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Saturday, July 30, 2016

हुतात्मा ऊधमसिंह उर्फ सरदार शेरसिंह

अमर शहीद ऊधमसिंह का जन्म सन् 26 दिसम्बर, 1899 में पंजाब के संगरूर जिले के सुनाम ग्राम में हुआ था। उनके पिता सरदार टहल सिंह निकट के उपाल गाँव के रेलवे क्रासिंग पर चौकीदारी करते थे। उनका जन्म का नाम शेरसिंह था। उनके जन्म के दो वर्ष बाद ही उनकी माँ और फिर सन् 1907 में उनके पिता दिवंगत हो गए। अनाथ शेरसिंह को लेकर उनके बड़े भाई मुक्ता सिंह उर्फ साधू सिंह ने अमृतसर के खालसा अनाथालय में शरण ली। अनाथालय में रहते हुए सन् 1917 में बड़े भाई साधुसिंह के देहांत के बाद सरदार शेरसिंह अपनी पारिवारिक बंधनों से पूर्णतया स्वतन्त्र हो गए। शेरसिंह ने 1918 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की।

शेरसिंह के बाल्यकाल और किशोरावस्था के समय में भारतीय मानस में स्वतन्त्रता की आग तेज़ी से धधक रही थी। जिसे अंग्रेजों की क्रूरता बारंबार हवा दे रही थी। 13 अप्रैल 1919 में जलियाँवाला बाग़ के वैशाखी समारोह में खालसा अनाथालय के अन्य बच्चों के साथ शेरसिंह भी सेवा करने गए थे। उसी दिन बाद में जनरल डायर (Brigadier General Reginald Edward Harry Dyer) द्वारा निहत्थे निर्दोषों को गोलियों से भून दिया गया था। जालियाँवाला बाग के जघन्य हत्याकांड के बाद रात में शेरसिंह पुनः घटनास्थल पर गये और वहाँ की रक्तरंजित मिट्टी माथे से लगाकर इस काण्ड का बदला लेने की प्रतिज्ञा की।

क्रांतिकारी आन्दोलन अपने चरम पर था। सन् 1920 में शेरसिंह अफ्रीका पहुँचे और 1921 में नैरोबी के रास्ते संयुक्त राज्य अमेरिका जाने का प्रयास किया परंतु असफल होने पर वापस भारत लौट आये और विदेश जाने का प्रयास करते रहे। 1924 में वे अमरीका पहुँच गए और वहाँ सक्रिय ग़दर पार्टी में शामिल हो गए। 1927 में वे 25 साथियों और असलाह के साथ चन्द्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह का साथ देने भारत आये। भारत लौटने के कुछ समय बाद उन्हें शस्त्र अधिनियम के उल्लंघन के लिए गिरफ्तार कर लिया गया। अक्तूबर सन् 1931 में वे अमृतसर जेल से छूटे। इस बीच में भारत के क्रांतिकारी परिदृश्य में एक बड़ा भूचाल आ चुका था। उस समय तक स्वाधीनता आंदोलन के कई बड़े नाम चन्द्रशेखर आज़ाद, भाई भगवतीचरण, भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव आदि मृत्यु का वरण कर चुके थे। अमृतसर इस घटना के बाद उन्होंने अमृतसर में साईन बोर्ड पेंट करने की दुकान चलायी जब पहली बार उन्होने अपना नाम "राम मोहम्मद सिंह आजाद" लिखवाया। एक धर्मनिरपेक्ष भारत की भावना का यह एक क्रांतिकारी उद्गार था।

31 जुलाई 1992 को जारी टिकट 
शेरसिंह के नाम से पुलिस रिकार्ड होने के कारण सन् 1933 में अपने नए नाम ऊधमसिंह के साथ आव्रजन का पुनर्प्रयास करके वे जर्मनी गये। फिर इटली, फ़्रांस, स्विट्ज़रलैंड और आस्ट्रिया होते हुए 1934 में इंग्लैंड पहुँच गए। जनरल डायर से बदला लेने का उनका सपना अधूरा ही रहा क्योंकि वह 23 जुलाई, 1927 को आत्महत्या कर चुका था। लेकिन जलियाँवाला हत्याकांड का आदेश देने वाला, पंजाब का तत्कालीन लेफ़्टीनेंट गवर्नर माइकेल ओड्वायर (Lieutenent Governor Michael O' Dwyer) अभी जीवित था। 1912 से 1919 तक पंजाब के गवर्नर रहे ओड्वायर ने जालियाँवाला हत्याकांड को सही ठहराया था। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि जालियाँवाला हत्याकांड ओड्वायर के क्रूर मस्तिष्क की उपज था जिसके लिए उसने डायर को नियुक्त किया था।

ब्रिटेन जाकर वे लंडन में किराये पर रहते हुए माइकल ओड्वायर को मारने का अवसर ढूँढने लगे जो उन्हें 13 अप्रैल 1940 में मिला। कैक्सटन हाल में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और रायल सेंट्रल एशियन सोसायटी के संयुक्त समारोह में ओड्वायर को बोलने आना था। इस सभा में ऊधम सिंह एक पिस्तौल को किताब में छुपाकर पहुँच गए और मंच पर उपस्थित ओड्वायर और उसके साथ उपस्थित सर लूइस, लार्ड लेमिंगटन और भारत के तत्कालीन सचिव लार्ड जेटलैंड पर गोलियां चलाईं। ओड्वायर घटनास्थल पर ही मारा गया जबकि लुईस, लेमिंगटन और जेटलैंड घायल हुये। ऊधमसिंह भागे नहीं, उन्हें घटनास्थल पर ही गिरफ्तार कर लिया गया।

1 अप्रैल 1940 को ऊधमसिंह पर औपचारिक रूप से हत्या का अभियोग लगाया गया। ऊधमसिंह ने आरोपों को सहर्ष स्वीकार किया। उन्होने कहा मैं अपनी मातृभूमि के लिए मरूँ, इससे बढ़कर मेरा सौभाग्य क्या होगा। इस स्पष्ट अभियोग में ऊधमसिंह को मृत्युदंड सुनाया गया और 31 जुलाई 1940 को पेण्टनविल जेल में फांसी दे दी गयी। उन्हें उसी दिन जेल के अहाते में ही दफना दिया गया।

सत्तर के दशक में ऊधमसिंह के अवशेषों को भारत वापस लाने की मुहिम शुरू हुई। भारत सरकार के विशेष दूत के रूप में सुल्तानपुर लोधी के विधायक सरदार साधू सिंह थिंड ब्रिटेन गए। 19 जुलाई, 1974 को ऊधमसिंह के भस्मावशेषों को भारत लाया गया। पाँच दिन उन्हें सुनाम ग्राम में जनता के दर्शनार्थ रखने के बाद उनका दाह संस्कार हुआ और राख को सम्मान सहित सतलज और हरिद्वार की गंगा में प्रवाहित कर दिया गया।

31 जुलाई 1992 को भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाकटिकट भी जारी किया।


Saturday, August 15, 2015

हुतात्मा मदनलाल ढींगरा

ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि मैं अपनी ही माँ से पुनर्जन्म लेता रहूँ और इसी पवित्र कार्य के लिए मृत्युवरण करता रहूँ ~ हुतात्मा मदनलाल ढींगरा
स्वतन्त्रता सेनानी मदन लाल ढींगरा
(18 सितंबर 1883 :: 17 अगस्त 1909)
17 अगस्त 1909 के दिन भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के ज्वलंत क्रांतिकारी मदनलाल ढींगरा को ब्रिटेन के भारत सचिव के विशेष राजनीतिक सलाहकार (political aide-de-camp to the Secretary of State for India) 61 वर्षीय अंग्रेज अधिकारी सर विलियम हट कर्ज़न वाईली (Sir William Hutt Curzon Wyllie) की हत्या के आरोप में फांसी पर लटकाकर मृत्युदंड दिया गया था। इन हुतात्मा का अंतिम संस्कार भी देश की धरती पर नहीं हो पाया लेकिन देशप्रेमियों के हृदय में उनकी याद आज भी अमिट है।

 मदनलाल ढींगरा का जन्म 18 सितंबर, 1883 को अमृतसर में हुआ माना जाता है। उनके पिता रायसाहब डॉ दित्तामल ब्रिटिश सरकार में एक सिविल सर्जन थे। प्रतिष्ठित और सम्पन्न परिवार धन और शिक्षा के हिसाब से उस समय के उच्च वर्ग में गिना जाता था। पिता अपने खान-पान और रहन-सहन में पूरे अंग्रेज़ थे जबकि उनकी माँ भारतीय संस्कारों में रहने वाली शाकाहारी महिला थीं। अफसोस की बात है कि ढूँढने पर भी उनका नाम मुझे अब तक कहीं मिला नहीं। अंग्रेजों के विश्वासपात्र पिता के बेटे मदनलाल को जब भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों से सम्बन्ध रखने के आरोप में लाहौर में विद्यालय से निकाल दिया गया, तो उनके पिता ने मदनलाल से नाता तोड लिया। पढ़ने में आता है कि उन दिनों मदनलाल ने क्लर्क, मजदूर, और तांगा-चालक के व्यवसाय किए। बाद में पंजाब छोडकर कुछ दिन उन्होंने मुम्बई में भी काम किया। अपने बड़े भाई बिहारीलाल ढींगरा (तत्कालीन जींद रियासत के प्रधानमंत्री) की सलाह और आर्थिक सहयोग से सन् 1906 में वे उच्च शिक्षा के लिए 'यूनिवर्सिटी कॉलेज' लंदन में यांत्रिक प्रौद्योगिकी में प्रवेश लेने इंगलेंड चले गये।

लंडन टाइम्स, 19 अगस्त 1909 (सौजन्य: executedtoday.com) 
 लंदन में वे विनायक दामोदर "वीर" सावरकर सहित अन्य देशभक्तों के संपर्क में आए और हथियार चलाने का प्रशिक्षण भी लिया। वे भारतीय विद्यार्थियों के संगठनों 'अभिनव भारत मंडल' और 'इंडिया हाउस' के सदस्य बने। जब भारत से खुदीराम बोस जैसे किशोर सहित अनेक देशभक्तों को फाँसी दिए जाने के समाचार ब्रिटेन पहुँचे तो भारतीय छात्रों के हृदय ब्रिटिश क्रूरता के प्रति क्षोभ से भर गए। मदनलाल ढींगरा ने भी बदला लेने की एक योजना बना ली।

 1 जुलाई 1909 को लंदन के जहाँगीर हाल में 'इंडियन नेशनल एसोसिएशन' तथा 'इंस्टीट्युट आफ इम्पीरियल स्टडीज' द्वारा आयोजित वार्षिक समारोह कार्यक्रम में मदनलाल ढींगरा भी पहुँचे। समारोह का मुख्य अतिथि ब्रिटिश अधिकारी सर वायली अपने भारत विरोधी रवैये के लिए कुख्यात था। मदनलाल ने उस पर अपने रिवाल्वर से गोलियां चला दीं। वाइली की मृत्यु घटनास्थल पर ही हो गई। उसे बचाने के प्रयास में एक पारसी डॉक्टर कोवासजी लाल काका की भी मृत्यु हो गई। कहते हैं कि वाइली को गोली मारने के बाद मदनलाल ने आत्महत्या का प्रयास भी किया लेकिन पकड लिये गए। वायली हत्याकांड की सुनवाई पुराने बेली कोर्ट लंदन में हुई। एक भारतीय नागरिक के ऊपर ब्रिटिश न्यायालय की वैधता को नकारते हुए मदनलाल ढींगरा ने अपनी पैरवी के लिए कोई वकील करने से इंकार कर दिया। 23 जुलाई को इस एकपक्षीय मुकदमे में उन्हें मृत्युदण्ड सुनाया गया जोकि 17 अगस्त सन् 1909 को पैटनविली जेल में फांसी देकर पूरा किया गया। कहते हैं कि मदनलाल ने ब्रिटिश जज को मृत्युदंड के लिए धन्यवाद देते हुए कहा कि वे अपने देशवासियों के बेहतर कल के लिए मरना चाहते हैं।

 मंगल पाण्डेय को अपना आदर्श मानने वाले हुतात्मा मदनलाल ढींगरा को ऊधमसिंह, भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव, और कर्तार सिंह सारभा जैसे क्रांतिकारी अपना आदर्श मानते थे।

 हमारे स्वर्णिम आज की आशा में अगणित देशभक्तों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। आज हम उन्हें केवल श्रद्धांजलि और आदर ही दे सकते हैं लेकिन यह भी सच है कि उनकी प्रेरणा से हम आने वाली पीढ़ियों के लिए भारत और विश्व को आज से अधिक बेहतर भी बना सकते हैं।

मदनलाल ढींगरा के जीवन के नाट्यरूपांतर का एक अंश
संबन्धित कड़ियाँ
प्रेरणादायक जीवन चरित्र
हुतात्मा खुदीराम बोस
चापेकर बंधु - प्रथम क्रांतिकारी
1857 के महानायक मंगल पाण्डेय
शहीदों को तो बख्श दो
मदन लाल ढींगरा - अङ्ग्रेज़ी विकीपीडिया पर

Monday, May 4, 2015

5 मई - क्रांतिकारी प्रीतिलता वादेदार का जन्मदिन


प्रीतिलता वादेदार (5 मई 1911 – 23 सितम्बर 1932)
5 मई को महान क्रांतिकारी व प्रतिभाशाली छात्रा प्रीतिलता वादेदार का जन्मदिन है। आइये इस दिन याद करें उन हुतात्माओं को जिन्होने अपने वर्तमान की परवाह किए बिना हमारे स्वतंत्र भविष्य की कामना में अपना सर्वस्व नोछावर कर दिया।

प्रीतिलता वादेदार का जन्म 5 मई 1911 चटगाँव (अब बंगला देश) में हुआ था। उन्होने सन् 1928 में चटगाँव के डॉ खस्तागिर शासकीय कन्या विद्यालय से मैट्रिक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की और सन् 1929 में ढाका के इडेन कॉलेज में प्रवेश लेकर इण्टरमीडिएट परीक्षा में पूरे ढाका बोर्ड में पाँचवें स्थान पर आयीं। दो वर्ष बाद प्रीतिलता ने कोलकाता के बेथुन कॉलेज से दर्शनशास्त्र से स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण की। कोलकाता विश्वविद्यालय के ब्रितानी अधिकारियों ने उनकी डिग्री को रोक दिया था जो उन्हें 80 वर्ष बाद मरणोपरान्त प्रदान की गयी।

उन्होने निर्मल सेन से युद्ध का प्रशिक्षण लिया था। प्रसिद्ध क्रांतिकारी सूर्यसेन के दल की सक्रिय सदस्य प्रीतिलता ने 23 सितम्बर 1932 को एक क्रांतिकारी घटना में अंतिम समय तक अंग्रेजो से लड़ते हुए स्वयं ही मृत्यु का वरण किया था। अनेक भारतीय क्रांतिकारियों की तरह प्रीतिलता ने एक बार फिर यह सिद्ध किया किया कि त्याग और निर्भयता की प्रतिमूर्तियों के लिए मात्र 21 वर्ष के जीवन में भी अपनी स्थाई पहचान छोड़ कर जाना एक मामूली सी बात है।

प्रीतिलता वादेदार, विकीपीडिया पर

Saturday, June 22, 2013

चाफ़ेकर बंधु - पहले क्रांतिकारी

1857 के स्वाधीनता संग्राम को कुचले हुए अर्ध-शताब्दी नहीं गुज़री थी। कुछ लोग अंग्रेजों की उपस्थिति से संतुष्ट थे, कुछ का गुज़ारा ही भ्रष्ट साम्राज्यवाद से चल रहा था लेकिन कुछ दिलों में क्रान्ति की ज्वाला अभी भी सुलग रही थी।

दामोदर, बालकृष्ण और वासुदेव चापेकर
अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद की नीतियों में लूटपाट के अलावा जबरिया विश्व व्यापार के जरिये अकूत धनोत्पादन भी शामिल था। इसके लिए अनेक अवांछित करों के अलावा भारत की परंपरागत कृषि के बजाय नकदी फसलों का उत्पादन कराया जा रहा था। भोले-भाले किसानों को विदेश में गन्ने की खेती शुरू करने के उद्देश्य से बंधुआ मजदूर बनाकर जलपोतों की तलहटी में ठूँसकर निर्यात किया जा रहा था। देश में अफीम, तंबाकू, नील आदि की खेती के कारण दुर्भिक्ष और भुखमरी सामान्य हो गए थे। क्रूर जमींदारों और सामंतों को सरकारी संरक्षण था लेकिन सामान्यजन का बुरा हाल था। फैक्टरी निर्मित कपड़े को दिये जा रहे सरकारी उकसावे के कारण बुनकरों की हालत खराब थी। कमोबेश यही हाल अन्य शिल्पकारों का भी था।

सन 1897: भारत का बड़ा भाग प्लेग की चपेट में था। अंग्रेज़ शासक अपने शाही ठाठ में डूबे हुए थे। समाचार थे कि बीमारों के इलाज के बजाय, सरकारी महकमा बीमारी सीमित करने के नाम पर पीड़ित क्षेत्रों की बलपूर्वक घेराबंदी (quarantine/isolation) में जूटा था। अनेक नगरों में बीमारों के दमन के लिए सेना बुला ली गई थी। पुणे में असिस्टेंट कलेक्टर चार्ल्स वाल्टर रैंड (Charles Walter Rand, ICS) द्वारा संचालित "स्पेशल प्लेग कमिटी" के अधिकारी डरहम लाइट इनफेंटरी के गोरे सैनिकों के साथ घर-घर में घुसकर सतही लक्षणों के आधार पर परिवार की संपत्ति का नाश करके परिजनों, महिलाओं, बच्चों को पकड़कर ले जाने लगे। सामान जलाए गए, मूर्तियाँ तोड़ी गईं। पवित्र स्थल जूतों और संगीनों से अपवित्र किए गए। शवयात्रा और बिना आज्ञा दाह संस्कार अपराध घोषित कर दिया गया। व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के प्रति अपने प्रेम और प्रतिबद्धता के लिए प्रसिद्ध भारतीय यह सब नहीं सह सके। स्पेशल प्लेग कमिटी, सैनिक दमन, सड़ती लाशों और प्लेग से आसन्न मृत्यु की आशंका के बीच पुणे की जनता तड़प रही थी। गोपाल कृष्ण गोखले ने गोरे सिपाहियों द्वारा किए गए दो बलात्कारों का ज़िक्र भी किया है जिनमें से एक की परिणति आत्महत्या में हुई।

इस दुष्काल मे भी जब अंग्रेजों ने मानव जीवन के प्रति पूरी निष्ठुरता दिखाकर रानी विक्टोरिया के राज्याभिषेक के हीरक जयंती समारोह मनाने शुरू कर दिये तो जनता का खून खौलने लगा। चिंचवाड़ निवासी श्रीमती द्वारका और श्री हरि विनायक चाफेकर के पुत्रों ने ऐसा कुछ करने की ठानी जो दशकों में नहीं हुआ था। 22 जून 1897 को मुख्य सरकारी समारोह की शाम को दो भाई, दामोदर हरि चाफेकर और बालकृष्ण हरि चाफेकर समारोह स्थल के निकट गणेशखिंड रोड (वर्तमान: सेनापति बापट मार्ग) पर एक-एक तलवार और पिस्तौल के साथ खड़े होकर रैंड के आने का इंतज़ार करने लगे।

गाड़ी पहचानने के बाद वे भीड़ के कारण अपनी तलवारें पीछे छोडकर समारोह स्थल की भीड़, बैंड और आतिशबाज़ी के बीच होते हुए भवन के निकट रैंड की गाड़ी के वापस आने के इंतज़ार मे खड़े हुए। गाड़ी आने पर दामोदर ने संकेत दिया, "गोंड्या आला रे!" बालकृष्ण ने गोलियां चलाईं तो गाड़ी पलट गई। भाइयों को पता लगा कि गोली रैंड को नहीं बल्कि उसके अंगरक्षक लेफ्टिनेंट चार्ल्स एगर्टन अरस्ट (Lt. Charles Egerton Ayerst) को लगी थी। इस बार बालकृष्ण की गोली चली और रैंड को लगी जो कि बाद में (3 जुलाई 1897 को) ससून अस्पताल में मर गया।

दामोदर हरि चाफेकर को 18 अप्रैल 1898 को तथा अन्य बंधुओं और साथी महादेव रानाडे को बाद में फांसी दे दी गई। एक बालक विष्णु साठे को दस वर्ष का कठोर कारावास दिया गया। लेकिन इस कृत्य ने विदेशी साम्राज्यवाद के सशस्त्र विद्रोह की बुझती चिंगारी को पुनरुज्ज्वलित कर दिया जो अंततः स्वतंत्र भारत के रूप में चमकी।

हुतात्माओं की जय! अमर हो स्वतन्त्रता!

संबन्धित कड़ियाँ
रामवाड़ी राम मंदिर - क्रांतिवीर चाफ़ेकर बंधु राष्ट्रीय स्मारक
* क्रांतिवीर चापेकरांचे समूहशिल्प पूर्ण होणार तरी कधी?

Monday, July 18, 2011

शहीदों को तो बख्श दो - 5. यही बाकी निशाँ होगा

बहे बहरे-फ़ना में जल्द या रब लाश "बिस्मिल" की
कि भूखी मछलियाँ हैं जौहरे-शम्शीर क़ातिल की
समझकर फूंकना इसकी ज़रा ए दागे नाकामी
बहुत से घर भी हैं आबाद इस उजड़े हुए दिल से
~ पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल
सरदार भगत सिंह
"शहीदों को तो बख्श दो" की पिछली कडियों में आपने स्वतंत्रता पूर्व की पृष्ठभूमि और उसमें क्रांतिकारियों, कॉङ्ग्रेस और अन्य धार्मिक-राजनैतिक संगठनों के आपसी सहयोग के बारे में पढा। आयातित विचारधारा पर पोषित कम्युनिस्ट पार्टी शायद अकेला ऐसा संगठन था जो कॉङ्ग्रेस और क्रांतिकारी इन दोनों से ही अलग अपनी डफ़ली अपना राग बजा रहा था। कम्युनिस्टों ने क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहा, अंग्रेज़ी राज को सहयोग का वचन दिया, और न केवल कॉङ्ग्रेस बल्कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के फारवर्ड ब्लाक और जयप्रकाश नारायण व राममनोहर लोहिया की कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अभियानों का विरोध किया था। तब स्वाधीनता सेनानियों का विरोध करने और बाद में चीन हमले का समर्थन करने वाले आज भी अनेक क्रांतिकारियों को साम्प्रदायिक कहकर उनका अपमान करते रहे हैं।

महात्मा गांधी
वही लोग आजकल भगतसिंह के चित्रों को लाल रंगकर माओ और लेनिन जैसे नरसंहारक तानाशाहों के साथ लगा रहे हैं। भारत की स्वतन्त्रता में अपना सर्वस्व न्योछवर करने वाले क्रांतिकारियों के योगदान को भुलाकर भगतसिंह द्वारा लिखे गये एक तथाकथित पत्र को उछाला जा रहा है। साथ ही ऐसे आलेख लिखे जा रहे हैं जिनसे ऐसा झूठा सन्देश भेजा जा रहा है मानो आस्तिक लोग भगतसिंह के प्रति शत्रुवत हों। "शहीद भगतसिंह दोजख में?" जैसे भड़काने वाले शीर्षक के साथ एक बार फिर यही प्रयास किया गया है। उस आलेख पर भगतसिंह के उद्धृत पत्र के बारे में जानकारी मांगने पर पहले लम्बी गोल-मोल बहस करने के बाद मुकद्दमा करने की सलाह दी गयी है।
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शहीदत्रयी पोस्टर - 1933
पिछली कड़ियाँ

1. भूमिका - प्रमाणिकता का संकट
2. क्रांतिकारी - आस्था, राजनीति और कम्युनिज़्म
3. मैं नास्तिक क्यों हूँ?
4. बौखलाहट अकारण है?

दिनेशराय द्विवेदी का आलेख: "भगतसिंह दोजख में?"
दिनेशराय द्विवेदी का प्रश्न: क्या नास्तिक होने से भगतसिंह नर्क में होंगे?"

आइये चलते हैं, प्रश्न के उत्तर ढूंढने:-
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मैं व्यक्तिगत जीवन में विश्वास रखता था परंतु अब (मृत्युदण्ड की घोषणा पर) यह भावना मेरे दिलो-दिमाग़ से निकल गयी है1
~ सरदार भगतसिंह
वकील साहब, आपने भले ही मेरे सवाल का जवाब न दिया हो, मैं आपके प्रश्न का उत्तर अवश्य दूंगा। हाँ, यह जवाब देने में मुझे तकलीफ़ बहुत हो रही है क्योंकि मैं आपका आदर करता हूँ और साथ ही निस्वार्थ कार्य करने वाले चिंतकों, वैज्ञानिकों, संतजनों, क्रांतिकारियों आदि को जाति-धर्म, देश-काल, आस्था-अनास्था से ऊपर रखता हूँ। उन्हें अपने-पराये की ढेरियों में छाँटना या उनकी आस्था-अनास्था का लाभ अपनी विचारधारा के प्रचार के लिये उठाना तो दूर, ऐसा करते आलेखों का उत्तर देना भी मेरे लिये सहज नहीं है। फिर भी चूँकि जवाब देना आवश्यक है इसलिये एक भारतवंशी होने का कर्तव्य समझकर यह प्रयास कर रहा हूँ, ध्यान से सुनिये मेरा जवाब चार बिंदुओं में।

आज़ाद हिन्द फ़ौज़ सिंगापुर का शहीद स्मारक
* पहले तो यह कि यह अकाट्य तथ्य है कि भगतसिंह लम्बे समय तक सिख थे, शायद आर्यसमाजी भी थे, और लगभग बीस वर्ष की आयु तक निश्चित रूप से आस्तिक थे। अगर भगवान की कृपा से आपका तथाकथित पत्र सच सिद्ध हो जाय तब भी इतना ही माना जा सकता है कि बाद के एकाध वर्षों में वे नास्तिक हो गये थे, लेकिन धर्मविरोधी कभी नहीं। अर्थ यह हुआ कि अपने जीवन के अधिकांश भाग में वे आस्तिक थे। तब (आस्तिक रहते हुए) क्या वे कोई कमतर इंसान थे? वे एक स्वतंत्रमना विचारक थे, आस्तिक थे और आस्तिक होते हुए भी ईश्वर के प्रति अपनी स्थापित धारणा को सहजता से तोड़ सके जो कि एक बुद्धिमान व्यक्ति का गुण है। बुद्धिमान व्यक्ति आस्तिक हों या नास्तिक, बुद्धिमान ही रहते हैं, और उनके प्रतिलोम किसी भी पक्ष में हों, रट्टू तोते की तरह कुछ सीखते नहीं। एक पुरानी भारतीय कहावत है, चमचे किसी भी दाल में पडे हों, उसका स्वाद नहीं ले सकते। ज्ञानी लोग हमेशा बदलने को तैयार रहते हैं। विचारवान लोगों की यही पहचान है, वे सीखते हैं, बदलते हैं, मगर अपने और दूसरों के बीच आस्तिक-नास्तिक या किसी अन्य भेद की दीवार नहीं खड़ी करते। कम्युनिस्टों का “माय वे, ऑर हाइवे” या “मेरी मान या गोली खा” का सिद्धांत बुज़दिलों और कमअक्लों के बीच चलता होगा परंतु वीर और बुद्धिमानों के बीच यह तानाशाही विचार कहीं टिकता नहीं है। अपने खुद के बीच ही बीसियों फ़िरके बनाने वाला कम्युनिस्ट मज़हब “पुत्रोहम पृथिव्या” मानने वाले किसी उदारमना व्यक्तित्व के मन को कहाँ समझ पायेगा?

महामना - क्रांतिकारियों के आदर्श व शुभेच्छु
भोले-भाले नास्तिकों की आड़ में छिपे कुछ खुर्राँट धर्मद्रोहियों को पहचानकर आज मैं शायद नास्तिकों के समूह में गिना जाना पसन्द भले न करूँ परंतु आस्था को मैं आज भी व्यक्तिगत विषय ही समझता हूँ। सरदार भगतसिंह 23 वर्ष की अल्पायु में शहीद हो गये और तब तक वे सिख, आर्यसमाजी, आस्तिक, नास्तिक सभी हो चुके थे। रमता जोगी, बहता पानी ... । यदि वे आगे जीवित रहते तो क्या होते, क्या सोचते, क्या मानते और क्या करते यह किसी के भी अनुमान का विषय हो सकता है। इतना पक्का है कि वे जो भी होते, अपनी व्यक्तिगत आस्था (या अनास्था) को न दूसरों पर थोपते और न ही उसका प्रयोग अपने को बेहतर और दूसरों को नीचा दिखाने में करते। आप अपनी आस्था के लिये उनका, मेरा और अन्य किसी भी ऐसे व्यक्ति का अपमान करने को दृढप्रतिज्ञ हैं जो आपसे असहमत है। कम्युनिज़्म जैसी नियंत्रणवादी विचारधाराओं के प्रवर्तकों के लिये यह स्वाभाविक भी है। परंतु स्वतंत्र चिंतक, देशप्रेमी और स्वतंत्रता सेनानी ऐसा कभी नहीं करते। जब आस्तिक थे तब भी नहीं किया और यदि नास्तिक होते तब भी नहीं करते। ज्ञातव्य है कि वे जब आज़ाद के साथ रहे, उनकी प्रार्थना में सादर सम्मिलित होते थे। आपके हिसाब से तो तब वे नास्तिक थे।


कानपुर में संरक्षक - विद्यार्थी

* दूसरी बात यह कि भगतसिंह की जान बचाने के लिये जान लड़ाने वाले महामना मदन मोहन मालवीय जैसे जिन महापुरुषों का ज़िक्र पहले किया गया है उनकी आस्था किसी से छिपी नहीं है। भगतसिंह जिस 'समाजवादी' संगठन के सदस्य थे उसके संस्थापक पंडित रामप्रसाद बिस्मिल "बोल्शेविकों की करतूत" और "दि ग्रेण्डमदर ऑफ रसियन रिवोल्यूशन" जैसी पुस्तकों के लेखक-अनुवादक होते हुए भी एक कम्युनिस्ट नहीं, बल्कि त्रिकाल सन्ध्या करने वाले एक आस्तिक थे। उसी समाजवादी संगठन के एक सदस्य ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की थी। और उसी समाजवादी संगठन का पुनर्गठन करने वाले और हिन्दू धर्म में अपनी आस्था के लिये प्रसिद्ध "पन्डितजी" चन्द्रशेखर "आज़ाद" जिस दिन इस संसार से "आज़ाद" हुए उस दिन पुलिस मुठभेड से ठीक पहले वे भगतसिंह की जान बचाने की गरज से ही जगह-जगह अपनी सायकिल दौड़ा रहे थे। और तो और, जिन लाला लाजपत राय की मौत का बदला भगतसिंह ने लिया और हँसते हँसते फ़ाँसी चढ़े वे पंजाब केसरी कोई नास्तिक न होकर आर्य समाज और हिन्दू महासभा से सम्बद्ध थे।

लाला लाजपत राय की मौत का बदला
* सरल शब्दों में कहूँ तो भगतसिंह ने एक आस्तिक की मौत का बदला लेने के लिये मृत्यु का वरण किया और एक आस्तिक के नेतृत्व में असेम्बली में बम फ़ेंका। नास्तिक कम्युनिस्टों ने उनके कामों से पल्ला झटकते हुए विदेशी सरकारों के साथ गुपचुप सहयोग किए। जबकि भगतसिंह की जान बचाने की सारी भागदौड़ आस्तिकों ने की और परम आस्तिक “आज़ाद” उनकी रक्षा के प्रयास में ही शहीद हुए। जेल में भी वे एक यज्ञोपवीतधारी आस्तिक “बिस्मिल” की जीवनी पढते थे। जेल से बाहर आये उनके सामान में कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो नहीं बल्कि गीता की प्रति आज भी मौज़ूद है। फिर उनकी तथाकथित अनास्था को दोज़ख/नर्क से जोडने वाला कोई आस्तिक नहीं देशद्रोही ही होगा। मैं कभी भी ऐसा नहीं करूँगा और न ही इसे आसानी से सह सकूँगा।

मैडम भीकाजी कामा
मतलब यह कि स्त्री हों या पुरुष, आस्तिक हों या नास्तिक सभी क्रांतिकारी उस समय भी "वसुधैव कुटुम्बकम" की धारणा वाले होते थे, किसी आयातित, नियंत्रणवादी, घटिया, फ़िरकापरस्त, संकीर्ण, स्वार्थी, और नियंत्रणवादी मनोवृत्ति के तो कभी नहीं। न वे तालिबानियों व कम्युनिस्टों की तरह दूसरे लोगों द्वारा धर्म-पालन के विरोधी थे और न ही व्यक्तिगत स्वतंत्रता, व्यक्तिगत सम्पत्ति और मानवाधिकारों के। कम्युनिज़्म के टिपिकल अतिवादी सरकारी पूंजीवाद से भी उनका कोई लेनादेना नहीं था। भारतीय क्रांतिकारियों का क़द छोटा करके उनका अपमान करने का प्रयास करने वाले यह बातें भी आगे के लिये भी ध्यान में रखें।

बलप्रयोग से बचने की बात "काल्पनिक" अहिंसा है। हमारे नये आन्दोलन की प्रेरणा गुरु गोविन्द सिंह, शिवाजी, कमाल पाशा, वाशिंगटन, लाफ़ायत, गैरीबाल्डी, रज़ा खाँ और लेनिन हैं। ~ भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त (दिल्ली सेशंस कोर्ट का 8 जून 1929 का बयान)
* और अब अंतिम बात: भगतसिंह के पहले दोज़ख़ और फिर नर्क में जाने की बात कोई और आस्तिक या नास्तिक नहीं कर रहा है, वह तो आप कर रहे हैं। मैंने किसी आस्तिक या नास्तिक (धर्मविरोधी ऐक्सक्लूडिड) के ब्लॉग पर भगतसिंह के नर्क या दोज़ख जाने का वाक्यांश नहीं देखा। यह बात पहली बार आपके ब्लॉग पर ही देखी है। क्या आप स्पष्ट बतायेंगे कि आपसे पहले किस आस्तिक ने एक क्रांतिकारी के लिये ऐसी बात कही थी? आज़ाद ने, महामना ने, पंजाब केसरी ने, टिळक ने, विनोबा ने, गांधी ने या खान अब्दुल गफ्फार खाँ ने? आपने अपने आलेख का जो शीर्षक (शहीद भगत सिंह दोज़ख में?) दिया है वह आस्तिकों और नास्तिकों के साथ-साथ शहीदे-आज़म एवम् अन्य क्रांतिकारियों और सम्पूर्ण भारत राष्ट्र के लिये भी सम्माननीय नहीं है। मैं नहीं जानता कि आपका प्रयोजन क्या था लेकिन यह स्पष्ट है कि एक द्वेषपूर्ण शीर्षक में सरदार भगतसिंह का नाम जोड़ना सही नहीं है।

पंजाब केसरी के घाव
भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अवश्य है क्योंकि यहाँ कम्युनिज़्म नहीं, लोकतंत्र है। लेकिन जनता के पास सोचने समझने की शक्ति और अधिकार दोनों हैं। हज़ारों वर्षों के हमलों के बावज़ूद भारतीय जनमानस की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कोई भी कभी छीन नहीं सका है और भारतभूमि पर ऐसा आगे भी कभी हो नहीं सकता, यह बात आज मैं स्पष्ट कहना चाहता हूँ। लेकिन साथ ही यह भी याद रहे कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब एक ऐजेंडा के तहत जनता की आस्था और भावनाओं को चोट पहुँचाते रहना नहीं होता है। नज़रन्दाज़ करने वालों की सहनशीलता को उनकी कमज़ोरी समझना भलमनसाहत तो नहीं ही है, बुद्धिमानी भी नहीं है क्योंकि सहनशक्ति की भी एक सीमा होती है। शहीद किसी पार्टी की बपौती नहीं बल्कि सम्पूर्ण राष्ट्र के आदर्श हैं।
वन्दे मातरम्!

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सरदार भगत सिंह - कुछ महत्वपूर्ण तथ्य
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  • हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन में भगत सिंह का नाम "रणजीत" था। कानपुर के "प्रताप" में वे "बलवंत सिंह" के नाम से तथा दिल्ली के "अर्जुन" में "अर्जुन सिंह" के नाम से लिखते थे।
  • शहीद भगत सिंह ने जेल में रहते हुए अपने पिता से लोकमान्य टिळक की "गीता रहस्य" और नेपोलियन की जीवनी मंगवायी थीं।
  • शहीद भगत सिंह संग्रहालय में आज भी भगतसिंह से संबन्धित अन्य बहुत सी चीज़ों के साथ प्रथम लाहौर षडयंत्र काण्ड की एक प्रति, भगतसिंह की हस्तलिखित पंक्तियाँ, सॉंडर्स काण्ड से सम्बन्धित सामान और नृसिंहदेव शास्त्री की भगतसिंह द्वारा हस्ताक्षरित गीता की प्रति भी उपलब्ध है।
  • महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर भगतसिंह ने 1921 में स्कूल छोड़ दिया।
  • भगतसिंह ने लाहौर में 'नौजवान भारत सभा' का गठन किया था।
  • लाहौर में लाला लाजपत राय के 'पंजाब नेशनल कॉलेज' में सरदार भगतसिंह यशपाल, भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से मिले।
  • लाला लाजपतराय की मौत का बदला लेने के लिये लाहौर में बुलायी गई बैठक में अध्यक्ष दुर्गा भाभी स्वयं ही पुलिस अधीक्षक जेए स्कॉट को मारने का काम लेना चाहती थीं परंतु अन्य क्रांतिकारियों ने यह काम उन्हें देना स्वीकार नहीं किया।
  • मुकद्दमे के 457 गवाहों में से पाँच शहीदत्रयी के पूर्व-साथी थे: जय गोपाल, फणीन्द्र नाथ घोष, मनमोहन बनर्जी, हंसराज वोहरा, और ललित मुखर्जी।
  • बाद में क्रांतिकारी योगेन्द्र शुक्ल के भतीजे और क्रांतिकारी वैकुण्ठ शुक्ल (1907–1934) ने फ़णीन्द्रनाथ घोष की हत्या करके मृत्युदण्ड का वरण किया।
  • मोंटगोमरी के पुलिस प्रमुख खान बहादुर अब्दुल अज़ीज़ के अनुसार नौजवान भारत सभा के बाबू सिंह ने भगत सिंह के खिलाफ़ गवाही देने के लिये 1,000 रुपये की मांग की थी।
  • मुकद्दमे के पाँच अभियुक्तों को बरी किया गया था: आज्ञा राम, सुरेन्द्र पाण्डेय, अजय घोष, जतीन्द्र नाथ सान्याल और देसराज।
  • प्रेम दत्त और कुन्दन लाल को क्रमशः पाँच व सात वर्ष का कारावास हुआ। किशोरीलाल, महाबीर सिंह, बिजोय कुमार सिन्हा, शिव वर्मा, गया प्रसाद, जयदेव कपूर, और कमलनाथ तिवारी को आजीवन कारावास की सज़ा हुई।
  • 300 पृष्ठ के निर्णय में शहीदत्रयी को मृत्युदण्ड मिला और बटुकेश्वर दत्त को पहले ही आजीवन कारावास हुआ था।
  • सुखदेव ने गांधी जी को एक खुला पत्र लिखा जिसे उनके भाई मथुरादास ने महादेव देसाई को पहुँचाया। गांधी जी ने सुखदेव की इच्छा के अनुसार उस पत्र का उत्तर एक जनसभा में दिया था।
  • मथुरादास थापर का विश्वास था कि क्रांतिकारियों का साथी और हिन्दी लेखक यशपाल एक पुलिस मुखबिर था।
  • यशपाल ने अपने संस्मरण में मुखबिरी के शक़ पर चुपके से भगवतीचरण वोहरा के सामान की तलाशी लेने की बात कही है और आज़ाद की मृत्यु के बाद अपने को संगठन का चीफ़ बताया है। 
  • सरदार भगतसिंह से केवल एक वर्ष बड़े महान क्रान्तिकारी चन्द्रशेखर आज़ाद उनके संरक्षक और प्रगाढ़ मित्र बन गये थे। लाला लाजपत राय की हत्या का बदला लेने के लिये सुखदेव व राजगुरु के साथ किया गया 'सांडर्स हत्याकाण्ड' उन्हीं के निर्देशन और संचालन में बना संयुक्त कार्यक्रम था।
  • भगतसिंह एवं बटुकेश्वर दत्त द्वारा 8 अप्रैल 1929 को किया गया असेंबली बम काण्ड भी चन्द्रशेखर आज़ाद की अध्यक्षता में हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसियेशन (पहले "हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन") के तत्वावधान में ही हुआ।
  • चन्द्रशेखर आज़ाद असेम्बली में बम फ़ेंकने के पक्ष में नहीं थे परंतु HRSA के सेनापति होने के बावजूद उन्होंने अपने साथियों की इच्छा को माना। तब भी वे बम फ़ेंककर गिरफ़्तार हो जाने के विरोधी रहे और असेम्बली के बाहर कार लेकर क्रांतिकारियों का इंतज़ार भी करते रहे थे। काश उनके साथी उनकी बात मान लेते!
  • चन्द्रशेखर आज़ाद ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी बनाई जो भगवतीचरण वोहरा की असमय मृत्यु हो जाने के कारण असफल रही।
  • चन्द्रशेखर आज़ाद के अनुरोध पर इन्हीं क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा ने 'दि फिलॉसफी ऑफ़ बम' आलेख तैयार किया था।
  • "हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन" के संस्थापक पण्डित रामप्रसाद "बिस्मिल" लिखित "मेरा रंग दे बसंती चोला" सरदार भगतसिंह का प्रिय गीत था।
  • तीनों क्रांतिकारियों की जान बचाने के लिये नेताजी बोस, पंडित नेहरू, महामना जैसे नेता लगातार प्रयास कर रहे थे।
  • अपने वकील प्राणनाथ मेहता से अंतिम मुलाक़ात में अपनी इच्छा पूछे जाने पर भगत सिंह ने कहा था, "मैं इस देश में पुनर्जन्म लेना चाहता हूँ ताकि (इसकी) सेवा कर सकूँ।2" साथ ही उन्होंने पण्डित नेहरू और नेताजी बोस का धन्यवाद भी दिया।
  • अपने साथियों के बचाने के प्रयास में सब ओर से निराश होकर 27 फरवरी 1931 को चन्द्रशेखर "आज़ाद" इलाहाबाद में "आनन्द भवन" गये थे और वहाँ से निकलने के बाद एक मुखबिर की निशानदेही पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया था। उसी दिन आज़ाद इस दुनिया से आज़ाद हो गये थे। इस प्रकार वे भगतसिंह से पहले ही शहीद हो गये। ऐसा लगता है कि उनके देहावसान पर क्रांतिकारियों के पक्ष में उमड़ी जन-भावनाओं को देखकर ही ब्रिटिश प्रशासन ने शहीद-त्रयी की फ़ांसी समय से पहले देने का निर्णय लिया था।
मानव जीवन की पवित्रता के प्रति हमारी पूर्ण श्रद्धा है, हम मानव जीवन को पवित्र मानते हैं ...3
~ सरदार भगतसिंह
[समाप्त]

1मार्टिर - कुलदीप नय्यर [कम्युनिस्ट विचारों के उलट, भारतीय क्रांतिकारी सदैव व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समर्थक रहे हैं। ब्रिटिश शासन से उनकी लडाई में राजनीतिक स्वतंत्रता के साथ-साथ मानसिक और वैचारिक स्वतंत्रता की बात भी प्रमुख थी।]
2मार्टिर - कुलदीप नय्यर [ध्यान दीजिये, भगतसिंह अपने लिये पुनर्जन्म की बात कर रहे हैं, उसका विरोध नहीं, उनके सामान में गीता मौजूद है, कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो नहीं।]
3शहीद भगत सिंह: क्रांति में एक प्रयोग - कुलदीप नय्यर (मानव-रक्त से सनी कम्युनिस्ट क्रांतियों के विपरीत भगत सिंह मानव जीवन की पवित्रता के प्रति अपनी पूर्ण श्रद्धा व्यक्त कर रहे हैं।)

[मुद्रित सामग्री विभिन्न स्रोतों से देशभक्त मित्रों की सहायता से साभार ली गयी है। पत्रों के चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: FDC Photos by Anurag Sharma]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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शहीदों को तो बख्श दो
* भगतसिंह के घर की तीर्थयात्रा
* जेल में गीता मांगी थी भगतसिंह ने
* The making of the revolutionary
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* जिन्होंने समाजवादी गणतंत्र का स्वप्न देखा
* काकोरी काण्ड
* The Trial of Bhagat Singh - India Law Journal
* Partial list of people executed by British India

Saturday, July 16, 2011

शहीदों को तो बख्श दो : 4. बौखलाहट अकारण है?

चंद्रशेखर आज़ाद के नेतृत्व में 8 अप्रैल 1929 को सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ‘पब्लिक सेफ्टी’ और ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ के विरोध में ‘सेंट्रल असेंबली’ में बम फेंका।

1931 की पुस्तक
"शहीदों को तो बख्श दो" की पिछली कडियों में आपने स्वतंत्रता पूर्व की पृष्ठभूमि और उसमें क्रांतिकारियों, कॉंग्रेस और अन्य धार्मिक-राजनैतिक संगठनों के आपसी सहयोग के बारे में पढा। स्वतंत्रता-पूर्व के काल में अपनी आयातित विचारधारा पर पोषित कम्युनिस्ट पार्टी शायद अकेला ऐसा संगठन था जो कॉंग्रेस और क्रांतिकारी इन दोनों से ही अलग अपनी डफ़ली अपना राग बजा रहा था। कम्युनिस्टों ने क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहा, अंग्रेज़ी राज को सहयोग का वचन दिया, और न केवल कॉंग्रेस बल्कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की फारवर्ड ब्लाक और जयप्रकाश नारायण व राममनोहर लोहिया की कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अभियानों का विरोध किया था। तब स्वाधीनता सेनानियों का विरोध करने के बाद चीन हमले का समर्थन करने वाले आज भी अनेक क्रांतिकारियों को साम्प्रदायिक कहकर उनका अपमान करते रहे हैं। वही लोग आजकल भगतसिंह के चित्रों को लाल रंगकर माओ और लेनिन जैसे नरसंहारक तानाशाहों के साथ लगाने के साथ-साथ ऐसे आलेख लिख रहे हैं जिनसे ऐसा झूठा सन्देश भेजा जा रहा है मानो आस्तिक लोग भगतसिंह के प्रति शत्रुवत हों ...


1. भूमिका - प्रमाणिकता का संकट
2. क्रांतिकारी - आस्था, राजनीति और कम्युनिज़्म
3. भाग 3 - मैं नास्तिक क्यों हूँ

अब आगे :-
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"हमारे तुच्छ बलिदान उस श्रृंखला की कडी मात्र होंगे जिसका सौन्दर्य सहयोगी भगवतीचरण वर्मा के अत्यन्त कारुणिक किन्तु बहुत ही शानदार आत्म त्याग और हमारे प्रिय योद्धा 'आजाद' की शानदार मृत्यु से निखर उठा है।" ~ सरदार भगत सिंह (3 मार्च 1931 को पंजाब के गर्वनर के नाम संदेश में)
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु
"शहीद भगतसिंह दोजख में?" जैसे भड़काने वाले शीर्षक के साथ एक बार फिर यही प्रयास किया गया है। भगतसिंह के एक तथाकथित पत्र के नाम पर आस्तिकों को लताड़ा गया और नास्तिकों को ऐसा जताया गया मानो तमाम आस्तिक (70% भारतीय? या अधिक?) शहीद भगतसिंह के पीछे पडे हों।

मैंने पहले भी कहा है कि हुतात्माओं का प्रणप्राण से आदर करने वालों को इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता कि सरदार भगतसिंह जीवन भर आस्तिक रहे या अपने अंतिम दिनों में नास्तिक हो गये। तो भी, उन्हें नास्तिक जतलाकर यह बात झुठलाई नहीं जा सकती कि उन्होंने जीवनभर अनेकों आस्तिक क्रांतिकारियों के साथ मिलकर काम किया है, उनसे निर्देश लिये हैं और उनके साथ प्रार्थनायें गायी हैं। उनका आस्तिकों से कोई मतभेद नहीं रहा। आस्था उनके लिये एक व्यक्तिगत विषय थी जैसे कि किसी भी समझदार व्यक्ति के लिये है। उनकी नास्तिकता का अर्थ न तो आस्तिकों का विरोध था न उनकी आस्था की खिल्ली उडाना और न ही उन्हें अपना विरोधी या मूर्ख साबित करना। पुनः, उनके व्यक्तिगत विश्वास उनके नितांत अपने थे। वे अविवाहित भी थे, क्या सिर्फ़ इतने भर से दुनिया भर के अविवाहित श्रद्धेय हो जायेंगे और विवाहित निन्दनीय?

चन्द्रशेखर आज़ाद
उत्सुक व्यक्ति हूँ, अफवाहें फैलाने के बजाय प्रमाण देखकर काम करता हूँ। सोचा कि उस पत्र के बहाने शहीदे-आज़म को अपशब्द (दोज़ख) कहने वालों से मूल पत्र की जानकारी ही ले लूँ। यह दिमाग़ में आया ही नहीं कि तर्क का व्यवसाय (वकालत) करने और अपने ब्लॉग पर प्रमाण के दर्शन (सांख्य और नास्तिकता) की कसम खाने वाले आदरणीय द्विवेदीजी को यह बात अखर जायेगी। मुद्दे से भटकाने वाली गोल-मोल बहसों (बीसियों टिप्पणियाँ) में अपनी अरुचि दिखाने के बावजूद मूल पत्र का कोई अता-पता देने के बजाये टिप्पणियों के द्वारा मुझ यह आरोप लगाया गया कि मैंने एक शहीद पर उंगली उठाई है। एक सरल से सवाल का जवाब न देकर बौखलाहट भरी टिप्पणियों से यह तो स्पष्ट हो गया कि आलेख के लेखक और उखड़े टिप्पणीकार ने न तो खुद कभी वह पत्र देखा है और न तब तक इस बात का सबूत मांगने का प्रयास किया था कि ऐसा कोई पत्र कभी था। बिना देखे-परखे एक तथाकथित पत्र का प्रचार-प्रसार करना अपने आप में अन्ध-श्रद्धा या अन्ध आस्तिकता (blind faith) ही कहलायेगी। नास्तिकता की बात करने वालों को दूसरों से अपनी बात पर साक्ष्यहीन आस्था करने की आशा करने के बजाय बात कहने से पहले सबूत रखना अपेक्षित ही है। लेकिन इसका उल्टा होते देखकर मैंने आश्चर्य किया कि आस्तिकों द्वारा ग्रंथों पर आँख मूंदकर विश्वास कर लेने की खिल्ली उडाने वाले ब्लॉगर (और एक अति-क्रोधित टिप्पणीकार) ने खुद कैसे ऐसे पत्र पर आंख मूंदकर विश्वास किया, तो कैसे उत्तर मिले इसके कुछ उदाहरण निम्न हैं:

बिस्मिल
"एक मिनट के लिए मान लेते हैं कि वह लेख उन्होंने नहीं लिखा तब भी क्या फर्क पड़ जाता है? उसमें ऐसा क्या लिखा है? उसके सवालों के जवाब हैं? सारा खेल समझ में तो आ ही रहा है। अन्त में आप मुकद्दमा ठोंकिए, हम मुफ़्त में मशहूर हो जाएंगे। क्यों?"

और

"भगतसिंह के जिस लेख को सारी दुनिया प्रामाणिक मानती है। आप उसे गलत सिद्ध करना चाहते हैं तो इस खोज में जुट जाइए। आप घर बैठे उसे गलत मानते हैं तो मानते रहिए। इस से किसी को क्या फर्क पड़ता है? जो सच है उसे झुठलाया नहीं जा सकता। फिर भी आप चाहते हैं कि उसे चुनौती दी जाए तो भारत की अदालतें इस मुकदमे को सुनने को तैयार हैं। भारत आइए और एक मुकदमा अदालत में मेरे और चंदन जी और उन तमाम लाखों लोगों के विरुद्ध पेश कीजिए जो इस आलेख को प्रामाणिक मानते हैं।"
और
"सब लोग गलत हैं और रामायण आदि सारे ग्रंथ जिनका समय भी पता नहीं तो लेखक की बात कौन करे कि जो माने जाते हैं वही हैं। लेकिन अब आपसे जवाब-सवाल मैं भी नहीं करना चाहता, आप द्विवेदी के सुझाव से अदालत में मुकद्दमा ठोकिए। तुरन्त और कुछ लिख देता हूँ।"
आदि ....

लाल, बाळ व पाल
पिछली कड़ियों में मैं स्पष्ट कर चुका हूँ कि निहित स्वार्थ और पार्टी के लाभ-हानि के आधार पर शहीदों की दो ढेरियाँ बनाने का काम भगतसिंह को नास्तिक बनाने पर समाप्त नहीं होता बल्कि इसके आगे उनके श्वेत-श्याम चित्र को लाल रंग में रंगने, उनके चित्र पर कम्युनिस्ट तानाशाहों के चित्र आरोपित करने, उनके बहाने संसार के सारे आस्तिकों (आस्तिक होने के नाते अधिकांश क्रांतिकारी स्वतः शामिल हुए) को लपेटने, धार्मिक प्रवृत्ति के क्रांतिकारियों के कृतित्व को कम करके आँकने और जताने जैसे स्वरूप में बढता ही जाता है।

मूल पत्र की जानकारी मांगते ही मुकद्दमा करने की दलील दी जाने लगी! हाँ भाईसाहब मुकद्दमे का समय आने पर शायद वह भी हो, पर फ़िलहाल तो यही चिंता है कि अदालत पर बोझ बढने से वकीलो का कारोबार भले ही चमके, ग़रीबों के ज़रूरी मुकद्दमों की तारीखें ज़रूर आगे बढेंगी। पहले ही मुकद्दमों के बोझ से दबी अदालतों को अपने प्रचार के उद्देश्य से प्रयोग करके ग़रीब मज़दूरों को न्याय मिलने में देरी की चिंता न करना न्याय की अवमानना भले ही न हो अनैतिक विचार तो है ही। कमाल है, आप पहले तो उकसाने वाला शीर्षक लिखें जिसका आधार एक तथाकथित पत्र को बनाकर उस पत्र का प्रचार करेंगे और अगर कोई व्यक्ति उस पत्र की जानकारी मांगें तो उसे भगतसिंह पर आक्षेप बतायें, " ... कोई भगतसिंह या किसी आदर्श व्यक्ति पर उंगली उठाए तो ..." कोई बतायेगा कि भगतसिंह कब से इनके प्रवक्ता हो गये और इनके आलेख के बारे में प्रश्न करना भगत सिंह पर उंगली उठाना कैसे हुआ?

महामना मदन मोहन मालवीय
मज़ेदार बात यह है कि मैंने तथाकथित पत्र के अस्तित्व पर सवाल उठाया भी नहीं था। अन्य भोले-भाले भारतीयों की तरह ही तब तक मैं भी उस पत्र को वास्तविक ही समझ रहा था। मूलपत्र की बात को जिस बौखलाहट, तानाकशी और असम्बन्धित टिप्पणियों से दबाने का प्रयास किया गया उससे अब यह प्रश्न अवश्य उठने लगा है कि क्या भगतसिंह का ऐसा कोई पत्र सचमुच में था भी? यदि है तो असंख्य अनुवादों की आड़ में मूल पत्र को छिपाया क्यों जा रहा है? भगतसिंह के परिवार, संगत, संगठन, साथियों, दिनचर्या, कृतित्व, और उनके द्वारा जेल में मंगाई गयी और बाद में उनके सामान में पायी गयी धार्मिक-साहित्यिक-राजनीतिक पुस्तकों जैसे साक्ष्यों की रोशनी में उस पत्र की असलियत की जांच क्यों नहीं की जा रही है? इस सबके बजाय उस तथाकथित पत्र के अंग्रेज़ी अनुवाद के हिन्दी अनुवाद के आधार पर एक भड़काऊ शीर्षक वाला आलेख लिखना तो एक ग़ैरज़िम्मेदाराना हरकत ही हुई।

जब “उल्लिखित पत्र कहाँ है?” की जवाबी टिप्पणियों में मूल पत्र या मूल प्रश्न का कोई ज़िक्र किये बिना "भाववादियों के पास बहस करने के लिए कल्पना के सिवा कुछ नहीं है। वे पाँचों इंद्रियों से जाने जा सकने वाले जगत को मिथ्या और स्वप्न समझते हैं, जब कि काल्पनिक ब्रह्म को सत्य। वे तो उस अर्थ में भी ब्रह्म को नहीं जान पाते जिस अर्थ में शंकर समझते हैं। सोते हुए को आप जगा सकते हैं लेकिन जो जाग कर भी सोने का अभिनय करे उस का क्या? हम अपना काम कर रहे हैं, हमें यह काम संयम के साथ करते रहना चाहिए। हम वैसा करते भी हैं। पर कुतर्क का तो कोई उत्तर नहीं हो सकता न?" जैसे निरर्थक जवाब आने लगे तो अंततः एक टिप्पणी में मुझे स्पष्ट कहना ही पडा:

मूल पत्र या उसकी प्रति आप लोगों ने नहीं देखी है, आपके प्रचार का काम केवल इस आस्था/श्रद्धा पर टिका है कि ऐसा पत्र कभी कहीं था ज़रूर। मेरे प्रश्न के बाद अब आप लोगों के देखने का काम शुरू हुआ है तो शायद एक दिन हम लोग मूल पत्र तक पहुँच ही जायें। जब भी वह शुभ दिन आये कृपया मुझे भी ईमेल करने की कृपा करें। मुझे आशा है कि आयन्दा से यह तथाकथित नास्तिक अन्ध-आस्था के बन्धन से मुक्त होने का प्रयास करके साक्ष्य देखकर ही प्रचार कार्य में लगेंगे। अगर ऐसा हो तो हिन्दी ब्लॉगिंग की विश्वसनीयता ही बढेगी।"

लम्बी बेमतलब बहस में अरुचि दिखाकर मूल पत्र का पठनीय चित्र या उसका लिंक मांगने के जवाब में, "हमारी भी इस मामले में आप से बहस करने में कोई रुचि नहीं है। हम यह बहस करने गए भी नहीं थे। आप ही यहाँ पहुँचे हुए थे।" सुनने के बाद मैं क्या करता। बड़े भाई की आज्ञा सिर माथे रखते हुए कहा, "अगर आपको दुख हुआ तो अब नहीं आयेंगे। जो कहना होगा अपने ब्लॉग पर कह लेंगे।"

एक प्रकार से अच्छा ही हुआ कि इस बहाने से छिटपुट इधर उधर बिखरे हुए विचार और जानकारी इस शृंखला के रूप में एक जगह इकट्ठी हो गई जो आगे भी किसी पार्टी या कल्ट के निहित स्वार्थी प्रोपेगेंडा के सामने शहीदों के नाम का दुरुपयोग होने से बचायेगी।

वार्ता के अंत में प्रमाणवादी वकील साहब ने मेरे सवाल को कालीन के नीचे सरकाते हुए अपना सवाल फिर सामने रख दिया, "क्या नास्तिक होने से भगतसिंह नर्क में होंगे?"

तो आदरणीय वकील साहब, आप भले ही मेरे सवाल का जवाब न दे पाये हों, मैं आपके प्रश्न का उत्तर अवश्य दूंगा। ध्यान से सुनिये मेरा जवाब अगली कड़ी में।
[क्रमशः]

[शहीदों के सभी चित्र इंटरनैट से विभिन्न स्रोतों से साभार]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* सरदार भगत सिंह - विकीपीडिया
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* आज़ाद का एक दुर्लभ चित्र
* यह सूरज अस्त नहीं होगा!
* श्रद्धांजलि - १०१ साल पहले
* सेनानी कवयित्री की पुण्यतिथि
* शहीदों को तो बख्श दो
* चन्द्रशेखर आज़ाद - विकीपीडिया
* आज़ाद का जन्म दिन - 2010
* तोक्यो में नेताजी के दर्शन

Tuesday, July 12, 2011

शहीदों को तो बख्श दो : भाग 3 - मैं नास्तिक क्यों हूँ

शहीदों को तो बख्श दो की पिछली दो कडियों में आपने स्वतंत्रता पूर्व की पृष्ठभूमि और उसमें क्रांतिकारियों, कॉंग्रेस और अन्य धार्मिक-राजनैतिक संगठनों के आपसी सहयोग के बारे में पढा। स्वतंत्रता-पूर्व के काल में अपनी आयातित विचारधारा पर पोषित कम्युनिस्ट पार्टी शायद अकेला ऐसा संगठन था जो कॉंग्रेस और क्रांतिकारी इन दोनों से ही अलग अपनी डफ़ली अपना राग बजा रहा था। कम्युनिस्टों ने क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहा, अंग्रेज़ी राज को सहयोग का वचन दिया, और न केवल कॉंग्रेस बल्कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की फारवर्ड ब्लाक और जयप्रकाश नारायण व राममनोहर लोहिया की कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अभियानों का विरोध किया था।
1. भूमिका - प्रमाणिकता का संकट
2. क्रांतिकारी - आस्था, राजनीति और कम्युनिज़्म
अब आगे :-
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"कम्युनिस्ट नेता भारत पर हमला करने वाले चीन का स्वागत करना चाहते थे।" ~ रोज़ा देशपाण्डे (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक श्रीपाद अमृत डांगे की पुत्री)
क्रांतिकारियों के कारनामों और कॉंग्रेस की राजनैतिक पहल से अंततः भारत स्वतंत्र तो हुआ। टूटे दिल से ही सही विभाजन की त्रासदी स्वीकार करके तत्कालीन नेताओं ने नव-स्वतंत्र राष्ट्र को एक लम्बे चलने वाले विनाशक गृहयुद्ध से बचा लिया और पाकिस्तान को मान्यता देकर दो नये देशों के लिये एक शांतिपूर्ण भविष्य की आशा की। जिन्होंने आज़ादी से पहले राष्ट्र की पीठ में छुरे घोंपे थे उन्हें बाद में भी बदलाव की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। भारतीय कम्युनिस्टों के एक दल ने चीन द्वारा तिब्बत हज़म करने और सिक्किम व भूटान को धमकाने के बाद भारत पर हुए अनैतिक हमले के बाद भी भारत पर ही अपना (लोकतांत्रिक?) साम्राज्यवाद चीन पर थोपने का आरोप लगाया। ऐसे मौके कम नहीं आये जब इस दल के विभिन्न घटकों ने अपने कई सशस्त्र अराजनैतिक दस्ते बनाकर देश के विभिन्न भागों में अराजकता फ़ैलाई, हत्यायें की और जन-संसाधनों का विनाश किया।

"मार्क्सवादी या कम्युनिस्ट नहीं, कोई मूर्ख ही होगा जो किसी समाजवादी देश (चीन) को हमलावर मानेगा।" ~ कम्युनिस्ट नेता पी. राममूर्ति भारत पर कम्युनिस्ट चीन के हमले के सन्दर्भ में
क्रांतिकारियों पर कम्युनिस्ट चिह्न मत थोपो 
ताज़ा हालत ही देखें तो एक ही प्रदेश बंगाल में एक दस्ता क्रांति के नाम पर निरीह जनता पर लाल माओवादी आतंक फैलाकर वसूली के बदले में बडे तस्करों, अपराधियों, वनसम्पदा-शिकारियों, हत्यारों आदि को संरक्षण देता रहा और दूसरा दस्ता ग़रीब किसानों की कृषियोग्य भूमि जबरन कब्ज़ियाकर बडे व्यवसाइयों को कृतार्थ करता रहा। मगर हिंसक राजनैतिक विचारधाराओं में जन-संहार शायद मामूली बात है, बडी चीज़ तो प्रचार है और प्रचार के लिये आवश्यकता होती है एक ब्रैंड ऐम्बैसैडर की, एक आयकन की, एक देवता की। लेकिन जिन्होंने सदा बुतशिक़नी की हो वे देवता कहाँ से लाते? जनमानस से पूरी तरह कटी हुई विचारधारा इस राष्ट्र के सबसे स्वीकृत नायकों राम, कृष्ण, परशुराम, बुद्ध, महावीर, गांधी, विनोबा, अम्बेडकर आदि और भग्वद्गीता, क़ुर'आन आदि जैसे प्रतीकों को तो पहले ही नकार चुकी थी। पार्टी ने लेनिन, स्टालिन, माओ, पोल-पोट, कास्ट्रो जैसे नृशंस तानाशाहों की बुतपरस्ती की भी मगर उन हत्यारे खलनायकों की कलई पहले ही खुल चुकी थी। तब अपना जनाधार बनाने के लिये खोज शुरू हुई ऐसे सर्वमान्य क्रांतिकारियों की जिन्हें अपने पक्ष का बताया जा सके। शहीदों में से छांटकर अपनी राजनैतिक महत्वाकान्क्षा पर फ़िट किये जा सकने वाले ऐसे व्यक्तित्व ढूंढे जाने लगे जिनकी जन-मान्यता को भुनाया जा सके। दाम का मुझे पता नहीं पर दण्ड और भेद नाकाम होने पर कम्युनिस्टों ने इस बार साम का मोहरा चलने की सोची। अफ़सोस कि अधिकांश क्रांतिकारी भी गीता से प्रेरित निकले। अब क्या हो? आशायें टिकी हैं - एक पत्र पर - सरदार भगतसिंह का पत्र – मैं नास्तिक क्यों हूँ।
"न तो हम आतंक के प्रणेता हैं और न ही देश पर कलंक जैसा कि नकली समाजवादी दीवान चमनलाल ने आरोप लगाया  और न ही हम पागल हैं जैसा कि लाहौर के ट्रिब्यून व अन्य पत्रों ने जताया है" ~भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त (दिल्ली सेशंस कोर्ट में 8 जून 1929 का बयान)
आजकल कम्युनिस्ट विचारकों की ओर से भगतसिंह का कहा जाने वाला यह पत्र काफी विज्ञापित किया जा रहा है। इंटरनैट पर जगह जगह सायास बिखेरे गये इस पत्र के हवाले से यह जताया जा रहा है जैसे कि भगतसिंह अपने जीवन के अंतिम दिनों में नास्तिक हो गये थे। इस पत्र पर आधारित कुछ आलेखों द्वारा ऐसा माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है जैसे कि अन्य सेनानी आस्तिक होने के कारण उतने खास नहीं रहे कि विदेशी विचारधारा आयात करने वाला यह दल उनका आदर कर सके। बल्कि कई क्रांतिकारियों की तो बाकायदा छीछालेदर की गयी है। एक आम भारतीय के लिये यह समझना मुश्किल है कि कोई दल ऐसा क्यों करेगा। आखिर शहीदों में भेद डालने के प्रयास के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?

शहीदों पर लाल रंग मत लादो
किसी देशभक्त भारतीय ने अपने शहीदों का आदर करने से पहले कभी यह चैक नहीं किया होगा कि वे हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, आस्तिक, नास्तिक या कम्युनिस्ट में से क्या थे। हमारे लिये तो भगत सिंह भी उतने ही आदरणीय हैं जितने बिस्मिल या आज़ाद। लेकिन लगता है कि उस पत्र की आड़ लेने वाले लोग किसी आस्तिक क्रांतिकारी का आदर करने में अपनी हेठी समझ रहे हैं। इसीलिये वे एक स्वतंत्रता सेनानी को भी केवल तब स्वीकार करेंगे जब वह नास्तिक साबित हो जाय। मैं पूछता हूँ कि कल को यदि न्यायालय में यह साबित हो जाये कि विज्ञापित किया जाने वाला पत्र भगतसिंह ने कभी लिखा ही नहीं तो क्या ये पत्रवाहक शहीदे-आज़म की मूर्ति पर फूल माला चढाना बन्द कर देंगे? यदि “नहीं” तो फिर उनकी नास्तिकता पर इतना उछलना क्यों? यदि “हाँ” तो लानत है ऐसी विचारधारा पर जो अपनी मातृभूमि पर निस्वार्थ जान देने वालों का आदर करने की भी शर्तें लगाये।

शहीदे आज़म को हत्यारों के बीच खडा मत करो
कम्युनिस्ट विचारधारा समर्थकों द्वारा पिछले कुछ दशकों से भगतसिंह के व्यक्तित्व को छांटकर उन्हें एक देशभक्त हुतात्मा मानने के बजाय बार बार उन्हें एक कम्युनिस्ट या सिर्फ़ एक नास्तिक बताने के सश्रम प्रयास किये जा रहे हैं। ऐसे ही एक आलेख में उन्हें सीधे कम्युनिस्ट ही कह दिया गया हैक्या किसी कामरेड के पास भगत सिंह की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता की पर्ची, रसीद, किसी आधिकारिक पत्र पर हस्ताक्षर, किसी कम्युनिस्ट सभा में भाषण का विवरण है? मगर वह सफ़ेद (या लाल?) झूठ ही कैसा जिसे सौ बार लिखकर उसे सच बनाने का प्रयास न हो। जनता के अवचेतन पर भगतसिंह की छवि बदलने के निन्दनीय प्रयास में उनके श्वेत-श्याम चित्र में उनके साफ़े को लाल रंग दिया जाता है। इंटरनैट पर एक नज़र मारने पर आपको लेनिन और माओ जैसे नृशंस दानवों के बीच बिठायी हुई भगतसिंह की तस्वीर भी आसानी से मिल जायेगी। शहीद भगतसिंह जैसे राष्ट्रीय गौरव के महान व्यक्तित्व को एक संकीर्ण विचारधारा या दल से बांधकर उनके क़द को कम करने की कोशिश बहुत बुरी है और किसी भी स्वाभिमानी देशभक्त के लिये नाकाबिले-बर्दाश्त भी।
[क्रमशः]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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पण्डित राम प्रसाद "बिस्मिल" - विकीपीडिया
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* लाल गिरोह का खतरा (एस. शंकर)
* कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं - डॉ. भीमराव अंबेडकर
* कम्युनिस्टों द्वारा की गयी हत्यायें
Was Bhagat Singh shot dead?

Saturday, July 9, 2011

शहीदों को बख्श दो: 2. क्रांतिकारी - आस्था, राजनीति और कम्युनिज़्म

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उन्हें यह फ़िक्र है हरदम नयी तर्ज़-ए-ज़फ़ा क्या है, हमें यह शौक है देखें सितम की इन्तहा क्या है
दहर से क्यों ख़फ़ा रहें, चर्ख से क्यों ग़िला करें, सारा जहाँ अदू सही, आओ मुक़ाबला करें ।
(~सरदार भगत सिंह)
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शहीदों को तो बख्श दो - भाग 1 से जारी ...
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सरदार भगतसिंह की बात चल रही है तो इस शिकवे की बात भी हो जाय कि गांधी जी ने नहीं कहा वर्ना भगतसिंह बच जाते। गांधी जी भारत के गवर्नर नहीं थे कि वे कह देते और देश आज़ाद हो जाता। भगत सिंह की ही तरह गांधी जी भी देश की स्वतंत्रता के लिये अपने तरीके से संघर्षरत थे। लेकिन यह सत्य है कि भगत सिंह को बचाने के लिये उन्होंने वाइसराय से बात की थी और इस उद्देश्य के लिये अन्य राष्ट्रीय नेता अपने-अपने स्तर पर प्रयासरत थे।

क्रांतिकारी और कॉंग्रेसी कार्यकर्ता एक दूसरे के साथ वैसा सहयोग कर रहे थे जैसा कम्युनिस्टों का इन दोनों ही के साथ कभी नहीं रहा। शहीद अपनी जान देने में सौभाग्य समझते हैं यह जानते हुए भी कॉंग्रेस अकेला ऐसा दल था जिसने बहुत से क्रांतिकारियों की जान बचाने के विधिसम्मत प्रयास किये। आज़ाद हिन्द फ़ौज़ के बन्दी सैनिकों के मुकदमे भूलाभाई देसाई और पण्डित नेहरू ने लड़े थे उसी प्रकार भगत सिंह की जान बचाने के लिये हिन्दू महासभा के संस्थापक महामना मदन मोहन मालवीय ने याचिका लगायी और कॉंग्रेसी मोतीलाल नेहरू ने केन्द्रीय विधान सभा में उनके पक्ष में बोलकर उन्हें बचाने के प्रयास किये। नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने इस फाँसी के विरोध में दिल्ली में 20 मार्च, 1931 को एक बड़ी कॉंग्रेसी जनसभा भी की थी। यहाँ यह याद दिलाना ज़रूरी है कि भारत के अन्य वीर शहीदों की तरह ही भगत सिंह को भी कृपा पाकर बचने की कोई इच्छा नहीं थी। बल्कि वे तो फ़ांसी की जगह फ़ायरिंग दस्ते द्वारा मृत्युदंड चाहते थे। अगर हम एक देशभक्त वीर की तरह सोच सकें तो हमें यह बात एकदम समझ आ जायेगी कि अगर गांधी जी भगत सिंह की जान की बख़्शीश पाते तो सबसे अधिक दु:ख भगत सिंह को ही होता।

गांधीजी के प्रति राष्ट्रवादियों का क्षोभ फिर भी समझा जा सकता है मगर उससे दो कदम आगे बढकर कम्युनिस्ट खेमे के कुछ प्रचारवादी आजकल ऐसा भ्रम फैलाने में लगे हुए हैं जैसे कि भगतसिंह कम्युनिस्ट थे। क्या कोई बता सकता है कि आज़ादी के छः दशक बाद एक स्वाधीनता सेनानी की आस्था को भुनाकर उसपर अपना सर्वाधिकार सा जताने वाले इन कम्युनिस्टों ने तब भगत सिंह की जान बचाने के लिये क्या ठोस किया था? आइये इसकी पड़ताल भी कर लेते हैं।

जहाँ भगत सिंह ने अपने समकालीन कम्युनिस्ट नेताओं के बारे में लिखा है कि, “हमें बहुत–से नेता मिलते हैं जो भाषण देने के लिए शाम को कुछ समय निकाल सकते हैं। ये हमारे किसी काम के नहीं हैं।” वहीं उनके समकालीन कम्युनिस्ट नेता सोहन सिंह जोश ने उनके बारे में अपनी कृति 'भगत सिंह से मेरी मुलाकात' में स्पष्ट लिखा है “मैंने नौजवान भारत सभा में भगत सिंह व उनके साथियों की आतंकवादी प्रवृति से खुद को अलग चिन्हित किया है।” क्रांतिकारियों और कम्युनिस्टों की दूरी का यह अकेला उदाहरण नहीं है। पूरे स्वाधीनता संग्राम में ऐसे कई उदाहरण सामने आये हैं जब कम्युनिस्ट अपने बदन पर दूसरों का खून लगाकर शहीद बनते रहे हैं। मुम्बई की पत्रिका करैंट (Current) ने एक खुलासे में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य डांगे के आज़ादी से पहले (1924 के लगभग) लिखे गये वे पत्र प्रकाशित किये थे जिनमें उसने अंग्रेज़ी राज को सहयोग देने के वचन दिये थे।

कम्युनिस्ट विचारधारा लेनिन, मार्क्स, माओ, नक्सल, स्टालिन, पोल-पोट, कास्त्रो और अन्य अनेक नाम-बेनाम-बदनाम-छद्मनामधारी घटकों की आड़ में विश्वभर में विकास, शिक्षा, उन्नति, लोकतंत्र और वैयक्तिक स्वतंत्रता की आशा करते गरीबों के जीवन में जिस आतंकवाद का पलीता लगाने में जुटी हुई है, उस आतंकवाद के बारे में भगत सिंह के अपने शब्द हैं, “मैं एक आतंकवादी कतई नहीं हूँ, मैं एक क्रान्तिकारी हूं जिसके विशिष्ट, ठोस व दीर्घकालीन कार्यक्रम पर निश्चित विचार हैं।” हम सब जानते हैं कि भगत सिंह और उनके साथियों के हाथ पर निर्दोष भारतीयों का खून तो क्या किसी निहत्थे ब्रिटिश सिविलियन का भी खून नहीं लगा है। जबकि कम्युनिस्ट जनसंहारों का अपना एक लाल इतिहास है। असेम्बली में क्रांतिकारियों ने जानबूझकर ऐसा हल्का बम ऐसी जगह फेंका कि कोई आहत न हो, केवल धुआँ और आवाज हो और वे स्वयं गिरफ़्तारी देकर जनता की बात कह सकें।

याद रहे कि भारत और अमेरिका आदि लोकतांत्रिक देश स्वतंत्र और धर्मनिरपेक्ष, हैं जहाँ नास्तिक, आस्तिक और कम्युनिस्ट हर व्यक्ति को अपनी आस्था पालन की स्वतंत्रता है। इसके उलट कम्युनिस्ट तानाशाही तंत्र में हर व्यक्ति को जबरन अपनी धार्मिक आस्था छोडकर कम्युनिज़्म में आस्था और स्वामिभक्ति रखनी पडती है। हिरण्यकशिपु की कथा याद दिलाने वाले उस क्रूर और असहिष्णु प्रशासन में अपने कम्युनिस्ट तानाशाह के अतिरिक्त किसी भी सिद्धांत के प्रति आस्था रखने का कोई विकल्प नहीं है। सोवियत संघ, चीन, तिब्बत, उत्तर कोरिया, क्यूबा, पूर्वी यूरोप के राष्ट्रों से लेकर कम्युनिस्ट दमन के दिनों के वियेटनाम और कम्बोडिया तक किसी भी देश का उदाहरण ले लीजिये, धर्म और विचारकों का क्रूर दमन कम्युनिस्ट शासन की प्राथमिकता रही है और व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मुक्त चिंतन का दमन दूसरी। सोवियत संघ में ऐसी हत्याओं/आत्महत्याओं के उदाहरण मिलते हैं जब साम्यवाद के दावों के पीछे छिपी क्रूर असलियत जानने पर कार्यकर्ता या तो स्वयं मर गये या पार्टीहित में उनकी जान ले ली गयी।

यह स्वीकार करना पडेगा कि उन्होंने अपनी ओर से यथासम्भव पूर्ण प्रयास किया ~ नेताजी सुभाषचन्द्र बोस (शहीदत्रयी की फ़ांसी के बाद गांधी जी के बारे में बोलते हुए)
विषय से भटके बिना यही याद दिलाना चाहूंगा कि:
  • भारत के क्रांतिकारी कम्युनिस्ट दल के अतिरिक्त अन्य सभी राजनैतिक, धार्मिक संस्थाओं यथा कॉंग्रैस, हिन्दू महासभा आदि के निकट थे। उल्लेखनीय यह है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक अशफाक़, बिस्मिल और आज़ाद के साथ उस हिंदुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसिएशन के सदस्य थे जिसमें बाद में भगतसिंह भी आये।
  • क्रांतिकारियों के मन में राष्ट्रीय नेताओं के प्रति असीम श्रद्धा थी और लाला लाजपत राय जैसे राष्ट्रवादी की मौत का बदला लेने के लिये वे मृत्यु का वरण करने को तैयार थे।
  • क्रांतिकारी और राष्ट्रीय नेताओं का प्रेम और आदर उभयपक्षी था और नेताओं ने उनकी रक्षा के यथासम्भव राजनैतिक प्रयत्न किये।
  • कम्युनिस्ट नेता एक ओर इन क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहकर उनसे किनाराकशी कर रहे थे दूसरी ओर छिपकर ब्रिटिश सरकार को प्रेमपत्र लिख रहे थे। "भारत-छोडो" जैसे आन्दोलनों का विरोध करने वाले कम्युनिस्ट अब क्रांतिकारियों को कम्युनिस्ट बताकर भी अपना अतीत छिपा नहीं पायेंगे।
  • क्रांतिकारियों ने देश-विदेश की सफल-असफल क्रान्तियों का अध्ययन अवश्य किया और उनसे सबक लिया। इनमें राष्ट्रवादी और कम्युनिस्ट दोनों मामले शामिल हैं। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे अहिंसा और सहिष्णुता त्यागकर कम्युनिस्ट हो गए और धर्म-विरोध, मानवाधिकार हनन, बंदूक-भक्ति और तानाशाही के कम्युनिस्ट मार्ग पर चल पड़े।
  • क्रांतिकारी अपनी भिन्न आस्थाओं के बावज़ूद एक दूसरे की आस्था के प्रति भरपूर सम्मान रखते थे जोकि गैर-कम्युनिस्टी मतों के प्रति कम्युनिस्टी चिढ़ के एकदम विपरीत है।

कुल मिलाकर क्रांतिकारियों का जैसा मेल कॉंग्रेस व हिन्दू महासभा आदि से रहा था वैसा कम्युनिस्ट पार्टी से कभी नहीं रहा। दोनों ही पक्षों के पास इस दूरी को बनाये रखने के समुचित कारण थे। हमारे क्रांतिकारी व्यक्तिगत स्वतंत्रता, परिवार की अवधारणा, जननी-जन्मभूमि के प्रति आदर और आस्था के सम्मान के लिये जाने जाते हैं न कि फ़िरकापरस्ती के लिये।
[क्रमशः]

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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* पण्डित राम प्रसाद "बिस्मिल" - विकीपीडिया
* पण्डित परमाननंद - विकीपीडिया
* चन्द्रशेखर आज़ाद - विकीपीडिया
* आज़ाद मन्दिर
* भगत सिंह के बारे में कुछ अनदेखे तथ्य
* लाल गिरोह का खतरा (एस. शंकर)
* कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं - डॉ. भीमराव अंबेडकर
* कम्युनिस्टों द्वारा की गयी हत्यायें
* अमर शहीद भगत सिंह की भतीजी – वीरेंद्र सिन्धु

Wednesday, June 29, 2011

शहीदों को तो बख्श दो - भाग 1. भूमिका

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मूर्ख और मृतक अपने विचारों से चिपक जाते हैं
[एक कब्रिस्तान की दीवार पर पढा था]

शहीदों को श्रद्धांजलि प्रथम दिवस आवरण
1857 के भारत के स्वाधीनता के प्रथम संग्राम से लेकर 1947 में पूर्ण स्वतंत्रता मिलने तक के 90 वर्षों में भारत में बहुत कुछ बदला। आज़ादी से ठीक पहले के संग्राम में बहुत सी धाराएँ बह रही थीं। निश्चित रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण धारा महात्मा गांधी के नेतृत्व वाली कॉङ्ग्रेस थी जिसने उस समय भारत के जन-जन के अंतर्मन को छुआ था।

मुस्लिम लीग एक और प्रमुख शक्ति थी जिसका एकमेव उद्देश्य भारत को काटकर अलग पाकिस्तान बनाने तक ही सीमित रह गया था। महामना मदन मोहन मालवीय और पंजाब केसरी लाला लाजपत राय जैसे स्वनामधन्य नेताओं के साथ हिन्दू महासभा थी। कई मामलों में एक दूसरे से भिन्न ये तीन प्रमुख दल अपनी विचारधारा और सिद्धांत के मामले में भारत की ज़मीन से जुडे थे और तीनों के ही अपने निष्ठावान अनुगामी थे। विदेशी विचारधारा से प्रभावित कम्युनिस्ट पार्टी भी थी जिसका उद्देश्य विश्व भर में रूस के वैचारिक नेतृत्व वाला कम्युनिस्ट साम्राज्य लाना था मगर कालांतर में वे चीनी, रूसी एवं अन्य हितों वाले अलग अलग गुटों में बंट गये। 1927 की छठी सभा के बाद से उन्होंने ब्रिटिश राज के बजाय कॉंग्रेस पर निशाना साधना शुरू किया। आम जनता तक उनकी पहुँच पहले ही न के बराबर थी लेकिन 1942 में भारत छोडो आन्दोलन का सक्रिय विरोध करने के बाद तो भारत भर में कम्युनिस्टों की खासी फ़ज़ीहत हुई।

राजनैतिक पार्टियों के समांतर एक दूसरी धारा सशस्त्र क्रांतिकारियों की थी जिसमें 1857 के शहीदों के आत्मत्याग की प्रेरणा, आर्यसमाज के उपदेश, गीता के कर्मयोग एवम अन्य अनेक राष्ट्रीय विचारधाराओं का संगम था। अधिकांश क्रांतिकारी शिक्षित बहुभाषी (polyglot) युवा थे, शारीरिक रूप से सक्षम थे और आधुनिक तकनीक और विश्व में हो रहे राजनैतिक परिवर्तनों की जानकारी की चाह रखते थे। भारत के सांस्कृतिक नायकों से प्रेरणा लेने के साथ-साथ वे संसार भर के राष्ट्रीयता आन्दोलनों के बारे में जानने के उत्सुक थे। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन ऐसोसिएशन भी इसी धारा का एक संगठन था। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, चन्द्रशेखर आज़ाद, सरदार भगतसिंह, अशफाक़ उल्लाह खाँ, बटुकेश्वर दत्त, आदि क्रांतिकारी इसी संगठन के सदस्य थे। इनके अभियान छिपकर हो रहे थे और यहाँ सदस्यता शुल्क जाँनिसारी थी।

अशफ़ाक़ उल्लाह खाँ
(22 अक्टूबर 1900 – 19 दिसम्बर 1927)
कुछ आरज़ू नहीं है बस आरज़ू तो ये है।
रख दे कोई ज़रा सी ख़ाके वतन कफ़न में॥

ऐ पुख़्तकार उल्फ़त, हुशियार डिग न जाना।
मिराज़ आशक़ाँ है, इस दार और रसन में॥

मौत और ज़िन्दगी है दुनिया का सब तमाशा।
फ़रमान कृष्ण का था अर्जुन को बीच रन में॥

(~ अमर शहीद अशफाक़ उल्लाह खाँ)

जिन क्रांतिकारियों में एक मुसलमान वीर भगवान कृष्ण के गीत गा रहा हो वहाँ आस्तिक-नास्तिक का अंतर तो सोचना भी बेमानी है। इन सभी विराट हृदयों ने बहुत कुछ पढा-गुना था और जो लोग सक्षम थे उन्होंने बहुत कुछ लिखा और अनूदित किया था। पंजाब केसरी और वीर सावरकर द्वारा अलग-अलग समय, स्थान और भाषा में लिखी इतालवी क्रांतिकारी जोसप मेज़िनी1 (Giuseppe Mazzini) की जीवनी इस बात का उदाहरण है कि ठेठ भारतीय विभिन्नता के बीच इन समदर्शियों के उद्देश्य समान थे। इस धारा का जनाधार उतना व्यापक नहीं था जितना कि कांग्रेस का।

मंगल पांडे, चाफ़ेकर2 बन्धु, दुर्गा भाभी, सुखदेव थापर, शिवराम हरि राजगुरू, शिव वर्मा, जतीन्द्र नाथ दास, नेताजी सुभाष चन्द्र बोस, खुदीराम बासु जैसे वीर3 हम भारतीयों के दिल में सदा ही रहेंगे, उनके व्यक्तिगत या धार्मिक विश्वासों से उनकी महानता में कोई कमी नहीं आने वाली है। वे अपने धार्मिक विश्वास के कारण श्रद्धेय नहीं है बल्कि अपने कर्मों के कारण हैं । ये शहीद किसी भी धर्म या राजनैतिक धारा के हो सकते थे परंतु अधिकांश ने समय-समय पर गांधी जी में अपना विश्वास जताया था। अधिकांश की श्रद्धा अपने-अपने धार्मिक-सांकृतिक ग्रंथों-उपदेशों में भी थी। गीता शायद अकेला ऐसा ग्रंथ है जिससे सर्वाधिक स्वतंत्रता सेनानियों ने प्रेरणा ली। गीता ने सरदार भगतसिंह को भी प्रभावित किया।4

सरदार भगतसिंह
(28 सितम्बर 1907 - 23 मार्च, 1931)
80 दशक के प्रारम्भिक वर्षो से भगतसिंह पर रिसर्च कर रहे उनके सगे भांजे प्रोफेसर जगमोहन सिंह के अनुसार भगतसिंह पिस्तौल की अपेक्षा पुस्तक के अधिक निकट थे। उनके अनुसार भगतसिंह ने अपने जीवन में केवल एक बार गोली चलाई थी, जिससे सांडर्स की मौत हुई। उनके अनुसार भगतसिंह के आगरा स्थित ठिकाने पर कम से कम 175 पुस्तकों का संग्रह था। चार वर्षो के दौरान उन्होंने इन सारी किताबों का अध्ययन किया था। पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल की तरह उन्हें भी पढ़ने की इतनी आदत थी कि जेल में रहते हुए भी वे अपना समय पठन-पाठन में ही लगाते थे। गिरफ्तारी के बाद दिल्ली की जेल में रहते हुए 27 अप्रैल 1929 को उन्होंने अपने पिता को पत्र लिखकर पढ़ने के लिये लोकमान्य बाल गंगाधर टिळक5 की "गीता रहस्य" मंगवायी थी। उनकी हर बात की तरह यह समाचार भी लाहौर से प्रकाशित होने वाले तत्कालीन अंग्रेजी दैनिक 'द ट्रिब्यून' के 30 अप्रैल 1929 अंक के पृष्ठ संख्या नौ पर "एस. भगत सिंह वांट्स गीता" शीर्षक से छपा था। रिपोर्ट में लिखा गया था कि सरदार भगत सिंह ने अपने पिता को नेपोलियन की जीवनी और लोकमान्य टिळक की गीता की प्रति भेजने के लिए लिखा है। खटकड़ कलाँ (नवांशहर) स्थित शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह संग्रहालय में आर्य बुक डिपो लाहौर से प्रकाशित पं. नृसिंहदेव शास्त्री के भाष्य वाली गीता रखी हुई है जिस पर "भगत सिंह, सेंट्रल जेल, लाहौर" लिखा हुआ है। जेएनयू के मा‌र्क्सवादी प्रो. चमन लाल तक मानते हैं कि संभावना है टिळक की गीता न मिलने पर बाजार में जो गीता मिली, वही उनके पास पहुँचा दी गयी हो। लेकिन ऐसा भी हो सकता है कि शास्त्रीजी के भाष्य वाली गीता उनके पास अलग से रही हो परंतु वे टिळक की गीता टीका भी पढ़ना चाहते हों।

[क्रमशः]

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1कार्ल मार्क्स को भारतीय क्रांतिकारियों का आदर्श मेज़िनी सख्त नापसन्द था। एक साक्षात्कार में मार्क्स ने मेज़िनी को कभी न मरने वाला वृद्ध गर्दभ कहकर पुकारा था।
2दामोदर, बालकृष्ण, एवम वासुदेव चाफ़ेकर (Damodar, Balkrishna and Vasudeva Chapekar)
3वीरों की कमी नहीं है इस देश में - सबके नाम यहाँ नहीं हैं परंतु श्रद्धा उन सबके लिये है।
4"Bhagat Singh" by Bhawan Singh Rana (पृ. 129)
5मराठी और हिन्दी की लिपि एक, देवनागरी है लेकिन तथाकथित 'मानकीकरण' ने हिंदी की वर्णमाला सीमित कर दी है। लोकमान्य के कुलनाम का वास्तविक मराठी उच्चारण तथा सही वर्तनी 'टिळक' है।

[प्रथम दिवस आवरण का चित्र अनुराग शर्मा द्वारा :: अन्य चित्र इंटरनैट से विभिन्न स्रोतों से साभार]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* विश्वसनीयता का संकट - हिन्दी ब्लॉगिंग के कुछ अनुभव
* जेल में गीता मांगी थी भगतसिंह ने
* भगवद्गीता से ली थी भगतसिंह ने प्रेरणा?
* वामपंथियों का भगतसिंह पर दावा खोखला
* भगतसिंह - विकिपीडिया
* प्रेरणादायक जीवन-चरित्र

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