शहीदों को तो बख्श दो की पिछली दो कडियों में आपने स्वतंत्रता पूर्व की पृष्ठभूमि और उसमें क्रांतिकारियों, कॉंग्रेस और अन्य धार्मिक-राजनैतिक संगठनों के आपसी सहयोग के बारे में पढा। स्वतंत्रता-पूर्व के काल में अपनी आयातित विचारधारा पर पोषित कम्युनिस्ट पार्टी शायद अकेला ऐसा संगठन था जो कॉंग्रेस और क्रांतिकारी इन दोनों से ही अलग अपनी डफ़ली अपना राग बजा रहा था। कम्युनिस्टों ने क्रांतिकारियों को आतंकवादी कहा, अंग्रेज़ी राज को सहयोग का वचन दिया, और न केवल कॉंग्रेस बल्कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की फारवर्ड ब्लाक और जयप्रकाश नारायण व राममनोहर लोहिया की कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के अभियानों का विरोध किया था।
1. भूमिका - प्रमाणिकता का संकट
2. क्रांतिकारी - आस्था, राजनीति और कम्युनिज़्म
अब आगे :-
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ताज़ा हालत ही देखें तो एक ही प्रदेश बंगाल में एक दस्ता क्रांति के नाम पर निरीह जनता पर लाल माओवादी आतंक फैलाकर वसूली के बदले में बडे तस्करों, अपराधियों, वनसम्पदा-शिकारियों, हत्यारों आदि को संरक्षण देता रहा और दूसरा दस्ता ग़रीब किसानों की कृषियोग्य भूमि जबरन कब्ज़ियाकर बडे व्यवसाइयों को कृतार्थ करता रहा। मगर हिंसक राजनैतिक विचारधाराओं में जन-संहार शायद मामूली बात है, बडी चीज़ तो प्रचार है और प्रचार के लिये आवश्यकता होती है एक ब्रैंड ऐम्बैसैडर की, एक आयकन की, एक देवता की। लेकिन जिन्होंने सदा बुतशिक़नी की हो वे देवता कहाँ से लाते? जनमानस से पूरी तरह कटी हुई विचारधारा इस राष्ट्र के सबसे स्वीकृत नायकों राम, कृष्ण, परशुराम, बुद्ध, महावीर, गांधी, विनोबा, अम्बेडकर आदि और भग्वद्गीता, क़ुर'आन आदि जैसे प्रतीकों को तो पहले ही नकार चुकी थी। पार्टी ने लेनिन, स्टालिन, माओ, पोल-पोट, कास्ट्रो जैसे नृशंस तानाशाहों की बुतपरस्ती की भी मगर उन हत्यारे खलनायकों की कलई पहले ही खुल चुकी थी। तब अपना जनाधार बनाने के लिये खोज शुरू हुई ऐसे सर्वमान्य क्रांतिकारियों की जिन्हें अपने पक्ष का बताया जा सके। शहीदों में से छांटकर अपनी राजनैतिक महत्वाकान्क्षा पर फ़िट किये जा सकने वाले ऐसे व्यक्तित्व ढूंढे जाने लगे जिनकी जन-मान्यता को भुनाया जा सके। दाम का मुझे पता नहीं पर दण्ड और भेद नाकाम होने पर कम्युनिस्टों ने इस बार साम का मोहरा चलने की सोची। अफ़सोस कि अधिकांश क्रांतिकारी भी गीता से प्रेरित निकले। अब क्या हो? आशायें टिकी हैं - एक पत्र पर - सरदार भगतसिंह का पत्र – मैं नास्तिक क्यों हूँ।
किसी देशभक्त भारतीय ने अपने शहीदों का आदर करने से पहले कभी यह चैक नहीं किया होगा कि वे हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, आस्तिक, नास्तिक या कम्युनिस्ट में से क्या थे। हमारे लिये तो भगत सिंह भी उतने ही आदरणीय हैं जितने बिस्मिल या आज़ाद। लेकिन लगता है कि उस पत्र की आड़ लेने वाले लोग किसी आस्तिक क्रांतिकारी का आदर करने में अपनी हेठी समझ रहे हैं। इसीलिये वे एक स्वतंत्रता सेनानी को भी केवल तब स्वीकार करेंगे जब वह नास्तिक साबित हो जाय। मैं पूछता हूँ कि कल को यदि न्यायालय में यह साबित हो जाये कि विज्ञापित किया जाने वाला पत्र भगतसिंह ने कभी लिखा ही नहीं तो क्या ये पत्रवाहक शहीदे-आज़म की मूर्ति पर फूल माला चढाना बन्द कर देंगे? यदि “नहीं” तो फिर उनकी नास्तिकता पर इतना उछलना क्यों? यदि “हाँ” तो लानत है ऐसी विचारधारा पर जो अपनी मातृभूमि पर निस्वार्थ जान देने वालों का आदर करने की भी शर्तें लगाये।
कम्युनिस्ट विचारधारा समर्थकों द्वारा पिछले कुछ दशकों से भगतसिंह के व्यक्तित्व को छांटकर उन्हें एक देशभक्त हुतात्मा मानने के बजाय बार बार उन्हें एक कम्युनिस्ट या सिर्फ़ एक नास्तिक बताने के सश्रम प्रयास किये जा रहे हैं। ऐसे ही एक आलेख में उन्हें सीधे कम्युनिस्ट ही कह दिया गया है। क्या किसी कामरेड के पास भगत सिंह की कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता की पर्ची, रसीद, किसी आधिकारिक पत्र पर हस्ताक्षर, किसी कम्युनिस्ट सभा में भाषण का विवरण है? मगर वह सफ़ेद (या लाल?) झूठ ही कैसा जिसे सौ बार लिखकर उसे सच बनाने का प्रयास न हो। जनता के अवचेतन पर भगतसिंह की छवि बदलने के निन्दनीय प्रयास में उनके श्वेत-श्याम चित्र में उनके साफ़े को लाल रंग दिया जाता है। इंटरनैट पर एक नज़र मारने पर आपको लेनिन और माओ जैसे नृशंस दानवों के बीच बिठायी हुई भगतसिंह की तस्वीर भी आसानी से मिल जायेगी। शहीद भगतसिंह जैसे राष्ट्रीय गौरव के महान व्यक्तित्व को एक संकीर्ण विचारधारा या दल से बांधकर उनके क़द को कम करने की कोशिश बहुत बुरी है और किसी भी स्वाभिमानी देशभक्त के लिये नाकाबिले-बर्दाश्त भी।
[क्रमशः]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* पण्डित राम प्रसाद "बिस्मिल" - विकीपीडिया
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* लाल गिरोह का खतरा (एस. शंकर)
* कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं - डॉ. भीमराव अंबेडकर
* कम्युनिस्टों द्वारा की गयी हत्यायें
* Was Bhagat Singh shot dead?
1. भूमिका - प्रमाणिकता का संकट
2. क्रांतिकारी - आस्था, राजनीति और कम्युनिज़्म
अब आगे :-
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"कम्युनिस्ट नेता भारत पर हमला करने वाले चीन का स्वागत करना चाहते थे।" ~ रोज़ा देशपाण्डे (भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक श्रीपाद अमृत डांगे की पुत्री)क्रांतिकारियों के कारनामों और कॉंग्रेस की राजनैतिक पहल से अंततः भारत स्वतंत्र तो हुआ। टूटे दिल से ही सही विभाजन की त्रासदी स्वीकार करके तत्कालीन नेताओं ने नव-स्वतंत्र राष्ट्र को एक लम्बे चलने वाले विनाशक गृहयुद्ध से बचा लिया और पाकिस्तान को मान्यता देकर दो नये देशों के लिये एक शांतिपूर्ण भविष्य की आशा की। जिन्होंने आज़ादी से पहले राष्ट्र की पीठ में छुरे घोंपे थे उन्हें बाद में भी बदलाव की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। भारतीय कम्युनिस्टों के एक दल ने चीन द्वारा तिब्बत हज़म करने और सिक्किम व भूटान को धमकाने के बाद भारत पर हुए अनैतिक हमले के बाद भी भारत पर ही अपना (लोकतांत्रिक?) साम्राज्यवाद चीन पर थोपने का आरोप लगाया। ऐसे मौके कम नहीं आये जब इस दल के विभिन्न घटकों ने अपने कई सशस्त्र अराजनैतिक दस्ते बनाकर देश के विभिन्न भागों में अराजकता फ़ैलाई, हत्यायें की और जन-संसाधनों का विनाश किया।
"मार्क्सवादी या कम्युनिस्ट नहीं, कोई मूर्ख ही होगा जो किसी समाजवादी देश (चीन) को हमलावर मानेगा।" ~ कम्युनिस्ट नेता पी. राममूर्ति भारत पर कम्युनिस्ट चीन के हमले के सन्दर्भ में
क्रांतिकारियों पर कम्युनिस्ट चिह्न मत थोपो |
"न तो हम आतंक के प्रणेता हैं और न ही देश पर कलंक जैसा कि नकली समाजवादी दीवान चमनलाल ने आरोप लगाया और न ही हम पागल हैं जैसा कि लाहौर के ट्रिब्यून व अन्य पत्रों ने जताया है" ~भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त (दिल्ली सेशंस कोर्ट में 8 जून 1929 का बयान)आजकल कम्युनिस्ट विचारकों की ओर से भगतसिंह का कहा जाने वाला यह पत्र काफी विज्ञापित किया जा रहा है। इंटरनैट पर जगह जगह सायास बिखेरे गये इस पत्र के हवाले से यह जताया जा रहा है जैसे कि भगतसिंह अपने जीवन के अंतिम दिनों में नास्तिक हो गये थे। इस पत्र पर आधारित कुछ आलेखों द्वारा ऐसा माहौल बनाने का प्रयास किया जा रहा है जैसे कि अन्य सेनानी आस्तिक होने के कारण उतने खास नहीं रहे कि विदेशी विचारधारा आयात करने वाला यह दल उनका आदर कर सके। बल्कि कई क्रांतिकारियों की तो बाकायदा छीछालेदर की गयी है। एक आम भारतीय के लिये यह समझना मुश्किल है कि कोई दल ऐसा क्यों करेगा। आखिर शहीदों में भेद डालने के प्रयास के पीछे क्या कारण हो सकते हैं?
शहीदों पर लाल रंग मत लादो |
शहीदे आज़म को हत्यारों के बीच खडा मत करो |
[क्रमशः]
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सम्बन्धित कड़ियाँ
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* पण्डित राम प्रसाद "बिस्मिल" - विकीपीडिया
* महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर "आज़ाद"
* लाल गिरोह का खतरा (एस. शंकर)
* कम्युनिस्टों का मैं जानी दुश्मन हूं - डॉ. भीमराव अंबेडकर
* कम्युनिस्टों द्वारा की गयी हत्यायें
* Was Bhagat Singh shot dead?
शहीदों को जाति धर्म स्थान की उपाधियाँ देकर तोड़ दिया, उनका मन किसी ने न जाना।
ReplyDeleteआपनें एक कुत्सित विचारधारा की बखिया ही उधेड़ कर रख दी। इस विचारधारा के यथार्थ को उसके नंगे स्वरूप में ही प्रस्तुत कर दिया। एक पूज्य क्रांतिकारी के उज्ज्वल चरित्र को छूनें का पाप किया है। यह पाप इनके घडे का 100वां पाप सिद्ध होगा। लोकतंत्र का यह दुखद पहलु है कि एक क्रूर विचारधारा भी इसके तले आश्रय लिए हुए है।
ReplyDeletesundar.......samichin.......tathaytmak........
ReplyDeletepranam.
शहीद भगतसिंह जैसे राष्ट्रीय गौरव के महान व्यक्तित्व को एक संकीर्ण विचारधारा या दल से बांधकर उनके क़द को कम करने की कोशिश बहुत बुरी है और किसी भी स्वाभिमानी देशभक्त के लिये नाकाबिले-बर्दाश्त भी।
ReplyDeleteआपसे सहमत हूं मैं....
इतिहास को तोड़ने मरोड़ने की कोशिश हमेशा होती आई हैं - और "जिसकी लाठी उसकी भैंस" की तर्ज पर अक्सर सफल भी हो जाती हैं | अब ज़माना "प्रजातंत्र" का है - सो हर इन्सान के पास अपनी अपनी लाठियां है - सो कहावत यूँ हो जाएगी कि - "जिसकी लाठी जितनी जोर से घूमे -उसकी भैंस " सो कोई कोशिश करता है कि भगतसिंह कम्युनिस्ट थे यह सिद्ध हो जाए , कोई सिद्ध करना चाहता है कि ईश्वर नहीं है , कोई साबित करना चाहता है कि जो कोई ( कोई भी इंसान) सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ बुलंद करे वह खुद पता नहीं किस किस घपले में घिरा हुआ है - कोई कुछ कोई कुछ | किन्तु पढने वाले को भी अपनी समझ बूझ इस्तेमाल में लानी चाहिए | ब्रेन वाश हो जाने को तैयार बैठे रहने कहाँ की समझदारी है ?
ReplyDeleteवैसे - कम्युनिज्म अपने आप में बुरी चीज़ नहीं है - इसकी प्रॉब्लम यह है कि यह जिन शक्तिशाली लोगों द्वारा चालित है - वे अपनी शक्ति का गलत इस्तेमाल करते हैं और इतनी क्रूरता से पेश आते हैं कि लोग कम्युनिज्म को ही बुरा समझने लगते हैं | इस बारे में मैंने अपने ब्लॉग पर एक लेख लिखा था -
"मार्क्सवादी चिंतन - क्या सच में साम्यवादी समाज का निर्माण संभव है?"
इसमें मैंने यही कहने की कोशिश की कि जब एक लीडर गलत सामाजिक असमानता और भेदभाव के खिलाफ उठता है - तब वह जनसाधारण से आता है - और जनसाधारण के लिए बहुत कुछ करना चाहता है - करता भी है | लेकिन "यदि" उसका आन्दोलन सफल हो जाए और वह सत्ता में आ जाए - तो अधिकतर वह "भूल जाता है" कि उसका मुद्दा था - सब लोगों महत्व एक सा होना | वह अपने निर्णयों को दूसरों के निर्णयों से अधिक मोल देने लगता है और फिर शुरू होती है क्रूरता और भेदभाव की एक नयी पीढ़ी | अधिकतर कम्युनिस्टों के साथ भी यही हुआ - इसलिए कम्युनिज्म बदनाम हो गयी |
बहुत ज्ञानवर्धक पोस्ट है,रोचकता बनी रहेगी,आभार.
ReplyDeleteजाति धर्म में बांटने की प्रवृति न जाने कब जाएगी...
ReplyDeleteकिसी देशभक्त भारतीय ने अपने शहीदों का आदर करने से पहले कभी यह चैक नहीं किया होगा कि वे हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, आस्तिक, नास्तिक क्या थे। हमारे लिये तो भगत सिंह भी उतने ही आदरणीय हैं जितने बिस्मिल या आज़ाद।
ReplyDeletebahut sahi v prernadayak likh rahe hain aap.aabhar.
पंजाब एवं बंग आगे, कट चुके हैं अंग आगे|
ReplyDeleteलड़े बहुतै जंग आगे, और होंगे तंग आगे|
हर गली तो बंद आगे, बोलिए, है क्या उपाय ??
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !
सर्दियाँ ढलती हुई हैं, चोटियाँ गलती हुई हैं |
गर्मियां बढती हुई हैं, वादियाँ जलती हुई हैं |
गोलियां चलती हुई हैं, हर तरफ आतंक छाये --
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !
सब दिशाएँ लड़ रही हैं, मूर्खताएं बढ़ रही हैं |
नियत नीति को बिगाड़े, भ्रष्टता भी समय ताड़े |
विषमतायें नित उभारे, खेत को ही मेड खाए |
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !
मंदिरों में मकड़ जाला, हर पुजारी चतुर लाला |
भक्त की बुद्धि पे ताला, *गौर बनता दान काला | *सोना
जापते रुद्राक्ष माला, बस पराया माल आए--
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !
हम फिरंगी से लड़े थे , नजरबंदी से लड़े थे |
बालिकाएं मिट रही हैं , गली-घर में लुट रही हैं |
होलिका बचकर निकलती, जान से प्रह्लाद जाये --
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !
बेबस, गरीबी रो रही है, भूख, प्यासी सो रही है |
युवा पहले से पढ़ा पर , ज्ञान माथे पर चढ़ाकर |
वर्ग खुद आगे बढ़ा पर , खो चुका संवेदनाएं |
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !
है दोस्तों से यूँ घिरा, न पा सका उलझा सिरा |
पी रहा वो मस्त मदिरा, यादकर के सिर-फिरा |
गिर गया कहकर गिरा, भाड़ में ये देश जाए|
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !
त्याग जीवन के सुखों को, भूल माता के दुखों को |
प्रेम-यौवन से बिमुख हो, मातृभू हो स्वतन्त्र-सुख हो |
क्रान्ति की लौ थे जलाए, गीत आजादी के गाये |
व्यर्थ हमने सिर कटाए, बहुत ही अफ़सोस, हाय !
क्या कहूँ ? .... लाजवाब ... विचारोत्तेजक .....अभी शब्द नहीं मिल रहे
ReplyDeleteहर किसी का मान कोइ नहीं जनता है |लिखा बहुत खूब
ReplyDelete\
अवसरवादी जमात का खेल ही यही है सारा.. यदि अवसर हो तो अपने पिता का नाम भी श्री वैशाख नंदन प्रसाद बता दें, और ऐसी कहावत भी है!!
ReplyDeleteमगर कम से कम इन शहीदों को तो बख्श दिया होता!!
विश्व के मानचित्र पर अंकित एकमात्र हिंदू राष्ट्र का एक रात में सर्वनाश कर दिया.. क्या वो मात्र एक दुर्घटना थी???
अनुराग जी, साधुवाद आपकी इस श्रृंखला हेतु!!
ज्ञानवर्धक पोस्ट
ReplyDeleteआभार
ऐसे व्यक्तित्वों को एक विचारधारा विशेष से जोड़कर खुद को जनमानस में ग्राह्य बनाने जैसा है ये सब।
ReplyDeleteएक क्रांतिकारी की आवाज़!
ReplyDelete@वैसे - कम्युनिज्म अपने आप में बुरी चीज़ नहीं है
ReplyDeleteशिल्पा जी,
क्षमा कीजिये, जिस तंत्र के मूल में मानव मात्र की व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हरण की बात हो वह अपने आप में भी और किसी भी अन्य मिलावट के साथ भी बुरी ही है। मानवाधिकार, व्यक्तिगत संपत्ति, व्यक्तिगत सम्बन्ध, यहाँ तक कि विवाह और परिवार की अवधारणा का भी विरोध करने वाला कम्युनिज़्म दानवराज का आधुनिक रूप है। मामला यहाँ तक हो कि जिन्हें पसन्द न हो वे न अपनायें तो भी ठीक था परंतु इससे बढकर बुरी बात वहाँ आती है जहाँ शक्ति पाते ही कम्युनिस्ट अपनी विचारधारा से अलग पाये जाने वाले हर व्यक्ति को बलपूर्वक समाज या संसार से बहिष्कृत कर देते हैं।
साम्यवाद में आर्थिक साम्य नहीं ढूंढा जाता है बल्कि सत्ता के साथ वैचारिक साम्य थोपा जाता है। जिन्हें नापसन्द हो उनके लिये मृत्यु ही एकमात्र मार्ग है।
सच कहूं तो कम्युनिस्टों के प्रति मेरे मन में एक सहज ही प्रतिकार भाव आ जाता है -वे भले और कुछ हों मगर प्रेय कतई नहीं हैं !
ReplyDeleteयथार्थ परक लेख के लिए साधुवाद....
ReplyDeleteसाधुवाद...
ReplyDeleteकोटि कोटि आभार आपका....बहुत आवश्यकता है इस प्रकार के आलेखों की....
अभी तो और क्या कहूँ....
बढ़िया पोस्ट।
ReplyDelete"मानव मात्र की व्यक्तिगत स्वतंत्रता" - यही पर्याप्त है किसी विचारधारा के आकलन के लिए.
ReplyDeleteI'm partially agree with you.Communism is an ideal thought,but we all are human beings with natural limitations.I think 'DICTATORSHIP OF THE PROLETARIAT,is not a disgusting thing in books.but on real ground it did'nt work.Certainly because of hammer on human liberty & rights.So conclusion is thought is good ,but its implementation is impractical.
ReplyDeleteआपकी बात से सहमत हूं
ReplyDeleteआपको गुरु पूर्णिमा के शुभ अवसर पर सुगना फाऊंडेशन मेघलासिया जोधपुर और हैम्स ओसिया इन्स्टिट्यूट जोधपुर की ओर से हार्दिक शुभकामनाएं.
ReplyDeleteगुरुपूर्णिमा के पावन पर्व पर सभी मित्रों को मेरी हार्दिक शुभकामनाएँ
ReplyDeleteॐ
ReplyDeleteअनुराग भाई
आपने बड़े सधे हाथों कम्यूनिस्ती पाखण्ड का पर्दाफ़ाश किया है - आपका इशारा समझ रही हूँ :)
और भारतीयों की एक ये भी आदत है जिससे खीज उठती है वह है , देखते हुए भी अनदेखा करना -
चीन सरकार आज कमर कस कर विश्व की सर्वोच्च सत्ता बनने पर आमादा है
अमरीका को , डांट डपटने से बाज नहीं आ रहे सताधीश चीनी ! अमरीका उधार लिए बैठा है अपनी टोपी सम्हालने की कवायद
मे , आंतरिक विघटन से लस्त - पस्त हुआ भविष्य के लिए सफलता खोज रहा है
और चीन , भारत की विजय घोष स्वर लिए एक मात्र ' नद ' ( पुरुष ) ' ब्रह्मपुत्र ' को चीन की ओर मोड़ने की योजना को आकार
देने मे व्यस्त है और भारत के सतारूढ़ , क्या कर रहे हैं ? कुछ भी नहीं ! कितने अफ़सोस की बात है ये ...
स - स्नेह
- लावण्या
अनुराग जी
ReplyDeleteपिछली दो कडिया पढ़ी और ये भी पर पता नहीं लेख में कही कही इस बात का आभास हो रहा था जैसे जिस बात का आप विरोध कर रहे है कही कही आप भी वही बात कर रहे है | हम भगत सिंह को उनके देश भक्ति के लिए देश को आजाद करने के लिए उनके सर्वोच्च बलिदान के लिए जानते है और आगे भी इसी बात के लिए जानते रहेंगे | मुझे नहीं लगता है की एक आम आदमी कभी भी इस बात में रूचि लेता होगा की वो किसी धर्म के थे जाति के थे आस्तिक नास्तिक समाजवादी कम्युनिष्ट आदि आदि थे या नहीं | इन सब बातो से क्या फर्क पढ़ेगा यदि एक बार मान भी लेते है कि वो कम्युनिष्ट थे तो क्या उसके बाद उनकी सोच बदल जाएगी क्या इससे ये साबित हो जायेगा की वो देश के लिए नहीं कम्युनिष्टो के लिए लड़ रहे थे और फिर नास्तिक होने का अर्थ कम्युनिष्ट होना कब से हो गया | कहने का अर्थ मेरा वही है जो आप कह रहे है कि हम भगत सिंह या अन्य किसी भी क्रन्तिकारी को देश के लिए किये गये उनके कामो के कारण जानते पहचानते और सराहते है ना कि इसलिए कि वो किसी खास विचार धारा से जुड़े थे | यहाँ इस बात पर ज्यादा जोर क्यों दिया जा रहा है कि वो कम्युनिष्ट नहीं थे मुझे लगता है की आज के युवा को उनके बारे में और बहुत कुछ जानने की आवश्यकता है इस जानकारी के अलावा क्योकि आज के युवाओ ( सिर्फ युवा क्यों बहुतो को ) को उनके बारे में जानकारी ना के बराबर है कारण सभी को पता है | अपनी बात करू तो काफी बड़े होने के बाद मुझे इस सवाल का जवाब मिला की आखिर वो भागे क्यों नहीं पकड़ा जाना क्यों स्वीकार किया | मुझे लगता है ये ज्यादा अच्छा होगा की उनसे जुड़े कुछ दूसरे तथ्यों को विचारो को सभी के सामने लाना चाहिए जो आम तौर पर लोगो को नहीं पता होते है या जिनके बारे में कम जानकारी है |
अंशुमाला जी, धन्यवाद!
ReplyDeleteजिस कुत्सित प्रचार का खुलासा करने के लिये यह आलेख लिखा गया है वह प्रचार भगतसिंह को नास्तिक कहने तक सीमित नहीं है। शहीदे आज़म को नास्तिक कहना तो तुच्छ राजनैतिक लाभ उठाने के लिये बनाये गये षडयंत्र की भूमिका मात्र है। अलग-अलग देखने पर यह गतिविधियाँ मासूम सी दिख सकती हैं परंतु एक विशिष्ट राजनैतिक विचारधारा द्वारा फैलाये और झूठ पर टिके इस षडयंत्र के कुछ अन्य हिस्सों को देखने पर पूरी तस्वीर साफ़ हो जाती है। इस प्रक्रिया के कुछ अंग निम्न हैं जिनका वर्णन उपरोक्त श्रंखला में करने का प्रयास है -
- भगत सिंह का नाम अपने धर्मविरोधी आलेखों में घसीटना
- भगत सिंह चित्रों पर अपनी पार्टी का रंग उडेलना
- भगत सिंह के चित्र को कम्युनिस्ट तानाशाहों के साथ जोडकर लगाना
- आलेखों में भगत सिंह को कम्युनिस्ट बताना
- जिन शहीदों की आस्तिकता के स्पष्ट प्रमाण हैं उन्हें साम्प्रदायिक कहना - यहाँ तक कि भारत में1857 के बाद के में सशस्त्र संघर्ष के प्रणेता चाफ़ेकर शहीदों को भी आदर करने के बदले साम्प्रदायिक कहा जा रहा है।
मेरी आपत्ति किसी भी शहीद का राजनैतिक लाभ लेने पर है। परंतु हमारे क्रांतिकारियों के केस में तो यह लाभ उठाने का काम वह पार्टी कर रही है जिसका उनके निस्वार्थ त्याग से कभी कोई सम्बन्ध रहा ही नहीं।
आशा है कि इस टिप्पणी में वे बातें स्पष्ट हुई होंगी जो आलेख में छूट गयी हैं। समय मिलने पर उन्हें आलेख में समाहित कर लूंगा।
आपने बहुत ही विचारोत्तेजक बहस शुरु की है। मुझे लगता है, 'बात दूर तलक जाएगी।' रोचक होगा यह देखना कि आगे-आगे होता है क्या?
ReplyDeleteमुझे यह भी लगता है कि कम्यूनिस्ट होने के लिए नास्ितक अथवा धर्म विरोधी होना जरूरी रहा होगा। 'वाद' की मूल अवधारणा में यह बात शायद ही रही हो। जितना कुछ मैंने पढा है, साम्यवाद ने 'धर्म को अफीम की तरह' प्रयुक्त करने पर असहमति (और शायद आपत्ति भी) जताई है, धर्म पर नहीं। यह तो 'माअर लॉयल टू द क्वीन देन हरसेल्फ' जैसा लगता है - साम्यवाद से आगे बढकर साम्यवाद के प्रति निष्ठा जताना। बिलकुल वैसे जैसे कि 'इन्दिरा इज इण्डिया एण्ड इण्डिया इज इन्दिरा' कहा गया था।
मात्र प्रसंगवश उल्लेख है कि संघ परिवार भी अपने आयोजनों और समारोहों में भगतसिंह के चित्र 'बडे चाव' से प्रदर्शित करता है।
विष्णु जी,
ReplyDeleteवीरों के योगदान को सराहा जाये, उनके चित्र हर जगह लगें, उनकी चिताओं पर रोज़ मेले लगें, इससे बडी प्रसन्नता की बात क्या होगी? लेकिन किसी कमोडिटी की तरह उनमें से पार्टी के लिये लाभप्रद और हानिप्रद की श्रेणी में डालकर सच-झूठ का प्रचारवाद तो ग़लत ही है।
देशभक्ति भाव से भले हर व्यक्ति शहिदों के चित्र घर घर लगा दे, उनका सम्मान ही है। पर अपनी कलुषित विचारधारा के पोषण के हेतु उनके नाम व तस्वीरों का दुरपयोग करे,उनके महान त्याग का अपमान है।
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