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Monday, May 4, 2015

5 मई - क्रांतिकारी प्रीतिलता वादेदार का जन्मदिन


प्रीतिलता वादेदार (5 मई 1911 – 23 सितम्बर 1932)
5 मई को महान क्रांतिकारी व प्रतिभाशाली छात्रा प्रीतिलता वादेदार का जन्मदिन है। आइये इस दिन याद करें उन हुतात्माओं को जिन्होने अपने वर्तमान की परवाह किए बिना हमारे स्वतंत्र भविष्य की कामना में अपना सर्वस्व नोछावर कर दिया।

प्रीतिलता वादेदार का जन्म 5 मई 1911 चटगाँव (अब बंगला देश) में हुआ था। उन्होने सन् 1928 में चटगाँव के डॉ खस्तागिर शासकीय कन्या विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की और सन् 1929 में ढाका के इडेन कॉलेज में प्रवेश लेकर इण्टरमीडिएट परीक्षा में पूरे ढाका बोर्ड में पाँचवें स्थान पर आयीं। दो वर्ष बाद प्रीतिलता ने कोलकाता के बेथुन कॉलेज से दर्शनशास्त्र से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। कोलकाता विश्वविद्यालय के ब्रितानी अधिकारियों ने उनकी डिग्री को रोक दिया था जो उन्हें 80 वर्ष बाद मरणोपरान्त प्रदान की गयी।

उन्होने निर्मल सेन से युद्ध का प्रशिक्षण लिया था। प्रसिद्ध क्रांतिकारी सूर्यसेन के दल की सक्रिय सदस्य प्रीतिलता ने 23 सितम्बर 1932 को एक क्रांतिकारी घटना में अंतिम समय तक अंग्रेजो से लड़ते हुए स्वयं ही मृत्यु का वरण किया था। अनेक भारतीय क्रांतिकारियों की तरह प्रीतिलता ने एक बार फिर यह सिद्ध किया किया कि त्याग और निर्भयता की प्रतिमूर्तियों के लिए मात्र 21 वर्ष के जीवन में भी अपनी स्थाई पहचान छोड़ कर जाना एक मामूली सी बात है।

प्रीतिलता वादेदार, विकीपीडिया पर

Tuesday, January 14, 2014

एक उदास नज़्म

(अनुराग शर्मा)

यह नज़्म या कविता जो भी कहें, लंबे समय से ड्राफ्ट मोड में रखी थी, इस उम्मीद में कि कभी पूरी होगी, अधूरी ही सही, अंधेर से देर भली ... 



एक देश वो जिसमें रहता है
एक देश जो उसमें रहता है

एक देश उसे अपनाता है
एक देश वो छोड़ के आता है

इस देश में अबला नारी है
नारी ही क्यों दुखियारी है

ये देश भरा दुखियारों से
बेघर और बंजारों से

ये इक सोने का बकरा है
ये नामा, गल्ला, वक्रा है

इस देश की बात पुरानी है
नानी की लम्बी कहानी है

उस किस्से में न राजा है
न ही सुन्दर इक रानी है

हाँ देओ-दानव मिलते हैं
दिन में सडकों पर फिरते हैं

रिश्वत का राज चलाते हैं
वे जनता को धमकाते हैं

दिन रात वे ढंग बदलते हैं
गिरगिट से रंग बदलते हैं

कभी धर्म का राग सुनाते हैं
नफरत की बीन बजाते हैं

वे मुल्ला हैं हर मस्जिद में
वे काबिज़ हैं हर मजलिस में

बंदूक है उनके हाथों में
है खून लगा उन दांतों में

उन दाँतो से बचना होगा
इक रक्षक को रचना होगा
   उस देश में एक निठारी है
जहां रक्खी एक कटारी है

जहां खून सनी दीवारें हैं
मासूमों की चीत्कारें हैं

कितने बच्चों को मारा था
मानव दानव से हारा था

कोई उन बच्चों को खाता था
शैतान भी तब शरमाता था

न उनका कोई ईश्वर है
न उनका कोई अल्ला था

न उनका एक पुरोहित है
न उनका कोई मुल्ला था

न उनका कोई वक़्फ़ा था
न उनकी कोई छुट्टी थी

जिस मिट्टी से वे उपजे थे
उन हाथों में बस मिट्टी थी

वे बच्चे थे मजदूरों के
बेबस और मजबूरों के

जो रोज़ के रोज़ कमाते थे
तब जाके रोटी खाते थे

संसार का भार बंधे सर में
तब चूल्हा जलता है घर मेंं

वे बच्चों को तो बचा न सके
दुनियादारी सिखला न सके

हमें उनके घाव नहीं दिखते
हम कैंडल मार्च नहीं करते

हम सब्र उन्हें सिखलाते हैं
और प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं

Saturday, December 14, 2013

"क्यूरियस केस ऑफ केजरीवाल" - राजनीतिक परियोजना प्रबंधन

बहुसंख्य भारतीय जनता इतनी निराशा और अज्ञान में जीती है कि कब्रों पे चादर चढ़ाती है, आसाराम और रामपाल से मन्नतें मांग लेती है, ज़ाकिर नायक जैसों को धर्म का विशेषज्ञ समझती है और कई बार तो जेहादी-माओवादी आतंकियों और लेनिन-स्टालिन-सद्दाम-हिटलर जैसे दरिंदों तक को जस्टिफ़ाई करने लगती है। जनता के एक बड़े समूह की ऐसी दबी-कुचली पददलित भावनाओं को भुनाना बहुत सस्ता काम है ...
राजनीतिक सफलता के कुछ सूत्र

1) परेटो सिद्धांत (Pareto principle) - 80% प्रभाव वाले 20% काम करो, बस्स! - कम लागत में बड़ी इमारत बनाओ। शिवाजी ने छोटे किलों से आरंभ किया। मिज़ोरम (राज्य) का खबरों में आना कठिन है, गंगाराम (अस्पताल) ज़रूर आसान है। चूंकि दिल्ली सत्ता और मीडिया, दोनों के केंद्र में है, मीडिया को मणिपुर, अरुणाचल या कश्मीर तक जाने का कष्ट नहीं करना पड़ता। जब एक दिल्ली शहर को कब्ज़ाकर देशभर को आसानी से प्रभावित किया जा सकता है तो येन-केन-प्रकारेण वही करना ठीक है, मीडिया को भी फायदा है, घर बैठे खबर "बन" जाती है, और बाहर निकलने की जहमत बच जाती है।

2) जन-प्रभाव वाले महत्वाकांक्षी व्यक्तियों को सपने दिखाकर साथ लाओ - अन्ना हज़ारे से बाबा रामदेव तक, किरण बेदी से अग्निवेश तक, कलबे जवाद से तौकीर रज़ा तक ... कोई अनशन करे, कोई लाठी खाये, किसी का तम्बू उजड़े, सबका सीधा लाभ आप तक ही पहुँचे।

3) उन जन-प्रभाव वाले महत्वाकांक्षी व्यक्तियों के तेज को हरकर अपने में समाहित करो - किरण बेदी, अग्निवेश आदि का अनैतिक आचरण उजागर हुआ या कराया गया; बेचारे बाबा रामदेव की छवि तो ऐसी डूबी या डुबाई गई कि फिर कभी राजनीति में न घुस सकेंगे, अन्ना हज़ारे के प्रभाव का भरपूर उपयोग कर बाद में उन्हें दूध की मक्खी जैसे छिटक दिया गया। और यह क्रम आगे भी चलता रहेगा। काम में आने के बाद लोग लात मारकर निकाले जाते रहेंगे - कुल मिलाकर सभी प्रभावशाली व्यक्तियों के प्रभाव का लाभ केवल केजरीवाल को मिलना चाहिए।

4) शत्रु-मित्र-तटस्थ सभी को शुभ संकेत दो - कॉङ्ग्रेस खुश थी क्योंकि बीजेपी के वोट कट रहे थे, बीजेपी खुश थी क्योंकि कॉङ्ग्रेस के खिलाफ माहौल बन रहा था, सपा और बसपा खुश क्योंकि वे सोच रहे थे कि बिल्लियों की लड़ाई में वे चांदी काट लेंगे। दुनिया भर में पिटने के बाद भारत और नेपाल में भी अपनी साख गँवाकर हाशिये पर पड़े कम्युनिस्टों की खाली केतली में भी उम्मीदों का ज्वार चढ़ने लगा। हालांकि ऐसे संकेत हैं कि बीजेपी ने अपनी हानि को चुनाव से कुछ समय पहले भाँप तो लिया था लेकिन वे उसकी प्रभावी काट नहीं सोच सके।

5) बीच-बीच में अपना मखौल उड़वाओ - अलग दिखने के लिए अजीब सी वेषभूषा अपनाओ। कम खतरनाक दिखने के लिए अजीब-अजीब से बयान देते रहो। खिल्ली ज़्यादा उड़े या विरोध कड़ा हो जाये तो पलटी खा लो। लेकिन प्रतिद्वंदियों को मस्त रहने दो, कभी चौकन्ने न होने पाएँ।

6) रोनी सूरत बनाए रखो - हार गए तो भाव कम नहीं होगा। जीतने के बाद तो पाँचों उंगलियाँ घी में होनी हैं।

7) करो वही जो सब करते हैं और खुद तुम जिसका विरोध करते दिखते हो, लेकिन कम मात्रा में धीरे-धीरे करो और इतनी होशियारी (या मक्कारी) से करो कि अगर स्टिंग ऑपरेशन भी हो जाये तो बेशर्मी से उसका विरोध कर सको।

8) संदेश प्रभावी रखो - विरोधियों को जेल भिजाने की धमकी दो इससे उन पर समर्थन का दवाब बना रहेगा। अगर कोई समर्थन न करे तो उसे भी शर्तनामा भेज दो, इससे अपने पक्ष में हवा बनती है।

9) सम्मोहन करो - झाड़ू-पंजे का स्पष्ट संबंध भी ऐसा धुंधला कर दो कि चमकता सूरज भी न दिखे, जब समर्थन देने-लेने के निकट सहयोग का संबंध स्पष्ट हो तब भी यह सहयोग न दिख पाये।

10) अपनी मंशा कभी ज़ाहिर न होने दो - चुनाव से काफी पहले से तैयारी चुनाव की करते रहो लेकिन बात भ्रष्टाचार, समाजवाद, महंगाई आदि की करो।

11) ऊँचे सपने दिखाओ - नालों, मलबे, कूड़े, रिश्वत, बदबू, और अव्यवस्था में गले तक डूबी राजधानी में व्यवस्था की नहीं, हेल्पलाइन की बात करो, लोकपाल की बात करो, मुफ्त पानी-बिजली की बात करो, जिन नेताओं से जनता त्रस्त है, उन्हें जेल भिजाने की बात करो। धरती पर स्वर्ग लाने के सपने दिखाओ  ... एक शहर भले न संभाले, पूरा देश बदलने की बात करो।

12) युवा शक्ति का भरपूर प्रयोग करो - कैच देम यंग - सच यह है कि युवा कुछ करना चाहता है, परिवर्तन का कारक बनने को व्यग्र है। देश-विदेश में जो कोई भी देश की दुर्दशा से चिंतित है उसे अपने लाभ के लिए हाँको। कम्युनिस्ट समूह इस शक्ति का शोषण अरसे से करते रहे हैं, तुम बेहतर दोहन करो।

13) आधुनिक बनो - यंत्रणा नहीं, यंत्र का प्रयोग करो - आधुनिक तकनीक, इन्टरनेट, सोशल मीडिया, डिजिटल इंगेजमेंट, एनजीओ, स्वयंसेवा, धरना, प्रदर्शन आदि के प्रभाव को पहचानो। असंगतियों को बढ़ा-चढ़ाकर बताओ। विपक्षियों पर इतनी बार आरोप लगाओ कि वह खुद ही सफाई देते फिरें ...

14) पुरानी अस्तियों को नई पैकिंग दो - अन्ना को "गांधी" का नाम दो, "गांधी टोपी" को "आम आदमी" तक पहुँचाओ, "मैं अन्ना हूँ" की जगह "मैं आम आदमी हूँ" लिखो। तानाशाही को स्व-राज का नाम दो।

अंतिम पर अनंतिम सूत्र 

15) बेशर्म बने रहो - सबको पता है बिजली मुफ्त नहीं हो सकती, पानी भी सबको नहीं मिलेगा, भ्रष्टाचारी नेता और नौकरशाह जेल नहीं जाएंगे - अव्वल तो ज़िम्मेदारी लेने से बचो। गले पड़ ही जाये तो पोल खुलने पर अपनी असफलता का ठीकरा एक काल्पनिक शत्रु, जैसे "सब मिले हुए हैं जी", "पूंजीवाद", "सड़ेला सिस्टम", "अल्पमत" या "कानूनी अड़चनें" पर फोड़ दो और सत्ता पर डटे रहो ... फिर भी बात न बने और असलियत खुलने को हो तो इस्तीफा देकर शहीद बन जाओ ... और फिर ...

... और फिर यदि न घर के रहो न घाट के तो केजरीवाल-टर्न लेकर जनता से फिर अपना पद मांगने लगो ... इस देश की जनता बड़ी भावुक है, छः महीने में किसी के भी कुकर्म भुला देती है।

अब कुछ सामयिक पंक्तियाँ / एक कविता
हर चुनाव के लिए मुकर्रर हो
 एक सपना
 हर बार नया
 जो दिखाये
 शिखर की ऊँचाइयाँ
 साथ ही रक्खे
 जमीनी सच्चाईयों से
 बेखबर ....
 
बाबा रामदेव के मंच से सात दिन में शीला दीक्षित की सरकार के लोगों के खिलाफ अदालती आदेश लाने का वायदा
* संबन्धित कड़ियाँ *
केजरीवाल - दो साल की बिना काम की तनख्वाह - नौ लाख रुपये
आतंकवाद पर सवाल किया तो स्टूडियो छोड़कर भागे केजरीवाल
साँपनाथ से बचने को नागनाथ पालने की गलतियाँ
दलाल और "आप" की टोपी
केजरीवाल कम्युनिस्ट हैं - प्रकाश करात
अग्निवेश का असली चेहरा
किरण ने जो किया वह न तो चोरी है न भ्रष्टाचार - केजरीवाल

Friday, October 4, 2013

पितृ पक्ष - महालय

साल के ये दो सप्ताह - इस पखवाड़े में हज़ारों की संख्या में वानप्रस्थी मिशनरी पितर वापस आते थे अपने अपने बच्चों से मिलने, उनको खुश देखकर खुशी बाँटने, आशीष देने. साथ ही अपने वानप्रस्थ और संन्यास के अनुभवों से सिंचित करने। दूर-देश की अनूठी संस्कृतियों की रहस्यमयी कथाएँ सुनाने। रास्ते के हर ग्राम में सम्मानित होते थे। जो पितर ग्राम से गुज़रते वे भी और जो संसार से गुज़र चुके होते वे भी, क्योंकि मिलन की आशा तो सबको रहती थी। कितने ही पूर्वज जीवित होते हुए भी अन्यान्य कारणों से न आ पाते होंगे, कुछ जोड़ सूनी आँखें उन्हें ढूँढती रहती होंगी शायद।

साल भर चलने वाले अन्य उत्सवों में ग्रामवासी गृहस्थ और बच्चे ही उपस्थित होते थे क्योंकि 50+ वाले तो संन्यासी और वानप्रस्थी थे। सो उल्लास ही छलका पड़ता था, जबकि इस उत्सव में गाम्भीर्य का मिश्रण भी उल्लास जितना ही रहता था। समाज से वानप्रस्थ गया, संन्यास और सेवा की भावना गयी, तो पितृपक्ष का मूल तत्व - सेवा, आदर, आद्रता और उल्लास भी चला गया।

भारतीय संस्कृति में ग्रामवासियों के लिए उत्सवों की कमी नहीं थी। लेकिन वानप्रस्थों के लिए तो यही एक उत्सव था, सबसे बड़ा, पितरों का मेला। ज़ाहिर है ग्रामवासी जहाँ पितृपूजन करते थे वहीं पितृ और संतति दोनों मिलकर देवपूजन भी करते थे। विशेषकर उस देव का पूजन जो पितरों को अगले वर्ष के उत्सव में सशरीर आने से रोक सकता था। यम के विभिन्न रूपों को याद करना, जीवन की नश्वरता पर विचार करते हुए समाजसेवा की ओर कदम बढ़ाना इस पक्ष की विशेषता है। अपने पूर्वजों के साथ अन्य राष्ट्रनायकों को याद करना पितृ पक्ष का अभिन्न अंग है। मृत्यु की स्वीकृति, और उसका आदर -
मालिन आवत देखि करि, कलियाँ करीं पुकार। फूले फूले चुन लिए, काल्हि हमारी बार।। ~ कबीर

केवल अपनी वंशरेखा के पितर ही नहीं, बल्कि परिवार में निःसंतान मरे लोगों के साथ-साथ गुरु. मित्र, सास, ससुर आदि के श्राद्ध की परम्परा याद दिलाती है कि कृतज्ञता भारतीय सभ्यता के केंद्र में है। अविवाहित और निःसंतान रहे भीष्म पितामह का श्राद्ध सभी वर्णों द्वारा किया जाना भी अपने रक्त सम्बंध और जाति-वर्ण आदि से मुक्त होकर हुतात्माओं को याद करने की रीति से जोड़ता है। मैं और मेरे के भौतिक स्वार्थ से ऊपर उठकर, आज और अभी के लाभ को भूलकर, हमारे और सबके, बीते हुए कल के सत्कृत्यों और उपकार को श्रद्धापूर्वक स्मरण करने का प्रतीक है श्राद्ध।

आज पितृविसर्जनी अमावस्या को अपने पूर्वजों को विदा करते समय उनके सत्कर्मों को याद करने का, उनके अधूरे छूटे सत्संकल्पों को पूरा करने का निर्णय लेने का दिन है।

क्षमा प्रार्थना
अपराधसहस्राणि क्रियन्तेऽहर्निशं मया। दासोऽयमिति मां मत्वा क्षमस्व परमेश्वर।।
गतं पापं गतं दु:खं गतं दारिद्रयमेव च। आगता: सुख-संपत्ति पुण्योऽहं तव दर्शनात्।

पिण्ड विसर्जन मन्त्र
ॐ देवा गातुविदोगातुं, वित्त्वा गातुमित। मनसस्पतऽइमं देव, यज्ञ स्वाहा वाते धाः॥

पितर विसर्जन मन्त्र - तिलाक्षत छोड़ते हुए
ॐ यान्तु पितृगणाः सर्वे, यतः स्थानादुपागताः ।। सर्वे ते हृष्टमनसः, सवार्न् कामान् ददन्तु मे॥ ये लोकाः दानशीलानां, ये लोकाः पुण्यकर्मणां ।। सम्पूर्णान् सवर्भोगैस्तु, तान् व्रजध्वं सुपुष्कलान ॥ इहास्माकं शिवं शान्तिः, आयुरारोगयसम्पदः ।। वृद्धिः सन्तानवगर्स्य, जायतामुत्तरोत्तरा ॥

देव विसजर्न मन्त्र - पुष्पाक्षत छोड़ते हुए
ॐ यान्तु देवगणाः सर्वे, पूजामादाय मामकीम्। इष्ट कामसमृद्ध्यर्थ, पुनरागमनाय च॥

सभी को नवरात्रि पर्व पर हार्दिक बधाई और मंगलकामनाएँ!

Thursday, May 23, 2013

सच्चे फांसी चढ़दे वेक्खे - कहानी

ग्राहक: कोई नई किताब दिखाओ भाई
विक्रेता: यह ले जाइये, मंत्री जी की आत्मकथा, आधे दाम में दे दूंगा
ग्राहक: अरे, ये आत्मकथाएँ सब झूठी होती हैं
विक्रेता: ऐसा ज़रूरी नहीं, इसमें 25% सच है, 25% झूठ
ग्राहक: तो बाकी 50% कहाँ गया?
विक्रेता: उसी के लिये 50% की छूट दे रहा हूँ भाई...
बैंक में हड़बड़ी मची हुई थी। संसद में सवाल उठ गए थे। मामा-भांजावाद के जमाने में नेताओं पर आरोप लगाना तो कोई नई बात नहीं है लेकिन इस बार आरोप ऐसे वित्तमंत्री पर लगा था जो अपनी शफ़्फाक वेषभूषा के कारण मिस्टर "आलमोस्ट" क्लीन कहलाता था। आलमोस्ट शब्द कुछ मतकटे पत्रकारों ने जोड़ा था जिनकी छुट्टी के निर्देश उनके अखबार के मालिकों को पहुँच चुके थे। बाकी सारा देश मिस्टर शफ़्फाक की सुपर रिन सफेदी की चमकार बचाने में जुट गया था।

सरकारी बैंक था सो सामाजिक बैंकिंग की ज़िम्मेदारी में गर्दन तक डूबा हुआ था। सरकारी महकमों और प्रसिद्धि को आतुर राजनेताओं द्वारा जल्दबाज़ी में बनाई गई किस्म-किस्म की अधकचरी योजनाओं को अंजाम तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी ऐसे बैंकों पर ही थी। एक रहस्य की बात बताऊँ, चुनावों के नतीजे उम्मीदवार के बाहुबल, सांप्रदायिक भावना-भड़काव, पार्टी की दारू-पत्ती वितरण क्षमता के साथ-साथ इस बात पर भी निर्भर करते थे कि इलाके की बैंक शाखा ने कितने छुटभइयों को खुश किया है।

पैसे बाँटने की नीति सरकारी अधिकारी और नेता बनाते थे लेकिन उसे वापस वसूलने की ज़िम्मेदारी तो बैंक के शाखा स्तर के कर्मचारियों (भारतीय बैंकिंग की भाषा के विपरीत इस कथा में "कर्मचारी" शब्द में अधिकारी भी शामिल हैं) के सिर पर टूटती थी। पुराने वित्तमंत्री आस्तिक थे सो जब कोई त्योहार आता था, अपने लगाए लोन-मेले में अपनी पार्टी और अपनी जाति के अमीरों में बांटे गए पैसे को लोन-माफी-मेला लगाकर वापसी की परेशानी से मुक्त करा देते थे। लेकिन "आस्तिक" दिखना नए मंत्री जी के गतिमान व्यक्तित्व और शफ़्फाक वेषभूषा के विपरीत था। उनके मंत्रित्व कल में बैंक-कर्मियों की मुसीबतें कई गुना बढ़ गईं क्योंकि नए लोन-मेलों के बाद की नियमित लोन-माफी की घोषणा होना बंद हो गया। बेचारे बैंककर्मियों को इतनी तनख्वाह भी नहीं मिलती थी कि चन्दा करके देश के ऋण-धनी उद्योगपतियों के कर्जे खुद ही चुका दें।

बैंकर दुखी थे। मामला गड़बड़ था। वित्तमंत्री ने न जाने किस धुन में आकर सरकारी बैंकों  की घाटे में जाने की प्रवृत्ति पर एक धांसू बयान दिया था और लगातार हो रहे घाटे पर कड़ाई से पेश आने की घोषणा कर डाली। जोश में उन्होने घाटे वाले खाते बंद करने पर बैंकरों को पुरस्कृत करने की स्कीम भी घोषित कर दी। इधर नेता का मुस्कराता हुआ चेहरा टीवी पर दिखा और उधर कुछ सरफिरे पत्रकारों की टोली ने बैंक का पैसा डकारकर कान में तेल डालकर सो जाने वाले उस नगरसेठ के उन दो खातों की जानकारी अपने अखबार में छाप दी जो संयोग से नेताजी का मौसेरा भाई होता था।

विदेश में अर्थशास्त्र पढे मंत्री जी को बैंकों के घाटे के कारणों जैसे कि बैंकों की सामाजिक-ज़िम्मेदारी, उन पर लादी गई सरकारी योजनाओं की अपरिपक्वता, नेताओं और शाखाओं की अधिकता, स्टाफ और संसाधनों की कमी, क़ानूनों की ढिलाई और बहुबलियों का दबदबा आदि के बारे में जानकारी तो रही होगी लेकिन शायद उन्हें अपने भाई भतीजों के स्थानीय अखबारों पर असर की कमी के बारे में पूरी जानकारी नहीं थी। अखबार का मामला सुलट तो गया लेकिन साढ़े चार  साल से हाशिये पर बैठे विपक्ष के हाथ ऐसा ब्रह्मास्त्र लग गया जिसका फूटना ज़रूरी था।
 
संसद में प्रश्न उठा। सरकारी अमला हरकत में आ गया। पत्रकारों की नौकरी चली गई। एक के अध्यापक पिता नगर पालिका के प्राइमरी स्कूल में गबन करने के आरोप में स्थानीय चौकी में धर लिए गए। दूसरे की पत्नी पर अज्ञात गुंडों ने तेज़ाब फेंक दिया। नेताजी के भाई ने उसी अखबार में अपने देशप्रेम और वित्तीय प्रतिबद्धता के बारे में पूरे पेज का विज्ञापन एक हफ्ते तक 50% छूट पर छपवाया।

बैंक के ऊपर भाईसाहब के घाटे में गए दोनों ऋणों को तीन दिन में बंद करने का आदेश आ गया। जब बैंक-प्रमुख की झाड़ फोन के कान से टपकी तो शाखा प्रमुख अपने केबिन में सावधान मुद्रा में खड़े होकर रोने लगे। उसी वक़्त प्रभु जी प्रकट हुए। बेशकीमती सूट में अंदर आए भाईसाहब के साथ आए सभी लोग महंगी वेषभूषा में थे। उनके दल के पीछे एक और दल था जो इस बैंक के कर्मियों जैसा ही सहमा और थका-हारा दीख रहा था।

डील तय हो चुकी थी। भाईसाहब ने एक खाता तो मूल-सूद-जुर्माना-हर्जाना मिलाकर फुल पेमेंट करके ऑन द स्पॉट ही बंद करा दिया। इस मेहरबानी के बदले में बैंक ने उनका दूसरा खाता बैंक प्रमुख और वित्त मंत्रालय प्रमुख के मूक समझौते के अनुसार सरकारी बट्टे-खाते में डालकर माफ करने की ज़िम्मेदारी निभाई। शाखा-प्रमुख को बैंक के दो बड़े नॉन-परफोरमिंग असेट्स के कुशल प्रबंधन के बदले में प्रोन्नति का उपहार मिला और अन्य कर्मियों को मंत्रालय की ताज़ा मॉरल-बूस्टर योजना के तहत सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी का नकद पुरस्कार। मौसेरे भाई के तथाकथित अनियमितताओं वाले दोनों खातों के बंद हो जाने के बाद मंत्री जी ने भरी संसद में सिर उठाकर बयान देते हुए विपक्ष को निरुत्तर कर दिया।

एक मिनट, इस कहानी का सबसे प्रमुख भाग तो छूट ही गया। दरअसल एक और व्यक्ति को भी प्रोन्नति पुरस्कार मिला। भाईसाहब के साथ बैंक में पहुँचे थके-हारे दल का प्रमुख नगर के ही एक दूसरे सरकारी बैंक का शाखा-प्रमुख था। उसे नगर में उद्योग-विकास के लिए ऋण शिरोमणि का पुरस्कार मिला। भाई साहब के बंद हुए खाते का पूरा भुगतान करने के लिए उसकी शाखा ने ही उन्हें एक नया लोन दिया था।
[समाप्त]

Saturday, May 11, 2013

अक्षय तृतीया की शुभकामनायें

अस्यां तिथौ क्षयमुर्पति हुतं न दत्तं। तेनाक्षयेति कथिता मुनिभिस्तृतीया॥
उद्दिष्य दैवतपितृन्क्रियते मनुष्यैः। तत् च अक्षयं भवति भारत सर्वमेव॥
(मदनरत्न)
सोने की ख़रीदारी ज़ोरों पर है और शादियों की तैयारी भी। क्यों न हो, साल का सबसे शुभ मुहूर्त जो है। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि चिरंजीवी भगवान परशुराम का जन्मदिन है। माना जाता है कि भगवान विष्णु के नर-नारायण और हयग्रीव रूपों का अवतरण भी इसी दिन हुआ था। ऐसी मान्यता है कि आज किए गए कार्य स्थायित्व को प्राप्त होते हैं। दया, दान और अन्य सत्कार्यों को विशेष महत्व देने वाली हमारी संस्कृति में आज का दिन व्रत, तप, पूजन और दान के लिए विशिष्ट है क्योंकि वह अनंतगुणा फल देने वाला समझा जाता है। स्थायित्व और वृद्धि की कामना से आज के दिन पुण्यकार्य किए जाते हैं। प्राचीन राज्यों में शासक किसानों को नई फसल की बुवाई के लिए बीजदान करते थे। उत्तर-पश्चिम के कई क्षेत्रों में किसान इस दिन घर से खेत तक जाकर मार्ग के पशु-पक्षियों को देखकर अपनी फसलों के लिए वर्षा के शकुन पहचानते हैं। कुछ समुदायों में आज सामूहिक विवाह सम्पन्न कराने की रीति है। अनेक गाँवों में बच्चे इस दिन अपने गुड्‌डे-गुड़िया का विवाह रचाते हैं। और जो ये सब नहीं भी करते हैं, उनके लिए शादी का सबसे बड़ा मुहूर्त तो है ही दावतें खाने के लिए।
संसार में जितने बड़े आदमी हैं, उनमें से अधिकतर ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रताप से बड़े बने और सैंकड़ों-हजारों वर्ष बाद भी उनका यशगान करके मनुष्य अपने आपको कृतार्थ करते हैं। ब्रह्मचर्य की महिमा यदि जानना हो तो परशुराम, राम, लक्ष्मण, कृष्ण, भीष्म, ईसा, मेजिनी, बंदा, रामकृष्ण, दयानन्द तथा राममूर्ति की जीवनियों का अध्ययन करो। ~ अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल
जम्बूद्वीप में अक्षय तृतीया को ग्रीष्मऋतु का आधिकारिक उदघाटन भी माना जा सकता है। बद्रीनारायण धाम के कपाट अक्षय तृतीया के आगमन पर खुलते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार अक्षय तृतीया को किये गये पितृतर्पण, पिन्डदान सहित किसी भी प्रकार का दान अक्षय फलदायी होता है। श्वेत पुष्प का दान किया जा सकता है। कुछ स्थानों में 9 कुछ में 7 और कुछ में 3 प्रकार के धान्य के दान का रिवाज है। भगवान ऋषभदेव ने 400 दिन के निराहार तप के बाद ‘अक्षय तृतीया’ के दिन ही हस्तिनापुर के राजकुमार के हाथों इक्षु (ईख = गन्ना) के रस का पारायण किया था। उसी परंपरा में कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी से आरम्भ वर्षीतप का उपवास ‘अक्षय तृतीया’ को सम्पन्न होता है। तपस्वियों के सम्मान में भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है और उपहार "प्रभावना" दिये जाते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर ही हमारे राष्ट्र का नाम भारतवर्ष पड़ा। यहाँ यह दृष्टव्य है कि भगवान राम का वंश भी ईक्ष्वाकु ही कहलाता है और गन्ने और शर्करा के उत्पादन का रहस्य आज भले ही संसार भर को ज्ञात हो परंतु हजारों साल तक यह रहस्य भारत के बाहर पूर्ण अज्ञात था। (कुछ परम्पराओं में भारतवर्ष के नामकरण का श्रेय दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत को भी जाता है।)
ऋषभो मरुदेव्याश्च ऋषभात भरतो भवेत्। भरताद भारतं वर्षं, भरतात सुमतिस्त्वभूत्
ततश्च भारतं वर्षमेतल्लोकेषुगीयते। भरताय यत: पित्रा दत्तं प्रतिष्ठिता वनम
(विष्णु पुराण)
एक अक्षय तृतीया के दिन भक्त सुदामा अपने बाल सखा कृष्ण से मिलने पहुँचे थे और अपने सेवाकार्यों के लिए सम्मानित हुए थे। कथा यह भी है कि इसी दिन जब शंकराचार्य जी भिक्षा के लिए एक निर्धन दंपति के पास पहुँचे तो उस भूखे परिवार ने कई दिन बाद अपने भोजन के लिए मिले एक फल को उन्हें समर्पित कर दिया। उनकी दान प्रवृत्ति के सम्मान में आदि शंकर ने कनकधारा स्तोत्र की रचना की। यह दिन युगादि भी है और कुछ परम्पराओं में महाभारत के युद्ध का अंत और फिर कलयुग का आरंभ भी इसी दिन से माना जाता है।

राम जामदग्नेय - अमर चित्र कथा 
भारत के अनेक ग्रामों में अक्षय तृतीया के दिन ग्राम के प्रवेशद्वार पर स्थापित ब्रह्मदेव, ग्राम देवी या ग्रामदेवता के पूजन का प्रचलन था। केनरा बैंक की नौकरी के दिनों में कुछ समय सातारा जिले के शिरवळ ग्राम (तालुक खंडाळा) में कुलकर्णी काका के घर रहा था जहाँ इस दिन ग्रामदेवी अंबिका माता की वार्षिक यात्रा बड़े धूमधाम से निकली जाती है।

हिमाचल, परशुराम क्षेत्र (गोआ से केरल तक) तथा दक्षिण भारत में तो परशुराम जयंती का विशेष महत्व रहा ही है, आजकल उत्तर भारत में भगवान परशुराम की जानकारी का प्रसार हो रहा है। परशुराम जी से जुड़े मंदिरों और तीर्थस्थलों में पूजा करने का विशेष महात्म्य है। भार्गव परशुराम ने जिस प्रकार अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से एक शक्तिशाली परंतु अन्यायी साम्राज्य के घुटने टिकाकर एक नई सामाजिक व्यवस्था की नींव रखी जिसमें शस्त्र और शास्त्र एक विशिष्ट वर्ग की गुप्त शक्ति न रहकर उनका वितरण और प्रसार नवनिर्माण के लिए हुआ वह अद्वितीय क्रान्ति थी। यदुवंशी सहस्रबाहु के अहंकार का पूर्णनाश करने वाले परशुराम यदुवंशी श्रीकृष्ण को दिव्यास्त्र प्रदान कर विजयी बनाते हैं। अजेय पश्चिमी घाट के घने जंगलों को परशु के प्रयोग से मानव निवास योग्य बनाकर बस्तियाँ बसाने की बात हो या पूर्वोत्तर में अटल हिमालय की चट्टानें काटकर ब्रह्मपुत्र की दिशा बदलने की बात हो, भगवान परशुराम जनसेवा के लिए जीवन समर्पण करने का ज्वलंत उदाहरण हैं।
पृथिवीम् च अखिलां प्राप्‍य कश्‍यपाय महात्‍मने। यज्ञस्‍य अन्‍ते अददं राम दक्षिणां पुण्‍यकर्मणे ॥
दत्‍वा महेन्‍द्रनिलय: तप: बलसमन्वित:। श्रुत्‍वा तु धनुष: भेदं तत: अहं द्रुतम् आगत:।। (रामायण) 

हे राम! सम्‍पूर्ण पृथिवी को जीतकर मैने एक यज्ञ किया, जिसकी समाप्ति पर पुण्‍यकर्मा महात्‍मा कश्‍यप को दक्षिणारूप में सारी पृथिवी का दान देकर मै महेंद्रपर्वत पर रहने गया। वहाँ तपस्‍या करके तपबल से युक्‍त हुआ मैं धनुष को टूटा हुआ सुनकर वहाँ से अतिशीघ्र आया हूँ।
जिस प्रकार हिमालय काटकर गंगा को भारत की ओर मोड़ने का श्रेय भागीरथ को जाता है उसी प्रकार पहले ब्रह्मकुन्ड से, और फिर लौहकुन्ड पर हिमालय को काटकर ब्रह्मपुत्र जैसे उग्र महानद को भारत की ओर मोड़ने का श्रेय परशुराम जी को जाता है। यह भी मान्यता है कि गंगा की सहयोगी नदी रामगंगा को वे अपने पिता जमदग्नि की आज्ञा से धरा पर लाये थे। ऋषभदेव का निर्वाण स्थल कैलाश पर्वत है जो कि भगवान् परशुराम की तपस्थली है। अफसोस कि भारतीयों के तिब्बत स्थित प्राचीन तीर्थस्थल तक हमारी पहुँच अब चीनियों के वीसा पर निर्भर है। भगवान परशुराम से संबन्धित बहुत से तीर्थ हिमालय क्षेत्र में हैं। विश्व की पहली समर कला के प्रणेता, निरंकुश शासकों, अत्याचारी आतंकियों, और आसुरी शक्तियों के विरोधी परम यशस्वी भगवान् परशुराम के जन्म दिन यानी अक्षय तृतीया के शुभ अवसर पर आइये तेजस्वी बनकर सदाचरण और सद्गुणों से अक्षय सत्कर्म और परोपकार करने की कामना करें।

धिग्बलं क्षत्रियबलं ब्रह्मतेजो बलं बलं। एकेन ब्रह्मदण्डेन सर्वास्त्राणि हतानि मे॥ (रामायण)
ज्ञानबल के सामने बाहुबल बेकार है। एक ज्ञानदंड के सामने सभी अस्त्र नष्ट हो जाते हैं।

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सम्बंधित कड़ियाँ
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* बुद्ध हैं क्योंकि परशुराम हैं
* परशुराम स्तुति
* परशुराम स्तवन
* भगवान परशुराम की जन्मस्थली
* जिनके हाथों ने पहाडों से गलाया दरिया ...
* क्या परशुराम क्षत्रिय विरोधी थे?
* परशुराम - विकीपीडिया
* ऋषभदेव -विकीपीडिया
* पंडितों ने लिया बाल विवाह रोकने का संकल्प
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* परशुराम-लक्ष्मण संवाद प्रसंग - कविता रावत
* ग्वालियर में तीन भगवान परशुराम मंदिर
* अरुणाचल प्रदेश का जिला - लोहित
 * बुद्ध पूर्णिमा पर परशुराम पूजा

Wednesday, August 8, 2012

दिल है सोने का, सोने की आशा

एमसी मेरीकॉम
अपनी श्रेणी में कई बार विश्वविजेता रहीं मणिपुर की मैरीकॉम से भारत को बड़ी उम्मीदें थीं। काँस्य लाकर भी उन्होंने देश को गर्व का एक अवसर तो दिया ही है साथ ही एक बार यह सोचने को बाध्य किया है कि ओलिम्पिक स्वर्ण पाने के लिये विश्वविजेता होना भर काफ़ी नहीं है। कुछ और भी चाहिये। वह क्या है? आम भारतीयों के बीच आपसी सहयोग और सहनशीलता का रिकॉर्ड देखते हुए दल के रूप में खेले जाने वाले खेलों में तो भारत को अधिक उम्मीद लगाना शायद बचपना ही होगा। लेकिन कम से कम अपनी खुद की ज़िम्मेदारी ले सकने वाली व्यक्तिगत स्पर्धाओं में भारतीयों के चमकने के अवसर बनाये जा सकते हैं। तैराकी जैसे खेलों में तो तकनीक की भूमिका इतनी अधिक है कि भारत जैसे अव्यवस्थित देश को अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक पहुँचने के लिये यात्रा बहुत लम्बी है। हाँ, तीरन्दाज़ी, निशानेबाज़ी, भारोत्तोलन, कुश्ती, मुक्केबाज़ी आदि खेलों के लिये हमारे पास सक्षम खिलाड़ियों की कमी होनी नहीं चाहिये। फिर कमी कहाँ है? शायद हर जगह। खिलाड़ियों के चुनाव, प्रशिक्षण, सुविधायें, पोषण, चिकित्सा, प्रतिस्पर्धाओं से लेकर धन, आत्मविश्वास, राजनीति, और नीति-क्रियान्वयन तक हर जगह सुधार की बड़ी गुंजाइश है।

मैरीकॉम एक-दो बार नहीं पाँच बार (2002, 2005, 2006, 2008 और 2010) विश्व चैम्पियन रह चुकी हैं। लेकिन उन्होंने ये सभी स्वर्ण पदक 46 और 48 किलो की श्रेणियों में जीते है। वर्तमान ओलंपिक स्पर्धाओं में यह भार वर्ग है ही नहीं। यदि उन्हें खेलना होता तो अर्हता के लिये अपना भार बढाकर 51 किलो करना पड़ता जिससे वे फ्लाईवेट श्रेणी में भाग लेने की पात्र बनतीं। उन्होंने यही किया। मुझे नहीं पता कि उन्हें यह जानकारी कब मिली और अपना भार 10% बढाने के लिये उन्हें कितना समय और सहायता मिली। लेकिन इतना स्पष्ट है कि यह निर्णय लेने का मतलब है कि इस बार उनका सामना अपनी नियत श्रेणी से अगली श्रेणी के और अधिक भारी वर्ग के प्रतियोगियों से था जो कि उनकी स्पर्धा को और कठिन करता है। भविष्य में ऐसी चुनौतियों को देख पाने और बेहतर हैंडल करने की सुनियोजित रणनीति आवश्यक है।

दीपिका कुमारी
तीरंदाजी प्रतिस्पर्धा में झारखंड की 18 वर्षीय दीपिका कुमारी की कहानी इतनी मधुर नहीं रही। धनुर्विद्या में प्रथम सीडेड दीपिका को लंदन ओलम्पिक से खाली हाथ आना पड़ा यह खबर शायद उतनी खास नहीं है जितनी यह कि झारखंड के उप मुख्यमंत्री उनका प्रदर्शन देखने के लिये पाँच अन्य व्यक्तियों के साथ आठ दिन तक ब्रिटेन की यात्रा पर थे। एक ऑटो रिक्शा चालक शिव नारायण महतो की बेटी पेड़ों से आम तोड़ने के लिये घर पर बनाये तीर कमान से अपनी यात्रा आरम्भ करके प्रथम सीड तक पहुँच पाती है लेकिन उसका खेल "देखने" के लिये मंत्री जी की विदेश यात्रा से देश की खेल प्राथमिकतायें तो ज़ाहिर होती ही हैं।

एक अन्य स्पर्धा में अमेरिकी टीम द्वारा अपील करने पर पहले विजयी घोषित किये गये भारतीय खिलाड़ी को फ़ाउल्स के आधार पर हारा घोषित किया गया। भारतीय स्रोतों से कहा जा रहा है कि प्रतिद्वन्द्वी अमेरिकी खिलाड़ी ने भी बिल्कुल वही ग़लतियाँ की थीं। यदि यह बात सच है तब हमारे अधिकारी शायद अपना पक्ष सामने रखने में पीछे रह गये। स्पष्ट है कि खिलाड़ियों को खेल सिखाने के साथ अधिकारियों को अपील आदि के नियम सिखाना भी ओलम्पिक की तैयारी का ज़रूरी भाग होना चाहिये।

मिन क्षिया
खेलों में चीन की प्रगति के बारे में काफ़ी चर्चा होती है। 2004 में एथेंस और 2008 में बीजिंग में स्वर्ण जीतने के बाद 26 वर्षीया मिनक्षिया जब लंडन में गोताखोरी का स्वर्ण जीत चुकी तब उसके परिवार ने उसे खबर दी कि उसके दादा और दादी गुज़र चुके हैं तथा उसकी माँ पिछले आठ वर्षों से कैंसर का इलाज करा रही है। चीन के कड़े नियमों में जहाँ किसी परिवार को दूसरा बच्चा पैदा करने की आज्ञा भी नहीं है, किसी खिलाड़ी को ओलम्पिक स्पर्धा से पहले पारिवारिक हानि के समाचार सुनाना शायद खतरे से खाली नहीं होगा। यह घटना कितनी भी अमानवीय लगे यहाँ उल्लेख करने का अभिप्राय केवल यही दर्शाना है कि कुछ देशों के लिये अपने राष्ट्रीय गौरव के सामने नागरिकों के मानवीय अधिकारों को कुचलना सामान्य सी बात है। हमें चीन के स्तर तक गिरने की ज़रूरत नहीं लेकिन उससे पहले भी इतना कुछ है करने के लिये कि यदि हो जाये तो अनेक स्पर्धाओं - विशेषकर व्यक्तिगत - के पदक हमारी झोली में आ सकते हैं। वह दिन जल्दी ही आये, इंतज़ार है। शुभकामनायें!

[The images in this post have been taken from various news sources on Internet.]

Friday, March 2, 2012

एक शाम भारत के नाम - इस्पात नगरी से 56

एक भारतीय भारत के बाहर बस सकता है परंतु उस भारतीय के हृदय में एक भारत सदा बसता है। जब पिट्सबर्ग में एक भारतीय प्रदर्शनी लगे तो फिर सामान्य सी बात है कि पिट्सबर्ग के एक भारतीय का दिल फिर ज़ोर-ज़ोर से धड़केगा ही।
नगर के एक मार्ग पर प्रदर्शनी का विज्ञापन

कुछ जानकारी (क्या है, आप जानें, अंग्रेज़ी में है सो हमने पढी नहीं)

अंत:पुर

भारत हो तो सुघड़ भारतीय हाथी तो होगा ही

यह बाग ही मुख्य प्रदर्शनी स्थल है

भारतीय मसाले दुनिया भर में भोजन महकाते हैं 

एक भारतीय कुटिया

तुलसी - पौधे और जानकारी

भारतीय वनों से कई वृक्षों के जीवित नमूने वहाँ थे

भारतीय शास्त्रीय नृत्य का क्या मुकाबला है?

अच्छा, व्याघ्र अभी बाकी हैं!

हर मर्ज़ की दवा, अमलतास की फली, न नीम का पेड़

औषधि कुटीर उद्योग

भारत की एक ग्रामीण पगडंडी

बोधिवृक्ष की जानकारी

भारत है रंगोली है, उत्सव है तो होली है

प्रदर्शनी स्थल के बाहर एक बैनर


कमल तो भारतीय संस्कृति का प्रतीक है


स्वागतम शुभ स्वागतम्

मसाले की दुकान

एक बाग का छोटा मॉडल

कैक्टस भी हैं
शीशे की कलाकृतियाँ

कुछ और कलाकृतियाँ

रेलवे व्यवस्था का एक छोटा सा मॉडल 
आपका दिन शुभ हो, फिर मिलेंगे, जय भारत!

[प्रदर्शनी के सभी चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: India Beckons Exhibition pictures captured by Anurag Sharma]

सम्बन्धित कड़ियाँ
* इस्पात नगरी से - श्रृंखला

Monday, April 4, 2011

नव सम्वत्सर शुभ हो!

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कमाल का राष्ट्र है अपना भारत। ब्राह्मी से नागरी तक की यात्रा में पैशाची आदि न जाने कितनी ही लिपियाँ लुप्त हो गयीं। आश्चर्य नहीं कि आज भारतभूमि तो क्या विश्व भर में कोई विद्वान सिन्धु-सरस्वती सभ्यता की मुहरों को निर्कूट नहीं कर सके हैं। हड़प्पा की लिपि तो बहुत दूर (कुछ सहस्र वर्ष) की बात है, एक महीना पहले जब विष्णु बैरागी जी ने "यह कौन सी भाषा है" पूछा था तो ब्लॉग-जगत की विद्वत्परिषद बगलें झाँक रही थी। जबकि वह भाषा मराठी आज भी प्रचलित है और वह लिपि मोड़ी भी 40 वर्ष पहले तक प्रचलित थी।

आज भले ही हम गले तक आलस्य, लोभ और भ्रष्टाचार में डूबे पड़े हों, एक समय ऐसा था कि हमारे विचारक मानव-मात्र के जीवन को बेहतर बनाने में जुटे हुए थे। लम्बे अध्ययन और प्रयोगों के बाद भारतीय विद्वानों ने ऐसी दशाधारित अंक (0-9) पद्धति की खोज की जो आज तक सारे विश्व में चल रही है। भले ही अरबी-फारसी दायें से बायें लिखी जाती हों, परंतु अंक वहाँ भी हमारे ही हैं, हमारे ही तरीके से लिखे जाते हैं, और हिंदसे कहलाते हैं।

जब धरा के दूसरे भागों में लोग नाक पोंछना भी नहीं जानते थे भारत में नई-नई लिपियाँ जन्म ले रही थीं, और कमी पाने पर सुधारी भी जा रही थीं। निश्चित है कि उनमें से अनेक अल्पकालीन/अस्थाई थीं और शीघ्र ही काल के गाल में समाने वाली थीं। आश्चर्य की बात यह है कि नई और बेहतर लिपियाँ आने के बाद भी अनेकों पुरानी लिपियाँ आज भी चल रही हैं, भले ही उनके क्षेत्र सीमित हो गये हों।

भारत की यह विविधता केवल लेखन-क्रांति में ही दृष्टिगोचर होती हो, ऐसा नहीं है, कालगणना के क्षेत्र में भी हम लाजवाब हैं। लिपियों की तरह ही कालचक्र पर भी प्राचीन भारत में बहुत काम हुआ है। जितने पंचांग, पंजिका, कलैंडर, नववर्ष आपको अकेले भारत में मिल जायेंगे, उतने शायद बाकी विश्व को मिलाकर भी न हों। भाई साहब ने भारतीय/हिन्दू नववर्ष की शुभकामना दी तो मुझे याद आया कि अभी दीवाली पर ही तो उन्होंने ग्रिगेरियन कलैंडर को धकिया कर हमें "साल मुबारक" कहा था।

आज आरम्भ होने वाला विक्रमी सम्वत नेपाल का राष्ट्रीय सम्वत है। वैसे ही जैसे "शक शालिवाहन" भारत का राष्ट्रीय सम्वत है। वैसे तमिलनाडु के हिन्दू अपना नया साल सौर पंचांग के हिसाब से तमिल पुत्तण्डु, विशु पुण्यकालम के रूप में या थईपुसम के दिन मनाते हैं। इसी प्रकार जैन सम्वत्सर दीपावली को आरम्भ होती है। सिख समुदाय परम्परागत रूप से विक्रम सम्वत को मानते थे परंतु अब वे सम्मिलित पर्वों के अतिरिक्त अन्य सभी दैनन्दिन प्रयोग के लिये कैनैडा में निर्मित नानकशाही कलैंडर को मानने लगे हैं। युगादि का महत्व अन्य सभी नववर्षों से अधिक इसलिये माना जाता है क्योंकि आज ही के दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि-सृजन किया था, ऐसी मान्यता है।

आज का दिन देश के विभिन्न भागों में गुड़ी पडवो, युगादि, उगादि, चेइराओबा (चाही होउबा), चैत्रादि, चेती-चाँद, बोहाग बिहू, नव संवत्सर आदि के नाम से जाना जाता है। यद्यपि उत्सव का दिन प्रचलित सम्वत और उसके आधार (सूर्य/शक/मेष संक्रांति या चन्द्रमा/सम्वत/चैत्र शुक्ल प्रतिपदा या दोनों) पर इधर-उधर हो जाता है। भारत और नेपाल में शक और विक्रमी सम्वत के अतिरिक्त भी कई पंचांग प्रचलित हैं। आज के दिन पंचांग और वर्षफल सुनने का परम्परागत महत्व रहा है। मुझे तो आज सुबह अमृतवेला में काम पर निकलना था वर्ना हमारे घर में आज के दिन विभिन्न रसों को मिलाकर बनाई गई "युगादि पच्चड़ी" खाने की परम्परा है।
हर भारतीय संवत्सर का एक नाम होता है और उस कालक्षेत्र का एक-एक राजा और मंत्री भी। संवत्सर के पहले दिन पड़ने वाले वार का देवता/नक्षत्र संवत्सर का राजा होता है और वैसाखी के दिन पड़ने वाले वार का देवता/नक्षत्र मंत्री होता है।
यही नव वर्ष गुजरात के अधिकांश क्षेत्रों में दीपावली के अगले दिन बलि प्रतिपदा (कार्तिकादि) के दिन आरम्भ होगा। जबकि काठियावाड़ के कुछ क्षेत्रों में आषाढ़ादि नववर्ष भी होगा। सौर वर्ष का नव वर्ष वैशाख संक्रांति (बैसाखी) के अनुसार मनाया जाता है और यह 14 अप्रैल 2011 को होगा। नव वर्ष का यह वैसाख संक्रांति उत्सव उत्तराखंड में बिखोती, बंगाल में पोइला बैसाख, पंजाब में बैसाखी, उडीसा में विशुवा संक्रांति, केरल में विशु, असम में बिहु और तमिलनाडु में थइ पुसम के नाम से मनाया जाता है। श्रीलंका, जावा, सुमात्रा तथा दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों कम्बोडिआ, लाओस, थाईलैंड में भी संक्रांति को नववर्ष का उल्लास रहता है। वहाँ यह पारम्परिक नव वर्ष सोंग्रन या सोंक्रान के नाम से आरम्भ होगा।        

भारतीय सम्वत्सर साठ वर्ष के चक्र में बन्धे हैं और इस तरह विक्रम सम्वत के हर नये वर्ष का अपना एक ऐसा नाम होता है जो कि साठ वर्ष बाद ही दोहराया जाता है। साठ वर्ष का चक्र ब्रह्मा,विष्णु और महेश देवताओं के नाम से तीन बीस-वर्षीय विभागों में बँटा है। दक्षिण भारत (तेलुगु/कन्नड/तमिल) वर्ष के हिसाब से इस संवत का नाम खर है। जबकि आज आरम्भ होने वाला विक्रम सम्वत्सर उत्तर भारत में क्रोधी नाम है। (उत्तर भारत के विक्रम संवतसर के नाम के लिये अमित शर्मा जी का धन्यवाद)

अनंतकाल से अब तक बने पंचांगों के विकास में विश्व के श्रेष्ठतम मनीषियों की बुद्धि लगी है। युगादि उत्सव अवश्य मनाइये परंतु साथ ही यदि अन्य भारतीय (सम्भव हो तो विदेशी भी) मनीषियों द्वारा मानवता के उत्थान में लगाये गये श्रम को पूर्ण आदर दे सकें तो हम सच्चे भारतीय बन सकेंगे। अपना वर्ष हर्षोल्लास से मनाइये परंतु कृपया दूसरे उत्सवों की हेठी न कीजिये।

आप सभी को सप्तर्षि 5087, कलयुग 5113, शक शालिवाहन 1933, विक्रमी 2068 क्रोधी/खरनामसंवत्सर की मंगलकामनायें!

साठ संवत्सर नाम

१. प्रभव
२. विभव
३. शुक्ल
४. प्रमुदित
५. प्रजापति
६. अग्निरस
७. श्रीमुख
८. भव
९. युवा
१०. धाता
११. ईश्वर
१२. बहुधान्य
१३. प्रमादी
१४. विक्रम
१५. विशु
१६. चित्रभानु
१७. स्वभानु
१८. तारण
१९. पार्थिव
२०. व्यय

२१. सर्वजित
२२. सर्वधर
२३. विरोधी
२४. विकृत
२५. खर
२६. नंदन
२७. विजय
२८. जय
२९. मन्मत्थ
३०. दुर्मुख
३१. हेवलम्बी
३२. विलम्ब
३३. विकारी
३४. सर्वरी
३५. प्लव
३६. शुभकृत
३७. शोभन
३८. क्रोधी
३९. विश्ववसु
४०. प्रभव

४१. प्लवंग
४२. कीलक
४३. सौम्य
४४. साधारण
४५. विरोधिकृत
४६. परिद्व
४७. प्रमादिच
४८. आनंद
४९. राक्षस
५०. अनल
५१. पिंगल
५२. कलायुक्त
५३. सिद्धार्थी
५४. रौद्र
५५. दुर्मथ
५६. दुन्दुभी
५७.रुधिरोदगारी
५८.रक्ताक्षी
५९. क्रोधन
६०. अक्षय
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* भारतीय काल गणना
* वर्ष और संवत्सर
* खरनाम सम्वत्सर पंचांग ऑनलाइन
* राष्ट्रीय नववर्ष - श्री शालिवाहन शक सम्वत 1933

Wednesday, March 23, 2011

ईमानदारी - जैसी मैने देखी

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कोई खास नहीं, कोई अनोखी नहीं, एक आम ईमानदार भारतीय परिवार की ईमानदार दास्ताँ, जो कभी गायी नहीं गयी, जिस पर कोई महाकाव्य नहीं लिखा गया। इस गाथा पर कोई फिल्म भी नहीं बनी, हिन्दी, अंग्रेज़ी या क्षेत्रीय। शायद इसकी याद भी नहीं आती अगर ज्ञानदत्त पांडेय जी ईमानदारी पर चर्चा को एक बार कर चुकने के बाद दोबारा आगे न बढाते। याद रहे, यह ऐसा साधारण और ईमानदार भारतीय परिवार है जहाँ ईमानदारी कभी भी असाधारण नहीं थी। छोटी-छोटी बहुतेरी मुठभेडें हैं, सुखद भी दुखद भी। यह यादें चाहे रुलायें चाहे होठों पर स्मिति लायें, वे मुझे गर्व का अनुभव अवश्य कराती हैं। कोई नियमित क्रम नहीं, जो याद आता जायेगा, लिखता रहूंगा। आशा है आप असुविधा के लिये क्षमा करेंगे।

बात काफी पुरानी है। अब तो कथा नायक को दिवंगत हुए भी कई दशक हो चुके हैं। जीवन भर अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया। उनके कुनबे के अयोध्या से स्वयं-निर्वासन लेकर उत्तर-पांचाल आने की भी एक अजब दंतकथा है लेकिन वह फिर कभी। उनके पिताजी के औसत साथियों की कोठियाँ खडी हो गयीं मगर उनके लिये पैतृक घर को बनाए रखना भी कठिन था। काम लायक पढाई पूरी करके नौकरी ढूंढने की मुहिम आरम्भ हुई। बदायूँ छूटने के बाद ईमानदारी के चलते बीसियों नौकरियाँ छूटने और बीसियों छोडने के बाद अब वे गाज़ियाबाद के एक स्कूल में पढा रहे थे। वेतन भी ठीक-ठाक मिल रहा था। शरणार्थियों के इलाके में एक सस्ता सा घर लेकर पति-पत्नी दोनों पितृऋण चुकाने के लिये तैयार थे। विलासिता का आलम यह था कि यदि कभी खाने बनाने का मन न हो तब तन्दूर पर आटा भेजकर रोटी बनवा ली जाती थी।

पति स्कूल चले जाते और पास पडोस की महिलायें मिलकर बातचीत, कामकाज करते हुए अपने सामाजिक दायित्व भी निभाती रहतीं। सखियों से बातचीत करके पत्नी को एक दिन पता लगा कि राष्ट्रपति भवन में एक अद्वितीय उपवन है जिसे केवल बडे-बडे राष्ट्राध्यक्ष ही देख सकते हैं। लेकिन अब गरीबों की किस्मत जगी है और राष्ट्रपति ने यह उपवन एक महीने के लिये भारत की समस्त जनता के लिये खोल दिया है। पत्नी का बहुत मन था कि वे दोनों भी एक बार जाकर उस उद्यान को निहार लें। एक बार देखकर उसकी सुन्दरता को आंखों में इस प्रकार भर लेंगे कि जीवन भर याद रख सकें। बदायूँ में रहते हुए तो वहाँ की बात पता ही नहीं चलती, गाज़ियाबाद से तो जाने की बात सोची जा सकती है। वे घर आयें तो पूछें, न जाने बस का टिकट कितना होगा। कई दिन के प्रयास के बाद एक शाम दिल की बात पति को बता दी। वे रविवार को चलने के लिये तैयार हो गये। तैयार होकर घर से निकलकर जब उन्होने साइकल उठाई तो पत्नी ने सुझाया कि वे बस अड्डे तक पैदल जा सकते हैं। पति ने मुस्कुराकर उन्हें साइकल के करीयर पर बैठने को कहा और पैडल मारना शुरू किया तो सीधे राष्ट्रपति भवन आकर ही रुके।

पत्नी को मुगल गार्डैन भेजकर वे साइकल स्टैंड की तरफ चले गये। पत्नी ने इतना सुन्दर उद्यान पहले कभी नहीं देखा था। उन्हें अपने निर्णय पर प्रसन्नता हुई। कुछ तो उद्यान बडा था और कुछ भीड के कारण पति पत्नी बाग में एक दूसरे से मिल नहीं सके। सब कुछ अच्छी प्रकार देखकर जब वे प्रसन्नमना बाहर आईं तो चतुर पति पहले से ही साइकल लाकर द्वार पर उनका इंतज़ार कर रहे थे। साइकल पर दिल्ली से गाज़ियाबाद वापस आते समय हवा में ठंड और बढ गयी थी। मौसम से बेखबर दोनों लोग मगन होकर उस अनुपम उद्यान की बातें कर रहे थे और उसके बाद भी बहुत दिनों तक करते रहे। बेटी की शादी के बाद पत्नी को पता लगा कि जब वे उद्यान का आनन्द ले रही थीं तब पति बाग के बाहर खडे साइकल की रखवाली कर रहे थे क्योंकि तब भी एक ईमानदार भारतीय साइकल स्टैंड का खर्च नहीं उठा सकता था। लेकिन उस ईमानदार भारतीय परिवार को तब भी अपनी सामर्थ्य पर विश्वास और अपनी ईमानदारी पर गर्व था और उनके बच्चों को आज भी है।

Sunday, January 23, 2011

यथार्थ में वापसी

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snow clad hill
दिसंबर २०१० में भारत आने से पहले मैंने बहुत कुछ सोचा था - भारत में ये करेंगे, उससे मिलेंगे, वहाँ घूमेंगे आदि. जितना सोचा था उतना सब नहीं हो सका.

पुरानी लालफीताशाही, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार से फिर एकबारगी सामना हुआ. मगर भारतीय संस्कृति और संस्कार आज भी वैसे ही जीवंत दिखे. एक सभा में जब देर से पहुँचने की क्षमा मांगनी चाही तो सबने प्यार से कहा कि "बाहर से आने वाले को इंतज़ार करना पड़ता तो हमें बुरा लगता."


बर्फीली सड़कें
व्यस्तता के चलते कुछ बड़े लोगों से मुलाक़ात नहीं हो सकी मगर कुछ लोगों से आश्चर्यजनक रूप से अप्रत्याशित मुलाकातें हो गयीं. कुछ अनजान लोगों से मिलने पर वर्षों पुराने संपर्कों का पता लगा. अपने तीस साल पुराने गुरु और उनकी कैंसर विजेता पत्नी के चरण स्पर्श करने का मौक़ा मिला.
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२ अंश फहरन्हाईट
दिल्ली की गर्मजोशी भरी गुलाबी ठण्ड के बाद पिट्सबर्ग की हाड़ कंपाती सर्दी से सामना हुआ तो लगा जैसे स्वप्नलोक से सीधे यथार्थ में वापसी हो गयी हो. वापस आने के एक सप्ताह बाद आज भी मन वहीं अटका हुआ है. लगता है जैसे अमेरिका मेरे वर्तमान जीवन का यथार्थ है और भारत वह स्वप्न जिसे मैं जीना चाहता हूँ
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बर्फ का आनंद उठाते बच्चे
जिस रात दिल्ली पहुँचा था घने कोहरे के कारण दो फीट आगे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था और जिस शाम पिट्सबर्ग पहुँचा, हिम-तूफ़ान के कारण हवाई अड्डे से घर तक का आधे घंटे का रास्ता तीन घंटे में पूरा हुआ क्योंकि लोग अतिरिक्त सावधानी बरत रहे थे. मगर स्कूल बंदी होने के कारण बच्चों की मौज थी. उन्हें हिम क्रीड़ा का आनंद उठाने का इससे अच्छा अवसर कब मिलेगा?
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मिट्टी के डाइनासोर
बिटिया ने अपने पापा के स्वागत में मिट्टी के नन्हे डाइनासोर बनाकर रखे थे. बहुत सी किताबें साथ लाया हूँ. कुछ खरीदीं और कुछ उपहार में मिलीं. मित्रों और सहकर्मियों के लिए भारत से छोटे-छोटे उपहार लाया और अपने लिए लाया भारत माता का आशीर्वाद.

Monday, August 10, 2009

श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले

हुतात्मा खुदीराम बसु
(3 दिसंबर 1889 - 11 अगस्त 1908) 
कल की बात भी आज याद रह जाए, वही बड़ी बात है। फ़िर एक सौ एक साल पहले की घटना भला किसे याद रहेगी। मात्र 18 वर्ष का एक किशोर आज से ठीक 101 साल पहले अपने ही देश में अपनों की आज़ादी के लिए हँसते हुए फांसी चढ़ गया था।

आपने सही पहचाना, बात खुदीराम बासु की हो रही है। प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद के दमन को गुज़रे हुए आधी शती बीत चुकी थी। कहने के लिए भारत ईस्ट इंडिया कंपनी के कुशासन से मुक्त होकर इंग्लॅण्ड के राजमुकुट का सबसे प्रतिष्ठित रत्न बन चुका था। परन्तु सच यह था कि सच्चे भारतीयों के लिए वह भी विकट समय था। देशभक्ति, स्वतन्त्रता आदि की बात करने वालों पर मनमाने मुक़दमे चलाकर उन्हें मनमानी सजाएं दी जा रही थीं। माँओं के सपूत छिन रहे थे। पुलिस तो भ्रष्ट और चापलूस थी ही, इस खूनी खेल में न्यायपालिका भी अन्दर तक शामिल थी।

तीन बहनों के अकेले भाई खुदीराम बसु तीन दिसम्बर 1889 को मिदनापुर जिले के महोबनी ग्राम में लक्ष्मीप्रिया देवी और त्रैलोक्यनाथ बसु के घर जन्मे थे। अनेक स्वाधीनता सेनानियों की तरह उनकी प्रेरणा भी श्रीमदभगवद्गीता ही थी।

मुजफ्फरपुर का न्यायाधीश किंग्सफोर्ड भी बहुत से नौजवानों को मौत की सज़ा तजवीज़ कर चुका था। 30 अप्रैल 1908 को अंग्रेजों की बेरहमी के ख़िलाफ़ खड़े होकर खुदीराम बासु और प्रफुल्ल चन्द्र चाकी ने साथ मिलकर मुजफ्फरपुर में यूरोपियन क्लब के बाहर किंग्सफोर्ड की कार पर बम फेंका।

पुलिस द्वारा पीछा किए जाने पर प्रफुल्ल चंद्र समस्तीपुर में खुद को गोली मार कर शहीद हो गए जबकि खुदीराम जी पूसा बाज़ार में पकड़े गए। मुजफ्फरपुर जेल में ११ अगस्त १९०८ को उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। याद रहे कि प्राणोत्सर्ग के समय खुदीराम बासु की आयु सिर्फ 18 वर्ष 7 मास और 11 दिन मात्र थी

सम्बंधित कड़ी: नायकत्व क्या है?

Tuesday, December 2, 2008

मुम्बई - आतंक के बाद

मुम्बई की घटना से हमें अपने ही अनेकों ऐसे पक्ष साफ़ दिखाई दिए जो अन्यथा दिखते हुए भी अनदेखे रह जाते हैं। हमें, प्रशासन, नेता, पत्रकार, जनता, पुलिस, एन एस जी और वहशी आतंकवादी हत्यारों के बारे में ऐसी बहुत सी बातों से दो चार होना पडा जिनके बारे में चर्चा ज़रूरी सी ही है। मैं आप सब से काफी दूर बैठा हूँ और भौतिक रूप से इस आतंक का भुक्तभोगी नहीं हूँ परन्तु समाचार और अन्य माध्यमों से जितनी जानकारी मिलती रही है उससे ऐसा लगता है जैसे मैं वहीं हूँ और यह सब मेरे चारों ओर ही घटित होता रहा है। पहले तो देश की जनता को नमन जिसने इतना बड़ा सदमा भी बहुत बहादुरी से झेला। छोटी-छोटी असुविधाओं पर भी असंतोष से भड़क उठने वाले लोग भी गंभीरता से यह सोचने में लगे रहे कि आतंकवाद की समस्या को कैसे समूल नष्ट किया जाए। जो खतरनाक आतंकवादी ऐ टी एस के उच्चाधिकारियों से गाडी और हथियार आराम से छीनकर ले गए, उन्हीं में से एक को ज़िंदा पकड़ने में पुलिस के साथ जनता के जिन लोगों ने बहादुरी दिखाई वे तारीफ़ के काबिल हैं। इसी के साथ, नरीमन हाउस के पास आइसक्रीम बेचने वाले हनीफ ने जिस तरह पहले पुलिस और फिर कमांडोज़ को इमारत के नक्शे और आवाजाही के रास्तों से परिचित कराया उससे इस अभियान में सुरक्षा बलों का नुकसान कम से कम हुआ। बाद में भी जनता ने एकजुट होकर इस तरह की घटनाओं की पहले से जानकारी, बचाव, रोक और सामना करने की तैयारी में नेताओं और प्रशासन की घोर असफलता को कड़े स्वर में मगर सकारात्मक रूप में सामने रखकर एक अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। जहाँ जनता और कमांडोज़ जीते वहीं नेताओं की हार के साथ यह घटना एक और बात दिखा गयी। वह यह कि महाराष्ट्र पुलिस में ऐ टी एस जैसे संगठनों का क्या औचित्य है और उसके अधिकारी कितने सक्षम हैं। आतंकवाद निरोध के नाम पर बना यह संगठन इस घटना के होने की खुफिया जानकारी जुटाने, आतंकवादियों की संख्या और ठिकाने की जानकारी, विस्फोटकों व हथियारों की तस्करी और उनका ताज होटल आदि में जमाव पर रोक लगाने और अंततः गोलीबारी का सामना, इन सभी स्तरों पर लगातार फेल हुआ। सच है कि ऐ टी एस के उच्चाधिकारियों की जान आतंकवादियों के हाथों गयी मगर अफ़सोस कि यह जानें उनसे लड़कर नहीं गयीं। सच है कि उनकी असफलता की वजह से आतंकवादी पुलिस की गाडी से जनता पर गोलियाँ चला सके। हमें यह तय करना होगा कि हमारे सीमित संसाधन ऐसे संगठनों में न झोंके जाएँ जिनका एकमात्र उद्देश्य चहेते अफसरों को बड़े शहरों में आराम की पोस्टिंग देना हो। और यदि नेताओं को ऐसी कोई शक्ति दी भी जाती है तो ऐसे संगठनों का नाम "आतंकवाद निरोध" जैसा भारीभरकम न होकर "अधिकारी आरामगाह" जैसा हल्का-फुल्का हो। टी-वी पत्रकारों ने जिस तरह बीसियों घंटों तक आतंक से त्रस्त रहने के बाद वापस आते मेहमानों को अपने बेतुके और संवेदनहीन सवालों से त्रस्त किया उससे यह स्पष्ट है कि पत्रकारिता के कोर्स में उनके लिए इंसानियत और कॉमन सेंस की कक्षाएं भी हों जिन्हें पास किए बिना उन्हें माइक पकड़ने का लाइसेंस न दिया जाए। जिन उर्दू अखबारों ने आतंकवादियों के निर्दोष जानें लेने से ज़्यादा तवज्जो उनकी कलाई में दिख रहे लाल बंद को दी, उनसे मेरा व्यक्तिगत अनुरोध है की अब वे अकेले ज़िंदा पकड़े गए पाकिस्तानी आतंकवादी मोहम्मद अजमल मोहम्मद आमिर कसब से पूछताछ कर के अपने उस सवाल (मुसलमान हाथ में लाल धागा क्यों बांधेगा भला?) का उत्तर पूछें और हमें भी बताएं। इस सारी घटना में सबसे ज़्यादा कलई खुली नेताओं और अभिनेताओं की। एक बड़े-बूढे अभिनेता को रिवोल्वर रखकर सोना पडा। आश्चर्य है कि वे सो ही कैसे पाये? और अगर सोये तो नींद में रिवोल्वर चलाते कैसे? शायद उनका उद्देश्य सिर्फ़ अपने ब्लॉग पर ज़्यादा टिप्पणियाँ पाना हो। भाजपा के मुख्तार अब्बास नक़वी कहते हैं कि केवल लिपस्टिक वाली महिलाएँ आक्रोश में हैं। शायद उन्हें घूंघट और हिजाब वाली वीरांगना भारतीय महिलाओं से ज़ुबान लड़ाने का मौका नहीं मिला वरना ऐसा बयान देने की हालत में ही नहीं रहे होते। महाराष्ट्र के कांग्रेसी मुख्यमंत्री जी की रूचि अपनी जनता की सुरक्षा से ज़्यादा अपने बेटे की अगली फ़िल्म के प्लाट में थी जभी वह ताज के मुक्त होते ही अपने बेटे और रामगोपाल वर्मा को शूटिंग साईट का वी आई पी टूर कराने निकल पड़े। ऐसा भी सुनने में आया है कि समाजवादी पार्टी के बड़बोले नेता अबू आज़मी एन एस जी की कार्रवाई के दौरान अपने निर्वाचन क्षेत्र के लोगों पर कोई ध्यान दिए बिना अपने विदेशी धनाढ्य मित्र को निकालने के लिए सब कायदा क़ानून तोड़कर ताज में घुस गए। मगर कंम्युनिस्ट पार्टी के एक नेता ने अपनी नेताई अकड़ और बदतमीजी से इन सभी को पीछे छोड़ दिया। इस आदमी ने अपने शब्दों से एक शहीद का ऐसा अपमान किया है कि इसे आदमी कहने में भी शर्म आ रही है। मार्क्सवादी कंम्युनिस्ट पार्टी के नेता और केरल के मुख्यमंत्री वी एस अछूतानंद ने देश के नेताओं के प्रति एन एस जी के शहीद मेजर संदीप उन्नीकृष्णन के पिता के रोष पर प्रतिक्रया व्यक्त करते हुए पत्रकारों से कहा, "अगर वह शहीद का घर न होता तो एक कुत्ता भी उस तरफ़ नहीं देखता।" यह बेशर्म मुख्यमंत्री ख़ुद तो इस्तीफा देने से रहा - इसे चुनाव में जनता ही लातियायेगी शायद!

Saturday, November 29, 2008

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी


स्थिति बहुत दुखद है। सारे देश का आक्रोश फूटा पड़ रहा है। जिन निर्दोषों की जान गयी उनके बारे में तो कहना ही क्या, मगर बाकी घरों में भी गम का माहौल है। सैनकों ने जल्दबाजी करने के बजाय जिस धैर्य और गंभीरता से अपना सारा ध्यान ज़्यादा-से-ज़्यादा जानें बचाने पर रखा वह ध्यान देने योग्य बात रही है। आश्चर्य नहीं कि पंजाब से आतंकवाद का निर्मूलन करने वाले सुपरकॉप के पी एस गिल ने भी बचाव और प्रत्याक्रमण के धीमे परन्तु सजग और दृढ़ तरीके की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

जहाँ सारा देश स्थिति के आँकलन और आगे इस तरह की परिस्थिति से बचने के उपायों के बारे में सोच रहा है वहीं शर्म की बात यह है कि देश के कुछ उर्दू अखबार बुरी तरह से लगकर इस घटना में भी हिन्दू-मुसलमान ही ढूंढ रहे हैं। बी बी सी की एक रिपोर्ट के मुताबिक उर्दू अखबारों की ख़बरों के कई नमूने साफ़-साफ़ बता रहे हैं कि उर्दू पत्रकारिता में किस तरह के लोग घुसे हुए हैं। एक अखबार सवाल करता है, "भला कोई मुसलमान हेमंत करकरे को क्यों मारेगा?" जबकि दूसरा शक करता है, "कहीं यह मालेगांव की जांच से ध्यान हटाने की साजिश तो नहीं?" एक और अखबार ज़्यादा लिखता नहीं है मगर एक आतंकवादी का चित्र छापकर उसकी कलाई में लाल बंद जैसी चीज़ पर घेरा लगाकर दिखाता है। शायद उन सम्पादक जी को बम और हथियार नहीं दिख रहे हैं इसलिए खुर्दबीन लगाकर आतंकी के हाथ में कलावा ढूंढ रहे हैं। लानत है ऐसे लोगों पर जो इस संकट की घड़ी में भी सिर्फ़ यही खोजने पर लगे हैं कि झूठ कैसे बोला जाए और बार बार झूठ बोलकर जनता का ध्यान असली मुद्दों से कैसे भटकाया जाए।

आम जनता में डर भले ही न हो मगर इस बात की चिंता तो है ही कि जम्मू-कश्मीर को शेष भारत जैसा सुरक्षित बनाने के बजाय कहीं बाकी देश भी कश्मीर जैसा न हो जाय। यह भी इत्तेफाक की बात है जिस प्रधानमंत्री के कार्यकाल में जम्मू-कश्मीर में क़ानून-व्यवस्था हाथ से फिसली और वहाँ आतंकवाद पनपा, उसकी मृत्यु भी उसी आतंकवाद की वजह से कोई बड़ी ख़बर न बन सकी।

चिंता स्वाभाविक तो है मगर मेरी नज़र में किसी भी भय का कारण नहीं है। भारत के हजारों साल के इतिहास में हम इससे भी कहीं अधिक भयानक समय से गुज़रे हैं लेकिन भारत के वीरों ने हर कठिन समय का डटकर मुकाबला किया है। कितने देश, संस्कृतियाँ मिट गयीं, कितनी नयी महाशक्तियाँ बनीं-मिटीं मगर हम थे, हैं और रहेंगे - एक महान संस्कृति, एक महान राष्ट्र। हर बुरे वक़्त के बाद हम पहले से बेहतर ही हुए हैं। मुझे इकबाल की कही हुई पंक्तियाँ याद आ रही हैं,

कुछ बात है कि हस्ती, मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन, दौरे ज़मां हमारा।।

यह सच है कि राष्ट्र इस घटना के लिए तैयार नहीं था। निश्चित ही कई चूकें हुई हैं जो कि आतंकवादी विस्फोटकों का इतना ज़खीरा इकठ्ठा कर सके और मिलकर दस ठिकानों पर आक्रमण कर पाये। निरीह-निर्दोष जानें भी गयीं। मगर हमें पूरा भरोसा रखना चाहिए कि हम इस घटना से भी कुछ नया ही सीखेंगे और यह देश दोबारा ऐसा नहीं होने देगा।

जान देने वाले सभी वीरों को नमन! ईश्वर उनके परिवारों को इस कठिन समय को सहने की शक्ति दे!

आवाज़
पॉडकास्ट कवि सम्मेलन - नवम्बर २००८

Sunday, November 9, 2008

गांधी, आइंस्टाइन और फिल्में

हमारे एक मित्र हैं। मेरे अधिकाँश मित्रों की तरह यह भी उम्र, अनुभव, ज्ञान सभी में मुझसे बड़े हैं। उन्होंने सारी दुनिया घूमी है। गांधी जी के भक्त है। मगर अंधभक्ति के सख्त ख़िलाफ़ हैं। जब उन्होंने सुना कि आइन्स्टीन ने ऐसा कुछ कहा था कि भविष्य की पीढियों को यह विश्वास करना कठिन होगा कि महात्मा गांधी जैसा व्यक्ति सचमुच हुआ था तो उन्हें अजीब सा लगा। सोचने लगे कि यह बड़े लोग भी कुछ भी कह देते हैं।

बात आयी गयी हो गयी और वे फिर से अपने काम में व्यस्त हो गए। काम के सिलसिले में एक बार उन्हें तुर्की जाना पडा। वहाँ एक पार्टी में एक अजनबी से परिचय हुआ। [बातचीत अंग्रेजी में हुई थी - मैं आगे उसका अविचल हिन्दी अनुवाद लिखने की कोशिश करता हूँ।]

नव-परिचित ने उनकी राष्ट्रीयता जाननी चाही तो उन्होंने गर्व से कहा "भारत।" उनकी आशा के विपरीत अजनबी ने कभी इस देश का नाम नहीं सुना था। उन्होंने जहाँ तक सम्भव था भारत के सभी पर्याय बताये। फिर ताजमहल और गंगा के बारे में बताया और उसके बाद मुग़ल वंश से लेकर कोहिनूर तक सभी नाम ले डाले मगर अजनबी को समझ नहीं आया कि वे किस देश के वासी हैं।

फिर उन्होंने कहा "गांधी" तो अजनबी ने पूछा, "गांधी, फ़िल्म?"

"हाँ, वही गांधी, वही भारत।" उन्होंने खुश होकर कहा।

कुछ देर में अजनबी की समझ में आ गया कि वे उस देश के वासी हैं जिसका वर्णन गांधी फ़िल्म में है। उसके बाद अजनबी ने पूछा, "फ़िल्म का गांधी सचमुच में तो कभी नहीं हो सकता? है न?"

तब मेरे मित्र को आइंस्टाइन जी याद आ गए।

Wednesday, November 5, 2008

बधाई ओबामा, जय प्रजातंत्र!

ओबामा ने अमेरिका के इतिहास में पहला अश्वेत राष्ट्रपति बनकर एक अनोखा इतिहास रचा है - इसके लिए उन्हें और अमेरिकी जनता के साथ-साथ स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों में विश्वास रखे वाला हर व्यक्ति बधाई का पात्र है.

यह केवल प्रजातंत्र में ही सम्भव हो सकता है कि आप किसी भी धर्म, समुदाय, जाती, दल या विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हुए भी दमन के भय के बिना दूसरी विचारधाराओं से स्वस्थ प्रतियोगिता कर सकते हैं.

जिस तरह पानी के कितने भी तेज़ दवाब में रहने पर भी लकडी का तिनका अंततः तैरकर ऊपर आ ही जाता है उसी प्रकार जनता द्वारा अपने प्रतिनिधि का चुनाव एक ऐसी विचारधारा है जो कि कितने भी अत्याचारों के बावजूद ऊपर आकर ही रहेगी. काश धर्म, सेना या प्रजातंत्र विरोधी विभिन्न वाद या सिद्धांत यथा राजतंत्र, साम्यवाद आदि के नाम पर निरीह जनता को गोलियों से भूनने वाले तानाशाह इस तथ्य को समय रहते समझ पायें.

भारत उपमहाद्वीप का ही उदाहरण लें तो पायेंगे कि यहाँ हमारा प्रजातंत्र चीन और बर्मा की दमनकारी साम्यवादी तानाशाही, पाकिस्तान व बांग्लादेश के आंतरायिक क्रूर सैनिक शासनों और नेपाल व भूटान के राजतन्त्रों से घिरा हुआ था. मगर भारत में जनतंत्र के सफल प्रयोग ने नेपाल, भूटान आदि में इस नए परिवर्तन को प्रेरित किया.

खैर, प्रजातंत्र से इतर तंत्रों पर फिर कभी बात करेंगे. अभी सिर्फ़ इतना ही कि मैं बहुत प्रसन्न हूँ.

कहानी लिखने का मेरा प्रयास "सब कुछ ढह गया" को मैं सफल मानूंगा क्योंकि आप सब ने उसे इतना पसंद किया. सुझावों और संदेशों के लिए आप सब का आभारी हूँ. धन्यवाद!


Tuesday, August 19, 2008

हमारे भारत में

कई बरस पहले की बात है, दफ्तर में इंजिनियर की एक खाली जगह के लिए इन्टरव्यू चल रहे थे। एक भारतीय नौजवान भी आया। नाम से ही पता लग गया कि उत्तर भारतीय है। उत्तर भारत में स्थित एक सर्वोच्च श्रेणी के प्रतिष्ठान् से पढा हुआ था। सो ज़हीन ही होगा।

उस दिन शहर में बारिश हो रही थी। कहते हैं कि पिट्सबर्ग में सूरज पूरे साल में सिर्फ़ १०० दिन ही निकलता है। शायद उन रोशन दिनों में से अधिकाँश में हम छुट्टी बिताने भारत में होते हैं। हमने तो यही देखा कि जब बादल नहीं होते हैं तो बर्फ गिर रही होती है। श्रीमती जी खांसने लगी हैं, लगता है थोड़ी ज्यादा ही फैंक दी हमने। लेकिन इतना तो सच है कि यहाँ बंगलोर जितनी बारिश तो हो ही जाती है।

अपना परिचय देते हुए अपने देश के उज्जवल भविष्य से हाथ मिलाने में हमें गर्व का अनुभव हुआ। हालांकि, भविष्य की बेरुखी से यह साफ़ ज़ाहिर था कि गोरों के बीच में एक भारतीय को पाकर उन्हें कुछ निराशा ही हुई थी। उन्होंने मुझे अपना नाम बताया, "ऐन-किट ***।" मुझे समझ नहीं आया कि मुझ जैसे ठेठ देसी के सामने अंकित कहने में क्या बुराई थी।

इस संक्षिप्त परिचय के बाद अपना गीला सूट झाड़ते हुए वह टीम के गोरे सदस्यों की तरफ़ मुखातिब होकर अंग्रेजी में बोले, "क्या पिट्सबर्ग में कभी भी बरसात हो जाती है? हमारे इंडिया में तो बरसात का एक मौसम होता है, ये नहीं कि जब चाहा बरस गए।"

मैं चुपचाप खड़ा हुआ सोच रहा था कि पिट्सबर्ग में कितनी भी बरसात हो जाए वह सर्वाधिक वर्षा का विश्व रिकार्ड बनाने वाले भारतीय स्थान "चेरापूंजी" का मुकाबला नहीं कर सकता है। क्या हमारे पढ़े लिखे नौजवानों के "इंडिया" को कानपुर या दिल्ली तक सीमित रहना चाहिए?

Thursday, August 14, 2008

आजादी की बधाई (मुक्त या मुफ्त)

आज का दिन हम सब के लिए गौरव का दिन है। आज के दिन ही शहीदों का खून रंग लाया था और हमारा देश वर्षों की परतंत्रता से मुक्त हुआ था। इस शुभ दिन पर आप सब को बधाई।

बहुत पहले कहीं पढ़ा था कि देश की आजादी के बाद जब तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल करियप्पा ने पहली बार स्वतंत्र भारत की सेना को संबोधित किया तब उन्होंने एक बड़ी सभा के सामने पहली बार हिन्दी में बोला।

आज़ादी के अवसर पर दिए जाने वाले भाषण में हमारे स्वतंत्र देश की सेना की नयी भूमिका का ज़िक्र करते हुए उन्होंने यह संदेश देना चाहा कि अब हम स्वतंत्र हैं। कहा जाता है कि अपने पहले हिन्दी भाषण में उन्होंने कहा, "आज हम सब मुफ्त हो गए हैं, मैं भी मुफ्त हूँ और आप भी मुफ्त हैं।"

स्पष्ट है कि उन्होंने अनजाने में ही अंग्रेजी के फ्री (free) का अर्थ मुक्त, आज़ाद या स्वतंत्र करने के बजाय मुफ्त कर दिया था।

Sunday, July 27, 2008

बेंगलूरू और अमदावाद - दंगा - एक कविता

पिछले दो दिनों में देश में बहुत सी जानें गयीं। हम सब के लिए दुःख का विषय है। पीडितों के दर्द और उनकी मनःस्थिति को शायद हम पूरी तरह से कभी भी न समझ सकें लेकिन हम दिल से उनके साथ हैं। हमें यह भी ध्यान रखना है कि देशविरोधी तत्वों के बहकावे में आकर आपस में ही मनमुटाव न फैले। यह घड़ी मिलजुलकर खड़े रहने की है। नफरत के बीज से नफरत का ही वृक्ष उगता है। इसी तरह, प्यार बांटने से बढ़ता है। कुछ दिनों पहले दंगों की त्रासदी पर एक कविता सरीखी कुछ लाइनें लिखी थीं। आज, आपके साथ बांटने का दिल कर रहा है - 

* दंगा * 
प्यार देते तो प्यार मिल जाता 
कोई बेबस दुत्कार क्यूं पाता 

रहनुमा राह पर चले होते 
तो दरोगा न रौब दिखलाता 

मेरा रामू भी जी रहा होता 
तेरा जावेद भी खो नहीं जाता 

सर से साया ही उठ गया जिनके 
दिल से फिर खौफ अब कहाँ जाता 

बच्चे भूखे ही सो गए थक कर 
अम्मी होती तो दूध मिल जाता 

जिनके माँ बाप छीने पिछली बार 
रहम इस बार उनको क्यों आता? 

 ईश्वर दिवंगत आत्माओं को शान्ति, पीडितों को सहनशक्ति, नेताओं को इच्छाशक्ति, सुरक्षा एजेंसियों को भरपूर शक्ति और निर्दोषों का खून बहाने वाले दरिंदों को माकूल सज़ा दे यही इच्छा है मेरी!

Monday, July 21, 2008

पाकिस्तान में एक ब्राह्मण की आत्मा

कुछ वर्ष पहले तक जिस अपार्टमेन्ट में रहता था उसके बाहर ही हमारे पाकिस्तानी मित्र सादिक़ भाई का जनरल स्टोर है। आते जाते उनसे दुआ सलाम होती रहती थी। सादिक़ भाई मुझे बहुत इज्ज़त देते हैं - कुछ तो उम्र में मुझसे छोटे होने की वजह से और कुछ मेरे भारतीय होने की वजह से। पहले तो वे हमेशा ही बोलते थे कि हिन्दुस्तानी बहुत ही स्मार्ट होते हैं। फिर जब मैंने याद दिलाया कि हमारा उनका खून भी एक है और विरासत भी तब से वह कहने लगे कि पाकिस्तानी अपनी असली विरासत से कट से गए हैं इसलिये पिछड़ गए।

धीरे-धीरे हम लोगों की जान-पहचान बढ़ी, घर आना-जाना शुरू हुआ। पहली बार जब उन्हें खाने पर घर बुलाया तो खाने में केवल शाकाहार देखकर उन्हें थोड़ा आश्चर्य हुआ फ़िर बाद में बात उनकी समझ में आ गयी। इसलिए जब उन्होंने हमें बुलाया तो विशेष प्रयत्न कर के साग-भाजी और दाल-चावल ही बनाया।

एक दिन दफ्तर के लिए घर से निकलते समय जब वे दुकान के बाहर खड़े दिखाई दिए तो उनके साथ एक साहब और भी थे। सादिक़ भाई ने परिचय कराया तो पता लगा कि वे डॉक्टर अनीस हैं। डॉक्टर साहब तो बहुत ही दिलचस्प आदमी निकले। वे मुहम्मद रफी, मन्ना डे, एवं लता मंगेशकर आदि सभी बड़े-बड़े भारतीय कलाकारों के मुरीद थे और उनके पास रोचक किस्सों का अम्बार था। वे अमेरिका में नए आए थे। उन्हें मेरे दफ्तर की तरफ़ ही जाना था और सादिक़ भाई ने उन्हें सकुशल पहुँचाने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंप दी।

खैर, साहब हम चल पड़े। कुछ ही मिनट में डॉक्टर साहब हमारे किसी अन्तरंग मित्र जैसे हो गए। उन्होंने हमें डिनर के लिए भी न्योत दिया। वे बताने लगे कि उनकी बेगम को खाना बनाने का बहुत शौक है और वे हमारे लिए, कीमा, मुर्ग-मुसल्लम, गोश्त-साग आदि बनाकर रखेंगी। मैंने बड़ी विनम्रता से उन्हें बताया कि मैं वह सब नहीं खा सकता। तो छूटते ही बोले, "क्यों, आपमें क्या किसी बाम्भन की रूह आ गयी है जो मांस खाना छोड़ दिया?"

उनकी बात सुनकर मैं हँसे बिना नहीं रह सका। उन्होंने बताया कि उनके पाकिस्तान में जब कोई बच्चा मांस खाने से बचता है तो उसे मजाक में बाम्भन की रूह का सताया हुआ कहते हैं। जब मैंने उन्हें बताया कि मुझमें तो बाम्भन की रूह (ब्राह्मण की आत्मा) हमेशा ही रहती है तो वे कुछ चौंके। जब उन्हें पता लगा कि न सिर्फ़ इस धरती पर ब्राह्मण सचमुच में होते हैं बल्कि वे एक ब्राह्मण से साक्षात् बात कर रहे हैं तो पहले तो वे कुछ झेंपे पर बाद में उनके आश्चर्य और खुशी का ठिकाना न रहा।