भविष्य उज्जवल दिखता है|

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    1. agree.

      we criticise cricketers for playing for money. i want to ask - all of us - which one of us is in our respective jobs NOT fro money ? it is highly hippocritical to say "sachin plays for money" - why shouldn't he ????? he has brought name and fame to the country for his efforts alone, nobody helped him then. i saw him in an interview where the self appointed guardian of cricket asked him when he was retiring - he replied - no one else asked me when i was going to START playing for the nation, no one cared. why should they ask me about retirement ? i will decide for myself.

      we as a society are like the "kekadaas" in the pot in girijesh ji's post. always looking at others limitations, pulling them down, pointing fingers when they fail to acheive. but never EVER raising a finger to raise their training level. which of us has ever taken an interest to train our own kids in sports instead of pestering them to study / acheive ? VERY VERY FEW I AM SURE. hence the low tally of medals, but we blame the players who reached there and lost, not applaud them for training themselves to reach there at all. Saina nehwal(OFTEN CALLED Saaniya by our news readers, because saaniya mirjza was famous before saina came to the limelight) was a kid who would go to the training at the back of her middle class father's scooter at dawn, snoozing on the way - with all the chances of falling off the scooter and hurting herself seriously. What are we doing for training such talented kids ? nothing!! yet we want more medals

      sorry smart indian ji - i am NOT TALKING about your post. I know this post is a positive post, it wasn't saying anything negative. I was talking in general. because i am seeing and hearing this everywhere - on all news channels - who NEVER ever showed this wonderful boxer ever before, and who will promptly forget her soon as she returns to the struggle of her routine life from the limelight of the medal race.

      i salute all the individual players for their individual achievements, because it is their own achievement, not ours.

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    2. बड़ा वंडरफुल कमेन्ट है शिल्पा जी, सचिन के उस इंटरव्यू की बात कर रही हैं जिसमें ये भी पूछा गया था कि घर में सचिन और उनकी श्रीमती जी में से ज्यादा किसकी चलती है तो वो इंटरव्यू मैंने भी देखा था थोड़ा सा|
      टीम प्रतिस्पर्धा के बारे में अनुराग जी ने भी ऐसा ही इशारा किया, वही केकड़ा प्रवृत्ति वाला| अपन भी सहमत हैं| भविष्य उज्जवल होने के बारे में मेरा कहना अपने खिलाडियों की बोडी लेग्वेज पर आधारित था| हार जीत मायने रखती है लेकिन इन प्लेयर्स के हाव भाव में मुझे अब 'yes, i(we) can do it' वाली चमक दिखती है| क्रिकेट में ये attitude बदलने में सौरव का बहुत बड़ा हाथ था और उसके बाद से भारत की टीम को एकदम से दरकिनार तो कोई नहीं ही कर पाया, कुछ वैसा ही अब इन खेलों में होगा| रफ़्तार अपेक्षित नहीं है लेकिन ललक लग गई है अब|
      पेरेंट्स की तरफ से भी अब बच्चों को स्पोर्ट्स अकादमी में पहले की जगह ज्यादा शौक से भेजा जा रहा है| सुधार इस दिशा में हो कि सिर्फ समर्थ माँ-बाप के बच्चों की जगह रियल टैलेंट तलाशा जाए और वो ईमानदारी से हो|

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    3. आपकी बात सही है, पर यहाँ भी हमने इसे सही से नहीं सीखा। सौरव ने शुरुआत तो सही की थी लेकिन सचिन/सौरव/कुंबले/पोंटिंग/संगकारा के attitude और रोहित/रैना/प्रवीण/हरभजन/श्रीसंथ के attitude में से एक तो ऐसा है जिस पर हँसी आए।

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    4. आप सब खेलों पर क्यों बात कर रहे हैं इतना? अनुराग जी, मेरी बक-बक क्षमा करियेगा :)

      @Shilpa ji
      You have said it perfectly but I see another aspect of this too.
      No, no sportsperson is bigger than the game. No one brings the fame for any country specifically - it comes as a bi-product. Everyone cinch to do his job to the best of his capacity for he/she loves the job. Don't I or you do our job in the best manner we can? Don't we have our sets of achievements? I get paid for my work and my bosses appreciate my good work. It doesn't mean that I get a license to keep hanging at my dawn. What he has earned is the love from his fans and the awards and alas! the money. But talk of special treatment, I object.
      Tendulkar or for that matter anyone is not to decide that he'll play for a series and skip the other.
      Here comes the bad part: No one has the right to ask him the same too. He can play till he wants too. It is the board (eh! a bunch of jokers) who has to decide if he is selected for national duty or not. But then may be they are too scared of us blind fans.
      Painfully, our good for nothing media instead of asking ourselves or our selectors go and ask a person who has such a deep love for the game, who has done nothing but played, who still has the desire to play.

      This was just another view - not to demean the accomplishments Sachin have had.

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    5. you are right. i agree that there are lots of problems / ingenuine cases. that is one of the thousand reason why genuinely talented players cant find their due recognition..

      i was talking about us - as a society - pointing all the fault to the faultlessly hardworking ones who do ON THEIR OWN SINCERE HARD WORK AND SHEER TALENT make a notch for themselves.

      when they do- do that, we - the self appointed guardians of sports (most of whom don't even know how to hold a bat / bowl / tell the difference between a tennis and a badminton racket) start throwing mud at the achievers who somehow - inspite of us (not because of us, but inspite of us) managed to reach the heights. we take out all our frustration at them, and do our best to prove that we are the saviors of sport, while the acheivers are the enemies of the sport..

      please understand that i am not talking of anyone personally - smart ji / yourself / other bloggers.

      but if you do read some of the comments / hear the mud throwers on tv, you will se the trend.

      the trend is - putting all the blame of the poor performance of our nation in various events on THOSE WHO DO ACHEIVE SOMETHING DUE TO THEIR OWN HARD WORK. we somehow feel we have done our job as the "intellectual responsible citizens of the society" after saying a lot of negative nonsense about the successful ones as if it is THEIR FAULT that the others could not succeed. and such speakers are in SUCH HIGH numbers / intelligence /and say their bit with so much conviction, that it starts appearing to be true, and like acid, it silently eats away all the wonderful work that poor sportsman had done and make him the villain!!!!

      we try to make out that

      1. sachin / dhoni/... are to be blamed because OTHERS are not doing well. (why - even if he doesn't retire - if others are better - it is the job of the player / employee to decide that ? if the selectors dont do their job correctly, how is a player at fault ? why should HE (i am not a particular fan of sachin - this is just an example) decide when he should retire? why cant others make a notch for themselves the way he did ? is he stopping anyone else from playiong better thatn him ? he is still scoring a lot of 90's and hundreds, WHY should he be thrown away just because of his age to make place for a22 year old who can only make 40's?))

      2. cricket is to be blamed if hockey is not performing (why again ? is it the fault of cricket that hockey players are unable to make a mark for their sport?

      3. saniya mirza should be ridiculed because she lost in the (Say) quarter finals of wimbledon - we never applaud her for reaching there. we never ask - what did i / we as a nation contribute to her training in her younger years when she needed to be trained.

      4. kejriwal should be made out as a liar / hippocrite becoz he has finally declared that he wants to contest elections. we assume that he is BAD becoz he is a POLITICIAN now, and of course all politicians have to be labelled BAD. we dont realize that THIS attitude of labelling them bad is the reason that GOOD ONES refrain from entering politics - and then we blame them for dirty politics - which is caused because of OUR ATTITUDE of putting negative labels

      5. we say - all successful ones are bad / selfish . so as soon as one seems "successful", we draw satisfaction from calling them "bad". we never stop to ask ourselves - if i say set(A) is opposite ofset (B) [ politician == corrupt ; famous == irresponsible selfish player] then HOW can we expect good ones to choose to enter set A ??? why should he (the good and capable man) go to politics - so that all and sundry should throw mud at him ???

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  19. दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है
    क्रिकेट ही खेल नहीं है समझना होगा !

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  20. हमारे देश मे प्रतिभाओं की कमी नहीं लेकिन उभें सही वअवसर और प्रोत्साहन नही मिलता। संजय जी ने सही कहा है।

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  21. Replies
    1. आपको भी और सभी मित्रों, परिजनों और पाठकों को जन्माष्टमी पर्व की बधाई! हमारे यहाँ तो रात को अचानक ऐसी तेज़ बारिश और अन्धड़ आया कि पूछिये मत!

      श्रीकृष्णं वन्दे जगद्गुरुं!

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    2. वाह! मतलब जन्माष्टमी की बयार वहाँ भी पहुँच गई!:)

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  22. आपकी पोस्ट से कुछ और जानकारी मिली।

    भारत में खेलों की दुर्दश के पीछे मूल कारण कई होंगे लेकिन जो मुझे लगता है वह यह कि रूट लेबिल पर खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करने के लिए कुछ नहीं किया जाता। हाँ, हतोत्साहित करने का भरपूर प्रयास किया जाता है। मध्यमवर्गीय परिवार का कोई खिलाड़ी जिला चैंपियन बनकर भी यह विश्वास नहीं रख पाता कि प्रदेश स्तर पर उसे खेलने का मौका मिलेगा। उसे अपने पैसे से सबकुछ करना पड़ता है। राष्ट्रीय चैंपियन होने के बाद उसे सभी सलाम करते हैं लेकिन जिले स्तर पर उत्साहित करने वाले नहीं मिलते।

    दूसरों की क्या मैं अपनी बात बताता हूँ। 19 वर्ष की उम्र में मैं शतरंज का जिला चैंपियन बना था। सर्टिफिकेट प्राप्त करने के लिए मुझे आयोजक महोदय के घर के कई चक्कर लगाने पड़े। मुझे बनारस से लखनऊ खेलने जाना था। सात दिन रूकने का खर्च अपनी जेब से करना था। मैं नहीं खेल पाया। खेलता, प्रदेश चैंपियन होता तो भी मुझे उतना नहीं मिलता जितना कि जेब से खर्च होना था। मेरे घर वाले पैसा लगाने की स्थिति में नहीं थे।

    यह एक छोटा सा उदाहरण है। प्रोत्साहन के अभाव में प्रतिभाएं नष्ट हो जाती हैं। खिलाड़ी जब अपने दम पर स्वर्ण जीत कर लाता है तो उसका सम्मान करने के लिए शासकों, पूंजीपतियों में होड़ सी मच जाती है। जबकि होना यह चाहिए कि राष्ट्रीय स्तर पर खेल को जिला व ग्रामीण स्तर पर सच्चा प्रोत्साहन मिलना चाहिए।

    बिना इसके स्वर्ण की उम्मीद पालना शेखचिल्ली की तरह स्वप्न देखने के समान है।

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    1. देवेन्द्र जी, आपकी सीधी-सच्ची बात ने द्रवित भी किया और बहुत कुछ याद भी दिलाया। एक ज़बर्दस्त शतरंज खिलाड़ी की छत्रछाया में बड़ा हुआ हूँ और आपके बताये दृश्य खूब देखे हैं। प्रतियोगिताओं के लिये आना-जाना, पैसे की बर्बादी पर तक़रारें, प्रायोजकों की बदनीयती, भोजन और पोषण के बीच का चुनाव, काम-काज या आना-जाना की दुविधा, और न जाने क्या क्या! शहर भर में उस्ताद के नाम से मशहूर उस खिलाड़ी का उदय और अवसान सभी चुपचाप ही हो गया।

      "मुझे चाँद चाहिये" में एक किशोर के हॉकी प्रेम का कुछ ऐसा ही वर्णन याद आया।

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    2. देवेन्द्र जी का खुद का उदाहरण बहुत कुछ कहता है| हालांकि नौकरी में आने के बाद भी खेल प्रतियोगिताओं में प्रतिभागिता के चांस रहते हैं लेकिन तब तक अधिकतर सपने धुंधले हो चुके होते हैं| talent hund & nurturing का काम तो शुरुआती स्तर पर ही हो जाना चाहिए| आस्ट्रेलिया की सरकार के द्वारा इस क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रयासों के बारे में पढ़ा था, हालांकि वो आर्टिकल क्रिकेट से ही समबन्धित था लेकिन प्राथमिकताएं देखकर मजा आ गया था|

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    3. देवेन्द्र जी, आपसे अक्षरशः सहमत हूँ!
      एक बड़ी समस्या है कि हम परिणामों को सबसे पहले देखते हैं, प्रयासों को नहीं।
      जीते हुए खिलाड़ियों को ऐसे लादा जाता है कि बस!
      जबकि उसी का एक बड़ा हिस्सा प्राथमिक स्तर पर प्रोत्साहन के लिए लगाया जा सकता है।

      बनारस वाले हमेशा लखनऊ जाने में ही क्यों फंस जाते हैं? :)

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    4. संजय जी,

      समय बीत जाने पर ताव उतर जाता है। नौकरी की हाहाकारी तलाश..नौकरी...शादी..बच्चे बस यही सफलता के मापदंड बनकर रह जाते हैं। खिलाड़ी कहीं खो जाता है। इसके बाद मैदान में उतरो तो नई पौध आपको देखकर कहती है...अंकल जी, अंकल जी..आप कोच बहुत अच्छे हो!:)

      अविनाश भाई,

      लखनऊ हो या दिल्ली, राजधानी से सभी को फंसाने की कूवत रखती है।:)

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  23. आज खेल, मात्र खेल ही न रहकर राष्‍ट्रों के लि‍ए उनकी अपनी अस्‍मि‍ता के प्रतीक हो गए हैं जबकि‍ पहले खेल सर्वोपरि‍ था

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  24. पढ़ा इसे कल था लेकिन जी भर के लिखने का समय नहीं था तो आज ही सही। :)
    आपकी पोस्ट की मूल भावना से पूर्णतः सहमत हूँ।

    जैसा आप कहते हैं - हाँ! कमी हर जगह है, सुधार की बहुत गुंजाइश है।
    मैं हमेशा कहता आया हूँ, सुविधायें, खानपान, व्यवस्था सब आवश्यक है, बहुत आवश्यक लेकिन वही सब नहीं हैं।
    मानसिक संतुलन, कर्तव्यबोध और ढीठ लगन के बिना कुछ नहीं होना है यह तय है।
    मुझे लगता है व्यवस्थाओं और सरकार के ऊपर ठीकरा फोड़ते हुए हम अपनी जिम्मेदारी भूल जाया करते हैं। क्यों हमेशा कोई राजा राम या शक्तिमान आये ऐसा जरुरी है?
    यहाँ अभिषेक जी की पोस्ट "मैं वैसा नहीं..." भी याद आती है।

    यदि मान लें कि हमने योग्य खिलाड़ी चुने पर सुविधायें नहीं दीं (मान क्या लें, सच ही है) पर ऐसे हारना जैसे दीपिका हार के आयीं या बिंद्रा हार के आये, उसका कोई बहाना, कोई justification नहीं बनता।
    खेल है, खिलाड़ी जीतने आते हैं - आप हार गए मैरी/विजेंदर/सायना की तरह तो कोई बात नहीं, लेकिन जो शानदार हॉकी खेली हमारे रणबांकुरों ने? वो?
    हम २ महीने बाद पकिस्तान को किसी शाह कप कि पेनाल्टी शूटआउट में हरा कर आसमान से ऊँचे हो जायेंगे - अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव सारे अवार्ड हमारे!
    और फिर शुरू होगी मीडिया का जैकारा, मुख्यमंत्री कोष से ५ करोड़ का फ्लैट! क्यों? एक बैंकर या इंजिनीयर रात-दिन नहीं खटता?
    पारिश्रमिक मुनासिब होना एक बात है और एक मेडल पर विजेंदर को फिल्म-स्टार बनाना दूसरी। (यहाँ खिलाडी की कोई गलती नहीं मानता मैं)

    यदि हम निशानेबाजी का वह पुरस्कार समारोह देखें जिसमे गगन नारंग ने रजत जीता, उनके और रोमानिया के खिलाडी के व्यवहार में अंतर से समझ में आता है कि हम कितनी आत्ममुग्धता के मारे हैं।
    क्या हमारे खिलाडी केन्या से बुरी स्थिति में हैं? ईरान? जमैका? उम्मीद इंग्लैंड फ्रांस जैसी तो पाली भी न गई है।

    हम नियमों और स्थितियों पर भी रो सकते हैं - turf, green grass वगैरह। लेकिन उससे क्या? कौशल चुका हुआ सभी को सामने दिखता है। जब हम बरसों से शतरंज पर राज करते आये हैं और वहाँ शिकायत नहीं की तो इतनी जल्दी शिकायतें तर्कसंगत कैसे हुईं? एशियाड में बुला कर हम भी कबड्डी खिलाते हैं सबको।

    क्रिकेट ही ले लें, वो तो पैसे और सुविधा वाले हैं, कैसे २-२ दिन में पिट के आये हम।
    सिर्फ इसलिए कि अगले दिन फिर खेल जायेंगे किसी अहमदाबाद में, किसी चेन्नई में और राजीव गांधी खेल रत्न अपना हो ही जाता है।

    एक बार अपने राज्य के लिए क्रिकेट खेलता एक बहुत छोटा लड़का स्थानापन्न क्षेत्र-रक्षक बन कर आया और उसने कुल जमा ९-१० कैच टपकाए। उसके पिताजी उसे साथ घर नहीं ले गए बल्कि ७ किलोमीटर पैदल आने को कहा, यह कहते हुए "Everything else is just a crap excuse once you are out to play. It not the loss that matter, it is how you take that."

    चीन जैसे सनकी स्तर का तो मैं भी पक्षधर नहीं पर अभी अनुशासन के विजन पथ पर बहुत दूर चलना बाकी है। यहाँ देवेन्द्र जी की बात दोहराऊंगा, बिना सही प्रतिभा को प्रोत्साहन दिए (वो सही ही हो यह पहली शर्त है) सब मुंगेरीलाल और शेखचिल्ली के सपने ही हैं।
    Sarcastically somewhere down the road, India is shining :(

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    1. त्रुटी सुधार- रजत नहीं कांस्य

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  25. खेलों की प्रति स्पर्धाओं में खेल भावना ही सर्वोपरि है.

    अच्छी जानकारीपूर्ण प्रस्तुति के लिए आभार.

    कृष्णजन्माष्टमी के पवन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ.

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